कहानी
मानसी
धीरेन्द्र अस्थाना
मानसी! मानसी! मानसी!
बहुत शोर था मानसी का। चार एक हजार मकानों वाली उस मध्यवर्गीय कॉलोनी का खंभा—खंभा जैसे मानसी के अस्तित्व से रोमांचित हो, स्तब्ध खड़ा था। जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन कमाल यह कि सारी बातें या तो मानसी की प्रशस्ति में, या मानसी की भर्त्सना में। जैसे मानसी न होती, तो लोगों की वाक्शक्ति बिला जाती और घरों में मनहूसियत छा जाती। जवान लड़कों के दिनों को उजड़ने से और स्त्रियों को आपस में टकराने से मानो मानसी ने ही रोका हुआ था। सुबह, दोपहर, शाम औरतों में एक ही चर्चा रहती...
मानसी चलती बहुत शान से है... मानसी संवरती बहुत आन से है... मानसी बोलती बहुत सलीके से है... मानसी हंसती बहुत कायदे से है... मानसी को डांस बहुत अच्छा आता है... मानसी गाती बहुत सुरीला है... मानसी बड़ों का सम्मान करती है... मानसी छोटों को प्यार करती है... मानसी ने जब ज्यॉग्रफी से इंटर में दिल्ली टॉप किया, तो राजधानी के सारे अखबारों में उसके फोटो छपे... मानसी कॉलोनी का गौरव है... मानसी बहुत शिष्ट, सभ्य और सुसंस्कृत लड़की है... मानसी कविताएं लिखती है... मानसी को घूमने का बहुत शौक है... मानसी को इतना स्वतंत्र नहीं होना चाहिए... उसकी संगत से कॉलोनी की बाकी लड़कियां भी बिगड़ रही हैं... मानसी को छाती पर दुपट्टा डालकर रहना चाहिए... मानसी देर रात तक बाहर क्यों रहती है? जब घर में टी. वी. मौजूद है, तो नाटक देखने के लिए थियेटर जाना क्यों जरूरी है? मानसी जींस क्यों पहनती है? मानसी को मिरांडा कॉलेज में दाखिला नहीं लेना चाहिए था... जवान लड़के और उनके पिता जिस तरह मानसी को देख कर एक साथ लार टपकाते हैं, वह क्या अच्छी बात है? मानसी के मां—बाप उसे दबाकर क्यों नहीं रखते? मानसी के कारण कई घरों में मियां—बीवी के बीच तकरार हो चुकी है... मानसी चरित्रहीन है।
किसी लड़की का इतना शोर हो और उस तक न पहुंचे, ऐसा कैसे संभव था? वह, जो हर लड़की के भीतर एक नायिका की तलाश करने लगता था, कब तक मानसी से बचा रहता? सुबह—सुबह घर से निकलकर रात को बारह—एक बजे तक घर से बाहर रहने के बावजूद मानसी का शोर उस तक पहुंच ही गया। और जब शोर पहुंचा, तो मन के एकांत कोने में अलसायी पड़ी नायिका उसकी चेतना में किसी आदिम इच्छा की तरह उभर आयी।
‘कौन है मानसी?‘ एक रात उसने अपनी पत्नी से पूछ ही लिया।
पत्नी उस वक्त मेज पर खाना लगा रही थी। उसका सवाल सुनकर वह न सिर्फ चौंक गयी, बल्कि सतर्क भी हो गयी। पहले वह तन्नायी, फिर मुसकरायी और फिर बेहद संजीदगी से बोली, ‘तुम्हारी बेटी के बराबर है वो।‘
‘छत्तीस साल के किसी आदमी की चौबीस साल की बेटी हो ही नहीं सकती।‘ उसने मजाकिया अंदाज में कहा और मुसकरा दिया।
‘अरे बाप रे।‘ पत्नी लगभग चीख ही पड़ी, ‘तुम्हें तो उसकी उमर तक पता है!‘
प्रत्युत्तर में वह फिर मुसकराया।
‘मैं तुम्हारी नस—नस से वाकिफ हूं।‘ पत्नी ने चिढ़कर कहा, फिर वह चिढ़ाते हुए बोली, ‘वैसे बेफिकर रहो। तुम्हें घास नहीं डालनेवाली वह।‘
‘तुझे पता है, मैं घास नहीं खाता।‘ उसने तत्काल जवाब दिया और पत्नी को पकड़ लिया।
और इस तरह मानसी उसके घर में आकर भी पसर गयी।
उसे पत्रकारिता के एक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। रात टेलीविजन के समाचारों में इस पुरस्कार की सूचना के साथ उसका चेहरा भी पूरे देश को दिखाया गया था और आज सुबह के सभी प्रमुख अखबारों में उसके चित्र छपे हुए थे। पत्रकारिता में उसके योगदान, उसकी चिंताओं, रुझानों, उपलब्धियों और संघर्षों की भी विस्तार से चर्चा की गयी थी। लगभग आत्ममुग्ध स्थिति में, बौराया हुआ—सा वह अखबारों में डूबा था कि हाथ में अखबार लिये, लगभग दौड़ते हुए एक लड़की ने प्रवेश किया और हांफते हुए बोली, ‘आंटी! अंकल को इतना बड़ा पुरस्कार मिला...‘ इससे आगे की बात वह पूरी नहीं कर पायी और आहिस्ता से बोली, ‘आंटी कहां हैं?‘
‘तुम?‘ वह थोड़ा असहज हो गया।
‘मैं मानसी।‘ लड़की ने लजाकर कहा।
‘मानसी!‘ वह विस्मित हो गया।
‘आंटी नहीं हैं?‘ लड़की रुक—रुककर बोली, ‘मैं बाद में आऊंगी। वैसे, आपको बधाई!‘ उसने लगभग इतराकर कहा, ‘मुझे पता नहीं था कि आप इतने बड़े आदमी हैं।‘
‘अरे नहीं।‘ वह अभी तक चकित था, लेकिन इससे पहले कि कुछ और कहता, मानसी उसी तरह दौड़ती चली गयी, जिस तरह आयी थी—बिल्कुल एक स्वप्न की तरह।
मानसी जा चुकी थी, लेकिन वह अभी तक उसी दिशा में देख रहा था, जहां से वह अदृश्य हुई थी।
‘तुम सचमुच एक स्वप्न हो।‘ वह बड़बड़ाया, ‘नहीं, तुम स्वप्न नहीं, स्वप्न और यथार्थ के बीचोंबीच खड़ी एक फेंटेसी हो।‘ उसने सोचा। सहसा वह उदास हो गया कि मानसी ने उसके लिए ‘अंकल‘ संबोधन का इस्तेमाल किया। उसे दुःख हुआ कि मानसी पत्नी के साथ अपने रिश्ते के माध्यम से उसे जानती है। उसे अफसोस हुआ कि मानस—नायिका जैसी मानसी से वह अब तक अपरिचित रहा।
‘मानसी! तुम इतनी देर में क्यों आयी?‘ उसने सोचा और अपने को बहुत अकेला, हताश और निराश अनुभव किया। पुरस्कार के आह्लाद पर सहसा मानसी का अभाव उसने अपनी चेतना पर तारी होते अनुभव किया और अपनी बेचारगी से तार—तार हो गया। उसने तमाम अखबार समेटकर एक तरफ रख दिये और कुरसी पर आराम की मुद्रा में पसर गया।
‘कितना मजबूर है वह,‘ उसने सोचा, ‘कि मानसी से परिचित होने के रास्ते पर सुनीता खड़ी हुई है, उसकी पत्नी, अपने तमाम अधिकारों से लदी—फंदी। जब तक सुनीता की आंखें सहमति न दें, तब तक वह मानसी से बोलना तो दूर, उसे अपने निकट देख भी नहीं सकता।‘ हर समय असंतुष्ट और अधैर्य में डूबा रहनेवाला उसका मन एकाएक एक ठोस कातरता से टकराकर कलपने लगा।
अचानक एक बेहद क्रूर और नंगा सवाल किया उसने अपने आपसे। ‘मानसी क्यों चाहिए उसे? ऐसा रूपवान या स्वप्निल पुरुष नहीं है वह कि संसार की तमाम सुंदर और संवेदनशील स्त्रियां उसकी कामना करने लगें। तो फिर वह क्यों करता है ऐसी कामनाएं, जो असंभव हों और जिनके पूरा न होने की स्थिति में वह खामखाह की यंत्रणा में खील—खील होने लगे!‘ लेकिन यह सिर्फ प्रश्न था। ऐसा प्रश्न, जिसका उत्तर पाकर आदमी खुद को पालतू और घरेलू किस्म की लिजलिजी शख्सीयत में तब्दील हुआ महसूस करता है। इसलिए प्रश्न प्रश्न ही रहा, उसकी यंत्रणा को कम नहीं कर पाया। फिर उसे लगा, ऐसे व्यर्थ और असुविधाजनक प्रश्नों से उलझने का कोई अर्थ ही नहीं है। मानसियां ऐसे प्रश्नों के पार खड़ी रहकर ही धड़का करती हैं। मानसियां न हों, तो आदमी न रच सके और न ही जी सके। इस कठिन और स्वार्थी संसार को मानसियां ही कोमल, निष्कलुष और रागात्मक बनाती आयी हैं आज तक। मानसी के बारे में इस तरह सोचना अच्छा लगा उसे और सहसा उसने पाया कि एक रागिनी की तरह बज रही है मानसी उसके मन में।
मिनट के साठवें हिस्से में भी देख लिया था उसने कि मानसी स्त्री के अस्तित्व का नहीं, स्त्री होने की शर्तों और एहसास का प्रतिरूप है। उसका तेजी से आना, ठिठकना, लजाना, इतराना और उसके बड़प्पन को गहरी निष्ठा से स्वीकार कर, स्वप्नमयी हो अदृश्य हो जाना — इतना कुछ एक साथ देख और महसूस कर कौन नहीं चाहेगा कि मानसी सिर्फ उसी के रक्त में एक उबाल की तरह उपस्थित रहे! उसने देखा था, उन कुछ ही चमत्कारी—से क्षणों में उसने देखा था कि मानसी स्वप्न देखने का सलीका भी जानती है और उन्हें पूरा करने का तरीका भी। वह दबंग भी है और विनम्र भी। वह आजाद रह सकती है और आजाद रख भी सकती है। वह समर्पण करा भी सकती है और समर्पित होने में भी उसे संकोच या दुविधा नहीं होगी। वह साथ हो, तो अधिकारों का द्वंद्व युद्ध नहीं, अधिकारों का सह—अस्तित्व रचा जा सकता है। मानसी संहार का नहीं, निर्माण का आमंत्रण है जैसे। और जैसे भी हो, यह निर्माण करना ही है उसे। खुद को नष्ट करके भी इस निर्माण को संभव करना है, क्योंकि निर्मिति के लिए आतुर और एकनिष्ठ मानसियां सड़कों पर नहीं खड़ी रहतीं। उन्हें खोजना होता है। वह खुद क्या पिछले लंबे समय से इस खोज में नहीं लगा रहा है?
