परीक्षा-गुरु - प्रकरण-4 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

परीक्षा-गुरु - प्रकरण-4

परीक्षा-गुरु

-----×-----

प्रकरण-४

-----×-----

मित्रमिलाप (!)

लाला श्रीनिवास दास

दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,

आदरसों ढिंगबूला य , अर्धासन देतसो ।।

हितसोंहियमैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,

कहत सुनत अति सुभाय, आ नंद भरि लेत जो ।।

ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,

छलमैं पंडितमहान् कपटको निकेतवो।।

ऐसो नाटक विचित्र, देख्‍यो न कबहु मित्र,

दुष्‍टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको ? । ।[6]

लाला मदनमोहन को हरदयाल सै मिलनें की लालसा मैं दिन पूरा करना कठिन होगया वह घड़ी, घड़ी घन्टे की तरह देखते थे और उखताते थे, जब ठीक चार बजे अपनें मकान सै सवार होकर मिस्‍तरीखानें मैं पहुँचै यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फर्मायश सै नई चाल की बन रही थीं उन्‍के लिये बहुतसा सामान वलायत सै मंगवाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह सै वह बनाई जाती थीं. लाला मदनमोहन नें कह रक्‍खा था कि "चीज़ अच्‍छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा हम करेंगे" निदान लाला मदनमोहन इन बग्गियों को देख भाल कर वहां सै आगा हसनजान के तबेले में गये और वहां तीन घोड़े पांच हजार, पांच सो रुपे मैं लेनें करके वहां सै सीधे अपनें बाग 'दिलपसंद' को चले गये.

यह बाग सबजी मंडी सै आगे बढ़ कर नहर की पटड़ी के किनारे पर था इस्‍की रविशों के दोनों तरफ़ रेलिया की कतार, सुहावनी क्‍यारियों मैं रंग, रंग के फूलों की बहार, कहीं हरी, हरी घासका सुहावना फर्श, कहीं घनघोर वृक्षों की गहरी छाया, कहीं बनावट के झरनें, और बेट, कहीं पेढ़ और टट्टियों पर बेलों की लपेट. एक तरफ़ को संगमरमर के एक कुंड मैं तरह, तरह के जलचर अपना रंग ढंग दिखा रहे थे बाग के बीच मैं एक बड़ा कमरा हवादार बहुत अच्‍छा बना हुआ था उस्‍के चारों तरफ़ संगमरमर का साईवान और साईवान के गिर्द फव्वारों की कतार लगी थी. जिस समय ये फव्वारे छुटते थे जेठ बैसाख को सावन भादों समझ कर मोर नाच उठते थे. बीच के कमरे मैं रेशमी गलीचे की बड़ी उम्‍दा बिछायत थी और बढिया साठन की मडी हुई सुनहरी कौंच, कुर्सियाँ जगह, जगह मोके सै रक्‍खी थीं. दीवार के सहारे संगमरमर की मेजोंपर बड़े, बड़े आठ काच आम्‍नें-साम्‍नें लगे हुए थे. छत मैं बहुमूल्‍य झाड़ लटक रहे थे, गोल बैजई और चौखूटी मेजों के गुलदस्‍ते, हाथीदांत, चंदन, आबनूस, चीनी, सीप और काच वगैरेके के उम्‍दा, उम्दा खिलौनें मिसल सै रक्‍खे थे, चांदी की रकेबियों मैं इलायची, सुपारी चुनी हुई थी. समय, तारीख, बार, महीना बतानें की घड़ी, हारमोनियम बाजा, अंटा खेलनें की मेज, अलबम्, सैरबीन, सितार और शतरंज बगैरे मन बहलानें का सब सामान अपनें, अपनें ठिकानें पर रक्‍खा हुआ था. दिवारों पर गच के फूल पत्तों का सादा काम अबरख की चमक सै चाँदी के डले की तरह चमक रहा था और इसी मकान के लिये हजारों रुपे का सामान हर महीनें नया खरीदा जाता था.

