लक्ष्य वनाम् जीवन और ज़मीर(दो कहानी) Pradeep Kumar sah द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लक्ष्य वनाम् जीवन और ज़मीर(दो कहानी)

लक्ष्य (कहानी)-प्रदीप कुमार साह

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कुछ दिन पहले मैं अपने चचेरे भाई से मिलने उनके घर गया. भाभीजी यथासाध्य आवभगत कर मेरा कुशल-क्षेम पूछे फिर गृहकार्य निपटाने में व्यस्त हो गई. उनका छोटे- छोटे बच्चों से भरा-पुरा परिवार था. पूरा परिवार सभी तरह से सुखी और खुश थे, सिवाय इस बात के कि उनके बच्चों में अच्छी बातें सीखने की ललक थोड़ा मंदा था. इस बात के लिए भाभीजी मेरे सामने भी बच्चों को डॉट-फटकार लगाई.

वह सब देख कर मुझे भी थोड़ी चिंता हुई,किंतु सब कुछ समझे बिना किसी से कुछ कहना उचित न समझा. शाम में भाई साहब घर आए. उनसे बातचीत होने लगी. बातचीत के दरम्यान वे बीच- बीच में बच्चों की लापरवाही पर उस पर चिल्लाए भी.किंतु बच्चों पर ज्यादा असर नहीं हुआ. फिर हमलोग खाना खाकर सो गये.

मैं वँहा पूरे एक दिन ठहरा. ऊपरोक्त घटना मानो उस परिवार के दिनचर्या का एक हिस्सा था. मैंने बच्चों को लाड़-प्यार किया और उसे समझने की कोशिश की. बच्चे जल्दी से घुलने-मिलने वालों में से नहीं थे.एक दब्बु था तो दूसरा मुँहफट. किंतु दोनों में एक बात में समानता थी. वह कि उनके मन में क्रोध,घृणा,प्रतिशोध और द्वेष की भावना प्रबल थी.

निःसंदेह मन में वैसी भावना रहने पर संयम और आत्मनिरक्षण कहॉ रह सकता है? इसके बिना जीवन में अपेक्षित सुधार भी कैसे आ सकते हैं? क्रोधादि तो विचार और इच्छा शक्ति को नष्ट कर ही देता है, फिर इस सबके बिना लक्ष्य -निर्धारण कैसे हो सकते हैं?मैं चिंतन करने लगा.

कहते हैं कि लाड़-प्यार से बच्चों का चरित्र बिगड़ जाता है. पर भारतीय इतिहास तो कुछ और भी कहता है. बालक शिवाजी को माता जिजाबाई द्वारा बार-बार समझाया गया और इस योग्य बनाया गया कि वे छत्रपति का अलंकार धारण-योग्य बन गये. बालक चंद्रगुप्त को 'मुरा का बेटा-मौर्य' नाम देकर महान् गुरु चाणक्य ने महान् सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का आधारशिला प्रदान किये. वे सब अलंकार के शब्द लक्ष्य का निर्धारण और प्रतिनिधित्व किये. इस तरह गुरु द्वारा लक्ष्य का निर्धारण किया गया.ततपश्चात उस अलंकार के अनुरुप उनके भावनाओं का विकास हुआ. नेपोलियन बोनापार्ट अपनी ऊर्जा शक्ति स्वयं विकसित की. उन बालकों के अभिभावक, गुरु अथवा स्वयं अपने आकांक्षा के अनुरुप ही लक्ष्य प्रदान किये,जैसा सभी अभिभावक करते हैं. संभवतः उन्होंने भी अत्यधिक लाड़-प्यार न किया हो, किंतु उन्होंने सम्यक उपाय जरुर किये. संभवतः बच्चों की निंदा वे करते हों,किंतु निंदा करने की उनकी नियति थी इतिहास में इस बात के कोई जिक्र नहीं हैं.