अनायास ही उसकी आंखें नम हो आयीं। उसे लगा, मानसी के रूप में उसे वर्षों से खोयी हुई कोई दुर्लभ चीज दिख गयी है। उसका रोम—रोम कह रहा था कि मानसी फिर आयेगी। मानसी आती रहेगी। मानसी का आना और उसके साथ मिलकर एक रचनात्मक स्वप्न को निर्मित करना तो किसी पवित्र ग्रंथ में मंत्रों की तरह बहुत पहले से लिखा जा चुका है।
पत्नी चकित थी। वह यह मानने के लिए हरगिज तैयार नहीं थी कि अरविंद सुधर सकता है। लेकिन इस सच्चाई को भी वह कैसे नकार सकती थी कि पिछले काफी समय से अरविंद अपनी हर छुट्टी घर पर बिताने लगा था और शाम को सात—आठ बजे तक लौट आने लगा था। शराब पीना उसने नहीं छोड़ा था, लेकिन यह सुख भी कम नहीं था कि पिछले काफी समय से उसकी निजी डायरी में अरविंद से मिली यातना की कोई अभिव्यक्ति दर्ज नहीं हुई थी। उसे मालूम था कि अरविंद के जीवन में आया यह परिवर्तन मानसी के कारण है। लेकिन मानसी को लेकर उसे कोई खतरा नहीं था। वह अरविंद को ‘अंकल‘ और उसे ‘आंटी‘ कहती थी और वैसा ही आदर—भरा बरताव करती थी। फिर मानसी अरविंद की उपस्थिति में कभी घर नहीं आती थी, इसलिए भी उसे मानसी की तरफ से ज्यादा चिंता नहीं थी। अरविंद के रसिक स्वभाव की जानकारी थी सुनीता को, लेकिन वह यह भी जानती थी कि अरविंद के लिए उसकी प्रतिष्ठा और गरिमा इतनी बड़ी लक्ष्मणरेखा है, जिसे लांघकर वह कोई काम नहीं कर सकता, और इस कॉलोनी में तो कतई नहीं। इसलिए इस तरफ से वह एकदम निश्चिंत थी कि मानसी की उपस्थिति उसके दांपत्य संबंधों में किसी अनिष्ट की तरह प्रवेश ले लेगी, लेकिन उस इतनी जहीन, लेकिन सपनों में डूबी रहनेवाली लड़की का अरविंद—मोह उसे खुद मानसी के लिए हितकारी नहीं लगता था। अरविंद की अनुपस्थिति में मानसी उसके पेन, उसकी किताबों और किसी न किसी बहाने उसके कपड़ों को जिस अंदाज में छूती—स्पर्श करती थी, उससे डर भी लगता था सुनीता को। सुनीता के जरिये अरविंद की कितनी ही रुचियों—आदतों को गहराई से जान गयी थी मानसी। वह किसी भी शाम हाथ में कटोरी लिये चली आती, ‘आंटी, ये भरवां करेले। अंकल को पसंद हैं न?‘ या, ‘आंटी, अंकल को फलानी कविता के लिए बधाई देना।‘ या ‘आंटी, अंकल पर दबाव डालिए न, वे इतनी शराब न पिया करें।‘ एक दिन तो हद ही हो गयी। सुनीता अरविंद की मैली पैंट—शर्ट लेकर उन्हें धोने बाथरूम जा रही थी कि मानसी चली आयी और बोली, ‘लाइए, मैं धो देती हूं।‘
‘अरविंद को तो कुछ नहीं होगा।‘ तब सोचा था सुनीता ने। ‘ऐसा न हो कि यह लड़की कहीं की न रहे।‘
और इसी प्रक्रिया में एक कांड कर दिया था मानसी ने। जो भी लड़का उसे देखने आता था, उसे वह कोई—न—कोई मीन—मेख निकालकर रिजेक्ट कर देती थी। जब पिछले दिनों आये चौथे लड़के के लिए भी मना कर दिया मानसी ने, तो सुनीता ने सहज जिज्ञासावश पूछ ही लिया उससे, ‘आखिर तेरी भी तो कोई कल्पना होगी। कैसा लड़का चाहती है तू?‘
एक अजीब अभिमान में डूबकर गरदन ऊपर उठायी मानसी ने और निःसंकोच बोली, ‘नाराज नहीं होना आंटी! अगर आप नहीं होतीं अंकल के जीवन में, तो मुझे अंकल ही चाहिए थे। अंकल में जो बात...‘ मानसी ने अपनी दोनों हथेलियां आपस में जोर से भींचकर कहा था और सुनीता को भौंचक छोड़ चली गयी थी।
ये सारी सूचनाएं सुनीता के जरिये अरविंद तक भी आती थीं, लेकिन वह लापरवाही से उड़ा देता था उन्हें। वह बिल्कुल नहीं चाहता था कि सुनीता को इस बात का आभास तक हो कि वह खुद मानसी को लेकर कहीं बहुत भावुक या कमजोर है। इस अंतिम बात को भी उसने सुनीता के सामने यह कह ध्वस्त कर दिया कि लड़कियां अपने पति के रूप में अपने पिता की और लड़के अपनी पत्नी के रूप में अपनी मां की ही कल्पना करते हैं, ऐसा मनोविज्ञान की दर्जनों किताबों में लिखा है, कि मानसी अभी बच्ची है और उसका यह किशोर सुलभ उन्माद उसकी उम्र के साथ—साथ ढल जायेगा एक दिन।
सुनीता को निर्भय कर दिया था अरविंद ने, लेकिन खुद उलझ गया था। वह चाहने लगा था कि मानसी से रोज मिले, लेकिन इधर उसने उसकी अनुपस्थिति में भी घर आना छोड़ दिया था। सुनीता से कह तो दिया था उसने कि उसे अंकल ही चाहिए थे, लेकिन कहने के बाद डर भी गयी थी और सुनीता का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी, इसलिए नहीं आ रही थी।
आखिर मानसी आयी, उसकी मौजूदगी में दूसरी बार। पहली बार तब, जब अरविंद ने उसे पहली बार देखा था और दूसरी बार अब, उसके जन्मदिन पर। वह सबसे अंत में आयी। बिन बुलाये। थोड़ा सकुचाती—सी। उसकी आंखें, उसके होंठ, उसकी उंगलियां, उसकी चाल, उसकी उलझन, उसका उल्लास, उसकी झिझक—सब कुछ यह बता रहा था कि जन्म दिन की पार्टी में आये राजधानी के चर्चित लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों और अधिकारियों को देकर वह न सिर्फ प्रभावित और सहमी हुई है, बल्कि मुग्ध और गर्वित भी है। वह नीली साड़ी पहनकर आयी थी और एक काली डायरी लायी थी। डायरी के मुखपृष्ठ पर लाल गुलाब अंकित था और उसकी लंबी, पतली, पारदर्शी उंगलियों के पीछे से झांक रहा था।
मानसी ने वहां उपस्थित सब लोगों का बहुत शालीनता से अभिवादन किया, डायरी उसे थमायी और हौले से मुसकराकर भीतरवाले कमरे में चली गयी, सुनीता के पास।
उसने चुपचाप डायरी खोली। डायरी खोलते वक्त उसकी उंगलियां थरथरा रही थीं और हृदय एक अजीब—सी आतुरता और आकुलता के बीच आ—जा रहा था। डायरी के पहले पन्ने पर, बहुत सुंदर अक्षरों में, नीली स्याही से लिखा था —‘प्रिय अरविंद को, मानसी का मन‘।
एकाएक यकीन नहीं हुआ उसे। धूल, धूप, हवा, वर्षा, अभाव, दुख, कष्ट, निराशा, वंचना, यातना और निर्ममता से लड़ते—लड़ते लगभग प्रौढ़ और खुरदुरी हो चली उसकी चेतना चौबीस वर्ष की युवा और कोमल लड़की का यह समर्पण सहसा झेल नहीं पायी। उसे लगा, यह हकीकत नहीं, उसके भीतर दबी कामना का स्वप्न रूप है, लेकिन बार—बार पढ़ने पर भी ‘प्रिय अरविंद को, मानसी का मन‘ ही अमिट रहा — मानसी की आंटी और उसकी पत्नी सुनीता के आतंक या नाराजगी से अप्रभावित, अपने में स्वायत्त और नेह की ऊष्मा से मंद—मंद दहकता हुआ। उसने डायरी बंद कर तत्काल अपनी मेज की ड्रॉअर में, कागजों के नीचे दबा दी। मानसी द्वारा लिखे शब्दों का, सुनीता तक पहुंच जाने का अर्थ था — इस घर से मानसी का संपूर्ण बहिष्कार। मानसी की हिम्मत देख वह एकाएक अपनी नजरों में छोटा भी हो आया। एक असहाय कायरता का डंक अपने सीने में गड़ा महसूस करते हुए भी, लेकिन एक पल को उसे लगा कि मानसी के सहारे वह किसी भी विघ्न को शिकस्त दे सकता है। बत्तीस बरस के शंकालु, दुविधाग्रस्त और डरे हुए अरविंद की मुक्ति अगर कहीं है, तो केवल चौबीस वर्ष की मानसी के स्वप्न—संसार में ही। यह मानसी ही है, जो उसके अनकहे दुःख को अपने पवित्र और समर्पित ममत्व से एक ऐसी अभिव्यक्ति देगी कि शब्दों के कारीगर तक चौंक उठें।
तीसरी बार मानसी से मंडी हाउस की एक सड़क पर सामना हुआ उसका।
‘अंकल, आप?‘ खुशी से सराबोर हो उठी मानसी, लेकिन प्रत्युत्तर में वह चुप ही रहा, तो मानसी जैसे ताड़ गयी कि कहां, क्या गलत हुआ है। उसने एक बार भरपूर निगाह से अरविंद को देखा फिर गरदन झुकाकर धीमे से बोली, ‘वो क्या है कि ‘अंकल‘ शब्द आदत में शुमार हो गया है न, इसीलिए मुंह से निकल जाता है। कोशिश करूंगी आदत बदलने की।‘
वह चुप मानसी को देखता रहा और उसकी समझ पर मुग्ध होता रहा। उसके इस तरह लगातार देखे जाने से शायद मानसी को असुविधा होने लगी थी। उसका इरादा मानसी को असुविधा में डालने का नहीं था, लेकिन इस असुविधाजनक स्थिति से मानसी के गाल जिस तरह गुलाबी से सफेद और सफेद से गुलाबी हो रहे थे और जिस तरह उसकी पलकें तथा वक्ष ऊपर—नीचेे उठ—गिर रहे थे, उस सबसे वह खुद को भीतर—ही भीतर काफी आनंदित और रोमांचित महसूस कर रहा था। आखिर इस स्थिति को तोड़ने की पहल मानसी ने ही की, ‘बहुत अच्छा लिखते हैं आप।‘
‘अच्छा?‘ वह शरारती हो उठा, ‘बदले में क्या कहना चाहिए मुझे?‘
‘इतने युवा डायलॉग भी बोल लेते हैं आप?‘ मानसी ने खिलखिलाकर कहा, ‘अच्छा ही है, इससे आपका आतंक कम होता है।‘
‘आतंक क्यों?‘ वह जिज्ञासु हो उठा।
‘बस, होता है।‘ मानसी इतरा रही थी, ‘कितना बड़ा—सा तो प्रभामंडल है आपका। मुझे तो आपसे बात करते भी असुविधा होने लगती है।‘
‘फिर तो यह आतंक टूटना बहुत जरूरी है।‘ अरविंद ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
‘क्यों, जरूरी क्यों है?‘ मानसी इठलायी।
‘क्योंकि अपना मन तुम मुझे दे चुकी हो।‘ अरविंद ने एक—एक शब्द पर रुकते हुए कहा और थोड़े अधिकार, लेकिन ज्यादा संकोच के साथ मानसी के कंधे पर अपना हाथ रख दिया। उसकी आंखें भावुक हो आयी थीं और मानसी की आंखों में नाव—सी थरथराने लगी थी।
जैसे भूडोल आया हो और सब कुछ अपनी जगह से इधर—उधर हो गया हो। मानसी का रोम—रोम सिहर उठा। जैसे सड़क पर सिर्फ मानसी थी और अरविंद थे, नहीं, अरविंद था। बाकी सब भूडोल की भेंट चढ़ गया था। जैसे मानसी को सृष्टि पैदा करनी थी अरविंद के साथ मिलकर। उसने गहरी तड़प के साथ अरविंद की आंखों में देखा, अपनी एड़ियों को पंजों के बल थोड़ा ऊपर उठाया, किसी ऐंद्रजालिक सम्मोहन की पुकार की तरह अरविंद के माथे पर अपने होंठ छुआये और ‘ईडियट‘ कहकर दौड़ लगा गयी।
अरविंद की दुनिया में जैसे हाहाकार मच गया। अपने प्रेम का इतना निर्भय दान देकर मानसी ने अरविंद की पीड़ा को और गहरा कर दिया था मानो। वह एक गहरे अफसोस से घिर गया। उसे लगा, अगर वह भी बीस—बाईस वर्ष का बेफिक्र और खिलंदड़ा युवक होता, तो इस दौड़ती हुई मानसी को भागकर पकड़ लेता और उसे उसके प्रेम का प्रतिदान दे देता। लेकिन वह छत्तीस वर्ष का एक ऐसा आदमी है, जिसेे ढेर सारे लोग संजीदा और गंभीर मानते हैं। बहुत संभव है कि उसे जाननेवाले कई लोग उसे मानसी से बात करते और मानसी को उसका चुंबन लेते हुए भी देख चुके हों और अपने—अपने सस्मरणों में चटपटा इजाफा भी कर चुके हों। नहीं, ‘ईडियट‘ कहकर लगातार आंखों से दूर जाती मानसी का पीछा नहीं कर सकता वह।
मानसी जा चुकी थी वह इसी तरह जाती थी। यह तीसरी मुलाकात थी। तीनों बार वह अचानक आयी थी और सहसा चली गयी थी——अगली मुलाकात का कार्यक्रम तय किये बगैर।
चौथी बार मानसी उसके दफ्तर ही चली आयी। वह सिर झुकाये एक लेख लिख रहा था कि कानों में एक झनझनाता और परिचित स्वर पड़ा, ‘मैं आपको आपके दफ्तर में काम करते देखना चाहती थी, इसलिए चली आयी।‘
उसने चौंककर सिर उठाया और एक पल के लिए उसकी आंखें चौंधिया गयीं। पीली साड़ी, पीला ब्लाउज, काला पर्स, गर्वीला विनम्र चेहरा। प्रश्नाकुल आंखें और अधखुले होंठ। मानसी उसके दफ्तर में थी, ऐन उसके सामने। थोड़ा—सा झुककर खड़ी हुई। मानसी को देख सहसा उसके जेहन में ‘ईडियट‘ शब्द उतर आया और उसका हाथ अनायास अपने माथे पर पहुंच गया, जहां मानसी के होंठों का स्पर्श अभी भी दहक और महक रहा था।
वह उससे बैठने को कहता या उसके इस अचानक आगमन के स्वागत में उठकर खड़ा होता, इससे पहले ही मानसी ने पूछा, ‘मैं जल हूं या रेत?‘
‘मतलब?‘ वह अचकचा गया।
जवाब में मानसी ने उसकी मेज पर रखे शीशे के नीचे लिखी एक कवि की पंक्तियों पर अपनी उंगली टिका दी, ‘मुझे क्षमा किया जाये। और जल को जल तथा रेत को रेत कहने दिया जाये।‘
‘नदी।‘ वह कहना चाहता था, ‘तुम नदी हो,‘ लेकिन तब तक मानसी ‘फिर मिलेंगे‘ कहकर ऊंची एड़ी की सेंडिलों से फर्श पर खट—खट करते हुए दफ्तर से बाहर निकल चुकी थी—उसे हमेशा की तरह चकित और व्यथित छोड़कर।
तब मंडी हाउस की सड़क थी और वह दौड़ नहीं सका था। अब दफ्तर था और वह मानसी को पीछे से पुकार भी नहीं सकता था।
और इसीलिए इस बार वह झुंझला गया। मानसी के जिस व्यवहार ने पहले पहल उसे मुग्ध कर दिया था, उसकी चौथी बार पुनरावृत्ति होते देख उसके भीतर कहीं हलकी—सी कुंठा और तकलीफ ने जन्म लिया। आखिर क्या जताना चाहती है मानसी? क्यों करती है वह ऐसा?
