प्रतिसंसार
धीरेन्द्र अस्थाना
यह दोपहर के ठीक दो बजे का लपलपाता हुआ वक्त था। पूरी गली में बेतरह सन्नाटा था और वह दूर तक खाली पड़ी थी।
घर के सामने पहुंच कर उसने बंद दरवाजे की कुंडी को खड़खड़ा दिया और आहट सूंघने लगा, लेकिन भीतर की खामोशी पूर्ववत रही। वह देर तक खड़ा रहा और खुद पर शर्मिंदा होता रहा। इस तरह बिना बताये वह अचानक आया है, इस बात को मां किस तरह लेगी? पूरे दो साल वह इस घर से बाहर बने रहा है और इस तरह बाहर रहा है जैसे इस घर के साथ उसका कोई सरोकार ही न हो। न चिट्ठी, न कोई सूचना और न ही कोई पता। उसे मालूम था कि मां दरवाजा खोलने पर जब अपने सामने उसे पायेगी तो चौंककर अपने पुराने अंदाज में कहेगी—‘अरे! तू जिंदा है? मैं तो सोच रही थी कि...।‘ मां हमेशा बात को ऐसी जगह ले जाकर अधूरी छोड़ती है कि सुनने वाला सिर से पांव तक पानी—पानी हो जाये।
पानी। हां, पसीने ने पानी की लकीरों का चेहरा पहन लिया था और उसके चेहरे से फिसलकर गरदन और गरदन से फिसलकर पीठ पर रपटने लगा था।
उसने कुंडी को जरा जोर से खड़खड़ाया। गली के सन्नाटे में कुंडी के खड़कने की आवाज दूर तक भागी, लेकिन गली पार करने से पहले ही लड़खड़ायी और गिर पड़ी। दरवाजा अभी तक बंद था। उसने उलटे हाथ की पहली उंगली को मोड़ कर माथे का पसीना साफ किया और सीधे हाथ से कुंडी को फिर खड़का दिया। अब की बार उसने कुंडी को जोर से और देर तक खड़खड़ाया। इतनी जोर से और अनवरत कि आवाज ने गली पार कर ली।
आखिर दरवाजा खुला। मां ही थी। वह पैर छूने को नीचे झुका और मां ने उसकी आशा के विपरीत काम किया। यानी वह बुक्का फाड़कर रो पड़ी। उसने चौंककर इधर—उधर देखा, लेकिन गली पूर्ववत सुनसान थी। हां, उसका सन्नाटा जरूर मां के आर्तनाद से खंडित हो गया था। मां का रोना आर्तनाद जैसा ही था। उसने अपने दिल के भीतर कुछ हिलता—डुलता—सा महसूस किया। मां को लिये हुए वह घर के भीतर आ गया। करीब आठ फुट का कच्चा आंगन पार करने के बाद वह कमरा आ गया, जिसमें उसके जीवन के कई जवान बरस टहल—टहल कर गुजरे थे। कमरे में पिता थे जो एक खरहटी खाट पर चित्त पड़े हुए अपनी दोनों आंखों को फाड़कर छत पर चिपकाये हुए थे और मरे हुए आदमी का भ्रम दे रहे थे।
उसने कंधे का थैला दरवाजे पर टांग दिया और पिता के पैर छुए। पिता के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई तो उसने मुड़ कर मां की तरफ देखा। मां धोती के पल्ले से अपनी आंखें पोंछ रही थी।
‘जब से बिट्टू की मौत हुई है तभी से इनकी ऐसी हालत है।‘ मां ने अपनी अशक्त आवाज बाहर खींची और उसके कदम थरथरा गये।
‘बिट्टू की मौत?‘ उसकी आंखें फैल गयीं और खड़ा नहीं रहा जा सका। वह पिता की चारपाई पर बैठ गया और चश्मा उतार कर साफ करने लगा। चश्मा उतारते ही चीजें धुंधला गयीं। मां का चेहरा भी, जिसके भावों से अब उसका सामना नहीं हो पा रहा था, सिर्फ कानों में आवाज आ रही थी —‘हां, पिछली गर्मियों में बिट्टू गुजर गया।‘
‘कैसे?‘ उसने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘तुमने इत्तला तक नहीं दी।‘ लेकिन इस आरोप के साथ ही उसका गला सूख गया और वह अपने मुंह से निकले एक पूरे गलत वाक्य पर शर्मिंदा हो आया। मां उसे कैसे और कहां बताती? मां के पास उसका पोस्टल एड्रेस तक तो है नहीं। उसने चश्मा पहन लिया, ताकि बिट्टू की मौत की सूचना से आंखों में तिर आया पानी एकाएक ही दिखायी न पड़े।
दो वर्ष के भीतर कितना—कुछ उलट—पलट गया है, उसने पिता की तरफ देखते हुए सोचा। पिता बदल रहे हैं, इसका अहसास तो उसे दो साल पहले ही हुआ था जब वह पूरे एक वर्ष बाद घर लौटा था और पाया था कि पिता रिटायर होकर घर बैठ चुके हैं और बिट्टू अपना हाईस्कूल का इम्तहान देने के बाद आगे की पढ़ाई छोड़कर एक रेफ्रीजरेटर की दुकान में सात रुपये रोज पर काम करने लगा है।
तभी उसे यह भी पता चला था कि रिटायर होने के बाद पिता ने कहीं प्राइवेट नौकरी पाने के लिए बहुतेरे प्रयत्न किये, मगर अपनी एकदम कमजोर हो चुकी नजर और अट्ठावन साल में सत्तर साल के लगने के कारण असफल रहे। तब उसने पिता को काफी बदले हुए रूप में देखा था। बात—बात पर उत्तेजित हो पड़ने और क्रोध में उन्मत्त हो जाने वाले पिता पस्त पड़ रहे थे। उसकी घर वापसी पर वह सिर्फ इतना बोले थे — ‘चेहरा बताता है कि सुखी नहीं हो। सुखी होते तो यह संतोष रहता कि मैं ही गलत था, पर देख रहा हूं कि मैं गलत नहीं था।‘
उसने जवाब नहीं दिया था, पर पिता को सही और खुद को गलत भी नहीं मान पाया था। जवाब देने का कोई लाभ भी नहीं था, क्योंकि पिता के इस और इस जैसे ढेरों आक्रामक सवालों का जवाब वह कई बार दे चुका था।
वह सप्ताह भर का कार्यक्रम बना कर आया था, लेकिन घर के हालात और पिता के ठंडे किस्म के विरोध के आगे टिका रहना उसे दूसरे ही दिन से कठिन लगने लगा था। तीसरे रोज मां की सिसकियों और बिट्टू तथा पिता के पथरीले मौन को पीछे छोड़ वह वापस अपनी दुनिया में लौट गया था। तब के बाद वह अब आया था — पूरे दो वर्ष बाद और इस दुनिया को पहले से अधिक कठिन और असह्य पा रहा था। पसीना पोंछते—पोंछते जब वह थक गया तो उसे ध्यान आया कि घर में पंखा नहीं है।
पंखा मां के हाथ में था, जिसे वह चाय के गिलास के साथ उसके लिए लायी थी। पंखा और चाय का गिलास लेने के बाद उसने मां से पानी के लिए कहा और तबाह होती इस दुनिया के अंधेरे को अपने भीतर उतरता महसूस कर अपने पसीने पर हाथ का पंखा झलने लगा।
क्या इस तबाही और अंधेरे की जिम्मेदारी अंततः उसी पर जाती है? उसने सोचा। शायद हां, शायद नहीं।
यह चार साल पहले की बात है, जब वह ताजा—ताजा ग्रेजुएट हुआ था और अपने खुद के तथा पिता के सपनों को पूरा करने की खातिर अपने शहर से निराश होकर अंततः राजधानी गया था।
हां, उसका भी एक सपना था। वह नमिता से प्रेम करता था और उससे शादी करके एक सुहानी—सी व्यक्तिगत दुनिया बसाना चाहता था। एक इस तरह की व्यक्तिगत दुनिया जिसमें वह हो और नमिता हो और तेजी से अपनी शिक्षा पूरी करता बिट्टू और जिंदगी—भर खटने वाले पिता तथा पिसती हुई मां इतमीनान की सांसों के साथ जिंदा हों। ज्यादा बड़ी इच्छाएं उसकी नहीं थीं। उसने इतना कम चाहा था कि सपना उधड़ न सके।
लेकिन सपना न सिर्फ उधड़ा था, बल्कि फट कर एक बदरंग चिथड़े में बदल गया था। मां पानी ले आयी थी। उसने पानी पिया और चाय पीता हुआ मां को देखने लगा जो बेतरह बुढ़ा गयी थी। उसने गौर किया कि मां का चेहरा और हाथ हिलने लगे हैं। फिर उसने पिता को देखा — वह अभी तक छत को घूर रहे थे। सहसा ही वह पिता के प्रति ममतालू हो उठा। अपना एक हाथ उसने पिता के माथे पर रख दिया।
तुरंत एक चमत्कार सा हुआ। पिता की छत पर टंगी हुई आंखें उसके चेहरे पर आकर चिपक गयीं और उन्होंने फुसफुसाती आवाज में कहा, ‘मुझे तुम्हारे रहम की जरूरत नहीं है।‘
जैसे बिजली का झटका लगा हो। उसने अपना हाथ खींच लिया। पिता की आंखें फिर से छत पर चली गयीं।
‘अरे, तेरी एक चिट्ठी आयी थी।‘ तभी मां ने याद—सा करते हुए कहा, ‘देखती हूं कहां रख दी, कई महीने हो गये।‘
‘किसकी थी?‘
‘निम्मी की,‘ मां ने जवाब दिया और कमरे से बाहर चली गयी।
निम्मी! याद के टांके उधड़ गये और उसकी आंखों में निम्मी यानी नमिता का गोल, गोरा चेहरा उभर आया। नमिता के इस गोल चेहरे को उसने अपनी दोनों हथेलियों के बीच लेकर उसका माथा और आंखें चूमी थीं और एक गहरे विश्वास के साथ कहा था, ‘इंतजार करना, मैं जल्दी ही आऊंगा। दिल्ली में जरूर ही कोई—न‘ कोई नौकरी मिल जायेगी और तब हमें शादी करने से कोई रोक नहीं सकेगा।‘
‘मुझे डर लग रहा है।‘ नमिता ने अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया था, ‘अकेले में मैं कमजोर पड़ जाती हूं। ऐसा नहीं हो सकता कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं?‘
‘नहीं निम्मी, यह संभव नहीं होगा। अभी न घर है, न नौकरी। मैं खुद एक दोस्त के कमरे पर रहूंगा। मैं गया और आया। मुश्किल से दो—एक महीने लगेंगे। यकीन करो।‘
और यही यकीन उसने मां को भी दिलाया था और मां से सौ रुपये लेकर दिल्ली चला गया था। यह चार साल पहले की बात है, जब नौकरी को लेकर रोज ही उसकी पिता के साथ तना—तनी हो जाती थी और पिता की नौकरी के अंतिम कुछ महीने ही बाकी रह गये थे और बिट्टू के हाईस्कूल के इम्तहानों का तथा नमिता के इंटर के इम्तहानों का परिणाम आना शेष था। तब नमिता की उम्र उन्नीस और उसकी बाइस साल थी।
बाइस साल की उम्र, जिसमें सिर्फ विश्वास होते हैं, उनके टूटने से उपजा चौंकाऊ आतंक और भयावह बियाबान नहीं। वह उस उम्र को लेकर दिल्ली गया था।
सबसे पहला विश्वास तब टूटा जब दिल्ली के दोस्त ने दूसरे ही दिन कह दिया कि उसे अपना इंतजाम कहीं और करना होगा। दोस्त आर.के. पुरम के एक सरकारी मकान में एक छोटे—से कमरे के भीतर अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था और एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क था। यह उसके उन दोस्तों में से था जिन्हें मुहावरे की भाषा में ‘लंगोटिया‘ कहा जाता है। वह सन्न रह गया था और वहां से चलकर पुरानी दिल्ली की एक धर्मशाला में पहुंच गया था।
कुछ ही रोज बाद उसने पाया कि पैसे खत्म होने को हैं और नौकरी का कहीं कोई संकेत तक नहीं है। झक मारकर वह फिर दोस्त से मिला और दोस्त ने निहायत ही झल्लाते स्वर में उससे पूछा, ‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि बिना पैसे, बिना मकान और बिना काम के तुम्हें दिल्ली आने की हिम्मत पड़ी तो कैसे?
