Patan bodh dhirendraasthana द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Patan bodh

कहानी

पतन बोध

धीरेन्द्र अस्थाना

छिपकली एकदम निष्प्राण—सी थी। पर उसकी आंखें एकदम चौकन्नी थीं और पूरा शरीर एक सतर्क तनाव में ऐंठा—ऐंठा सा था, मानो इसी मुद्रा में अचानक उसकी हृदय—गति रुक गयी हो। फिर वह बिजली की—सी गति से झपटी और दूसरे ही क्षण पतंगा उसके मुंह के भीतर था।

यह है जीवन? वह हंसा और गंभीर हो गया। तभी ट्‌यूब—लाइट की ओर उठी उसकी नजर फिसली और वह सामने देखने लगा, जहां दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे अभी—अभी कोई छुपा था।

कौन? वह बिस्तर पर पड़े—पड़े उठंगा हो गया। उधर से कोई आवाज न आने पर उसने यूं ही घड़ी पर नजर डाली — आठ बजने को थे। वह उठा। दरवाजे तक गया। परदा उठाया। परदे के पार सूना बरामदा था। कोई आहट तक नहीं, बरामदे के अन्त में बना दरवाजा बन्द था। उसके अन्दर एक नामालूम—सा भय पैदा होने को हुआ। कोई था तो जरूर, कोई आकृति अचानक परदे की ओट में गयी थी। पर कौन? और जब दरवाजा बंद है तो कोई भी कैसे और कहां से आ सकता था? तो फिर?

भ्रम—उसने सोचा और पुनः बिस्तर पर आ गया। सविता की ट्रेन इस वक्त कहां होगी? शायद आगरा कैंट पर खड़ी होगी। यह भी संभव है कि आगरा क्रॉस कर लिया हो। बिना रिजर्वेशन के जाना पड़ा उसे। साथ में दो बच्चे। कैसे कटेगा उसका रास्ता? दिल्ली से बंबई तक का लम्बा रास्ता। सरदियों के दिनों में दो बच्चों और एक भारी अटैची के साथ बिना किसी निश्चित सीट या बर्थ के। सविता को इस तरह जाने देकर उसने अमानवीय कार्य तो नहीं कर दिया कहीं, उसने सोचा और बेचैनी में बिस्तर से उठकर चहलकदमी करने लगा। वह क्या करता? उसने अपने बेचैन मन को दिलासा देने के लिए एक तर्क को उठाकर खड़ा किया। वह क्या करता? वह दफ्तर में था। ‘कम सून, फादर सीरियस‘ का हाबड़तोड़ संदेश लेकर दोपहर एक बजे तार घर पहुंचा और तीन बजे सविता का स्कूटर एक अटैची और दो बच्चों के साथ उसके दफ्तर के बाहर रुका। उसने सविता को कहा नहीं था क्या कि ‘जैसे तुम्हारे फादर वैसे ही बल्कि उससे भी ज्यादा वो मेरे फादर हैं, आज रिजर्वेशन की कोशिश करते हैं और छुट्‌टी की एप्लीकेशन देते हैं। दो—तीन रोज में ज्यादा गड़बड़ी नहीं होगी, कि वह तुरंत तो किसी भी कीमत पर नहीं चल सकता। जब तक उसकी सीट पर उसका विकल्प आकर नहीं बैठ जाता वह दफ्तर से अनुपस्थित नहीं हो सकता, कि वह विदाउट पे लीव तो ले सकता है, लेकिन इस तरह अचानक चले जाने से यह पक्की होने जा रही नौकरी पक्की होने के बजाय छूट भी सकती है, कि पैसों का बंदोबस्त भी तो करना होगा।‘ पर सविता ने एक भी कहां सुनी थी? उसे हर तर्क बेहूदा लगता रहा और अंततः वह अकेली ही चली गयी। यह कहकर कि ‘तुम आओ, मैं चलती हूं।‘

