मानेकशा और मैं
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
अध्याय 1.-----प्रथम शौर्य पुरस्कार तक
भारत की सेना के तीनों अंगों -स्थल सेना, जल सेना और वायुसेना को ही नहीं, बल्कि समस्त देश वासियों को उन पर नाज़ था. फील्ड मार्शल करियप्पा के बाद इस गौरवमय पद को सुशोभित करने वाले भारतीय थलसेनाध्यक्ष अकेले वे ही तो थे. वे भारतीय सैनिकों के आदर्शपुरुष ही नहीं, सबसे चहेते सेनाध्यक्ष भी थे. उनका औपचारिक नाम, फील्ड मार्शल सैम हर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा, मिलिटरी क्रोस, परम विशिष्ट सेवा मैडल, अतिविशिष्ट सेवा मैडल लिखने के लिए एक बहुत लम्बे से नामपट्ट की आवश्यकता होगी. वह भी तब, जबकि पद्म विभूषण और पद्मभूषण जैसे नागरिक सम्मानों को सैन्य सम्मानों की तरह नाम के साथ जोड़कर लिखने की परिपाटी नहीं है. पर इस गरिमामय नाम को सेना के जवानों ने संक्षिप्त करके जिस अपनापन के साथ “ सैमबहादुर” बना दिया था उसमें उनके प्रति असीम प्यार, सम्मान और श्रद्धा छलकते थे. किसी सेनाध्यक्ष की जीवनगाथा उसके शौर्य, पराकम, नेतृत्व और उसके द्वारा लड़ी और जीती हुई लड़ाइयों के वर्णन पर केन्द्रित होगी. लेकिन सैम मानेकशा के व्यक्तित्व के मानवीय पहलुओं का ज़िक्र किये बिना भारत माता के इस लाडले का जीवन वृत्तान्त पूरा नहीं हो सकता. तभी तो उनके संपर्क में आनेवाला कोई व्यक्ति आजीवन मानेकशा को अपने से अलग नहीं कर पाता. इस पुस्तक के शीर्षक “मानेकशा और मैं” के पीछे उनका ही चुम्बकीय वक्तित्व छिपा हुआ है, मेरा अहम् नहीं.
3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में जन्मे सैम की मृत्यु 94 वर्ष की आयु में 27 जून 2008 में हुई थी. इन्डियन मिलिटरी अकादेमी के प्रथम बैच में प्रवेश पाकर 1934 में सेकेण्ड लेफ्टिनेंट के रूप में जिस पहली पलटन के माध्यम से वे सेना में अफसर बने वह पहले रॉयल स्कोट्स की दूसरी बटालियन थी. बाद में वह बारहवीं फ्रंटियर फ़ोर्स की चौथी बटालियन में आये जो बाद में 54 वीं सिख पलटन कहलाई. देश के विभाजन के बाद वे 16वीं पंजाब रेजिमेंट में आ गए. देश के आठवें थलसेनाध्यक्ष के पद को उन्होंने आठ जून 1969 से सुशोभित किया था. वे ह्रदय से और अपने शरीर के रोम रोम से केवल एक सिपाही थे. सैनिक का कर्तव्य जी जान से निभाएं बस यही उनके जीवन का मूलमंत्र था. वे कर्म योगी थे. नक्षत्रों और कुंडलियों का कोई भी समीकरण उनके जैसे व्यक्ति के लिए केवल सफलता का आह्वान कर सकता था.
एक पारसी धर्मावलम्बी डॉक्टर की संतान के रूप में 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में जन्मे सैम हर्मुस फर्हाम जी जमशेद जी मानेकशा का जन्म जिस साल हुआ उसी वर्ष प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया था. विश्वयुद्ध की साया में जन्मे इस बालक को सेना में जाने का अवसर मिला इन्डियन मिलिटरी अकादमी के सबसे पहले बैच के सदस्य के रूप में. इससे पहले ब्रिटिश भारतीय सेना के गिने चुने भारतीय अफसरों का प्रशिक्षण इंग्लैण्ड में ही होता था. फरवरी 1934 में उन्हें कमीशन मिलने के पांच वर्षों के अन्दर ही द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया. सैनिक अधिकारी के रूप में उनका जीवन एक से बढ़कर एक रक्तरंजित युद्ध लड़ते ही बीता. द्वितीय विश्वयुद्ध में बर्मा फ्रंट पर जापानी सेनाओं से लड़ते हुए जिस सैनिक जीवन का आरम्भ हुआ वह आगे चलकर 1947 के कश्मीर ओपरेशंस, 1962 के चीन के अतिक्रमण और 1965 में भारत पाकिस्तान की लड़ाइयों में तपकर खरे सोने की तरह दमकने लगा था. इन्ही अनुभवों ने तो उन्हें 1971 के भारत पाक युद्ध में भारत के थलसेनाध्यक्ष के रूप में अभूतपूर्व सफलता पाने के लिए तैयार किया था.
पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं. सैन्यजीवन की पहली ही परीक्षा में सैम मानेकशा ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया. 1942 में बर्मा फ्रंट पर जब ब्रिटिश सेनाओं और जापानी सेनाओं के भीषण संघर्ष के दौर का समय था, जमा पूंजी 28 वर्ष की आयु वाले तरुण कप्तान मानेकशा को सित्तांग नदी पर एक मुठभेड़ में जापानी सेनाओं के आक्रमण को विफल करने की ज़िम्मेदारी मिली. दुश्मन की गोलियों से उनका शरीर छलनी हो रहा था पर जब तक वे होश में रहे शत्रु के घातक हमले का सामना असाधारण पराक्रम के साथ करते रहे. उनकी पलटन तब ब्रिटिश सेना की सत्रहवीं इन्फैन्ट्री डिवीजन का अंग थी. उनके डिवीजन के कमांडर जेनेरल डेविड कोवन उस तरुण भारतीय कैप्टेन की बहादुरी से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उसके शौर्य का सम्मान तत्कालीन मिलिटरी क्रोस से करने का निश्चय कर लिया. पर यह शौर्य पुरस्कार जीते जी ही दिया जाता था, मरणोपरांत नहीं. इधर कैप्टेन मानेकशा मरणासन्न हालत में बेहोश पड़े थे. तमाम औपचारिकताओं की अनदेखी करके जेनेरल डेविड कोवेन ने अत्यंत सहृदयता से अपनी वर्दी से मिलिटरी क्रोस के रिबन को निकाल लिया ( वे स्वयं इस उच्च शौर्य पुरस्कार से सम्मानित थे) और तत्काल मरणासन्न कप्तान मानेकशा की वर्दी के सीने पर लगा दिया. लगता है इस अभूतपूर्व सम्मान को देखकर मौत भी लज्जित हो गयी. मानेकशा लम्बे समय तक सैनिक अस्पताल में उपचार पाने के बाद अंत में फिर उठ खड़े हुए. होते भी कैसे नहीं. अभी तो आगे चलकर उन्हें एक ऐसे युद्ध में भारतीय सेना का नेतृत्व करना था जो सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कई कारणों से अभूतपूर्व माना जायेगा.
अध्याय 2. कप्तान से थलसेनाध्यक्ष बनने तक की गौरवमयी गाथा.
आधुनिक फ्रांस के निर्माता नेपोलियन बोनापार्ट किसी सेनापति के विषय में पहला सवाल ये पूछते थे कि वह भाग्यशाली है कि नहीं. सैम मानेकशा किस्मत के धनी नहीं होते तो बर्मा के मोर्चे पर गुर्दे, यकृत और आंत में मशीनगन की सात गोलियां लगने के बाद शायद जीवित ही नहीं बचते. अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध 1971 में पाकिस्तान के साथ जब उन्हें लड़ना पडा तो बाबू जगजीवन प्रतिरक्षा मंत्री थे. वे भी किस्मत के धनी माने जाते थे. रेल, कृषि या प्रतिरक्षा जो भी मंत्रालय उन्होंने संभाला उसमे उन्हें आशातीत सफलता मिली. लेकिन थलसेनाध्यक्ष का पद संभालने तक मानेकशा भाग्य के भरोसे नहीं बैठे थे. भाग्य उसी का साथ देता है जो अवसर आने पर उसका वरण करने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध और तैयार मिले. थलसेना के सर्वोच्च पद तक पहुँचने के पहले उन्हें सेना में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम करके युद्धकौशल का भरपूर अध्ययन करने के लगातार अवसर मिले. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अगस्त 1943 से उस साल के अंत तक उन्हें क्वेटा में स्थित कमांड एवं स्टाफ कोलेज में स्टाफ कोर्स का अध्ययन करने का अवसर मिला. वैज्ञानिक ढंग से आधुनिक युद्ध के योजनाबद्ध संचालन का ज्ञान इस कोर्स में अर्जित करने के बाद उन्हें उसे व्यवहार में लाने का अवसर मिले इसके पहले ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत का दो हिस्सों में बँटवारा हो गया. मानेकशा की बारहवीं फ्रंटियर फ़ोर्स रेजिमेंट पाकिस्तान को दे दी गयी और उनकी नियुक्ति 16वीं पंजाब रेजिमेंट में हो गयी. कालांतर में वे पांचवीं गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की तीसरी बटालियन में भेजे गए. इसके बाद गोरखा रेजिमेंट से उनका जीवन भर का अटूट सम्बन्ध बना रहा.