वह कहना चाहता था —‘मां बिट्टू, पिता, नमिता, सपना, जीवन,‘ लेकिन उसके मुंह से निकला —‘सिर्फ पचास रुपये उधार दे दो, यार! जैसे भी होगा चुका दूंगा।‘
‘यहां यह सब बड़ा कठिन है भई,‘ दोस्त ने निरपेक्ष मुद्रा और ठंडी आवाज में कहा था, ‘बजट‘ इतना ‘टाइट‘ रहता है कि पांच रुपये भी ‘अफोर्ड‘ नहीं किये जा सकते। फिर भी, यह लो!‘ दोस्त ने पचास रुपये और पचास ही नसीहतें उसके मुंह पर दे मारी थीं। कम—से—कम उसे तो यही लगा था।
एक सप्ताह के भीतर ही वह फिर कंगाल हो गया और उसे लगा कि जीवन सचमुच बड़ी खतरनाक चीज है और ऐसे जीवन को जीते रहकर किसी भी शख्स से कोई भी वादा करना आत्महत्या कर लेने से कम तकलीफदेह नहीं है।
आखिर उसे नौकरी मिली। जिस दिन उसे पता चला कि वास्तव में उसे अगले दिन से काम पर जाना है, वह हंस पड़ा। काम था एक किताबों की दूकान पर कैशमीमो बनाने का और वह भी केवल तीन महीने के लिए। तीन महीने के लिए उस दुकान की परमानेंट कर्मचारिणी, जिसकी जगह उसे काम मिला था, ‘मैटरनिटी लीव‘ पर चली गयी थी।
यह काम भी उसे अपने दोस्त की बदौलत ही मिला था। दोस्त के दफ्तर की लाइब्रेरी इसी दुकान से हर साल पांच हजार रुपये की किताबें खरीदा करती थी। दोस्त ने उसे तीन सौ नसीहतें और दीं और पांच—सौ रुपये महीने की इस नौकरी को मन लगाकर करने की सख्त हिदायत देते हुए विजय—दर्प से ऐंठ गया। उसने डरते—डरते दो सौ रुपये और उधार मांगे जो उसे मिल भी गये। फिर वह सौ रुपये महीने का एक खस्ताहाल कमरा किराये पर लेकर यमुनापार की एक निर्धन और फटेहाल बस्ती की तरफ लुढ़क गया।
वह नौकरी करता रहा और यह सोच—सोच कर चौंकता रहा कि इतनी कठिन और बेमजा जिंदगी को भी लोग किस तरह सीने से चिपकाये बैठे हैं? धीरे—धीरे उसका आश्चर्य अवसाद में ढलता रहा और एक सुबह सोकर उठने पर उसने पाया कि जिस उत्साह और प्रतिबद्धता की भावना लेकर उसने अपना शहर छोड़ा था उसका एक भी टुकड़ा उसके दिल में सुरक्षित नहीं रह सका है। एक अजीब तरह का वीतरागी अहसास उसने अपने भीतर उतरकर खड़ा हुआ महसूस किया। बात—बात पर झुंझला पड़ने और गाली—गलौज पर उतर पड़ने वाले किताबों की दुकान के मालिक, स्वयं को उसका भाग्यविधाता समझने वाले दोस्त, एक—दूसरे के खिलाफ प्राणपण से जहर उगलते दफ्तर के साथियों, इंतजार करती नमिता की अपेक्षाओं और मां, पिताजी तथा बिट्टू के प्रति अपनी जिम्मेदारियों कें अहसास तले छटपटाता वह दूसरे महीने की तनख्वाह लेने के दस दिनों बाद तक भी अपने शहर नहीं जा पाया। हालांकि सोचा उसने यह था कि पहले महीने का वेतन मिलते ही दो—एक दिनों के लिए घर जायेगा और सभी लोगों को नये सिरे से हिम्मत बंधाकर आयेगा। यह वह आज तक तय नहीं कर पाया कि वह दूसरों को हिम्मत बंधाने के लिए घर जाना चाहता था, या अपनी टूटती हिम्मत को फिर से साबुत रूप में पाने के लिए जाना चाहता था।
पहले महीने के पांच सौ रुपयों में से सौ रुपये दोस्त ले गया, सौ मकान—मालिक और डेढ़—सौ होटल वाला। बाकी डेढ़ सौ रुपये भी उसके अपने ऊपर ही काम आ गये। दूसरे महीने भी ऐसा ही हुआ और यह तय करने के बावजूद कि वह नयी नौकरी तलाश करेगा, नौकरी तलाश नहीं कर सका। सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक काम करने के बाद क्या वह बंद दफ्तरों के चक्कर लगाता? फिर तीसरे महीने का अंतिम दिन भी आ गया।
पचास रुपये की अंतिम किस्त दोस्त को लौटाने और जल्दी वापस आने का वायदा कर, मकान—मालिक को सौ रुपये अग्रिम दे और कमरे में ताला लगा वह अपने घर लौटा।
अपने शहर की धरती पर उतरा तो जेब में तीन सौ रुपये थे। उनमें से वह पचास मां को देना चाहता था और पूरे सौ रुपये नमिता पर खर्च करना चाहता था। सौ रुपये दिल्ली लौटने के लिए बचाये रखना चाहता था और अंतिम पचास रुपये में अपने लिए एक चमड़े की चप्पल और एक सस्ती—सी चादर खरीदना चाहता था। दिल्ली वाले कमरे में मच्छरों से बचने के लिए चादर जरूरी थी और इतनी सख्त गरमी में जूते पहनना काफी बड़ी यातना थी जिसे वह लम्बे समय से झेल रहा था और पीड़ित था।
घर पहुंचा तो मां हमेशा की तरह रो पड़ी। एक—दो घंटे की पारिवारिक व्यस्तताओं से छुटकारा पाकर वह नमिता के घर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि मां ने उसे एक बन्द लिफाफा दिया। लिखावट देखते ही वह समझ गया कि चिट्ठी नमिता की है। उसने झटके से लिफाफा खोला और पत्र निकाला। वह एक छोटी—सी स्लिप थी जिसका संक्षिप्त—सा मजमून पढ़ने और समझने और उस पर यकीन करने के लिए उसे कुरसी पर बैठना पड़ा। उस संक्षिप्त—से मजमून ने पैरों में इतनी थकान भर दी थी जितनी थकान किताबों की दुकान में छह—सात घंटे मुसलसल खड़े रहकर काम करने से भी नहीं पैदा होती थी।
फिल्मी—से अंदाज में लिखा था —‘माफ कर देना। मैं अकेली थी। टूट गयी। लेकिन मेरा मन आज भी और हमेशा के लिए भी सिर्फ तुम्हारा है — नमिता।‘
‘नमिता का क्या हुआ?‘ उसने लगभग रोनी—सी आवाज में मां से पूछा था और मां ने बताया था —‘पिछले महीने उसकी शादी हो गयी। वह आजकल मेरठ में है।‘
वह देर तक बैठा रह गया था। फिर उठकर खड़ा हुआ था, लेकिन खड़ा न रह पाने के कारण फिर बैठ गया था। पांच दिन बाद ही वह फिर दिल्ली में था। किसके लिए? यह स्पष्ट नहीं था। शायद मां के लिए, शायद बिट्टू के लिए, शायद पिता के लिए, शायद अपने लिए और शायद अपनी आहत आकांक्षा को चुपचाप महसूसने के लिए। हर तर्क के आगे ‘शायद‘ लगा हुआ था।
‘यह मिल गयी।‘ मां चिट्ठी ढूंढ़ लायी थी और बड़ी सहजता से बोली थी, ‘बुरा हुआ बेचारी निम्मी के साथ। अरे हां, वह यहां भी आयी थी, तुम्हारा पता पूछ रही थी, पर तुमने पता दिया ही कहां?‘ समाचार देते—देते मां के स्वर में फिर से आरोपों और शिकायतों की भाषा तैर आयी थी।
वह एक पोस्टकार्ड था, जिसे उसने मां के हाथ से लगभग छीन लिया। पोस्टकार्ड का कोना फटा हुआ था और उस पर केवल तीन वाक्य लिखे थे जो अब काफी धूमिल हो गये थे।
पहला वाक्य था —‘प्रिय विज्जी‘ और अंतिम वाक्य था —‘तुम्हारी निम्मी।‘ इन दोनों के बीच में जो संदेश था उसकी वजह से पोस्टकार्ड के कोने को फटना पड़ा था। काफी देर तक वह पोस्टकार्ड उसकी उंगलियों के बीच लड़खड़ाता रहा। और उसका संदेश मिटता और उभरता रहा। फिर उसने पोस्टकार्ड को मोड़कर जेब में रख लिया और आहिस्ता से बोला, ‘बिट्टू को क्या हुआ था?‘
‘बिट्टू को?‘ मां बहुत जोर से चौंकी और फिर सिसकियां भरने लगी। वह समझ गया कि अब देर लग जायेगी। उसने मां के कमजोर स्थल को दुखा दिया था। लेकिन वह क्या करता? निम्मी का संदेश पढ़ कर जिस तरह उसके दिमाग के बीसियों टुकड़े हो गये थे उन्हें समेटने के लिए किसी दूसरे बड़े दुख से टकराना जरूरी था।
‘बिट्टू बेचारे ने जहर खा लिया था।‘ मां की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी थी।
‘जहर?‘ इस बार उसे चौंकना पड़ा।
‘हां!‘ मां ने धोती के पल्लू से अपनी आंखों को सुखाने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘तेरे पिताजी को टाइफाइड हो गया था और घर में एक भी पैसा नहीं था। उनकी तबीयत बिगड़ती चली गयी तो बिट्टू ने अपने मालिक से दो सौ रुपये उधार मांगे जो उसने नहीं दिये। फिर...!‘ मां चुप पड़ गयी।
‘फिर?‘ वह मां के चुप हो जाने से झल्ला उठा।
‘फिर? उसने मालिक के पैसे चुरा लिये।‘ मां धोती के पल्लू से अपना मुंह छुपाकर रो पड़ी और टुकड़ों—टुकड़ों में पूरी कहानी बयान कर दी कि कैसे बिट्टू ने गल्ले से दो सौ रुपये चुराये और जेब में रख लिये, लेकिन अपनी बदहवासी और अपराध—भावना को जज्ब नहीं कर सका और शाम होते होते पकड़ लिया गया। मालिक ने पहले तो खुद मारा फिर पुलिस को दे दिया। हवालत में दो दिन तक उसकी पिटाई हुई और पंद्रह दिन के लिए बंद कर दिया गया। जेल से छूट कर घर आने पर उसने नीला थोथा खा लिया।
बिट्टू के इस अपमानजनक दुखांत से वह बेतरह हिल गया। फिर उसने पिता को देखा, जो बिट्टू की मौत के दिन से ही खाट पर पड़ गये थे। एक अपराध—बोध ने बिट्टू की जान ले ली और दूसरे अपराध—बोध ने पिता को मौत से भी बदतर हालत में पहुंचा दिया। क्या इस परिवार की इस दुर्दशा के मूल में कहीं वह खुद तो नहीं? उसने सोचा और कांप उठा।
लेकिन उसने क्या इस बात की कोशिश नहीं की कि सब ठीक हो जाये? उसके सपनों में यह परिवार भी क्या नहीं शामिल रहा है, लगातार? लेकिन जब चीजें लगातार हाथ से फिसलती रहीं और सपने बिखरते ही चले गये तो वह क्या करता?