और वह कुछ नहीं कर सका, सिवा इसके कि सविता को ठसाठस भरी फ्रंटियर में सामान की तरह ठूंस आया और खिड़की से झांक कर बार—बार बोलता रहा कि ‘अपना ध्यान रखना। बच्चों का ध्यान रखना। चिंता न करना, मैं पहुंच रहा हूं। पानी वगैरह किसी से मंगा लेना रास्ते में, खुद न उतरना। खाना तो रख लिया है न? नहीं रखा, अरे! ऐसा करना कि पूरी वगैरह मत खाना। फल वगैरह ही ले लेना। पैसे तो हैं न! बीस ही रुपये हैं। अच्छा यह लो, तीस और ले लो। मेरी चिंता न करो, मुझे तो जुगाड़ करना ही है। ऐसा करना कि बोरीवली उतर जाना और वहां से टैक्सी पर अंधेरी जाना, अच्छा बाय!‘

बकवास सब बकवास है। यह एक मजबूत, स्पष्ट और निसंकोच आवाज थी, जिसे सुन वह हतप्रभ रह गया। नहीं, यह भ्रम नहीं हो सकता, उसने एकदम स्पष्ट सुना है। उसने चकराकर पूरा कमरा तलाश डाला, पर सब कोने सुनसान थे।

आखिर तुम किसे धोखा देना चाहते हो? अपने आपको न! पर ऐसा कभी नहीं हुआ। अपने—आपको धोखा देना ज्यादा नहीं चल पाता, क्योंकि इस तरह के धोखे की उम्र बेहद कम होती है, फिर यह खतरनाक भी है, ठीक कैंसर के रोग की तरह जिसका पता एकदम शुरू में नहीं चलता और जब चलता है तो रोग बढ़ चुका होता है। यह ऐसा रोग है जिससे बचकर भागने का मतलब मौत की तरफ कदम बढ़ाने जैसा है। तुम सुन रहे हो न? मेरी आवाज तुम तक पहुंच तो रही होगी।

‘हां,‘ उसने गरदन का पसीना पोंछते और बुदबुदाते हुए कहा, ‘पर तुम, तुम कौन हो?‘

तभी परदा हटा और एक अस्पष्ट—सी आकृति ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा, ‘मैंने कई बार तुम तक पहुंचने की कोशिश की, पर तुमने अपने चारों ओर झूठी चमक और व्यस्तता का जो कवच मढ़ रखा है उससे टकराकर मैं लौट—लौट जाता रहा। दरअसल, मेरा आना तभी मुमकिन है जब आदमी मानसिक रूप से अकेला हो। मुझे यह मौका आज मिला है, क्योंकि आज तुम अकेले भी हो और अपने नये धोखे के लिए कमजोर तर्क भी गढ़ रहे हो।‘

मतलब? वह ‘धम्म‘ से बिस्तर पर बैठ गया। आकृति पूरे कमरे में चहलकदमी करती रही। वह आकृति को एकटक ताक रहा था। आकृति की शक्ल उससे मिलती—जुलती—सी थी, उसने याद किया कि आज से करीब दस वर्ष पहले उसका जो चेहरा था, आकृति की शक्ल हू—ब—हू वही थी।

मतलब यह कि तुम पतन के ऐसे कगार पर खड़े हो जहां से कोई रास्ता वापस नहीं आता। तुम्हें नीचे ही गिरना है और इसका सबूत तुमने आज दे दिया। तुमने अपनी पत्नी को अकेले भेजकर आज अपना पांच बरस पुराना बदला चुकाया है। पांच बरस पहले अपने पहले लड़के के जन्म का समाचार तुमने बंबई भेजा था और सविता के मां—बाप को आमंत्रित किया था, यह सोचकर कि बच्चे का आगमन उनका क्रोध धो डालेगा, पर इससे उनकी नाराजगी में कोई कमी नहीं आयी थी। उधर से कोई रेस्पांस न मिलने पर तुम क्रोध में जल उठे थे। क्यों? वह क्या था तुम्हारे भीतर जो चाहता था कि सविता के मां—बाप के साथ संबंध मधुर हो जायें? तुम ऊपर से विरोध और उपेक्षा जता—जताकर भीतर—ही—भीतर यह अपेक्षा क्यों पाले रहे कि उन लोगों की मर्जी के विरूद्ध तुमने सविता से जो विवाह किया है उसे वे भूल जायें? वे नहीं भूले तो तुम अपमानित हो उठे। क्यों? क्या संबंधों के सुधरने के पीछे यह आकांक्षा नहीं थी कि तुम्हें तुम्हारा प्राप्य मिले? तुम्हें भी वह सब मिले जो उन्होंने अपनी दूसरी लड़की के पति को दिया है?

