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मेरी बेटी-मेरी परछाई

मेरी बेटी-मेरी परछाई

नारी- कई रूप हैं, बेटी, बहन, पत्नी, बहु, माँ, भाभी, मौसी, बुआ ...। हर रूप में हमेशा ज़िम्मेदार, भरपूर शक्ति, सहनशक्ति, दुआ, आस, हिम्मत, ताकत, ममता का प्रदर्शन करते हुए अपनी जीवन लीला बिना किसी शिकवा शिकायत के बसर करती है । कुछ नही मांगती... बस देती ही है । उसको चाहिए सिर्फ और सिर्फ निश्चल प्रेम और सम्मान जो वो हमेशा से औरों को देती आई है । क्या वो स्वयं इसकी हकदार नहीं ?

मैं औरत हूँ,मैं जननी हूँ..
कोमल हूँ पर कमज़ोर नहीं..,
मैं बहन भी हूँ और बेटी भी...
कोई दाग नहीं कोई बोझ नहीं..!!

कभी मीरा बन ज़हर का प्याला पिया..
कभी सीता बन अग्नि परीक्षा दी..,
कभी बनी अहिल्या पत्थर की..
वीरांगना बन देश की रक्षा की..!!

कभी त्याग तपस्या की मूरत हूँ..
कभी प्रेम ममता की सूरत हूँ..,
जब छेड़े कोई अंतरात्मा को..
तो चंडी काली की मूरत हूँ..!!

बहुत सहा अब बहुत हुआ..
अब और न ज़रा सहन करुँगी..,
बन कर काली बन कर ज्वाला..
दुष्टों का मैं सर्वनाश करुँगी..!!

मत ललकारो एक जननी को..
मत ललकारो एक औरत को..,
माँ बेटी बहन और बहु बनकर..
अब और न तुम मुझको परखो..!!

परिवार में बेटी के जन्म पर ख़ुशी का माहौल है । बड़ी मन्नतों के बाद सुहाना की बेटी हुई है ।परिवार में दो कुल में कोई बेटी नही हुई थी और अब इस तरह बेटी के जन्म पर खुशियाँ मनाई जा रही थी । सुहाना की ख़ुशी का कोई ठिकाना नही था । मन ही मन पूरे नौ महीने यही प्रार्थना करती थी कि माता रानी एक बेटी दे दो । पर सब उसकी आस ये कह कर तोड़ देते थे कि दो कुल से परिवार में किसी बेटी ने जन्म नही लिया तो अबकी बार भी बेटा ही होगा । वह अचानक से निराश हो उठती थी । पर उसकी ख़ुशी की कोई सीमा नही थी जब पहली बार उसने अपनी बेटी को अपने हाथों में लिया । गुलाब के फूल सी, ओस में डूबी हुई, मासूम सी, छुईमुई सी... सुहाना की आँखों से प्रेम और ख़ुशी बरसने लगी थी । उसे देख उसे अपने हाथों में लेकर मन ही मन खुद से वादा कर रही थी कि जो कुछ मैंने सहा अपनी बेटी को नही सहने दूंगी ।

ऐसा नहीं था कि सुहाना का जीवन दुःख में बीता था । पर हाँ बेटी होने के नाते उसका जीवन बेड़ियों में जकड़ा हुआ था । कदम कदम पर उसको अहसास करवाया जाता था कि तुम बेटी हो... लड़की हो... ऐसा नही कर सकती तुम... वैसा नहीं कर सकती तुम । भाई को अच्छे स्कूल में पढ़ने दो ... वो एक लड़का है पढ़ लिख कर कुछ बन जायेगा । तुझे तो घर ही देखना है.. क्या करेगी दूर अच्छे स्कूल में जाकर । यहीं सरकारी स्कूल में ही पढ़ ले जितना पढ़ना है । पढ़ने पर कोई रोक थोड़े न है । क्या कहती ...मान गई । मन लगाकर पढ़ती थी और हमेशा टॉप करती थी... क्लास में, हर काम में अव्वल.. चाहे खेल हो या पढ़ाई । चाहे कोई टीचर हो या दोस्त सबकी मदद करने में आगे । ज़िन्दगी को खुल कर जीने की चाह थी पर उसकी उड़ान कागज़ के पन्नों तक ही सीमित थी । अपने शब्दों में अपने जज़्बातों को जीकर खुश हो जाती थी ।

