भाग-३- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ Munshi Premchand द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-३- प्रेमचंद की बाल कहानियाँ

प्रेमचंद की बाल कहानियां

संकलन एवं संपादन

हरिकृष्ण देवसरे



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अनुक्रम

•गुल्ली-डंडा

•दो बैलों की कथा

•पंच परमेश्वर

गुल्ली-डंडा

एक हमारे अंग्रेजी दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूंगा कि गुल्लीडंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़को को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूं, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूं। न लाॆन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ की एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ गये तो खेल शुरु हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महंगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाडियों में शुमार ही नहीं हो सकता। यहां गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है, पर हम अंग्रेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गयी। हमारे स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलायें; जो बिना दाम-कौडी के खेले जाते हैं। अंग्रेजी खेल उनके लिए है, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो। ठीक है, गुल्ली से आंख फूट जाने का भय रहता है तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टांग टूट जाने का भय नहीं रहता? अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रुचि है। मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है। वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियां काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाडियों के जमघट, वह पदना और पदाना, वह लडाई-झगडे, वह सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब... जब...। घर वाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौंके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्मा की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूं कि पदाने में मस्त हूं; न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है। मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, लंबा, बंदरों की-सी लंबी-लंबी, पतली-पतली उंगलियां, बंदरों की-सी ही चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, उस पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीडों पर लपकती है। मालूम नहीं उसके मां-बाप थे या नहीं, कहां रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-क्लब का चैंपियन। जिसकी तरफ वह आ जाये, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और उसे अपना गोइयां बना लेते थे। एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था। मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन भर मस्त रह सकते हैं, पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य है, लेकिन गया अपना दांव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था। मैं घर की ओर भागा। अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ। गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा मारकर बोला, “मेरा दांव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो?” “तुम दिन भर पदाओ तो मैं दिन भर पदता रहूं?” “हां, तुम्हें दिन भर पदना पड़ेगा।”

“न खाने जाऊं, न पीने जाऊं?” “हां। मेरा दांव दिए बिना कहीं नहीं जा सकते।” “मैं तुम्हारा गुलाम हूं?” “हां, मेरे गुलाम हो।” “मैं घर जाता हूंष देखुं मेरा क्या कर लेते हो?” “घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है? दांव दिया है, दांव लेंगे।” “अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।” “वह तो पेट में चला गया।” “निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?” “अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। तुमसे मांगने न गया था।” “जब मेरा अमरूद न दोगे, मैं दांव न दूंगा।” मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए ही देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया तो फिर उसे मुझसे दांव लेेेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जायेगा? अमरूद पैसे के पांच वाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था। या ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा, “मेरा दांव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नही जानता।” मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता। मैंने उसे गाली दी; उसने उससे कडड़ी गाली दी, और गाली ही नहीं, एक चांटा जमा दिया। मैंने उसे दांत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा। गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरंत आंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हंसता हुआ घर जा पहुंचा। मैं थानेदार का लड़का एक मामूली गरीब के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हुआ, लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

दो उन्हीं दिनों पिताजी का वहां से तबादला हो गया। नयी दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड जाने का बिल्कुल दुख न हुआ। पिताजी दुखी थे। यह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्माजी भी दुखी थी, यहां सब चीजें सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता था। लड़को से जीट उड़ा था - वहां ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसेऐसे ऊंचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहां के अंग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेल हो जाये। मेरे मित्रों की फैली हुई आंखें और चकित मुद्रा बतला रही थीं कि मैं उनकी निगाह में कितना ऊंचा उठ गया हूं। बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे? उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्धा हो रही थी। मानो कह रहे थे - तुम भगवान हो भाई, जाओ; हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी। बीस साल गुजर गये। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहुंचा और डाकबंगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियां हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और कस्बे की सैर करने निकला। आंखें किसी प्यासे पथिक की भांति बचपन के उन क्रीडा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थी; पर उस परिचित नाम के सिवा वहां और कुछ परिचित न था। जहां खंडहर था, वहां पक्के मकान खड़े थे। जहां बरगद का पुराना पेड था, वहां अब एक सुंदर बगीचा था। स्थान की काया-पलट हो जयी थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता तो मैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियां बाहें खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं, मगर वह दुनिया बदल गयी थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊं और कहूं, “जुम मुझे भूल गयीं। मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूं।” सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्लीडंडा खेलते देखा। एक क्षम के लिए मैं अपने को बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊंचा अफसर हूं, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में। जाकर एक लड़के से पूछा, “क्यों बेटे, यहां कोई गया नाम का आदमी रहता है?” एक लडके ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा, “कौन गया? गया दलित?” मैंने यों ही कहा, “हां-हां, वही। गया नाम का कोई आदमी है तो। शायद वही हो।’’ “हां, है तो।” “जरा उसे बुला ला सकते हो?” लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पांच हाथ लंबे काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर ही से पहचान गया। उसकी ओर लपकतना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊं, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला, “कहो गया, मुझे पहचानते हो?”

