परीक्षा-गुरु - प्रकरण-11 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-11

परीक्षा-गुरु

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प्रकरण-११

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सज्जनता.

लाला श्रीनिवास दास

सज्‍जनता न मिलै किये जतन करो किन कोय

ज्‍यों कर फार निहारि ये लोचन बड़ो न होय

बृन्‍द

"आप भी कहां की बात कहां मिलानें लगे ! म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर होनें सै और इंतज़ाम की इन बातों सै क्‍या सम्बन्ध है ? म्‍यूनिसिपेलीटी के कार्य निर्बाह का बोझ एक आदमी के सिर न‍हीं है उसमैं बहुत सै मेम्‍बर होते हैं और उन्‍मैं कोई नया आदमी शामिल हो जाय तो कुछ दिन के अभ्‍यास सै अच्‍छी तरह वाकिफ़ हो सक्ता है, चार बराबरवालों सै बातचीत करनें मैं अपनें बिचार स्‍वत: सुधर जाते हैं और आज कल के सुधरे बिचार जान्‍नें का सीधी रास्‍ता तो इस्‍सै बढ़कर और कोई नहीं हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"जिस तरह समुद्र मैं नोका चलानेंवाले केवल समुद्र की गहराई नहीं जान सक्‍ते इसी तरह संसार मैं साधारण रीति सै मिलनें भेटनेंवाले इधर-उधर की निरर्थक बातों सै कुछ फायदा नहीं उठा सक्‍ते बाहर की सज धज और जाहिर की बनावट सै सच्‍ची सज्‍जनताका कुछ सम्बन्ध नहीं है वह तो दरिद्री-धनवान ओर मूर्ख-विद्वान का भेद भाव छोड़ कर सदा मन की निर्मलता के साथ रहती है और जिस जगह रहती है उस्‍को सदा प्र‍काशित रखती है" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"तो क्‍या लोगों के साथ आदर सत्‍कार सै मिलना जुलना और उन्‍का यथोचित शिष्‍टाचार करना सज्‍जनता नहीं है ?" लाला मदनमोहन नें पूछा.

"सच्‍ची सज्‍जनता मन के संग है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. कुछ दिन हुए जब अपनें गवर्नर जरनल मारक्विस आफ रिपन साहब नें अजमेर के मेयो कालिज मैं बहुत सै राजकुमारों के आगे कहा था कि "**हम चाहे जितना प्रयत्‍न करैं परन्तु तुम्‍हारी भविष्‍यत अवस्‍था तुम्‍हारे हाथ है. अपनी योग्‍यता बढ़ानी, योग्‍यता की कदर करनी, सत्‍कर्मों मैं प्रवृत्त रहना, असत्‍कर्मों सै ग्‍लानि करना तुम यहां सीख जाओगे तो निस्सन्देह सरकार मैं प्रतिष्‍ठा, और प्रजा की प्रीति लाभ कर सकोगे. तुम मैं सै बहुत सै राजकुमारोंको बड़ी जोखोंके काम उठानें पड़ेंगे और तुम्‍हारी कर्तव्यता पर हजारों लाखों मनुष्‍योंके सुख दु:ख का बल्कि जीनें मरनें का आधार रहैगा. तुम बड़े कुलीन हो और बड़े विभववान हो. फ्रेंच भाषा मैं एक कहावत है कि जो अपनें सत्‍कुल का अभिमान रखता हो उस्‍को उचित है कि अपनें सत्‍कर्मों सै अपना बचन प्रमाणिक कर दे. तुम जान्‍ते हो कि अंग्रेज लोग बड़े, बड़े खिताबों के बदले सज्‍जन (Gentleman) जैसे साधारण शब्‍दोंको अधिक प्रिय समझते हैं इस शब्‍द का साधारण अर्थ ये है कि मर्यादाशील, नम्र और सुधरे बिचार का मनुष्‍य हो, निस्सन्देह ये गुण यहांके बहुत सै अमीरों मैं हैं परन्तु इस्‍के अर्थपर अच्‍छी तरह दृष्टि की जाय तो इस्‍का आशय बहुत गंभीर मालूम देता है. जिस मनुष्‍य की मर्यादा, नम्र और सुधरे बिचार केवल लोगों को दिखानें के लिये न हों बल्कि मन सै हो-अथवा जो सच्‍चा प्रतिष्ठित, सच्‍चा बीर और पक्षपात रहित न्‍याय-परायण हो, जो अपनें शरीर को सुख देनें के लिये नहीं बल्कि धर्म सै औरों के हक़ मैं अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये जीता हो; अथवा जिसका आशय अच्‍छा हो, जो दुष्‍कर्मों सै सदैव बचता हो वह सच्‍चा सज्‍जन है **"

"निस्सन्देह सज्‍जनता का यह कल्पित चित्र अति बिचित्र है परन्तु ऐसा मनुष्‍य पृथ्‍वी पर तो क़भी कोई काहेको उत्‍पन्‍न हुआ होगा" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा.

