भाग-२- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ Munshi Premchand द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-२- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ

प्रेमचंद की बाल कहानियां

संकलन एवं संपादन

हरिकृष्ण देवसरे


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अनुक्रम

•शेर और लडका

•चारेी

•कजाकी

शेर और लड़का

बच्चो, शेर तो शायद तुमने न देखा हो, लेकिन उसका नम तो सुना ही होगा। शायद उसकी तसवीर देखी हो और उसका हाल भी पढ़ा हो। शेर अक्सर जंगलों और कछारों में रहता है। कभी-कभी वह उन जंगलों से आसपास के गांवों में आ जाता है और आदमी और जानवरों को उठा ले जाता है। कभी-कभी उन जानवरों को मारकर खा जाता है जो जंगलों में चरने जाया करते हैं। थोड़े दिनों की बात है कि एक गड़रिया का लड़का गाय-बैलों को लेकर जंगल में गया और उन्हें जंगल में छोड़कर आप एक झरने के किनारे मछलियों का शिकार खेलने लगा। जब शाम होने को आयी तो उसने अपने जानवरों को इकट्ठा किया, मगर एख गाय का पता न था। उसने इधर-उधर दौड़-धूप की, मगर गाय का पता न चला। बेचारा बहुत घबराया। मालिक मुझे जीता न छोड़ेंगे। इस वक्त ढूं़ढने का मौका न था, क्योंकि जानवर फिर इधर-उधर चले जाते, इसलिए वह उन्हें लेकर घर लौटा और उन्हें बाड़े में बांधकर, बिना किसी से कुछ कहे हुए गाय की तलाश में निकल पड़ा। उस छोटे लड़के की यह हिम्मत देखो! अंधेरा हो रहा है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, जंगल भांयभांय कर रहा है, गीदड़ का हौवाना सुनाई दे रहा है, पर वह बेखौफ जंगल में बढ़ा चला जा रहा था। कुछ देर तक तो वह गाय को ढूं़ढता रहा, लेकिन जब अंधेरा हो गया तो उसे डर मालूम होने लगा। जंगल में अच्छे-अच्छे आदमी डर जाते हैं, उस छोटे-से बच्चे का कहना ही क्या। मगर जाये कहां? जब कुछ न सूझी तो एक पेड़ पर चढ़ गया और उसी पर रात काटने की ठान ली। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि बगैर गाय को लिए घर न लौटूंगा। दिन भर का थका-मांदा तो था ही, उसे जल्दी नींद आ गयी। नींद चारपाई और बिछावन नहीं ढूं़ढती। अचानक पेड़ इतनी जोर से हिलने लगा कि उसकी नींद खुल गयी। गिरते-गिरते बच गया। सोचने लगा, पेड़ कौन हिला रहा है? आंखें लगकर नीचे की तरफ देखा तो उसके रोयें खड़े हो गये। एक शेर पेड़ के नीचे खड़ा उसकी तरफ ललचाई हुई आंखों से ताक रहा था। उसकी जान सूख गयी। वह दोनों हाथों से डाल से चिमट गया। नींद भाग गयी। कई घंटे गुजर गये, पर शेर वहां से जरा भी न हिला। वह बारबार गुर्राता और उछल-उछलकर लड़के को पकड़ने की कोशिश करता। कभी-कभी तो वह इतने नजदीक आ जाता कि लड़का जोर से चिल्ला उठता। रात ज्यों-त्यों कटी, सवेरा हुआ। लड़के को कुछ भरोसा हुआ कि शायद शेर उसे छोड़कर चला जाये। मगर शेर ने हिलने का नाम तक न लिया। सारे दिन वह उशी पेड़ के नीचे बैठा रहा। शिकार सामने देखकर वह कहां जाता! पेड़ पर बैठे-बैठे लड़के की देह अकड़ गयी थी, भूख के मारे बुरा हाल था, मगर शेर था कि वहां से जौर भर भी न हटता था। उस जगह से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा झरना था। शेर कभी-कभी उस तरफ ताकने लगता था। लड़के ने सोचा कि शेर प्यासा है। उसे कुछ आस बंधी कि ज्यों ही वह पानी पीने जायेगा, मैं भी यहां से खिसक चलूंगा। आखिर शेर उधर चला। लड़का पेड़ पर से उतरने की फिक्र कर ही रहा था कि शेर पानी पीकर लौट आया। शायद उसने भी लड़के का मतलब समझ लिया था। वह आते ही इतनी जोर से चिल्लाया और ऐसा उछला कि लड़के के हाथ-पांव ढीले पड़ गये, जैसे वह नीचे गिरा जा रहा हो। मालूम होता था, हाथ-पांव पेट में घुसे जा रहे हैं। ज्यों-त्यों करके वह दिन भी बीत गया। ज्यों-ज्यों रात होती जाती थी, शेर की भूख भी तेज होती जाती थी। शायद उसे यह सोच-सोचकर गुस्सा आ रहा था कि खाने की चीज सामने रखी है और मैं दो दिन से भूखा बैठा हूं। क्या आज भी एकादशी रहेगी? वह रात भी उसे ताकते ही बीत गयी। तीसरा दिन भी निकल आया। मारे भूख के उसकी आंखों में तितलियां-सी उड़ने लगीं। डाल पर बैठना भी उसे मुश्किल मालूम होता था। कभी-कभी तो उसके जी में आता कि शेर मुझे पकड़ ले और खा जाये। उसने हाथ जोड़कर ईश्वर से विनय की - ‘भगवान, क्या तुम मुझ गरीब पर दया न करोगे?’

शेर को भी थकावट मालूम हो रही थी। बैठे-भैटे उसका जी ऊब गया। वह चाहता था कि किसी तरह जल्दी से शिकार मिल जाये। लड़के ने इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई कि कोई नजर आ जाये, मगर कोई नजर न आया। तब वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। मगर वहां उसका रोना कौन सुनता था। आखिर उसे एक तदबीर सूझी। वह पेड़ की फुनगी पर चढ़ गया और अपनी धोती खोलकर हवा में उड़ाने लगा कि शायद किसी शिकारी की नजर पड़ जाये। एकाएक वह खुशी से उछल पड़ा। उसकी सारी भूख, सारी कमजोरी गायब हो गयी। कई आदमी झरने के पास खड़े उस उड़ती हुई झंडी को देख रहे थे। शायद उन्हें अचंभा हो रहा था कि जंगल के पेड़ पर झंडी कहां से आयी। लड़के ने उन आदमियों को गिनाएक, दो, तीन, चार। जिस पेड़ पर लड़का बैठा था वहां की जमीन कुछ नीची थी। उसे खयाल आया कि अगर वे लोग मुझे देख भी लें तो उनको यह कैसे मालूम हो कि इसके नीचे तीन दिन का भूखा शेर बैठा हुआ है। अगर मैं उन्हें होशियरा न कर दूं तो यह दुष्ट किसी-न-किसी को जरूर चट कर जायेगा। यह सोचकर वह पूरी ताकत से चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनते ही वे लोग रुक गये और अपनी-अपनी बंदूकें संभालकर उसको ताकने लगे।

लड़के ने चिल्लाकर कहा, “होशियार रहो! होशियार रहो! इस पेड़ के नीचे एक शेर बैठा हुआ है!” शेर का नाम सुनते ही वे लोग संभल गये, चपपट बंदूकों में गोलियां भरीं और चौकन्ने होकर आगे बढ़ने लगे। शेर को क्या खबर कि नीचे क्या हो रहा है। वह तो अपने शिकार की ताक में घात लगाये बैठा था। एकाएक पैरों की आहट पाते ही वह चौंक उठा और उन चारो आदमियों को एक टीले की आड़ में देखा। फिर क्या कहना था। उसे मुंह मांगी मुराद मिली। भूख में सब्र कहां। वह इतने जोर से गरजा कि सारा जंगल हिल गया और उन आदमियों की तरफ जोर से छलांग लगाई। मगर वे लोग पहले ही से तैयार थे। चारों ने एक साथ गोली चलाई। दन! दन! दन! दन! आवाज हुई। चिड़ियां पेड़ो से उड़-उड़कर भागने लगीं। लड़के ने नीचे देखा, शेर जमीन पर गिरा पड़ा था। वह एक बार फिर उछला और फिर गिर पड़ा। फिर वह हिला तक नहीं। लड़के की खुशी का क्या पूछना! भूख-प्यास का नाम तक न था। चटपट पेड़ से उतरा तो देखा सामने उसका मालिक खड़ा है। वह रोता हुआ उसके पैरों पर गिर पड़ा। मालिक ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया और बोला, “क्या तू तीन दिन से इसी पेड़ पर था?” लड़के ने कहा, “हां, उतरता कैसे? शेर जो नीचे बैठा था।”