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा। दो ही दिन बाद वह फिर दफ्तर में थी। इस बार शाम के समय। नीली ड्रेस में आयी थी।
‘मैं कल भी आयी थी।‘ मानसी ने आते ही कहा।
‘अच्छा? किसी ने बताया नहीं?‘ उसने शांत स्वर में कहा, मानो मानसी के आने पर कोई विशेष सुख न हुआ हो उसे।
‘मैंने पूछताछ नहीं की। देखा, आपकी मेज की दराजें बंद थीं और बैग भी नहीं है, सो चुप लौट आयी।‘ मानसी ने इस अंतरंगता से कहा, जैसे वह उसकी आदतों, रहन—सहन और स्वभाव से वर्षों से परिचित हो।
‘उठेंगे नहीं?‘ उसने अधिकार—भरे स्वर में कहा। फिर उसका स्वर अनुरोध में बदल गया, ‘आज मैं आपका थोड़ा—सा वक्त लेना चाहती हूं।‘
‘कोई विशेष बात?‘ उसने शांत और संयमित आवाज में पूछा। हालांकि मानसी का अनुरोध सुन खुशी का एक बवंडर—सा उसके भीतर उठा था और तेज—तेज मंडराने लगा था।
‘मंडी हाउस?‘ उसने संजीदा स्वर में पूछा।
‘आपकी पसंद।‘ मानसी ने जवाब दिया।
चौंकाने में, मानसी को, लगता है, मजा आता था। अरविंद एक सुखद आश्चर्य से घिर गया। मानसी को कैसे पता चला कि उसे ‘आपकी पसंद‘ में बैठकर अच्छा लगता है। ‘आपकी पसंद‘ में बैठकर रेस्तरां में बैठे रहने की सार्वजनिकता के साथ ही निजता का सुख भी मिलता था।
एक गहरी कृतज्ञता के से भाव से उसने मानसी की आंखों में देखा, उठकर खड़ा हुआ, दराज बंद की, बैग उठाया और मानसी के साथ दफ्तर की सीढ़ियां उतरने लगा। नीचे उतरकर उसने स्कूटर रोका और मानसी को बैठने का निमंत्रण दिया। मानसी की चेतना जैसे लुप्त हो चुकी थी और वह अरविंद के निर्देश पर ही जी रही थी इस समय। चेतना के इस लोप ने उसके चेहरे को प्रार्थना के मासूम क्षणों की तरह पवित्र और निर्दोष स्थिति में ढाल दिया था। वह चुप, स्कूटर में बैठ गयी। मानसी के बैठने के बाद वह खुद भी बैठ गया और बोला, ‘दरियागंज।‘
हवा के अनवरत झोंके से मानसी के दुपट्टे का पल्ला उसके चेहरे से टकरा रहा था, लेकिन मानसी इस तरफ से शायद एकदम बेखबर थी। उसने भी ऐसा होते रहने दिया। यह एक—दूसरे को महसूस करने के सर्वाधिक तल्लीन और निष्ठावान क्षण थे शायद।
‘आप रोज शराब क्यों पीते हैं?‘ सड़क की तरफ देखती, अपने में गुम, मानसी ने अचानक मुंह घुमाकर पूछा।
यह अप्रत्याशित था। वह इस समय मंडी हाउस की सड़क पर खड़ा था और मानसी उसके माथे को इस तरह चूम रही थी, मानो निर्भय होने का वरदान दे रही हो। इसीलिए मानसी के इस सवाल को सुन वह अचानक ऐसे व्यक्ति की तरह हो आया, जो अभी—अभी, बीच नींद में, अपना वध होते देख, घबराकर जागा हो। बड़े अचरज से उसने मानसी को देखा और गहरे दुःख से भरकर पूछ बैठा, ‘सुनीता ने बताया?‘
‘नहीं, लेकिन मैं जानती हूं। परसों रात बारह बजे जब आप नशे में अपने घर के बाहर की सीढ़ियों से फिसलकर खंभे से टकराये, मेरा मन किया, दौड़कर आपको संभाल लूं। पर ऐसा संभव नहीं था न।‘ मानसी की आंखों में हताशा उतर आयी थी।
उसका हाथ अपने माथे पर चला गया। पर, मानसी तब कहां थी? उसने सोचा और हैरानी से मानसी को देखा।
‘जब तक आप घर नहीं आ जाते, मैं अपनी खिड़की से आपको देखा करती हूं।‘ मानसी ने रहस्योद्घाटन—सा किया।
‘तुम्हारा घर कहां है?‘ उसे ताज्जुब हुआ कि वह यह भी नहीं जानता कि मानसी का घर कहां है।
‘आपके घर से तीन घर पहले। आप रोज रात मेरे कमरे की खिड़की के सामने से ही गुजरते हैं।‘ मानसी ने बताया।
तीन घर पहले? उसने कुछ याद करना चाहा, लेकिन तभी मानसी बोल पड़ी, ‘नीचे वाला घर नहीं, ऊपर वाला घर। आप मुझे नहीं देख सकते।‘
‘पर मेरे लौटने तक तुम क्यों जागती रहती हो?‘ उसने सीधा सवाल किया। वह अपने प्रति मानसी के लगाव के रेशे—रेशे को जान लेना चाहता था।
‘मैं बहुत डरी हुई रहती हूं। मुझे लगता है कि आपके साथ कोई ‘मिसहैपनिंग‘ न हो जाये। कई बार तो ऐसा हुआ कि आपके आने से पहले मुझे झपकी आ गयी और मैंने नींद में देखा कि एक ट्रक... ‘
‘सुनो मानसी!‘ उसने मानसी का हाथ पकड़ लिया, ‘मुझे कमजोर मत करो।‘ मानसी की निष्ठा ने उसके आकांक्षी मन को कहीं बहुत भीतर जाकर छू लिया था।
‘पर आप रोज क्यों पीते हैं?‘
‘क्योंकि सोने की जरूरत रोज पड़ती है।‘ वह संक्षिप्त होकर दुर्बोध हो गया। इतने नाजुक सवाल का जवाब देने का यह सही मौका नहीं था।
दरियागंज आ गया था। उसने स्कूटर को रुकने का संकेत दिया और मीटर देखने लगा।
‘पैसे मैं दूंगी।‘ मानसी पर्स खोलने लगी।
‘नहीं।‘ उसने थोड़ा जोर से कहा और स्कूटर का बिल चुका दिया। कुछ ही समय बाद वे ‘आपकी पसंद‘ के सुखकारी माहौल में थे। ‘आपकी पसंद‘ में कई नामों की चाय थी। मानसी ने ‘हम दोनों‘ का आदेश दिया।
‘आपकी मेज पर इब्सन की एक पंक्ति लिखी हुई है।‘ मानसी ने कहा, ‘सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वह है, जो नितांत अकेला है। क्या यह सही है?‘
‘तुम्हें क्या लगता है?‘ उसने प्रतिप्रश्न किया।
‘मुझे लगता है, यह गलत है। मैं तो खुद को बहुत कमजोर अनुभव करती हूं।‘ मानसी का स्वर उखड़ा, हताश और टूटा हुआ था, ‘हो सकता है, आपके संदर्भ में यह सही हो, फिर आप अकेले कहां हैं?‘
‘मैं भी अकेला ही हूं मानसी।‘ अरविंद का स्वर भावुकता से भर उठा, ‘और कमजोर भी बहुत हूं।‘
‘क्यों होता है ऐसा?‘ मानसी ने पूछा, ‘इतने सारे लोगों के होते हुए भी आदमी अकेला क्यों रह जाता है?‘
‘क्योंकि अकेलापन भौतिक नहीं, मानसिक स्थिति है।‘ वह गंभीर हो गया, ‘जब तक मन का साझीदार न मिले, तब तक अकेलेपन से मुक्ति संभव नहीं है।‘
‘तो फिर?‘ मानसी ने उसकी हथेलियां थाम लीं और तुरंत ही छोड़ भी दीं।
‘क्या यह अपराध है?‘ पूछा मानसी ने।
‘अपराध?‘ इस बार अरविंद ने मानसी की लगभग पसीजी हथेलियों को बहुत कोमलता से थाम लिया और उन पर अपनी हथेलियां फिराता हुआ बोला, ‘अपराध सिर्फ अपनी इच्छा के विरुद्ध जीना है मानसी। पर हम क्या करते हैं? घर से लेकर दफ्तर और निजी से लेकर परिवार के स्तर तक लगातार वह जीते हैं, जिससे बहुत भीतर तक घृणा करते हैं।‘ अरविंद एक ऐसी तकलीफ के बीच खड़ा तड़क रहा था, जिसने मानसी को बहुत दूर तक व्यथित कर दिया। उसने चाहा कि इस निर्दोष और गरिमामय बच्चे को अपने सीने में छुपा ले। अपने से बारह साल बड़ा अरविंद अपनी टूटन में उसके सामने एक ऐसे अबोध बच्चे में बदल गया था, जिसे चारों तरफ से ढेर सारी विपत्तियों ने घेरा हुआ हो। अपना जीवन देकर भी इस अरविंद को बचाना चाहती थी मानसी। पर कैसे?
सहसा मानसी को झटका—सा लगा। उसकी हथेलियों पर अरविंद की पकड़ क्रमशः कठोर पड़ने लगी थी। और अधिक डूबने से, बड़ी मुश्किल से रोका मानसी ने खुद को। यह सार्वजनिक स्थान था और अरविंद की पहचान का कोई भी व्यक्ति यहां किसी भी समय प्रवेश ले सकता था। उसका क्या है? कौन जानता है उसे? पर अरविंद ? उफ! मानसी का सीना दर्द कर उठा। कितना मजबूर है यह शख्स! कैसे—कैसे बंधनों में जकड़ा हुआ! यश आदमी को इस कदर गुलाम भी बनाता है, यह अनुभव मानसी को पहली बार हो रहा था। अभी तो कितनी सच्चाइयां जाननी हैं मानसी को, इस अपने कल्पनापुरुष के जरिये।
‘आपने डायरी में क्या लिखा?‘ मानसी फिर एक जिज्ञासु प्रशंसिका में बदल गयी और उसने आहिस्ता से अपनी हथेलियां छुड़ा लीं।
‘उसमें लिखने के लिए तो पहला पन्ना फाड़ना पड़ेगा।‘
‘तो फाड़ दीजिए।‘ मानसी मुस्करायी।
‘शब्दों को नष्ट करना इतना सरल नहीं होता मानसी!‘
‘चलें?‘ मानसी ने विषय बदल दिया। इतनी देर हो चुकी थी कि घर में चिंता और क्रोध टहलने लगते।
‘चलो।‘ अरविंद उठ खड़ा हुआ। उसे अच्छा लगा। पहली बार मानसी चलने के लिए पूछ रही थी। उठकर चली नहीं गयी थी।
दो
महत्त्वाकांक्षाओं, स्वप्नों, दुश्िंचताओं, आशंकाओं, बेचैनी, प्रश्नों, संवेदनाओं, चाहतों, दुस्साहस और छोटे—बड़े डरों से मिलकर बना था मानसी का व्यक्तित्व। प्रश्न चाहे खोजी पत्रकारिता की सीमा और संभावना से जुड़ा हो, चाहे विवाहेतर संबंधों की नैतिकता और तकाजे से, या सेक्स की पेचीदगियों, अनिवार्यता और मनोविज्ञान से, मानसी सबके बारे में सब कुछ जानने को हरदम व्यग्र रहती थी। उससे बात करने में सुख मिलता था, लेकिन कई बातें इतना अधिक विस्तार पा लेती थीं कि एक ऊब और उलझन—सी होने लगती थी और अरविंद का मन बीच बहस में उचट जाता था।
एक दिक्कत और थी मानसी के साथ। इस दिक्कत का एहसास अरविंद को मानसी के साथ अपने छह महीने के परिचय में बहुत गहराई से हो गया था। दिक्कत यह थी कि बात चाहे किसी भी विषय पर चल रही हो और मानसी ने बातचीत का चाहे कोई भी सिरा थाम रखा हो, लेकिन अंततः होता यह था कि केंद्र में मानसी आ जाती थी और विषय उससे शुरू होकर उसी पर शेष होने लगता था। मर्लिन मुनरो उसकी प्रिय नायिका थी और इस बात से वह बहुत पीड़ित रहती थी कि रूप, यौवन, यश और दौलत के कल्पनातीत सुख के बीचोंबीच रहनेवाली मर्लिन को नींद की गोलियां खाकर एकदम चुपचाप और अकेले मरना पड़ा। ‘मैं होती मर्लिन की जगह तो,‘ मानसी कहा करती थी, ‘तो इतनी तनहा मौत कभी नहीं चुनती और न ही अपनी सार्थकता पुरुष में ही ढूंढ़ने की कोशिश करती।‘ मर्लिन के बाद मानसी को सिमोन द बुवा आकर्षित करती थी। बुवा की ‘द सेकेंड सेक्स‘ किताब उसने कई बार पढ़ी थी और किताब से उठे कई प्रश्नों को लेकर घंटों उसका दिमाग चाटा था।
‘आपकी पसंद‘ में छह बजे मिलने को कहा था मानसी ने और इस समय छह—तीस हो रहे थे। अरविंद दो प्याले चाय और तीन सिगरेट फूंक चुका था उसकी प्रतीक्षा में और झल्ला रहा था कि आखिर ऐसा क्या है मानसी में कि उसके जैसा परिपक्व और व्यस्त आदमी एक किशोर प्रेमी की—सी आतुरता में मानसी की प्रतीक्षा में गर्क हो रहा है! वह किलस रहा था और मन—ही—मन मानसी का विश्लेषण कर रहा था कि बड़ी हड़बड़ाहट के साथ प्रवेश किया मानसी ने। छह—चालीस हो रहे थे। ठंड बढ़ने लगी थी।
‘मैं फंस गयी थी।‘ मानसी ने जल्दी से कहा, रूमाल से अदृश्य पसीना पोंछा और कुर्सी पर बैठ गयी।
वह चुप रहा और दोनों हाथों की उंगलियां आपस में फंसाकर, उन पर अपना चेहरा टिका, मानसी को देखने लगा।
‘नाराज हैं?‘ मानसी ने पूछा।
‘मैं तुम्हारा कौन हूं?‘ उसने उसी मुद्रा में कहा।
‘फ्रेंड, फिलॉसफर एंड गाइड।‘ मानसी हंस दी।
‘मेरी फीस?‘ वह पूर्ववत् संजीदा था।
‘फीस?‘ मानसी इस बुरी तरह चौंकी, जैसे अरविंद पगला गया हो। लेकिन उसे उसी तरह संजीदा देख एकाएक उसके चहेरे पर सख्ती उभर आयी। उसने एक—एक शब्द पर ठहर—ठहरकर पूछा, ‘क्या आप सीरियस हैं?‘
‘हां।‘
‘सचमुच फीस चाहिए आपको?‘
‘सचमुच।‘
‘क्या लेंगे?‘ मानसी की आंखों में अजीब—सी दृढ़ता उभर आयी थी।
‘यह तुम जानो।‘ अरविंद उसी मुद्रा में बैठा था और जैसे हवा से बातें कर रहा था।
‘तो उठें‘ मानसी ने जिस्म को रोमांचित कर देनेवाली, आदेशात्मक आवाज में कहा और खट—खट करती रेस्तरां से बाहर निकल गयी।
मानसी के इस रूप की जानकारी नहीं थी उसे। कुछ देर वह यूं ही अवाक् बैठा रहा, फिर पैसे चुकाकर बाहर निकल आया। बाहर मानसी एक स्कूटर रुकवाकर उसमें बैठ चुकी थी और उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे सचमुच सिहरन—सी होने लगी। क्या करने जा रही है मानसी? कहां जा रही है मानसी? उसे भी साथ जाना है, या अकेली ही जायेगी मानसी? आशंकाओं से घिरा हुआ वह स्कूटर के करीब आया।
‘बैठें।‘ मानसी की आवाज ही नहीं, चेहरा भी तंद्रिल हो गया था, पर साथ ही उसकी आंखों में कुछ कर गुजरने का अजीब—सा जिद्दी भाव भी उतर आया था।
वह चुपचाप किसी नटखट, लेकिन डरे हुए बच्चे की तरह स्कूटर में आ बैठा, मानसी से बचते हुए। उसके बैठते ही मानसी ने स्कूटरवाले से कहा, ‘शांतिवन।‘
शांतिवन! उसकी चेतना पर यह सुहानी और रोमानी जगह किसी पत्थर—सी टकरायी। उसने चुपचाप घड़ी देखी। सात बजकर दस मिनट। इस समय तक तो शांतिवन एक गहरे सन्नाटे और पारदर्शी अंधेरे में डूब चुका होगा। उसके घने वृक्षों के नीचे अंधेरा भय की तरह उतर आया होगा। उसे सचमुच ठंड लगने लगी।
शांतिवन आ गया था। मानसी उसके समानांतर चलती रही। चुप, निर्विकार। इतनी सघन और रहस्यमय चुप्पी से लड़ने के लिए अरविंद ने सिगरेट जला ली। जब तक सिगरेट खत्म हुई, वे पेड़ों के एक बड़े झुरमुट के घने और खामोश साये के नीचे अंधेरे से एकाकार हो चुके थे।
तभी मानसी रुक गयी। इतने अचानक कि संभलते—संभलते भी अरविंद मानसी से टकरा ही गया। और इससे पहले कि उसके होंठ स्वभाववश ‘सॉरी‘ शब्द का उच्चारण करते, उन पर मानसी के उत्तप्त, अछूते और जवान होंठ आकर चिपक गये।
‘लो, और लो।‘ मानसी बड़बड़ायी और उसके होंठों, माथे, गरदन और गालों पर किसी हिस्टीरिया के रोगी की तरह टूट पड़ी।
मानसी के इस अप्रत्याशित ज्वार को उसका स्थिर, अप्रस्तुत और प्रेम का शालीनता से लेन—देन करनेवाला तन—मन झेल नहीं पाया।
‘मानसी!‘ उसने सख्त लेकिन फुसफुसाहट सरीखी आवाज में मानसी को अपने से अलगाने की कोशिश करते हुए कहा। उसे ध्यान आ गया कि इस हालत में अगर कोई उसे देख ले, तो वह अखबारों का विषय तो बन ही जायेगा, उसका अपना घर कुंभीपाक नरक में तब्दील हो जायेगा। घर, दफ्तर, कॉलोनी, दोस्त, प्रतिद्वंद्वी पत्रकार — किस—किसको जवाब देता फिरेगा और किस—किससे टकरायेगा उसका अंतर्मुखी, संकोची और भीरू व्यक्तित्व?