गया ने झुककर सलाम किया, “हां मालिक, भला पहचानूंगा क्यों नहीं? आप मजे में रहे?” “बहुत मजे में। तुम अपनी कहो?” “डिप्टी साहब का साईस हूं।” “मतई, मोहन, दुर्गा सब कहां हैं? कुछ खबर है?” “मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं, आप?” “मैं तो जिले का इंजीनियर हूं?” “सरकार तो पहले की बड़े जहीन थे।” “अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?” गया ने मेरी ओर प्रश्न भरी आंखों से देखा, “अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूंगा सरकार, अब तो पेट के धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।” “आओ, ाज हम तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दांव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।” गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था।

लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर तमाशा बना लेंगे और अच्छीं-खासी भीड़ लग जायेगी। उस भीड़ में वह आनंद कहां रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से दूर जाकर एकांत में खेलें। वहां कौन कोई देखनेवाला बैठा होगा! मजे से खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खायेंगे। मैं गया को लेकर डाकबंगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारम किये हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था। मैंने पूछा, “तुम्हें कभी हमारी याद आती थी, गया? सच कहना।” गया झोंपता हुआ बोला, “मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूं। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था, नहीं तो मेरी क्या गिनती।” मैंने कुछ उदास होकर कहा, “लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?” गया ने पछताते हुए कहा, “वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।” “वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूं, न धन में। कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है।” इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम की ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहां आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमके बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गयी। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे गिरी। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहिने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेलियों में ही पहुंचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोंकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उससे मिल जाती थीं। जैसे उसके हाथों में कोई चुंबक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो, लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धांधलियां कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था; हालांकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती तो मैं झटपट उसे खुद उठा लेता और दोबारा टांड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियां देख रहा था, पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गये। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे में आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना; लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं। कभी दाहिने जाती है, कभी बांये; कभी आगे, कभी पीछे। आध घंटे पदाने के बाद एक बार गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धांधली की, “गुल्ली डंडे में नहीं लगी, बिल्कुल पास से गयी; लेकिन लगी नहीं।” गया ने किसी प्रकार का असंतोष नहीं प्रकट किया। “न लगी होगी।” “डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?” “नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे!” बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा धपला करके जीता बचता। यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया। सहसा गुल्ली फिर डंडे में लगी और इतनी जोर से लगी जैसे बंदूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका; लेकिन क्यों न एक बार सब को झूठ बताने की चेष्टा करूं? हरज ही क्या है? मान गया तो वाहवाह, नहीं तो दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अंधेरे का बहाना करके जल्दी से गला छुड़ा लूंगा। फिर कौन दांव देने आता है। गया ने विजय के उल्लास में कहा, “लग गयी, लग गयी! टन से बोली।” मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा, “तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।” “टन से बोली है सरकार!” “और जो किसी इर्ंट में टकरा गयी हो?” मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था, लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।

“हां, किसी इर्ंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।” मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया, लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धांधली कर लेने के बाद, गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी। इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी तो मैंने बड़ी उदारता से दांव देना तय कर दिया। गया ने कहा, “अब तो अंधेरा हो गया भैया, कल पर रखो।” मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाये, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा। “नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दांव ले लो।” “गुल्ली सूझेगी नहीं।” “कुछ परवाह नहीं।” गया ने पदाना शुरू किया, पर उसे अब बिल्कुल अभ्यास न था। उसने दो बार टांड़ लगाने का इरादा किया, पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दांव खो बैठा। मैंने अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया। “एक दांव और खेल लो। तुम पहले ही हाथ में हुच गये।”

