परीक्षा-गुरु - प्रकरण-25 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-25

परीक्षा गुरू

प्रकरण - २५

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साहसी पुरुष

लाला श्रीनिवास दास

सानु ब न्‍ध कारज करे सब अनुबन्‍ध निहार

करै न साहस, बुद्धि बल पंडित करै बि चार[28]

विदुरप्रजागरे.

हम प्रथम लिख चुके हैं कि हरकिशोर साहसी पुरुष था और दूर के सम्बन्ध मैं ब्रजकिशोर का भाई लगता था. अब तक उस्के काम उस्की इच्छानुसार हुए जाते थे वह सब कामों मैं बड़ा उद्योगी और दृढ़ दिखाई देता था. उस्का मन बढ़ता जाता था और व‍ह लड़ाई झगड़े वगैरे के भयंकर और साहसिक कामों मैं बड़ी कारगुजारी दिखलाया करता था. वह हरेक काम के अंग प्रत्यंग पर दृष्टि डालनें या सोच बिचार के कामों मैं माथा खाली करनें और परिणाम सोचनें या कागजी और हिसाबी मामलों मैं मन लगनें के बदले ऊपर, ऊपर सै इन्को देख भाल कर केवल बड़े, बड़े कामों मैं अपनें तांई लगाये रखनें और बड़े आदमियों सैं प्रतिष्ठा पानें की विशेष रुचि रखता था. उस्नें हरेक अमीर के हां अपनी आवा-जाई कर ली थी और वह सबसै मेल रखता था. उस्के स्वभाव मैं जल्दी होनें के कारण वह निर्मूल बातों पर सहसा बिश्वास कर लेता था और झट पट उन्का उपाय करनें लगता था. उस्के बिना बिचारे कामों सै जिस्तरह बिना विचारा नुक्सान हो जाता था इसी तरह बिना बिचारे फ़ायदे भी इतनें हो जाते थे जो बिचार कर करनें सै किस प्रकार सम्भव न थे. जब तक उस्के काम अच्छी तरह सम्पन्न हुए जाते थे, उस्को प्रति दिन अपनी उन्नति दिखाई देती थी, सब लोग उसकी बात मान्ते थे. उस्का मन बढ़ता जाता था और वो अपना काम सम्पन्न करनें के लिये अधिक, अधिक परिश्रम करता था. परन्तु जहां किसी बात मैं उस्का मन रुका उसकी इच्छानुसार काम न हुआ. किसीनें उस्‍की बात दुलख दी अथवा उस्‍को शाबासी न मिली वहां वह तत्‍काल आग हो जाता था. हरेक काम को बुरी निगाह सै देखनें लगता था. उस्‍की कारगुजारी मैं फर्क आ जाता था और वह नुकसान सै खुश होनें लगता था इसलिये उस्‍की मित्रता भय सै खाली न थी.

कोई साहसी पुरुष स्‍वार्थ छोड़ कर संसार के हितकारी कामों मैं प्रबृत्त हो तो कोलम्‍बसकी तरह बहुत उपयोगी हो सक्ता है और अब तक संसार की बहुत कुछ उन्‍नति ऐसे ही लोगों सै हुई है इस लिये साहसी पुरुष परित्‍याग करनें के लायक नहीं हैं परन्‍तु युक्ति सै काम लेनें के लायक हैं हां ! ऐसे मनुष्‍यों सै काम लेनें मैं उन्‍का मन बराबर बढ़ाते जांय तो आगै चल कर काबू सै बाहर हो जानें का भय रहता है इसलिये कोई बुद्धिमान तो उन्‍का मन ऐसी रीति सै घटाते-बढ़ाते रहते हैं कि उन्‍का मन बिगड़नें पावै न हद्दसै आगै बढ़नें पावै कोई अनुभवी मध्‍यम प्रकृति के मनुष्‍य को बीच मैं रखते हैं कि वह उन्‍को वाजबी राह बताते रहैं. परन्‍तु लाला मदनमोहन के यहां ऐसा कुछ प्रबन्‍ध न था. दूसरे उस्‍के बिचार मूजिब मदनमोहननें अपनें झूंटे अभिमान सै भलाई के बदले जान-बूझकर उस्‍की इज्‍जत ली थी इस्‍कारण हरकिशोर इस्‍समय क्रोध के आवेश मैं लाल हो रहा था और बदला लेनें के लिये उस्‍के मनमैं तरंगैं उठतीं थीं उस्नें मदनमोहन के मकान सै निकलते ही अपनें जी का गुबार निकालना आरंभ किया.

पहलै उस्‍को निहालचंद मोदी मिला. उस्नें पूछा "आज कितनें की बिक्री की ?"

