भाग-५- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ Munshi Premchand द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-५- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ

प्रेमचंद की बाल कहानियां

संकलन एवं संपादन

हरिकृष्ण देवसरे


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अनुक्रम

•पूस की रात

•नमक का दारोगा

पूस की रात

एक हल्कू ने आकर स्त्री से कहा, “सहना आया है। लाओष जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे।” मुन्नी झाडू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली, “तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कंबल कहां से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी। उससे कह दो, फसल पर दे देंगे। अभी नहीं।” हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियां जमावेगा, गालियां देगा। बला से जाडों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जायेगी। यह सोचता हुआ वह अपनी भारीभरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला, “ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा।” मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आंखें तरेरती हुई बोली, “कर चुके दूसरा उपाय। जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये। मैं रुपये न दूंगी - न दूंगी।” हल्कू उदास होकर बोला, “तो क्या गाली खाऊँ?” मुन्नी ने तड़पकर कहा, “गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?” मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गयीं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था। उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली, “तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।” हल्कू ने रुपये लिए और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कंबल के लिए जमा किये थे। वह आज निकले जा रहे थे।

एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था। दो पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कांप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुंह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी। हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा, “क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुवाल पर लेट रह, तो यहां क्या लेने आये थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूं? जानते थे, मैं यहां हलुवापूरी खाने आ रहा हूं, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को।” जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूं-कूं को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान-बुद्धि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूं-कूं से नींद नहीं आ रही है। हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठँडी पीठ सहलाते हुए कहा, “कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह कम्बख्त पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है। उठूं, फिर एक चिलम भरूं। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम पी चुका। यह खेती का मजा है! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाये तो गर्मी से घबराकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कंबल। मजाल है कि जाड़े का गुजर हो जाये। तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!” हल्कू उठा, गड्ढे में जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, “पियेगा चिलम, जाड़ा तो क्या आता है, जरा मन बदल जाता है।” जबरा ने उसके मुंह की ओर प्रेम से छलकती हुई आंखों से देखा। हल्कू, “आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहां पुवाल बिछा दूंगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।” जबरा ने अगले पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिये और उसके मुंह के पास अपना मुंह हे गया। हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी। चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊंगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कंपन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट; पर जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाये हुए था। जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद से चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुंचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिये थे और उसका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था। सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाटी। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एख नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह थपटकर उठा और छतरी के बाहर आकर भौंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसकेपास न आया। हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूंकता (भौंकता) रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता तो तुरंत ही फिर दौड़ता। कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भांति उछल रहा था।

तीन एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रही है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी हात बाकी है। सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जायेंगे तब कहीं सवेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है। हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का बाग था। पतझड़ शुरू हो गयी थी। बाग में पत्तियों का ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियां बटोरूं और उन्हें चलाकर खूब तापूं। रात को कोई मुझे पत्तियां बटोरते देखे तो समझे, कोई भूत है। कौन जाने कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता। उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिये और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा। हल्कू ने कहा, “अब तो नहीं रहा जाता जबरू! चलो, बगीचे में पत्तियां बटोरकर तापें। टांटे हो जायेंगे, फिर आकर सोयेंगे। अभी तो बहुत रात है।” जबरा ने कूं-कूं करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला। बगीचे में खूब अंधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूंदें टपटप नीचे टपक रही थीं। एकाएक एक झोंका मेंहदी के फूलों की खुशबू लिए हुआ आया। हल्कू ने कहा, “कैसी अच्छी महक आयी जबरू! तुम्हारी नाक में भी कुछ सुगंध आ रही है?” जबरा को कहीं जमीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गयी थी। उसे चिंचोड़ रहा था। हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियां बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पांव गले जाते थे। और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा। थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर संभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था। हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली, दोनों पांव फैला दिए, मानो ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में आये सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था। उसने जबरा से कहा, “क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?” जबरा ने कूं-कूं करके मानो कहा, “अब क्या ठंड लगती ही रहेगी।” “पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।” जबरा ने पूंछ हिलाई। “अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गये बचा तो मैं दवा न करूंगा।” जबरा ने उस अग्नि-राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा। “मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लड़ाई करेगी।” यह कहता हुआ वह उछला और अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ। हल्कू ने कहा, “चलो-चलो, इसकी सही नहीं। ऊपर से कूदकर आओ।” वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।