इस्‍समय लाला मदनमोहन को कमरे मैं पांव रखते ही बिचार आया कि इस्‍के दरवाजों पर बढिया साठन के पर्दे अवश्‍य होनें चाहियें उसी समय हरकिशोर के नाम हुक्‍म गया कि तरह, तरह की बढिया साठन लेकर अभी चले आओ, हरकिशोर समझा कि "अब पिछली बातों के याद आनें सै अपनें जी मैं कुछ लज्जित हुए होंगे चलो सवेरे का भूला सांझ को घर आजाय तो भूला नहीं बाजता" यह बिचार कर हरकिशोर साठन इकट्ठी करनें लगा पर यहां इन्बातों की चर्चा भी न थी. यहां तो लाला मदनमोहन को लाला हरदयाल की लौ लगरही थी. निदान रोशनी हुए पीछे बड़ी देर बाट दिखाकर लाला हरदयाल आये. उन्को देखकर मदनमोहन की खुशी की कुछ हद न‍हीं रही. बग्गी के आनें की आवाज सुनते ही लाला मदनमोहन बाहर आकर उन्‍को लिवा लाए और दोनों कौंच पर बैठ कर बड़ी प्रीति सै बातैं करनें लगे.

"मित्र तुम बड़े निष्ठुर हो मैं इतनें दिनसै तुम्‍हारी मोहनी मुर्ति देखनें-के लिये तरस रहा हूँ पर तुम याद भी नहीं करते" लाला मदनमोहन नें सच्‍चे मन सै कहा.

"मुझको एक पल आपके बिना कल नहीं पड़ती पर क्‍या करूं ? चुगलखोरों के हाथसै तंग हूँ जब कोई बहाना निकालकर आनें का उपाय करता हूँ वे लोग तत्‍काल जाकर लालाजी (अर्थात् पिता) सै कह देते हैं और लालाजी खुलकर तो कुछ नहीं कहते पर बातों ही बातों मैं ऐसा झंझोड़ते हैं कि जी जलकर राख हो जाता है. आजतो मैंनें उन्‍सै भी साफ कह दिया कि आप राजी हों, या नाराज हों मुझसें लाला मदनमोहन की दोस्ती नहीं छूट सकती" लाला हरदयालनें यह बात ऐसी गर्मा गर्मी से कही कि लाला मदनमोहन के मनपर लकीर होगई. पर यह सब बनावट थी. उस्नें ऐसी बातें बना, बना कर लाला मदनमोहन सै "तोफा तहायफ़" मैं बहुत कुछ फायदा उठाया था इस लिये इस सोनें की चिड़िया को जाल मैं फसानें के लिये भीतर पेटे सबघर के शामिल थे और मदनमोहन के मनमैं मिलनें की चाह बढ़ानें के लिये उसनें अब की बार आनें मैं जान बूझ कर देर की थी.

"भाई ! लोग तो मुझे भी बहुत बहकाते हैं. कोई कहता है "ये रुपे के दोस्‍त हैं," कोई कहता है "ये मतलब के दोस्‍त हैं" पर मैं उनको जरा भी मुंह नहीं लगाता क्‍योंकि मुझ को ओथेलो की बरबादी का हाल अच्‍छी तरह मालूम है" लाला मदनमोहन नें साफ मन सै कहा पर हरदयाल के पापी मन को इतनी ही बात सै खटका हो गया.

"दुनिया के लोगों का ढंग सदा अनोखा देखनें मैं आता है उन्‍मैं सै कोई अपना मतलब दृष्‍टांत और कहावतों के द्वारा कह जाता है, कोई अपना भाव दिल्लगी और हंसी की बातों मैं जता जाता है, कोई अपना प्रयोजन औरों पर रखकर सुना जाता है, कोई अपना आशय जताकर फ़िर पलट जानें का पहलू बनायें रखता है, पर मुझको ये बातें नहीं आतीं. मैं तो सच्‍चा आदमी हूँ जो मनमैं होती है वह ज़बान सै कहता हूँ जो जबान से कहता हूँ वह पूरी करता हूँ" लाला हरदयाल नें भरमा भरमी अपना संदेह प्रगट करके अन्त मैं अपनी सचाई जताई.