मानसी अलग नहीं हटी थी, बल्कि और भी कसकर उससे चिपट गयी थी।
‘मानसी, हटो!‘ अचानक उसने मानसी को कसकर धक्का दे दिया।
उसके धक्के से मानसी लड़खड़ा गयी और पेड़ से टकरा गयी। उसका शॉल नीचे गिर पड़ा। एक पल के लिए उसकी आहत आंखें अरविंद के चेहरे से टकरायीं और दूसरे ही पल वह फिर हांफती हुई—सी अरविंद के जिस्म से आ लगी और लड़खड़ायी आवाज में बोली, ‘छह महीने! छह महीने से अभाव के नरक में जल रही हूं मैं, और नहीं।‘
‘लेकिन उसका यह तरीका नहीं है।‘ अरविंद ने उसे फिर छुड़ाने की कोशिश की।
‘मैं किसी तरीके को नहीं मानती। अरविंद जी के प्रभामंडल से लड़ते—लड़ते टूट गयी हूं मैं। मुझे अरविंद जी नहीं, अरविंद चाहिए, सिर्फ अरविंद और वह भी तत्काल।‘ मानसी ने टूटे, थके और समर्पित शब्दों में कहा और उसके गले से लगकर रोने लगी।
अरविंद का मन भर आया। मानसी के जिस्म का उद्दाम आवेग एक शिथिल और कातर उपस्थिति में ढल रहा था। उसे लगा कि सारी वर्जनाओं और आशंकाओं के पार जाकर वह इसी पल मानसी को अपना ले—संपूर्ण और सर्वांग। आखिर यही तो चाहता रहा है वह खुद भी। तो फिर इतना संकोच क्यों? प्रेम का इतना खुला, सार्वजनिक और वेगवान निमंत्रण भी उसकी शिराओं के रक्त को गरमा क्यों नहीं पा रहा है? इस सर्द रात में एक युवा, सुंदर और दहकता हुआ स्त्री—शरीर उसे ऊष्मा देने के बजाय बर्फानी एहसास के आगोश में क्यों धकेल रहा है? शायद प्रेम का इतना दबंग, आक्रामक और आकस्मिक समर्पण उसके संस्कार और व्यवहार की दुनिया में एकदम अनजाना और अपरिचित रहा है, इसीलिए आज वह उस मोरचे पर बिना लड़े पराजित हो रहा है, जिसे फतह करने की कामना में ही जी रहा था वह, पिछले छह महीने से। उसने पुनः एक सिगरेट सुलगा ली। जमीन से मानसी का शॉल उठाकर उसे ओढ़ाया और बोला, ‘चलो।‘
मानसी ने सिर झुका लिया और अंधेरे को चीरकर आगे बढ़ते अरविंद का पीछा करने लगी। निःशब्द। उसके आगे, सब कुछ पाकर, वीतरागी हो उठे आदमी की तरह चल रहा था अरविंद—लगातार यह सोचते हुए कि मानसी के निमंत्रण को ठुकराकर शायद उसने अच्छा नहीं किया। पर अब क्या हो सकता था, सिवा एक गहरे पश्चाताप में डूबने—उतराने के।
मानसी को नींद नहीं आती। तीन महीने से उसकी आंखें अनवरत जल रही हैं। जब भी आंख बंद करती है, शांतिवन वाला दृश्य उसकी चेतना में हा—हा, हू—हू करने लगता है। कितनी ही रातें वह चौंककर उठ बैठी है। और कितनी ही रातें पूरी—पूरी रात जागी रह गयी है। घर में, कॉलेज में, किताबों में, नींद में हर कहीं बस एक ही दृश्य। इस दृश्य से टकराते—टकराते उसका मस्तिष्क जगह—जगह से दरक गया है मानो। अगर तीन महीने पहले शांतिवन की उस स्तब्ध रात में उसके उन्मादी समर्पण को अपना लिया होता अरविंद ने, तो शायद उसकी आत्मा में मनहूसियत की तरह गूंजता यह विलाप उसे इस तरह न सताता। उसे खुद पता नहीं, कैसे क्या हुआ। उसने तो हमेशा अरविंद के सम्मान, प्रभामंडल, लोकप्रियता और प्रतिभा से ही प्रेम किया। वह हमेशा यही चाहती रही कि उसके जीवन में अरविंद एक वृक्ष की तरह उपस्थित रहें और वह उनकी घनी और सरपरस्त छांव में रहते रहकर ही इस प्रतिकूल दुनिया में अपने स्वतंत्र अस्तित्व को आकार दे। अरविंद को एक पुरुष की तरह न उसने चाहा था, न ही अरविंद के पुरुष में अपने अस्तित्व की सार्थकता पाने की उसने इच्छा की थी। तो फिर क्यों हुआ ऐसा कि अरविंद उसके स्वप्नों में, उसकी कामनाओं में एक पुरुष की तरह आकार लेते रहे? अरविंद की आदतों, अरविंद के स्वभाव, अरविंद की चाहतों, अरविंद के शब्दों, अरविंद के अकेलेपन और अपने प्रति अरविंद के झुकाव को जानने—समझने और गहराई से महसूस करने की तीव्रता ने ही क्या उसे इस परिणति तक पहुंचाया कि छत्तीस वर्ष के शादीशुदा और समाज के प्रतिष्ठित, लगभग प्रौढ़ अरविंद उसकी दुनिया में जिस्मानी और रूहानी स्तर पर एक कल्पना—पुरुष के रूप में मूर्त हो उठे? लेकिन इसका क्या करे वह कि उसकी जैसी लड़की का कल्पना—पुरुष अरविंद जैसा व्यक्ति ही हो सकता है? कॉलोनी में उसकी स्वतंत्रता को चाहे जितने भी छिछले और अश्लील स्तर पर लिया जाता हो, उसके खयालों और आचरण से खफा होकर पिता भले ही एक अजनबी में बदल गये हों, लेकिन उसका अंतर्मन जानता है कि वह कितना निष्पाप और बेदाग जीवन बिताती आयी है।
अरविंद से पहले किसी को भी अपना मन नहीं दिया मानसी ने। उसे लगा ही नहीं कि उसकी जैसी स्वप्नदर्शी और महत्त्वाकांक्षी लड़की को पत्नी के रूप में कोई पारंपरिक पुरुष झेल सकता है। या खुद वही किसी ऐसे पुरुष को पति स्वीकार कर सकती है, जो जमाने—भर की मूर्खताओं, अंधविश्वासों और कुंठाओं से भरा हुआ हो। सुखों—दुखों, स्वप्नों—यातनाओं को बिना कुंठा और पूर्वाग्रहों के शेयर कर सकनेवाले पुरुष की प्रतीक्षा में उसने अपने जीवन के चौबीसवें वर्ष को भी सूना, अधूरा और रिक्त रहने दिया। उसकी कितनी ही हमउम्र सहेलियां इस बीच घर बसाकर यहां—वहां चल दीं। कितनी ही सहेलियों के घर—आंगन में बच्चे ठुनकने लगे और कितनी ही सहेलियां घर बसाने के बाद घर तोड़कर अदालतों में तारीखें भुगत रही हैं। वह भी चाहती, तो ऐसा ही कुछ कर लेती अब तक। पर उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि अपनी ही शर्तों पर जीवन को आकार देना चाहती थी वह। उसे भरोसा था कि देर—सबेर वह एक ऐसे जीवनसाथी को खोज ही लेगी, जो उसे भी स्वाधीन रखे और खुद भी स्वाधीन रहे।
और ऐसे आदमी का अस्तित्व उसे अरविंद में दिखा, इसका क्या करे वह?
अपने कल्पना—पुरुष की प्रतीक्षा में, अरविंद के बाहर ही खड़ी रहती वह, लेकिन खुद अरविंद जिस तरह अपने प्रभामंडल से बाहर निकल कर उससे मिले—घुले और खुले, उससे लक्ष्मणरेखा के भीतर पहुंच गयी वह। यह सही है कि उनके जम्नदिवस पर डायरी में अपना मन पहले उसी ने दिया, लेकिन अरविंद उस मन को अस्वीकृत भी तो कर सकते थे। उन्होंने अपना क्यों लिया उसका मन? और जब अपनाया था, तो शांतिवन में उसका इतना निर्मम मर्दन क्यों कर दिया? क्यों इतनी संजीदगी से मांगी थी उन्होंने फीस? क्यों पूछा था कि वह मेरे कौन हैं? और जब स्त्री होने के बावजूद उसने खुद ही उनके और अपने रिश्ते को आकार देना चाहा, तो उन्होंने धक्का दे दिया।
उफ! मानसी की कनपटी फिर तड़—तड़ करने लगी। अरविंद द्वारा धक्का दिये जाने का दृश्य फिर से कद्दावर होने लगा। बस, इसी दृश्य को नहीं झेल सकती मानसी। काश, यही एक दृश्य कोई उसकी स्मृति से मिटा दे! यह दृश्य उसके स्नेहिल और रागात्मक संसार को हिंसक और बर्बर रणस्थली में बदल देता है। अरविंद द्वारा अपमानित कर दिये जाने पर भी उनके विरुद्ध नहीं जा सकती मानसी।
पर उसे ठुकराकर खुद भी तो एक रौरव नरक में जल रहे हैं अरविंद। शांतिवन वाली घटना के बाद वह अरविंद सेे एक बार भी नहीं मिली, लेकिन रोज रात बारह और एक बजे नशे से आक्रांत अपने आत्मघाती व्यक्तित्व को थरथराते कदमों से अपने घर तक पहुंचाते, उसी की खिड़की के नीचे से ही तो गुजरते हैं वह। आंटी बता रही थीं कि पहले से ज्यादा पीने लगे हैं अरविंद।
अरविंद जल रहे हैं, अरविंद नष्ट हो रहे हैं, अरविंद मर रहे हैं। उसके समर्पण को अस्वीकार करके अरविंद भी सुखी नहीं हैं—एक अजीब—सा सुख मिला मानसी को।
लेकिन यह सुख भी मानसी के लिए अनिद्रा ही लाता है। कैसे सोये मानसी? मानसी जानती है कि खुद को नष्ट कर देंगे अरविंद, लेकिन उससे एक शब्द नहीं कहेंगे। अपने बड़प्पन के दायरे से निकलकर मित्रता की पुरर्स्थापना वह खुद कभी नहीं करेंंगे। आंटी सिर्फ कहती हैं, लेकिन अरविंद की नस—नस को जानती है मानसी। यह जानना ही उसके और अरविंद के संताप का स्रोत है, यह भी जानती है मानसी। इस स्रोत को ही नष्ट करना होगा, वरना मुक्ति संभव ही नहीं।
खिड़की से सिर टिकाये, अरविंद के इंतजार में जागती सोच रही है मानसी कि खुद को अरविंद से और खुद से अरविंद को कैसे मुक्त करे वह!
तभी सड़क पर शोर—सा हुआ। अंधेरे में आंखें फाड़कर देखा मानसी ने—खुद को संभाल न पाने के कारण नशे में धुत्त अरविंद रिक्शे से लुढ़ककर सड़क पर गिर पड़े हैं। मानसी के कंठ से दबी—दबी चीख निकल पड़ी। रिक्शेवाला अरविंद की घड़ी खोल रहा था। शोर मचाने से अरविंद की प्रतिष्ठा जा सकती थी, इसलिए आंखों में आंसू लिये सिर्फ देखती रही मानसी कि अरविंद के सिर पर लात मारकर भाग गया रिक्शेवाला।
हे भगवान! मानसी को लगा कि पृथ्वी को फट जाना चाहिए। इस आदमी के लिखे एक—एक शब्द को कितने गौर से पढ़ते हैं लोग! ‘हे ईश्वर!‘ मानसी ने प्रार्थना की, ‘इस रिक्शेवाले को क्षमा करना, यह नहीं जानता कि इसने क्या किया।‘
अरविंद उठ रहे थे, लड़खड़ाते हुए वह उसकी खिड़की के ऐन नीचे आये। सिर उठाकर उन्होंने एक पल के लिए ऊपर ताका और आगे बढ़ गये—अपने घर की तरफ।
अब घंटी बजायी होगी उन्होंने। मानसी ने सोचा। कुछ ही देर बाद दरवाजा खुलने और बंद होने की आवाज सुनी मानसी ने और अपना सिर खिड़की की चौखट पर दे मारा।
मानसी को पता चला—अरविंद जा रहे हैं। उनका अखबार उन्हें बंबई भेज रहा है। फिलहाल अकेले जा रहे हैं, बाद में आंटी को भी आकर ले जायेंगे। खुद को रोक नहीं पायी मानसी। अरविंद के दफ्तर पहुंच गयी। वह उठने की तैयारी कर रहे थे। उसे देखा और चेहरे पर बिना कोई भाव लाये धीमे से बोले, ‘मैं जानता था, तुम आओगी। ‘हम दोनों‘ पीने ‘आपकी पसंद‘ चलोगी?‘
मानसी चुप रही। पूरे छह महीने बाद इतने करीब से देख रही थी वह अरविंद को। जरा भी नहीं बदले। सिर्फ चश्मा नया है और आंखों के नीचे की सूजन थोड़ा और बढ़ गयी है।
‘घड़ी कहां गयी?‘ मानसी ने पूछा।
‘शांतिवन वाली घटना के बाद से मेरा इंतजार करना भी बंद कर दिया था क्या?‘ शांति से पूछा अरविंद ने।
उफ! भीतर तक सिहर गयी मानसी। इसीलिए तो चाहिए था यह शख्स मुझे। उसने सोचा। इसीलिए तो दिया था इस आदमी को अपना मन, क्योंकि यह मन की कद्र करना जानता है।
‘बंबई कब जा रहे हैं?‘
‘दो रोज बाद।‘
‘क्यों?‘
‘क्योंकि मन में बैठी हुई मानसी से सिर्फ समुद्र ही मुक्त कर सकता है।‘
पहली बार चूक हुई मानसी से। वह समझ नहीं पायी कि अरविंद क्या कहना चाहते हैंं, समुद्र को बीच में लाकर। आहत होकर बोली, ‘आप तो मुक्त हो जायेंगे। मुझे कौन मुक्त करेगा?‘
‘मानसी का मन।‘ कहा अरविंद ने।
‘पर वह तो आपके पास है।‘
‘इसीलिए मैंने आज तक उस पर कुछ नहीं लिखा।‘ अरविंद ने अपनी मेज की दराज खोलते हुए कहा, ‘मुझे मालूम था कि एक रोज तुम्हारा मन तुम्हें लौटाना होगा।‘ अरविंद ने मानसी द्वारा दी हुई डायरी निकाली और कहा, ‘इसे रख लो। घर से उठाकर यहां ले आया था कि आओगी, तो लौटा दूंगा। देखो, यह एकदम कोरी है।‘
‘कितना निर्लज्ज झूठ बोलते हैं आप!‘ मानसी का स्वर एक साथ उद्धत और आहत हो गया, ‘इसके पन्ने—पन्ने पर मानसी का मर्सिया लिखने के बावजूद कहते हैं कि यह कोरी है!‘
‘मानसी!‘ अरविंद का स्वर डूब गया।
‘हम दोनों।‘ मानसी ने धीरे से कहा और रूमाल से अपनी आंखें पोंछ लीं।
अरविंद ने अपना बैग उठा लिया। मानसी भी उठ खड़ी हुई।
‘आपकी पसंद‘ में ‘हम दोनों‘ पीने तक कोई कुछ नहीं बोला। चाय खत्म करके मानसी ने ही कहा, ‘कितने दिन गुजर गये यहां की चाय पिये।‘
‘सिर्फ तुम्हें।‘ अरविंद ने जवाब दिया, ‘मैं छह महीने से यहां रोज आ रहा हूं। एक चाय अपने हिस्से की पीता हूं, एक तुम्हारे हिस्से की।‘
‘क्यों?‘ मानसी के भीतर एक स्त्री रोने लगी, ‘क्यों करते रहे अरविंद ऐसा?‘ उसने सोचा, ‘छत्तीस बरस का यह संगदिल—सा दिखने वाला पुरुष इतना भावुक क्यों है?‘
‘मानसी!‘ अरविंद ने सिगरेट जलाते हुए कहा, ‘पिछले छह महीने में मैंने बार—बार सोचा है और हर बार पाया है कि मैं तुमसे प्यार करता हूं। ऐसा प्यार, जो मन और तन दोनों पर अधिकार चाहता है। मैं चाहता, तो छह महीने पहले तुम्हें ले सकता था, पर मैंने खुद को रोक दिया। जानती हो, क्यों? क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मानसी जैसी लड़की समाज में दूसरी औरत या रखैल कहलाये। यह सच है मानसी!‘ अरविंद ने सिगरेट का लंबा कश लिया, ‘कि मैं तुम्हें अपनी बीवी नहीं बना सकता। सुनीता जैसी सहनशील और मेरे भीतर के नरक को निर्विरोध स्वीकार कर लेनेवाली औरत तुम शायद कभी नहीं बन पातीं।‘
‘चलें!‘ मानसी बीच में ही पूछ बैठी।
‘नहीं, मुझे पूरा सुने बगैर नहीं जा सकतीं तुम।‘ अरविंद ने आदेश—सा दिया, ‘तुमने सिर्फ मेरा उजास देखा है। मेरे भीतर के अंधकार और दुर्गंध से परिचय नहीं है तुम्हारा। मेरे भीतर की अंधेरी, घृणित और असहनीय दुनिया में सिर्फ सुनीता ही रह सकती है मानसी! तुम्हारा तो दम घुट जायेगा वहां। मेरे अशक्त और खोखले हो चुके तन को प्रेमिका की नहीं, परिचारिका की जरूरत है मानसी और परिचारिका मानसियां नहीं, सुनीताएं ही हो सकती हैं।‘
‘और कुछ?‘ कातर हो उठी थी मानसी। अरविंद सच कह रहे थे। अरविंद के भीतर बसे सामंत को उसके भीतर बैठी स्वाधीन स्त्री शायद स्वीकार नहीं कर पाती। जब स्थितियां इतनी साफ हैं, तो मन जुड़ता क्यों है अरविंद से?