अपनी वीरता, निर्भयता, वफादारी और सीधे सरल स्वभाव के लिए गोरखा सिपाही विश्व भर में विख्यात हैं. सैम मानेकशा के स्वभाव और चरित्र में उन गोरखा सैनिकों का स्वभाव और मानसिकता दर्पण जैसी प्रतिबिंबित होती है. गोरखा सैनिकों के बारे में उनके एक कथन की याद की जाती है कि “यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसे डर नहीं लगता तो या तो वह परले सिरे का झूठा है या फिर वह एक गोरखा है”. इस प्यार और विश्वास के चलते गोरखा सैनिकों में वे इतना घुल मिल गए कि उन्ही का बहुत प्यार से दिया हुआ नाम सैमबहादुर तीनों सेनाओं के सैनिकों और अधिकारियों के बीच उनकी स्थायी पहचान बन गया. सेना में बहुत ऊंची रैंक के अधिकारियों को किसी विशेष रेजिमेंट का कर्नल कमानडांट बनाकर आजीवन उसका अभिभावक बने रहने का सम्मान दिया जाता है. सैम बहादुर को भी आगे चलकर आठवीं गोरखा रायफल्स रेजिमेंट का कर्नल कमानडांट बना कर सम्मानित किया गया. गोरखा सैनिकों के चहेते मानेकशा को आगे चलकर नेपाल की शाही सेना में मानद जेनरल की उपाधि भी दी गयी. भारत और नेपाल के परम्परागत मधुर संबंधों को गोरखा सैनिकों के इस लाडले ने और गहन कर दिया.
भारत के विभाजन के पश्चात मानेकशा को अनेक स्टाफ पदों पर रहते हुए सैन्य संचालन और आयोजन का व्यावहारिक अनुभव पाने के समुचित अवसर मिले जो थलसेना मुख्यालय में ही मिल सकते थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अनेक उच्चपदस्थ ब्रिटिश अधिकारियों के भारत से चले जाने के पश्चात उच्चपदों पर संयोजन करने वाले अधिकारियों की बहुत कमी हो गयी थी. सैम मानेकशा के लिए अपनी योग्यता मांजने, चमकाने का यह सुनहरा अवसर था. उन्हें ब्रिगेडियर रैंक के साथ स्थलसेना मुख्यालय में डायरेक्टर मिलिटरी ओपरेशंस के महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति मिल गयी. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस पद का सीधा सरोकार सक्रिय सैन्य गतिविधियों से था. तभी इसे संभालने के पश्चात उन्हें एक इन्फैन्ट्री ब्रिगेड की कमान सौंप दी गयी. यह एक मजेदार तथ्य है कि सेना में शीर्ष पदों तक पहुँचाने वाले सोपानों में सबसे महत्वपूर्ण सोपान समझा जाता है किसी बटालियन की कमान संभालना जो आगे चलकर सेना की वृहद् इकाइयों की कमान संभालने के लिए समुचित अनुभव देता है. पर सैम बहादुर शायद बड़े बड़े काम करने के लिए ही बने थे. तभी बटालियन की कमान संभाले बिना उन्हें सीधे एक इन्फैन्ट्री ब्रिगेड की कमान सौंप दी गयी. थोड़ा विषय परिवर्तन लग सकता है पर इससे क्या नरेन्द्र भाई मोदी जी का ध्यान नहीं आता है जिन्होंने जीवन में पहली बार भारत के संसद भवन में कदम रखा तो सीधे प्रधान मंत्री का गरिमामय पद संभालने के लिए रखा. ब्रिगेड कमांडर के रूप में उनके प्रशंसनीय कार्य का नतीजा था कि इसके बाद उन्हें महू की सैनिक छावनी में स्थित इन्फैंट्री स्कूल के कमानडांट के पद पर नियुक्त किया गया. इन्फैन्ट्री अर्थात पैदल सेना थलसेना का मेरुदंड मानी जाती है. इनफैंटरी स्कूल उसकी पलटनों के अधिकारियो को कमान सम्भालने का प्रशिक्षण देने वाला सेना का सबसे महत्वपूर्ण विद्यालय है. अब इसे कॉलेज ऑफ़ कम्बैट अर्थात सामरिक महाविद्यालय का अधिक गरिमामय नाम दिया गया है. इसके पश्चात ही वे आठवीं गोरखा रायफल्स के कर्नल कमाडांट बना दिये गए. सैन्य प्रशिक्षण देने वाली स्थल सेना की संस्थाओं में मैनेकशा की नियुक्तियां दिखाती हैं कि सैन्य विज्ञान के बहुत अच्छे विद्वान् के रूप में उनकी प्रतिभा को पहचान लिया गया था और एक सफल गुरु के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी. परिणामतः केवल थल सेना ही नहीं बल्कि तीनों रक्षा सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों को युद्ध विज्ञान में प्रशिक्षण देने वाले डिफेन्स सर्विसेज़ स्टाफ कोलेज में उनकी नियुक्ति कर दी गयी. धारदार सूझ बूझ, सैन्य विज्ञान की गहरी पकड़ और मनोरंजक वक्ता होने की कला पर पूरा अधिकार! ये तीनों ऐसे महत्वपूर्ण गुण उनके पास थे कि ऊटी के निकट कुनूर के रमणीक हिल स्टेशन में स्थित इस अत्यंत महत्वपूर्ण सैन्य शिक्षा संस्थान में उन्होंने तीनों सेनाओं के प्रशिक्षणार्थियों का दिल जीत लिया. अन्य उपलब्धियों के साथ एक सफल अध्यापक होने की प्रशस्ति भी उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का हिस्सा बन गयी.