इसमें गलत क्या है कि एक दिन उसने पूरी ईमानदारी के साथ निर्मल भाई का यह तर्क स्वीकार कर ही लिया कि जब तक उसके सपनों में उस जैसे तमाम और लोगों के सपनों का रंग शामिल नहीं होगा तब तक उसके सपने इसी हश्र को प्राप्त होते रहेंगे! आज अगर वह दिल्ली में रहकर इस बात के लिए जंग छेड़े हुए है कि सपनों को धूल चटानी है तो इसमें गलत क्या है? उसने किसी भावुकता में आकर नहीं बल्कि काफी सोच—समझ कर और दर—दर की ठोकरें खाने के बाद ही निर्मल भाई का यह दर्शन स्वीकार किया था कि मुक्ति का रास्ता केवल और केवल युद्ध की तरफ जाता है। और युद्ध का मतलब यह हरगिज नहीं हो पा रहा था कि वह पांच—छह सौ रुपये की कोई टुचियल और दमनकारी नौकरी करता रहकर सौ—पचास रुपये घर भेजता रहता। यूं भी इस लंगड़े सहारे से होना क्या था?
और अंततः लंबी—लंबी बहसों, गहरी शंकाओं और टुच्ची तमन्नाओं के बीहड़ से निकल कर उसने तय कर लिया था कि वह पेशेवर क्रांतिकारी के रूप में ही विकसित होगा और जियेगा। उसने पूरी शिद्दत के साथ स्वीकार किया था कि सचमुच, उसके पास है क्या जिसे वह खो देगा।! बेहद गरीब किस्म के सपने भी तो साथ नहीं रह सके थे। अभी तक उसने क्या किया? अपने अशक्त अरमानों और कमजोर इच्छाओं को तिल—तिल कर मरता देखने के सिवा उसने क्या किया और आगे भी क्या कर सकता है वह? इतनी विकृत स्थितियों में जीते रहकर कल की आस में सांस लेते रहने से भला कौन—सी समस्या हल हो सकती है? वह सोचता रहा और अपने को तोलता रहा और आखिरकार वह निर्मल भाई के दल में शामिल हो ही गया।
एक गहरा आत्मविश्वास अपने भीतर महसूसते हुए उसने कड़क आवाज में सोचा था —‘जिस दुनिया में अपनी मनपसंद जिंदगी न गुजारी जा सके, अपनी प्रेयसी से विवाह न किया जा सके, अपने भाई को पढ़ाया न जा सके, अपने अशक्त मां—बाप को आराम न दिया जा सके, और जिस दुनिया में अपना छोटा—मोटा सपना भी पूरा न किया जा सके, उस दुनिया को बदलना होगा।‘ वह निर्मल भाई के प्रति एक गहरे सम्मान से भर उठा, जिन्होंने उसे एक निरर्थक और टुच्चे और असंभव संघर्ष के दलदल से निकाल कर एक सही और जरूरी और सार्थक युद्ध की जमीन पर खड़ा किया। जिस अमानवीय दुनिया में वह अभी तक सांस ले रहा था उस दुनिया के खिलाफ खड़े लोगों के बीच जाकर उसे पहली बार लगा था कि जीवन इतना सस्ता और बदसूरत नहीं है कि उसे वहशी और क्रूर लोगों की सनकों और खिलवाड़ के आगे निर्विरोध फेंक दिया जाये। क्रूर और अमानवीय लोगों की एक बहुत बड़ी जमात के साये में पूरी उम्र डर—डर और घिसट—घिसट कर गुजारने की तुक भी क्या है? जिंदगी भर जिंदगी बचाये रखने का संघर्ष आदमी इसलिए तो नहीं करता कि अपनी आंखों के सामने अपनी तमन्नाओं का संसार जलता हुआ देखता रहे और सिर पटकता रहे।
निर्मल भाई ने एक रात एक कविता पढ़कर सुनायी थी —‘मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते।‘ नहीं, वह आज भी कह सकता है कि उसका निर्णय किसी चोट खाये सांप के अंधे क्रोध की तरह फुफकार भरा नहीं था उसके निर्णय में निराश आदमी की अंतिम कोशिश वाली छटपटाहट या कैशौर्य—सुलभ रोमांच भी नहीं था। कई रातें जागकर, बेहद ठंडे मन—मस्तिष्क के साथ उसने निर्मल भाई को सुना था। उन्हीं की तरह के तमाम अन्य लोगों के बीच वह कई दिनों तक उठता—बैठता रहा था। उन सब के कठिन, मुसीबत—भरे और असुरक्षित जीवन को नजदीक से देखा—पढ़ा था। उनके साहस और उनकी नफरत को जाना—परखा और नापा था। उनके त्याग से भौंचक हुआ था। उनमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें बिना किसी दिक्कत के सुख—सुविधा संपन्न जिंदगी हासिल हो सकती थी। निर्मल भाई का एक साथी मैडिकल इंस्टीट्यूट में डॉक्टर रह चुका था। एक अन्य साथी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का गोल्ड मैडेलिस्ट था। जिसने ऊंची नौकरी पर लात मार कर इस जिंदगी का चुनाव किया था। खुद निर्मल भाई हिंदी—अंग्रेजी में फर्स्ट क्लास एम.ए. थे और उनकी पत्नी रूसी भाषा की गहरी जानकार थी। और वह खुद...! थर्ड क्लास ग्रेजुएट! अंग्रेजी में जीरो। जिंदगी के हाशिए पर ठिठका हुआ एक सामान्य नागरिक! और उसने यह निर्णय ले लिया था कि अपनी जिंदगी वह चार—पांच या छह सौ रूपल्ली के लिए किसी सनकी, जुल्मी और खूनचूस आदमी या संस्था के नाम नहीं लिखेगा, बल्कि इस सड़े हुए, मनुष्य—विरोधी संसार से अलग अपना एक नया संसार बसायेगा और उसने यही किया था। नहीं। बिल्कुल भी गलत नहीं किया था। वह अपराधी तो है ही नहीं।
उसने मां को देखा — वह पत्थर की प्रतिमा बनी बैठी थी। पिता को देखा — वह सो गये थे।
‘खर्चा कैसे चलता है?‘ उसने अचानक ही मां की खामोशी को खुरच दिया।
‘पेंशन के तीन सौ रुपयों से।‘ मां ने जवाब दिया और उठकर खड़ी हो गयी। फिर आहिस्ता से बोली, खिचड़ी बनायी थी, खा लेगा न?
‘जल्दी ले आओ।‘ उसने हंस कर जवाब दिया और पंखा झलने लगा। मां के बाहर जाने पर उसने फिर से फटे कोने वाला पोस्टकार्ड निकालकर पढ़ा और न चाहते हुए और खुद को जब्त करते—करते भी रुआंसा हो गया।
‘प्रिय विज्जी‘ और ‘तुम्हारी निम्मी‘ के बीच घसीट में लिखा हुआ था —‘नहीं जानती कि तुम्हें मेरे वैधव्य की सूचना पाकर कैसा लगेगा! पर मुझे यह बताते हुए कोई ग्लानि नहीं हो रही कि जिस मन से इस विवाह को स्वीकार करना पड़ा था, उस मन के कायम रहते, इस वैधव्य ने मुझे जरा भी नहीं छुआ है।‘
उसकी आखें नमिता के वैधव्य को लेकर नम नहीं हुई थीं। वे नम हुई थीं नमिता के मन को लेकर। नमिता का मन जिसमें विज्जी नाम का एक लड़का पसरा हुआ था और जो विवाह के बाद भी वहीं पसरा रह गया था। क्यों होती है ऐसी शादियां, जिसमें औरत का तन किसी के पास और मन किसी के पास रह जाता है? हां, दिल्ली से लौटकर जब वह नमिता को यह दिलासा देने आया था कि ‘वह हिम्मत न हारे और कुछ दिन और इंतजार करे‘ लेकिन पाया उसने यह था कि उसका तो विवाह भी हो गया है तो नमिता की चिट्ठी पढ़ते हुए उसने यही सोचा था कि मां और बाप तक के रिश्ते इतने क्रूर क्यों होते हैं?
आज उसे पता है कि तब की यह प्रतिक्रिया उसके कैशौर्य मन की आहत चीख थी। आज वह जानता है कि रिश्ते तो मधुर और मानवीय ही होते हैं। मगर उन्हें अमानवीय और जहरीला बना दिया जाता है। पुत्र को पिता के, मां को बेटी के, भाई को भाई के और दोस्त को दोस्त के विरुद्ध खड़ा करने के षडयंत्र रचे जाते हैं, ताकि उन लोगों के विरुद्ध खड़े होने की बात कोई सोच भी न सके जो दुनिया—भर के आंसुओं और दुखों और तकलीफोें के सचमुच जिम्मेदार होते हैं।
स्थितियों को उलझा दिया जाता है, दिमाग को भटका दिया जाता है और आदमी को अकेला कर दिया जाता है। और अकेला आदमी नहीं जानता कि वह धीरे—धीरे अपना मूल रूप से अच्छा और मानवीय स्वभाव छोड़कर स्वार्थी, आत्ममुग्ध, आत्मकेंद्रित, अमानवीय और आत्महंता बनता जाता है और इस तरह अंततः उन लोगों के तंत्र को मजबूत करता है जो तमाम तरह की नैतिकताओं और मानवीयताओं से ऊपर उठ कर एक ऐसी जोंक में बदल चुके हैं जिसका धर्म है खून चूसना। नहीं ये बातें उसे पहले नहीं पता थीं, वरना वह दिल्ली जाते समय नमिता को अपने साथ न ले जाता? नमिता ने तो खुद ही कहा था —‘ऐसा नहीं हो सकता कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं?‘
मां खिचड़ी ले आयी थी। खिचड़ी देखकर उसे याद आया कि वह कितना भूखा है। सुबह से कुछ भी तो पेट में नहीं गया था। जब तक उसने खिचड़ी खायी, मां पानी ले आयी। उसने पाानी पिया और गिलास तथा प्लेट लेकर आंगन में आ गया। दोनों को हैंडपंप के पास रखे जूठे बरतनों के बीच रख उसने एक भरपूर नजर आंगन में दौड़ायी, और आंगन के उस चार बरस पहले के रूप को याद किया जो आज काफी बदला हुआ और खस्ताहाल लग रहा था। आंगन के जिस कोने में पहले तुलसी का पौधा हुआ करता था वहां अब लंबी—लंबी घास उग आयी थी। हैंडपंप के चारों ओर गहरी काई जम गयी थी। कमरे की बाहरी दीवारों का प्लस्तर जगह—जगह से उखड़ गया था और पूरा घर एक मुस्तकिल सन्नाटे और गहरे अवसाद में डूबा खड़ा था। कुछ चीजें गायब हो गयी थीं। मसलन पिता की साइकिल, पीतल के दोनों बड़े कलसे और बिट्टू का कोडक का कैमरा। बिट्टू को फोटोग्राफी का शौक था और उसने पूरे तीन साल तक अपना जेब खर्च बचा—बचा कर वह कैमरा लिया था। रसोई में बहुत कम बरतन रह गये थे, जबकि दूसरा कमरा एकदम गरीब और नंगा था। लकड़ी की कपड़ों वाली बड़ी अलमारी भी गायब थी और उसका किताबों से भरा हुआ लकड़ी का बड़ा बक्सा किताबों सहित अनुपस्थित था। एक बहुत पुराने डिजाइन की ड्रेसिंग टेबल थी जिसे मां अपने दहेज में लायी थी और एक पुराने जमाने की याद दिलाता सोफासेट था जिसके बारे में उसने सुना था कि इसे पिता ने उसके पहले जन्मदिन के मौके पर खरीदा था। ये दोनों ही चीजें नहीं थीं।
किताबों के न रहने पर उसे दुख नहीं हुआ, क्योंकि उनमें शायद ही कोई ऐसी किताब थी जिसे संभाल कर रखना जरूरी हो। जरूरी किताबों से उसका परिचय तो दिल्ली में निर्मल भाई ने ही कराया था।
पिता वाले कमरे में वापस लौट कर उसने मां से पूछा, ‘निम्मी कहां है आजकल?‘
‘यहीं है। ससुराल वालों ने तो उसे मनहूस बताकर कुछ ही दिनों बाद निकाल दिया था। यहां आयी थी वो। सब बता गयी। पति भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। एक दिन शराब पीकर लौट रहा था कि एक कार से टकरा गया। निम्मी बेचारी ने तीन बोतल खून दिया अस्पताल में। फिर भी उसका पति नहीं बचा। सिर जो फट गया था।‘ मां ने एक सांस में पूरी कहानी बयान कर दी और फिर तेज—तेज बोलने की अपनी आदत लेकिन असामर्थ्य के कारण हांफने लगी।
‘मैं जरा होकर आऊं क्या?‘ उसने पूछा।
‘चले जाना, थोड़ी धूप ढलने दे। मार गरमी बरस रही है बाहर।‘
पर यह जानकर कि नमीता यहीं है वह रुक नहीं सका और घर से बाहर आ गया।
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दरवाजा खोलने वाली लड़की को देख वह अचकचा गया। आकर्षक देह, भरा हुआ सीना और गोल चेहरा — बिल्कुल नमिता जैसा। बॉबकट बाल और लेटेस्ट डिजायन की सलवार—कमीज, स्लीवलेस। पैरों में कोल्हापुरी चप्पल। वह हड़बड़ा गया और उसी हड़बड़ाहट में बोला, ‘आप? माधवप्रसाद जी का मकान यही है न?