नहीं, यह गलत है। उसने जोर लगाकर कहा, पर आवाज गले में फंसी—फंसी—सी रही। खुलकर बाहर नहीं आ सकी।

यह गलत नहीं है। सही है। वरना बताओ, तुम सविता से अक्सर ही यह क्यों कहा करते हो कि ‘तेरे पिता ने तो हद ही कर दी, राहुल के जन्म पर भी हरकत नहीं की?‘ उन्होंने हरकत नहीं की तो तुम्हें क्या गम है? पर नहीं, तुम्हें बराबर यह गम सताता रहा कि अगर तुम अपनी मर्जी से विवाह नहीं करते तो तुम्हारी आज जो गिरी हुई आर्थिक दशा है उसमें थोड़ा—सा सुधार अवश्य होता। पिछले दस वर्षों में तुमने अपने सभी आदर्शों की जगह नये सपनों को जन्म दिया है। तम्हें याद होगा, और अगर नहीं याद है तो मैं याद दिलाता हूं। यह बारह साल पहले की बात है, जब देहरादून में तुम पैंथर पैन वर्कर्स यूनियन की स्ट्राइक का नेतृत्व कर रहे थे। उन दिनों लोग तुम्हें कॉमरेड कहा करते थे। वह हड़ताल सफल रही थी और वहां के मजदूरों को तीन रुपये रोज के बजाय छह रुपये रोज की मजदूरी मिलनी शुरू हो गयी थी। वह तुम्हारा मजदूरों के बीच में किया हुआ पहला काम था और उसी में तुम सफल रहे थे। तुम्हारा चेहरा एक सुनहरी आभा से दिप—दिप किया करता था उन दिनों और जब भी तुम्हारा कोई दोस्त यह बताते हुए कि वह फलां जगह फलां पोस्ट पर नियुक्त हो गया है, तुमसे पूछा करता था कि तुम्हारा क्या इरादा है तो तुम कितने गर्व से पैंथर पैन की स्ट्राइक वाले दिनों को याद करते हुए कहा करते थे, ‘जो आदमी जनता के बीच काम करता है जनता उसे भूखा नहीं रहने देती।‘ यह बताते हुए तुम आज की तरह खुद को धोखा नहीं दे रहे होते थे बल्कि सच ही, उस सच्चाई की आंच से रोमांचित हो रहे होते थे। तुम्हें वे दिन याद हो आते थे जब तीन रुपये रोज पाने वाले मजदूर, उनके बच्चे और उनकी बीवियां तुम्हारे एक इशारे पर कुर्बान हो जाने को तैयार रहते थे। एक बार रात के ग्यारह बजे तुम्हारी सिगरेटें खत्म हो गयी थीं और तुम्हारे पास पैसे भी नहीं थे और तुमने किसी से कुछ कहा भी नहीं था, पर तुम्हारी बेचैनी को तुम्हारे इर्द—गिर्द बैठे रामचनवा, हरभजन और मांगेलाल पहचान गये थे। फिर तुम्हारे मना करने के बावजूद उस कंगाल, जर्जर और पीड़ित मजदूर—बस्ती से चंदा इकट्‌ठा करके वे रात को बारह बजे साइकिल पर आठ किलोमीटर दूर शहर जाकर चारमीनार की दो डिब्बी खरीद कर लाये थे। तुम्हें याद है न! सिगरेट पीते हुए तुम रो पड़े थे। और तुमने कसम खायी थी कि तुम्हारे जीवन की एक—एक सांस इस मुल्क के मजलूम लोगों के ही काम आयेगी।

वह उठकर खड़ा हो गया। उसका चेहरा राख जैसा हो आया था। ये उसकी वो यादें थीं जो कभी खंगाली नहीं गयी थीं और जिन पर दीमकों का पहाड़ जैसा ऊंचा मिट्‌टी का घर बन गया था। अब यह घर गिर रहा था और जहां—जहां से मिट्‌टी पूरी तरह हटती थी उसके बीते हुए जीवन का कोई एक हिस्सा झांकने लगता था।

‘जवानी का जोश था, और तब कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी,‘ उसने कहा और चौंक पड़ा। उसकी आवाज? क्या हुआ उसकी आवाज को? वह इस तरह कराहती हुई—सी निकली थी जैसे कोई घातक चोट लगी हो।

