कहानी
पत्नी
धीरेन्द्र अस्थाना
नहीं, वह नींद में नहीं था।
दरवाजे के बाहर, इक्कीस सीढ़ियां चढ़कर रुका था और घंटी पर उंगली टिका कर दो सैकेंड खड़ा रहा था। फिर सिगरेट जलायी थी कि तभी वह फिर दिखायी दी। वही काली, चिकनी, ठोस बड़ी चट्टान, धीरे—धीरे लुढ़कती, उसकी तरफ एक निश्चित गति से आती हुई। भय से उसकी आंखें फटने को हो आयीं और सिगरेट उंगलियों से फिसल कर जमीन पर गिर पड़ी।
तभी दरवाजे की चिटखनी खुलने की आवाज हुई और उसने चाहा कि जिसने भी दरवाजा खोला हो वह उसे अपने आगोश में ले ले और उसे भयावह चट्टान से बचा ले। पर, दरवाजे के पल्ले नहीं खुले। सिर्फ चिटखनी खुली थी। जमीन पर पड़ी सिगरेट उठाने के लिए झुकते हुए दरवाजे की झिर्रीं में से झांक कर उसने देखा——गीता चिटखनी खोलकर वापस जा रही थी कमरे में। उसका मन किया, वह सीढ़ियां उतर जाये। घड़ी देखी——दस बजकर अट्ठावन मिनट सत्ताइस सैकेंड हुए थे। जेब देखी—तीन रुपए पैंतालिस पैसे शेष थे। यानी साढ़े—दस की लास्ट बस छूटे हुए काफी समय हो गया था और स्कूटर का बिल उसकी जेब पर भारी था। यानी अपने घर में घुसने के सिवा वह कहीं नहीं जा सकता था। उसने सिगरेट जला ली और खड़ा रहा। अचानक पेट में तेज ऐंठन—सी महसूस हुई।
नहीं, यह मरोड़ या पेचिस की ऐंठन नहीं, भूख की थी। भूख के नाम पर उसे याद आया कि दिन—भर में सत्रह—अट्ठारह कप चाय के सिवा उसके पेट में कुछ नहीं गया है।
उसने अंततः दरवाजे को धक्का दिया और सिगरेट को सीढ़ियों पर ही फेंक दिया। फिर वह भीतर घुसा। बारामदा पार करके कमरे के सामने आया। परदे के बाहर ठिठका, फिर परदा हटाकर कमरे में प्रवेश कर गया।
गीता सो रही थी। नहीं, फिर सो गयी थी। एक, पूरे एक मिनट वह सोयी हुई गीता के चेहरे पर अपनी खाली—खाली—सी नजरों को टिकाये रहा, फिर धीरे से चलता हुआ अपनी मेज पर आ गया। थैले को मेज पर रख वह कुरसी पर बैठ गया और जूते—मोजे उतारने लगा। फिर चश्मा उतारकर उसने मेज पर रखा और कमीज की जेब से सिगरेट की डिब्बी और माचिस निकालकर मेज पर रख दी। फिर वह कमीज उतारने लगा। फिर उसने पैंट उतारी और पायजामा पहना। फिर उसने चप्पलें ढूंढी और फिर वह बास मारते पैरों को धोने के लिए गुसलखाने की ओर चला। यह सब इतना धीरे—धीरे हो रहा था कि अगर यह स्लो—मोशन किसी हिंदी फिल्म का होता तो हॉल में सीटियां बजने लगतीं। पर यहां कमरे के पूरे सन्नाटे में सिर्फ गीता की नाक बज रही थी।