इन्फैन्ट्री स्कूल और डीफेंस सर्विसेज़ स्टाफ कॉलेज, दोनों ही संस्थाओं में अध्यापन और प्रशिक्षण के किरदार में सफल होने वाले मानेकशा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी उनका खुला स्वभाव और स्पष्ट वक्तृता थी. लेकिन ये दोनों ही गुण कभी कभी दुधारी तलवार का काम करते हैं. कारन थापर से एक टी वी इंटरव्यू में उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी से अपने एक वार्तालाप का जो विवरण दिया था वह उनकी बेबाकी का सबसे सुन्दर और प्रसिद्ध उदाहरण है. 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद उनकी असीम लोकप्रियता से घबराकर इंदिरा जी ने उन्हें एक बार सुबह सुबह अपने निवास पर बुलाया. वे गए तो उन्होंने इन्दिराजी को बहुत चिंतित मुद्रा में पाया. परेशानी का कारण पूछने पर इंदिराजी ने दोटूक ढंग से उनसे कहा कि अफवाहों के अनुसार वे उन्हें सैनिक क्रान्ति से अपदस्थ कर के स्वयं देश की बागडोर संभालना चाहते थे, क्या यह सच था? थलसेनाध्यक्ष मानेकशा का उत्तर था “आपका काम सरकार संभालना है और मेरा काम है सेना को संभालना. आप मेरे काम में दखलंदाजी न करें तो मेरा आपके काम में दखलंदाजी करने का कोई इरादा नहीं है.” आँखों में आँखें डालकर एक शरारती मुस्कान के साथ देश के प्रधानमंत्री को ऐसा करारा और स्पष्ट उत्तर देने वाले थलसेनाध्यक्ष की बात पर इंदिराजी ने पूरी परिपक्वता के साथ विश्वास किया. जितनी समझदारी और सहृदयता इंदिराजी ने मानेकशा की साफगोई और खुलेपन के प्रति दिखाई काश उतनी ही 1962 के भारत चीन युद्ध के दिनों के असफल रक्षामंत्री वी के कृष्णामेनन ने दिखाई होती. वे तो फरक मिटटी के बने थे. जिन दिनों मानेकशा डिफेन्स सर्विसेज़ स्टाफ कालेज के कमानडांट थे, उनके इसी गुण से क्षुब्ध रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने मानेकशा के विरुद्ध एक कोर्ट ऑफ़ इन्क्वायरी बैठा दी. पर लेफ्टिनेंट जेनरल दौलत सिंह की अध्यक्षता में गठित इस अदालत द्वारा इन आरोपों को खारिज करने के पहले ही भारत चीन सीमा पर चीन के अप्रत्याशित आक्रमण ने भारत को झिंझोड़ कर रख दिया. मानेकशा के खिलाफ जिस अनुशासनात्मक कार्यवाही का पहला कदम उठाया गया था उसके खारिज होने की रपट मिलने से पहले ही लेफ्टिनेंट जेनरल पद देकर चीन की सेनाओं से आक्रान्त असम के तेजपुर में नंबर चार कोर की कमान संभालने के लिए मानेकशा को भेजने को छोड़कर कृष्णा मेनन साहेब के पास और कोई चारा नहीं था. तेजपुर पहुंचकर दिया गया लेफ्टिनेंट जेनरल मानेकशा का पहला आदेश अविस्मरणीय था -“याद रखें , मेरा लिखित आदेश पाये बिना किसी भी स्थान से हमारी सेना की कोई इकाई पीछे नहीं हटेगी. और यह भी याद रहे कि ऐसा कोई आदेश मुझसे नहीं मिलने वाला.”