“नहीं भैया, अब अंधेरा हो गया।” “तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?” “खेलने का समय कहां मिलता है, भैया!” हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुंच गये। गया चलते-चलते बोला, “कल यहां गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊं।” मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने आया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले। अधिकांश युवक थे जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टांड़ लगाता तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी। पदनेवालों में एक युवक ने धांधली की! उसने अपने विचार मेंगुल्ली लपत ली थी। गया का कहना था - गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोंकने की नौबत आयी है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता तो जरूर मारपीट हो जाती। मैं खेल में न था, परदूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनंद आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धांधली की, बेईमान की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खिला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूं। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गयी है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूं, अदब पा सकता हूं, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दवा के योग्य हूं। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूं।

दो बैलों की कथा

एक जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धइहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गाएं सींग मरती हैं, ब्यापी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभीकभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है; किंतु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुंच गये हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्‌गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कदाचित्‌ सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है ‘बैल’। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया के ताऊ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, एतएव उसका स्थान गधे से नीचा है। झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाही जाति के थे-देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे। बहुत दिनों से साथ रहतेरहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करनेवाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूंघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे-विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से; आत्मीयता के भाव से जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाज़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुंह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुंह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था। संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोइर्ं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, परझूरी के साले गया को घर तक गोइर्ं ले जाने में दांतो पसीना आ गया। पीछे से हांकता तो दोनों दायें-बायें भागते; पगहिया पकड़कर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुंकरते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते, “तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था और काम ले लेते; हमें तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?” संध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुंचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाये गये तो एक ने भी उसमें मुंह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनके छूट गया था। यह नया घर, नया गांव, नये आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे। दोनों ने अनपी मूक-भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कानखियों से देखा और लेट गये। जब गांव में सोता पड़ गया तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गयी थी। एक-एक झटके में रस्सियां टूट गयीं। झूरी प्रातःकाल सोकर उठा तो देखा कि दोनों ैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गरांव लटक रहा है। घुटने तक पांव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है। झूरी बैलों को देखर स्नेह से गद्‌गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था। घर और गांव के लड़के जमा हो गये और तालियां बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गांव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनन्दनपात्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियां लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी। एक बालक ने कहा, “ऐसे बैल किसी के पास न होंगे?” दूसरे ने समर्थन किया, “इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये?” तीसरा बोला, “बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।” इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ। झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी। बोली, “कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहां काम न किया, भाग खड़े हुए।” झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका, “नमकहराम क्यों है? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?” स्त्री ने रौब के साथ कहा, “बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।” झूरी ने चिढ़ाया, “चारा मिलता तो क्यों भागते?” स्त्री चिढ़ी, “भागे इसलिे तो वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूं, कहां से खली और चोकर मिलता है; सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंगी, खायें चाहें मरें।”

वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाये। बैलों ने नांद में मुंह डाला तो फीकी-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खायें? आशा-भरी आऐंखो से द्वार की ओर ताकने लगे। झूरी ने मजूर से कहा, “थोडी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बै?” “मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।” “चुराकर डाल आ।” “ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।” दो दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता। दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था। संध्या-समय पर पहुंचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बांधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अएपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहां मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा! नांद की तरफ आंखें तक न उठायीं। दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पांव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पांव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर गो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जो, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियां न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते। हीरा ने मूक-भाषा में कहा, “भागना व्यर्थ है।” मोती ने उत्तर दिया, “तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।” “अबकी बड़ी मार पड़ेगी।” “पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहां तक बचेंगे?” “गया दो आदमियों के साथ दौड़ा जा रहा है। दोनों के हाथों में लाठियां हैं।”

ंमोती बोला, “कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।” हीरा ने समझाया, “नहीं भाई! खड़े हो जाओ।” “मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूंगा!” “नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।” मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुंचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है। आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियां लिए निकाली और दोनों के मुंह में देकर चली गयी। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहां भी किसी सज्जन का बास है, लड़की भैरो की थी। उसकी मां मर चुकी थी। सौतेली मां मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गयी थी। दोनों दिन-भर जोते जाते, डंडे खाते, अड़ते। शाम को थान पर बांध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियां खिला जाती।

प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था। एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा, “अब तो नहीं सहा जाता, हीरा!” “क्या करना चाहते हो?” “एकाध को सींगों पर उठाकर फेंक दूंगा।” “लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियां खिलाती है, उसी की लड़की है, जो उस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जायेगी?” “तो मालकिन को न फेंक दूं। वही तो उस लड़की को मारती है।” “लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।” “तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताो, तुड़ाकर भाग चलें।” “हां, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?”