‘अपनी इच्छा से जा रहा हूं मैं।‘ अरविंद ने कहा, ‘यहां रहूंगा, तो तुमसे दूर रह नहीं पाऊंगा।‘
‘सिर्फ एक इच्छा पूरी करेंगे मेरी?‘ मानसी ने पूछा।
‘नहीं कर पाऊंगा, मानसी।‘ अरविंद ने हताशा—भरे स्वर में कहा, ‘बिना शराब पिये मैं सचमुच नहीं सो पाता। तुम होतीं जीवन में, तो शायद कोशिश भी करता।‘
मानसी का मन हुआ कि लपककर रोक ले अरविंद को और कह दे कि उसे दूसरी औरत बनना मंजूर है। अपने सारे स्वप्नों और स्वाधीनता की तिलांजलि दे सकती है मानसी, अगर अरविंद आधा ही उसका हो जाये।
पर ऐसा कह नहीं सकी मानसी। न उस रोज, न उसके अगले रोज और न ही उस वक्त, जब आंटी के साथ स्टेशन चली आयी थी वह—अरविंद को विदा करने। गाड़ी चली गयी और अरविंद का हिलता हुआ हाथ दिखना बंद हो गया, तो आंटी की गोद में सिर छुपाकर किसी छोटी—सी बच्ची की तरह फूट—फूटकर रो पड़ी मानसी।
रचनाकाल : 1988
कहानी
जो मारे जायेंगे
धीरेन्द्र अस्थाना
भूमिका
ये बीसवीं शताब्दी के जाते हुए साल थे—दुर्भाग्य से भरे हुए और डर में डूबे हुए। कहीं भी, कुछ भी घट सकता था और अचरज या असंभव के दायरे में नहीं आता था। शब्द अपना अर्थ खो बैठे थे और घटनाएं अपनी उत्सुकता। विद्वान लोग हमेशा की तरह अपनी विद्वता के अभिमान की नींद में थे—किसी तानाशाह की तरह निश्चिंत और इस विश्वास में गर्क कि जो कुछ घटेगा वह घटने से पूर्व उनकी अनुमति अनविार्यतः लेगा ही। यही वजह थी कि निरापद भाव से करोड़ों की दलाली खा लेने वाले और सीना तानकर राजनीति में चले आने वाले अपराधियों और कातिलों के उस देश में खबर देने वालों की जमात कब दो जातियों में बदल गयी, इसका ठीक—ठीक पता नहीं चला। इस सच्चाई का मारक एहसास तब हुआ जब खबरनवीसों का एक वर्ग सवर्ण कहलाया और दूसरा पिछड़ा हुआ। इस कथा का सरोकार इसी वर्ग से है, इस निवेदन के साथ कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में घटी इस दुर्घटना को सिर्फ कहानी माना जाये। इस कहानी के सभी पात्र—स्थितियां—स्थान काल्पनिक हैं। किसी को किसी में किसी का अक्स नजर आये तो वह शुद्ध संयोग होगा और लेखक का इस संयोग से कोई लेना—देना नहीं होगा।
चरित्र—परिचय
पिछड़ी जाति के खबरनवीस दरअसल खबरनवीस थे ही नहीं। वे विद्वान लोग थे। अलग—अलग अखबारों—पत्रिकाओं में नौकरी करने के बावजूद उनमें एक साम्य यह था कि वे अपने आसपास के समाज और वातावरण से असंतुष्ट और दुखी थे। वे मोटी—मोटी किताबें पढ़ते थे। समाज बदलने के विभिन्न रास्तों पर गंभीर बहसें करते थे। देश में हो रहे दंगे—फसादों को देख चिंतित होते थे। पुरस्कार प्राप्त करते थे और पुरस्कार देने वाली समितियों के सदस्य भी थे। वे भाषा के धनी थे। कल्पनाशील थे। मेधावी थे। एक—दूसरे का सम्मान करते थे लेकिन अपने—आपमें सिमटे रहते थे। वे कविताएं लिखते थे। कहानियां लिखते थे। आलोचनाएं लिखते थे। सेमिनारों में भाषण देते थे। वे सिगरेट भी पीते थे, बीड़ी भी और सिगार भी। उनका कोई ब्रांड नहीं था। सुविधा और सहजता से जो भी मिल जाये उसे अपना लेते थे। वे जोखिम मोल नहीं लेते थे और दुखी रहते थे कि व्यवस्था बदल नहीं रही है। वे रम भी पी लेते थे और व्हिस्की भी। मात्रा कम हो तो वे रम और व्हिस्की को मिलाकर पी लेते थे। पी लेने के बाद भावुक हो जाना उनकी कमजोरी थी। पीने के बाद कभी वे ‘हम होंगे कामयाब‘ वाला गीत गाते थे, कभी अपने न होने के बाद के शून्य और अभाव के भाव कविताओं में दर्ज करते थे। हर सुंदर स्त्री से प्रेम करने को वे आतुर रहते थे और पत्रकारिता के लगातार गिरते स्तर से क्षुब्ध रहते थे। उन्हें पत्रकारिता को सृजनशीलता से जोड़े रखने की गहरी चिंता थी और अपनी प्रतिभा पर उन्हें नाज था। वे सब अपने—अपने मालिकों को धनपशु कहते थे और उनकी सनकों—आदतों पर ठहाके लगाते थे। पत्रकारिता की दुनिया में वे खुद को श्रेष्ठतम और योग्यतम मानते थे और इस बात पर हैरान रहते थे कि जब भी कोई नया अखबार शुरू होता है तो उनके पास बुलावा क्यों नहीं आता है।
सवर्ण जाति के खबरनवीस भी दरअसल खबरनवीस नहीं थे। यश, धन और सत्ता की उच्चाकांक्षा लेकर वे पत्रकारिता में घुसे थे और आंख बचाकर राजनीति के गलियारे में दाखिल हो गये थे। वे किताबें नहीं पढ़ते थे, राजनेताओं का जीवन—परिचय रटते थे। अपने मालिकों का वे बहुत सम्मान करते थे। और उनकी संतानों तक को खुश रखते थे। तस्करों, अधिकारियों और दिग्गज नेताओं से उनके सीधे ताल्लुक थे। वे खबरों के लिए मारे—मारे नहीं घूमते थे बल्कि खबरें उनके पास चलकर आती थीं। वे अपनी जेबों में गुप्त टेप रिकॉर्डर रखते थे और विशेष बातों को टेप कर लिया करते थे। वे जींस पहनते थे, स्कॉच पीते थे और कारों में चलते थे। वे मंत्रियों के साथ हवाई जहाजों में उड़ते थे और चुनाव के समय छुटभैयों को टिकट दिलाते थे। उनके नाम से नौकरशाही कांपती थी और उनके काम से उद्योगपतियों को कोटे—परमिट मिलते थे। निष्ठा, प्रतिबद्धता और विद्वता को वे उपहास की चीज समझते थे और साहित्य तथा संस्कृति को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लोग इन्हें प्रोफेशनल कहते थे और स्टार मानते थे। जब भी कोई नया अखबार शुरू होता था, तो इन्हीं के पास बड़े—बड़े पदों के लिए प्रस्ताव आते थे। बीसवीं शताब्दी के जाते हुए वर्षों ने इन्हें पहचाना था और हाथ पकड़कर सवर्ण जाति की कतार में खड़ा कर दिया था।
यह कथा इन्हीं दो जातियों के उत्थान और पतन, द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व तथा हर्ष और विषाद का साक्ष्य है। इसे लिख दिया गया है ताकि सनद रहे और भविष्य में काम आये।
दृश्य : एक
वह मैं नहीं हूं, जो मारा गया। पुष्कर जी बार—बार अपने को यही दिलासा देने का प्रयास कर रहे थे पर जो घटा था उनके साथ, वह इतना नंगा और सख्त था कि अपनी उपस्थिति उन्हें शर्म की तरह लग रही थी। दर्शक दीर्घा जैसे तालियों से गूंज रही थी और वह विदूषक की तरह खड़े थे मंच पर—एकदम अकेले और असुरक्षित। दर्शकों का शोर क्रमशः उग्र हो रहा था और जमीन थी कि फट नहीं रही थी, परदा था कि गिर नहीं रहा था। सीधे हाथ की उंगलियों में बुझी बीड़ी लिये वह कुर्सी पर इस तरह बैठे हुए थे मानो किसी मूर्तिकार का शिल्प हों। पूरे दस वर्षों की मेहनत और प्रतिबद्धता एक असंभव लेकिन क्रूर मजाक की तरह उन्हें मुंह चिढ़ा रही थी और दुःस्वप्न था कि शेष ही नहीं हो रहा था। अपने सामने पड़ी मैनेजमेंट की तीन लाइन की चिट्ठी उन्होंने फिर पढ़ी। एकदम साफ लिखा था : ‘आप नये पाठक वर्ग को समझ नहीं पा रहे हैं इसलिए फिल्म के पेज विनय को सौंप दें। नया कार्यभार मिलने तक आप चाहें, तो छुट्टी पर जा सकते हैं।‘
सब कुछ कितना पारदर्शी था! कहीं कोई पेंच नहीं, अस्पष्टता नहीं। मैनेजमेंट ने उनसे उनके वे पेज ही नहीं छीने थे, जो उन्होंने अपने दस वर्षों की मेहनत, ज्ञान, प्रतिभा और सक्रियता से संवारे थे, प्रतिष्ठित किये थे बल्कि उनकी पेशेवर क्षमता और फिल्म माध्यम की समझ को भी नकार और लताड़ दिया था। कहां असफल हुए वे? कौन नहीं समझ पा रहा है पाठक वर्ग को? कौन—सा पाठक वर्ग? अखबार क्या अब मनोरंजक सिनेमा की तर्ज पर निकलेंगे? उनके पन्नों को अब विनय देखेगा, जो सिनेमा की ए बी सी डी भी नहीं जानता, तारकोवस्की और गोदार का नाम सुनकर जिसे गश आ जाता है और मिथुन चक्रवर्ती को जो सर्वश्रेष्ठ हीरो मानता है और श्रीदेवी पर जो फिदा है? गहरे अवसाद की गिरफ्त में थे पुष्कर जी। ‘नया कार्यभार मिलने तक वह चाहें, तो छुट्टी पर जा सकते हैं‘ —क्या मतलब है इसका? पुष्कर जी को सब कुछ साफ समझ आ रहा था, पत्रकारिता की नयी रिजीम में अट नहीं पा रहा है उनका ज्ञान। अखबार में उनकी उपस्थिति को व्यर्थ सिद्ध कर देने की कार्रवाई है यह। फिल्म पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त कर चुके पुष्कर जी का विकल्प है विनय, जो नये पाठक वर्ग को समझता है और हमारे गौरवशाली अतीत को संस्कृति का कूड़ेदान कहकर मुंह बिचकाता है। ठीक है, यही सही। पुष्कर जी ने ठंडी सांस ली और सोचा, हाशिये पर ही सही लेकिन रहेंगे वह तनकर ही।
दृश्य : दो
पुराने संपादक को हटाकर नये संपादक को लाये जाने के क्षोभ से मुक्त भी नहीं हुए थे प्रवीण जी कि अभी—अभी आये सुमन जी के फोन ने उन्हें और उद्विग्न कर दिया। सुमन जी ने सूचित किया था कि उनके अखबार के संपादक को डिमोट कर दिया गया है जिसके विरोधस्वरूप वह इस्तीफा दे गये हैं। कवियों के कवि कहे जाते थे सुमन जी के संपादक। हिंदी को उन्होंने अनेक नये शब्द दिये थे। उनके संपादन में निकल रहा अखबार बौद्धिक संसार की महत्वपूर्ण घटना बना हुआ था। मैनेजमेंट का तर्क था कि स्तर भले ही उठ रहा हो अखबार का, लेकिन सर्कुलेशन गिर रहा है। उनकी जगह 32 वर्ष के जिस युवक को संपादक बनाकर लाया जा रहा था, वह प्रधानमंत्री के एक सलाहकार के भाई का भतीजा था।
यानी पत्रकारिता का पतन शुरू हो गया है। प्रवीण जी ने सोचा। इस पतन पर पूरी तरह चिंतित भी नहीं हो पाये थे वह कि चपरासी ने आकर बताया कि उनके नये संपादक ने उन्हें याद किया है। सहसा वह घबरा गये। उठकर संपादक के केबिन की तरफ चले, तो पाया कि पूरा हॉल उन्हें ही घूर रहा है। अपने सिमटे—सिमटे वजूद को और अधिक सिमटाकर वह धीरे—धीरे चले और केबिन में घुस गये।
सामने संपादक था। लकदक सफारी में ट्रिपल फाइव पीता हुआ। सुना था कि यहां आने से पहले वह किसी दूसरे देश की प्रसारण सेवा में था। सामना होने पर उसे ऐसा ही पाया प्रवीण जी ने। अपने यहां के लोगों की तरह थका—थका और चिंताग्र्रस्त नहीं बल्कि चुस्त—दुरुस्त और आक्रामक। बहुत अशक्त और असुरक्षित—सा महसूस किया प्रवीण जी ने खुद को।
‘आप साहित्य देखते हैं?‘ पूछा संपादक ने। कोई भूमिका नहीं। दुआ—सलाम की कोई औपचारिता नहीं और कुर्सी पर बैठने का आग्रह करने वाली कोई शिष्टता नहीं।
आहत हो गये प्रवीण जी। उन्होंने कुछ इस अंदाज में गर्दन हिलायी मानों साहित्य देखते रहकर वह अब तक एक अक्षम्य अपराध करते आ रहे हों।
‘अगले अंक से साहित्य बंद।‘ संपादक ने कश लिया। ‘आप न्यूज के पन्नों पर शिफ्ट हो जाइए।‘
‘लेकिन...‘ प्रवीण जी की आवाज फंस—सी गयी। वह खुद एक प्रतिष्ठित कथाकार थे और अपने सामने किसी सनकी तानाशाह की तरह बैठे इस नये संपादक को झेल नहीं पा रहे थे। इतने आदेशात्मक स्वर में उनके पूर्व संपादक ने कभी बात नहीं की थी उनसे। लेकिन वह अंतर्मुखी स्वभाव के बेहद संकोची व्यक्ति थे इसलिए बहुत—बहुत चाहने पर भी गुस्से से उखड़ नहीं सके। दबे—दबे शब्दों में रुक—रुककर बोले, ‘लेकिन, हमारी मैगजीन के बहुत प्रेस्टीजियस पेज हैं ये।‘
‘नाओ यू कैन गो।‘ संपादक ने सिगरेट ऐश ट्रे में मसल दी और फोन करने में व्यस्त हो गया।
कई टुकड़ों में कट चुके अपने जिस्म को लिये—दिये किसी तरह केबिन से बाहर निकले प्रवीण जी और अपनी सीट पर जाकर धुआं—धुआं हो गये।
दृश्य : तीन