1962 के अप्रत्याशित चीनी आक्रमण में भारतीय सेनाओं को प्रधान मंत्री नेहरू की अव्यावहारिक विदेश नीति, विशेषकर चीन नीति और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन के दुर्भाग्यपूर्ण मंत्रिपद संचालन का जो खामियाजा भुगतना पडा वह सर्वविदित है. यहाँ उसे दुहराने से कोई लाभ भी नहीं. बहरहाल, इस नियुक्ति के बाद लेफ्टिनेंट जेनरल मानेकशा को जो अगला पद मिला वह था सेना की पश्चिमी कमान का जेनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ का अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर उत्तरदायित्व वाला पद. बाद में तेजपुर में उनके कोर कमांडर पद के अनुभवों को देखते हुए उन्हें थलसेना की पूर्वी कमान सौंपी गयी. 1964 में उन्होंने कलकत्ते के अपने मुख्यालय में यह पद सम्भाला. चीन का मामला तो इस बीच ठन्डे बस्ते में पडा रहा, लेकिन पूर्वी कमान के क्षेत्र में सशस्त्र नागा विद्रोहियों ने भयंकर समस्या खडी कर रखी थी. इन नागा विद्रोहियों से जूझने के लिए सैम बहादुर जैसे निडर, कुशल और सूझबूझ वाले सेनापति से बेहतर और कौन था. नागालैंड की सशस्त्र क्रान्ति से निपटने की महत्वपूर्ण सफलता के लिए मानेकशा को भारत सरकार ने 1968 में पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया. इसके बाद वे थलसेनाध्यक्ष के रूप में थलसेना के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठ हुए. उस पद पर उनकी स्वर्णिम सफलता का इतना तो अधिकार बनता ही है कि उसकी चर्चा एक स्वतंत्र अध्याय में की जाये. तो चलें उस अगले अध्याय में जहाँ उनके पराक्रम के फलस्वरूप बांगला देश के रूप में एक नया देश अस्तित्व में आया.
अध्याय ३ थलसेनाध्यक्ष पद: युद्ध का अद्भुत संचालन और अभूतपूर्व सफलता
भारतीय थलसेना के महत्वपूर्ण पदों पर कदम जमाते हुए अंत में सैम मानेकशा उस अंतिम सोपान पर पहुँच गए जो किसी भी सैनिक को एक सपना सा लगता है. एक ऐसा मनभावन सपना जो सहस्रों सैनिक अधिकारियों की आँखों में बस एक दिवास्वप्न जैसा धूमिल बुलबुला होता है- आँख खुलते ही अदृश्य हो जाने वाला. लेकिन जिस बिरले भाग्यशाली के लिए सच हो जाए उसके लिए आकांक्षा के सर्वोच्च शिखर पर गडे हुए एक विजयध्वज जैसा होता है यह सपना. 7 जून 1969 को मानेकशा का यह सपना सच हुआ जब उन्होंने भारत के आठवें थलसेनाध्यक्ष का पद ग्रहण किया.
इसे भारत का सौभाग्य समझें कि भारतीय सेना से बारबार टक्कर लेने की पाकिस्तान की मृत्यु आकांक्षा ( डेथ विश ) 1965 के युद्ध के बाद भी बुझी नहीं थी. जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की तरफ भागता है. एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की मौत का ही इसरार रहा होगा कि भारत को एक निर्णायक युद्ध के लिए वह तब मजबूर करे जब उसके प्रधान मंत्री के रूप में दुर्गा भवानी स्वयं इंदिरा गांधी बनकर विराजमान थीं और उनके सिंह के रूप में उनके साथ थे जेनरल सैम मानेकशा. इंदिरा जी के व्यक्तित्व के अन्य कई रूप विवादास्पद हो “सकते” नहीं बल्कि “हैं”. पर पाकिस्तान की चुनौती का डटकर सामना करने के लिए भगवान ने उन्हें सैमबहादुर जैसा सेनाध्यक्ष दिया और साथ में दी सुबुद्धि कि एक सूझबूझ वाले परिपक्व और निडर सेनाध्यक्ष की सलाह को वे समझदारी और परिपक्वता के साथ ले सकें.