‘जिम्मेदारी कैसे नहीं थी? तब क्या तुम किसी अनाथालय से निकले थे?‘ आकृति के होंठ हिले और वह थोड़ा पीछे हट गया। आकृति उसकी तरफ अपने कदम बढ़ा रही थी।

‘पांच छोटे अबोध भाई—बहन और दो अशक्त मां—बाप का परिवार क्या जिम्मेदारी नहीं होता? लेकिन नहीं, तब तुम अपनी मां से कहा करते थे।‘

उसने पाया, वह पीछे लौट रहा है। इतना पीछे कि मां की पकड़ाई में आ गया। वह दबे पांव, रात के बारह बजे घर में घुसा था और चुपचाप अपने कमरे में प्रवेश कर गया था। लेकिन वह पकड़ा गया। कमरे में मां थी, जागती हुई। वह करीब एक सप्ताह बाद घर में घुस रहा था और इस तरह मां को अपने कमरे में अपना इंतजार करता देख सकपका गया था। लगता था जैसे पूरे एक सप्ताह से मां इसी तरह उसकी प्रतीक्षा में बैठी अनवरत जाग रही हो। वह चुप, कपड़े उतारने लगा था कि मां ने कहा, ‘घर लौट आ, बेटे!‘

उसने घूमकर देखा, मां की आंखों में आंसू थे। वह जैसे भीख मांग रही थी। उसकी आंखें याचना की मुद्रा में फटी—फटी—सी हो आयी थीं। मां की यह मुद्रा देख वह बिखर—बिखर पड़ने को हो आया था।

‘मां...!‘ वह मां के एकदम करीब सिमट आया था। फिर धीरे लेकिन दृढ़ आवाज में बोला, ‘मैं सब समझता हूं, पर मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूं। अव्वल तो नौकरी मिलना इस मुल्क में आसान नहीं है। दूसरे, मान लो पांच—छह सौ महीने की नौकरी कर, मैं घर बसाकर बैठ भी जाऊं तो भी वह इतना कम होगा कि मुझसे अपनी ही गृहस्थी चलानी मुश्किल हो जायेगी। इस घर को तो मैं फिर भी कोई मदद नहीं दे सकता। मुझे पता है कि पांच साल बाद डैडी रिटायर हो जायेंगे, पर मैं क्या कर सकता हूं? वैसे भी मेरे रास्ते इस वक्त बिलकुल अलग हैं। वापस आना अब संभव नहीं रहा, मां! जिंदगी—भर डर—डर के और रो—रो के जीते चले जाने और एक दिन दवा के, या ढंग के भोजन के अभाव में गुमनाम मौत मर जाने से बेहतर है ऐसे जीवन को जीने से इंकार कर देना, मां! मैं ऐसी घटिया जिंदगी को नामंजूर कर चुका हूं और तुम्हें खुशी होगी कि मैं अकेला नहीं हूं।‘

उसकी बातों को मां ने कुछ समझा था और कुछ नहीं समझा था। वह उस रात बहुत देर तक मां के साथ रहा था और मां को समझाता रहा था कि जब तक हर घर से एक—एक बेटा उसकी तरह बाहर नहीं निकलेगा तब तक यह जीवन ऐसा ही दुखमय बना रहेगा।

अब वह दिल्ली में है। मां और पिताजी अपने शेष पांच बेटे—बेटियों के साथ देहरादून में हैं। उसका रिश्ता घर से इतना ही बचा है कि साल—भर में एक बार या तो सविता को भेज देता है या खुद चला जाता है। उसके दो भाई इंटर करने के बाद क्रमशः एक कपड़े वाले और एक कॉस्मेटिक वाले के यहां काउंटर—क्लर्क बने हुए हैं।

सहसा उसने पाया कि कमरे में आकृति नहीं है। उसने पलटकर चारों तरफ देखा, तभी परदा हटा कमरे के भीतर घुसती आकृति बोली, ‘बड़ी जल्दी लौट आये, अब वहां तुम्हारा दम घुटता है न!‘