बहुत दिन जब्त नहीं कर सके सुमन जी। अपने नये संपादक पर ताव आ ही गया उन्हें। आता भी क्यों नहीं? आखिर सहायक संपादक थे। इससे पहले तीन संपादक भुगत चुके थे। एक संपादक के जाने और दूसरे संपादक के आने के अंतराल वाले दिनों में अखबार के कार्यवाहक संपादक कहलाते थे। अपने पूर्व संपादक के जाने का गम भी शेष नहीं हुआ था अभी और उस दौर को वह अपना स्वर्णिम अतीत मानते थे। नये संपादक का आगमन उन्हें वज्रपात—सा लगा था और अखबार के प्रति अपनी रागात्मकता में भी दरार—सी आयी महसूस की थी उन्होंने। नये संपादक द्वारा किये जा रहे क्रांंतिकारी परिवर्तनों का शुरू में उन्होंने प्रतिवाद किया भी किया, लेकिन बाद में यह सोचकर ठंडे पड़ गये कि अखबार कौन उनके बाप का है। वे नौकर हैं और नौकरी करते रहना ही नौकर का अंतिम सच है। कला, साहित्य, संस्कृति के सभी नियमित—अनियमित स्तंभ नये संपादक ने अपने साथ लाये नये लड़कों को सौंप दिये थे। कविता—कहानी छापने पर प्रतिबंध लगा दिया था। सेक्स और ग्लैमर का स्पेस बढ़ा दिया था। धर्म को प्रमुखता से छापा जाने लगा था। सुमन जी किसी दुखद हादसे की तरह सब कुछ बर्दाश्त करते आ रहे थे। उनके अखबार के बारे में जनता की धारणा बदलने लगी थी और उनके हितैषी उन्हें सलाह देने लगे थे कि अब आपको इस अखबार से हट जाना चाहिए। कई बार तो लोग मजाक—मजाक में उनके अखबार को प्रधानमंत्री निवास का मुखपत्र तक कह डालते थे। सुमन जी जानते थे कि यह सब परिवर्तन मैनेजमेंट की शह पर हो रहे हैं क्योंकि मैनेजमेंट में भी अब नये लोग आ गये थे। ये नये लोग अखबार से मुनाफा चाहते थे। इस चाहत से सुमन जी को कोई एतराज नहीं था, लेकिन यह बात उनकी बुद्धि में नहीं अटकती थी कि परिर्वतन की दिशा पतन की ओर जाना क्यों जरूरी है। इन सब तनावों में मुब्तिला रहने के कारण सुमन जी की नींद गायब रहने लगी थी। लेकिन सुकून खोजने वह जाते भी तो कहां? हर पत्रिका, हर अखबार में परिवर्तन की यह तेज आंधी चल रही थी। जिस्म दिखाऊ हीरोइनों की तरह सभी तो अपने ज्यादा—से ज्यादा कपड़े उतारने की होड़ में शरीक थे। लेकिन अब पानी सिर के ऊपर बह रहा था। राम जन्मभूमि—बाबरी मसजिद विवाद के मसले पर अखबार ने साफ तौर पर धर्मांध हिंदुओं का प्रवक्ता बनना शुरू किया, तो सुमन जी बौखला गये। उनकी सोची हुई प्रगतिशीलता ने अंगड़ाई ली और उठ खड़ी हुई।
एक दिन शाम के साढ़े सात—आठ बजे के करीब सुमन जी तीन पैग रम पीकर संपादक के कमरे में घुस गये।
जिस समय सुमन जी संपादक के कमरे में घुसे, वहां ठहाके गूंज रहे थे। अखबार के ही तीन—चार जूनियर पत्रकारों से घिरा संपादक अपनी कोई शौर्य—गाथा बयान कर रहा था और उसके सामने बैठे लोग हैं—हैं, हैं—हैं कर रहे थे।
सुमन जी को यकायक आया देख कमरे में सन्नाटा छा गया। जूनियर पत्रकारों को आग्नेय नेत्रों से ताका सुमन जी ने, लेकिन आश्चर्य कि वे बिना सहमे और बिना विचलित हुए उसी तरह बैठे रहे।
‘आप लोग जरा बाहर जायें।‘ सुमन जी ने ठंडे स्वर में कहा। वह अपने क्रोध को गलत जगह जाया नहीं करना चाहते थे।
‘सब अपने ही लोग हैं सुमन जी,‘ संपादक ने सुमन जी के आदेश पर घड़ों पानी उलट दिया, ‘बताइए—बताइए, व्हाट्स द प्रॉबलम?‘
इस बेधक अपमान से सुमन जी का गिरेबां जैसे चाक हो गया। खुद को सहेजने की बहुत कोशिश की उन्होंने पर माहौल का दंश और नशे की आक्रामकता उन्हें उग्र बिंदुओं तक खींच ही ले गयी। तन्नाकर बोले, ‘सांप्रदायिकता को हवा दे रहे हैं आप! यह मनुष्य—विरोधी हरकत है।‘
‘अच्छा?‘ संपादक की आंखें विस्मय से फट—सी गयीं, ‘और यह जो हिंदुस्तान में रहते हैं, हिंदुस्तान का खाते हैं लेकिन जय पाकिस्तान की बोलते हैं, यह कौन—सी हरकत है।?‘ संपादक बेहद संयत स्वर में पूछ रहा था। ‘इतना ही पाकिस्तान से प्रेम है तो रहें जाकर पाकिस्तान में ही।‘
‘लेकिन...‘ सुमन जी ने प्रतिवाद करना चाहा मगर बीच में ही उनकी बात काटकर वहां बैठे एक पत्रकार ने कहा, ‘बिल्कुल ठीक कहा सर जी ने। हम खुद को हिंदू कहें तो सांप्रदायिक। वे खुद को मुसलमान कहें, तो धर्मनिरपेक्ष। गजब थ्योरी है प्रगतिशीलता की। अजी साहब, आप देखते रहिये, जिस तेजी से इनकी जनसंख्या बढ़़ रही है उसे देखते हुए हिंदू ही एक दिन अल्पसंख्यक कहलायेंगे।‘
‘एक दिन क्यों?‘ संपादक ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, ‘अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर नजर डालो, पता चल जायेगा कि दुनिया में हिंदू ज्यादा हैं या मुसलमान।‘
‘लेकिन हम जागरूक लोग हैं।‘ सुमन जी ने अपना पक्ष रखा।
‘जागरूक हैं तो आत्महत्या कर लें?‘ संपादक ने पूछा तो वहां मौजूद पत्रकार ठहाका लगाकर हंस पड़े। ठहाकों ने सुमन जी को हत्थे से उखाड़ दिया। चीखकर बोले, ‘आप पागल हो गये हैं। जहर उगलने वाले संपादकीय लिखते हैं आप। आप पत्रकार हैं। आप पर भारी दायित्व है। एक बड़े अखबार के संपादक हैं आप। आपको यह अधिकार नहीं है कि धार्मिक जुनून को हथियारबंद करें।‘
‘इट्स लिमिट।‘ संपादक का संयम जवाब दे गया। घंटी बजाते हुए उसने कड़वाहट से पूछा, ‘आप खुद बाहर जायेंगे या...?‘
सुमन जी चुपचाप बाहर निकल गये। उन्हें लग रहा था कि रक्तरंजित खंजर थामे दंगाइयों की भीड़ में वह एकदम निहत्थे और अकेले छोड़ दिये गये हैं।
चार दिन बाद सुमन जी मैनेजमेंट की चिट्टी पढ़ रहे थे। शराब पीकर संपादक से अभद्र व्यवहार करने के दंडस्वरूप उन्हें निलंबित कर दिया गया था।
दृश्य : चार
‘विमल जी, कोई नयी कविता लिखी आपने?‘ श्याम जी ने तीसरे पैग का अंतिम सिप लेकर सिगरेट जलाते हुए पूछा। श्याम जी बहुत दिनों बाद सोवियत रूस से लौटे थे और यह सवाल पूछने से पहले बता रहे थे कि रूसी समाज अपने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का कितना सम्मान करता है।
श्याम जी प्राध्यापक थे। समाजवादी चिंतक थे और कविताएं लिखते थे। वह राजधानी में एक पॉश इलाके में तीन बेडरूम के फ्लैट में सुखपूर्वक रहते थे और देश में हो रहे अनाचार, भ्रष्टाचार और जुल्म की कहानियां पढ़—सुनकर व्यथित रहते थे। हाल ही में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड मिला था जिसेे सेलिब्रेट करने वह प्रेस क्लब में अपने मित्रों के साथ आये थे।
श्यामजी के प्रश्न से विमल जी को मर्मांतक चोट लगी। वह तो जैसे यह भुला ही बैठे थे कि वह कवि हैं। जिस पत्रिका में वह काम करते थे वह राजनीतिक पत्रिका थी और उसमें वह विदेशी मामलों के प्रभारी थे। चीन, जापान, नेपाल, पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका और क्यूबा की राजनीति उन्हें इतनी मोहलत ही कहां देती थी कि वह कविता का खयाल रख पाते। श्याम जी का सवाल सुन चुप्पी साध गये और उस दिन को अपराध की तरह याद करने लगे जब वह अच्छी—खासी बैंक की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आये थे।
‘यह कविता लिखने का समय है?‘ जवाब दिया प्रवीण जी ने। ‘आप प्रोफेसर हैं इसलिए यह बात समझ ही नहीं सकते कि यह कविता—विरोधी, शब्दविरोधी समय है।‘
‘हम अखबारों में नहीं, आत्महत्या केंद्रों में नौकरी कर रहे हैं।‘ एक फीकी और दर्दभरी मुस्कान के साथ बोले पुष्कर जी, ‘हमारा सब पढ़ा—लिखा अब अप्रासंगिक हो चुका है। अपने—अपने अखबारों में हम हाशिये पर फेंक दिये गये लोग हैं।‘
‘अखबारों में ही क्यों? जीवन में भी कहां हैं हम?‘ सुमन जी ने पूछा और रम का सिप लेकर खुद ही जवाब भी दिया, ‘जिस देश में प्रतिभा को देशनिकाला मिल जाये वहां सिर्फ जीते रहने के सिवा कर भी क्या सकते हैं हम? एक डरे और भौंचक आदमी से कविता लिखने की उम्मीद कैसे की जा सकती है भला? जो हालात हैं उनमें जीते रहकर कभी—कभी तो ऐसा भी लगता है श्याम जी, कि जो जीवन हमने जिया वह एकदम ही फिजूल और अतार्किक था।‘
श्याम जी को वातावरण की गंभीरता और गमगीनी का अहसास हो रहा था। एक भारी—सी ‘हूं‘ की उन्होंने और शून्य में ताकने लगे।
‘असल में, सफलता के दरवाजे नहीं खोज पाये हम।‘ पुष्कर जी के स्वर में तिक्तता थी। ‘हम कभी नहीं जान पाये कि हमारा ज्ञान ही हमारा शत्रु है।‘
‘लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं हैै।‘ सहसा विमल जी ने चुप्पी तोड़ी। ‘मुझे भरोसा है कि एक दिन इसी देश के लोग उठेंगे और सब कुछ बदल देंगे।‘
‘एक दिन!‘ एक जोरदार ठहाका लगाया सुमन जी ने और उठ खड़े हुए। लड़खड़ाते स्वर में बोले, ‘एक दिन। हम होंगे कामयाब एक दिन। क्रांतिकारी भी यही गाना गाते हैं और सरकार ने भी इसे अपना लिया है। एक दिन...‘ सुमन जी बोले और सबको भौंचक छोड़ प्रेस क्लब से बाहर निकल गये।
‘क्या बात है, सुमन जी कुछ ज्यादा ही डिप्रेस हैं?‘ श्याम जी ने शराब का एक बड़ा घूंट लिया।
‘यह डिप्रेशन का ही समय है डियर।‘ विमल जी बोले, ‘आओ, अब घर चलें कि अब वही एक जगह बाकी है जहां कुछ—कुछ सुरक्षित हैं हम।‘
श्याम जी ने बिल अदा किया और सभी लोग उठ खड़े हुए। उनके खड़े होते ही कोने की एक मेज से तीन—चार कर्कश ठहाके उछले। इस मेज पर सवर्ण पत्रकारों की टोली बैठी थी।
दृश्य : पांच
पिछड़ी जाति के तकरीबन सभी पत्रकार प्रेस क्लब में इकट्ठे थे। उनके इस भारी जमावड़े से सवर्ण जाति के पत्रकार खासी उलझन और परेशानी में पड़ गये थे क्योंकि प्रेस क्लब में करीब तीन—चौथाई जगह पर पिछड़ी जाति काबिज थी। कोने की मेज पर बैठा एक सवर्ण जाति का पत्रकार इस दखलंदाजी से खासा क्षुब्ध था। डनहिल के पैकेट से सिगरेट निकाल उसने सामने बैठी अपनी महिला पत्रकार मित्र से कहा, ‘इन चिरकुटों की एंट्री पर बैन लगना चाहिए यहां। मूड ऑफ कर देते हैं।‘
‘लीव इट यार।‘ महिला पत्रकार ने जिन का सिप लिया और उपेक्षा से बोली, ‘ये अपनी मौत मरेंगे।‘
पिछड़ी जाति के पत्रकार अपनी सामूहिक खुशी का जश्न मनाने यहां आये थे। दिन—भर वे फोन द्वारा एक—दूसरे को बधाई देते—लेते रहे थे। उपेक्षा और अपमान से स्याह पड़े उनके चहेरे एक ताजे उल्लास से चमक रहे थे। उनका खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया था और उनकी आत्माओं पर छाया अंधकार छंट गया था। इनमें से कोई दस वर्ष से पत्रकारिता मेंं था, कोई चौदह वर्ष से और कोई—कोई तो बीस वर्ष की पत्रकारिता कर युगपुरुष होने की एक तरफ बढ़ रहा था। यहां मौजूद आधे से अधिक लोग कोई न कोई पुरस्कार पा चुके थे। बहुतों की रचनाओं के अनुवाद जापानी, रूसी, अंग्रेजी और चीनी भाषा तक में हो चुके थे। तीन—चार लोगों की कहानियों पर फिल्में बन चुकी थीं और दो—एक लोगों की रचनाएं विदेशों के पाठ्यक्रम में शरीक थीं। इतने भारी स्वीकार के बावजूद अपने घर में वह मुर्गी होकर भी दाल बने हुए थे और पिछड़ी जाति में खड़े होने के अभिशाप को जी रहे थे। उनके साथ ही नहीं उनके बहुत बाद में आये कई पत्रकार इस बीच नये अखबारों में बड़े—बड़े पदों पर चले गये थे। स्कूटरों को छोड़कर मारूतियों में शिफ्ट हो गये थे और नेताओं की जेबों से निकलकर मुख्यमंत्रियों के घरों में पहुंच गये थे। इतने वर्षों में, लेकिन पिछड़ी जाति के पत्रकारों के पास कोई अच्छा ऑफर आना तो दूर, उसकी अफवाह भी नहीं आयी थी। सत्ता, समय और समाज के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े थे वे और अपने स्वजनों को मरता हुआ देख रहे थे लगातार। लेकिन आज उनकी वापसी का दिन था। आज के दिन को अपनी पुनर्प्रप्रिष्ठा की तरह याद रखना था उन्हें, अपनी इसी वापसी का जश्न मनाने वह सवर्ण पत्रकारों के इस क्लब में उपस्थित हुए थे। आज देश के सबसे बड़े उद्योगपति ने अखबार निकालने का ऐलान किया था। इस उद्योगपति का दावा था कि वह देश के बाकी अखबारों को तबाह कर देगा। देश के सभी प्रमुख अखबार और प्रसारण केंद्र इस घोषणा के विज्ञापन से अटे पड़े थे और पत्रकारों के लिए नये अखबार का आगमन खुशी का कारण नहीं था। उनकी खुशी की वजह यह थी कि इस अखबार के प्रधान संपादक के पद पर उन्हीं की जाति के एक साथी को नियुक्त किया गया था। आज के समय में पिछड़ी जाति के एक पत्रकार का इतने बड़े पैमाने पर निकलने जा रहे अखबार में संपादक बनना पूरी अखबार—बिरादरी के लिए एक रहस्यमयी घटना थी। विद्वान लोगों ने तत्काल यह बयान जारी किया कि यह ‘प्रतिभा की वापसी‘ का वर्ष है। इसी महान खुशी को सेलिब्रेट करने पिछड़ी जाति के पत्रकार प्रेस क्लब में एकत्र हुए थे। दिन में वे सब भावी संपादक से मिल चुके थे और बधाई दे चुके थे।