स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतना बड़ा संकट पहले कभी नहीं आया था. अतिथि देवो भव का मन्त्र जपने वाला यह देश स्वयं अपनी निर्धनता से जूझ ही रहा था कि असंख्य भूखे नंगे विस्थापित शरण की गुहार करते हुए उसके छलनी जैसी छिद्रदार पूर्वी सीमाओं में बिन बुलाये मेहमान की तरह घुस आये. 1970-71 के वर्षों का पकिस्तान का इतिहास मानवता के इतिहास का सबसे लज्जाजनक अध्याय है. गणतांत्रिक चुनाव में पूर्वी पकिस्तान में अपनी हार से क्षुब्ध पाकिस्तानी सरकार ने अपने पूर्वी अंग के नागरिकों पर वह ज़ुल्म और कहर ढाया जो कोई देश अपने दुश्मनों से भी नहीं करता. आतंक, लूटपाट और बलात्कार के शिकार बंगाली पाकिस्तानी पूर्वी पाकिस्तान से पलायन कर के लाखों की संख्या में भारत में घुस आये. इंदिरा जी ने विश्व भर के नेताओं से इस समस्या का समाधान करने के लिए मदद मांगी पर किसी महाशक्ति के कानों पर जूँ भी नहीं रेंगी. जब युद्ध के सिवा और कोई चारा नहीं रह गया तो प्रधान मंत्री इंदिरा ने अप्रैल 1971 में थलसेनाध्यक्ष मानेकशा से पूछा कि क्या सेना इस चुनौती के लिए तैयार थी. मानेकशा ने साफ़ कहा कि इस चुनौती का सामना करने के लिए यह उचित समय नहीं था. उन्होंने समझाया कि बहुत जल्द मानसून के आते ही पूर्वी पाकिस्तान की जलप्लावित भूमि थलसेनाओं को आगे बढ़ने देने में भयंकर प्रतिरोध उत्पन्न करेगी. पंजाब के रणक्षेत्रों में भी टैंकों आदि का चलाना दुष्कर हो जाएगा. अतः बेहतर होगा कि मानसून की समाप्ति के बाद अर्थात अक्टूबर के बबाद ही युद्ध छेडा जाए. तबतक सेना की तय्यरियाँ भी पूरी हो जायेंगी. देश का सौभाग्य है कि श्रीमती गांधी ने उनके सुझाव को स्वीकार करने की परिपक्वता दिखायी.
फिर तो दिन रात एक करते हुए तीनों सेनायें युद्ध की तय्यारी में जुट गयीं. उनकी तय्यारी से घबराकर दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान ने भारतीय वायु सेना के हवाई अड्डों पर आक्रमण करके आत्महत्या का कदम उठा दिया. 1971 के भारत पाक युद्ध के विषय में इतना कुछ लिखा जा चुका है, और यह हमारे इतिहास का इतना हालिया अध्याय है कि विस्तार में इसके बारे में लिखना अनावश्यक है. संक्षेप में इतना कहना समुचित होगा कि मानेकशा की युद्ध नीति में पूर्वी पकिस्तान को चारों तरफ से घेर कर समर्पण करने के लिए मजबूर करना ही मुख्य लक्ष्य था. अनावश्यक रक्तपात उन्हें अभीष्ट न था. इधर वायुसेना ने पूर्व पकिस्तान की वायुसेना को नेस्तनाबूद किया, नौसेना ने बंगाल की खाड़ी में पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी का शिकार कर के सागर पर अपना अधिपत्य किया और उधर मानेकशा की सेनायें ढाका तक पहुँच गयीं. फिर विश्व के सामरिक इतिहास के सबसे बड़े आत्मसमर्पण में 98000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के लेफ्टिनेंट जेनरल जगजीत सिंह आरोरा के सामने हथियार डाल दिए. इस शानदार जीत से भी अधिक शानदार था मानेकशा के व्यक्तित्व का वह पहलू जिसके चलते जब प्रधान मंत्री ने उन्हें पाकिस्तानी आत्मसमर्पण समारोह के लिए ढाका जाने को कहा तो उन्होंने अपने स्थानीय कमांडर ले. जे, आरोरा को यह अभूतपूर्व सम्मान दिए जाने की सिफारिश की. अंत में वही किया गया. पाकिस्तान को उस करारी हार का दंश हमेशा याद रहेगा. पाकिस्तानी युद्धबंधियों को जो सैनिकोचित सम्मान मानेकशा ने देना सुनिश्चित किया उससे भारत को अपने इस सपूत की करुणा और मानवीय संवेदना सदा याद रहेगी. द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जेनरल डेज़ी के अधीन इंडोचाइना में 10,000 युद्ध बंदियों को संभालने की ज़िम्मेदारी तब मेजर मानेकशा ने निभाई थी. उनका वह अनुभव उससे दस गुने पाकिस्तानी सैनिकों के काम आया.
युद्ध की समाप्ति के बाद जेनरल मानेकशा ने सेना ही नहीं, समस्त भारतवासियों के दिल पर राज किया. उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से नवाज़ा गया . 1 जनवरी 1973 को जब वे फील्डमार्शल बनाए गए तो इस पद को गौरवान्वित करने वाले वे फील्डमार्शल करियप्पा के बाद दूसरे सैनिक थे. फील्डमार्शल कभी सेवानिवृत्त नहीं होता है. भारतमाता के इस सपूत के पिता वलसाध ( गुजरात ) के थे. अमृतसर (पंजाब ) में उसने जन्म लिया, पूर्व पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दिया और अंत में कुन्नूर में जाकर वह बस गया. 27 जून 2008 को चौरानबे साल की आयु में नीलगिरी के वेलिंग्टन सैनिक अस्पताल में अंतिम सांस लेकर उसने सिद्ध कर दिया कि पूरे भारत के दिलों पर उसका राज था.