“इसका एस उपाय है। पहले रस्सी को छोड़ा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।” रात को जब बालिका रोटियां खिलाकर चली गयी, दोनों रस्सियां चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुंह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे। सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूंछें खड़ी हो गयीं। उसने उनके माथे सहलाये और बोली, “खोले देती हूं। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहां लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जायें।” उसने गरांव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे। मोती ने अपनी भाषा में पूछा, “अब चलते क्यों नहीं।” हीरा ने कहा, “चलोें तो, लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आयेगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।” सहसा बालिका चिल्लाई, “दोनों फूफा वाले बैल भाग जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो।” गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गांव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गये। कहां तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आये थे, उसका यहां पता न था। नये-नये गांव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए? हीरा ने कहा, “मालूम होता है, राह भूल गये।” “तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।” “उसे मार गिराते तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें?” दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है। जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूचने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाये और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहां तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। संभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा-खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

तीन अरे! यह क्या? कोई सांड़ डौकता चला आ रहा है। हां, सांड़ ही है। यह सामने आ पहुंचा। दोनों मित्र बगलें झांक रहे हैं। सांड़ पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है। मोती ने मूक-भाषा में कहा, “बुरे फंसे। जान बचेगी? कोई उपाय सोचो।” हीरा ने चिंतित स्वर में कहा, “अपने घमंड से फूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।” “भाग क्यों न चलें?” “भागना कायरता है।” “तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो-ग्यारह होता है।” “और जो दौड़ाये?” “तो फिर कोई उपाय सोचो जल्द!” “उपाय यही है कि उस परदोनों जने एक साथ चोट करें? मैं आगे से रगेदता हूं, तुम पीछे से रगेदो; दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।” दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। सांड ़को भी संगठित शत्रुओं से लडऩे का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौडा़या। सांड़ उसकी तरफ मुडा़, तो हीरा ने रगेदा। सांड ़चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे। एक बार सांड ़झल्लाकर हीरा का अंत कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट में सींग भोंक दिया। सांड ़क्रोध में आकर पीछ ेफिरा ता ेहीरा न ेदसूर ेपहल ूस ेसीग्ां भाकें दिया। आखिर बचेारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहां तक कि सांड ़बेदम होकर गिर पडा़। तब दोनों ने उसे छोड ़दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे। मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा, “मेरा जी तो चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूं।” हीरा ने तिरस्कार किया, “गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।” “यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।”

“अब घर कैसे पहुँचेंगे, वह सोचो।” “पहले कुछ खा लें, तो सोचें।” सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो ही चार ग्रास खाये थे कि दो आदमी लाठियां लिए दौड़ पड़े, और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड़ पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धंसने लगे। न भाग सका। पकड़ लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, तो लौट पड़ा। फसेंगे तो दोनों फसेंगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया। प्रातःकाल दोनों मित्र कांजीहौंस में बंद कर दिए गए।

चार दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहां कई भैंसे थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुरदों की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की और टकटकी लगाये ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती?

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी। मोती से बोला, “अब तो नहीं रहा जाता मोती!” मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया, “मुझे तो मालूम होता है, प्राण निकल रहे हैं।” “इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहां से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।” “आओ दीवार तोड़ डालें।” “मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।” “बस इसी ूते पर अकड़ते थे!” “सारी अकड़ निकल गयी।” बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा। इसने दौड़-जौड़कर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा। उसी समय कांजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का उजापन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी-सी रस्सी से बांध दिया। मोती ने पड़े-पड़े कहा, “आखिर मार खायी, क्या मिला?” “अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।” “ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गये।” “जोर तो मारती ही जाऊंगा, चाहे कितने ही बंध पड़ते जायें।” “जान से हाथ धोना पड़ेगा।” “कुछ परवाह नहीं। यों भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहां बंद हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा तो सब मर जायेंगे।” “हां, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी जोर लगाता हूं।” मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और फिर हिम्मत बढ़ी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वंद्वी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की जोर-आजमीई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गयी। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा तो आधी दीवार गिर पड़ी। दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियां सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियां निकलीं। इसके बाद भैंसें भी खिसक गयीं, पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्योंग खड़े थे। हीरा ने पूछा, “तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?” एक गधे ने कहा, “जो कहीं फिर पकड़ लिए जायें।” “तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।” “हमें तो डर लगता है, हम यहीं पड़े रहेंगे।” आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गदे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें या न भागें, और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था। जब वह हार गया तो हीरा ने कहा, “तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाये।” मोती ने आंखों में आंसू लाकर कहा, “तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड़ गये तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊं?” हीरा ने कहा, “बहुच मार पड़ेगी। लोग समझ जायेंगे, यह तुम्हारी शरारत है।” मोती गर्व से बोला, “जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े तो क्या चिंता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गयी। वे सब तो आशीर्वाद देंगे।”

यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब अपने बंधु के पास आकर सो रहा। भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफ ीहै कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बांध दिया गया। पांच एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहां बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हां, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गये थे कि उठा तक न जाता था; ठठरियां निकल आयी थीं। एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहां पचास-साठ आदमी जमा हो गये। तब दोनों मित्र निकाले गये और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृत बैलों का कौन खरीदार होता? सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यंत कटोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उंगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों के दिल कांप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया। हीरा ने कहा, “गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी।” मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया, “कहते हैं, भगवान्‌ सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?” “भगवान्‌ के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान्‌ ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचायेंगे?” “यह आदमी छुरी चलायेगा। देख लेना।” “तो क्या चिंता है? मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जायेगी।” नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी कांप रही थी। बेचारे पांव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे; क्योंकि वह जरा भी चाल दीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था। राह में गाय-बैलों का ेक रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिंता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुखी हैं। सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हां, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गांव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गयी। आह! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएं पर हम पुर चलाने आया करते थे; यही कुआं है। मोती ने कहा, “हमारा घर नगीच आ गया।” हीरा बोला, “भगावन्‌ की दया है।” “मैं तो अब घर भागता हूं।” “यह जाने देगा?” “इसे मैं मार गिराता हूं।” “नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहां से हम आगे न जायेंगे।” दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भांति फुलेलें करते हुए घर की और दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था। दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियां पकड़ लीं। झूरी ने कहा, “मेरे बैल हैं।” “तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूं।” “मैं तो समझता हूं चुराये लिए आते हो! चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूंगा तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?” “जाकर थाने में रपट कर दूंगा।” “मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।” दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गांव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, परखड़ा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियां दे रहा था, गालियां निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयी शूर की भांति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गांव के लोग यह तमाशा देखते थे और हंसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया तो मोती अकड़ता हुआ लौटा। हीरा ने कहा, “मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।” “अगर वह मुझे पकड़ता तो मैं बे-मारे न छोड़ता।” “अब न आयेगा।” “आयेगा तो दूर ही से खबर लूंगा। देखूं, कैसे ले जाता है।” “जो गोली मरवा दे?” “मर जाऊंगा, पर उसके काम तो न आऊंगा।” “हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।” “इसीलिए कि हम इतने सीधे हैं।” जरा देर में नांदों में खली, भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे। सारे गांव में उछास-सा मालूम होता था। उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिये।

पंच परमेश्वर

जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होत थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ जाते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता, केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है। इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की थी, खूब रकाबियां मांजी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से मुक्त कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-सुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से होता है। गुरुजी की कृपादृष्टि चाहिए। एतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वादअथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी। विद्या उसके भाग्य ही में न थी तो कैसे आती? मगर गुजराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोंटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोंटे के प्रताप से ाज आसपास के गांवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे-बेनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हल्के का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी - सब उनकी कृपा की आकांक्षा करते थे। एतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।

दो जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी। परंतु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लंबे-चौड़े वादे करके वह मिलिकयत अपने नाम चढ़वा ली थी। जब तक दान-पत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गयी, पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के सात कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मनशेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं। बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है! बघारी दाल के बना रोटियां नहीं उतरतीं। जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक एक गांव मोल ले लेते। कुछ दिन खालाजान ने सुना और सह, पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी - गृहस्वामिनी के प्रबंध में दखल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा, “बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपया दे दिया करो, मैं अपना अलग पका-खा लूंगी।” जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया, “रुपये क्या यहां फलते हैं?” खला ने नम्रता से कहा, “मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं?” जुम्मन ने गंभीर स्वर से जवाब दिया, “तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि मौत से लड़कर आयी हो?” खाला बिगड ़गयी,ं उन्हानें ेपचांयत करन ेकी धमकी दी। जम्ुन हसं,े जिस तरह काइेर् शिकारी हिरन का ेजाल की तरफ जात ेदखेरक मन-ही-मनहसंता है। व ेबाले,े “हा,ं जरूर पचांयत करो। फैसला हा ेजाये। मझ्ुा ेभी यह रात-दिन की खटपट पसदं नहीं।” पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस पास के गांवों में ऐसा कौन था, जो उनके अनुग्रह का ॠी न हो? ऐसा कौन था, जो उनको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उनका सामना कर सके? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आयेंगे ही नहीं।

