साहित्यसाधना में अंतिम आहुति Arunendra Nath Verma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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साहित्यसाधना में अंतिम आहुति

साहित्यसाधना में अंतिम आहुति

अपने पहले उपन्यास के प्रकाशित होने के पहले ही से प्रायवेट सेक्टर की नौकरी से उनका मन उचट गया था. शिकायत करते रहते थे कि सरस्वती के पुजारियों को पेट की अग्नि शांत करने के लिए अपनी साहित्यिक प्रतिभा का गला घोंटना पड़ता है. शादी के पहले ही वर्ष में पत्नी ने उनकी सरस्वतीसाधना में अपनी अरुचि की घोषणा कर दी थी. दूसरा वर्ष पूरा हो, इसके पहले ही वह उन्हें पूरी तरह से साहित्यसेवा के लिए मुक्त करके मायके जाकर बैठ गयी थी. तलाक की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी पर इस विषय में वे ज़्यादा बात नहीं करते थे. उनकी बातों का विषय केवल एक होता -कि उन जैसे हीरे के ऊपर किसी न किसी पारखी प्रकाशक की नज़र पड कर ही रहेगी. बड़े चाव से बताने लग जाते थे कि किन किन प्रकाशकों से बात चल रही है और किसके साथ बात लगभग पक्की हो गयी है. अंत में एक दिन उनके उपन्यास को एक पारखी प्रकाशक ने छाप भी दिया. वे बहुत खुश थे. बताया कि पांच सौ पुस्तकों के पहले संस्करण के बिक जाने के बाद दूसरा संस्करण प्रकाशित होने पर उन्हें बीस प्रतिशत रोयल्टी भी मिलने लगेगी.

फिर एक दिन आये तो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. बोले ‘ मैं तो दुनियादारी में बिलकुल कच्चा हूँ. खैरियत है कि मेरा प्रकाशक समझदार है. प्रथम संस्करण में तो स्कूल कोलेजों के पुस्तकालयों में उसकी पहुँच का फ़ायदा मिल गया. अगला संस्करण बेचने के लिए उसने जो नुस्खे बताये हैं उनका मुझे ध्यान भी नहीं आया होता. आजकल मार्केटिंग के बिना तो दातुन भी नहीं बिकती. भला उपन्यास कैसे बिकेगा. फ्लिपकार्ट जैसा प्रकाशक और वितरक हो जो टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे राष्ट्रीय अखबार में लाखों रुपयों का विज्ञापन दे सके जैसा चेतन भगत के नए उपन्यास के लिए दिया है तब जाकर बात बनती है. वैसे तो हल्दीराम के होने के बावजूद गली के नुक्कड़ पर समोसे जलेबी की छोटी सी दूकान अभी भी घिसटती हुई चल ही जाती है. शायद अंग्रेज़ी किताबों के छोटे मोटे प्रकाशक वैसे ही घिसटते घिसटते काम चला ले जाएँ. पर हिन्दी उपन्यासों के प्रकाशक तो अब दलालों को सौ रुपया प्रति पाठक देकर कहेंगे कि जा भाई कहीं से पाठक नाम का जंतु खोजकर पकड़ ला. मुझसे मेरा प्रकाशक कह रहा था अब मैं लेखकों से पांडुलिपि के साथ बैंक स्टेटमेंट भी माँगता हूँ कि जांच लूं अपनी पुस्तक प्रकाशित देखने का शौक उनके बूते का है भी कि नहीं. मेरी किताब तो उसने गलती से बिना मेरी पासबुक देखे ही छाप दी थी. अब कहता है कि पहले संस्करण की पांच सौ प्रतियां बेचकर उसने खर्चा भर निकाला है. आगे कुछ कमाने की उम्मीद तभी लगाई जा सकती है जब मैं साहित्य के क्षेत्र में सरस्वती के ऊपर लक्ष्मी के हाबी होने के ध्रुव सत्य को ठीक से समझ लूं. उसने सुझाया है कि अगले संस्करण से पहले चार पांच लाख लगा दूं तो अमिश त्रिवेदी और चेतन भगत को लोग भूल जायेंगे. फिर आयेगा रोयल्टी वसूलने का मौसम.

मुझे कौतूहल हुआ कि इतने रुपये वह लाएंगे कहाँ से पर इस डर से कि कहीं मुझी से क़र्ज़ न मांग बैठें मैं चुप ही रहा. फिर दो चार महींनों के बाद मिले तो बताया कि उन्होंने अपना दो कमरों का फ़्लैट बेचकर एक वन बी एच के किराए पर ले लिया था. मिलने वाले पचीस लाख रुपयों में से पांच लाख उपन्यास की पब्लिसिटी में खर्च किये थे, बाकी के बीस लाख प्रकाशक की संस्था में ही जमा करा दिए थे जिनसे बीस हज़ार महीने का सूद मिलने लगा था. मज़े से काम चल रहा था. बस कुछ दिनों की ही बात थी. जल्दी ही करोड़ों आने लगेंगे. मैंने हाँ में हाँ मिला दी.

