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दहेज़ प्रथा

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दहेज़ प्रथा

दहेज़ एक ऐसा नाम जो बेटी के पैदा होते ही माता पिता के ज़हन में ऐसा बस जाता है जैसे रगों में दौड़ता खून और खून में बसी ऑक्सीजन। जब जब बेटी का चेहरा देखते हैं... 'दहेज़' शब्द आँखों के आगे नाचने लगता है। बेटी का प्यार क्या होता है...'दहेज़' शब्द के सामने नज़रअंदाज़ होने लग जाता है। बेटी के पैदा होने की ख़ुशी 'दहेज़' शब्द जैसे छीन लेता है। जैसे तैसे माता पिता दहेज़ समेट लेते हैं। ख़ुशी दौड़ जाती है आखों में कि अब इतना दहेज़ समेट लिया है कि बेटी को विदा कर पाएंगे और वो अपना जीवन ख़ुशी से बिता पायेगी।

वहीँ दूसरी तरफ बेटी अपने माता पिता को तिल तिल बचत करते देखती है अपनी खुशियों, अपनी ज़रूरतों से समझोता करते देखती है सिर्फ बेटी के ब्याह के लिए रख लेते हैं, यह कहते हुए देखती है तो कहीं न कहीं शायद उसे अपने होने पर ही अफ़सोस होने लगता है।

फिर आता है वो एक दिन जब पिता दहेज़ समेटने लायक खुद को समझने लगता है और बेटी के लिए एक सुयोग्य वर तलाशता है ।बेटी की सगाई तय हो जाती है । खूब धूम-धाम से लोग जश्न में आते हैं । सभी की नज़रें चारों तरफ बस यही देखती हैं कि पिता ने कितना पैसा खर्च किया होगा ? कितनी सुंदर सजावट है ? क्या क्या दिया लड़के वालों को? रस्में चल रही हैं... सब लोग व्यस्त हैं देखने में कि कितना सोना मिला, कितना नकद मिला ? रिश्तेदारों को क्या दिया? लड़कीवालों ने खातिरदारी कैसी की? पर कोई एक भी शख्स नहीं होता जो पढ़ सके उस लड़की की नज़रों को जो बार बार अपने चारों तरफ की शान-ओ-शौकत और लेन देन की रस्मों को देखकर सिर्फ ये सोचती है कि पता नहीं पापा ने कितने पैसे खर्च कर दिए होंगे? इतना सब करने की क्या ज़रुरत थी? थोडा कम कर लेते। कितना क़र्ज़ उठा लिया ये सब करने में । वहीँ दूसरी और कोई भी शख्स नहीं देखता उन माता पिता की नज़रों को जो हर पल घबराई हुई सी नज़रों से हर एक मेहमान के चेहरे पर ख़ुशी देखना चाहती हैं कि जो भी किया सब लोग खुश और satisfied तो हैं न । जाते जाते जब कोई ये कह जाता है कि "आपने बहुत अच्छा इंतज़ाम किया है" या " आपने कितना कुछ दे दिया" तो माता पिता एक सुकून की साँस लेते हैं कि चलो अब उनकी बेटी खुश तो रहेगी उस घर में ।

ये दहेज़ प्रथा समाज को दो तरह से कुरेदती है । एक तरफ जहाँ दहेज़ के कारण एक लड़की को दुनिया के सामने झुक कर रहना पड़ता है वहीँ कम दहेज़ लाने या दहेज़ न ला पाने के कारण ससुराल की प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ता है । आये दिन समाचार पत्रों में दहेज़ के कारण स्त्री का परित्याग, ज़िंदा जलाना, ख़ुदकुशी .... आदि जैसी घटनाएं पढ़ने को मिलती हैं जो दहेज़ जैसी बुरी प्रथा के कारण हुई हैं ।

वहीँ दूसरी तरफ ये प्रथा कहीं न कहीं लड़के वालों पर भी भारी पड़ जाती है । जब लड़की में किसी प्रकार का कोई दोष है तो माता पिता खूब सारा दहेज़ देकर उसे छुपाने की कोशिश करते हैं । दुनिया वाले ये कहकर कि लड़की वालों ने तो लड़के वालों का घर ही भर दिया, दोनों पक्षों वर पक्ष और वधु पक्ष को खुश कर देते हैं । और बाद में शुरू होता है लड़की का अपने ससुराल के प्रति दुर्व्यवहार । खूब सारा दहेज़ लाने का हर समय ससुराल पर रौब दिखाया जाता है । हर किसी को अपने हिसाब से चलने के लिए मजबूर किया जाता है । समाज में खुद को श्रेष्ठ और ससुराल को हीन दर्शाया जाता है । धमकियां भी दी जाती हैं कि अगर मेरी बात पूरी नहीं हुई .... तो दहेज़ मांगने और बहु पर अत्याचार करने का आरोप लगा कर पुलिस में complaint कर दूंगी । बेचारे लड़के वाले पुलिस के डर से सबकुछ सहन करते जाते हैं । कोसते हैं उस दिन को जब इतना दहेज़ पाने के लालच में इस लड़की से रिश्ता जोड़ा था । पर अब क्या अब तो फंस चुके हैं ज़िन्दगी भर की ये सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी ।