‘नहीं, यह बात नहीं...!‘ वह सहसा ही खिसिया—सा गया।

‘यही बात है।‘ आकृति ने कहकहा लगाते हुए कहा, ‘देखो, कितनी मजेदार बात है कि यह जो सविता है न, तुम्हारी पत्नी, यह तुमसे भी ज्यादा ईमानदार निकली। यह आर्थिक स्तर पर तुमसे ज्यादा सम्पन्न घर की थी। तुम्हारी तरह यह भी मूवमेंट में शरीक होती थी, पर इसने कभी बड़े—बड़े दावे नहीं किये और तुमने गौर किया होगा कि जब कॉमैट बल्ब फैक्ट्री में हड़ताल के सिलसिले में तुम दोनों को पंद्रह—पंद्रह दिन की जेल हुई और जेल के बाद जब तुम दोनों बाहर आये तो सविता ने तुमसे कहा था कि यह सम्भवतः हम लोगों की अन्तिम मुलाकात है। डैडी मेरी इन एक्टिविटीज के सख्त खिलाफ हैं और वे हम सबको लेकर बम्बई जा रहे हैं, उन्होंने अपना ट्रांसफर करा लिया है।‘

भरभराकर मिट्‌टी का एक बड़ा—सा ढेर ढह गया और उसका अतीत आदमकद रूप में एक औचक तरीके से उसके सामने बेपर्द हो गया।

‘लेकिन...लेकिन तुम चली जाओगी तो... नहीं, नहीं, तुम कैसे जा सकती हो?‘ ...उसने हड़बड़ाकर सविता का हाथ थाम लिया था जैसे हाथ छूटते ही वह गायब हो जायेगी।

‘एक ही तरीका है,‘ सविता ने कहा था।

‘क्या?‘

‘हम शादी कर लेते हैं।‘

‘शादी?‘ वह चौंक गया, ‘पर यह कैसे संभव है?‘

‘क्यों, इसमें असंभव क्या है? बालिग हैं दोनों। कोर्ट हमारी मदद करेगा।‘

‘वो तो ठीक है पर...‘ वह हकलाने लगा था।

‘तो गलत क्या है?‘

‘नहीं, मेरा मतलब है, ये मूवमेंट, पार्टी, रिवोल्यूशन, आइडियोलॉजी...।‘

‘ये सब चीजें शादी में आड़े कहां से आती हैं? हम क्या इनकी कॉस्ट पर मैरिज करने जा रहे हैं? तुम होलटाइमर हो... मैं भी होलटाइमर हो जाऊंगी। पाटी को तो इससे खुशी ही होगी। उसे दो कार्यकर्ता मिलेंगे।‘

वह दंग रह गया। सविता का कमिटमेंट उसके लिए एक अचरज बन कर सामने था।

तभी उसने देखा कि आकृति उसे व्यंग्य—भरी नजरों से घूरे जा रही थी। वह तिलमिला गया और कुछ कहने को हुआ कि तभी आकृति बोल उठी, ‘और तम्हें शर्म आनी चाहिए कि सविता अपने कमिटमेंट से कभी पीछे नहीं हटी। शादी के बाद उसने एक बार भी तुमसे यह नहीं कहा कि तुम आन्दोलनों, विचारधारा या पार्टी का साथ छोड़कर दिल्ली भाग जाओ। पर तुम भाग आये। तुम लगातार मौके की तलाश में रहे और जैसे ही तुम्हें दिल्ली में छह सौ रुपये की नौकरी मिली तुम सब—कुछ छोड़—छाड़कर उस शहर को अलविदा कह आये। फिर एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी बेहतर नौकरी तुम अपने—आप बदलते रहे। नौकरी से पूरा नहीं पड़ा तो तुमने पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने की बात सोची। भाषा तुम्हारे पास थी ही। आन्दोलनों में जमकर काम करने का अनुभव तुम्हारे पास था ही। तुमने अपने—आपको धोखा देना शुरू कर दिया। तुमने तर्क गढ़ा कि तुम पत्रकारिता के माध्यम से जन—संघर्षों को आवाज दोगे। लेकिन असल में तुमने क्या किया? पैसा कमाने की धुन में, सुखी जीवन गुजारने की इच्छा में तुम फर्माइशी लेखन करते रहे। छद्‌म नामों से पत्रिकाओं के गॉसिप कॉलम लिखते रहे। घटनाओं को सेंसेशनल बनाते रहे और लोगों के दुखों व यातनाओं को बिक्री—योग्य बनाकर बाजार में फेंकते रहे...और इस तरह उन लोगों के हाथ मजबूत करते रहे जिनके विरुद्ध ताउम्र लड़ने की कभी तुमने कसम खायी थी...‘