तीन इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आसपास के गांवों में दौड़ती रहीं। कमर झुककर कमान हो गयी थी। एकएक पग चलना दूभर था। मगर बात आ पड़ी थी, उसका निर्णय करना जरूरी था। विरला ही कोई भला ादमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुख के आंसू न बहायें हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूंहां करके टाल दिया। किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियां दीं और कहा, “कब्र में पांव लटके हुए हैं, आज मरे कल दूसरा दिन हो, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्ला का नाम लो। तुम्हें खेती-बारी से अब क्या काम?” कुछ ऐसे सज्जन भी थेय, जिन्हें हास्य के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपलामुंह, सन के-से बाल - इतनी सामग्रियां एकत्र हों, तब हंसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घूमकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली, “बेटा, तुम भी क्षण भर के लिए पंचायत में चले आना।” अलगू, “मुझे बुलाकर क्या करोगी? कई गांवों के आदमी तो आवेंगे ही।” खाला, “अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी हूं, अब आनेन-आने का अख्तियार उनको है।” अलगू, “यों आने को मैं आऊंगा, मगर पंचायत में मुंह न खोलूंगा।” खाला, “क्यों बेटा?” अलगू, “अब इसका क्या जवाब दूं? अपनी खुशी। जुम्मन मेरे पुराने मित्र हैं। उनसे बिगाड़ नहीं कर सकता।” खाला, “बेटा, क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?” हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाये तो उसे खबरनहीं होती, परंतु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू उस सवाल का कोई उत्तर न दे सके। परउनके हृदय में ये शब्द गूंज रहे थे - क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?

चार संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले ही से फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तंबाकू आदि का प्रबंध भी किया था। हां, वे स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी से जरा दूर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरव-युक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहां भी पंचायत आरंभ हुई। फर्श की एक-एक ंगुल जमीन भर गयी, पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित मसाय़कों में से केवल वही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असंभव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गांव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा गो गये थे।

पंच लोग बैठ गये तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की, “पंचो, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे हीन-हयात रोटीकपड़ा देना कबूल किया था। साल भर मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा, पर अब रात-दिन रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट भर रोटी मिलती है और न तन का कपड़ा। बेकस-बेवा हूं। कचहरी-दरबार कर नहीं सकती। तुम्हारे सिवाय और किसे अपना दुख सुनाऊं? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूं। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखो तो उसे समझाओ। क्यों एक बेकस की आह लेता है? पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाउंगी।” रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गांव में बसा लिया था, बोले, “जुम्मन मियां, किसे पंच बदते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे, वही मानना पड़ेगा।” जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वही लोग दिख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले, “पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। खालाजान जिसे चाहें बदें, मुझे कोई उज्र नहीं।” खाला ने चिल्लाकर कहा, “अरे अल्लाह के बंदे! पंचों के नाम क्यों नहीं बता देता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो।”

जुम्मन ने क्रोध से कहा, “अब इस वक्त मेरा मुंह न खुलवाओ। तुम्हारी बन बड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो।” खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गयी, वह बोली, “बेटा! खुला से डरो। पंच न किसी के दोस्त होते हैं, न किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो? और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो तो जाने दो, अलगू चौधरी को तो मानते हो? लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूं।” जुम्मनन शेख आनंद से फूल उठे, परंतु भावों को छिपाकर बोले, “चौधरी ही सही। मेरे लिए जैसे रामधन मिश्र वैसे अलगू।” अलगू इस झमेले में फंसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले, “खाला! तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।” खाला ने गंभीर स्वर से कहा, “बेटा! दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।” अलगू चौधरी सरपंच हुए। रामधन मिश्र जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़यिा को मन में बहुत कोसा। अलगू चौधरी बोले, “जुम्मन शेख! हम और तुम पुराने दोस्त हैं! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हमसे भी जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं। मगर इस समय तुम और बूढ़ी खालादोनं हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी हो, करो।” जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाजी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बातें कर रहा है, एतएव शांत-चित्त होकर बोले, “पंचो, तीन साल हुए, खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें हीन-हयात, खाना-कपड़ा देना कबूल किया था। खुदा गवाह है कि आज तक मैंने खालाजान को कोई तकलीफ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी मां के समान समझता हूं, उनकी खिदमत करना मेरा फर्ज है; मगर औरतों में जरा अनबन रहती है। इसमें मेरा क्या वश है? खालाजन मुझसे माहवार खर्च अलग मांगती है। जायदाद जितनी है, वह पंचों से चिपी नहीं है। उससे इतना मुनाफा नहीं होता कि मैं माहवार खर्च दे सकूं। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार खर्च का कोई जिक्र नहीं, नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले में न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार है, जो फैसला चाहें, करें। अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पडता था, एतएव वह पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह आरंभ की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़ी की चोट की तरह पडता था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों परमुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया है। अभी यह मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गयी कि मेरी जड़ खोदने पर तुलाहुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आयेगी? जुम्मन शेख इसी संकल्प-विकल्प में पडे ़हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया - जुम्मन शेख! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार खर्च दिया जाये। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता ह ैकि माहवार खचर् दिया जा सके। बस, यही हमरा फैसला है। अगर जम्ुमन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्बानामा रद्द समझा जाये।