हम लोग जहां खड़े हों वहां सै चारों तरफ़ को थोड़ी-थोड़ी दूर पर पृथ्‍वी और आकाश मिले दिखाई देते हैं परन्तु हकीकत मैं वह नहीं मिले इसी तरह संसार के सब लोग अपनी, अपनी प्रकृतिके अनुसार और मनुष्‍यों के स्‍वभाव का अनुमान करते हैं परन्तु दर असल उन्मैं बड़ा अन्तर है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "देखो:-

"एथेन्‍स का निवासी आरिस्‍टाईडीज एक बार दो मनुष्‍यों का इन्साफ़ करनें बैठा तब उन्‍मैं सै एकनें कहा, "प्रतिपक्षीनें आप को भी प्रथम बहुत दु:ख दिया है," आरिस्‍टाईडीज नें जवाब दिया कि "मित्र ! इस्‍नें तुमको दुख दिया हो वह बताओ क्योंकि इस्‍समय मैं अपना नहीं; तुम्‍हारा इन्साफ़ करता हूँ"

"प्रीवरनमके लोगोंनें रूमके बिपरीत बलवा उठाया उस्‍समय रूमकी सेना नें वहांके मुखिया लोगोंको पकड़कर राज सभामैं हाजिर किया उस्‍समय प्‍लाटीनियस नामी सभासदनें एक बंधुए सै पूछा कि "तुम्‍हारे लिये कौन्सी सजा मुनासिब है ?" बंधुएनें जवाब दिया कि "जो अपनी स्‍वतन्त्रता चाहनें वालोंके वास्‍ते मुनासिब हो" इस उत्‍तरसै और सभासद अप्रसन्‍न हुए पर प्‍लाटीनियस प्रसन्‍न हुआ और बोला "अच्‍छा ! राजसभा तुम्‍हारा अपराध क्षमा कर दे तो तुम कैसा बरताव रक्‍खो ?" "जैसा हमारे साथ राजसभा ररक्खे" बंधुआ कहनें लगा "जो राजसभा हमसे मानपूर्वक मेल करेगी तो हम सदा ताबेदार बनें रहैंगे परन्तु हमारे साथ अन्‍याय और अपमान सै बरताव होगा तो हमारी वफादारी पर सर्वथा विश्‍वास न रखना" इस जवाब सै और सभासद अधिक चिड़ गए और कहनें लगे कि "इस्‍मैं राजसभा को धमकी दी गई है" प्‍लाटीनियसनें समझाया कि "इस्‍मैं धमकी कुछ नहीं दी गई. यह एक स्‍वतन्त्र मनुष्‍य का सच्‍चा जवाब है" निदान प्‍लाटीनियस के समझानें सै राजसभा का मन फ़िर गया और उस्‍नें उन्‍हें कैदसै छोड़ दिया.

"मेसीडोनके बादशाह पीरसनें कैदियोंको छोड़ा उस्‍समय फ्रेबीशियस नामी एक रूमी सरदारको एकांतमैं लेजा कर कहा "मैं जान्‍ता हूँ कि तुम जैसा बीर, गुणवान स्‍वतन्त्र, और सच्‍चा मनुष्‍य रूमके राजभरमैं दूसरा नहीं है जिस्‍पर तुम ऐसे दरीद्री बनरहे हो यह बड़े खेदकी बात है ! सच्‍ची येग्‍यताकी कदर करना राजाऔं का प्रथम कर्तव्‍य है इस लिये मैं तुमको तुम्‍हारी पदवी के लायक धनवान बनाया चाहता हूँ परन्तु मैं इस्मैं तुम्‍हारे ऊपर कुछ उपकार नहीं करता अथवा इसके बदले तुमसै कोई अनुचित काम नहीं लिया चाहता. मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि उचित रीति सै अपना कर्तव्‍य सम्पादन किये पीछे न्‍यायपूर्वक मेरी सहायता होसके सो करना." फ्रेबीशियसनें उत्‍तर दिया कि "निस्सन्देहमैं धनवान नहीं हूँ. मैं एक छोटे से मकान मैं रहता हूँ और जमीन का एक छोटासा किता मेरे पास है परन्तु ये मेरी ज़रूरत के लिये बहुत है और ज़रूरत सै ज्‍यादा लेकर मुझको क्‍या करना है ? मेरे सुखमैं किसी तरह का अन्तर नहीं आता मेरी इज्‍जत और धनवानों सै बढ़कर है, मेरी नेकी मेरा धन है मैं चाहता तो अबतक बहुतसी दौलत इकट्ठी करलेता परन्तु दौलतकी अपेक्षा मुझको अपनी इज्‍जत प्‍यारी है इस लिये तुम अपनी दौलत अपनें पास रक्‍खो और मेरी इज्‍जत मेरे पास रहनें दो."