अंग्रेजी के एक पुरानी कहावत है, जिसका आशय है कि छड़ी का टूटना और बच्चों का सुधरना.यानि बच्चों की पिटाई इस कदर करने की सलाह दी गई है कि वह इतना भयभीत हो जाये कि हर कही बात मानने लगे. जहाँ भय हो वहाँ घृणा और द्वेष न हो अथवा प्रेम हो ,यह किस तरह संभव है? वह घृणा और द्वेष क्रमशः क्रोध और प्रतिशोध के बीज नहीं हैं क्या! फिर एक कार्य जो उत्साह पुर्वक किया जाता है और वही भयभीत होकर अथवा अति-उत्साह से किया जाए तो प्रतिफल एक-सा हो सकता है? कदाचित ऐसा संभव नहीं है.

यह परम सत्य है कि मनुष्य लक्ष्य-विहिन रह कर जीवन पथ में प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकते. यह सच है कि बालपन में लक्ष्य निर्धारित हो जाने से आशानुकुल प्रगति हो सकता है. यह भी कि अबोध बच्चे हेतु लक्ष्य का निर्धारण उसके अभिभावक को करने ही होते हैं,जो उनका दायित्व है. किंतु यह भी एक सत्य है कि सम्यक उपाय रहित लक्ष्य निर्धारण चिर समय तक ठहर नहीं सकता. उपाय ऐसे किये जाए कि बच्चों में इच्छा और विचार शक्ति बनी रहे. तभी वह लक्ष्य प्राप्य होगा. अर्थात बच्चों के प्रति अभिभावक का स्पष्ट लक्ष्य हो कि वह सम्यक उपाय से बच्चों को उनके लक्ष्य से अवगत कराएं एवं उन्हें प्रेरित करें.

मैंने भाभीजी को अपने विचार से अवगत कराया . तर्क-वितर्क के पश्चात् उन्होंने मेरे विचार से सहमति जताई और उक्त विचार को अपनाने का आश्वासन दिया. फिर मैं उनसे अनुमति लेकर अपने घर चला आया.

जीवन और ज़मीर (कहानी)-प्रदीप कुमार साह

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धीरज रसोईघर में उपयोग के छोटे-छोटे काष्ट उपकरण का फेरीवाला था. उसके दोनों पाँव पोलियो ग्रस्त होने से अक्षम था, किंतु वह बहुत साहसी था. वह ह्वील-चेयर से गाँव-गाँव जाता और घुम-घुमकर घोटनी-बेलन जैसी छोटी-मोटी चीजें बेचकर अपनी आजिविका कमाता था.

उस दिन स्टेशन वाले रास्ते से गुजरते हुए सुबह-सुबह बिक्री का अच्छा शकुन हुआ तो उसने शाम तक उसी रास्ते पर ठहर कर व्यापार करने का निश्चय किया.यद्यपि वह कम भीड़-भारवाला रास्ता था,किंतु ट्रेन के आने-जाने अर्थात आगमन-प्रस्थान के समय में वहाँ लोगों की चहल-पहल काफी बढ़ जाती थी.सुबह से उस समय तक के व्यापार से धीरज खुश था.थोड़ी देर बाद एक भिखारी वहाँ आया और उसके बगल में थोड़ा हटकर भीख मांगने बैठ गया. वह नित्य उसी जगह बैठ कर भीख मांगा करता था. भिखारी हृष्ट-पुष्ट था, किंतु उसके पुरे शरीर पर खून रिसते कोढ़ का घाव मालूम होता था. उसे देखकर किसी के भी जी भन्ना जाता. किंतु धीरज उसपर विशेष ध्यान दिए बगैर अपना व्यवसाय करता रहा.