चार पत्तियां चल चुकी थीं। बगीचे में फिर अंधेरा छाया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी; पर एक क्षण में फिर आंखें बंद कर लेती थी। हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गयी थी, पर ज्योंज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाये लेता था। जबरा जोर से भूंककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड उसके खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रही हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी। उसने दिल में कहा, “नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहां! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!” उसने जोर से आवाज लगाई। जबरा भूंकता रहा। उसके पास न आया। फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दमदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला। उसने जोर से आवाज लगाई - “हिलो! हिलो! हिलो!!!” जबरा फिर भूंक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाथ किये डालते हैं। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभनेवाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा। जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नीलगाएं खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था। उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़कर सो गया। सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गयी थी। और मुन्नी कह रही थी, “क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहां आकर रम गये और उधर सारा खेत चौपट हो गया।”

हल्कू ने उठकर कहा, “क्या तू खेत से होकर आ रही है?” मुन्नी बोली, “हांऐ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला ऐसा भी कोई सोता है! तुम्हारे यहां मडैया डालने से क्या हुआ?” हल्कू ने बहाना किया, “मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद कि मैं ही जानता हूं।” दोनों फिर खेत की डांड़ पर आये। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है, और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है; मानो प्राण ही न हों। दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था। मुन्नी ने चिंतित होकर कहा, “अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।” हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा, “रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा।”

नमक का दारोगा

एक जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापाकर करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस के काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरि का सर्वसमामानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था जब अंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएं और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरहकथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, “बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠ के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियां हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चलीजाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूं, न मालूम कब गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहां कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान्‌ हो, तुम्हें क्या समझाऊं। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखे और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दांव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बांध लो। यह मेरी जन्म भर की कमाई है।” इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खड़े हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलंबन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो ये। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृद्ध मुंशी जी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाये। महाजन कुछ नरम पड़े, पड़ोसियों के हृदय में शूल ऊठने लगे।

दो जाड़े के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहां आये अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगा जी किवाड़ बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक आंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहर सुनाई दिया। उठ बैठे। इतनी रात गये गाड़ियां क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढ़ाये हुए पुल पर आ पहुंचे। गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल के पार जाती देखी। डांटकर पूछा, “किसकी गाड़ियां हैं?” थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई, तब आगे वाले ने कहा, “पंडित आलोपीदीन की।” “कौन पंडित आलोपीदीन!” “दातागंज के।” मुंशी बंशीधर चौंके। पंडित आलोपीदीन इस इलाके के सबसेप्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपये का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ॠी न हों। व्यापार भी बड़ा लंबा-चौड़ा था। बड़े चलते-पुरजे आदमी थे। अंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने जाते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था। मुंशीजी ने पूछा, “गाड़ियां कहां जायेंगी?” उत्तर मिला, “कानपुर।” लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढ़ा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, “क्या गूंगे हो गये हो? हम पूछते हैं, इनमें क्या लदा है।” जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोड़े को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के ढेले थे।

तीन पंडित आलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अएचानक कई गाड़ीवानों ने घबराये हुए आकर जगाया और बोले, “महाराज! दारोगा ने गाड़ियां रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं।” पंडित आलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्वसे बोले, “चलो हम आते हैं।” यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चिंतता से पान के बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले, “बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियां रोक दी गयीं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।” बंशीधर रूखाई से बोले, “सरकारी हुक्म!” पं. आलोपीदीन ने हंसकर कहा, “हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकारतो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जायें और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था।” बंशधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी बंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले, “हम उन नमकहरामों में नहीं हैं जो कौड़यिों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका फायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूं।” पं. अलोपीदीन स्तंभित हो गये। गाड़ीवानों में हलचल मच गयी। पंडित जी के जीवन में कदाचित्‌ यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलूसिंह आगे बढ़ा, किंतु रौब के मारेयह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडित जी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लड़का है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझलकता है। बहुत दीनभाव से बोले, “बाबू सागब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जायेंगे। इज्जत धूल में मिल जायेगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आयेगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं!” बंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, “हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।” अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किंतु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, “लाला जी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।” बंशीधर ने गरम होकर कहा, “एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।” धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किये। एक से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किंतु धर्म अलौकिक वीरता केसात इश बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भांति अटल, अविचलित खड़ा था। अलोपीदीन निराश होकर बोले, “अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।” बंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगा जी को गालियां देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडित जी घबराकर दो-तीन कदम पीछे हट गये। अत्यंत दीनता से बोले, “बाबू सागब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूं।” “असंभव बात है।” “तीस हजार पर।” “किसी तरह भी संभव नहीं?” “चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है।” “बदलूसिंह, इस आदमी को अभी हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।” धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्टपुष्ट मनुष्य को हथकड़ियां लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओरनिराशा और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