‘बिल्कुल यही है, पर वे इस समय दुकान पर हैं।‘
‘आंटी होंगी?‘
‘आंटी मतलब?‘ लड़की थोड़ा पसोपेश में पड़ गयी, फिर चहकती—सी बोली, ‘यू मीन ममी!‘
‘अरे!‘ उसे अचानक याद आ गया, ‘तुम सविता हो क्या, निम्मी की छोटी...?‘
‘बहन!‘ वाक्य लड़की ने पूरा किया और मुसकरा दी। फिर माथे पर पड़ी लकीरों को सहलाती हुईं बोली, ‘आप?‘
‘मैं विजय हूं। नहीं पहचाना?‘ उसने थोड़ा सहज होकर जवाब दिया और गहरे आश्चर्य में घिर कर सोचा, चार बरस में शक्लें इस कदर बदल जाती हैं क्या? यह तो छोटी—सी, पतली—दुबली लड़की हुआ करती थी। माना कि लड़की जवान होते ही तेजी से बदल जाती है, लेकिन क्या उसकी अपनी शक्ल भी इस कदर बदल गयी है जो पहचान से परे चली जाये?
‘अरे, आप तो एकदम बदल गये। सच्ची, लगता ही नहीं कि यह आप हैं।‘ सविता ने उसके लिए रास्ता छोड़ दिया और शालीनता से बोली, ‘आइए, भीतर आइए। मां घर में हैंं और नमिता—दी भी हैं। अंतिम वाक्य उसने शरारत भरी हंसी के साथ कहा, जिसका आनंद लेने के बजाय वह उदास हो गया।
‘पहले चश्मा नहीं लगाते थ आप। दाढ़ी कितनी बढ़ा ली है और कितने दुबले भी हो गये हैं। सिर के बाल भी कितने उड़ गये हैं। भला मैं पहचानती भी तो कैसे?‘ सविता ने तर्क प्रस्तुत किये और उसे लेकर बैठक में आ गयी, जहां प्रवेश करते ही उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। दीवान पर जो लड़की सो रही थी वह नमिता थी। उसकी निम्मी। वह हतप्रभ रह गया। यह वह नमिता नहीं थी जिसे चार बरस पहले वह यहां छोड़ गया था।
‘दीदी उठो, देखो कौन आया है?‘ सविता ने नमिता को झिंझोड़—सा दिया और उठाकर बिठा दिया तथा खिलखिल कर हंसने लगी।
भौंचक नमिता ने अपनी आंख मली और चेहरे को प्रश्नाकुल बनाते हुए उसकी तरफ देखा। वह सविता के अनुरोध के बावजूद अभी तक खड़ा था और वह भी नमिता के ऐन सामने।
नमिता दो—तीन पल उसे देखती रही। पहले नमिता की आंखें चौड़ी हुईं, फिर क्रमशः छोटी होती गयीं और अंततः उन आंखों में एक गहरा दुख झिलमिलाने लगा। एकदम तरल दुख। बिना किसी ध्वनि के नमिता के होंठों ने चौंकते हुए एक नाम लिया और उन फड़फड़ाते हुए होंठों को एकटक देखने वाला वह फौरन समझ गया कि उन होंठों ने पहले ‘तुम‘ और इसके तुरंत बाद ‘विज्जी‘ कहा है।
‘हां, मैं‘ उसने गंभीरता से कहा और सोफे पर बैठ गया।
‘विज्जी।‘ नमिता ने कहा और खड़ी हो गयी। उसकी आंखें रोने लगी थीं। और नमिता उन बहती हुई आंखों को संभालती हुई बैठक से बाहर निकल गयी थी और उसी के पीछे—पीछे गयी थी उसकी अपनी नजर। वह चुप बैठा अपने दिल और दिमाग को अनुशासित करने का प्रयास करता रहा और पहलू बदलता रहा। इस बीच सविता पानी रख गयी थी और बेचैनी जैसे पानी के गिलास में गिरकर छटपटाने लगी थी। उसने झटके से गिलास उठा कर मुंह में लगाया था और एक सांस में जितना पानी पी सकता था, पीकर हांफने लगा था।
उसने सोचा था, नमिता एक भरी पूरी औरत में बदल गयी होगी, लेकिन वह पहले से भी अधिक कमजोर और दयनीयता की हद तक निरीह लगने लगी थी। यही है प्रेम! उसने नमिता की देह को अपने दिल—दिमाग में महसूस करते हुए सोचा और नसों को ऐंठता हुआ पाया। लेकिन क्या गारंटी है कि उसके साथ रह कर भी वह वैसी ही नहीं हो जाती? शायद नहीं होती। उसने स्थिति को अपने पक्ष में कर लिया, क्योंकि नमिता की इस हालत की जिम्मेदारी कुपोषण पर नहीं, मन में लगे घुन पर जाती है। घुन जो कुतरता आत्मा को है लेकिन छलनी देह को भी होना पड़ता है।
और नमिता की देह छलनी ही थी। छाती समतल थी और आंखें गड्ढ़ों के भीतर। चेहरा निस्तेज और शरीर जर्जर और आत्मा..., उसने सोचा और प्रेम के प्रति नमिता की इस अनोखी प्रतिबद्धता को देख दंग रह गया। ऐसे प्रेम से वंचित रह जाने का दुख उसकी चेतना पर उतरते ज्वार—सा बैठने लगा। तभी कमरे में मां ने प्रवेश किया और उसे उठकर खड़ा होना पड़ा। उसने मां के पैर छुए, उनका आशीर्वाद लिया। फिर मां दीवान पर बैठ गयी। और वह सोफे पर। पहले की तरह, अपने में गुम।
सन्नाटा काफी देर तक कमरे में टहलता रहा और वह अपने बोझ तले छटपटाता मां से बात करने के लिए उपयुक्त शब्दों की तलाश करता रहा। यह निम्मी की मां ही थी जो उसे बहुत चाहती थी, और उसकी तारीफ करते नहीं थकती थी। और वह भी निम्मी की ही मां थी जिसने उसके दिल्ली जाते ही नमिता को उसकी जिंदगी से हटा दिया। वह सोच सकता है कि इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका निम्मी के पिता की ही रही होगी, क्योंकि उसकी तारीफ करने के बावजूद वे निम्मी के साथ प्रगाढ़ होते उसके संबंधों को लेकर अक्सर ही नाखुश और उत्तेजित रहा करते थे, लेकिन मां को एकदम मासूम कैसे माना जा सकता है? उन्हें तो नमिता के साथ उसके अंतरंग और फैसलाकुन रिश्ते की भनक थी। यह ठीक है कि कि नमिता के पिता कपड़ों के व्यापारी थे और संबंधों को व्यापारिक दृष्टिकोण से देखना उनकी मजबूरी थी। वे नमिता के लिए पढ़ा—लिखा, समझदार लड़का तो चाहते थे, लेकिन इस बात को गवारा करना उनके लिए नामुमकिन था कि वह लड़का विजय जैसा बेकाम और आर्थिक स्तर पर लड़खड़ाता हुआ, निराधार आदमी हो। लेकिन मां के सोचने का ढंग तो काफी प्रगतिशील किस्म का था और क्या इन्हें नहीं चाहिए था कि...?
लेकिन तभी उसे खयाल आया कि वह नितांत अपढ़ और भावुक आदमी की तरह स्थितियों का विश्लेषण कर रहा है और यह खयाल आते ही उसने अपनी सोच को उस दिशा में और बहकने से बचा लिया तथा मां से पूछा, ‘अब क्या सोचा है?‘
शायद उसके शब्दों में सच्चा अपनापा और गहरी संवेदना थी। मां एकदम बिखर गयीं और उनकी धोती का पल्लू आंखों पर चला गया।
‘अभी उमर ही क्या है अभागन की।‘ मां ने टिपिकल मध्यवर्गीय मांओं की तरह भूमिका सी बनाते हुए जवाब दिया, ‘इसी बीस को चौबीसवां लगा है।‘
उसे याद आया, बीस जून निम्मी के जन्म की तारीख है। आज बाईस थी। तेईस साल। वह अनायास ही भीतर तक अवसादग्रस्त होता चला गया। इतनी कम उम्र में एक लड़की के जीवन का एक अध्याय समाप्त हो गया। एक नहीं, सबसे महत्वपूर्ण अध्याय। जिस उम्र में लड़कियां नये जीवन में प्रवेश करती हैं, उस उम्र में नमिता जीवन से थक चुकी है, जीवन से बाज आ गयी है।
‘कोई अच्छा सा लड़का देखकर फिर से इसका घर बसाना होगा न?‘ मां ने उसकी सोच की गति को एक ठहराव सा देते हुए अपना निर्णय दिया। निर्णय, जो प्रश्न की शक्ल में आया था और जिसमें अनुमोदन भी मांगा गया था। क्या अब भी मेरे बारे में नहीं सोचा जा सकता? उसने एक ईमानदार चाहना और अंतरंग दर्द के तहत सोचा और सोचते ही लगा कि उसने गलत सोचा है। आज जिस जीवन को वह जी रहा है उसमें यह चाह कहीं भी अंट नहीं सकती। अब तो वह चाहे तो भी यह चाह अपना स्थान नहीं बना सकती। पर, मां को तो कोई जवाब देना ही था। वह अभी तक उसके बोलने की प्रतीक्षा में थी, सो वह आहिस्ता से बोला, ‘निम्मी की क्या मरजी है?