इसके बाद एक दिन फिर वह अचानक दिख गये. पहले पैन्ट-शर्ट में मिलते थे. इस बार धारीदार पजामा और बनियान में थे. मुझे देखकर शौक से बताने लगे दूसरा संस्करण भी बिक गया था और रोयल्टी में दस हज़ार रुपये भी मिल गए थे. इतना ईमानदार और सही सलाह देनेवाला प्रकाशक भी भगवान की कृपा से ही मिलता है. वे अभिभूत थे. अब तीसरा संस्करण भी बिक जाए और कोई फिल्म राइट्स ले ले तो वारे न्यारे हो जायेंगे. अब इस संस्करण की मार्केटिंग के लिए बस दस लाख ही और डालने थे. प्रकाशक ने कहा था चेतन भगत की ‘अधूरी गर्लफ्रेंड’ की मार्केटिंग के लिए तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे महंगे अंग्रेज़ी अखबारों में फुल पेज विज्ञापन छपवाने पड़े थे. हमारे हिन्दी उपन्यास के लिए हिन्दी अख़बारों में सस्ते में काम हो जाएगा. फ़्लैट वाले रुपयों में से जो बचे थे उनमे अपनी घड़ी, पैंटें, शर्ट्स आदि बेचकर कुछ और मिला लिए हैं. कुछ दिनों की बात है फिर चेतन भगत , आमिष त्रिवेदी आदि पूछने आया करेंगे कि हिन्दी उपन्यास लिखकर करोड़ों रुपये कैसे कमा लिए. इतना बताकर उन्होंने कान के ऊपर खोंसी हुई आधी बचाई हुई बीडी निकाली और आराम से फ़्लैट के जीने पर पसरकर बीडी सुलगाने में व्यस्त हो गए. मैंने पूछा आप तो नौकरी के ज़माने में क्लासिक सिगरेट पीते थे , बीडी कब से पीने लगे? बोले ये सब अस्थायी इंतजाम है .भगवान ने चाहा तो क्लासिक वापस आयेगी, साथ में स्कोचव्हिस्की भी लायेगी.

इसके बाद फिर उनके दर्शन कई महीनों तक नहीं हुए. पर उनके उपन्यास के बारे में हिन्दी के कई समाचारपत्रों में विज्ञापन छपे ऐसा सुनने में आया. मेरी नज़र तो ऐसे किसी विज्ञापन पर नहीं पडी क्यूँ कि मेरे यहाँ भी अंग्रेज़ी का समाचार पत्र ही आता है. मन तो बहुत था कि हिन्दी का भी एक अखबार लिया करूँ पर पहले ही दिन जब आया तो श्रीमती जी ने उसे तौल कर बताया कि एक तो अंग्रेज़ी वाले अखबार के आधा किलो वज़न के आगे उसका वज़न केवल सौ ग्राम था और इस तरह यह शुद्ध घाटे का सौदा था .फिर उनको इसका भी भय था कि हिन्दी अखबार पढ़ा कर मैं बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा हूँ. उनके आगे मेरी एक न चली थी. इसी चक्कर में अपने मित्र के उपन्यास का विज्ञापन भी मेरी नज़रों के सामने नहीं आया था. मेरे कौतूहल ने जोर मारा तो एक दिन उनके उस किराए के फ़्लैट तक चला गया जहां पिछली बार उन्हें इतना उत्साहित देखा था.पर पता चला कि वे इस फ़्लैट को भी छोड़कर कहीं चले गए हैं. मैंने उनके पड़ोसी से उनका नया पता पूछा पर वह नहीं जानता था. बोला सुना है किसी प्रकाशक के यहाँ कई लाख सूद पर दे रखे थे पर वह वापस देने में आनाकानी कर रहा था. वे तो बिलकुल सनक गए थे. घर छोड़ कर जा रहे थे तो बहुत सारे हिन्दी अखबारों के गट्ठर बाँध कर ले जा रहे थे . मैंने पूछा ये क्या है तो बोले इनमे मेरे उपन्यास के विज्ञापन छपे थे. अब यही एक आख़िरी पूंजी बची हुई है. तय नहीं कर पाया हूँ कि इन्हें बेचकर मिले पैसों से हरिद्वार का टिकट कटा लूं या इन्ही से अपनी चिता बना कर अपने प्रकाशक के दफ्तर के सामने आत्मदाह कर लूं.