तो इस तरह दहेज़ समाज को दोनो तरह से प्रताड़ित कर रहा है । ये प्रथा जहाँ कुछ धार्मिक लोगों ने कन्यादान के साथ दिए जाने वाले दान के रूप में समाज में फैलाई वहीँ एक बोझ डाल दिया कन्यापक्ष पर कि अगर बेटी को खाली हाथ विदा किया तो ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा । बेचारा बेटी का पिता जैसे तैसे करके कुछ न कुछ जोड़ता ही है कि बेटी को खाली हाथ विदा न करे और धर्म के नाम पर होने वाले पाप से खुद को बचा सके ।

क्या बेटी पैदा करके माँ बाप कोई गुनाह करते हैं? शायद इसी डर से बेटी को जन्म ही नहीं लेने दिया जाता । पर बेटी कोई बोझ नहीं ।

क्यों पूछा जाता है बेटी से कि ब्याह करके आई है तो साथ में क्या क्या लाई है? टी.वी. कौन सा है? फ्रिज और वाशिंग मशीन कौन सी है? कौन सी कंपनी का है?फुल्ली है या आटोमेटिक मायक्रोवेव और ए.सी. है या नहीं? अगर है तो कौन सा है? फर्नीचर कितना महँगा है? गाडी लाई है या नहीं? और लाई है तो कौन सी कंपनी की है । रिश्तेदारों के लिए क्या क्या तोहफे लाई है? वगैरह वगैरह....। पर एक भी शख्स उसकी आँखों को नहीं पढ़ पाता है जो भीगी हुई हैं और सबसे एक ही बात कह रही हैं कि "मत पूछो क्या क्या लायी हूँ"... बस एक बार इतना पूछो कि क्या क्या छोड़ कर आई हूँ । माँ का लाड़ छोड़ कर आई हूँ, पिता की दोस्ती और प्यार छोड़ कर आई हूँ, भाई बहनों संग लड़ना झगड़ना और खूब मस्ती भरे दिन छोड़ कर आई हूँ, सखियों संग खेले हुए खेल खिलौने छोड़ कर आई हूँ, अपना कमरा, अपना बिस्तर, अपनी सारी चीज़ें जो किसी को छूने नहीं देती थी वो सब कुछ छोड़ कर आई हूँ । ये चीज़ें जो आप सब देख पा रहे हैं आपको कभी भी कहीं भी मिल जायेंगीं , पर जो चीज़ें मैं छोड़ कर आई हूँ वो मुझे इस घर में मिलेंगी क्या? कोई नहीं पढ़ पाता ये सारी बातें उन भीगी आँखों में, कोई नहीं कहता कि बेटी मैं तेरी माँ बनूँगी, मैं तेरा पिता बनूँगा, मैं तुझे भाई का प्यार दूंगा बहन का प्यार दूंगी....क्यों? सिर्फ इसलिए शायद कि वो किसी पराये घर से आई है । इसलिए उसे वो जगह नही मिलती जिसकी वो हक़दार है ।

उस लड़की के भी तो कुछ ख्वाब हैं, वो क्यों नहीं दिखते? उसके अरमान हैं, वो कुछ उम्मीदें साथ लाई है वो क्यों नहीं दिखती? वो अपने सारे फ़र्ज़ सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाती है वो क्यों नहीं दिखती? दिखता है तो बस उसके साथ आया हुआ दहेज़....।