दोपहर का वक़्त हुआ. रास्ते में लोगों की चहल-पहल कम हो गयी थी. धीरज को तेज भुख लगा.उसके पास दोपहर के भोजन के लिए रोटियाँ थी.वह भोजन करने बैठा तो भिखारी को कुछ रोटी खाने दिए. किंतु भिखारी ने रोटी लेने से मना कर दिया. खैर, धीरज भोजन किया और पानी पिया. उसके पश्चात् एक नजर भिखारी पर डाला तो देखा की वह कहीं चला गया है.तब अकेला होने की वजह से और ग्राहक के आगमन नहीं होने से वह सुस्ताने लगा. अभी थोड़ी ही देर हुआ था कि सामने से भिखारी किसी मंहगे दुकान से खाना खरीद कर मुस्कुराते हुए लौटता नजर आया.

भिखारी वापस अपने जगह पर बैठते हुए धीरज से सुना कर कहने लगा,"दरिद्रगी मेरे ताउम्र रहेगी ही,तब अच्छा भोजन करने का मौका क्यों और किसलिये गंवाना? खाना-पीना और बेफिक्र रहना यही तो जीवन के असली मजे हैं."

धीरज को वह सब बेहद अटपटा लगा और उक्त भिखारी का भिक्षाटन करना भी धूर्तता मात्र नजर आने लगा.उसे अब उस भिखारी से घृणा हो रही थी. किंतु उसने प्रत्यक्षत: उसे कोई जवाब न दिये. भिखारी भोजन करने लगा. भोजन करने के बाद उसने लंबी डकार ली और मुस्कुराते हुए धीरज से कहा,"यार, तुम्हारी रोटी तो बड़ी अच्छी थी. तुम्हारी पत्नी बनती है न ?"

इसबार घृणावश धीरज उसकी बातें अनसुनी कर दिया,किंतु भिखारी के दुबारा पूछने पर झल्ला गया,"नही भाई, अपनी वैसी किस्मत कहाँ. अपना रसोई खुद ही तैयार करता हूँ."

"क्यों,घर में और कोई नही हैं?"भिखारी ने ततपरता से पूछा.

"मेरी माता हैं. वह बेहद कमजोर है और बिमार रहती है."धीरज मंदे स्वर में जवाब दिया.

'हा!" उसकी बातें सुनकर भिखारी के मुँह से हैरतज़दा किंतु करुणा मिश्रित आह निकली.तभी स्टेशन पर कोई ट्रेन आई. वहाँ के वातावरण में ट्रेन-इंजन के आवाज का शोर फैल गया. फिर स्टेशन से बाहर आते यात्रीगण दिखे. दोनों अपने-अपने जीविकोपार्जन हेतु तत्पर हो गए. थोड़ी देर बाद वहाँ पूर्व की भाँति यात्रियों का चहल-पहल कम हो गया.फिर धीरे-धीरे वहाँ के वातावरण में बिल्कुल सन्नाटा पसर गया. काफी देर के बाद उस सन्नाटा को चिड़ते हुये भिखारी ने धीरज से पूछा,"रोज कितने कमा लेते हो?"

"महाजन को उसके पैसे देकर पचास-साठ रूपये बचा पाता हूँ."

"बस इतना ही !' भिखारी आश्चर्य से बोला. थोड़ा ठहर कर उसने धीरज से पूछा,"मुझसे दोस्ती करोगे?"

धीरज को भिखारी के आचरण से पहले ही घृणा हो गयी थी, अब भिखारी पर क्रोध भी आ रहा था.किंतु उसने न तो अपने संयम का त्याग किया,न उसे कुछ भी जवाब ही दिये. भिखरी भी धीरज के मनोभाव को समझ कर चुप हो गया. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद भिखारी पुनः धीरज से कहने लगा,"मैं एक अमीर आदमी को जनता हूँ. उसे तुम्हारे जैसे ईमानदार व्यक्ति की जरूरत है. शायद वहाँ तुम्हें कोई अच्छा काम मिल जाए. मेरी सलाह मानकर चलोगे तो बिल्कुल फायदे में रहोगे."

"मुझ विकलांग को कोई नौकरी में भला क्यों रखेगा ?" धीरज शंका जताया.