जन्मदिन आया उसका ... बड़ा चाव था कि अपना जन्मदिन सभी दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ मनाये जैसे भाई का मनाते हैं । पर माँ ने यह कहकर समझाया कि बेटियों का जन्मदिन नही मनाया जाता । मन मारकर रह गई बस । वक़्त बीत गया । समय आया जब स्कूल की पढ़ाई खत्म हुई । समय था कॉलेज जाने का । अब... ? माँ पिताजी ने समझाया ... ज़माना बडा खराब है ... कहीं बुरी हवा लग गई तो । बेटी तुम पर तो भरोसा है पर दुनिया पर नहीं । कई सवाल उठते थे मन में...। किससे जवाब मांगे ? जो होंठ खुलते तो माँ की घूरती नज़रें और पापा की डाँट का डर वहीँ उसे मन मारने पर मजबूर कर देता । जैसे तैसे पढ़ने की आज्ञा मिली थी पर पढ़ाई खुद घर से ही करनी थी । चलो हाँ तो हुई ।सोच कर जल्दी से फॉर्म भरा और एडमिशन ले लिया । और पढ़ना शुरू । पर पूरा दिन घर की दीवारों से कितनी बातें करती ? कितनी उड़ान भरती अपनी डायरी के पन्नों में । सोचा क्यों न कहीं कोई जॉब कर ले । फिर समझाया गया कि हमारे परिवार की लड़कियां नौकरी नहीं किया करती । अगर फिर भी तुझे करना है तो किसी स्कूल में कर ले ।सोचा यही सही । पर हर बार किस्मत साथ नही देती न । रह गयी पीछे फिर से पूरी जी जान लगाने के बाद भी । पर हार नहीं मानी । कहीं न कही कुछ न कुछ तो करना ही है । बड़ी मुश्किल से मनाया घर वालों को । मान गए । ऐसा लगा की पंछी को थोड़ी देर उड़ने के लिए आसमाँ मिल गया शायद । इसी में जी लेगी अपने ख्वाब । पर साथ में पूरी हिदायतें भी दी गई । ऐसे चलना... ऐसे बैठना ... ऐसे कपडे पहनना ... किसी से फालतू बात नही करना..वगैरह वगैरह । सारी बातें चुपचाप से मानती थी क्योंकि कुछ देर के लिए खुला आसमान जो मिल रहा था उड़ने को । पर चंचल मन था ... कभी कहीं खो भी जाता था । हिम्मत की कमी न थी । खुद को संभालना जानती थी ।जल्द ही अपनी एक जगह बना ली थी पूरे स्टाफ में । दिन ब दिन तरक्की भी की ।

माँ और पापा के लिए गर्व की बात थी कि जिसे आगे बढ़ने से रोकते थे वो बंद पिंजरे में ही अपनी एक पहचान बना रही थी । पर उसमे एक कमी भी थी- भावुकता । भावनाओं में बह जाती थी जल्दी ही । और बस गुस्से में फिर अपना ही नुक्सान कर लेना । और वही हुआ । भावनाएं खुद पर हावी हुई और गुस्से में नौकरी छोड़ आई । सबने समझाया भी पर आत्मसम्मान पर चोट लगी थी कैसे सहन कर लेती । सब सह लेती पर आत्मसम्मान पर वार बर्दाश्त नही कर पाई। पर अब क्या..? फिर वही पिंजरा ...। वही घुटन...। वही बैचैनी और अपने जज़्बातों के साथ अकेली वो ।