मालिक, “हमने तो समझा था कि किसी शेर ने तुझे मारकर खा लिया। हम चारों आदमी तीन दिन से ढूंढ़ रहे हैं। तूने हमसे कहा तक नहीं और निकल खडा़ हुआ।” लड़का, “मैं डरता था, गाय जो खोयी थी।” मालिक, “अरे पागल, गाय तो उसी दिन आप ही आप चली आयी थी।” भूख-प्यास से शक्ति तक न रहने पर भी लड़का हंस पड़ा।

चोरी

हाय बचपन! तेरी याद नहीं भूलती! वह कच्चा, टूटा घर; वह पुवाल का बिछौना; वह नंगे बदन, नंग ेपांव खेतों में घूमना; आम के पेड़ों पर चढ़ना - सारी बातें आंखों के सामने फिर रही ैहं। चमरौधे जूते पहनकर उस वक्त कितनी खुशी होती थी, अब बूढ़िया बूटों से भी नहीं होती। गरम पनुए रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं; चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और ब्रीरमोहन में भी नहीं मिलता। मैं अपने चचेरे भाई लहधर के साथ दूसरे गांव में एक मौलवी साहब के यहां पढऩे जाया करता था। मेरी उम्र आठ साल थी। हलधर (वह अब स्वर्ग में निवास कर रहे हैं) मुझसे दो साल जेठे थे। हम दोनों प्रातःकाल बासी रोटियां खा, दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना लेकर चल देते थे। फिर तो सारा दिन अपना था। मौलवी साहब के यहां कोई हाजिरी का रजिस्टर तो था नहीं, और न गैरहाजिरी का जुर्माना ही देना पडत़ा था। फिर डर किस बात का! कभी तो थाने के सामने खडे़ सिपाहियों की कवायद केखते, कभी किसी भालू या बंदर नचानेवाले मदारी के पीछे-पीछे घूमने मेंदिन काट देते। कभी रेलवे स्टेशन की और निकल जाते और गाडिय़ों की बहार देखते। गाडिय़ों के समय का जितना ज्ञान हमको था, उतना शायद टाइम-टेबिल को भी न था। रास्ते में शहर के एक महाजन ने एक बाग लगवाना शुरू किया था। वहां तक कुआं खुद रहा था। वह भी हमारे लिए एक दिलचस्प तमाशा था। वह माली हमें अपनी झोंपडी़ में बडे़ प्रेम से बिठाता था। हम उससे झगड-़झगडक़र उसका काम करते! कहीं बाल्टी लिए पौधों को सींच रहे हैं, कहीं खुरपी से क्यारियां गोड ़रहे हैं, कहीं कैंची से बेलों की पत्तियां छांट रहे हैं। उन कामों में कितना आनंद था। माली बालप्रकृति का पंडित था। हमसे काम लेता, पर इस तरह मानो हमारे ऊपर कोई एहसान कर रहा है। जितना काम वह दिन भर में करता, हम घंटे भर में निबटा देते थे। अब वह माली नहीं है, लेकिन बाग हरा-भरा है। उसके पास से होकर गुजरता हूं तो जी चाहता है, उन पेडा़ें के गले मिलकर रोऊं और कहूं, ‘प्यारे, तुम मुझे भूल गये, लेकिन मैं तुम्हें नहीं भूला; मेरे हृदय में तुम्हारी याद अभी तक हरी है - उतनी हरी, जितने तुम्हारे पत्ते। निःस्वार्थ प्रेम के तुम जीते-जागते स्वरूप हो।’ कभी-कभी हम हफ्तों गैरहाजिर रहते, पर मौलवी साहब से ऐसा बहाना कर देते कि उनकी बढ़ी हुई त्योरियां उतर जातीं। उतनी कल्पनाशक्ति आज होती तो ऐसा उपन्यास लिख मारता कि लोग चकित रह जाते। अब तो यह हाल है कि बहुत सिर खपाने के बाद कोई कहानी सूझती है। खैर, हमारे मौलवी साहब दरती थे। मौलवीगिरी केवल शौक से करते थे। हम दोनों भाई अपने गांव के कुरमी-कुम्हारों से उनकी खूबबड़ाई करते थे। यों कहिए कि हम मौलवी साहब के सफरी एजेंट थे। हमारे उद्योग से जब मौलवी साहब को कुछ काम मिल जाता तो हम फूले न समाते। जिस दिन कोई बहाना न सूझता, मौलवी साहब के लिए कोईन कोई सौगात ले जाते। कभी सेर-आध-सेर फलियां तोड़ लीं, तो कभी दस-पांच ईख; कभी जौ या गेहूं की हरी-हरी बालें ले लीं। उन सौगातों को देखते ही मौलवी साहब का क्रोध शांत हो जाता। जब इन चीजों की फसल न होती, तो हम सजा से बचने का कोई और ही उपाय सोचते। मौलवी साहब को चिड़ियों का शौक था। मकतब में श्यामा, बुलबुल, दहियल और चंडूलों के पिंजरे लटकते रहते थे। हमें सबक याद हो या न हो, पर चिड़ियों को याद हो जाते थे। हमारे साथ ही वे पढ़ा करती थीं। इन चिड़ियों के लिए बेसन पीसने में हम लोग खूब उत्साह दिखाते थे। मौलवी साहब सब लड़कों को पतिंगे पकड़ लाने की ताकीद करते रहते थे। इन चिड़ियों को पतिंगों में विशेष रुचि थी। कभी-कभी हमारी बला पतिंगों ही के सिर चली जाती थी। उनका बलिदान करके हम मौलवी साहब के रौद्र रूप को प्रसन्न कर लिया करते थे। एक दिन सवरे ेहम दानेा ेंभाइर् तालाब म ेंमहुं धाने ेगय ेता ेहलधर ने काइेर् सफेद-सी चीज मट्ठुी म ेंलकेर दिखाई। मनैं ेलपककर मट्ठुी खालेी ता ेउसमें एक रुपया था। विस्मित हाकेर पछूा, “यह रुपया तम्ुह ेंकहा ंमिला?” हलधर, “अम्मा ने ताक पर रखा था, चारपाई खड़ी करके निकाल लाया।”