"खरीदारी की तो यहां कुछ हद ही नहीं है परन्‍तु माल बेच कर दाम किस्‍सै लें ? जिस्‍को बहुत नफे का लालच हो वह भले ही बेचे मुझको तो अपनी रकम डबोनी मंजूर नहीं" हरकिशोरनें जवाब दिया.

"हैं ! यह क्‍या कहते हो ? लाला साहब की रकम मैं कुछ धोका है ?"

"धोके का हाल थोड़े दिन मैं खुल जायगा मेरे जान तो होना था वह हो चुका."

"तुम यह बात क्‍या समझ कर कहते हो ?" मोदीनें घबरा कर पूछा "कम सै कम लाख, पचास हजार का तो शीशा बर्तन इस्‍समय इन्‍के मकान मैं होगा."

"समय पर शीशे बर्तन को कोई नहीं पूछता. उस्‍की लागत मैं रुपे के दो आनें नहीं उठते. इन्‍हीं चीजों की खरीदारी मैं तो सब दौलत जाती रही. मैंनें निश्‍चय सुना है कि इन चीजों की कीमत बाबत पचास हजार रुपे तो ब्राइट साहबके देनें हैं और कल एक अंग्रेज दस हजार रुपे मागनें आया था न जानें उस्‍के लेनें थे कि कर्ज मांगता था परन्‍तु लाला साहब नें किसी सै उधार मांग कर देनें का करार किया है ? फ़िर जहां उधार के भरोसे सब काम भुगतनें लगा वहां बाकी क्‍या रहा ? मैंनें अपनी रकम के लिये अभी बहुत तकाजा किया पर वे फूटी कौड़ी नहीं देते इसलिये मैं तो अपनें रुपों की नालिश अभी दायर करता हूं तुम्‍हारी तुम जानों"

यह बात सुन्‍ते ही मोदी के होश उड़ गये. वह बोला "मेरे भी पांच हजार लेनें हैं मैंनें कई बार तगादा किया पर कुछ सुनाई न हुई मैं अभी जाकर अपनी रकम मांगता हूं जो सूधी तरह देदेंगे तो ठीक है नहीं तो मैं भी नालिश कर दूंगा. ब्योहार मैं मुलाहिजा क्‍या ?"

इस्‍तरह बतला कर दोनों अपनें, अपनें रस्‍ते लगै. आगै चल कर हरकिशोर को मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी मिला. वह अपनें घर भोजन करनें जाता था उसै देखकर हरकिशोर अपनें आप कहनें लगा "मुझै क्‍या है ? मेरे तो थोड़ेसे रुपे हैं मैं तो अभी नालिश करके पटा लूंगा. मुश्किल तो पचास, पचास हजार वालों की है देखैं वह क्‍या करते हैं ?"

"लाला हरकिशोर किस्‍पर नालिश की तैयारी कर रहे हैं ?" मुन्‍शी नें पूछा.

"कुछ नहीं साहब ! मैं आप सै कुछ नहीं कहता. मैं तो बिचारे मदनमोहन का बिचार कर रहा हूँ. हां ! उस्‍की सब दौलत थोड़े दिन में लुट गई अब उस्‍के काम मैं हलचल हो रही है, लोग नालिश करनें को तैयार हैं. मैंनें भी कम्‍बख्‍ती के मारे हजार दो एक का कपड़ा दे दिया था इसलिये मैं भी अपनें रुपे पटानें की राह सोच रहा हूँ. बिचारा मदनमोहन कैसा सीधा आदमी था ?"

"क्‍या सचमुच उस्‍पर तकाजा हो गया ? उस्‍पर तो हमारे साहब के भी पचास हजार रुपये लेनें हैं. आज सबेरे तो लाला मदनमोहन की तरफ़ सै बड़े काचों की एक जोड़ी खरीदनें के लिये मास्‍टर शिंभूदयाल हमारे साहब के पास गए थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या हो गया ? तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ?"

"मैं आप वहां सै आता हूँ. कल सै गड़बड़ हो रही है कल एक साहब दस हजार रुपे मांगनें आए थे. इस्‍पर मदनमोहननें स्‍पष्‍ट कह दिया कि मेरे पास कुछ नहीं हैं मैं कहीं सै उधार लेकर दो एक दिन मैं आपका बंदोबस्‍त कर दूंगा. मैंनें अपनें रुपे के लिये बहुत ताकीद की पर मुझको भी कोरा जवाब ही मिला. अब मैं नालिश करनें जाता हूँ और निहालचंद मोदी अभी पांच हजार के लिये पेट पकड़े गया है वह कहता था कि मेरे रुपे इस्समय न देंगे तो मैं भी अभी नालिश कर दूंगा जिस्‍की नालिश पहलै होगी उस्‍को पूरे रुपे मिलैंगे."