‘उसकी मरजी से चलेंगे तो हो लिया।‘ मां ने मुंह बनाकर जवाब दिया, ‘कहती है, नौकरी करेगी और दूसरा विवाह नहीं करेगी।‘
‘हूं।‘ उसके मुंह से एक थकी हुई सांस निकली। थकी हुई और परेशान और आहत।
तभी कपड़े बदलकर और मुंह—हाथ धोकर निम्मी ने चाय के साथ कमरे में प्रवेश किया और उसके मन में फिर कुछ अवांछित चाहनाएं संभल—संभलकर उठने लगीं।
‘तुम क्या कर रहे हो दिल्ली में?‘ मां का सवाल उसके कानों से टकराया और उसके हाथ में चाय का प्याला छलक गया। वह सोच नहीं सका कि मां को क्या जवाब दे? खासकर निम्मी की उपस्थिति मेंं, जिसका चेहरा आंखों समेत सतर्क हो आया था।
‘मैं...‘ उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने कहा, ‘मुझे अभी तक कोई काम नहीं मिल पाया।‘ ऐसा कहते ही उसने पाया कि मां के चेहरे पर संताप और निम्मी के चेहरे पर अफसोस भरी पीड़ा उतर आयी है।
‘च्च,च्च!‘ मां हमदर्दी से भर उठी, ‘कैसा जमाना आ गया है! तो शादी वगैरह तो नहीं की होगी?‘
‘बिना नौकरी के अपनी लड़की कौन देता है?‘ वह अचानक ही विवेक का पल्ला झाड़कर कटु हो आया। उसके इस जवाब से मां ने अपराधी—सी हो अपना सिर लटका लिया और नमिता की आंखें नम हो गयीं।
‘बड़ी दिक्कत होगी तब तो?‘ मां ने जैसे अपने—आपको सुनाकर कहा।
‘नहीं, दिक्कत कोई नहीं है।‘ उसने हंसकर जवाब दिया और चाय पीने लगा। तब तक मां ने अपनी चाय खत्म कर दी थी और उठकर खड़ी हो गयी थी। मां के उठने तक वह भी अपनी चाय—समाप्त कर उठ खड़ा हुआ। सिर्फ नमिता ही बैठे—बैठे अपनी चाय को धीरे—धीरे सिप करती रही।
‘इसे समझाओ, बेटे!‘ मां ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘हम लोगों ने एक लड़का देखा है। बैंक में नौकरी करता है और उम्र भी कोई खास नहीं है। होगा कोई पैतीस—एक साल का। वह शादी करने को तैयार है। उसके दो भाई हैं और दोनों विदेश में हैं। पिता की अपनी दुकान है अलग। एक छोटा बच्चा है, चार साल का। पहली बीवी पांच एक महीने हुए, गुजर गयी। सुन्दर है, सेहत वाला है और सबसे बड़ी बात, स्वभाव का अच्छा है। इसको पसंद भी कर गया है, लेकिन यह कमबख्त है कि नौकरी करने की रट लगाये हुए है। हम लोग तो थक गये। तुम्हीं समझाओ। ऐसे लड़के कहीं बार—बार हाथ आते हैं! तुम समझाओ न इस करमजली को। मुझे यकीन है कि तुम्हारी बात इसके पल्ले पड़ जायेगी।‘ मां ने पूरी कथा पढ़ डाली और उसके कंधों पर भारी जिम्मेदारी का बोझ डाल, स्वयं हलकी होकर भीतर चली गयी। उसने अपनी नजरों से जाती हुई मां का पीछा किया और ‘ऐसे लड़के बार—बार हाथ नहीं आते‘ जैसे बेहूदे वाक्यों को घसीट—घसीट कर अपनी चेतना से बाहर निकाला। मन बुरी तरह खिन्न हो आया था।
मां के जाते ही उसने चेहरा उठाकर नमिता की तरफ देखा। नमिता उसी को देख रही थी। नमिता की आंखें कुछ इस तरह से तरल थीं कि वह न चाहते हुए भी कमजोर पड़ने लगा। उसने सोचा कि वह कुछ कहे, लेकिन शब्द जबान तक आने से पहले ही डूब गये। वह लगातार नमिता की आंखों से अपनी आंखें मिलाये रहा और उसके होंठ बिना किसी शब्द के फड़फड़ाते रहे। वह कहना चाहता था तुम्हारा वर्तमान है जिसे आज भी तुम्हारी बहुत सख्त जरूरत है। वह कहना चाहता था — निम्मी! हम अपने अतीत को पोंछ नहीं सकते क्या? ऐसा कब तक चलेगा कि हमारा एक पांव वर्तमान में और एक अतीत में टिका रहे? तुमने सुना है न, कि दो नावों में सवार होने वाले यात्री को डूबना ही होता है! तो क्या हम भी अंततः डूबकर ही रहेंगे? हम किसी एक नाव का चुनाव नहीं कर सकते क्या? वह कहना चाहता था...।
तभी थरथराती हुई आवाज में निम्मी ने कहा, ‘विज्जी!‘ वह सिहर गया। एक तेज और ऐंठा हुआ दर्द उसने निम्मी की आवाज में एकदम साफ—साफ देख लिया था।
‘विज्जी!‘ नमिता ने फिर प्रयत्न किया, ‘तुम...तुम देह को तो नहीं चाहते थे न?‘
उसके दिमाग में बिना आवाज किए एक विस्फोट—सा हुआ और इस विस्फोट को महसूस करने के दूसरे ही क्षण उसने पाया कि वह एक कमजोर और भावुक प्रेमी में तब्दील होता जा रहा है। वह समझ गया नमिता कहां से बोल रही है। उसने जवाब नहीं दिया, लेकिन नमिता समझ गयी कि विजय ने अपनी चेतना के एक—एक तंतु से कहा—‘नहीं।‘
‘तो फिर?‘ नमिता का साहस अपना कद निकालने लगा, ‘तो फिर तुम मां को क्यों नहीं समझाते कि मैं क्या चाहती रही हूं और आज भी क्या चाहती हूं? क्या इस बार भी तुम अकेले ही दिल्ली लौट जाओगे?‘ नमिता ने रुक—रुक कर कहा और कहने के बाद आंखें झुका लीं।
वह हैरान रह गया। इसलिए नहीं कि नमिता के मुंह से निकले शब्दों की उसने कल्पना नहीं की थी। वह हैरान था कि वह किस कदर लाचार है। क्या नमिता की मां को यह समझाना आसान है कि औरत शरीर और मन के दो स्तरों पर जी तो सकती है, लेकिन यह जीना देर तक संभव नहीं है और इतना आसान भी नहीं है कि ‘नियति‘ कह कर स्वीकार कर लिया जाये? नमिता की मां इस बात को कैसे समझ सकेंगी कि यह उन सभी लोगों के साथ अन्याय है जो औरत को अपने साथ आधा ही पाते हैं। ‘पति को परमेश्वर‘ मानने वाली किसी भी दास—मनोवृत्ति की स्त्री को यह सब समझाना कितना कठिन और फिजूल है, इस बात को वह नमिता को कैसे समझाये! और फिर, उसका अपना वर्तमान...!
‘तुम्हारी चुप्पी से मुझे डर लग रहा है।‘ नमिता ने अपना कांपता हुआ हाथ उसके हाथ पर रख दिया और फिर तुरंत ही छोड़ भी दिया, जैसे तंद्रा टूट गयी हो।
स्पर्श। चार साल बाद फिर निम्मी का स्पर्श। उसका गला सूखने लगा। यह वह स्पर्श नहीं था जिसकी ऊष्मा तन—मन में एक नशे की तरह छाने लगती है। यह एक डरी हुई, पीड़ित और आहत स्त्री का स्पर्श था जिसकी ठंडक को महसूस कर उसके बदन के रोयें सुन्न पड़ने लगे और वह गले—गले तक एक साबुत ठिठुरन में कांपने लगा।
‘तुम जानती हो, मैं आज भी बेकार हूं।‘ आखिर, उसे अपने तर्कों के भीतर लौटना ही सूझ सका।
‘हम दोनों मिलकर कमा लेंगे। नमिता ने उसके चक्रब्यूह को तत्काल ही और बेहिचक ध्वस्त कर दिया। लगा कि आत्मसमर्पण करना पड़ेगा।
‘मैं एक ऐसी जिंदगी शुरू कर चुका हूं निम्मी, जो खतरों से घिरी हुई है।‘ उसने भूमिका—सी बनानी शुरू की।
‘सुनो।‘ अचानक नमिता उठकर खड़ी हो गयी और दृढ़ता से बोली, ‘एक बात याद रखना कि यह चार साल पहले की शुद्ध भावुक और कमजोर निम्मी नहीं है जो आज तुम्हारे सामने बैठी है। यह एक ऐसी पक चुकी औरत है जिसकी छाती को समय का पहिया अपने नुकीले दांतों से रौंदता और चीथता हुआ गुजर गया है। यह एक ऐसी औरत है जिसने...,‘ नमिता ने झटके से कहा और बात अधूरी छोड़ दी। मां कमरे में आ रही थी। वह भी उठकर खड़ा हो गया और मां से बोला, ‘अच्छा चलता हूं, मां! कल फिर आऊंगा। उम्मीद तो है कि निम्मी दूसरे विवाह के लिए राजी हो जाये।‘
‘जीते रहो, बेटा! तुम्हारी बात तो यह बचपन से मानती आयी है। कल कब आओगे?‘ मां ने प्रसन्न होकर कहा।
‘सुबह दस बजे।‘ उसने बताया और मां के पैर छूकर बाहर आ गया। छोड़ने के लिए नमिता बाहर तक आयी। विदा होने से पहले उसने सिर्फ एक वाक्य कहा, ‘इसे गांठ बांध लेना कि मेरा साथ तुम्हारे लिए सुखद नहीं रहेगा। सोच—समझकर, ठंडे दिमाग से निर्णय लेना। मैं कल आ रहा हूं।‘
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जिस समय वह घर पहुंचा, रात के आठ बजे थे। नमिता के घर से निकलने के बाद वह अपने इस शहर की कुछ अपरिचित सड़कों और बाजारों में भटकता रहा था, और सोचता रहा था कि या तो यह शहर कुछ बदल गया है या फिर उसकी नजर में कोई परिवर्तन हुआ है। लेकिन कुछ न कुछ बदला जरूर है।
राजधानी की तेज और हड़बड़ाहट—भरी जिंदगी में चार साल गुजारने के बाद उसे अपना यह शहर एक ऐसे ऊंघते हुए उदास कस्बे जैसा दिख रहा था जिसके निवासियों की जिंदगी तालाब के पानी की तरह शांत और ठहरी हुई हो।