घर में कोई संदूक या अलमारी तो थी नहीं; रुपये-पैसे एक ऊंचे ताक पर रख दिये जाते थे। एक दिन पहले चचाजी ने सन बेचा था। उसके रुपये जमींदार को देने के लिए रखे हुए थे। हलधर को न जाने क्योंकर पता लग गया। जब घर के सब लोग काम-धंधे में लग गये तो अपनी चारपाई खड़ी की और उस पर चढ़कर एक रुपया निकाल लिया। उस वक्त तक हमने कभी रुपया छुआ तक न था। वह रुपया देखकर आनंद और भय की जो तरंगें दिल में उठी थीं, वे अभी तक याद हैं। हमारे लिए रुपया क अलभ्य वस्तु थी। मौलवी साहब को हमारे यहां से सिर्फ बारह आने मिला करते थे। महीने के अंत में चचाजी खुद जाकर पैसे दे आते थे। भला, कौन हमारे गर्व का अनुमान कर सकता है! लेकिन मार का भय आनंद में विघ्न डाल रहा था। रुपये अनगिनत तो थे नहीं। चोरी का खुल जाना मानी हुई बात थी। चचाजी के क्रोध का भी, मुझे तो नहीं, हलधर को प्रत्यक्ष अनुभव हो चुका था। यों उनसे ज्यादा सीधा-सादा आदमी दुनिया में न था। चचा ने उनकी रक्षा का भार सिर पर न रख लिया होता तो कोई बनिया उन्हें बाजार में बेच सकता था, पर जब क्रोध आ जाता तो फिर उन्हें कुछ न सूझता। और-तो-और, चची भी उनके क्रोध का सामना करते डरती थी। हम दोनों ने कई मिनट तक इन्हीं बातों पर विचार किया, और आखिर यह निश्चय हुआ कि आयी लक्ष्मी को न जाने देना चाहिए। एक तो हमारे ऊपर संदेह होगा ही नहीं, अगर हुआ भी तो हम साफ इनकार कर जायेंगे। कहेंगे, हम रुपया लेकर क्या करते। थोड़ा सोच-विचार करते तो यह निश्चय पलट जाता,और वह वीभत्स लीला न होती, जो आगे चलकर हुई, पर उस समय हममें शांति से विचार करने की क्षमता ही न थी। मुंह-हाथ धोकर हम दोनों घर आये और डरते-डरते अंदर कदम रखा। अगर कहीं इस वक्त तलाशी की नौबत आयी तो फिर भगवान ही मालिक हैं। लेकिन सब लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। कोई हमसे न बोला। हमने नाश्ता भी न किया, चबेना भी न लिया; किताब बगल में दबाई और मदरसे का रास्ता लिया। बरसात के दिन थे। आकाश पर बादल छाये हुए थे। हम दोनों खुशखश्ुा मनकतब चल ेजा रह ेथे। आज काउिंसल की मिनिस्टी्र पाकर भी शायद उतना आनंद न होता। हजारों मंसूबे बांधते थे, हजारों हवाई किले बनाते थे। यह अवसर बडे ़भाग्य से मिला था। जीवन में फिर शायद ही यह अवसर मिले। इसलिए रुपये को इस तरह खर्च करना चाहते थे कि ज्यादा-सेज्यादा दिनों तक चल सके। यद्यपि उन दिनों पांच आने सेर बहुत अच्छी मिठाई मिलती थी और शायद आधा सेर मिठाई में हम दोनों अफर जाते, लेकिन यह खयाल हुआ कि मिठाई खायेंगे तो रुपया आज ही गायब हो जायेगा। कोई सस्ती चीज खानी चाहिए, जिसमें मजा भी आये, पेट भी भरे और पैसे भी कम खर्च हों। आखिर अमरूदों पर हमारी नजर पड ़गयी। हम दोनों राजी हो गये। दो पैसे के अमरूद से दामन भर गये। जब हलधर ने खटकिन के हाथ में रुपया रखा तो उसने संदेह से देखकर पूछा, “रुपया कहां पाया, लाला? चुरा तो नहीं लाये?”

जवाब हमारे पास तैयार था। ज्यादा नहीं तो दो-तीन किताबें पढ़ ही चुके थे। विद्या का कुछ-कुछ असर हो चला था। मैंने झट से कहा, “मौलवी साहब की फीस देनी है। घर में पैसे न थे, तो चचाजी ने रुपया दे दिया।” इस जवाब ने खटकिन का संदेह दूर कर दिया। हम दोनों ने एक पुलिया पर बैठकर खूब अमरूद खाये। मगर अब साढे़ पंद्रह आने पैसे कहां ले जायें। एक रुपया छिपा लेना तो इतना मुश्किल काम न था। पैसों का ढेर कहां छिपता। न कमर में इतनी जगह थी और न जेब में इतनी गुंजाइश। उन्हें अपने पास रखना चोरी का ढिंढोरा पीटना था। बहुत सोचने के बाद यह निश्चय किया कि बारह आने तो मौलवी साहब को दे दिए जायें, शेष साढ़े तीन आने की मिठाई उड़े। यह फैसला करके हम लोग मकतब पहुंचे। आज कई दिन के बाद गये थे। मौलवी साहब ने बिगड़कर पूछा, “इतने दिन कहां रहे?” मैंने कहा, “मौलवी साहब, घर में गमी हो गयी।” यह कहते-कहते बारह आने उनके सामने रख दिये। फिर क्या पूछना था? पैसे देखते ही मौलवी साहब की बाछें खिल गयीं। महीना खत्म होने में अभी कई दिन बाकी थे। साधारणतः महीना चढ़ जाने और बार-बार तकाजे करने पर कहीं पैसे मिलते थे। अबकी इतनी जल्दी पैसे पाकर उनका खुश होना कोई अस्वाभाविक बात न थी। हमने अन्य लड़कों की ओर सगर्व नेत्रों से देखा, मानो कह रहे हों, “एक तुम हो कि मांगनेपर भी पैसे नहीं देते, एक हम हैं कि पेशगी देते हैं।” हम अभी सबक पढ़ ही रहे थे कि मालूम हुआ, आज तालाब का मेला है, दोपहर में छुट्टी हो जायेगी। मौलवी साहब मेले में बुलबुल लड़ाने जायेंगे। यह खबर सुनते ही हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। बारह आने तो बैंक में जमा ही कर चुके थे; साढे़ तीन आने में मेला देखने की ठहरी। खूब बहार रहेगी। मजे से रेवड़ियां खायेंगे, गोलगप्पे उड़ायेंगे, झूले पर चढे़गे और शाम को घर पहुंचेंगे; लेकिन मौलवी साहब ने एक कड़ी शर्त यह लगा दी थी कि सब लड़के छुट्टी के पहले अपना-अपना सबक सुना दें। जो सबक न सुना सकेगा, उसे छुट्टी न मिलेगी। नतीजा यह हुआ कि मुझे तो छुट्टी मिल गयी, पर हलधर कैद कर लिए गये। और कई लड़कों ने भी सबक सुना दिये थे। वे सभी मेला देखने चल पड़े। मैं भी उनके साथ हो लिया। पैसे मेरे ही पास थे, इसलिए मैंने हलधर को साथ लेने का इंतजार न किया। तय हो गया था कि वह छुट्टी पाते ही मेले में आ जायें, और दोनों साथ-साथ मेला देखें। मैंने वचन दिया था कि जब तक वह न आयेंगे, एक पैसा भी खर्च न करूंगा; लेकिन क्या मालूम था कि दुर्भाग्य कुछ और ही लीला रच रहा है। मुझे मेला पहुंचे एक घंटे से ज्यादा गुजर गया, पर हलधर का कहीं पता नहीं। क्या अभी तक मौलवी साहब ने छुट्टी नहीं दी, या रास्ता भूल गये? आंखें फाड़-फाड़कर सड़क की ओर देखता था। अकेले मेला देखने में जी भी न लगता था। यह संशय भी हो रहा था कि कहीं चोरी खुलतो नहीं गयी और चचाली हलधर को पकड़कर घर तो नहीं ले गये? आखिर जब शाम हो गयी तो मैंने कुछ रेवड़़ियां खायीं और हलधर के हिस्से के पैसे जेब में रखकर धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में खयाल आया, मकतब होता चलूं। शायद हलधर अभी वहीं हो, मगर वहां सन्नाटा था। हां, एक लड़का खेलता हुआ मिला। उसने मुझे देखते ही जोर से कहकहा मारा और बोला, “बचा, घर जाओ तो कैसी मार पड़ती है। तुम्हारे चचा आये थे। हलधर को मारते-मारते ले गये हैं। अजी, ऐसा तान कर घूंसा मारा कि मियां हलधर मुंह के बल गिर पडे़। यहां से घसीटते ले गये हैं। तुमने मौलवी साहब की तनख्वाह दे दी थी; तुम्हारे चचा ने वह भी वापस ले ली। अभी कोई बहाना सोच लो, नहीं तो बेभाव की पड़ेगी।” मेरी सिट्टी-पिट्टी भूल गयी, बदन का लहू सूख गया। वही हुआ, जिसका मुझे शक हो रहा था। पैर मन-मन भर के हो गये। घर की ओर एक-एक कदम चलना मुश्किल हो गया। देवी-देवताओं के जितने नाम याद थे, सभी की मनौती मानी - किसी को लड्डू, किसी को पेड़े, किसी को बतासे। गांव के पास पहुंचा तो गांव के डीह का सुमिरन किया; क्योंकि अपने हलके में डीह ही की इच्छा सर्वप्रधान होती है। यह सब कुछ किया, लेकिन ज्यों-ज्यों घर निकट आता, दिल की धड़कन बढ़ती जाती थी। घटाएं उमड़ी आती थीं। मालूम होता था आसमान फटकर गिरा ही चाहता है। देखता था-लोग अपने-अपने काम छोड़-छोड़ भागे जा रहे हैं, गोरू भी पूंछ उठाये घर की ओर उछलतेकूदते चले जाते थे। चिड़ियां अपने घोंसलों की ओर उड़ी चली आती थीं, लेकिन मैं उसी मंद गति से चला जाता था, मानो पैरों में शक्ति नहीं। जी चाहता था - जोर का बुखार चढ़ आये, या कहीं चोट लग जाये, लेकिन कहने से धोबी गधे पर नहीं चढ़ता। बुलाने से मौत नहीं आती। बीमारी का तो कहना ही क्या। कुछ न हुआ, और धीरे-धीरे चलने पर भी घर सामने आ ही गया। अब क्या हो? हमारे द्वार पर इमली का एक घना वृक्ष था। मैं उसी की आड़ में छिप गया कि जरा और अंधेरा हो जाये तो चुपके से घुस जाऊं और अम्मा के कमरे में चारपाई के नीचे जा बैठूं। जब सब लोग सो जायेंगे तो अम्मा से सारी कथा कह सुनाऊंगा। अम्मा कभी नहीं मारतीं। जरा उनके सामने झूठ-मूठ रोऊंगा तो वह और भी विघल जायेंगी। रात कट जाने पर फिर कौन पूछता है। सुबह तक सबका गुस्सा ठंडा हो जायेगा। अगर ये मंसूबे पूरे हो जाते तो इसमें संदेह नहीं कि मैं बेदाग बच जाता। लेकिन वहां तो विधाता को कुछ और मंजूर था। मुझे एक लड़के ने देख लिया, और मेरे नाम को रट लगाते हुए सीध मेरे घर में भागा। अब मेे लिए कोई आशा न रही। लाचार घर में दाखिल हुआ तो सहसा मुंह से एक चीख निकल गयी, जैसे मार खाया हुआ कुत्ता किसी को अपनी ओर आता देखकर भय से चिल्लाने लगता है। बरोठे में पिताजी बैठे थे। पिताजी का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ खराब हो गया था। छुट्टी लेकर घर आये हुए थे, यह तो नहीं कह सकता कि उन्हें शिकायत क्या थी, पर वह मूंग की दाल खाते थे, और संध्या-समय शीशे के गिलास में एक बोतल में से कुछ उड़ेल-उड़ेल कर पीते थे।