"तो मैं भी जाकर साहब सै यह हाल कह दूं तुम्‍हारी रकम तो खेरीज है परन्‍तु साहब का कर्जा बहुत बड़ा है. जो साहब की इस रकम मैं कुछ धोका हुआ तो साहब का काम चलना कठिन हो जायगा." ये कहक़र मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी घर जानें के बदले साहब के पास दौड़ गया.

लाला हरकिशोर आगे बढ़े तो मार्ग मैं लाला मदनमोहन की पचपनसो की खरीद के तीन घोड़े लिये हुए आगाहसनजान लाला मदनमोहन के मकान की तरफ़ जाता मिला. उस्‍को देखकर हरकिशोर कहनें लगे "ये ही घोड़े लाला मदनमोहन नें कल खरीदे थे. माल तो बड़े फ़ायदे सै बिका पर दाम पट जायं तब जानिये."

"दामों की क्‍या है ? हमारा हजारों रुपे का काम पहलै पड़ चुका है" आगाहसनजान नें जवाब दिया और मन मैं कहा "हमारी रकम तो अपनें लालच सै चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल घर बैठे पहुँचा जायंगे"

"वह दिन गए. आज लाला मदनमोहन का काम डिगमिगा रहा है. उस्‍के ऊपर लोगों का तगादा जारी है जो तुम किसी के भरोसे रहोगे तो धोका खाऔगे जो काम करो : अच्‍छी तरह सोच समझकर करना."

"कल शाम को तो लाला साहब नें हमारे यहां आकर ये घोड़े पसंद किये थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या होगया ?"

"जब तेल चुक जाता है तो दिये बुझनें मैं क्‍या देर लगती है ? चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल सब तेल चाट गए. ऐसे चूहों की घात लगे पीछै भला क्‍या बाकी रह सक्‍ता था ?"

"मैं जान्‍ता हूँ कि लाला साहब का बहुतसा रुपया लोग खागए परन्तु उन्‍के काम बिगड़नें की बात मेरे मन मैं अबतक नहीं बैठती. तुमनें यह हाल किस्से सुना है ?"

"मैं आप वहां सै आया हूँ. मुझको झूंट बोलनें सै क्‍या फायदा है ? मैं तो अभी जाकर नालिश करता हूँ. निहालचंद मोदी नालिश करनें को तैयार है ? ब्राइट साहब का मुन्‍शी अभी सब हकीकत निश्‍चय करके साहब के पास दौड़ा गया है. तुमको भरोसा न हो, निस्सन्देह न मानो. तुम न मानोगे इस्‍सै मेरी क्‍या हानि होगी" यह कहक़र हरकिशोर वहां सै चल दिया."

पर अब मदनमोहन की तरफ़ सै आगाहसनजान को धैर्य न रहा. असल रुपे का लालच उस्‍को पीछे हटाता था और नफै का लालच आगे बढ़ाता था. पहले रुपे के बिचार से तबियत और भी घबराई जाती थी निदान यह राह ठैरी कि इस्‍समय घोड़ों को फेर ले चलो. मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पहले रुपे वसूल हुए पीछे ये घोड़े पहुंचा देंगे, नहीं तो कुछ काम नहीं."

इधर हरकिशोर को मार्गमैं जो मिल्ता था उस्‍सै वह मदनमोहन के दिवाले का हाल बराबर कहता चला जाता था और यह सब बातैं बाजार मैं होती थीं इसलिये एक सै कहनें मैं पांच और सुन लेते थे और उन पांच के मुख से पचासों को यह हाल तत्‍काल मालूम हो जाता था फ़िर पचास से पांच सौ मैं और पांच सौ से पांच हजार मैं फैलते क्‍या देर लगती थी ? और अधिक आश्‍चर्य की बात यह थी कि हरेक आदमी अपनी तरफ़ से भी कुछ, न कुछ नोंन मिर्च लगा ही देता था. जिस्‍को एक के कहनें से भरोसा न आया दो के कहनें से आगया. दो कहनेंसे न आया चार के कहनें से आगया मदनमोहन के चाल चलन से अनुभवी मनुष्‍य तो यह परिणाम पहले ही से समझ रहे थे जिस्‍पर मास्‍टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन की तरफ़ से एक दो जगह उधार लेनें की बात चीत की थी इसलिये इस चर्चा मैं किसी को संदेह न रहा. बारूद बिछ रही थी बत्ती दिखाते ही तत्‍काल भभक उठी.

परन्‍तु लाला मदनमोहन या ब्रजकिशोर वगैरे को अबतक इस्‍का कुछ हाल मालूम न था.