भावी संपादक यह देखकर भाव—विह्वल हो गया था कि उसकी बिरादरी के इतने सारे पत्रकार उसके हाथ मजबूत करने के लिए प्रस्तुत हैं। उसने घोषणा की थी कि प्रतिबद्ध पत्रकारिता का युग फिर शुरू होगा। उसने अपनी जाति के पत्रकारों से एकदम साफ कहा था कि प्रोफेशनलिज्म के नाम पर सनसनीखेज समाचार छापने—लिखने वाले अपढ़ सवर्णों को उनकी औकात बता दी जायेगी। उसने आश्वासन दिया था कि इस अखबार के माध्यम से हम सब अपना होना एक बार फिर सिद्ध करेंगे और सृजनशील पत्रकारिता का गौरव फिर से प्रतिस्थापित करेंगे। उसने कहा था कि विद्वान और अनुभवी लोगों की टीम ही इस पतनशील समय का मुकाबला कर पायेगी। उसने यह भी कहा था कि अब वे सब निश्चिंत रहें क्योंकि उनके सहयोग के बिना तो वह चार कदम भी नहीं चल पायेगा।
संपादक के प्रतिबद्ध और संवेदनशील वचनों को सुनकर पिछड़ी जाति के पत्रकार भावुक हो गये थे और एक बार फिर सृजनशीलता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को महसूस कर वे खुद पर गौरवान्वित हुए थे। प्रेस क्लब में शराब पीते हुए वे इस बात की अटकलें लगा रहे थे कि किसे क्या पद मिलेगा।
शराब का छठा राउंड समाप्त हुआ, तो पुष्कर जी लड़खड़ाते हुए उठे और जोर से चीखे, ‘दिल्ली...‘
‘हम तुझसे बदला लेंगे।‘ उनके बाकी साथियों ने नारा लगाया।
इस नारे से प्रेेस क्लब की दीवारें थर्रा गयीं।
दृश्य : छह
प्रेस क्लब की इस पार्टी के ठीक एक महीने बाद उस देश की राजधानी से एक विचित्र अखबार प्रकाशित हुआ। विचित्र इस मायने में कि यह एक पूरा अखबार था — कई दैनिकों, पाक्षिकों, साप्ताहिकों और मासिकों को अपने में उदरस्थ किये हुए।
बत्तीस पेज के इस दैनिक अखबार में स्कूप भी थे, स्कैंडल भी। धर्म भी था, विज्ञान भी। फैशन भी था, पर्यटन भी। शिकार—कथाएं भी थीं, प्रेत—कथाएं भी। ज्योतिष भी था, कंप्यूटर भी। फैशन भी था, ग्लैमर भी। फिल्में भी थीं, दूरदर्शन भी। रसोई भी थी, बेडरूम भी। इसमें रेखा भी थी और श्रीदेवी भी। इसमें क्रिकेट भी था और शतरंज भी। इसमें सच्ची अपराध—कथाएं भी थीं और बलात्कार करने के तरीके भी। इसमें कानून था और उससे बचने के उपाय भी। इसमें माफिया सरदारों के इंटरव्यू थे और फकीर से तस्कर बने लोगों की शौर्यगाथा भी। इसमें शेयर बाजार भी था और नौकरी पाने के तरीके भी। इसमें संगीत था, कला थी, संस्कृति थी, साहित्य था और सेक्स भी। इसमें आचार्य रजनीश के प्रवचन भी थे और देश के दंगे भी। इसमें प्रधानमत्री निवास भी था और विपक्षी गलियारा भी। यहां बाबरी मस्जिद भी थी और राम जन्मभूमि भी। इसमें देसी राजनीति भी थी और विदेशी मामले भी। इसमें लोग और फोक गायक भी थे और पाश्चात्य गीतकार भी। इसमें ब्रा और पेंटी के उत्तेजक विज्ञापनों से लेकर हेयर रिमूवर और सेक्स क्लीनिकों तक के इश्तहार थे। इसके सोलह पेज रंगीन थे और सोलह काले। इसकी कीमत इतनी कम थी कि पूरा देश अखबार पर टूटकर गिरा। पहले ही दिन से अखबार बाजार में छा गया।
सवर्ण जाति के सभी जाने—माने पत्रकार इसकी संपादकीय टीम में शामिल थे। संपादक के सिवा और कोई ऐसा शख्स इसमें खोजे भी नहीं मिला, जो पिछड़ी जाति से लेश मात्र भी ताल्लुक रखता हो।
अंतिम दृश्य
प्रेस क्लब फिर गुलजार था। तीन—चौथाई से अधिक मेजें फिर से डनहिल और ट्रिपल फाइव के धुएं की जद में थीं और व्हिस्की तथा जिन पानी की तरह बह रही थी। सब खुश थे, किसी का मूड ऑफ नहीं था।
रचनाकाल : संभवतः 1989
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कहानी
यह भी एक प्रेमकहानी
धीरेन्द्र अस्थाना
सोनल लायब्रेरी के सामने बाल्कनी की रेलिंग से टिकी खड़ी थी और कालेज के बीचोंबीच बने मैदान में स्थित ऊंचे मंच पर खड़े होकर भाषण देते जयवर्द्धन को एकटक ताक रही थी। मैं साइकिल स्टैंड के पास खड़ा सोनल और जयवर्द्धन दोनों को देख रहा हूं और जयवर्द्धन की लोकप्रियता से रश्क करता हुआ सोनल की हताशा पर सिर धुन रहा हूं। इसके सिवा मैं कर ही क्या सकता हूं। पारिवारिक जिम्मेदारियों का कसता हुआ शिकंजा मुझे राजनीति में पैर नहीं रखने दे सकता, न ही सोनल जैसी संपन्न लड़की के प्यार को पाने की सनक मैं अपने दिमाग में घुसने दे सकता हूं। मैं जयवर्द्धन नहीं हूं। यह अलग बात है कि मैंने भी जयवर्द्धन होना चाहा था।
मैदान में हजारों छात्र—छात्राओं के बीच घिरे जयवर्द्धन का भाषण जारी है —‘ऐसी शर्मनाक घटना कभी नहीं हुई। हल्द्वानी में छात्राओं के जुलूस पर निर्मम लाठी चार्ज हुआ, उनके कपड़े फाड़ डाले गये, उन्हें टांगों से पकड़कर पी.ए.सी. के ट्रक में फेंक दिया गया। यह सरकारी दमनचक्र की वीभत्स अभिव्यक्ति है, छात्र—छात्राओं के ऊपर बढ़ता हुआ यह दमन...‘
जयवर्द्धन के बायें हाथ की मुट्ठी आममान में तनी है, चुनौती की तरह। चुनौती ही तो है। मैंने हमेशा जयवर्द्धन को इस व्यवस्था के खिलाफ चुनौती की तरह महसूस किया है। मैंने भी जयवर्द्धन की तरह खुद को चुनौती बनाना चाहा था, लेकिन मेरे लिए यह संभव नहीं हो सका। मां की बीमार आंखों में थरथराते छोटे—छोटे सपनों का संसार, पिता के कांपते लड़खड़ाते चेहरे की बदहवास हताशा और छोटे भाई—बहनों की मासूम चाहतें, चिटकता हुआ एक दुखदायी वर्तमान और धुंधलाता हुआ एक बेचैन भविष्य मुझे राजनैतिक सक्रियता से निरपेक्ष कर गया। मेरे लिए जरूरी था कि मैं फर्स्ट डिवीजन में एम.ए. करने के बाद कहीं लेक्चरार लग जाऊं ताकि परिवार की आंखों में फैलता हुआ अंधेरा कम हो जाये। ऐसा नहीं है कि जयवर्द्धन की बात एकदम अलग हो या उस पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ न हो। शायद मुझसे ज्यादा ही दारुण हैं उसकी पारिवारिक स्थितियां। लेकिन इसके बावजूद वह अपने अस्तित्व को व्यवस्था के विरूद्ध आकार देता चला गया। हो सकता है कि मेरे आंखों में उगे हुए सपने ही गलत हों पर इतना तय है कि मैं जयवर्द्धन की तरह के सपने अपनी आंखों में नहीं उगा सका। मुझे लगता रहा कि जयवर्द्धन जैसे सपने न मुझे इधर का छोड़ेगे न उधर का। अपनी कमजोरियों का पता है मुझे और अपने सपनों का भी। मैं इतने बड़े सपने नहीं देख सकता जो वक्त बीतने के साथ आदमी को एक फालतू किस्म की बदहवासी और मोहभंग के सिवा कुछ नहीं दे पाते। जयवर्द्धन के अनुसार उसका सपना वैज्ञानिक सच्चाइयों पर टिका हुआ है इसलिए गलत नहीं है। मैंने जयवर्द्धन की आंखों के इस सपने को पुराने सपने की जगह लेते और क्रमशः विकसित होते देखा है। जयवर्द्धन की कुंठाओं, निराशाओं, संघर्षों और तमन्नाओं का बेचारगी से भरा हुआ निष्क्रिय साक्षी हूं मैं। जयवर्द्धन इन दिनों एक वामपंथी पार्टी का होल टाइमर और पार्टी की छात्र फेडरेशन का जिला अध्यक्ष है और मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि सोनल की आंखों में गलत सपने क्यों पनप आये हैं? शायद सोनल को जयवर्द्धन का मकसद मालूम नहीं है।
एक वामपंथी पार्टी के होल टाइमर का मकसद क्या हो सकता है? सोनल इस सीधी—सी बात को समझ क्यों नहीं पा रही है? मैं जानता हूं कि वक्त बीतने के साथ सोनल को भी एक फालतू किस्म की बदहवासी और मोहभंग के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन मैं कर क्या सकता हूं। मैं सिर्फ परेशान हो सकता हूं और परेशान भी इसलिए कि सोनल और जयवर्द्धन के संबंधों को मैंने नजदीकी से जाना है, समझा है और महसूस किया है। महसूस किया है कि जयवर्द्धन और सोनल के बीच प्रेम नहीं लड़ाई है। हां, इसे मैं ही समझ सकता हूं, सोनल के विचारों को जयवर्द्धन बदल देना चाहता है और जयवर्द्धन के विचारों को सोनल। यह लड़ाई इसी बात की है। मुझे ऐसा ही लगता है। मैं इस लड़ाई में सोनल को पहले से पराजित मानकर चल रहा हूं। हालांकि यह न्याय नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि जयवर्द्धन जब—जब बदला है अपने आप बदला है और भविष्य में भी उसे बदलने वाला कोई दूसरा नहीं वह खुद ही होगा। और आजकल जयवर्द्धन पर क्रांति का जुनून सवार है। और जुनून चाहे जिस भी चीज का हो, यह तय है कि जयवर्द्धन ईमानदारी से ही करता है। मुझे याद है, जयवर्द्धन के नाम सोनल के एक लंबे भावुक पत्र को मैंने पढ़ा था, जिसमें सोनल ने एक जगह लिखा था —‘मैं न तो उस पार्टी से सहमत थी जो देश में सत्तारूढ़ थी, न ही इस पार्टी से सहमत हूं जो सत्तारूढ़ है। मैं तो तुम से सहमत हूं। सिर्फ तुमसे।‘
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे एकाएक लगा कि सोनल को उसके प्रेम का प्रतिदान मिलना ही चाहिए। लेकिन जयवर्द्धन ने सोनल के उस लंबे पत्र के जवाब में एक छोटा—सा वाक्य लिख भेजा था—‘तुम मुझसे सहमत हो, यह खुशी की बात है लेकिन मैं लड़ाई से सहमत हूं, सिर्फ लड़ाई से। सोच लो।‘
तबसे लेकर आज तक मैंने महसूस किया है कि लड़ाई के प्रति जयवर्द्धन की सहमति लगातार मजबूत होती चली गयी है जबकि जयवर्द्धन के प्रति सोनल की सहमति कहीं से दरक रही है। मेरा यह सोचना गलत भी हो सकता है लेकिन लड़ाई के प्रति जयवर्द्धन की सहमति के पुख्ता होते चले जाने और जयवर्द्धन के प्रति सोनल की सहमति के कमजोर पड़ते चले जाने के कारण मुझे जयवर्द्धन और सोनल के अलग—अलग वर्ग चरित्र तथा उनकी जिंदगियों के बीच से ही मिले हैं। मैंने उन कारणों को जानने की कोशिश की थी। सोनल ने नहीं की।
दरअसल, सोनल की जिंदगी, जिंदगी के आसपास की चीजें, चीजों के तात्कालिक सत्य और सत्य के मोहक परिवेश से सोनल के संस्कारों का निर्माण हुआ था जबकि जयवर्द्धन ने जिस दुनिया में आंख खोली वह उसकी नहीं थी। जब जयवर्द्धन उस जिंदगी के गलीज संस्कारों, उपेक्षाओं और घटिया प्रसंगों के बीच बड़ा हुआ तो उसने पाया कि उसकी दुनिया का आदमी अपनी पहचान मांग रहा था। जयवर्द्धन की चेतना का विकास असमान परिस्थितियों और असमाप्त यातनाओं के बीच से हुआ है जबकि सोनल के सामने जिंदा रहने की बात कभी चुनौती बन कर सामने नहीं आयी।