शायद यह किसी तजुरबेकार हकीम की बताई हुई दवा थी। दवाएं सब बासनेवाली और कड़वी होती है। यह दवा भी बुरी ही थी, पर पिजाती न जाने क्यों इस दवा को खूब मजा ले-लेकर पीते थे। हम जो दवा पीते हैं तो आंखें बंद करके एक ही घूंट में गटक जाते हैं, पर शायद इस दवा का असर धीरे-धीरे पीने में ही होता हो। पिताजी के पास गांव के दो-तीन और कभी-कभी चार-पांच और रोगी भी जमा हो जाते, और घंटों दवा पीते रहते थे। मुश्किल से खाना खाने उठते थे। इस समय भी वह दवा पी रहे थे। रोगियों की मंडली जमा थी। मुझे देखते ही पिता जी ने लाल-लाल आंखें करके पूछा, “कहां थे अब तक?” मैंने दबी जबान से कहा, “कहीं तो नहीं?” “अब चोरी की आदत सीख रहा है! बोल, तूने रुपया चुराया कि नहीं?” मेरी जबान बंद हो गयी। सामने नंगी तलवार नाच रही थी। शब्द भी निकालते हुए डरता था। पिताजी ने जोर से डांटकर पूछा, “बोलता क्यों नहीं? तूने रुपया चुराया कि नहीं?” मैंने जान पर खेलकर कहा, “मैंने कहां...” मुंह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि पिता जी विकरालरूप धारण किये, दांत पीसते, झपटकर उठे और हाथ उठाये मेरी ओर चले। मैं जोर से चिल्लाकर रोने लगा। ऐसा चिल्लाया कि पिताजी भी सहम गये। उनका हाथ उठा ही रह गया। शायद समझे कि जब अभी से इसका यह हाल है, तब तमाचा पड़ जाने पर कहीं इसकी जान ही न निकल जाये। मैंने जो देखा कि मेरी हिकमत काम कर गयी तो और भी गला फाड़-फाड़कर रोने लगा। इतने में मंडली के दो-तीन आदमियों ने पिताजी को पकड़ लिया और मेरी ओर इशारा किया कि भाग जा! बच्चे ऐसे मौके पर भी मचल जाते हैं और व्यर्थ मार खा जाते हैं। मैंने बुद्धिमानी से काम लिया। लेकि नअंदर का दृश्य इससे कहीं भयंकर था। मेरा तो धून सर्द हो गया। हलधर के दोनों हाथ एक खंभे से बंधे थे, सारी देह धूलधूसरित हो रही थी, और वह अभी तक सिसक रहे थे। शायद वह आंगन भर में लोटे थे। ऐसा मालूम हुआ कि सारा आंगन उनके आंसुओ से भर गया है। चची हलधर को डांट रही थीं और अम्मा बैठी मसाला पीस रही थीं। सबसे पहले मुझ पर चची की निगाह पड़ी। बोलीं, “लो, वह भी आ गया। क्यों रे, रुपया तूने चुराया था कि इसने?” मैंने निश्शंक होकर कहा, “हलधर ने ”। अम्मा बोलीं, “अगर उसी ने चुराया था तो तूने घर आकर किसी से कहा क्यों नहीं!”

अब झूठ बोले बगैर बचना मुश्किल था। मैं तो समझतां हूं कि जब आदमी को जान का खतरा हो तो झूठ बोलना क्षम्य है। हलधर मार खाने के आदी थे, दो-चार घूंसे और पड़ने से उनका कुछ न बिगड़ सकता था। मैंने मार कभी न खायी थी। मेरा तो दो ही चार घूंसों में काम तमाम हो जाता। फिर हलधर ने भी तो अपने को बचाने के लिए मुझे फंसाने की चेष्टा की थी, नहीं तो चची मुंझसे यह क्यों पूछतीं, “रुपया तूने चुराया या हलधर ने?” किसी भी सिद्धांत से मेरा झूठ बोलना इस समय स्तुत्य नहीं तो क्षम्य जरूर था। मैंने छूटते ही कहा, “हलधर कहते थे किसी से बताया तो मार ही जालूंगा।” अम्मा, “देखा, वही बात निकली न! मैं तो कहती थी कि बच्चा की ऐसी आदत नहीं; पैसा तो वह हाथ से छूता ही नहीं, लेकिन सब लोग मुझी को उल्लू बनाने लगे।” हलधर, “मैंने तुमसे कब कहा था कि बताओगे, तो मारूंगा?” मैं, “वहीं, तालाब के किनरो तो!” हलधर, “अम्मा, बिल्कुल झूठ है!” चची, “झूठ नहीं, सच है। झूठा तो तू है, और तो सारा संसार सच्चा है, तेरा नाम निकल गया है न! तेरा बाप नौकरी करता, बाहर से रुपये कमा लाता, चार जने उसे भला आदमी कहते, तो तू भी सच्चाहोता। अब तो तू ही झूठा है। जिसके भाग में मिठाई लिखी थी, उसने मिठाई खायी। तेरे भाग में तो लात खाना ही लिखा है!” यह कहते हुए चची ने हलधर को खोल दिया और हाथ पकड़कर भीतर ले गयीं। मेरे विषय में स्नेहपूर्ण आलोचना करके अम्मा ने पांसा पलट दिया था, नहीं तो अभी बेचारे पर न जाने कितनी मार पड़ती। मैंने अम्मा के पास बैठ कर अपनी निर्दोषिता का राग खूब अलापा। मेरी सरल-हृदय माता मुझे सत्य का अवतार समझती थीं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि सारा अपराध हलधर का है। एक क्षण बाद मैं गुड़-चबेना लिए कोठरी से बाहर निकला। हलधर भी उसी वक्त चिउड़ा खाते हुए बाहर निकले। हम दोनों साथ-साथ बाहर आये और अपनी-अपनी बीती सुनाने लगे। मेरी कथा सुखमय थी, हलधर की दुखमय; पर अंत दोनों का एक था - गुड़ और चबेना।