"तो क्‍या आपको इस्‍समय यह संदेह हुआ कि मैंनें बहकानें वालों पर रख कर अपनी तरफ़ सै आपको "रुपेका दोस्‍त" और "मतलब का दोस्‍त" ठैराया है ?" लाला मदनमोहन गिड़ गिड़ा कर कहनें लगे "हाय ! आपनें मुझको अबतक नहीं पहचाना. मैं अपनें प्राणसै अधिक आपको सदा समझता रहा हूँ. इस संसार मैं आपसै बढ़कर मेरा कोई मित्र नहीं है जिस्‍पर आपको मेरी तरफ़ सै अबतक इतना संदेह बन रहा है मुझको आप इतना नादान समझते हैं. क्‍या मैं अपनें मित्र और शत्रु को भी नहीं पहचान्‍ता ? क्‍या आप सै अधिक मुझको संसार मैं कोई मनुष्‍य प्‍यारा है ? मैं कलेजा चीरकर दिखाऊं तों आपको मालूम हो कि आपकी प्रीति मेरे हृदय मैं कैसी अंकित हो रही है !"

"आप वृथा खेद करते हैं. मैं आपकी सच्‍ची प्रीति को अच्‍छी तरह जान्ता हूँ और मुझको भी इस संसार मैं आप सै बढ़कर कोई प्यारा नहीं है. मैंनें दुनिया का यह ढङ्ग केवल चालाक आदमियों की चालाकी जतानें के लिये आपसै कहा था आप वृथा अपनें ऊपर ले दोड़े. मुझको तो आपकी प्रीति का यहां तक विश्‍वास है कि सूर्य चन्‍द्रमा की चाल बदल जायगी तो भी आप की प्रीति मैं क़भी अन्तर न आयगा" लाला हरदयालनें मदनमोहन के गले मैं हाथ डाल कर कहा.

"प्रीति के बराबर संसार मैं कौन्‍सा पदार्थ है ?" लाला मदनमोहन कहनें लगे "और सब तरह के सुख मनुष्‍य को द्रव्‍य सै मिल सक्ते हैं पर प्रीति का सुख सच्‍चे मित्र बिना किसी तरह नहीं मिल्‍ता जिस्‍नें संसार मैं जन्‍म लेकर प्रीति का रस नहीं लिया उसका जन्‍म लेना बृथा है इसी तरह जो लोग प्रीति करके उस्‍पर द्रढ़ नहीं वह उस्‍के रस सै नावाफिक है."

"निस्सन्देह ! प्रीति का सुख ऐसा ही अलौकिक है. संसार मैं जिन लोगों को भोजन के लिये अन्‍न और पहन्ने के लिये वस्‍त्र तक नहीं मिल्‍ता उन्‍को भी अपनें दु:ख सुख के साथी प्राणोपम मित्र के आगे अपना दु:ख रोकर छाती का बोझ हल्‍का करनें पर, अपनें दुखों को सुन, सुन कर उस्‍के जी भर आनें पर, उस्‍के धैर्य देनें पर, उस्‍के हाथ सै अपनी डबडबाई हुई आंखों के आंसू पुछ जानें पर, जो संतोष होता है वह किसी बड़े राजा को लाखों रुपे खर्च करनें सै भी नहीं होसक्ता" लाला हरदयाल नें कहा.

"निस्सन्देह ! मित्रता ऐसीही चीज है पर जो लोग प्रीति का सुख नहीं जान्‍ते वह किसी तरह का इस्‍का भेद नहीं समझ सक्ते" लाला मदनमोहन कहनें लगें.