चार दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुंह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिे वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेलमें बिना टिकट सफर करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनानेवाले सेठ और साहूकार यह सब के सब देवताओं की भांति गर्दनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियां, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाये अएदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गयी। मेलों में कदाचित्‌ आंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। किंतु अदालत में पहुंचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोदीपीन नेयह कर्म किया बल्कि इसलिए कि यह कानून के पंजे में कैसे आये। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आये। प्रत्येक मनुष्य उनसे साहनुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गयी। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। बंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवाय न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण में अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डांवाडोल। यहां तक कि मुंशी जी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक (भ्रामक) हैं। वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लोभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी बंशीधर का अधिक दोष नहीं, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक से मुकदमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। स्वजन बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक दिला दी। जब बंशधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुक कर सलाम किये। किंतु इस समय एक-एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था। कदाचित्‌ इस मुकदमें में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का ेक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां, ढीले चोगे, एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है। बंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुंचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्नहृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढ़े मुंशी जी तो पहले ही से कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो लोगों के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहां बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दीया जलायेंगे। खेद है ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकराथ गया। इसके थोड़े दिनों बाद, जब मुंशी बंधीधर इस दुरावस्थामें घर पहुँचे और बूढ़े पिता जी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले, “जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूं।” पहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कटोर बातें भी कहीं और यदि बंशीधर वहां से टल न जाते जो अएवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृद्धा माता को भी दुख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएं मिट्टी में मिल गयीं। पत्नी ने तो कई दिन तक सीधे मुंह बात भी नहीं की। इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। संध्या का सम था। बूढ़े मुंशी जी बैठे राम-नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिये बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दनों में नीले धागे, सींगें पीतल से जुड़ी हुइर्ं। कई नौकर लाठियां कंधों पर रखे साथ थे। मुंशी जी अगवानी को दौड़े। देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत्‌ की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे, “हमारा भाग्य उदय हुआ जो आपके चरण इस द्वार पर आये। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुंह दिखावें, मुंह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुंह छिपाना पड़ता? ईश्वर निस्सांतन चाहे रखे पर ऐसी संता न दे।” अलोपीदीन ने कहा, “नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।” मुंशी जी ने चकित होकर कहा, “ऐसी संतान को और क्या कहूं।”

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्म स्वर में कहा, “कुलतिलक और पुरखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें?” पं. अलोपीदीन ने बंशीधर से कहा, “दारोगा जी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। इस रात को आपने अपने अेधिकार-बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूं। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किंतु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूं।” बंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठ कर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गये कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आये हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन्‌ उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पंडित जी की बातें सुनीं तो मन की मैल मिट गयी। पंडित जी की ओर उडडती हुई दृष्टि से देखा। सद्‌भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले, “यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूं। जो आज्ञा होगी,

वह मेरे सिर-माथे पर।” अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा, “नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।” बंशीधर बोले, “मैं किस योग्य हूं, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।” अलोपीदीन ने एक स्टांप लगा हुआ पत्र निकाला और उसे बंशीधर के सामने रखकर बोले, “इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूं, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूंगा। मश्ुंाी बश्ांीधर न ेउस कागज का ेपढा़ ता ेकृतज्ञता स ेआखां ेंम ेंआसूं भर आये। पिंडत अलापेीदीन न ेउनका ेअपनी सारी जायदाद का स्थायी मनैंजेर नियत किया था। छह हजार वार्षिक वतेन के अतिरिक्त राजेाना खचर् अलग, सवारी के लिए घाडेा़, रहन ेका ेबग्ांला, नाकैर-चाकर मख्ुत। कंपित स्वर में बाले,े “पिंडत जी, मझ्ुाम ेंइतनी सामथ्यर् नही ंह ैकि आपकी उदारता की पश्रासां कर सकूं। किंत ुएसे ेउच्च पद के याग्ेय नही ंहूं।” अलोपीदीन हंसकर बोले, “मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।”

वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा, “यों में आपका दास हूं। आप जैसे कीर्तिवान सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान्‌ कार्य के लिए एक बड़े मर्मज्ञ, अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।” अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले, “न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व का परिचय खूब पा चुका हूं। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए। दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बैमुरौवत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाये रखे!” वंशीधर की आंखें डबडबा आयीं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडित जी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी पर हस्ताक्षर कर दिये। अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें लगे लगा लिया।