अध्याय 4—योद्धा तो वह पराक्रमी था, पर इंसान कैसा था?
प्रसिद्द शायर अकबर इलाहाबादी ने एक जगह कहा है “ बुध्धू मियाँ भी हज़रते गांधी के साथ हैं, ज़र्रा हुए तो क्या हुआ, गांधी के साथ हैं.”( ज़र्रा=धूल का कण) . मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे सैम बहादुर के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला था. पर अपने अनुभव बताने से पहले उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं को दूसरों के अनुभवों से उजागर करना चाहूँगा.
उनकी वीरता, कुशल नेतृत्व और युद्ध निर्देशन तो जगजाहिर है. पर उनके व्यक्तित्व की सादगी, ईमानदारी, खुलापन और विनोदप्रियता भी विख्यात थे. सित्तंग के युद्ध में मिलिटरी क्रोस से सम्मानित होने के बाद जब वे स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे तो किसी ने उनसे लंगडाने का कारण पूछा. उत्तर मिला “ हमारे असलहा लादने वाले खच्चर ने लात मार दी थी”. 1971 के युद्ध के बाद सैनिक अस्पतालों के दौरे करते हुए वे घायल सिपाहियों से बात चीत कर के लगातर उनका मनोबल बढाने में जुटे रहते थे. एक घायल सैनिक ने जब उन्हें बताया कि उसे मशीनगन की तीन गोलियां लगी थीं तो फुसफुसा कर उन्होंने एक रहस्य उससे साझा किया. बोले “जवानी के दिनों में मुझे नौ गोलियां लगी थीं और देखो आज मैं थलसेनाध्यक्ष बन गया हूँ. तुम्हे तीन ही लगीं तो शायद तुम चीफ तो नहीं बन पाओ पर भविष्य तुम्हारा भी उज्वल है.”
आत्मश्लाघा से कोसों दूर रहने वाले इस सैनिक को कभी किसी को अपने पद से आतंकित करने की तमन्ना नहीं हुई. उन्हें जेनरल से भी अधिक प्यारा संबोधन सैमबहादुर लगता था. अपनी फील्ड मार्शल की पदवी तक को उनकी विनोदप्रियता बक्शती नहीं थी. अशोक मेहता जी के एक संस्मरण के अनुसार फील्ड मार्शल को एक बार किसी कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की सदस्यता खोनी पड़ी और उनकी जगह जो सज्जन चुने गए उनका नाम था श्री नायक. ध्यान रहे, सेना में साधारण जवान को पहली पदोन्नति मिलती है तो वह नायक बनता है. इसी सन्दर्भ में सैमबहादुर ने मुस्कराकर कहा था “ शायद यह पहली बार हुआ है कि एक फील्डमार्शल को एक नायक ने उसके पद से विस्थापित कर दिया. ‘
मैं सौभाग्यशाली था कि 1967 से 1970 तक वायुसेना की एक इकाई में सेवारत था जो पूर्वी सेना के जेनरल ऑफिसर कमांडिंग इन्चीफ को हवाई सेवा प्रदान करती थी. तत्कालीन पूर्वी सेना के सेनापति ले. जे. मानेकशा को देश की पूर्वी सीमाओं पर स्थित इकाइयों के निरीक्षण के लिए हम प्रायः कलकत्ते से गौहाटी, जोरहट, डिब्रूगढ़, इम्फाल, अगरताला, एइजाल आदि ले जाते थे. हमारी इस छोटी सी इकाई के युवा फ़्लाइंग आफिसर को बार बार अपनी उड़ानों में देखकर वे उसे ( अर्थात मुझे) व्यक्तिगत रूप से जान गए थे. वे तो साधारण सुरक्षा कर्मचारियों से भी जहाज़ पर आते ही आत्मीयता से मिलते थे. उन दिनों उनके ए डी सी कैप्टेन पंतखी से मेरी अच्छी मित्रता हो गयी थी. जेनरल साहेब का प्रिय नाश्ता था चिकेन सैंडविच और वेफर जो वे हमारे लिए भी लाते थे. उनकी प्रिय चुहल थी ‘इतनी अच्छी सैंडविच तुम एयर फ़ोर्स वाले क्या बनाओगे? और फिर ‘साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे’ वाले अंदाज़ में वे अपनी नुकीली मूंछों के बीच मुस्करा देते थे.’ दो ढाई साल उनकी सेवा में रत रहने के बाद जब मेरी नियुक्ति दिल्ली की वायुसेना की विशिष्ट उड़ानें भरने वाली स्क्वाड्रन में हुई तो मेरे लिए यह गर्व का विषय होना चाहिए था कि अब राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की उड़ानें भरनी होंगीं. पर मैं दुखी था सैम बहादुर की छत्रछाया से विस्थापित होने से. पर कुछ दिनों बाद ही उनके थलसेनाध्यक्ष बनकर दिल्ली आने के समाचार से मैं फूला नहीं समाया. आज भी याद है दिल्ली में उनके साथ की वह पहली उड़ान जब मुझे देखकर उन्होंने स्नेहपूर्वक पूछा ‘ अरे, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ मेरा धृष्ट उत्तर था ‘सर, यहाँ एक अनुभवी अफसर की ज़रूरत थी जो आपकी पसंद की चिकेन सैंडविच बनवा सके” पर मैं कह कर घबरा गया. उनके स्वभाव से तो मैं खूब परिचित था पर यदि किसी वायुसेना वाले ने यह बात वायुसेना मुख्यालय तक पहुंचा दी तो मेरी इस ध्रिष्ठता को किस दृष्टि से देखा जाएगा सोचकर मैं घबरा गया. वे भांप गए . मुस्करा कर बोले ‘ आई एम ग्लैड यू कुड लर्न समथिंग यूसफुल फ्रॉम द आर्मी. नाऊ गो ,कंसन्ट्रेट ओन योर रियल जॉब!