आज हर बेटी इतनी लायक और सक्षम है कि अपने ब्याह का पूरा खर्च खुद उठा सके । अपना दहेज़ खुद बना सके । अपने घर और गृहस्थी के साथ साथ आजीविका भी अर्जित कर सके । फिर भी बहु लाते समय सबकी नज़र सिर्फ और सिर्फ दहेज़ पर ही होती है क्यों? वर पक्ष इस तरह अपने बेटे को कन्या पक्ष के सामने पेश करते हैं जैसे अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर लायक बना कर उन्होंने खुद पर नहीं अपने बेटे पर भी नहीं बल्कि कन्या पक्ष पर कोई अहसान किया हो । हमारा पढ़ा लिखा और सभ्य समाज इस बिमारी से सबसे ज़्यादा पीड़ित है । दिखावे के नाम पर ऊँचे से ऊँचा दहेज़ लेना और देना अपनी शान समझा जाता है । और ये शान उनकी समाज में reputation decide करने में बड़ी मदद करती है । लोग जितने पढ़े लिखे सलीकेदार और सभ्य बनते जा रहे है उतना ही बड़ा दहेज़ लेना और देना उनके रीति रिवाजों में शामिल होता जा रहा है । जिसका खामियाज़ा उन लोगों को भुगतना पड़ता है जो हैसियत न होते हुए भी मजबूर होते हैं रस्मों के नाम पर ऊँचा दहेज़ देने के लिए ।

क्यों इस प्रथा का अभी तक अंत नहीं हो पाया है ? क्या कारण हैं ? यदि इस बारे में सोचा जाए तो कई कारन सामने आ सकते हैं ।जैसे लड़कियों को शुरू से ही कमज़ोर व आश्रित रखना । सही शिक्षा का न दिया जाना । आवाज़ उठाने पर अपनी मान मर्यादा और इज़्ज़त का हवाला देना । वहीँ दूसरी और लड़कों को बलवान होने का पाठ पढना , खुद को समाज में सर्वोपरि समझना और समाज के बनाये गए पुराने और खोखले रीति रिवाजों को न तोड़ने की समाज द्वारा दी गयी एक छोटी सोच जो शुरू से ही लड़कों के मस्तिष्क में उपजा दी जाती है । पुरुष और नारी में फैला हुआ एक अंतर जो ख़त्म होते हुए भी कहीं न कहीं अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है ।समाज में फैली इस बीमारी का इलाज करने कौन आएगा? नहीं, कोई फरिश्ता नहीं आएगा । इसका इलाज तो अब खुद बेटी को ही लाना होगा । न दहेज़ देंगे न दहेज़ लोभियों के साथ कोई रिश्ता जोड़ेंगे । हर बेटी को ऐसा प्रण करना होगा । साथ ही हर बेटे को भी भागीदारी देनी होगी और प्रण लेना होगा कि पति बनकर सारी ज़िम्मेदारी स्वयं उठाएगा या दोनों मिलकर उठाएंगे । दहेज़ न लेकर समाज में ये मिसाल कायम करनी होगी । बेटा या बेटी पति या पत्नी बनकर अपनी आवश्यकता का सभी सामान मिलकर जुटाने में सक्षम हैं तो दहेज़ किसलिए? अगर सभी बेटे ऐसी सोच रखने लगे तो संभव है किसी घर में कन्या भ्रूण हत्या न हो । हर घर में बेटी के जनम पर भी उतनी ही खुशियाँ मनाई जाए जितनी बेटे के जन्म पर मनाई जाती हैं । और हर बेटी खुशी ख़ुशी बिना डरे बहु बनकर ज़िम्मेदारी उठाने और निभाने में कारगर हो । रिश्तों में मधुरता बढ़े और एक स्वस्थ मस्तिष्क परिपूर्ण समाज का निर्माण हो सके । इस लेख का अंत बस अपनी इस कविता से करूँगी....

क्यूँ जला दिया उसे दहेज़ की होली में..,

बैठ कर वो आई थी ख्वाबों की डोली में..!

क्यूँ पूछा उससे साथ क्या क्या लायी हो..,

क्यूँ न पूछा उससे क्या छोड़ कर आई हो..!

कितना रोई कितना चीखी कितना चिल्लाई होगी..,

अपनी जान बचाने को कितना गिडगिडायी होगी..!

क्या बीती होगी माँ पर जिनकी बेटी तुमने जलायी होगी..,

रो रो कर उस बाप ने इन्साफ की गुहार लगायी होगी..!

क्या जानोगे दर्द उस भाई का जिसने अपनी राखी गंवाई होगी..,

क्यों उन सबने घर तुम्हारे अपनी बेटी ब्याही होगी..!

क्यों न काँपा ह्रदय तुम्हारा कहाँ गयी इंसानियत..,

दौलत के भूखे लालचियों क्यों छाई तुम पर हैवानियत..!

क्यूँ मानव मानव का ही दुश्मन अक्सर बन जाता है..,

प्यार, स्नेह, रिश्ता, अपनापन जाने कहाँ चला जाता है..!

रोक दो अब ये अमानवता रोक दो अब इस होली को..,

जीने दो माँ की लाड़ली को भर दो प्यार से झोली को..!!

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मधु छाबड़ा ‘महक’

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