सोनल भी हम लोगों की ही क्लास में है। लेकिन हम तीनों के एक ही क्लास में होने के कारण फर्क हैं। सोनल को हिंदी से एम.ए. कर प्रतिष्ठा अर्जित करनी है। मैं लेक्चरार बनने के लिए एम.ए. कर रहा हूं और जयवर्द्धन को बी.ए. करने के बाद बहुत कोशिशों के बावजूद कहीं नौकरी नहीं मिली तो उसने मजबूरी में एम.ए. ज्वाइन किया ताकि बेकारी का एक तर्क यह ढूंढ़ा जा सके कि अभी वह पढ़ रहा है। और इसी बीच अपने खालीपन को पूरने के लिए वह छात्र राजनीति में पूरी तरह कूद गया। इस राजनीति में वह पहले भी सक्रिय था लेकिन छोटे स्तर पर और तब शायद जयवर्द्धन को भी यह नहीं मालूम था कि यह राजनीति एक दिन उसके लिए पहली जरूरत बनकर सामने आ खड़ी होगी और अब तो वह अपना जीवन इस राजनीति के नाम ही लिख देने की बातें करता है। इसका प्रमाण यही है कि वह शहर की वामपंथी पार्टी का ‘होलटाइमर‘ है और फिलहाल इससे बड़ा कोई उद्देश्य उसे नजर भी नहीं आता।
सोनल ने क्लास रूम में जयवर्द्धन को प्रोफेसर्स के साथ बहस करते देखा, छात्रों के हुजूम में दुरंगी शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ भाषण करते सुना, लायब्रेरी में कामू, काफ्का, सार्त्र, कार्ल मार्क्स, ब्रेख्त और नेरुदा को पढ़ते देखा, पत्र—पत्रिकाओं में उसकी कहानियां और लेख पढ़े और फीस घटाओ आंदोलन के सिलसिले में जेल जाते देखा। बस, सोनल प्रभावित हो गयी। न सिर्फ प्रभावित हो गयी वरन् भावुक भी हो गयी। सोनल ने जयवर्द्धन के चारों और लोकप्रियता का वह प्रभामंडल तो देखा जो हकों और जिंदा रहने की शर्तों के लिए लड़ते वक्त बन जाया करता है लेकिन उस जिंदगी को, उन अमानवीय स्थितियों को और उन विसंगत प्रसंगों को नहीं देख सकी जिनके बीच जयवर्द्धन सांस ले रहा था। इस सारी व्यस्तता के बावजूद, लड़ाई के प्रति इतनी गहरी प्रतिबद्धता के बावजूद रात के सन्नाटे में एक कमजोर बच्चे की तरह अपने मां—बाप और भाइयों के लिए कुछ न कर पाने का अपराध बोध लिए बिलख—बिलख कर रोते जयवर्द्धन को मैंने देखा है। उन कमजोर, भावुक और ईमानदार पलों का अकेला साथी हूं मैं जब युद्ध में डटे इस योद्धा ने मेरे कंधे पर अपना सिर टिकाकर कहा है, ‘यार, कभी—कभी लगता है कि एक तिलिस्मी भूल—भुलैया में फंस गया हूं मैं। एक ऐसी भूलभुलैया में जिसका निर्माण मैंने खुद किया है। ऐसा तो नहीं है कि एक मोर्चे से घबराकर भाग जाने का गिला मुझे इस मोर्चे पर ले आया हो। कभी—कभी लगता है कि मैं एक छलावा जी रहा हूं।‘
सोनल इस योद्धा के इन कमजोर स्थलों को नहीं जानती। मैं जानता हूं। नहीं, सोनल के प्रेम पर कोई आरोप लगाने का मेरा इरादा नहीं है। मैं तो उन सच्चाइयों के बारे में सोच रहा हूं जहां और जिनके बीच प्रेम तो क्या जिंदगी का भी दम घुट जाता है।
सोनल को याद नहीं होगा (मेरा ख्याल है कि जरूरी चाजें अक्सर उसे याद नहीं रहती हैं और छोटी—मोटी बेमतलब की बातों से उसका दिमाग लबालब भरा रहता है) मुझे याद है, जब जयवर्द्धन के चारों ओर देखते हुए सोनल ने कहा था —‘छिः, तुम किन लोगों के बीच कैसी जिंदगी जी रहे हो?‘ तब जयवर्द्धन ने थोड़ा आहत होकर (यकीनन यह आहत होना सोनल की मानसिकता को लेकर था) जवाब दिया था —‘इन तकलीफों के बीच, इन यातनाओं के बीच और इन अपमानजनक समझौतों के बीच जबकि आदमी के हाथ से उसकी जिंदगी का सिरा तक छूट जाने का खतरा पैदा हो जाये, तुम अपना प्रेम सुरक्षित रख सकीं तो यह न सिर्फ प्रेम की उपलब्धि होगी वरन् उस जिंदगी की भी उपलब्धि होगी जो अंततः अपराजेय है और अपने तमाम घटिया प्रसंगों के बावजूद महान् है।‘
मैंने देखा तो नहीं है, लेकिन अनुमान लगाया था कि जब जयवर्द्धन को पूछते और पता लगाते हुए सोनल की कार तीखी बदबू के भपकारे छोड़ती हमारी गटरनुमा बस्ती में घुसी होगी तो सोनल का चेहरा विकृत हो गया होगा और उसे नाक पर रूमाल रख लेना पड़ा होगा। नाक पर रूमाल रख लेने की बात बाद में सच निकली थी।
उस दिन इतवार था। मैं अपने कमरे की छत पर बैठा पढ़ रहा था जब मैंने सोनल की कार को आते देखा। उस वक्त जयवर्द्धन तौलिया लपेटे और अनगिनत छेदों वाली बनियान पहने बस्ती के नल पर कीचड़ भरे पानी के निकट बैठा अपने कपड़े धो रहा था। मैं नीचे उतर आया था और जयवर्द्धन के साथ सोनल की कार तक गया था। मैंने देखा था — सोनल का चेहरा अचरज से फैल गया था और वह जयवर्द्धन के चेहरे को, जयवर्द्धन की बनियान को और समूची बस्ती को हैरत और दुःख से ताक रही थी।
पिता का घर छोड़ने के बाद जयवर्द्धन इसी बस्ती में आ गया था और बीस रुपये महीने वाले एक कमरे में रहने लगा था। उसका तर्क था कि इससे दो लाभ होंगे। एक तो वह मिडिल क्लास वाले सपनों और कुंठाओं से बचा रहेगा दूसरे देश के इस भयावह यथार्थ को अपनी हर सांस के साथ महसूस कर सकेगा और उसे बदलने की चाह हवाई न रह कर ठोस और ईमानदार बनी रहेगी। मेरे पिता शहर की एक कपड़ा मिल में मामूली से क्लर्क थे इसलिए मिल के पास वाली इस बस्ती में रहना उनकी अनिवार्यता और मजबूरी थी। खैर!
जयवर्द्धन ने सोनल को कमरे पर चल कर चाय पीने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन तब तक शायद सोनल के मन में उगे रोमिल पंख टूट—टूट कर गिरने लगे थे और उसके आभिजात्य को यह गवारा नहीं हो पा रहा था कि जिस शख्स के प्यार में वह पागलपन की सीमा तक गिरफ्तार है उसका सच यह है और तब बहुत रोकते—रोकते भी सोनल के मुुंह से निकल ही गया था —‘छिः...‘
मैंने देखा था कि जयवर्द्धन बदहवास हो गया था। उसे शर्म लग रही थी। जयवर्द्धन को शर्म क्यों लग रही थी, यह मैं तो जानता था लेकिन शायद सोनल ने इसका कोई और अर्थ लगाया। इसलिए अगले दिन उसने इस प्रसंग को सैडिस्टिक अंदाज में दोहराया।
जयवर्द्धन सहज भाव से मुस्कराया था और दो टूक अंदाज में बोला था —‘हां, मुझे शर्म लग रही थी लेकिन इसलिए नहीं कि तुम्हारे सामने उस वक्त मैं स्वयं को अपने छोटेपन के बीच घिरा महसूस कर रहा था बल्कि इसलिए कि मेरी बस्ती के वो अनपढ़ और बदहाल लोग जिनका रोज रात को मैं —‘स्टडी सर्किल‘ लेता हूं और जिन्हें क्रांति के गूढ़ सिद्धांतों की कोई जानकारी नहीं है और जिनके लिए ‘दुश्मन‘ शब्द का अर्थ कारवालों या कोठीवालों तक ही सीमित है, मेरे विषय में क्या सोच रहे होंगे? यही न, कि मैं ‘दुश्मन‘ से हंस—हंसकर बातें कर रहा हूं।‘
जयवर्द्धन का जवाब सुनकर सोनल हतप्रभ रह गयी थी और नाराज हो गयी थी। मुझे सोनल की नाराजगी अनुचित लगी थी। अनुचित इसलिए कि सोनल पढ़ी—लिखी थी और ‘दुश्मन‘ शब्द का जो अर्थ सोनल या जयवर्द्धन के लिए था, वही अर्थ भूखे, नंगे, अनपढ़ लोगों के लिए भी हो, यह संभव नहीं था। उन लोगों को जयवर्द्धन उन्हीं की जिंदगी से संबंधित उदाहरण देकर समझाया करता था और ‘दुश्मन‘ शब्द का जो अर्थ बस्ती वालों की समझ में आता था वह अर्थ मिल के मालिक, मैनेजर, गुंडों और सोनल को एक ही कतार में खड़ा करता था। क्योंकि सोनल भी कार रखती थी, उसे भी बस्ती के लोगों की जिंदगी और जिंदगी की सड़ांध को देखकर नाक पर रूमाल रखना पड़ा था और बस्ती के लोग हर उस आदमी से नफरत करते हैं जो उनकी जिंदगी से नफरत करता है।
मुझे सोनल और जयवर्द्धन के संबंधों में जोरदार विरोधाभास नजर आता है। इस विरोधाभास को सानेल क्यों नहीं पकड़ पाती है? क्या वह बेवकूफी की हद तक भावुक है या फौलाद की हद तक दृढ़ निश्चयी? दोनों के क्रमशः प्रगाढ़ (?) होते परिचय को दूसरा बरस चल रहा है लेकिन अभी तक दोनों के विचारों में कोई नजदीकी नहीं आ सकी है। अगर कहीं दोनों जीवन—साथी बन गये तो मुझे परिणाम का पता है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जयवर्द्धन के इस कमजोर हिस्से को मैंने पूरे नंगेपन में देखा है। क्रांति के प्रति अपने जुनून के बावजूद उसके मन का एक अंधेरा हिस्सा हर समय किसी के अथाह प्रेम को पाने की अभिलाषा में आकुल रहता है। प्रेम की उत्कट चाह उसे ले डूबेगी। लेकिन मैं क्या करूं? यह जानते हुए भी कि प्रेम के प्रति जयवर्द्धन के मन में जो अस्पष्ट आकार थरथराता रहता है उसमें सोनल कहीं से भी फिट नहीं बैठती, मैं सोनल के प्रेम पर उंगली नहीं उठा सकता। ऐसा नहीं कि उसका प्रेम केवल भावनाओं का उबाल भर हो। जयवर्द्धन को वह अपनी पूरी निष्ठा से चाहती है, इससे कैसे इंकार कर सकता हूं मैं? लेकिन मैं क्या करूं? क्या कर सकता हूं मैं?
सोनल अभी भी उन्हीं नजरों से, भाषण देते जयवर्द्धन को एकटक ताके जा रही है। जयवर्द्धन की किसी बात पर तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी है। जयवर्द्धन ने हाथ उठाकर छात्रों को शांत रहने का इशारा किया है और फिर बोलने लगा है—‘हम सरकार को चेतावनी देते हैं कि छात्रों के ऊपर बढ़ते हुए दमन को फौरन रोके वरना हमें सड़कों पर आकर फैसला करना पड़ेगा। हम गिरफ्तार छात्रों की अविलंब बिना शर्त रिहाई की मांग करते हैं और...।‘ सुनने वालों की भीड़ अब पहले से ज्यादा हो गयी है तथा और भी तमाम छात्र—छात्राएं मैदान की तरफ बढ़ रहे हैं।
मानना पड़ेगा, जयवर्द्धन की आवाज में जादू है। आदमी सम्मोहित हो जाता है। आखिर जयवर्द्धन का भाषण समाप्त हुआ। तालियों की गड़गड़ाहट से दीवारें हिल उठीं। इन्कलाब जिंदाबाद और छात्र एकता जिंदाबाद के नारे लगाता हुआ जुलूस जयवर्द्धन के पीछे—पीछे चल पड़ा। ‘वन बचाओ आंदोलन‘ के सिलसिले में नैनीताल में गिरफ्तार छात्रों की रिहाई के समर्थन में हलद्वानी में प्रदर्शन कर रहे छात्र—छात्राओं के जुलूस पर हुए लाठी चार्ज व गिरफ्तारियों के विराध में आज चौबीस तारीख को तमाम उत्तराखंड बंद होने जा रहा था। उसी सिलसिले में आज कॉलेज में हड़ताल कर दी गयी थी और अब कॉलेज के छात्रों को जयवर्द्धन के नेतृत्व में कचहरी के आसपास लगी धारा एक सौ चवालिस तोड़कर गिरफ्तारी देनी थी।
सोनल थके कदमों से नीचे उतर रही थी जबकि जयवर्द्धन तेज कदमों से जुलूस को पीछे छोड़कर मेरी तरफ आ रहा था। मैं सतर्क हो गया।
‘सोनल कहां है?‘ उसने आते ही पूछा।
‘वह आ रही है।‘ मैंने पास आती सोनल की तरफ इशारा किया।
‘हैलो!‘ जयवर्द्धन मुस्कराया।
‘हैलो!‘ सोनल भी मुस्करायी, अपने दर्द को भींचकर।
‘दो—तीन रोज के लिए जेल चलना हो तो साथ आओ।‘ जयवर्द्धन ने हंसते हुए कहा जैसे पिकनिक के लिए आमंत्रित कर रहा हो।
सोनल उदास हो गयी। मैं जानता था कि क्यों? कॉलेज के गेट के बाहर भारी तादाद में पुलिस खड़ी थी। जुलूस हमारे निकट पहुंच रहा था कि तभी सोनल ने अचान ही जयवर्द्धन का कंधा पकड़कर पूछा, ‘मुझे कब तक इंतजार करना पड़ेगा?‘
जय मुस्कराया लेकिन मेरे भीतर कोई जोर से चीखा ‘शायद, तमाम उम्र।‘ और मैं एक साथ ही गुस्से और उदासी में घिर गया। पता नहीं किसके खिलाफ गुस्सा था और किसके लिए उदासी।
जयवर्द्धन ने चुपचाप खाली आंखों से सोनल को देखा और तेज कदमों से जुलूस के आगे चला गया। जुलूस, जो हमसे किनारा कर, नारे लगाता हुआ गेट के बाहर निकल रहा था। गेट के बाहर, जहां पुलिस खड़ी थी और अब पूरी मुस्तैदी से जुलूस के अगल—बगल चलने लगी थी, अपनी लाठियों को हिलाती और बंदूकों को परखती।
हम पीछे छूट गये थे। हम यानी मैं कृष्णकांत। जिंदगी और लड़ाई के हाशिए पर छूटा हुआ, युद्धरत जयवर्द्धन का दोस्त और सोनल का हितैषी। और खुद सोनल, संपन्नता के दायरे में पली—बढ़ी भावुक लड़की, जिसकी ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता था। मैं साइकिल स्टैंड के पास बदहवास सा खड़ा था और चाहने के बावजूद सोनल की तरफ देखने से घबरा रहा था।
रचनाकाल संभवतः 1982
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