क्या इस शहर के लोगों तक लड़ाई की खबर नहीं पहुंची है? यहां के लोग इतने निरपेक्ष और सुस्त से क्यों नजर आते हैं? छोटे शहर तो बंगाल और बिहार और पंजाब में भी हैं। वहां के अनेक शहरों में तो लड़ाई की आंच दिल्ली से भी ज्यादा तेज है। तो फिर, उसने सोचा था और शिद्दत से चाहा था कि उसका अपना शहर भी उठे और तन कर खड़ा हो। सहसा ही एक खयाल उसके मन में कौंधा था — यह भी तो हो सकता है कि वह यहीं रह जाये और जिस लड़ाई को राजधानी में लड़ रहा है उसे अपने शहर में भी तलाश करे और केन्द्रित करे। आखिर एक—न—एक दिन तो इस शहर के लोगों को भी उठना ही होगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बंगाल या बिहार या असम के योद्धा आकर उत्तरप्रदेश के इस या उस जैसे अन्य शहरों और गांवों के लोगों की तरफ से खुद लड़ने लगेंगे। अपनी लड़ाई हर—एक को खुद ही लड़नी होती है। दूसरे लोग सहयोगी बन सकते हैं और लड़ने के माद्दे को तीव्र से तीव्रतर बनाने में सहायक तो हो सकते हैं, लेकिन बन्दूक तो अपने कन्धे पर रखकर अपने ही हाथ से चलानी होती है न! उस सोच के साथ ही उसे याद आया कि जब वह इस शहर के कॉलेज में पढ़ता था और राजनीति से इस तरह बिदकता था जैसे कोई ब्राह्मण संस्कारों का आदमी गाय के मांस से, तब उसके कॉलेज में छात्रों के बीच एक नया छात्र संगठन तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा था, उसे याद आया। वह छात्र संगठन उसी की पार्टी से सम्बद्ध था। यह याद आते ही उसके चेहरे पर संतोष की कुछ लकीरें आकर बैठ गयीं और दिप—दिप करने लगीं। इसका मतलब है कि उसकी पार्टी इस शहर में भी सक्रिय होगी। चाहे छोटे और कमजोर स्तर पर ही हो, पर होगी जरूर। ऐसा महसूस कर उसे काफी अच्छा और सुखद लगा और उसने तय किया कि समय मिला तो कल वह अपनी पार्टी का दफ्तर या लोगों को ढूंढने का प्रयत्न करेगा।
लेकिन यहां रहकर नमिता के साथ के अपने संबंधों का वह क्या करेगा? जिस शहर में आदमी के जुकाम की खबर भी बाढ़ आने की खबर की तरह फैल जाती हो उस शहर में रहकर क्या ऐसा मुमकिन है कि वह नमिता को अपनी पत्नी बनाकर एक नयी जिंदगी शुरू कर सके? उसके अपने पिता ने तो उसकी जिंदगी से स्वयं को खींचकर पूरी तरह हटा लिया है, लेकिन नमिता के अक्खड़ और गुस्सैल पिता की जिदों और सनकों का वह क्या करेगा? कस्बाई शहर के उस पारिवारिक सम्मान का वह क्या करेगा जो छींकने और खांसने से भी आहत हो उठता है? और संभव तो यह भी नहीं है कि वह इसी शहर में रहे और नमिता के प्रति अपने मन में उठती भावनाओं की तरफ पीठ करके ऊंघता रहे।
यही सब सोचते हुए, जब उसने घर में कदम रखा तो पिता को खाट पर बैठकर खाना खाते देखा। एकदम ही, पिता को हरकत में पा उसे अच्छा सा लगा। चुपचाप जाकर वह उसी खाट के एक कोने पर सिकुड़ कर बैठ गया। पिता उसी तरह खाना खाते रहे, उसकी उपस्थिति से बेखबर और वह सोचता रहा कि वह क्या है जो उसे बड़े से बड़े पुलिस अधिकारी के सामनेे भी तन कर, बेखौफ खड़ा रहने की शक्ति देता है, लेकिन पिता के सामने उसके कद को काट—काट कर तीन फुट का कर देता है? अपराध—बोध! नहीं, अपराध—बोध कैसा? उसने सोचा था और उसके तुरंत बाद कहीं पढ़ा हुआ एक वाक्य उसकी सोच पर धचाक से लगा — जो अपनी निजी जिम्मेदारियों के प्रति गैरजिम्मेदार हो वह कला अथवा समाज के प्रति कैसे जिम्मेदार हो सकता है?‘ तभी मां रसोई से पिता के लिए रोटी लेकर आयी और उसे देखकर बोली, आ गया। बड़ी देर कर दी?‘
‘हां,‘ उसने यूं ही, बिना किसी उद्देश्य के संक्षिप्त—सा उत्तर दिया लेकिन पिता को खांसी आ गयी और उन्होंने अपनी तेज खांसी के बीच आग्नेय नेत्रों से उसे घूर कर देखा, फिर खाट के नीचे रखे पानी के गिलास से दो घूंट पानी पिया और गिलास वापस वहीं रख दिया।
‘तुम एक कमरा किराये पर क्यों नहीं चढ़ा देती?‘ उसने सहसा ही मां से एक सवाल किया और जवाब पिता ने दिया, ‘शरीफ घरों में सारे फैसले घर का मुखिया करता है।‘
उसे क्रोध नहीं आया। पिता की अकड़ को कायम देख उसे प्रसन्नता ही हुई। निर्मल भाई ने एक बार उससे कहा था —‘आदमी के भीतर एक ठसक होती है, खुद्दारी होती है, जो लगातार जीवित रखनी पड़ती है। जो लोग इस खुद्दारी को खुद्दारी रौंदने वाली सत्ता के विरुद्ध तान देते हैं वे महान आदमी के प्रतीक रूप में हमेशा जीवित रहते हैं। हमारी लड़ाई यही तो है न कि आदमी को पूरे सम्मान और स्वाभिमान के साथ जिंदा रहने का हक है, जब कि यही चीज उससे छीन ली गयी है!‘
तभी उसने देखा, मां रसोई के पास खड़ी उसे इशारे से बुला रही है। वह खड़ा हो गया और मां की तरफ चल पड़ा।
‘बेटे, अपने पिता की बातों का बुरा मत मानना। बहुत दुख उठाये हैं उन्होंने इस जीवन में। दिमाग सनक गया है।‘
उसने मां के कंधे पर हाथ रख दिया और अपने होंठ काटने लगा। फिर नरम स्वर में बोला, ‘एक कमरा खाली ही पड़ा रहता है न, कोई आ जाये तो पैसा भी मिलेगा और सहारा भी हो जायेगा। मैंने तो यही सोचकर कहा था।‘
‘इस पहेली से आ रहा है एक आदमी। उन्होंने ही रखा है। पिचहत्तर रुपये महीने पर। इनके दफतर में चपरासी था, अकेला है। पैसे के लिए नहीं, सहारे के लिए ही रखा है। बहुत इज्जत करता है इनकी।‘ मां ने धीमी, लेकिन स्पष्ट आवाज में उसे सूचित किया और वह फिर से आंगन में आ टहलने लगा।
खाना खाने के बाद पिता ने थाली में ही हाथ धो लिये और खाट की बाही से दोनों हाथ रगड़—रगड़ कर पोंछ लिये। फिर उन्होंने एक मरियल—सी डकार ली ओर कमीज के बटन खोलने लगे। वह पिता के सामने की जूठी थाली उठाने के लिए झुका और तभी दो बातें एक साथ हुईं। पिता की आंखें उसकी आंखों से टकरायीं, फिर अपनी बनियान पर गयीं, जिसमें मुहावरे की भाषा में बहत्तर छेद थे। तुरंत उन्होंने अपनी कमीज फिर से पहल ली और कमीज के बटन तेजी से बंद करने लगे।
सर्द रात में नंगे बदन पर जैसे एक कोड़ा सड़ाक से पड़ा हो। उसके दिल में दूर तक दर्द की एक लकीर खिंचती चली गयी। उसे याद आया, तब वह इंटर में था। पिता एक शाम उसके लिए पैंट और बिट्टू के लिए कमीज का कपड़ा लाये थे। दोनों को जरूरत भी थी। उसके पास एक पैंट और दो कमीजें रह गयी थीं जबकि बिट्टू के पास दो पैंट तथा एक कमीज थी।
वे काफी तंगहाली के दिन थे।
वैसे तंगहाली तो उनके पूरे जीवन में ही व्याप्त थी।
वे दिन कुछ ज्यादा ही कठिन और कष्टसाध्य थे। ऐसे में बिट्टू और उसे अपने लिए कपड़े पाकर कितनी प्रसन्नता हुई थी, यह बताने के लिए शब्द छोटे हैं। पिता के चेहरे पर एक संतोष आकर बैठ गया था और वे लुंगी तथा बनियान पहनकर आंगन में टहलते हुए बता रहे थे कि यह कपड़ा लाने के लिए उन्होंने किस तरह पिछले पांच महीने से तीस रुपया महीना बैंक में जमा किया था। वह पिता के स्नेह और प्यार के आगे श्रद्धानत हो गया था और इस चिंता में डूब गया था कि अब कपड़ों की सिलाई के लिए कितने दिन अथवा महीनों का इंतजार करना पड़ेगा! पिता की बनियान में तब भी कई छेद थे और उनके पास जो दूसरी बनियान थी उसकी हालत भी काफी शोचनीय थी। उसने अचानक पिता को टोककर कहा था, ‘पांच रुपये की एक बनियान नहीं ला सकते थे आप?‘
उसके स्वर में पता नहीं क्या था कि एक पल के लिए पिता ठिठक गये, फिर ठहाका लगाते हुए बोले, ‘इस बनियान के छेद जिंदगी—भर तुम लोगों का पीछा करते रहेंगे और तुम्हें याद दिलाते रहेंगे कि तुम्हारा बाप कितना महान था।‘ उन्होंने अपनी पीठ को अपने ही हाथ से थपथपाते हुए कहा था, ‘इस बनियान के छेद ही तो हम दोनों को बुढ़ापे में अकेला पड़ने से बचायेंगे।‘ उन्होंने मां के कंधे पर हाथ रख दिया था और बोले थे, ‘वरना तो आजकल के लड़के जैसे ही काम—धाम से लगे, मां—बाप को छोड़कर भाग खड़े होते हैं।‘
‘जिनके लड़के मां—बाप को छोड़ देते हैं उनके मां—बाप में ही कोई खोट होता रहेगा,‘ मां भी मुसकरायी थी, ‘हमारे विज्जी और बिट्टू तो हीरा हैं, हीरा।‘
तब मां—बाप की इस उमगती हुई प्रसन्नता और सहज कल्पना पर वे दोनों भी खुलकर खिलखिलाये थे, और ठीक—ठीक याद है कि उसने कहा था, ‘अपनी पहली तंख्वाह से मैं आपके लिए एक दर्जन बनियान खरीद कर लाऊंगा।‘
‘और मैं डेढ़ दर्जन,‘ बिट्टू भी पीछे नहीं रहा था, ‘ताकि बाउजी रोज एक नयी बनियान पहन सकें।‘
‘देखते हैं, समय क्या दिखाता है,‘ हंसते हुए पिता अचानक गंभीर हो गये थे और खिल—खिल करता वह छोटा—सा घर आंगन यक—ब—यक उदासी में घिरकर कांपने लगा था। पिता ने एक ठंडी सांस लेते हुए धीरे से कहा था, ‘अभी तो डेढ़ दर्जन छेदों वाली बनियान ही किस्मत में लिखी है।‘ और इतना कहकर वे खाट पर बैठ गये थे। ऐसे जैसे लड़खड़ा कर गिरे हों।
तब वे दोनों पढ़ रहे थे और तब पिता अपनी छेदों वाली बनियान पहनकर ठाठ से आंगन में टहला करते थे। जब वह ग्रेजुएट हो गया और नौकरी ढूंढ़ने लगा तब भी पिता के उस ठाठ से घूमने में कोई कमी नहीं आयी थी, लेकिन आज...! वह सिहर गया। पिता ने अपनी बनियान के छेदों को उसके सामने प्रदर्शित करने से रोक लिया था। अपनी गरीबी को उन्होंने अपने बेटे से छिपाने की कोशिश की थी।
रिश्तों में आ गये इस भयावह फर्क को देख उसकी कनपटी सांय—सांय करने लगी थी। यातना के कितने चक्करदार, अंधेरे रास्तों से गुजर कर उम्र की इस दहलीज पर खड़े लहूलुहान पिता ने आखिर किस तरह अपने लिए एक अटूट और अभेद्य खामोशी चुनी होगी! इस चुप्पी को हासिल करने के लिए उन्हें अपने भीतर कितना अधिक चीखना और रोना पड़ा होगा!