कजाकी

मेरी बाल-स्मृतियों में ‘कजाकी’ एक न मिटनेवाला व्यक्ति है। आज चालीस साल गुजर गये; कजाकी मूर्ति अभी तक आंखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी बड़ा ही हंसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही जिंदादिल था। वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात-भर रहता और सवेरे डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर एक उद्विग्न दशा में उसकी राह देखा करता। ज्यों ही चार बजते, व्याकुल होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और थोड़ी देर में कजाकी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुंझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता। वह सांवले रंग का गठीला, लंबा जवान था। शरीर सांचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूंछें, उसके सुडौल चहेरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होती थी। मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता, उसकी झुंझुनी और तेजी से बजने लगती, और मेरे हृदय में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एख क्षण में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह स्थान मेरीअभिलाषाओं का स्वर्ग था। स्वर्ग के निवासियों को भी शायद वह आंदोलित आनंद न मिलता होगा जो मुझे कजाकी के विशाल कंधों पर मिलता था। संसार मेरी आंखों में तुच्छ हो जाता और जब कजाकी मुझे कंधे पर लिए हुए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा मालूम होता मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूं। कजाकी डाकखाने में पहुंचता तो पसीने से तर रहता, लेकन आराम करने की आदत न थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता; कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे गाकर सुनाता और कभी कहानियां सुनाता। उसे चोरी और डाके, मार-पीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियां याद थीं। मैं ये कहानियां सुनकर विस्मयपूर्ण आनंद में मग्न हो जाता; उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखी प्राणियों का पालन करते थे। मुझे उन पर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।

दो एक दिन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गयी। सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई न दिया। मैं खोया हुआ-सा सड़क पर दूर तक आंखें फाड़-फाड़कर देखता था, पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; ‘झुन-झुन’ की वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी। प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जाती थी। उधर से किसी को आते देखता तो पूछता - कजाकी आता है? पर या तो कोई सुनता ही न था, या केवल सिर हिला देता था। सहसा ‘झुन-झुन’ की आवाज कानों में आयी। मुझे अंधेरे में चारों ओर भूत की दिखलाई देते थे - यहां तक कि माता जी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अंधेरा हो जाने के बाद, मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी। लेकिन वह आवाज सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा। हां, वह कजाकी ही था। उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध में बदल गयी। मैं उसे मारने लगा, फिर रूठ करके अलग खड़ा हो गया। कजाकी ने हंसकर कहा, “मारोगे तो मैं एक चीज लाया हूं, वह न दूंगा।” मैंने साहस करके कहा, “जाओ मत देना, मैं लूंगा ही नहीं।” कजाकी, “अबी दिखा दूं तो दौड़कर गोद में उठा लोगे।” मैंने पिघलकर कहा, “अच्छा, दिखा दो।” कजाकी, “तो आकर मेरे कंधे पर बैठ जाओ, भाग चलूं। आज बहुत देर हो गयी है। बाबूजी बिगड़ रहे होंगे।” मैंने अकड़कर कहा, “पहेल दिखा दो।”

मेरी विजय हुई। अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी और रुक सकता, तो शायद पांसा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखलाई, जिसे वह एक हाथ से छाती से चिपटाये हुए था; लंबा मुंह था, और दो आंखे चमक रही थीं। मैंने उसे दौड़कर कजाकी की गोद से ले लिया। यह हिरन का बच्चा था। आह! मेरी उस खुशी का कौन अनुमान करेगा? तब से कठिन परीक्षाएं पास कीं, अच्छा पद भी पाया, रायबहादुर भी हुआ, पर वह खुशी फिर न हासिल हुई। मैं उसे गोद में लिए, उसके कोमल स्पर्श का आनंद उठाता घर की ओर दौड़ा। कजाकी को आने में क्यों इतनी देर हुई, इसका खयाल ही न रहा। मैंने पूछा, “यह कहां मिला, कजाकी?” कजाकी, “भैया, यहां से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा जंगल है। उसमें बहुत-से हिरन हैं। मेरा बहुत जी चाहता था कि कोई बच्चा मिल जाये तो तुम्हें दूं। आज यह बच्चा हिरनों के झुंड के साथ दिखलाई दिया। मैं झुंड की ओर दौड़ा तो सब के सब भागे। यह बच्चा भी भागा, लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। और हिरन तो बहुत दूर निकल गये, यही पीछे रह गया। मैंने इसे पकड़ लिया। इसी से इतनी देर हुई।” यों बातें करते हम दोनों डाकखाने पहुंचे। बाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, कजाकी ही पर उनकी निगाह पड़ी।

बिगड़कर बोले, “आज इतनी देर कहां लगाई? अब थैला लेकर आय़ा है, उसे लेकर क्या करूं? डाक तो चली गय़ी। बता, तूने इतनी देर कहां लगाई?” कजाकी के मुंह से आवाज न निकली। बाबूती ने कहा, “तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी है। पेट भरा तो मोटा हो गया! जब भूखों मरने लगेगा तो आंखें खुलेंगी।” कजाकी चुपचाप खड़ा रहा। बाबूजी का क्रोध और बढ़ा। बोले, “अच्छा, थैला रख दे और अपने घर की राह ले। हुंह! अब डाक लेकर आया है। तेरा क्या बिगड़ेगा? जहां चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथे तो मेरे जायेगी, जवाब तो मुझसे तलब होगा।” कजाकी ने रुआंसे होकर कहा, “सरकार, अब कभी देर न होगी।” बाबूजी, “आज क्यों देर की, इसका जवाब दे?” कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी भी जबान बंद हो गयी। बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुंझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, बाकी सारे दिन दफ्तर में लिखा करते थे। उन्होंने बार-बार एक सहकारी के लिए अफसरों से विनय की थी, पर इसका कुछ असर न हुआ था। यहां तक कि तातील के दिन भी बाबूजी दफ्तर ही में रहते थे। केवल माता जी उनका क्रोध शांत करना जातनी थीं, पर वह दफ्तर में कैसे आतीं। बेचारा कजाकी उसी वक्त मेरे देखते-देखते निकाल दिया गया। उसाक बल्लम, चपरास और साफा छीन लिया गया और उसे डाकखाने से निकल जाने का नादिरी हुक्म सुना दिया। आह! उस वक्त मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से कजाकी का बाल भी बांका नहीं हुआ। किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है, उतना ही घमंड कजाकी को अपनी चपरास पर था। जब वह चपरास खोलने लगा तो उसके हाथ कांप रहे थे और आंखों से आंसू बह रहे थे। और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल वस्तु थी जो मेरी गोद में मुंह छिपाये ऐसे चैन से बैठी हुई थी, मानो माता की गोद में हो। जब कजाकी चला तो मैं धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे चला। मेरे घर के द्वारा पर आकर कजाकी ने कहा, “भैया, अब घर जाओ। सांझ हो गयी।” मैं चुपचाप खड़ा अपने आंसुओं के वेग को सारी शक्ति से दबा रहा था। कजाकी फिर बोला, “भैया, मैं कहीं बाहर थोड़े ही चला जाऊंगा। फिर आऊंगा और तुम्हें कंधे पर बैठाकर कुदाऊंगा। बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो क्या इतना भी न करने देंगे। तुमको छोड़कर मैं कहीं न जाऊंगा, भैया! जाकर अम्मा से कह दो, कजाकी जाता है। उसका कहा-सुना माफ करें।” मैं दौड़ा हुआ घर गया, लेकिन अम्मा जी को कुछ कहने के बदले बिलख-बिलखकर रोने लगा। अम्मा जी रसोई के बाहर निकलकर पूछने लगीं, “क्यां हुआ बेटा? किसने मारा! बाबूजी ने कुछ कहा है? अच्छा, रह तो जाओ, आज घर आते हैं तो पूछती हूं। जब देखो, मेरे लड़के को मारा करते हैं। चुप रहो बेटा, अब तुम उनके पास कभी मत जाना।” मैंने बडी मुश्किल से आवाज संभालकर कहा, “कजाकी...” अम्माने समझा, कजाकी ने मारा है; बोली, “अच्छा, आने दो कजाकी को। देखो, खड़े-खड़े निकलवा देती हूं। हरकारा होकर मेरे राजा बेटा को मारे! आज ही तो साफा, बल्लम, सब छिनवाये लेती हूं। वाह!” मैंने जल्दी से कहा, “नहीं, कजाकी ने नहीं मारा। बाबूजी ने उसे निकाल दिया है; उसका साफा, बल्लम छीन लिया - चपरास भी ले ली।” अम्मा, “यह तुम्हारे बाबूजी ने बहुत बुरा किया। वह बेचारा अपने काम में इतना चौकस रहता है। फिर उसे क्यों निकाला?” मैंने कहा, “आज उसे देर हो गयी थी।”