पांव धोने के बाद वह आया तो उसने तौलिया तलाशा, जो नहीं मिला। फिर उसने अलमारी खोली, पर खाना भी नहीं मिला। खाना होता तो शायद वह नहीं खाता। उसकी भूख कसैली हो गयी थी। लेकिन खाना दिखायी नहीं दिया तो उसे जोरों से भूख लगने लगी। वह फिर कुरसी पर आ बैठा। फिर उठा और एक गिलास पानी पीकर वापस कुरसी पर आ बैठा और सिगरेट जलाने लगा। पहले तो पानी ने और फिर सिगरेट के धुएं ने उसके खाली पेट को चीर—सा दिया। उसका चेहरा विकृत हुआ और वह सिगरेट तथा लाइट बुझाकर अपनी खाट पर आ गया।
उसने एक से सौ नहीं, बल्कि तीन सौ तक गिनती गिनी और तीन सौ से चलकर वापस एक पर लौट आया — निर्विध्न। नींद नहीं आयी। सहसा उसकी सारी निरपेक्षता कांच की तरह बिखरने लगी और एक जहरीला तनाव उसकी रग—रग में उतरने लगा। वह झटके से उठा, उसने लाइट जलायी और गीता के सिर के बाल पकड़ कर उसे उठाकर बिठा दिया।
‘तुम इतनी शांति से नहीं सो सकती,‘ उसने चीखकर कहा और बाल छोड़ दिये।
‘क्योंकि तुम जाग रहे हो।‘ गीता ने ठंडी आवाज में आवाज दिया।
उसका सारा आक्रोश पिघल गया। वापस कुरसी की पुश्त से सिर टिकाकर बैठ गया और आंखें बंद कर लीं। उसने खट की आवाज सुनी और आंखें खोलीं—अंधेरा था।
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सहसा ही घबराकर उसने आंखें खोल दीं। चट्टान अब नहीं थी। वह चट्टान के नीचे आने से बाल—बाल बचा था। उसने पाया कि उसकी घड़ी के रेडियम—मढ़े अंक अंधेरे में चमक रहे थे और सांसें असामान्य रूप से तेज थी। घड़ी में ठीक दो बजे थे। वह कुरसी से उठा और लाइट जला दी। गीता लिहाफ को मुंह तक ढके सो रही थी। उसने पाया कि उसे भूख के साथ—साथ ठंड भी लग रही है। पहले उसने सोचा कि वह भी गीता के लिहाफ में घुस जाये और उसे प्यार करता हुआ उसकी गरमाहट का सुख लेता हुआ सो जाये। फिर उसे ध्यान आया कि गीता की बगल में तो आशू सो रहा होगा। काफी देर तक वह समझ नहीं पाया कि उसे अपने ठंडे बिस्तर में घुसना चाहिए, या आशू को गीता के पास उठाकर ठंडे बिस्तर पर सुला देना चाहिए, या उन्हीं दोनों के साथ उसी बिस्तर में घुस जाना चाहिए। अंततः तीसरे निर्णय को मानवीय मान उसने लाइट बंद की और गीता के बिस्तर में घुस गया। तुरंत ही उसे उठना पड़ा और लाइट जलानी पड़ी। उसने झटके से पूरा लिहाफ गीता के ऊपर से उठा दिया। नहीं! आशू सचमुच नहीं था। लिहाफ उठ जाने से ठंड के आकस्मिक आक्रमण के कारण गीता कुनमुनाने लगी थी। उसने गीता को जगाकर बिठा दिया। गीता अधखुली और मिचमिची आंखों से उसे घूरने लगी।
‘आशू कहां है?‘
‘अब ध्यान आया है?‘ गीता का जवाब था।
‘पर वह है कहां?‘ वह झल्ला पड़ा।
‘तुम इतनी देर से क्यों आये?‘
‘यार, अजीब पागल औरत है। मैं पूछ रहा हूं, आशू कहां है?‘
‘और मैं पूछ रही हूं, तुम इतनी देर से क्यों आये?‘