बरतन उठा कर उसने हैंडपंप के पास रख दिये थे और अभी तक वहीं खड़ा था कि मां ने खाना खा लेने के लिए आवाज दी। पिता चारपाई पर लेट गये थे और आसमान में खो गये थे। वह रसोई में मां के पास पटरे पर बैठ गया और गर्दन झुकाकर आहिस्ता से बोला, ‘कल शाम को बस से जाऊंगा मैं‘। मां चमचे से कटोरी में दाल डाल रही थी, जो कटोरी में न जाकर जमीन पर गिर पड़ी। मां का हाथ कांप गया था। कोई भी जवाब न देकर वह चुपचाप खाना परोसती रही। दाल और रोटी। बस। कभी इस घर में घोर गरीबी के बावजूद अकेली दाल कभी नहीं बनती थी। पिता की आदतें बड़ी विचित्र थीं। वे कहा करते थे : ‘या हंसा मोती चुगें या फिर करें उपास (उपवास)।‘ और घर में या तो अच्छा खाना बनता था या नहीं बनता था। चने और गुड़ खाकर सब लोग सो जाते थे। सबका मतलब——पिता के अलावा बाकी सब! पिता का एकमात्र शौक था, अच्छा खाना। सनकीपने की हद तक पहुंचा हुआ शौक। उनका मानना था कि खाने के लिए ही तो सारा संघर्ष है।
‘घर में मीट कब से नहीं बना?‘ उसने अचानक मां से पूछ लिया।
‘मीट?‘ मां बुरी तरह चौंक गयी, फिर सहज होकर बोली, ‘करीब तीन बरस से। क्यों?‘
‘कल मीट बनायेंगे।‘
‘पर तेरे पिताजी ने मीट, मछली और अंडा खाना छोड़ दिया है। दाल, रोटी और खिचड़ी के अलावा चौथी कोई चीज नहीं खाते।‘
‘भरवां करेले, दम आलू, भरवां टिंडे, मटर पनीर और आलू टमाटर भी नहीं?‘ उसने मां की तरफ आश्चर्य से देखा और तुरंत ही अपनी जबान काट ली। अपने सवाल से मां के चेहरे पर उभरे आश्चर्य को देख वह लज्जित हो आया।
‘मेरा मतलब था कि अगर इनमें से कोई चीज कल बनायी जाये तो...?‘
‘नहीं खायेंगे।‘ मां ने उसके सवाल को बीच में ही काट कर झुंझलाहट से जवाब दिया। और वह यह नहीं समझ सका कि ‘नहीं खायेंगे‘ पिता की तरफ से कहा गया है, या इसमें मां भी शामिल है? पर उसने हिम्मत नहीं छोड़ी और धीरे से बोला, ‘सोच रहा था कि कल पिताजी के लिए दो—एक बनियानें ले आऊं!‘
‘नहीं।‘ मां ने अपने भीतर उमड़ते दर्द को होंठों से भींचकर रोकने की कोशिश की, फिर विनती जैसे लहजे में बोली, ‘ऐसा कोई काम मत करना कि तुम्हारे पिता मुझसे भी बात करना बंद कर दें। अगर ऐसा हुआ तो हममें से कोई भी नहीं जी पायेगा। बहुत अकेले हैं वो। इतने कि इससे ज्यादा अकेला करना पाप होगा उन्हें।‘
वह और नहीं खा सका। पानी पीकर उठ गया और कमरे में जाकर खाट पर बैठ गया। उसे अचानक ही लगा कि उसने यहां आकर ठीक नहीं किया। वह नहीं जानता था कि स्थितियों ने उसे नायक से रिड्यूस करके खलनायक बना डाला है। वह यह भी अनुमान नहीं लगा सका था कि स्थितियां इतनी जटिल और भयावह हो चुकी हाेंगी। पता होता या आभास भी होता तो वह यहां नहीं आता। निश्चित रूप से उसका यहां आना पिता को और अधिक अकेला कर देने के मकसद से नहीं था। वह तो उनका अकेलापन बांटने के लिए यहां आया था, उनके अकेलेपन में सेंध लगाने आया था। लेकिन अब इतनी आसानी से वापस लौट जाना संभव होगा क्या? नहीं, वापस तो जाना ही होगा, उसने सोचा और उसे निर्मल भाई की याद आ गयी।
निर्मल भाई—हारे हुए आदमी की आखिरी आशा। टूटती हुई आस्था का अंतिम टुकड़ा और अंंधेरे, सीलन—भरे, तंग तहखाने में टिम—टिमाती हुई मोमबत्ती। शायद यह सब अच्छे विशेषण नहीं हैं, उसने सोचा, लेकिन इतना तय है कि निर्मल भाई से किये हुए वायदे को तोड़ देना किसी के लिए भी बहुत आसान नहीं है। और उसके लिए तो यह नामुमकिन किस्म की ही चीज है। हां, उसने वादा किया था कि वह लड़ेगा — उम्र के आखिरी पायदान तक और सांस के अंतिम चरण तक लड़ेगा। उस समय निर्मल भाई की उस छोटी—सी कोठरी में उनकी पत्नी सहित आठ लोग थे। रात के दस बजे थे और निर्मल भाई से उसका परिचय हुए पूरे दस महीने बीत चुके थे। लड़ाई, कामरेड, होलटाइमर, क्लास एनिमी, क्लास स्ट्रगल, सर्वहारा, रिवोल्यूशन, कार्ल मार्क्स, गुरू गोलवलकर, लेनिन, आर.एस.एस., माओत्से तुंग, जे.पी., साम्राज्यवाद, दलाल, नौकरशाह, पूंजीवाद, इंदिरा गांधी, ब्रेझनेव, ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद, राजेश्वर राव, चारू मजूमदार, डांगे, एस.एन.सिंह, चे ग्वेवारा, अटलबिहारी बाजपेयी, कानु सान्याल, निकोलाई आस्त्रोवस्की, जूलियस फ्यूचिक, गोर्की, स्टालिन, भगवान रजनीश, भगतसिंह, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी, ज्योति बसु, विनोबा भावे, राजसत्ता, अक्तूबर क्रांति, पैटी—बुर्जुआ, उपनिवेशवाद, यातना, दमन, कुर्बानी, हौसला, विचारधारा, जेल, नफरत, फांसी, पार्टी, जुल्म, लाचारी, आत्मा, दुख, संघर्ष और पलायन जैसे नाम और शब्द उसके लिए किसी तिलिस्मी दुनिया की तरफ खुलने वाले रहस्यमय झरोखे नहीं रह गये थे। वह इन नामों और शब्दों के अर्थ और फर्क को काफी—कुछ समझने और जानने लगा था और लगातार जान रहा था — निर्मल भाई से, निर्मल भाई की पत्नी से, निर्मल भाई के साथियों से और अपने खुद के अध्ययन और अनुभव से। उन दिनों वह एक सिलाई मशीन की कंपनी में चार सौ रूपये महीने पर हाजिरी—क्लर्क था और निर्मल भाई के बगलवाली एक कोठरी में सौ रुपये महीने किराये पर रहता था। जिस रात आठ आदमियों के सामने उसने निर्मल भाई से ताउम्र लड़ने का वायदा किया था उस दिन सिलाई मशीन की कंपनी के मैनेजर ने उसे कुछ मजदूरों के बीच कम्युनिस्ट लिटरेचर बांटने और कंपनी में खड़ी नयी यूनियन का प्रचार करने के आरोप में नौकरी से निकाल दिया था। यह नयी यूनियन निर्मल भाई ने खड़ी की थी।
‘तो क्या सोचा?‘ निर्मल भाई ने पूछा था।
‘जैसा आप कहें।‘ उसने तपाक से जवाब दिया था और सोचा था कि अपनी समझ से इससे सही जवाब क्या हो सकता है, लेकिन इस जवाब के कारण उसे एक लंबा उपदेश मिल गया था। उसके होंठों पर मुसकान तैर आयी। ‘देखो, एक बात समझ लो।‘ निर्मल भाई ने उसके जवाब को सुन कुछ—कुछ अप्रसन्नता के लहजे में कहा था —‘क्रांतिकारी लोग व्यक्ति या दल में उसी सीमा तक आस्था रखते हैं जब तक कोई व्यक्ति या दल क्रांति के रास्ते पर चल रहा होता है। तुम्हें मेरा नहीं, दल का आदेश मानना है, लेकिन यहां भी तुम्हें एक बारीक बात समझा दूं। हम लोगों के बीच एक बड़ी पुरानी कहावत प्रचलित है—नो बडी इज ग्रेटर दैन पार्टी। यह सिद्धांत सोलहो आने दुरुस्त है, लेकिन मेरा निजी खयाल है कि नो बडी इज ग्रेटर दैन रिवोल्यूशन। यानी दल भी उसी सीमा तक जब तक वह क्रांतिकारी है, क्रांति के लिए है। क्रांतियां आदेशों से नहीं होतीं। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की जिम्मेदारी कैसे ले सकता है? मैं आदेश देने वाला तुम्हें कौन होता हूं? कल मैं बदल भी सकता हूं। आज मैं तुमसे कहता हूं कि तुम सब—कुछ छोड़कर क्रांति के लिए काम करो और चूंकि तुम्हारी आस्था मुझमें है, इसलिए तुम करने भी लगोगे। लेकिन कल यदि मैं तुमसे कहूं कि क्रांति के विरोध में काम करो, तब?‘
‘अरे नहीं! वह हड़बड़ा गया और संकुचित—सा बोला, ‘आप ऐसा नहीं कह सकते।‘
‘क्यों नहीं कह सकता?‘ निर्मल भाई ने सहज लहजे में झटके से उसकी बात को झपट लिया, ‘कोई भी, कभी भी, कुछ भी कर या कह सकता है। मूर्खों की तरह बात मत करो और अब तुम्हें क्या करना है, इसकी जिम्मेदारी मुझ पर मत डालो। व्यक्तिगत रिश्तों का हमारे लिए एक सीमा तक ही महत्व है, उसके बाद नहीं। क्रांति के विरूद्ध और क्रांति से बड़ा कोई रिश्ता हम नहीं मानते। तुम्हारे चमड़े से मुझे कोई प्यार नहीं है। चमड़े के भीतर मानवीयता के लिए धड़कते दिल से ही प्यार किया जा सकता है। कुछ फर्ज होते हैं, उनसे विमुख होने की सलाह नहीं दे रहा हूं, लेकिन क्रांति से बड़ा कोई फर्ज मैं नहीं मानता। दुनिया का कोई भी रिश्ता यदि क्रांति के रास्ते में बाधा बनता है तो उस रिश्ते से इनकार। इतना बड़ा हौसला हो तुम्हारे पास तो पार्टी के होलटाइमर के रूप में तुम्हारा स्वागत है। और न हो तो तुम्हारे लिए कोई दूसरी नौकरी तलाश कर देते हैं। कोई जरूरी नहीं है कि क्रांति को सहयोग देने के लिए होलटाइमर ही बना जाये। जो जहां है, जिस सीमा के भीतर है, वहीं रह कर भी काम कर सकता है। हमारे लिए तो उन लोगों का भी महत्व है जो कतई सक्रिय नहीं हैं और केवल हमदर्द हैं हमारे। लेकिन होलटाइमर...!‘ निर्मल भाई रुके और सिगरेट सुलगाने लगे। कोठरी में सन्नाटा सिर उठाने लगा। उसका उलट—पुलट होता दिमाग यक—ब—यक एकदम स्थिर हो आया और अब तक आदमकद हो आये कोठरी के सन्नाटे को अपनी अपेक्षाकृत भारी आवाज से भंग करते हुए उसने निर्मल भाई को फिर शुरू होने का मौका दिये बगैर कहा, ‘होलटाइमर मतलब, पेशेवर क्रांतिकारी ही न! जिसका पेशा ही क्रांति हो। मैं वायदा करता हूं कि विजय अपने नाम पर कलंक नहीं लगने देगा।‘
‘गुड।‘ अचानक निर्मल भाई की पत्नी उठीं और उसके माथे पर एक गहरा चुंबन जड़ते हुए बोलीं, ‘सच, विज्जी, हमें एक होलटाइमर की बड़ी सख्त जरूरत थी, जो निर्मल जी का काम संभाल सके।‘
निर्मल भाई की पत्नी की आवाज में उसके प्रति जो कृतज्ञता जैसा भाव था उसे महसूस कर वह भावुक हो आया और उसे लगा कि वह अभी रो पड़ेगा। अपने पर काबू पाते हुए उसने पूछा, ‘निर्मल भाई का काम?‘
‘हां।‘ जवाब निर्मल भाई ने स्वयं दिया, ‘पार्टी का आदेश है कि मैं फरीदाबाद जाकर काम करूं। वहां पार्टी बहुत कमजोर है और होलटाइमर तो एक भी नहीं है जब कि इतनी बड़ी इंडस्ट्रियल बैल्ट में कम—से—कम आधा दर्जन होलटाइमर होने चाहिए थे।‘
‘लेकिन यहां क्या होगा?‘ उसे यह खयाल ही बड़ा अजीब लग रहा था कि उसे निर्मल भाई की जिम्मेदारियां सम्भालनी हैं।