"नोशेरवां अपनी सेना का सेनापति आप था. एकबार उस्‍की मंजूरी सै खजान्चीनें तन्‍ख्‍वाह बांटनें के वास्‍तै सब सेना को हथियार बंद होकर हाजिर होनें का हुक्‍म दिया पर नोशेरवां इस हुक्‍मसै हाजिर न हुआ इस लिये खजान्चीनें क्रोध करके सब सेनाको उलटा फेर दिया और दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ तब तीसरी बार खजान्चीनें डोंड़ी पिटवाकर नोशेरवांको हाजिर होनें का हुक्म दिया. नोशेरवां उस हुक्म के अनुसार हाजिर हुआ परन्तु उस्की हथियार बंदी ठीक न थी. खजान्चीनें पूछा "तुम्‍हारे धनुषकी फाल्‍तू प्रत्‍यंचा कहां है ?" नोशेरवांनें कहा "महलोंमैं भूल आया" खजान्चीनें कहा "अच्‍छा ! अभी जा कर ले आओ" इस्‍पर नोशेरवां महलोंमैं जाकर प्रत्‍यंचा ले आया तब सब की तनख्‍वाह बटी परन्तु नोशेरवां खजान्चीके इस अपक्षपात काम सै ऐसा प्रसन्‍न हुआ कि उसे निहाल कर दिया. इस प्रकार सच्‍ची सज्‍जनता के इतिहासमैं सैकड़ों दृष्‍टांत मिल्ते हैं परन्तु समुद्रमैं गोता लगाए बिना मोती नहीं मिलता"

"आप बार, बार सच्‍ची सज्‍जनता कहते हैं सो क्‍या सज्‍जनता सज्‍जनतामैं भी कुछ भेदभाव है ?" लाला मदनमोहननें पूछा.

'हां सज्‍जनता के दो भेद हैं एक स्‍वाभाविक होती है जिस का वर्णन मैं अब तक करता चला आया हूँ. दूसरी ऊपरसै दिखानें की होती है जो बहुधा बड़े आदमियों मैं उन्‍के पास रहनें वालों मैं पाई जाती है बड़े आदमियों के लिये वह सज्‍जनता सुंदर वस्‍त्रों के समान समझनी चाहिए जिस्‍को वह बाहर जाती बार पहन जाते हैं और घर मैं आते ही उतार देते हैं. स्‍वाभाविक सज्‍जनता स्‍वच्‍छ स्‍वर्ण के अनुसार है जिस्‍को चाहे जैसे तपाओ, गलाओ परन्तु उस्‍मैं कोई अन्तर नहीं आता. ऊपर सै दिखानें वालों की सज्‍जनता गिल्‍टी के समान है जो रगड़ लगते ही उतर जाती है ऊपर के दिखानें वाले लोग अपना निज स्‍वभाव छिपाकर सज्‍जन बन्‍नें के लिये सच्‍चे सज्‍जनों के स्‍वभाव की नकल करते हैं परन्तु परीक्षा के समय उन्‍की कलई तत्‍काल खुल जाती है, उन्‍के मन मैं बिकास के बदले संकुचित भाव, सादगी के बदले बनावट, धर्म्‍म प्रबृत्ति के बदले स्‍वार्थपरता और धैर्य के बदले घबराहट इत्‍यादि प्रगट दिखनें लगते हैं. उन्का सब सदभाव अपनें किसी गूढ़ प्रयोजन के लिये हुआ करता है परन्तु उन्‍के मन को सच्‍चा सुख इस्‍सै सर्वथा नहीं मिल सक्‍ता.