वक़्त गुज़रने लगा । घर में कैद क्या कहे... क्या करे...? कोई जवाब नहीं । अचानक घर में शादी की बात चलने लगी... समय भी सही था , इनकार की कोई वजह भी न थी । पढ़ाई पूरी हो चुकी थी । दिल फिर से ख्वाब बुनने लगा । जैसे शाख पर नई कोंपलें निकल आई हों, छोटी छोटी सी, हरी हरी सी,...एक हलकी सी सिहरन दौड़ जाती तन बदन में ... लगता शायद पिंजरे से निकलने का वक़्त आ गया है । अपना खुद का आसमान जो मिलने वाला था ।बचपन से सुनती आई थी... जब बड़ी हो जाओगी तब अपने घर जाओगी... तब जो जी में आये वो करना ...। लगता था जैसे वक़्त आ गया । "अपना घर"? कौन सा होता है आखिर लड़की के लिए एक अपना घर ? ये सवाल बड़ा मुश्किल था । पर जो भी बचपन से सुना उसे ही सच समझा । कितने सपने होते हैं एक लड़की के कोरे मन में ...? उन सपनों पर या यूँ कहा जाए आँखों पर एक लगाम सी लगी थी कि कौन सा सपना देखना है और कौन सा नहीं । कभी नही देखा वो सपना जो एक लड़की के मन में हमेशा से होता है ।

कोई एक अजनबी...अचानक से... सभी अहसासों, जज़्बातों, ख्यालों, जंज़ीरों को तोड़ता , चीरता हुआ दिल को दस्तक दिए बिना अंदर...बहुत अंदर गहराईओं तक छू जाएगा बिना सोचे बिना समझे बिना कुछ जाने उस अजनबी से इश्क़ हो जायेगा । यूँ तो दिन रात सुहाना इश्क़ में जीती थी । एक अनदेखा अनछुआ ख्याल हर पल उसके ज़हन में रहता था । जिसे 'इश्क़' कहते हैं ।

दिन रात बस इश्क़ ही गुनगुनाती थी । अपने ही ख्यालों की दुनिया में । क्योंकि असल ज़िन्दगी में तो रोक थी न प्यार करने की । तभी तो रोक लिया था खुद को उस पल जब दिल चल पडा था उसकी ओर...। इश्क़ होने लगा था उससे... पर पांव में पड़ी हुई जंजीरों ने दिल को भी जकड रखा था और चाहते हुए भी अपने इश्क़ को बता न पाई । उसका हाल कुछ ऐसा ही था ।

हर गली और कूचे से दामन बचा कर निकले थे...
न जाने इश्क़ को कहाँ से मेरा पता मिल गया ...!!

मार लिया अपने दिल को अपने ही दिल में । खत्म कर दिया वो फ़साना जो शुरू ही नही हुआ था और खबर भी न होने दी किसी को कि इश्क़ हुआ था कभी । बहुत कुछ टूटा था उस एक पल में उसके अंदर । जिसे धीरे धीरे कर समेट कर फिर तैयार किया खुद को नई ज़िंदगी शुरू करने के लिए । सोचा शायद यही है वो जिसकी तलाश में इश्क को जी रही थी अपने ही अंदर । वो चेहरा जब सामने आया तो लगा यही तो है वो जिसकी खातिर इश्क़ को जी रही थी । कमाल की ही थी ये सुहाना। हर हाल में ज़िन्दगी ढून्ढ ही लेती थी । अब इसी में इश्क़ नज़र आने लगा था उसको ।

'समर' वो नाम जिसके साथ ज़िन्दगी जुड़ने जा रही थी । उसी के साथ अब सारे सपने सच करने थे । उसी को इश्क़, प्यार, इबादत सब कुछ सौंपना था ।सपनो के साथ सपने जुड़ते जा रहे थे ।जैसे सुबह सुबह कली को इंतज़ार हो ओस की उस बूँद का जिसके पड़ने से उसमे निखार आ जाएगा।
न जाने कैसा इश्क़ है..
जो दिल ही दिल में पलता है.!
तुम हो पास के न हो..
तुम्हारे ही लिए मचलता है.!
तुम्हे सोचता, तुम्हे देखता..
तुम्हे गुनगुनाता है..!
बस तुम ही तुम हो सब जगह..
एक यही बात समझता है..!!