‘क्यों, तुम हो न!‘ निर्मल भाई मुसकराये, ‘तुम हो, नीलम है।‘ उन्होंने अपनी पत्नी का सिर सहलाया, फिर बाकी लोगों की तरफ मुखातिब होकर बोले, ‘ये लोग हैं और अपने तीन बहादुर तो आये ही नहीं, वो हैं। दिल्ली के पास पांच होलटाइमर, पांच यूनियनें और डेढ़ सौ पार्टी—मेम्बर हैं। फिर, दिल्ली का नम्बर तो सबसे अन्त में आयेगा।‘ निर्मल भाई ने ठहाका लगाया, ‘तुम क्या सोचते हो, लालकिले पर केवल दिल्ली का मजदूर लाल झंडा फहरा देगा। लालकिले पर लाल निशान फहराने के लिए पूरे मुल्क के किसानों और मजदूरों को दिल्ली लाना पड़ेगा, कामरेड!‘
कामरेड! उसकी आंखें नम हो आयीं। आठ महीने के परिचय में निर्मल भाई ने पहली बार उसे कामरेड कहकर पुकारा था।
वह खाट से उठ खड़ा हुआ और हैंडपम्प पर जाकर पानी पी आया। गला सूखने लगा था। आंगन में अंधेरा था। पिता सम्भवतः सो गये थे और पिता के बगल में पड़ी खाट पर मां भी सो गयी थी। सिर्फ वह जाग रहा था और सोच रहा था, जिंदगी के रास्ते इतने चक्करदार, फिसलन—भरे और कांटेदार क्यों होते हैं? फिसल कर गिरे और कांटों से पूरा बदन लहूलुहान कर लिया। फिर खड़े हुए और फिर गिरे। फिर उठे और...।
नहीं, अब नहीं गिरेगा वह, उसने सोचा और कमरे में आ गया। उसे पता नहीं चला और कमरे में उसके साथ—साथ नमिता भी आ गयी। जैसे ही वह खाट पर बैठा और नमिता ने उसकी चेतना को स्पर्श किया, वह फिर खड़ा हो गया। निर्मल की पत्नी भी तो हैं, उसने सोचा, नमिता को लड़ाई के मोर्चे पर क्यों नहीं उतारा जा सकता? खैर, इतना तो तय है कि जाना तो उसे पड़ेगा ही। वह आज इतनी दूर निकल गया है कि लौटना भी चाहे तो नहीं लौट सकता। इतने सारे लोगों की आस्था उसके साथ ही जी रही है कि वह मरना भी चाहे तो नहीं मर सकता। निर्मल भाई ने फरीदाबाद में अपना बहुत स्ट्रांग मास—बेस बना लिया है। जिस फरीदाबाद में कभी पार्टी का केवल एक सदस्य और आठ—दस समर्थक हुआ करते थे, वहां आज पार्टी की सदस्य—संख्या लगभग सौ पर पहुंच गयी है और निर्मल भाई के अलावा दो होलटाइमर भी हैं। पिछले ही साल पार्टी की ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सफल हड़ताल की जा चुकी है। आज उस शहर की एक चौथाई फैक्ट्रियों में पार्टी की यूनियन का झंडा गड़ा हुआ है। देश—भर में जे.पी. आन्दोलन उठान पर है। अभी हाल ही में देश—भर के करीब दस लाख लोगों का जो प्रदर्शन दिल्ली में हुआ उसमें पार्टी के नेतृत्व में अकेले फरीदाबाद से दो हजार लोगों ने भाग लिया। दिल्ली में भी काम बढ़ा ही है। जिस सिलाई मशीन की कम्पनी से एक दिन उसे निकाल दिया गया था आज उसी कम्पनी की यूनियन का वह सर्वोच्च नेता है। दो बार जेल जा चुका है और आजकल दिल्ली की होटल वर्कर्स यूनियन में पार्टी की जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ है। सरकार के जासूस उसकी निगरानी करते घूमते हैं।
इतना आगे जाकर क्या वह व्यक्तिगत रिश्तों के सुख की खातिर वापस लौट सकता है? यकीनन नहीं। यह वापसी अब उसके अपने बस में नहीं रह गयी है। चार अक्षरों का एक शब्द ‘हड़ताल‘ उसके मुंह से निकलते ही मशीनों के चक्के जाम हो जाते हों और सैकड़ों लोग अपने औजार फेंक कर उठ खड़े होते हों, ऐसे में पीछे लौटना कठिन नहीं, एक असम्भव कल्पना है। इतने ज्यादा लोगों के विश्वास निश्चित रूप से नहीं तोड़े जा सकते। अब सवाल अकेले निर्मल भाई के साथ गद्दारी करने का नहीं, अपनी खुद की आस्थाओं के साथ दगा करने का है। एक दुनिया, जो उसे जीने के लिए मिली थी, और जिससे मुक्त होकर उसने अपनी दूसरी दुनिया खड़ी की है, अब सवाल उस दूसरी दुनिया के साथ दगा करने और पुरानी, सड़ी हुई, मरणासन्न और असहनीय दुनिया मेंं लौट जाने का है। और यह उससे हो नहीं सकेगा अब। अब सवाल अपने बेटे से नाराज एक पिता को मनाने का नहीं, अपने दुश्मनों के प्रति हरहराती नफरत से झुलसते लोगों के क्रोध को आकार देने का है।
नहीं, नमिता नहीं। उसने तीखी आवाज में सोचा। अब यह सम्भव नहीं रहा कि दर्जा पांच से तुम्हारे साथ पढ़ने वाला, तुम्हें चाहने वाला विज्जी तुम्हारी गोद में सिर छुपाकर सब—कुछ भूल जाये। वो जमाने गये निम्मी, जब प्रेम का ठाठें मारता समंदर अपने भीतर सब—कुछ समा लेता था। आज तो उस समन्दर की पछाड़ खाती लहरों को याद—भर ही किया जा सकता है, उनमें डूबा—उतराया नहीं जा सकता। तब के उस विज्जी और उसकी निम्मी और उसके प्यार की सार्थकता आज विजय की इस दूसरी दुनिया में ही निहित है, इससे जुदा होकर नहीं। यह दुखों, अभावों, लाठियों, गोलियों और अनथक संघर्ष से लबालब भरा हुआ जीवन तुम्हें कभी भी विचलित न कर सके तो विज्जी अब भी पीछे नहीं हटेगा। इस विज्जी ने कभी भी अपनी निम्मी की ‘देह‘ को प्यार नहीं किया। और शायद तुमने भी अपने विज्जी को सम्पूर्णता में ही चाहा है। है न! तो?
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‘मुझे मंजूर है।‘ नमिता ने उसकी पूरी बात सुनकर उसकी आंखों में अपलक देखते हुए जवाब दिया तो वह फिर भावुक हो गया और आंख की कोर पर एक बूंद आकर टिमटिमाने लगी। एक वांछित दुनिया उसके मन में फिर से खड़ी होकर खिलखिलाने लगी। वह खुद को रोक नहीं सका और उठकर नमिता का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में लेकर आहिस्ता से बोला, ‘तुम सचमुच मेरे जीवन की लौ हो।‘ फिर उसने बेहद कोमलता के साथ नमिता के माथे, होठों और गरदन को चूम लिया।
‘मान गयी या नहीं?‘ नमिता की मां ने कमरे में प्रवेश किया और चाय की ट्रे मेज पर रख दी।
‘मानेगी कैसे नहीं?‘ उसने घूमकर जवाब दिया और सोचा, यह अनैतिक तो नहीं है न? नहीं, उसने तुरन्त ही फिर सोचा, अनैतिक तो अपनी इच्छाओं के विरूद्ध जिन्दगी गुजारना है।
मां का चेहरा खिल गया। नमिता का सिर झुका था।
‘मैं मिठाई लाती हूं।‘ मां से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी। वह लपकती हुई कमरे से बाहर निकल गयीं।
‘रात आठ बीस की बस से जाना है, आज ही।‘ मां के जाते ही उसने कहा, ‘बस—अड्डे पर मिल जाना और खाली हाथ ही आना।‘
मां मिठाई ले आयी थीं।
नमिता के घर से बाहर आने पर उसका मन निर्द्वद्व था। वह जानता था, नमिता के इस तरह भाग जाने पर गालियों की बौछार के अलावा और कुछ नहीं होगा। नमिता के पिता अपनी दुकान छोड़कर उन दोनों की तलाश में न ही दिल्ली आयेंगे और न ही पुलिस को सूचना देंगे। अपनी इज्जत और पैसे का नुकसान उनके लिए सभी चीजों से पहले है, जिसे वह किसी भी कीमत पर नहीं झेल सकते। नमिता को उसने यह बता ही दिया था कि मां के नाम सारी बातें एक चिट्ठी में सही—सही लिख आये।
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अगली सुबह वे दोनों राजधानी में थे। सुबह के ठीक पांच बजे थे। बस अड्डे पर सन्नाटे और उस सन्नाटे के बीचोंबीच सिर उठाये खड़ी पुलिस को देख थोड़ा आश्चर्य हुआ। इतनी सुबह घर तक जाने वाली कोई बस नहीं थी। स्कूटर ही लेना था।
‘कितने पैसे?‘ उसने एक स्कूटर वाले से मोल—भाव करना चाहा।
‘मीटर है न!‘ ड्राइवर ने सपाट लेकिन विनम्र भाषा में जवाब दिया तो उसे थोड़ा अचरज हुआ। नमिता को साथ लेकर वह चुपचाप स्कूटर में बैठ गया। रास्ते—भर ड्राइवर खामोश रहा। सड़कें खाली—खाली बड़ी विचित्र लग रही थीं। हालांकि यह समय ही ऐसा था, फिर भी उसे न जाने क्यों ऐसा लगा कि कुछ गड़बड़ है। रास्ते में कई जगह पुलिस के जवान चौकन्ने और सतर्क मुद्रा में घूम रहे थे। ठीक—ठीक कर्फ्यूग्रस्त इलाके जैसा वातावरण था। क्या बात हो सकती है, उसने सोचा और उसे ध्यान आया कि जिस दिन से वह दिल्ली से आया था, उसी दिन से उसने अखबार वगैरह कुछ नहीं पढ़े हैं और न ही रेडियो पर कोई समाचार आदि सुना है।
पुलिस उसके घर के सामने भी थी। स्कूटर रुका और वह पुलिस से घिर गया। पूरी कॉलोनी में पुलिस के लोगों के सिवा और कोई नहीं था। हालांकि यह एकदम सुबह का वक्त था, मगर फिर भी इतनी खामोशी और निर्जनता यहां कभी नहीं होती थी।
‘किसके घर आये हैं?‘ एक इंस्पेक्टर ने उससे पूछा था।
‘अपने।‘ उसने स्कूटर से उतरते हुए जवाब दिया और नमिता को उतारने लगा जो विस्फारित नेत्रों से परिस्थिति को भांपने की कोशिश कर रही थी।
‘कौन—सा घर है आपका?‘ इस बार इंस्पेक्टर के स्वर में तल्खी थी।
‘क्यों? वह रहा सामने।‘ उसने लापरवाही के साथ उंगली का इशारा कर बताया और चौंक पड़ा। घर के ऊपर लगा लाल झंडा अब नहीं था। उसने देखा, निर्मल भाई के घर के ऊपर भी लाल झंडा नहीं था।
‘आप मिस्टर विजय हैं?‘
‘जी हां, क्यों?‘
‘आपको गिरफ्तार किया जाता है।‘ इंस्पेक्टर ने बर्फ जैसी सिहरा देने वाली आवाज में जवाब दिया और उसके हाथ में हथकड़ी पहनाते हुए नमिता की तरफ देखकर बोला, ‘ये...?‘
‘मेरी पत्नी।‘ उसने जवाब दिया और नमिता को देखा, जिसकी आंखें फटी पड़ रही थीं।
‘ओह!‘ अचानक उसके मुंह से निकला और उसके होंठ गोल हो गये, फिर चेहरे को ढीला छोड़ उसने सहजता और नम्रता से कहा, ‘तुम्हें वापस जाना होगा, निम्मी! लगता है, वही हुआ है जिसकी भविष्यवाणी निर्मल भाई ने कुछ दिन पहले की थी। मेरी जेब से पर्स निकाल लो। और सुनो, घबराना मत। मैं फिर आऊंगा।‘
‘यह कहीं नहीं जायेगी।‘ इंस्पेक्टर ने अचानक उसके मुंह पर झापड़ मार दिया और जब तक वह चौंकता तब तक बाकी पुलिस वालों ने नमिता को भी हथकड़ी पहना दी। इसके बाद वह गुस्से में बौखलाता रहा और पुलिस वालों ने उन दोनों को लगभग घसीटते हुए ले जाकर पुलिस—वैन में पटक दिया।
सन्नाटा ज्यों का त्यों था और कॉलोनी के एक भी घर का दरवाजा अभी तक नहीं खुला था। पुलिस—वैन स्टार्ट हो गयी थी। वे दोनों वैन की जमीन पर पड़े थे और उनके दोनों तरफ पुलिस के सिपाही बन्दूकों की नाल पर उंगलियां टिकाये चौकन्ने बैठे थे। उसने लेटे—लेटे नमिता को देखा। नमिता भी उसे ही देख रही थी। वह मुसकरा दिया। नमिता भी मुसकरा पड़ी।
‘हंसो मत!‘ एक पुलिस वाले ने चीखकर कहा और दोनों की कमर पर बन्दूक का हत्था जोर से खींच मारा।
यह सन् 1975 की बात है। महीना जून का था और तारीख थी — छब्बीस।
—रचनाकाल : 1983
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