परीक्षा-गुरु - प्रकरण-10 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-10

परीक्षा-गुरु

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प्रकरण-१०

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प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)

लाला श्रीनिवास दास

कारजको अनुबंध लख अरु , उत्‍तरफल चाहि[26]

पुन अपनी सामर्थ्‍य लख करै कि न करे ताहि

बिदुरप्रजागरे.

सवेरे ही लाला मदनमोहन हवा खोरी के लिये कपड़े पहन रहे थे. मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल आ चुके थे.

"आजकल मैं हमको एक बार हाकिमों के पास जाना है" लाला मदनमोहन नें कहा.

"ठीक है, आपको म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर बनानें की रिपोर्ट हुई थी. उस्‍की मंजूरी भी आ गई होगी" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले.

"मंजूरी मैं क्‍या संदेह है ? ऐसे लायक आदमी सरकार को कहां मिलेंगे ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"अभी तो (खुशामदमैं) बहुत कसर है ! साइराक्‍यूस के सभासद डायोनिस्‍यसका थूक चाट जाते थे और अमृतसै अधिक मीठा बताते थे" लाला ब्रजकिशोर नें कमरे मैं आते, आते कहा.

"यों हर काम मैं दोष निकालनें की तो जुदी बात है पर आप ही बताइए इस्‍मैं मैंनें झूठ क्‍या कहा ?" मास्‍टर शिंभूदयाल पूछनें लगे.

"लाला साहब नें म्‍यूनिसिपेलीटी का सालानः आमद खर्च अच्‍छी तरह समझ लिया होगा ? आमदनी बढ़ानें के रस्‍ते अच्‍छी तरह बिचार लिये होंगे ? शहर की सफाई के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उपाय सोच लिये होंगे ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा.

"नहीं, इन बातों मैं सै अभी तो किसी बात पर दृष्टि नहीं पहुँचाई गई परन्तु इन बातों का क्‍या है ? ये सब बातें तो काम करते, करते अपनें आप मालूम हो जायेंगी" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया.

"अच्‍छा आप अपनें घर का काम तो इतनें दिनसै करते हो उस्‍के नफे नुक्‍सान और राह बाट सै तो आप अच्‍छी तरह वाकिफ हो गए होंगे ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा.

इस्‍समय लाला मदनमोहन नावाकिफ नहीं बनाना चाहते थे. परन्तु वाकिफकार भी नहीं बन सकते थे इसलिये कुछ जवाब न देसके.

"अब आप घर की तरह वहां भी औरों के भरोसे रहे तो काम कैसे चलेगा ? और अब बातौं सै वाकिफ होनें का बिचार किया तो वाकिफ होंगे जितनें आपके बदले काम कौन करैगा ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा.

"अच्‍छा मंजूरी आवैगी जितनें मैं इन् बातों सै कुछ, कुछ वाकिफ हो लूंगा." लाला मदनमोहन नें कहा.

"क्‍या इन बातों सै पहले आपको अपनें घर के कामों सै वाकिफ़ होनें की ज़रूरत नहीं है ? जब आप अपनें घर का प्रबन्ध उचित रीति सै कर लेंगे तो प्रबन्‍ध करनें की रीति आ जायेगी और हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकेंगे, परन्तु जब तक प्रबन्‍ध करनें की रीति न आवेगी कोई काम अच्‍छी तरह न हो सकेगा ?" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. "हाकमों की प्रसन्‍नता पर आधार रख; अपनें मुख सै अधिकार मांगनें मैं क्‍या शोभा है ? और अधिकार लिये पीछै वह काम अच्‍छी तरह पूरा न हो सकै तो कैसी हँसी की बात है ? और अनुभव हुए बिना कोई काम किस तरह भली भांति हो सक्ता है ? महाभारत मैं कौरवों के गौ घेरनें पर बिराट का राजकुमार उत्‍तर बड़े अभिमान सै उन्‍को जीतनें की बातैं बनाता था, परन्तु कौरवों की सेना देखते ही रथ छोड़कर उघाड़े पांव भाग