‘बस करो...!‘ वह चीखता हुआ बोला और औंधे मुंह खाट पर गिर पड़ा। उसकी सांस बेहद तेज चल रही थी, माथा तप रहा था और हलक में कांटे—से गड़ने लगे थे। खाट से सिर उठाकर उसने देखा—कमरा घूम रहा था गोल—गोल और उसी के साथ वह आकृति भी। वह मनहूस, दस वर्ष पहले के उसके चेहरे से मिलती—जुलती आकृति कमरे की गति से एकाकार हो गयी और दिखनी बंद हो गयी।

‘उफ!‘ उसके मुंह से निकला और उसने अपना सिर बिस्तर में छुपा लिया।

घंटी की तेज आवाज से उसकी नींद खुली। उसने झटके से उठना चाहा, पर नहीं उठ सका। अरे! उसने अपनी भारी पलकों को दो—तीन बार खोला, बंद किया और तब जाकर उसे मालूम चला कि वह तेज बुखार में तप रहा है और कमर में बेतरह दर्द है तथा दिमाग की थकन हैंग—ओवर जैसी है।

घंटी फिर बजी, कर्कश आवाज में, देर तक। किसी तरह वह उठा और घिसटता—सा दरवाजे पर गया। दरवाजा खोलकर उसने देखा—दूधवाला था। चारों बोतलें लेकर उसने एक सप्ताह तक दूध वाले को दूध न लाने की हिदायत दी और वापस कमरे में आ गया। दूध की बोतलें बगल की मेज पर रख उसने अलमारी खोल थर्मामीटर निकाला और तीन बार झटककर मुंह में लगा लिया।

104 डिग्र्री बुखार था। थर्मामीटर वापस अलमारी में रख उसने सुराही में से एक गिलास पानी निकालकर पिया और वापस खाट पर आ बैठा। फिर उसने घड़ी देखी। सात बजे थे। वह फिर से लेट गया और आंखें बंद कर लीं।

दुबारा उसकी आंख फिर घंटी की आवाज से खुली। नौ बजे थे। वह हिम्मत कर उठा और दरवाजा खोल दिया — जमादारनी थी। तीसरी बार जब घंटी बजी तो उसे गुस्सा आ गया। दरवाजा खोलने पर उसने पाया—प्रेस वाला था, जो कपड़े मांग रहा था।

‘नहीं हैं।‘ उसने लगभग चीखते हुए कहा और बिना दरवाजा बंद किये वापस कमरे में आ लेटा।

घंटी फिर बजी। वह नहीं उठा। घंटी रुकी और फिर बजी। फिर रुकी और बजती ही चली गयी। वह चुपचाप पड़ा रहा। आखिर दरवाजा खुलने और किसी के प्रवेश करने की आवाज आयी। वह सुनता रहा।

‘दीदी!‘ एक स्त्री—स्वर उभरा और कमरे का परदा हिला। फिर एक चेहरे ने कमरे में झांका और उसने आंखें बन्द कर लीं।

‘भाई साहब!‘ उसके कानों ने कहीं दूर से आती आवाज सुनी——मक्खी की भिन—भिन की तरह—और उसने अपनी पलकें उठायीं। सामने वाले क्वार्टर फिफ्टी—थ्री की मिसेज चोपड़ा थी—सविता की हमउम्र...नहीं, दो वर्ष छोटी सहेली।

‘नहीं है। बम्बई गयी है।‘ उसने थरथराती आवाज में कहा।

‘आपकी तबीयत खराब लगती है?‘ मिसेज चोपड़ा ने पूछा। उसने स्वीकृति में गरदन हिलायी, फिर इशारे से लिखने के लिए पेन और राइटिंग पैड मांगा। पैड पर उसने दफ्तर का फोन नम्बर और बीमारी का संदेश लिख मिसेज चोपड़ा को पकड़ाते हुए कहा, ‘प्लीज... आपको कष्ट तो होगा...!‘ इतना कहकर वह फिर अचेत हो गया।

आंख खुली तो शाम के छह बजे थे। बुखार उसी तरह था। बदन का दर्द बढ़ गया था और मुंह में कुनैन जैसी कड़वाहट महसूस हो रही थी। उसने मन—ही—मन मिसेज चोपड़ा को गाली दी जो उसके लिए डॉक्टर की भी व्यवस्था नहीं कर सकी। फिर उसे ध्यान आया कि तीन साल से यहां रहने के बावजूद कालोनी के लोगों से उसका रिश्ता ही क्या रहा है? सिवाय फिफ्टी—थ्री के बारे में यह जानने के कि वहां कोई मिस्टर चोपड़ा रहते हैं, वह और कुछ भी नहीं जानता। न उनका पूरा नाम, न ही यह कि वे काम क्या करते हैं। ऐसी स्थिति में कोई उसके पास क्यों आयेगा?