‘मुझे दफतर में ओवरटाइम करना पड़ा,‘ उसने कहा, ‘वैसे भी मेरे देर से आने का आशू के साथ कोई संबंध नहीं है।‘
‘साढ़े पांच बजे के बाद तुम दफतर में नहीं थे।‘
‘था।‘
‘नहीं थे।‘
‘कल फोन कर के पूछ लेना।‘
‘मैं पौने छह बजे दफतर गयी थी।‘
‘क्या?‘ वह लगभग चीख—सा पड़ा।
‘हां।‘ गीता ने शांत उत्तर दिया।
‘तो नौबत यहां तक पहुंच गयी है!‘ उसने शब्दों में कड़वाहट लाते हुए पूछा, ‘तुम मेरी जासूसी करती फिर रही हो!‘
‘अपने पति के दफतर जाना जासूसी है?‘
‘जासूसी नहीं, दुस्साहस है। आखिर मेरी नहीं, तो अपनी ही ‘प्रेस्टिज‘ का खयाल किया होता। दफतर वाले क्या सोच रहे होंगे?‘
‘दफतर वाले सोच नहीं, कह रहे थे कि तुम अकसर ही किसी बाल कटी लड़की के साथ शाम को चले जाते हो।‘
‘बकते हैं। लोगों को दूसरों के घरों में आग लगाने का शौक होता है।‘
‘तुम नहीं जाते हो?‘
‘सुनो, तुम बात मत बढ़ाओ। आशू कहां है?‘
‘उसे अम्मा ले गयीं अपने साथ।‘
‘अम्मा?‘
‘हां, वो सुबह आयी थीं बंबई से। आज ही वापस भी चली गयीं।‘
‘क्यों?‘
‘मुझे नहीं पता।‘
‘तुमने जरूर कुछ कहा होगा।‘
‘कुछ नहीं कहा मैंने। इस घर की दीवारें और एक—एक चीज बताती है कि यहां क्या कुछ हो रहा है।‘
‘आशू को भेजने के लिए मुझे बताना जरूरी नहीं था?‘
‘मैं तुम्हें बताने के लिए ही तुम्हारे दफतर गयी थी। अम्मा भी साथ थीं। वहीं से वो आशू को अपने साथ ले गयीं। वैसे भी आशू के साथ तुम्हारा रिश्ता क्या है?‘
‘मुझे अब रिश्ते की व्याख्या करनी पड़ेगी?‘
‘तुम कर नहीं सकते। खाना—कपड़ा दे देने से रिश्ता नहीं बन जाता।‘
‘ओह, शटअप!‘ उसने चीखकर कहा और अपने ठंडे बिस्तर पर जाकर लेट गया। गीता कुछ देर से देखती रही, फिर स्विच—बोर्ड की तरफ बढ़ गयी। लाइट बंद करने से पहले उसने देखा, वह अपने सीधे हाथ की सबसे छोटी उंगली से अपनी बायीं आंख से निकला एक आंसू गाल पर से उठा रहा था।
‘हुंह!‘ उसने गदरन झटकी और लाइट बंद कर दी।
ऐसा क्यों होता है? आदमी अकेलेपन से बचने के लिए प्रेम करता है, घर बसाता है, कल्पनाएं खड़ी करता है और पाता है कि प्रेम के बाद वह और ज्यादा अकेला हो गया है। जो नहीं था वह मिल नहीं सका है और जो था वह भी नहीं रहा है।
और यह भारी, काली, चिकनी चट्टान क्या है? क्यों लगता है जैसे कोई आसमानी बला हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ी है और जब तक मुझे अपना शिकार नहीं बना लेगी तब तक उसका पीछा करना जारी रहेगा? किस बात का प्रतीक है यह चट्टान? सोते में, जागते में, सड़क पर, दफतर में, बिस्तर पर और बस में लुढ़क—लुढ़ककर मेरी तरफ आती है हुई यह चट्टान किसी अभिशप्त प्रेत की तरह क्यों मंडरा रही है?