यह कहकर मैंने हिरन के बच्चे को गोद से उतार दिया। घर में उसके भाग जाने का भय न था। अब तक अम्मा जी की निगाह भी उस पर न पड़ी थी। उसे फुदकते देखकर वह सहसा चौंक पड़ीं और लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया कि कहीं यह भयंकर जीव मुझे काट न खाये! मैं कहां तो फूट-फूटकर रो रहा था और कहां अम्मा की घबराहट देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ा। अम्मा, “अरे, यह तो हिरन का बच्चा है! कहां मिला?” मैंने हिरन के बच्चे का सारा इतिहास और उसका भीषण परिणाम आदि से अंत तक कह सुनाया, “अम्मा, यह इतना तेज भागता था कि कोई दूसरा होता तो पकड़ ही न सकता। सन-सन, हवा की तरह उड़ता चला जाता था। कजाकी पांच-छः घंटे तक इसके पीछे दौड़ता रहा। तब कहीं जाकर बचा मिले। अम्मा जी, कजाकी की तरह कोई दुनिया भर में नहीं दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गयी। इसलिए बाबूजी ने बेचारे को निकाल दिया - चपरास, साफा, बल्लम, सब छीन लिया। अब बेचार क्या करेगा? भूखों मर जायेगा।” अम्मा ने पूछा, “कहां है कजाकी? जरा उसे बुला तो लाओ।” मैंने कहा, “बाहर तो खड़ा है। कहता था, अम्मा जी से मेरा कहासुना माफ करवा देना।”

अब तक अम्मा जी मेरे वृत्तांत को दिल्लगी समझ रही थी। शायद वह समझती थीं कि बाबूजी ने कजाकी को डांटा होगा, लेकिन मेरा अंतिम वाक्य सुनकर संशय हुआ कि सचमुच तो कजाकी बरखास्त नहीं कर दिया गया। बाहर आकर ‘कजाकी! कजाकी’ पुकारने लगीं, पर कजाकी का कहीं पता न था। मैंने बार-बार पुकारा, लेकिन कजाकी वहां न था। खाना तो मैंने खा लिया - बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खास कर जब खड़ी भी सामने हो। मगर बड़ी रात पड़े-पड़े सोचता रहा मेरे पास रुपये होते तो एक लाख रुपये कजाकी को दे देता और कहता - बाबूजी से कभी मत बोलना। बेचारा भूखों मर जायेगा! देखूं, कल आता है कि नहीं। अब क्या करेगा आकर? मगर आने को तो कह गया है। मैं कल उसे अपने साथ खाना खिलाऊंगा। यही हवाई किले बनाते-बनाते मुझे नींद आ गयी।

तीन दूसरे दिन मैं दिन-भर अपने हिरन के बच्चे की सेवा-सत्कार में व्यस्त रहा। पहले उसका नामकरण संस्कार हुआ। ‘मुन्नू’ नाम रखा गया। फिर मैंने उसका अपने सब हमजोलियों और सहपाठियों से परिचय कराया। दिन ही भर में वह मुझसे इतना हिल गया कि मेरे पीछे-पीछे दौड़ने लगा। इतनी ही देर में मैंने उसे अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया। अपने भविष्य में बननेवाले विशाल भवन में उसके लिए अलग कमरा बनाने का भी निश्चय कर लिया; चारपाई, सैर करने की फिटन आदि का भी आयोजन कर लिया। लेकिन संध्या होते ही मैं सब कुछ छोड़-छोड़कर सड़क पर जा खड़ा हुआ और कजाकी की बाट जोहने लगा। जानता था कि कजाकी निकाल दिया गया है; अब उसे यहां आने की कोई जरूरत नहीं रही। फिर न जाने मुझे क्यों यह आशा हो रही थी कि वह आ रहा है। एकाएक मुझे खयाल आया कि कजाकी भूखों मर रहा होगा। मैं तुरंत घर आया। अम्मा दीया-बत्ती कर रही थीं। मैंने चुपके से एक टोकरी में आटा निकाला; आटा हाथों में लपेटे, टोकरी से गिरते आटे की एक लकीर बनाता हुआ भागा। जाकर सड़क पर खड़ा हुआ ही था कि कजाकी सामने से आता दिखलाई दिया। उसके पास बल्लम भी था, कमर में चपरास भी थी, सिर पर साफा भी बधा हुआ था। बल्लम में डाक का थैला भी बंधा हुआ था। मैं दौड़कर उसकी कमर से चिपट गया और विस्मित होकर बोला, “तुम्हें चपरास और बल्लम कहां से मिल गया, कजाकी?” कजाकीने मुझे उठाकर कंधे पर बिठाते हुए कहा, “वह चपरास किस काम की थी, भैया? वह तो गुलामी की चपरास थी, यह पुरानी खुशी की चपरास है। पहले सरकार का नौकर था, अब तुम्हारा नौकर हूं।” यह कहते-कहते उसकी निगाह टोकरी पर पड़ी, जो वहीं रखी थी। बोला, “यह आटा कैसा है, भैया?”