पांच यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का-सा व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे! इसे समय के हेर-फेर के सिवाय और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-मित्रों की परीक्षा हो जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ैसे कपटी-धोखेबाज न होते तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? हैजा, प्लेग आदि व्याधियां दुष्कर्मों के ही दंड हैं। मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीतिपरायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे - इसी का नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती,दोस्ती की जगह है, किंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती। इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अभ वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखाई देते। इतना पुराना मित्रतारूपी वृक्ष सत्य का एक हल्का झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू ही की जमीन पर खड़ा था। उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज्यादा करने लगे। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह, जैसे तलवार से ढाल मिलती है। जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। हर घड़ी यही चिंता रहती कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।

छह अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है, पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं। जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्दी मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी जोड़ी मोल लाये थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बड़ी-बड़ीसींगोंवाले थे। महीनों तक आसपास के गांवों के लोग उनके दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने बाद इस जोज़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्त से कहा, “यह दगाबाजी की सजा है। इंसान सब्र भले ही कर जाये,पर खुदा नेक बद सब देखता है।” अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिया दिया है। चौधराइन ने जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया। उसने कहा, “जुम्मन ने कुछ करा दिया है।” चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्दमालाओं की नदी बहा दी। व्यंग्य, वक्रोक्ति, अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुई। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डांट-डपटकर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्कपूर्ण सोंटे से लिया। अब अकेला बैल किस काम का? उसका जोड़ा बहुत ढूंढ़ा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गांव में एक समझू साहू थे, इक्का-गाड़ी हांकते थे। गांव से गुड़, घी लादकर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते और गांव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन भर में बेखटके तीन खेपें हों। आजकल तो एक ही खेप के लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दौड़ाया, बाल भौंरी की पहचान कराई, मोलतोल किया और उसे लाकरद्वार पर बांध ही दिया। एक महीन में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे की परवाह न की। समझू बैल पाया तो लगे रगेदने। वे दिन में तीन-तीन, चार-चार खेंपे करने लगे। न चारे की फिक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गये, वहां कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर थे तो चैन की वंशी बजती थी। छठे-छमासे कभी बहली में जोते जाते थे, तब खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहां बैलराम को रातिब, साफ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ-साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सवेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहां वह सुख-चैन, कहां यह आठों पहर की खपन! महीने फर में ही वह पिस-सा गया। इक्के का जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। हड्डियां निकल आयी थीं, पर था वह पानीदार, मार की सहन न थी। एक दिन चौथी खेप में साहूजी ने दूना बोझ लादा। दिन भर का थका जानवर, पैर न उठते थे। उस पर साहूजी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़कर चला। वह कुछ दूर दौड़ा और फिर, बस चाहा कि जरा दम ले लूं; पर साहूजी को जल्द घर पहुँचने की फिक्रथी। एतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया। पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहूजी ने बहुत पीटा, टांग पकड़कर खींचा, नथुनों में लकड़ी ठूंस दी। पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहूजी को कुछ शंका हुई। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोलकर एलग किया; और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुंचे। वे बहुत चीखे-चिल्लाये, पर देहात का रास्ता बच्चों की आंख की तरह सांझ होते ही बंद हो जाता है, कोई नजर न आया। आसपास कोई गांव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल र और दुर्रे लगाये और कोसने लगे - अभागे! तुझे मरना ही था तो घर पहुंच कर मरता। ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा! अब गाड़ी कौन खींचे? इस तरह साहूजी खूब जलेभुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचा था, दो-ढाई सौ रूपये कमर में बंधे थे। इसके सिवाय गाड़ी पर कई बोरे नमक था; एतएव छोड़कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया, फिर हुक्का पिया। इस तरह साहूजी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वे जागते ही रहे, पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा तो थैली गायब! घबराकर इधर-उधर देखा, तो कई कनस्तर तेल भी नदारद! अफसोस में बेचारे सिर पीटने लगे और पछाड़ खाने लगे। प्रातःकाल रोते-बिलखते घर पहुँचे। साहुआईन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी तब पहले रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियां देने लगी, “निगोड़ेने ऐसा कुलच्छना बैल दिया कि जन्म भर की कमाई लुट गयी।” इस घटना को हुए कई महीने बीत गये। अलगू जब अपने बैल के दाम मांगते तब साहूजी और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये कुत्तों की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते, “वाह! यहां तो सारे जन्म की कमाई लुट गयी, सत्यानास हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम मांगने चले हैं! आंखों में धूल झोंक दी, सत्यानासी बैल दे दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया! हम भी बनिये के बच्चे हैं, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हे में मुंह धो आओ, तब नाम लेना। न जी मानता हो तो हमारा बैल खोल ले जाओ, महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। रुपया क्या लोगे?” चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और साहूजी के बर्राने की पुष्टि करते। इस फटकारें सुनकर बेचारे चौधरी अपना-सा मुंह लेकर लौट आते, परंतु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वे भी गरम पड़े। साहूजी बिगडकर लाठी ढूंढ़ने घर चले गये। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुसकर किवाड़ बंद कर लिया। शोरगुल सुनकर गांव के भलेमानुष जमा हो गये। उन्होंने दोनों को समझाया। साहूजी को दिलासा देकर घर से निकाला। वे परामर्श देने लगे कि एस तरह सिर फुटौवल से काम न चलेगा। पंचायत करा लो। जो कुछ तय हो जाये, उसे स्वीकार कर लो।साहूजी राजी हो गये। अलगू ने भी हामी भर ली।सात पंचायत की तैरायिरां होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनने शुरू किये। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचयत बैठी। वही संध्या का समय था। केतों में कौवे पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय यह था कि मटर की फलियों पर उनका अधिकार है या नहीं और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाये, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में यह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्य को बैमुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उसे स्वयं अपने-अपने मित्रों को भी दगा देने में संकोच नहीं होता। पंचायत बैठ गयी तो रामधन मिश्र ने कहा, “अब देरी क्यों? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी, किस-किस को पंच बदते हो?” अलगू ने दीन भाव से कहा, “समझू साहू ही चुन लें।” समझू खड़े हुए और कड़ककर बोले, “मेरी ओर से जुम्मन शेख।” जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक-धक करने लगा, मानो किसी ने अएचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू केमित्र थे। वे बात को ताड़ गये। पूछा, “क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र को नहीं।” चौधरी ने निराश होकर कहा, “नहीं, मुझे क्या उज्र होगा?” अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूलकर भटकने लगने लगते हैं, तब यह ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिात उसकी ओर से कितने चिंतित रहते हैं! वे उसे कुल-कलंक समझते हैं। परंतु थोड़े ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वही अव्यवस्थित चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांत-चित्त हो जाता है। यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है। जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर टलना उचित नहीं! पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किये। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय मेंतो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल्य के अतिरिक्त समझू को दंड देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फैसला सुनाया, “अलगू चौधरी और समझू साहू! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिया जाता तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम कराया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध नहीं किया गया।” रामधन मिश्र बोले, “समझू ने बैल को जानबूझकर मार है, एतएव उनके दंड लेना चाहिए।” जुम्मन बोले, “यह दूसरा सवाल है। हमको इससे कोई मतलब नहीं।” झगडू साहू ने कहा, “समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।” जुम्मन बोले, “यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। वे रियायत करें, तो उनकी भलमनसी है।”अलगू चौधरी भूले न समाये। उठ खड़े हुए और जोर से बोले, “पंच परमेश्वर की जय!” चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई, “पंच परमेश्वर की जय!” प्रत्येक मनुष्य जुम्मन की नीति को सराहता था - इसे कहते हैं न्याय! यह मनुष्य का काम नहीं; पंच में परमेश्वर वास करते हैं। यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है? थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आये और उनके गले लिपटकर बोले, “भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राणघातक शत्रु बन गया था, पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन! न्याय के सिवाय उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से खुदा बोलता है।” अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गयी।