और आखिरकार गलत कौन है, इसका फैसला कैसे होगा? अगर मुझे लगता है कि मेरी अपेक्षाएं ही अनुचित हैं तो मैं सुखी हो सकता था, पर मुझे ऐसा नहीं लगता। अगर मुझे लगता कि गीता की अपेक्षाएं गलत हैं तो भी मैं सुखी रह सकता हूं, पर मुझे ऐसा भी नहीं लगता। अब सवाल यह है कि अगर गीता की अपेक्षाएं भी उचित हैं और मेरी अपेक्षाएं भी सही हैं तो गलती कहां है? अगर हम दोनों ही सही हैं तो समझौता कैसे होगा? उसका आरोप है कि मैं घर समय पर नहीं लौटता। इतवार को भी दोस्तों या कार्यक्रमों की भेंट चढ़ा देता हूं। आरोप अपनी जगह सही हो सकता है, पर अगर वह यह देखे कि मेरी जिंदगी का एक—एक क्षण कितना व्यस्त है तो... पर वह इस तरह के तर्कों को सुनते ही स्वयं को घर के सामान में रिड्यूस कर लेती है। अगर वह सोच सके कि ‘घर‘ आदकी की ‘बेसिक वीकनेस‘ है और इस बुनियादी चाह से भी मैं दूर भाग रहा हूं तो इसका सीधा मतलब है कि यह ‘घर‘ वैसा नहीं रहा जैसा ‘घर‘ को होना चाहिए। गीता के अनुसार यदि मैं घर को सराय समझता हूं तो इसकी थोड़ी सी भी जिम्मेदारी उस मालकिन पर नहीं जाती जिसने ‘घर‘ के सराय में तब्दील हो जाने की वजहें पैदा की हैं।
ऐसा क्यों हुआ कि सारी दुनिया की छाती पर मंूंग दलते हुए शादी कर लेने वाले दो प्रेमी एक—दूसरे की छाती पर मूंग दलने के लिए आमने—सामने आ डटे हैं, एक—दूसरे के बिना जिंदा न रह पाने की समझ वाले लोगों को ए—दूसरे के साथ रहना दूभर हो उठा है, एक—दूसरे पर अपने अथाह प्रेम की बौछार करने वाला जोड़ा एक—दूसरे पर अपनी नफरत उंडेल रहा है? ऐसा क्यों हुआ कि एक का सच दूसरे का झूठ बन गया, एक की लड़ाई दूसरे का तमाशा बन गयी? साथ चलते—चलते भी विश्वास कहां छूटकर गिरे, आस्थाएं कहां गिरकर मरीं, जीवन कहां बेमानी हुआ? सगे—सबंधियों की भरी—पूरी दुनिया को दुश्मन बनाकर जो घर बनाया, वह घर दुश्मन के तहखाने में कैसे बदल गया?
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‘पांच, छह, सात और ये आठ। इस बार आठ सौ रुपये ही हैं। दो सौ रुपये उधार रहे... महीने के बीच में देखूंगा यदि इंतजाम हो सका कहीं से।‘ उसने गीता को सैलरी पकड़ाते हुए कहा, ‘इनमें से जेब—खर्च के लिए फिलहाल सौ रुपये मुझे भी चाहिए।‘
‘तुम सारे ही पैसे खुद रखो।‘ गीता ने ठंडा जवाब दिया, ‘आठ सौ हैं या हजार, तुम जानो। तुम्हारा घर है।‘
उसे गुस्सा नहीं आया, दुख हुआ। गीता ने इस बार यह भी नहीं पूछा था कि सैलरी ग्यारह सौ सत्तावन रुपये हैं तो बाकी पैसों का क्या हिसाब है?