इसी तरह बीते दिन सगाई और शादी के बीच के ।लगा जैसे सारे सपने सच हो गए । और आ गयी ससुराल अपने पिया के घर । छोड़ आई माँ, पापा और भाई को रोते हुए तनहा । छूट गया माँ का आँचल, पापा का आँगन, भाई का लाड मनुहार । छोटी सी मासूम सी सुहाना पर आ पड़ा था ज़िम्मेदारियों का बोझ ।पर खुश थी इस नई ज़िन्दगी में । समर का प्यार, देखभाल, ज़रुरत से ज़्यादा ख्याल... सुहाना को मानो वो सब कुछ मिल गया था जिसकी उसे चाह थी । दो ही महीने बीते थे एक दिन अचानक घर पर हुई किसी बात पर अचानक समर को गुस्सा आ गया । गाली गलौच.. मार पीट और न जाने क्या क्या । समर का ये रूप देख कर सुहाना का तो जैसे सपनों का जहाँ किसी कांच के महल की तरह टूट कर बिखर गया । उसने कभी सपने में भी नही सोचा होगा कि उसका पढ़ा लिखा सफल संपन्न होना एक पल में कहाँ गायब हो जायेगा । ये नज़ारा तो उसने ज़िन्दगी में न कभी देखा था और न ही कभी सोचा था ।

कमरे में लेटी हुई एक माह का गर्भ संभाले एक टक छत को निहार रही थी और सोचे जा रही थी कि क्या मैंने अपनी ज़िन्दगी के लिए सही फैसला लिया है? वक़्त टिक टिक की आवाज़ के साथ बढ़ता जा रहा था ।और सुहाना चीखती हुई ख़ामोशी में अपने सवालों के जवाब सुनने की कोशिश कर रही थी । धीरे धीरे वक़्त बीतता रहा और समर का रूप सामने आता रहा । और सुहाना के सपने चूर चूर होते रहे । हर कोई अब सुहाना से फिर वही उम्मीद लगाये हुए था कि सुहाना भी परिवार की परम्परा निभाएगी और बेटे को ही जन्म देगी ।परिवार की इस उम्मीद से सुहाना अक्सर डर जाया करती थी ।अगर बेटी पैदा हो गई तो...? क्या होगा तब...? परिवार में उसका सम्मान ही दाव पर लगा हुआ था । पल पल यही सोचते हुए बीतता था कि कुछ महीनों बाद क्या होगा। क्या इतनी ही कहानी है एक औरत की...? सिर्फ दूसरों की ख़ुशी से ही उसका वजूद है ...? कब तक वो दूसरों की ख़ुशी में ही अपना वजूद ढूंढती रहेगी ...? पर यही ज़िन्दगी थी सुहाना की ।सब सपने, सब ख्वाहिशें, सब उम्मीदें जैसे मर गयी थी उसकी । शादी के कुछ ही सालों में सुहाना ने खुद को पूरी तरह खो दिया था ।बस ज़िन्दगी को सिर्फ जीने के लिए जीती जा रही थी ।

अपने कांधों पर अपनी ही..
लाश का बोझ उठाये हुए.,
कब्र बनती जा रही हूँ मैं..
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!

सब उम्मीदें सब ख्वाहिशें..
खो गयी या दफना दी थीं.,
उनकी याद में अब तक..
दिए जलाये जा रही हूँ मैं.,
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!

