घीसू
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
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घीसू
सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बाहरबडी ह्रश्वयारी स्वर-लहरी गूँजने लगती। घीसू को गाने का चस्का था। परन्तुजब कोई न सुने, वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता।
जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप होजाता। अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोईनया कुआँ खोजता, कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता।
सब करने पर भी वह नौ बजे नंदू बाबू के कमरे में पहुँच ही जाता। नंदू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू कोदेखते ही वह कह देते - आ गए, घीसू!
तो, यह तुम्हारा यार आ गया।
बिंदो ने घूमकर देखा - घीसू! वह रो पडी।
अधेड ने कहा - ले, चली जा, मौज कर! आज से मुझे अपना मुँह मत दिखाना!
घीसू ने कहा - भाई, तुम विचित्र मनुष्य हो। लो, चला जाता हूँ।
मैंने तो छुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना, इधर चलाआया। मुझे तुम्हारे झगडे से क्या सम्बन्ध!
मैं कहाँ ले जाऊँगा! तुम जानो, तुम्हारा कम जाने। लो, मैं जाता हूँ कहकर घीसू जाने लगा।
बिंदो ने कहा - ठहरो!
घीसू रुक गया।
बिंदो ने फिर कहा - तो जाती हूँ - अब इसी के संग...।
हाँ-हाँ, यह भी क्या पूछने की बात है!
बिंदो चली, घीसू भी पीछे-पीछे बगीचे के बाहर निकल आया।सडक सुनसान थी। दोनों चुपचाप चले। गोदौलिया चौमुहानी पर आकरघीसू ने पूछा - अब तो तुम अपने घर चली जाओगी!
कहाँ जाऊँगी! अब तुम्हारे घर चलूंगी।
घीसू बडे असमंजस में पडा। उसने कहा - मेरे घर कहाँ? नंदूबाबू की एक कोठरी है, वहीं पडा रहता हूँ, तुम्हारे वहाँ रहने की जगहकहाँ!
बिंदो ने रो दिया। चादर के छोर से आँसू पोंछती हुई, उसने कहा- तो फिर तुमको इस समय वहाँ पहुँचने की क्या पडी थी। मैं जैसाहोता, भुगत लेती! तुमने वहाँ पहुँचकर मेरा सब चौपट कर दिया - मैंकही की न रही।
सडक पर बिजली के उजाले में रोती हुई बिंदो से बात करने मेंघीसू का दम घुटने लगा। उसने कहा - तो चलो।
दूसरे दिन, दोपहर को थैली गोविंदराम के घाट पर रखकर घीसूचुपचाप बैठा रहा। गोविंदराम की बूटी बन रही थई। उन्होने कहा - घीसू,आज बूटी लोगे?
घीसू कुछ न बोला।
गोविंदराम ने उसका उतरा हुआ मुँह देखकर कहा - क्या कहें घीसू!आज तुम उदास क्यों हो?
क्या कहूँ भाई! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूँ - कोई छोटी-सी कोठरी मिल जाती, जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता।
गोविंदराम ने पूछा - जहाँ रहते थे?
वहाँ अब जगह नहीं है।
इसी मढी में क्यों नहीं रहते! ताला लगा दिया करो, मैं तो चौबीसघंटे रहता नहीं।
घीसू की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए।
गोविंद ने कहा - तो उठो, आज तो बूटी छान लो।
घीसू पैसे की दुकान लगाकर अब भी बैठता है और बिंदो नित्यगंगा नहाने आती है। वह घीसू की दुकान पर खडी होती है, उसे वहचार आने पैसे देता है। अब दोनों हँसते नहीं, मुस्कराते नहीं।
घीसू का बाहरी ओर जाना छूट गया है। गोविंदराम की डोंगी पर उस पार हो आता है, लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तानसुनाई पडती है; किन्तु घाट पर आते-आते चुप।
बिंदो नित्य पैसा लेने आती। न तो कुछ बोलती और न घीसू कुछ कहता। घीसू की बडी-बडी आँखों के चारों ओर हल्के गड्ढो पड गएथे। बिंदो उसे स्थिर दृष्टि से देखती और चली जाती। दिन-पर-दिन वहयह भी देखती कि पैसों की ढेरी कम होती जाती है। घीसू का शरीर भी गिरता जा रहा है। फिर भी एक शब्द नहीं, एक बार पूछने का कामनहीं।
गोविंदराम ने एक दिन पूछा - घीसू, तुम्हारी तान इधर सुनाई नहीं पडी।
उसने कहा - तबीयत अच्छी नहीं है।
गोविंद ने उसका हाथ पकडकर कहा - क्या तुम्हें ज्वर आता है?
नहीं तो, यों ही आजकल भोजन बनाने में आलस करता हूँ, अण्डबण्ड खा लेता हूँ।
गोविंदराम ने पूछा - बूटी छोड दी है, इसी से तुम्हारी यह दशाहै।
उस समय घीसू सोच रहा था - नंदू बाबू की बीन सुने बहुत दिनहुए, वे क्या सोचते होंगे।
गोविंदराम के चले जाने पर घीसू अपनी कोठरी में लेट रहा। उसेसचनुच ज्वर आ गया।
भीषण ज्वर था, रात-भर वह छटपटाता रहा। बिंदो समय पर आई,मढी के चबूतरे पर उस दिन घीसू की दुकान न थी। वह खडी रही।फिर सहसा उसने दरवाजा धकेलकर भीतर देखा - घीसू छटपटा रहा था!
उसने जल पिलाया।
घीसू ने कहा - बिंदो। क्षमा करना; मैंने तुम्बे बडा दुःख दिया।अब मैं चला। लो, यह बचा हुआ पैसा! तुम जानो भगवान... कहतेकहते उसकी आँखें टंग गई। बिंदो की आँखों से आँसू बहने लगे। वहगोविंदराम को बुला लाई।
बिंदो अब भी बची हुई पूँजी से पैसे की दुकान करती है। उसका यौवन, रुपरंग कुछ नहीं रहा। बचा रहा-थोडा-सा पैसा और बडा-सा पेट और पहाड-से आनेवाले दिन!