‘यह भी नहीं पूछोगी कि बाकी पैसे क्या हुए?‘
‘उस बालकटी पर फूंक दिये होंगे,‘ गीता ने चिढ़कर जवाब दे दिया।
‘गीता, मेरे पेशे से जुड़ी चीजों पर तो शक न करो। वह लड़की ड्रामा—क्रिटिक है, अपने कॉलम के लिए लिखाने के सिलसिले में कभी—कभी मिलना पड़ता है उससे। दूसरी बात,‘ उसने तनाव को हलका करते हुए मजाक में कहा, ‘वह मिस नहीं, मिसेज जोशी हैं। अपना कोई चांस नहीं है वहां।‘
‘शादीशुदा औरतें ज्यादा फ्लर्ट होती हैं।‘
‘लैंग्वेज प्लीज, गीता! मिसेज जोशी शहर की एक सिर्फ बेहद जीनियस वरन सम्मानित महिला हैं।‘
‘अच्छा, ये पैसे तो लो।‘
‘नहीं।‘
‘गीता, प्लीज झगड़ा न करो। चलो, शॉपिंग के लिए चलते हैं।‘
‘कोई मूड नहीं है। फिर तुम्हारे साथ बाहर जाने से अच्छा है घर में ही रहा जाये। लोगों की भीड़ के बीच मनहूस चेहरे को लेकर घूमने से ज्यादा है भीतर बंद रहना।‘
‘तुम्हारी इच्छा। भाड़ में जाओ!‘ उसने गुस्से से कहा और पैसों को वापस कोट की जेब में डाल बाहर निकल गया।
घर से बाहर निकल उसने घड़ी देखी। शाम के सात बज गये थे और सड़कों पर अंधेरा उतरने लगा था। सहसा उसे ध्यान आया कि क्यों न एक चक्कर मेडिकल इंस्टीट्यूट का लगा लिया जाये! करीब दस दिन से हरीश निगम वहां एडमिट है और वह अब तक उसे देखने नहीं जा सका है। मेन रोड पर पहुंचकर उसने देखा, मेडिकल जाने वाली 512 नंबर की डीलक्स खड़ी हैं वह लपक कर बस में चढ़ा, एक रुपये का टिकट लिया और एक आरामदेह—सी सीट पर बैठ आंखें बंद कर लीं।
हरीश निगम। पेशे से एकाउंट क्लर्क, रुचियों से कवि। वह अकसर कहा करता था, ‘यह विरोधाभास ही मेरे जीने की शक्ति है। बिना चुनौती मे मेरा जीना संभव नहीं है।‘ एक वीतरागी मुद्रा वाला कमजोर चेहरा उसकी बंद आंखों में तैरने—उतरने लगा। बीमारी भी हुई तो क्या? ब्रेन ट्यूमर।
और चट्—चट करता, नसों को तोड़ता—सा एक असहनीय दर्द उसके सिर में मचलने लगा — यक—ब—यक। फिर वही काली, लुढ़कती हुई चिकनी चट्टान और उसने घबराकर आंखें खोल दी। कंडक्टर उसका कंधा थपथपाकर उसे जगा रहा था। इंस्टीट्यूट पहुंचकर बस खाली हो गयी थी। वह झेंपता—सा उठ खड़ा हुआ।
नीचे उतरकर उसे ध्यान आया कि मरीजों से मिलने का समय तो 4से6 तक का है। अब? उसने सोचा और ‘जहां न पहुंचे कवि वहां पहुंच पत्रकार की अपनी बनायी मंत्र—सिद्धि को दोहराते हुए कई तरह के चोर रास्तों से निकलता हुआ चौकीदारों को आठ आने, रुपया पकड़ाता हुआ अंततः वह थर्ड फ्लोर के कमरा नंबर 34 में बैड नंबर तेरह के सामने था और हरीश से हाथ मिला रहा था।
हरीश के कमजोर चेहरे पर एक सूखी मुसकान उतर आयी थी और वह हरीश को बता रहा था कि ‘एक रिपोर्ट के सिलसिले में वह शहर से बाहर था। कल रात को लौटा है, तभी पता चला।‘