निकला ! इसी तरह सादी अपनें अनुभव सै लिखते हैं कि "एकबार मैं बलख सै शामवालों के साथ सफ़र को चला मार्ग भयंकर था. इसलिये एक बलवान पुरुष को साथ ले लिया, वह शस्‍त्रों सै सजा रहता था और उस्‍की प्रत्‍यंचा को दस आदमी भी नहीं चढ़ा सकते थे वह बड़े, बड़े बृक्षों को हाथ सै उखाड़डाल्‍ता परन्तु उस्‍नें क़भी शत्रु सै युद्ध नहीं किया था एक दिन मैं और वो आपस मैं बातैं करते चले जाते थे. उस्‍समय दो साधारण मनुष्‍य एक टीले के पीछै सै निकल आए और हम को लूटनें लगे उस्मैं एक के पास लाठी थी और दूसरे के हाथ मैं एक पत्‍थर था. परन्तु उन्‍को देखते ही उस बलवान पुरुष के हाथ पांव फूल गए ! तीर कमान छूट पड़ी ! अन्त मैं हमको अपनें सब बस्‍त्र शस्‍त्र देकर उन्‍सै पीछा छुड़ाना पड़ा, बहुधा अब भी देखनें मैं आता है कि अच्छे प्रबन्‍ध बिना घर मैं माल होनें पर किसी, साहूकार का दिवाला निकल जाता है रुपे का माल दो, दो आनें को बिकता फ़िरता है"

"परन्तु काम किये बिना अनुभव कैसे हो सक्ता है ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पूछा.

"सावधान मनुष्‍य काम करनें सै पहले औरों की दशा देखकर हरेक बात का अनुभव अच्‍छी तरह कर सक्ता है और अनायास कोई नया काम भी उस्‍को करना पड़े तो साधारण भाव सै प्रबन्‍ध करनें की रीति जानकर और और बातों के अनुभव का लाभ लेनें सै काम करते, करते वह मनुष्‍य उस बिषय मैं अपना अनुभव अच्‍छी तरह बढ़ा सक्ता है. सो मैं प्रथम कह चुका हूँ कि लाला साहब प्रबन्‍ध की रीति जान जायंगे तो हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकैंगे" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

"आप के निकट प्रबन्ध करनें की रीति क्या है ?" लाला मदनमोहन नें पूछा.

"हरेक काम के प्रबन्‍ध करनें की रीति जुदी, जुदी हैं परन्तु मैं साधारण रीति सै सब का तत्‍व आप को सुनाता हूँ" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. "सावधानी की सहायता लेकर हरेक बात का परिणाम पहले सै सोच लेना, और उन सब पर एक बार दृष्टि कर के जितना अवकाश हो उतनें ही मैं सब बातों का ब्योंत बना लेना निरर्थक चीजों को काम मैं लानें की युक्ति सोचते रहना और जो, जो बातें आगै होनें वाली मालूम हों उन्‍का प्रबन्‍ध पहलै ही सै दूर दृष्टि पहुँचा कर धीरे, धीरे इस भांत करते जाना कि समय पर सब काम तैयार मिलें, किसी बात का समय न चूकनें पावै, कोई काम उलट पुलट न होनें पावै, अपनें आस पास बालों की उन्नति से आप पीछे न रहें, किसी नोकर का अधिकार स्‍वतन्त्रता की हद सै आगे न बढ़नें पावै, किसी पर जुल्‍म न होनें पावै, किसी हक़ मैं अन्तर न आनें पावैं, सब बातों की सम्‍हाल उचित समय पर होती रहे, परन्तु ये सब काम इन्‍की बारीकियों पर दृष्टि रखनै सै कोई नहीं कर सक्ता बल्कि इस रीति सै बहुत महनत करनें पर भी छोटे, छोटे कामौं मैं इतना समय जाता रहता है कि उस्‍के बदले बहुत सै जरूरी काम अधूरे रह जाते हैं और तत्‍काल प्रबन्‍ध बिगड़ जाता है इसलिये बुद्धिमान मनुष्‍य को चाहिये कि काम बांट कर उन्‍पर योग्‍य आदमी मुकर्रर कर दे और उन्‍की काररवाईपर आप दृष्टि रक्‍खे पहले अन्‍दाज सै पिछला परिणाम मिलाकर भूल सुधारता जाय एक साथ बहुत काम न छेड़े, काम करनें के समय बटे रहैं, आमद सै थोड़ा ख़र्च हो और कुपात्र को कुछ न दिया जाय। महाराज रामचन्‍द्रजी भरत सै पूछते हैं "आमद पूरी होत है ? खर्च अल्पदरसाय ।। देत न-कबहुँ कुपात्रकों कहहुँ भरत समुजाय।।" [27]