मैने सकुचारे हुए कहा, “तुम्हारे लिए तो लाया हूं। तुम भूखे होगे, आज क्या खाया होगा?” आंखें तो मैं न देख सका; उसके कंधे पर बैठा हुआ था। हां, उसकी आवाज से मालूम हुआ कि उसका गला भर आया है। कजाकी, “भैया, क्या रूखी ही रोटियां खाऊंगा। दाल, नमक, घी - और तो कुछ नहीं है।” मैं अपनी भूल पर बहुत लज्जित हुआ। सच तो है, बैचारा रूखी रोटियां कैसे खायेगा? लेकिन नमक, दाल, घी कैसे लाऊं? अब तो अम्मा चौके में होंगी। आटा लेकर तो किसी तरह भाग आया था (अभी तक मुझे न मालूम था कि मेरी चोरी पकड़ ली गयी। आटे की लकीर ने सुराग दे दिया है) अब ये तीन-तीन चीजें कैसे लाऊंगा? अम्मा से मांगूंगा, तो कभी न देंगी। एक-एक पैसे के लिए तो घंटों रुलाती हैं, इतनी सारी चीजें क्यों देने लगीं? एकाएक मुझे एक बात याद आयी। मैंने अपनी किताबों के बस्तें में कई आने-पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे जमा करके रखने में बड़ा आनंद आता था। मालूम नहीं अब वह आदत क्यों बदल गयी। अब भी वही हालत होती तो शायद इतना फाकेम्सत न रहता। बाबूजी मुझे प्यार तो कभी न करते थे, पर पैसे खूब देते थे; शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे। इनकार करने में मेरे रोने और मचलने का भय था। इस बाधा को वह दूर ही से टाल देते थे। अम्मा जी का स्वभाव इससे ठीक प्रतिकूल था। उन्हें मेरे रोने और मचलने से किसी काम में बाधा पड़ने का भय न था। आदमी लेटे-लेटे दिन भर रोना सुन सकता है; हिसाब लगाते हुए जोर की आवाज से ध्यान बंट जाता है। अम्मा मुझे प्यार तो बहुत करती थीं, पर पैसे का नाम सुनते ही उनकी त्योरियां बदल जाती थीं। मेरे पास किताबें न थीं। हां, एक बस्ता था, जिसमें डाकखाने के दो-चार फार्म तह करके पुस्तक रूप में रखे हुए थे। मैंने सोचा-दाल, नमक और घी के लिए क्या उतने पैसे काफी न होंगे? मेरी तो मुट्ठी में नहीं आते। यह निश्चय करके मैंने कहा, “अच्छा, मुझे उतार दो तो मैं दाल और नमक ला दूं, मगर रोज आया करोगे न?” कजाकी, “भैया, खाने को दोगे तो क्यों न आऊंगा।” मैंने कहा, “मैं रोज खाने को दूंगा।” कजाकी बोला, “तो मैं रोज आऊंगा।” मैं नीचे उतरा और दौड़कर सारी पूंजी उठा लाया। कजाकी को रोज बुलाने के लिए उस वक्त मेरे पास कोहनूर हीरा भी होता तो उसको भेंट करने में मुझे पसोपेश न होता। कजाकी ने विस्मित होकर पूछा, “ये पैसे कहां पाये, भैया?” मैंने गर्व से कहा, “मेरे ही तो हैं।”

कजाकी, “तुम्हारी अम्मा जी तुमको मारेंगी, कहेंगी - कजाकी ने फसुलाकर मंगवा लिए होंगे। भैया, इन पैसों की मिठाई ले लेना और मटके में रख देना। मैं भूखों नहीं मरता। मेरे दो हाथ हैं। मैं भला भूखों मर सकता हूं?” मैंने बहुत कहा कि पैसे मेरे हैं, लेकिन कजाकी ने न लिए। उसने बड़ी देर तक इधर-उधर की सैर कराई, गीत सुनाये और मुझे घर पहुंचाकर चला गया। मेरे द्वार पर आटे की टोकरी भी रख दी। मैंने घर में कदम रखा ही था कि अम्मा जी ने डांटकर कहा, “क्यों रे चोर, तू आटा कहं ले गया था? अब चोरी करना सीखता है? बता, किसको आटा दे आया, नहीं तो तेरी खाल उधेड़ कर रख दूंगी।” मेरी नानी मर गयी। अम्मा क्रोध में सिंहनी हो जाती थी। सिटपिटाकर बोला, “किसी को तो नहीं दिया।” अम्मा, “तूने आटा नहीं निकाला? देख, कितना आटा सारे आंगन में बिखरा पड़ा है?” मैं चुप खड़ा था। वह कितना ही धमकाती थीं, पुचकारती थीं, पर मेरी जबान न खुलती थी। आने वाली विपत्ति के भय से प्राण सूख रहे थे। यहां तक कि यह भी कहने की हिम्मत न पड़ती थी की बिगड़ती क्यों हो, आटा तो द्वारा पर रखा हुआ है, और न उठाकर लाते ही बनता था, मानो क्रिया-शक्ति ही लुप्त हो गयी हो, मानो पैरों में हिलने की सामर्थ्य ही नहीं। सहसा कजाकी ने पुकारा, “बहू जी, आटा द्वार पर रखा हुआ है। भैया मुझे देने को ले गये थे।” यह सुनते ही अम्मा द्वार की ओर चली गयीं। कजाकी से वह परदा न करती थीं। उन्होंने कजाकी से कोई बात की या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन अम्मा जी खाली टोकरी लिए हुए घर में आयीं। फिर कोठरी में जाकर संदूक से कुछ निकाला और द्वार की ओर गयीं। मैंने देखा कि उनकी मुट्ठी बंद थी। अब मुझसे वहां खड़े न रहा गया। अम्मा जी के पीछे-पीछे मैं भी गया। अम्मा ने द्वार पर कई बार पुकारा, मगर कजाकी चला गया था। मैंने बड़ी धीरता से कहा, “मैं जाकर खोज लाऊं, अम्मा जी?” अम्मा जी ने किवाड़ बंद करते हुए कहा, “तुम अंधेरे में कहां जाओगे, अभी तो यहीं खड़ा था। मैंने कहा कि यहीं रहना; मैं आती हूं। तब तक न जाने कहां खिसक गया। बड़ा संकोची है। आटा तो लेता ही न था। मैंने जबरदस्ती उसके अंगोछे में बांध दिया। मुझे तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। न जाने बेचारे के घर में कुछ खाने को है कि नहीं। रुपये लायी थी कि दे दूंगी, पर न जाने कहां चला गया।” अब तो मुझे भी साहस हुआ। मैंने अपनी चोरी की पूरी कथा कह डाली। (बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर मा-बाप उन पर जितना असर डाल सकते हैं, जितनी शिक्षा दे सकते हैं, उतने बूढ़े बनकर नहीं।) अम्मा जी ने कहा, “तुमने मुझसे पूछ क्यों न लिया? क्या मैं कजाकी को थोड़ा-सा आटा न देती?” मैंने इसका उत्तर न दिया। दिल में कहा - इस वक्त तुम्हें कजाकी पर दया आ गयी है, जो चाहे दे डालो, लेकिन मैं मांगता तो मारने दौड़ती। हां, यह सोच कर चित्त प्रसन्न हुआ कि अब कजाकी भूखों न मरेगा। अम्मा जी उसे रोज खाने को देंगी और वह रोज मुझे कंधे पर बिठाकर सैर करायेगा। दूसरे दिन मैं दिन भर मुन्नू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर जा कर खड़ा हो गया। मगर अंधेरा हो गया और कजाकी का कहीं पता नहीं। दीये जल गये, रास्ते में सन्नाटा छा गया, पर कजाकी न आया। मैं रोता हुआ घर आया। अम्मा जी ने पूछा, “क्यों रोते हो, बेटा? क्या कजाकी नहीं आया?” मैं और जोर से रोने लगा। अम्मा जी ने मुझे छाती से लगा लिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उनका भी कंठ गद्‌गद हो गया है। उन्होंने कहा, “बेटा, चुप हो जाओ, मैं कल किसी हरकारे को भेजकर कजाकी को बुलवाऊंगी।”