"दुनियां के लोग बहुत करके रुपे के नफे नुक्‍सान पर प्रीति का आधार समझते हैं. आज हरगोविंद नें लखनऊ की चार टोपियां मुझको अठारह रुपेमैं ला दी थीं इस्‍पर हरकिशोर जल गये और मेरी प्रीति बढ़ानें के लिये बारह रुपे में वैसी ही टोपियां देनें लगे. इन्‍के निकट प्रीति और मित्रता कोई ऐसी चीज है जो दस पांच रुपे की कसर खानें सै बातों मैं हाथ आसक्ती है !"

"हरकिशोरनें हरगोविंद की तरफ़सै आपका मन उछांटनें के लिये यह तद्वीर की हो तो भी कुछ आश्‍चर्य नहीं." हरदयाल बोले "मैं जान्ता हूँ कि हरकिशोर एक बड़ा"-

इतनेंमैं एकाएक कमरे का दरवाजा खुला और हरकिशोर भीतर दाखल हुआ. उसको देखतेही हरदयाल की जबान बंद हो गई और दोनों नें लजाकर सिर झुका लिया.

"पहलै आप अपनें शुभ चिन्‍तकों के लिये सजा तजवीज कर लीजिये फ़िर मैं साठन मुलाहजें कराऊंगा. ऐसे वाहियात कामौं के वास्‍ते इस जरूरी काम मैं हर्ज करना मुनासिब नहीं. हां लाला हरदयाल साहब क्‍या फरमा रहे थे "हरकिशोर एक बड़ा-" क्‍या है ?" हरकिशोरनें कमरे मैं पांव रखते ही कहा.

"चलो दिल्‍लगी की बातैं रहनें दो लाओ, दिखलाओ तुम कैसी साठन लाए हो ? हम अपनी निज की सलाह के वास्‍ते औरों का काम हर्ज नहीं किया चाहते" लाला हरदयाल नें पहली बात उड़ाकर कहा.

"मैं और नहीं हूँ पर अब आप चाहे जो बना दैं मुझको अपना माल दिखानें मैं कुछ उज्र नहीं पर इतना बिचार है कि आजकल सच्‍चे माल की निस्‍बत नकली या झूंटे माल पर ज्‍याद: चम‍क दमक मालूम होती है. मोतियों को देखिये चाहै मणियों को देखिये, कपड़ों को देखिये, चाहै गोटे किनारी को देखिये, जो सफाई झूंटे पर होगी वो सच्‍चे पर हरगिज न होगी इस लिये मैं डरता हूँ कि शायद मेरा माल पसन्द न आय" हरकिशोरनें मुस्कराकर कहा.

"तुम कपड़ा दिखानें आए हो या बातोंकी दुकानदारी लगानें आए हो ? जो कपड़ा दिखाना हो तो झट पट दिखा दो नहीं तो अपना रस्‍ता लो. हमको थोथी बातों के लिए इस्‍समय अवकाश नहीं है" लाला मदनमोहननें भौं चढ़ा कर कहा.

"यह तो मैंनें पहले ही कहा था अच्‍छा ! अब मैं जाता हूँ फ़िर किसी वक्‍त हाजिर होऊंगा"

"तो तुम कल नो, दस बजे मकान पर आना" यह कह कर लाला मदनमोहन नें उसै रूख़सत किया.

"आपस मैं क्‍या मजे की बातैं हो रही थीं न जानें यह हत्‍या बीच मैं कहां सै आगई" लाला हरदयाल बोले.

"खैर अब कुछ दिल्‍लगी की बात छेडिये !" लाला मदनमोहन नें फरमायश की.

निदान बहुत देर तक अच्‍छी तरह मिल भेट कर लाला हरदयाल अपनें मकान को गए और लाला मदनमोहन अपनें मकान को गए.