इसी तरह इन्‍तज़ाम के कामौं मैं क-रिआयत सै बिगाड़ होता है, हज़रत सादी कहते हैं "जिस्सै तैनें दोस्‍ती की उस्‍सै नोंकरीकी आशा न रख"। [28]

"लाला ब्रजकिशोर साहब आजकल की उन्‍नति के साथी हैं तथापि पुरानी चालके अनुसार रोचक और भयानक बातोंको अपनी कहन मैं इस तरह मिला देते हैं कि किसीको बिल्‍‍कुल खबर नहीं होनें पाती" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार यथार्थ कहता हूँ" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "चीनके शहनशाह होएन नें एकबार अपनें मंत्री टिचीसै पूछा कि "राज्‍य के वास्‍ते सब सै अधिक भयंकर पदार्थ क्‍या है ?" मंत्रीनें कहा "मूर्तिके भीतरका मूसा" शहनशाहनें कहा "समझाकर कह" मंत्री बोला "अपनें यहां काठकी पोली मूर्ति बनाई जाती है और ऊपर सै रंग दी जाती है अब दैवयोग सै कोई मूसा उस्‍के भीतर चला गया तो मूर्ति खंडित होनें के भयसै उस्‍का कुछ नहीं कर सक्ते. इसी तरह हरेक राज्‍य मैं बहुधा ऐसे मनुष्‍य होते हैं जो किसी तरह की योग्‍यता और गुण बिना केवल राजा की कृपा के सहारे सै सब कामों मैं दखल देकर सत्‍यानास किया करते हैं परन्तु राजा के डर सै लोग उन्‍का कुछ नहीं कर सक्ते" हां जो राजा आप प्रबन्‍ध करनेंकी रीति जान्‍ते हैं वह उनलोगों के चक्‍कर सै खूबसूरती के साथ बचे रहते हैं जैसे ईरान का बादशाह आरटाजरकसीस सै एक बार उस्‍के किसी कृपापात्रनें किसी अनुचित काम करनें के लिये सवाल किया. बादशाह नें पूछा कि "तुमको इस्‍सै क्‍या लाभ होगा ?" कृपा पात्रनें बता दिया तब बादशाहनें उतनी रकम उस्‍को अपनें ख़जानें सै दिवा दी और कहा कि "ये रुपे ले इनके देनें सै मेरा कुछ नहीं घटता परन्तु तैनें जो अनुचित सवाल किया था उस्‍के पूरा करनें सै मैं निस्सन्देह बहुत कुछ खो बैठता" उचित प्रबन्‍ध मैं जरासा अन्तर आनेंसै कैसा भयंकर परिणाम होता है इस्‍पर बिचार करिये कि इसी दिल्‍ली तख्‍त बाबत दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच युद्ध हुआ. उस्‍समय औरंगजेब की पराजय मैं कुछ संदेह न था परन्तु दाराशिकोह हाथीसै उतरतेही मानों तख्‍त सै उतर गया मालिक का हाथी खाली देखते सब सेना तत्‍काल भाग निकली."

"महाराज ! बग्‍गी तैयार है." नोकरनें आकर रिपोर्ट की.

"अच्‍छा चलिये रस्‍ते मैं बतलाते चलेंगे" लाला ब्रजकिशोर नें कहा. निदान सब लोग बग्‍गी मैं बैठकर रवानें हुए.