मैं रोते-रोते ही सो गया। सवेरे ज्यों ही आंखें खुलीं, मैंने अम्मा जी से कहा, “कजाकी को बुलवा दो।” अम्मा ने कहा, “आदमी गया है, बेटा! कजाकी आता होगा।” मैं खुश होकर खेलने लगा। मुझे मालूम था कि अम्मा जी जो बात कहती हैं, उसे पूरा जरूर करती हैं। उन्होंने सबेरे ही एक हरकारे को भेज दिया था। दस बजे जब मैं मुन्नू को लिए हुए घर आया तो मालूम हुआ कि कजाकी अपने घर पर नहीं मिला। वह रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो रही थी कि न जाने कहां चला गया। उसे भय था कि वह कहीं भाग गया है। (बालकों का हृदय कितना कोमल होता है, इसका अनुमान दूसरा नहीं कर सकता। उनमें अपने भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता कि कौन-सी बात उन्हें विकल कर रही है, कौन-सा कांटा उनके हृदय में खटक रहा है, क्यों बार-बार उन्हें रोना आता है, क्यो वे मन मारे बैठे रहते हैं, क्यों खेलने में जी नहीं लगता?) मेरी भी यही दशा थी। कभी घर में आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा पहुंचता। आंखें कजाकी को ढूं़ढ रही थीं। वह कहां चला गया? कहीं भाग तो नहीं गया? तीसरे पहर को मैं खोया हुआ-सा सड़क पर खड़ा था। सहसा मैंने कजाकी को एक गली में देखा। हां, वह कजाकी ही था। मैं उसकी और चिल्लाता हुआ दौड़ा, पर गली में उसका पता न था, न-जाने किधर गायब हो गया। मैंने गली के इस सिरे से उस सिरे तक देखा, मगर कहीं कजाकी की गंध तक न मिली। घर जाकर मैंने अम्मा जी से यह बात कही। मुझे ऐसा जान पड़ा कि वह यह बात सुनकर बहुत चिंतित हो गयीं। इसके बाद दो-तीन दिन तक कजाकी न दिखाई दिया। मैं भी अब उसे कुछ-कुछ भूलने लगा। दस-बारह दिन और बीत गये। दोपहर का समय था। बाबूजी खाना खा रहे थे। मैं मुन्नू के पैरों में पीनस की पैंजनियां बांध रहा था। एक औरत घूंघट निकाले हुए आयी और आंगन में खड़ी हो गयी। उसके कपडे फटे हुए और मैले थे, पर गोरी, सुंदर स्त्री थी। उसने मुझसे पूछा, “भैया, बहू जी कहां हैं?” मैंने उसके पास जाकर उसका मुंह देखते हुए कहा, “तुम कौन हो, क्या वेचती हो?” “कुछ बेचती नहीं हूं, तुम्हारे लिए ये कमलगट्टे लायी हूं। भैया, तुम्हें तो कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं न?” मैंने उसके हाथों से लटकती हुई पोटली को उत्सुक नेत्रों से देखकर पूछा, “कहां से लायी हो? देखें।”

“तुम्हारे हरकारे ने भेजा है, भैया।” मैंने उथलकर पूछा, “कजाकी ने?” औरत ने सिर हिलाकर ‘हां’ कहा और पोटली खोलने लगी। इतने में अम्मा जी भी रसोई से निकल आयीं। उसने अम्मा के पैरों का स्पर्श किया। अम्मा ने पूछा, “तू कजाकी की घरवाली है?” औरत ने सिर झुका लिया। अम्मा, “आजकल कजाकी क्या करता है।” औरत ने रोकर कहा, “बहू जी, जिस दिन से आपके पास से आटा लेकर गये हैं, उसी दिन से बीमार पड़े हैं। बस, भैया-भैया किया करते हैं। भैया ही में उनका मन बसा रहता है। चौंक-चौंककर ‘भैया! भैया!’ कहते हुए द्वार की ओर दौड़ते हैं। न जाने उन्हें क्या हो गया है, वहू जी! एक दिन मुझसे कुछ कहा न सुना, घर से चल दिये और एक गली में छिपकर भैया को देखते रहे। जब भैया ने उन्हें देख लिया, तो भागे। तुम्हारे पास आते हुए लजाते हैं।” मैंने कहा, “हां-हां, मैंने उस दिन तुमसे जो कहा था, अम्मा जी!” अम्मा, “घर में कुछ खाने-पीने को है?” औरत, “हां बहू जी, तुम्हारे आशीर्वाद से खाने-पीने का दुख नहीं है। आज सवेरे उठे और तालाब की ओर चले गये। बहुत कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जायेगी। मगर न माने! मारे कमजोरी के पैर कांपने लगते हैं, मगर तालाब में घुसकर ये कमलगट्टे तोड़ लाये। तब मुझसे कहा - ले जा, भैया को दे आ। उन्हें कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं। कुशल-क्षेम पूछती आना।” मैंने पोटली से कमलगट्टे निकाल लिए थे और मजे से चख रहा था। अम्मा ने बहुत आंखें दिखाइर्ं, मगर यहां इतनी सब्र कहां। अम्मा ने कहा, “कह देना सब कुशल है।” मैंने कहा, “यह भी कह देना कि भैया ने बुलाया है। न जाओगे तो फिर तुमसे कभी न बोलेंगे, हां।” बाबूजी खाना खाकर निकल आये थे। तौलिए से हाथ-मुंङ पोंछते हुए बोले, “और यह भी कह देना कि साहब ने तुमको बहाल कर दिया है। जल्दी जाओ, नहीं तो कोई दूसरा आदमी रख लिया जायेगा।” औरत ने अपना कपड़ा उठाया और चली गयी। अम्मा ने बहुत पुकारा, पर वह न रुकी। शायद अम्मा जी उसे सीधा देना चाहती थीं। अम्मा ने पूछा, “सचमुच बहाल हो गया?” बाबूजी, “और क्या झूठे ही बुला रहा हूं। मैंने तो पांचवें ही दिन बहाली की रिपोर्ट कर दी थी।”

अम्मा, “यह तुमने अच्छा किया।” बाबूजी, “उसकी बीमारी की यही दवा है।” चार प्रातःकाल मैं उठा तो क्या देखता हूं कि कजाकी लाठी टेकता हुआ चला आ रहा है। वह बहुत दुबला हो गया था, मालूम होता था, बूढा हो गया है। हरा-भरा पेड़ सूखकर ठूंठा हो गया था। मैं उसकी ओर दौड़ा और उसकी कमर से चिपट गया। कजाकी ने मेरे गाल चूमे और मुझे उठाकर कंधे पर बैठालने की चेष्टा करने लगा, पर मैं न उठ सका। तब वह जानवरों की भांति भूमि पर हाथों और घुटनों के बल खड़ा हो गया और मैं उसकी पीठ पर सवार होकर डाकखाने की ओर चला। मैं उस वक्त फूला न समाता था और शायद कजाकी मुझसे भी ज्यादा खुश था। बाबूजी ने कहा, “कजाकी, तुम बहाल हो गये। अब कभी देर न करना।” कजाकी रोता हुआ पिताजी के पैरों पर गिर पड़ा, मगर शायद मेरे भाग्य में दोनों सुख भोगना न लिखा था - मुन्नी मिला, तो कजाकी छूटा; कजाती आया तो मुन्नू हाथ से गया और ऐसा गया कि आज तक उसके जाने का दुख है। मुन्नू मेरी ही थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूं, वह भी कुछ न खाता था। उसे भात से बहुत ही रुचि थी, लेकिन जब तक खूब घी न पड़ा हो, उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता था और मेरे ही साथ उठता भी था। सफाई तो उसे इतनी पसंद थी कि मल-मूत्र त्याग करने के लिए घर से बहार मैदान में निकल जाता था। कुत्तों से उसे चिढ़ थी; कुत्तों को घर में न घुसने देता। कुत्ते को देखते ही थाली से उठ जाता और उसे दौड़कर घर से बाहर निकाल देता था। कजाकी को डाकखाने में छोड़कर जब मैं खाना खाने गया तो मुन्नू भी आ बैठा। अभी दो-चार ही कौर खाये थे कि एक बड़ा-सा झबरा कुत्ता आंगन में दिखाई दिया। मुन्नू उसे देखते ही दौड़ा। दूसरे घर जाकर कुत्ता चूहा हो जाता है। झबरा कुत्ता उसे आते देखकर भागा। मुन्नू को अब लौट आना चाहिए था, मगर वह कुत्ता उसके लिए यमराज का दूत था। मुन्नू को उसे घर से निकालकर भी संतोष न हुआ। वह उसे घर के बाहर मैदान में भी दौड़ाने लगा। मुन्नू को शायद खयाल न रहा कि यहां मेरी अमलदारी नहीं है। वह उस क्षेत्र में पहुंच गया था, जहां झबरे का भी उतना ही अधिकार था, जितना मुन्नू का। मुन्नू कुत्तों को भगातेभगाते कदाचित्‌ अपने बाहुल पर घमंड करने लगा था। वह यह न समझता था कि घर में उसकी पीठ पर घर के स्वामी का भय काम किया करता है। झबरे ने इस मैदान में आते ही उलटकर मुन्नू की गरदन दबा दी। बेचारे मुन्नू के मुंह से आवाज तक न निकली। जब पड़ोसियों ने शोर मचाया तो मैं दौड़ा। देखा तो मुन्नू मरा पड़ा है और झबरे का कहीं पता नहीं।