न आस है किसी से अब..
न प्यास है कोई बाक़ी.,
साँसों की रवानगी को बस..
महसूस किये जा रही हूँ मैं.,
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!

न दोस्त न प्यार न साथी कोई..
हर राह मेरी लिए हो कर भी .,
उस राह की न मंज़िल कोई..
फिर भी चले जा रही हूँ मैं.,
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!

पत्थर का इक बेजान बुत..
टकरा टकरा कर बिखर गया.,
उन टुकड़ों को समेटे हुए अब..
सबसे मौन लिए जा रही हूँ मैं.,
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!
ए ज़िन्दगी! तुझे जिए जा रही हूँ मैं..!!

धीरे धीरे वक़्त बीत गया और उसके हाथों में वो नन्ही सी जान साँसों को महसूस करने लगी । हाथों में उसका अपना अंश था जिसने धरती पर आते ही सुहाना के वजूद को पूरा कर दिया था । बेटी से पत्नी, बहु और अब माँ...। अपने बेटे को हाथों में लेकर आँखों से ख़ुशी बहाने लगी थी ।शायद अब उसके वजूद को कोई इज़्ज़त मिल जायेगी । वक़्त बीतता गया और वो अपने बेटे में ही अपनी सारी खुशियाँ ढून्ढ लेती थी । समर से किसी तरह की कोई उम्मीद नही थी । उसका साथ होना सिर्फ नाम के लिए था ।सब कुछ सुहाना को खुद ही संभालना पड़ता था ।हाँ पर वक़्त वक़्त पर समर की डाँट, ताने, गालियाँ, और कभी कभी हाथ उठाना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था ।परिवार का साथ मिलता था सुहाना को पर आत्मसम्मान पर पड़ने वाली चोट के ज़ख्मों को अब खुद ही मरहम लगाना पड़ता था वो भी अपने आंसुओं से । घर की बहुत याद आती थी पर वहां जाना संभव नही हो पाता था । और जब मौका मिलता था वहां जाने का तब सारा गम अपनी हंसी में इस कदर छिपा लेती थी कि माँ पापा और भाई न जान पाएं उसका दर्द ।क्योंकि उनकी नज़रों में तो उनका दामाद हीरा था न ।

बेटा बड़ा हो गया था । माँ का सहारा बनने लगा था । और सुहाना के लिए भी सिर्फ यही एक ख़ुशी थी जो उसकी ज़िन्दगी थी । समय आ गया था जब सुहाना पर दूसरे बच्चे के लिए दबाव डाला जा रहा था । वह मन से तैयार न थी पर परिवार की ज़िद के आगे उसे झुकना ही पड़ा था । कई बार ख्याल आता था मन में.... अगर आज आत्मनिर्भर होती तो शायद अपने आत्मसम्मान का गला न घोटना पड़ता । पर वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नही थी निर्भर थी अपने पति की आमदनी पर । अपने परिवार पर । कोई और रास्ता भी नही था उसके पास और न ही कोई साधन । उस पर से अब दूसरे बच्चे की मांग और फिर से बेटे की उम्मीद । पर अब सुहाना को बेटा नही चाहिए था बेटी चाहिए थी ।पर घर में अभी भी सब बेटे की उम्मीद लगाये हुए थे ।न चाहते हुए भी सुहाना ने परिवार की बात मान ली । एक बार फिर अपने आप से समझौता किया । और वो दिन आ गया जब फिर से एक नन्ही सी जान इन हाथों में सांस लेने वाली थी । अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी सुहाना दर्द से कराह रही थी । इतनी पीड़ा कि हर दर्द के साथ उसकी जान शरीर से निकलने को आतुर होती थी ।

