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बिसाती

बिसाती

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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बिसाती

उधान की शैल-माला के नीचे एक हरा-भरा छोटा-सा गाँव है।वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उनकेझोपडों को भर देता है। तलहटी के हिम-शीतल झरने उसको अपनेबाहुपाश में जकडे हुए है। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्ध-संगीत निरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प और लहर उत्पन्न करता है।

दाडिम के लाल फूलों की रंगीली छाया सन्ध्या की अरुण किरणोंसे चमकीली हो रही थी। शीरीं उसी के नीचे शिलाखंड पर बैठी हुईसामने गुलाबों का झुरमुट देख रही थीष जिसमें बहुत से बुलबुल चहचहारहे थे, वे समीरण के साथ छूल-छुलैया खेलते हुए आकाश को अपने कलरव से गुंजित कर रहे थे।

शीरीं ने सहसा अपना अवगुंठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँसपडी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था।

मकरन्द मुँह में भरे दो नील-भ्रमर उस गुलाब से उडने में असमर्थ थे,भौंरों के पद निस्पन्द थे। कँटीली झाडियों की कुछ परवाह न करते हुएबुलबुलों का उसमें घुसना और उड भागना शीरीं तन्मय होकर देख रहीथी।

उसकी सखी जुलेखा के आने से उसकी एकान्त भावना भंग हो गई।अपना अवगुंठन उलटते हुए जुलेखा ने कहा - “शीरीं! वह तुम्हारे हाथोंपर आकर बैठ जानेवाला बुलबुल, आज-कल नहीं दिखलाई देता?”

आह खींचकर शीरीं ने कहा - “कडे शीत में अपने दल के साथ मैदान की ओर निकल गया। वसन्त तो आ गया, पर वह नहीं लौटआया।”

“सुना है कि ये सब हिन्दुस्तान में बहुत दूर तक चले जाते हैं।क्या यह सच है, शीरीं?”

“हाँ ह्रश्वयारी! उन्हें स्वाधीन विचरना अच्छा लगता है। इनकी जाति बडी स्वतन्त्रता-प्रिय है।”

“तूने अपनी घुंघराली अलकों के पाश में उसे क्यों न बाँधलिया?”

“मेरे पाश उस पक्षी के लिए ढीले पड जाते थे।”

“अच्छा लौट आवेगा - चिन्ता न कर। मैं घर जाती हूँ।” शीरींने सिर हिला दिया।

जुलेखा चली गई।

जब पहाडी आकाश में सन्ध्या अपने रंगीले पट फैला देती, जबविहंग केवल कलरव करते पंक्ति बाँधकर उडते हुए गुंजान झाडियों कीओर लौटते और अनिल में उनके कोमल परों से लहर उठती, जब समीरअपनी झोंकेदार तरंगों में बार-बार अँधकार को खींच लाता, जब गुलाबअधिकाधिक सौरभ लुटाकर हरी चादर में मुँह छिपा लेना चाहते थे; तबशीरीं की आशा-भरी दृष्टि कालिमा से अभिभूत होकर पलकों में छिपनेलगी। वह जागते हुए भी एक स्वह्रश्वन की कल्पना करने लगी।

हिन्दुस्तान के समृद्धिशाली नगर की गली में एक युवक पीठ परगट्ठर लादे घूम रहा है। परिश्रम और अनाहार से उसका मुख विवर्ण है।

थककर वह किसी के द्वार पर बैठ गया है। कुछ बेचकर उस दिन कीजीविका प्राह्रश्वत करने की उत्कंठा उसकी दयनीय बातों से टपक रही है,परन्तु वह गृहस्थ कहता है - “तुम्हें उधार देना हो तो दो, नहीं तो अपनीगठरी उठाओ। समझे आगा?”