अग्रिम क्षेत्रों के दौरों के सिलसिले में एक बार उन्हें भुज के निकट एक रेतीले अग्रिम हवाई अड्डे पर ले गया था. वहां से वे हेलीकोप्टर से सरहद तक गए. वापस हमारे एच एस 748 विमान पर उन्हें दो घंटे बाद आना था जब हम दिल्ली लौटते. उन दो घंटों में चालकदल के हम तीन सदस्य- पायलट, कोपायलट और नेवीगेटर विमान पर ही रुके रहे. थोड़ी देर बाद जब बोर होने लगे तो एप्रन ( विमान की पार्किंग ) से हटकर पास ही की रेतीली ज़मीन पर पड़े कुछ पथ्थरों को उठाकर निशानेबाजी करने लगे. लगभग पचास गज दूर एक टेंट में बैठे एक मेजर जेनरल जो थलसेनाध्यक्ष की अगवानी के लिए आये थे हमारे पास आकर ठिठक गए. नाम तो याद नहीं पर वे गोवावासी थे और पैराट्रूपर्स की मरून रंग की बेरी ( टोपी) लगाए हुए थे. बोले” अरे, ब्वायज, तुम लोग तो खूब मज़े कर रहे हो. में आई ज्वाइन यू?’ फिर क्या था, एक स्क्वाड्रन लीडर ,दो फ्लाईट लेफ्टिनेंट और एक मेजर जेनरल के बीच कंचे का खेल शुरू हो गया. दस ही मिनट हुए होंगे कि हेलीकोप्टर का शोर सुनाई पडा. खेल बंद हो गया. हम अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद हो गए. सैम बहादुर ने आते ही पूछा “ आशा है तुम लोग ज़्यादा बोर नहीं हुए होगे?’ मैं कोई ठीक सा जवाब सोच ही रहा था कि मेजर जेनरल साहेब बोले ‘सर, ये ये तो कंचे खेल रहे थे” सैमबहादुर ने पूछा “ और तुम? तुम भी उनके साथ खेले कि नहीं? ‘ फिर उत्तर की प्रतीक्षा किया बिना बोले ‘ आशा है आर्मी इनसे हारी नहीं होगी. क्या करें, हमें कंचे खेलने का समय ही नहीं मिलता, वरना मेरा निशाना भी बुरा नहीं था.” इसके बाद उन्होंने जो कहा वह अति अप्रत्याशित था. बोले “ मैं भी तुम एयर फ़ोर्स वालों से दो दो हाथ कर लूँ.”
हमारी तरह उनके साथ के अन्य अफसरों के विस्मय का भी कोई अंत न रहा. पत्थर के कुछ और टुकड़े उठाये गए, अगले पांच मिनटों में सैम बहादुर ने उन चार पांच पत्थरों से निशानेबाजी की, मेजर जेनरल साहेब को भी मौक़ा दिया और फिर हम तीनों को. सच तो ये है इस निशानेबाजी में सभी कच्चे निकले. पर सैमबहादुर ने बच्चों की तरह खुश होकर हमसे कहा” देखा, मेरा निशाना किसी से कम नहीं.” फिर उसी दिलकश अदा से बोले “ चलो, अब और भी काम करने हैं हम सबको”
भारतमाता के इस अनूठे सपूत की यादें मेरी अमूल्य धरोहर हैं.वे हर दिन आती है , केवल उनकी जन्मतिथि और पुण्य तिथि पर नहीं. वायुसेना की विशिष्ट स्क्वाड्रन में अनेकों विशिष्ट व्यक्तियों की उड़ानें भरीं. वे सब अति विशिष्ट थे. पर सैमबहादुर जैसा “इंसान” कोई और भी मिला हो, ध्यान नहीं आता.
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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