आखिरकार कुछ देर बाद वो नन्ही सी जान सुहाना के हाथों में थी पर वो नही जान पा रही थी कि बेटा है या बेटी । दर्द अभी भी हो रहा था । असहनीय दर्द । पर जानना चाहती थी कि उसकी मन्नत पूरी हुई या नही । जैसे ही उसने डॉक्टर से पूछा तो डॉक्टर सुहाना से उसके पहले बच्चे के बारे में पूछने लगी । सुहाना ने डॉक्टर को अपने बेटे के बारे में बताया ।तभी डॉक्टर ने उसे एक प्यारी सी बेटी की माँ बनने की खुशखबरी दी । सुहाना बार बार डॉक्टर से पूछ रही थी "डॉक्टर आप सच बोल रहे हो न" डॉक्टर बार बार उसे हाँ कहती और तसल्ली देती की बेटी ही है । सुहाना को अपनी किस्मत पर विश्वास नही हो रहा था । उसकी आँखें ख़ुशी से बहती ही जा रही थी ।

वो अपना सारा दर्द भूल चुकी थी और बस अपनी बेटी को देखना चाहती थी । कुछ ही देर में डॉक्टर ने उस नन्ही सी जान को सुहाना के हाथों में रख दिया । इतनी प्यारी, इतनी कोमल, जैसे कमल के पत्तों पर ओस की बूँद पड़ी हो, जैसे बारिश में काले बादल के छटने के बाद इंद्रधनुष दिखा हो, जैसे रात के अँधेरे को चीरती हुई भोर की नई किरण दिखी हो...और न जाने ऐसे कितने ही ख्याल कितने ही जज़्बात आँखों से बहे जा रहे थे । और सुहाना खुद से एक वादा किये जा रही थी कि जो ज़िन्दगी मैंने बितायी डर डर के वो मेरी बेटी नही बितायेगी । उसके साथ उसकी ढाल बन कर उसकी हिम्मत बनूँगी । वो अपने आत्मसम्मान का गला नही घोटेगी । वो स्वावलंबी बनेगी । वो आत्मनिर्भर बनेगी । अपनी उड़ान खुद उड़ेगी ।अपने रास्ते अपनी मंज़िलें खुद तय करेगी । और इसके लिए सुहाना कदम कदम पर उसका साथ देगी उसकी ताकत बनेगी चाहे उसके लिए उसे सारी दुनिया से ही क्यों न लड़ना पड़े .....

अपनी बेटी को बढ़ते हुए देखती थी और पल पल बस यही सोच रहती थी उसके मन में.....

छोटी सी एक चिरैया, जब मेरे आँगन चहकती है..
उसकी मीठी मीठी बतियों से, मेरी बगिया महकती है..!

मेरे अंधियारे जीवन में, तू चांदनी बन क़र आई है..
तेरे मासूम से चेहरे पर, फूलों सी मुसकान छायी है..!

तेरे होटों की खिलखिलाती हंसी, मेरे सारे गम पी जाती है..!
तुझे देख के खुद से लड़ने की, इक शक्ति सी आ जाती है..!

सोच के इक पल बात कभी, मैं जो थरथरा जाती हूँ..
फिर देख के तेरे होंसले को, मैं गर्व से भर जाती हूँ..!

इस समाज ने बेटी को, जीने का न क्यूँ हक़ साथ दिया..
क्या तुझको मैंने जीवन देकर, कहीं कोई अपराध किया..!

न हारी हूँ न हारूँगी, तुझ संग मैं खड़ी निरंतर हूँ..
तू जीवन अपना खुल कर जी, मैं पूरा करती अंतर हूँ..!

इंद्रधनुष के रंगों सा, जीवन तेरा मैं सवारूँगी..
तू बन मिसाल आगे बढ़ना, मैं सब कुछ तुझ पर वारूँगी..!

तूझमें अपना जीवन देखूँ, इसलिए मेरे घर तू आई है..
आगे बढ़ना तू मत डरना, आखिर तू मेरी परछाई है...!!


मधु छाबड़ा ‘महक’

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