युवक कहता है - “मुझे उधार देने की सामर्थ्य नहीं।”

“तो मुझे भी कुछ नहीं चाहिए।”

शीरीं अपनी इस कल्पना से चौंक उठी। काफिले के साथ अपनीसम्पि्रूद्गा लादकर खैबर के गिरि-संकट को वह अपनी भावना से पदाक्रान्तकरने लगी।

उसकी इच्छा हुई कि हिन्दुस्तान के प्रत्येक गृहस्थ के पास हम इतनाधन रख दें कि वे अनावश्यक होने पर भी उस युवक की सब वस्तुओंका मूल्य देकर उसका बोझ उतार दें, परन्तु सरला शीरीं निस्सहाय थी।

उसके पिता एक क्रूर पहाडी सरदार थे। उसने अपना सिर झुका लिया।कुछ सोचने लगी।

सन्ध्या का अधिकार हो गया। कलरव बन्द हुआ। शीरीं की साँसोंके समान समीर की गति अवरुद्ध हो उठी। उसकी पीठ शिला से टिकगई।

दासी ने आकर उसको प्रकृतिस्थ किया। उसने कहा - “बेगम बुलारही है। चलिए मेंहदी आ गई है।”

महीनों हो गए। शीरीं का ब्याह एक धनी सरदार से हो गया। झरने के किनारे शीरीं के बाग में शवरी खींची है। पवन अपने एक-एक थपेडेमें सैंकडों फूलो को रुला देता है। मधु-धारा बहने लगती है। बुलबुलउसकी निर्दयता पर क्रन्दन करने लगते हैं। शीरीं सब सहन करती रही।

सरदार का मुख उत्साहपूर्ण था। सब होने पर भी वह एक सुन्दर प्रभातथा।

एक दुर्बल और लम्बा युवक पीठ पर एक गट्ठर लादे सामने आकर बैठ गया। शीरीं ने उसे देखा, पर वह किसी ओर देखता नहीं। अपनासामान खोलकर सजाने लगा।

सरदार अपनी प्रेयसी को उपहार देने के लिए काँच की ह्रश्वयाली और कश्मीरी सामान छाँटने लगा।

शीरीं चुपचाप थी, उसके हृदय-कानन में कलरवों का क्रन्दन होरहा था। सरदार ने दाम पूछा। युवक ने कहा - “मैं उपहार देता हूँ,बेचता नहीं। ये विलायती और कश्मीरी सामान मैंने चुनकर लिए हैं। इसमेंमूल्य हीं नहीं, हृदय भी लगा है। ये दाम पर नहीं बिकते।”

सरदार ने तीक्ष्ण स्वर में कहा - “तब मुझे न चाहिए। ले जाओ,उठाओ।”

“अच्छा, उठा ले जाऊँगा। मैं थका हुआ आ रहा हूँ, थोडा अवसरदीजिए, मैं हाथ-मुँह धो लूँ।” कहकर युवक भरभराई हुई आँखों कोछिपाते, उठ गया।

सरदान ने समझा, झरने की ओर गया होगा। विलम्ब हुआ, परवह न आया। गहरी चोट और निर्मम व्यथा को वहन करते कलेजा हाथसे पकडे हुए, शीरीं गुलाब की झाडियों की ओर देखने लगी, परन्तुउसकी आँसू-भरी आँखों को कुछ न सूझता था। सरदार ने प्रमे से उसकीपीठ पर हाथ रखकर पूछा - “क्या देख रही हो?”

“एक मेरा पालतू बुलबुल शीत में हिन्दुस्तान की ओर चला गयाथा। वह लौटकर आज सवेरे दिखलाई पडा, पर जब वह पास आ गयाऔर मैंने उसे पकडना चाहा, तो वह उधर कोहकाफ की जोर भाग गया।”

- शीरीं के स्वर में कम्पन था, फिर भी वे शब्द बहुत सम्हलकर निकलेथे। सरदार ने हँसकर कहा - “फूल को बुलबुल की खोज? आश्चर्यहै!”

बिसाती अपना सामान छोड गया। फिर लौटकर नहीं आया। शीरींने बोझ तो उतार लिया, पर दाम नहीं दिया।

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