‘कैसे हुआ?‘ वह पूछ रहा था और हरीश बता रहा था, ‘कुछ नहीं यार, हम लोगों की जान को टैनशंस क्या कम लगे रहते हैं? दिमाग में फोड़ा नहीं बनेगा तो क्या होगा?‘
‘वैसे एक बात कहूं,‘ हरीश ने उसका हाथ दबाते हुए कहा, ‘मैं बचूंगा नहीं, मुझे पता चल गया है।‘
‘पागल हो गये हो!‘ वह बौखला गया।
‘नहीं, सच कह रहा हूं और इसका कारण भी बहुत ठोस है।‘
‘क्या?‘ उसने हरीश की तरफ झुकते हुए पूछा। उसे भय—सा सताने लगा था जैसे हरीश कोई ऐसा रहस्य बताने जा रहा हो जिसके उद्घाटन से न सिर्फ हरीश का वरन उसका खुद का भी मरना निश्चित हो उठता हो।
‘मरना—जीना इच्छा—शक्ति और सपनों पर डिपेंड करता है,‘ हरीश ने अपनी आंखों को मींचते हुए कहा, फिर झटके से आंखें खोलकर इधर—उधर देखा और आहिस्ता से बोला, ‘इस दुनिया में जीने का या जीते चले जाने का कोई अर्थ है? एक बेहद मजबूत ‘बोरडम‘ मेरे भीतर लगातार बड़ी होती जा रही है...कोई इच्छा या किसी तरह की ललक भीतर उपस्थित नहीं है। इसीलिए कहता हूं कि मेरा बचना संभव नहीं है। एक होती है न सिक्स्थ सेंस... यह सिक्स्थ सें कहती है, बेटे हरीशचंद्र निगम बुलावा आ गया है।‘ हरीश ने अंतिम वाक्य काफी मजे लेकर बुना और आंखें तथा होठ बंद कर लिये।
वह अचानक अकेला हो गया। एकदम अकेला और भयाक्रांत। उसने कमरे में नजर दौड़ायी — कुछ मरीज अपनी पीडित आंखों से मानो कराहते हुए बोल रहे थे — ‘बुलावा आ गया, बुलावा आ गया।‘
नहीं, उसने गरदन झटक इस बेहूदी कल्पना को दूर किया और तेजी से कमरे से बाहर निकल गया। तेज—तेज चलता हुआ वह सीढ़ियों से नीचे उतरा और इंस्टीट्यूट से बाहर आ सिगरेट जलाने लगा।
‘मरना या जीना सपनों पर डिपैंड करता है।‘ उसने हरीश द्वारा बोले वाक्य को दोहराया और एक हाथ पैंट की जेब में डाल पैदल ही घर की ओर चलने लगा। पैदल चलते—चलते जब वह थक गया तो उसने एक स्कूटर रोका और उसमें बैठकर आंखें बंद कर लीं।
घर की सीढ़ियां चढ़ते हुए उसने सोचा कि अगर गीता ने यह सोचना शुरू कर दिया कि उसके पास जीने के लिए एक भी बहाना या सपना नहीं बचा है तो आशू का क्या होगा, खुद उसका क्या होगा? अपना खयाल करने पर उसने पाया कि वह कितना कमजोर है! गीता की अनुपस्थिति की कल्पना तक से लड़खड़ा उठा है। असल में एक अरसे बाद पत्नी आदमी की आदत में शुमार हो जाती है।
घर में घुसा तो गीता खाना बना रही थी। उसे देखते ही बोली, ‘सुनो, तुम गर्म—गर्म खाना खा लो। कितने लंबे समय बाद तुम खाना बनने के वक्त घर में हो! खाओ न, मुझे अच्छा लगेगा।‘
उसने गीता की तरफ देखा और अनायास ही उसकी रुलाई—सी फूट पड़ने को हुई। वह घुटनों के बल जमीन पर बैठा और गीता के गले से लिपट बेआवाज रोने लगा।
रचनाकाल : संभवतः 1982
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