पर तभी मिस्टर और मिसेज चोपड़ा ने कमरे में प्रवेश किया। वह असहाय—सा उन्हें देखता रहा। मिस्टर चोपड़ा ने अपनी हथेली से उसके बुखार को मापने का प्रयत्न किया, पर तुरन्त ही छोड़ दिया। उसका हाथ तप रहा था और चेहरा लाल हो आया था। मिस्टर चोपड़ा ने अपनी पत्नी से कुछ कहा ओर पत्नी को वहीं छोड़ बाहर निकल गये। वह कुछ देर मिसेज चोपड़ा को देखता रहा, फिर उसकी आंखें बन्द हो गयीं। इस बार उसकी आंख खुली तो एक पंखे को घूमते पाया। उसके सिर के ऊपर पंखा तो नहीं लगा था। उसने गरदन घुमायी और पाया कि वह अस्पताल में है। घड़ी देखी—सुबह के आठ बजे थे और तारीख तेरह हो गयी थी। यानी, उसने दिमाग पर जोर दिया, सविता को गये चार रोज गुजर गये। यानी, अस्पताल आये उसे तीन दिन, नहीं दो दिन, नहीं... आगे वह सोच नहीं सका कि अस्पताल आये उसे ठीक—ठीक कितना वक्त गुजर गया!

कितना अकेला है वह! ऐसे मौके पर ही सविता को भी जाना था! उसे धीरे—धीरे गुस्सा आने लगा। फिर उसका गुस्सा कातर होता चला गया और उसके भीतर रुलाई उमड़ने लगी। क्या हुआ है उसे? उसने सोचा और सोचते ही वह पसीना—पसीना हो आया। उसके चेहरे वाली आकृति उसके ऐन सामने खड़ी थी। नहीं, उसने हाथ हिलाकर कहा और आकृति गायब हो गयी। मिस्टर और मिसेज चोपड़ा थे।

मिस्टर चोपड़ा ने उसका हाथ और माथा देखा, फिर कुछ आश्वस्त से हुए और बोले, ‘अब तो काफी ठीक हैं आप!‘

‘हां,‘ उसने मुसकराने की कोशिश की।

‘यह टेलीग्राम आया था कल रात।‘ उन्होंने उसके हाथों में तार पकड़ाते हुए कहा।

उसने तार नहीं लिया और पूछा, ‘क्या लिखा है?‘

मिस्टर चोपड़ा ने टेलीग्राम फाड़ा और पढ़ते हुए बोले, ‘बैड न्यूज, सविता भाभी का टेलीग्राम है। आपको तुरन्त बुलाया है।‘

‘क्या हुआ?‘ उसका दिल डूबने लगा।

‘आपके फादर इन लॉ का देहांत हो गया है।‘

‘मुझे तुरन्त जाना चाहिए।‘ उसने कहा और उठकर बैठने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुआ। आधा उठकर वह फिर गिर पड़ा। उसने बेबस नजरों से मिस्टर चोपड़ा को देखा जो गुमसुम—से खड़े थे। उसकी आंखें बन्द—सी होने लगीं और दिमाग में फुलझड़ियां—सी छूटने लगीं। तभी उसने देखा, उसके दफ्तर के दो सहयोगी कमरे में घुसे। उसने फिर उठने की कोशिश की, पर फिर असफल रहा। दोनों सहयोगी उसके बिस्तर के पास आकर खड़े हुए थे कि कमरे में डॉक्टर ने प्रवेश किया।

क्रमशः मुंदती जा रही आंखों को सप्रयत्न खोल उसने देखा—डॉक्टर के पीछे—पीछे वह आकृति भी कमरे में घुसी थी। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और चेहरा बिल्कुल सफेद पड़ गया।

रचनाकाल : संभवतः 1983

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