"मेरी बात मानकर चलो तो सही." भिखारी ने अश्वासन दिया. अच्छा काम मिलने के आशा में धीरज ने भिखारी का विश्वास किया.अभी दोनों मिलकर शाम में उस धनाढ़य व्यक्ति से मिलने जाना तय किया ही था कि सामने स्टेशन से यात्रीगण बाहर आते दिखे.तब दोनों पूर्व की भाँति अपने-अपने जीविकोपार्जन हेतु प्रयत्न करने लगे.इस बार यात्रियों का चहल-पहल जब कम हुआ तब शाम हो चूका था.अब धीरज ने भिखारी से उस धनाढ़य व्यक्ति से मिलवाने के उसके वादे का स्मरण कराया. तभी वहाँ एक मंहगी गाड़ी आकर रुकी और उसका ड्राईवर भिखारी को एक बैग दे गया. भिखारी अपना सारा सामान समेटते हुए धीरज को चलने के लिए तैयार होने बोला और स्वयं एक तरफ लपक कर चला गया.धीरज झटपट तैयार होकर उसका इतंजार करने लगा.

धीरज के सामने तभी एक भद्र पुरुष आकर खड़ा हो गया.सामने एक भद्र पुरुष के हठात् आकर खड़ा होने मात्र के आभास से धीरज सकपका गया,किंतु उस भद्र पुरुष के चेहरे पर धीरज का बरबस नजर पड़ा तो वह बिल्कुल हतप्रभ रह गया. वह वही भिखारी था. वह तो बिलकुल भला-चंगा था और मुस्कुरा रहा था. उसने धीरज से चलने के लिए कहा.तब धीरज के दिमाग काम नही करने लगे. उस व्यक्ति ने धीरज से दुबारा कहा तो वह आगे-पीछे कुछ सोचे बिना उसके साथ इस तरह हो गया मानो एक बेजुवां यंत्र केवल आज्ञा पालन कर रहा हो. ड्राइवर गाड़ी का दरवाजा खोलकर दोनों को बैठाया.

अब गाड़ी चल पड़ी.गाड़ी एक आलीशान बिल्डिंग के अहाते में आकर रुकी.गाड़ी के रुकते ही कुछ लोग उन्हें अंदर ले जाने आए. सभी उतर कर बिल्डिंग में चले गए. धीरज को एक हॉल में ले जाकर बैठाया गया. वह एक आलीशान हॉल था जहाँ उसके जैसे कुछ लोग पहले से बैठे साहब का इन्तजार कर रहे थे. धीरज भी वहाँ बैठ कर अपने बारी का इंतजार करने लगा. उस हॉल के सजावट देखकर धीरज को स्वर्ग सा अनुभव हो रहा था. थोड़ी देर प्रतीक्षारत रहने के बाद उसने देखा कि प्रतिभागियों को एक-एककर साहब के पास बारी-बारी से भेजा जाने लगा. उसने देखा की अन्दर से मिलकर जो प्रतिभागी बाहर आता, वह प्रसन्नचित होता. तथापि वे सब पूरी गोपनीयता बरत रहे थे. इससे साहब से मिलने हेतु धीरज का बेसब्री भी बढ़ता गया. सबके अंत में धीरज की बारी आई,उसे अंदर बुलाया गया.अंदर जाते हुए धीरज की बेचैनी और भी ज्यादा बढ़ गयी. उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा.

अंदर जाने पर सामने कुर्सी पर साहब बैठे दिखे,उसने शिष्टाचारवश उनका अभिवादन किया.ऑफिस स्टाफ उसे बैठा कर बाहर आ गये. सामने वाली कुर्सी पर बैठकर धीरज एक चोर निगाह साहब पर डाला तो एकदम से चौंक गया,"आप ?"

"हाँ तो ! तुम्हें अच्छे काम की तलाश है न?"

"कैसा काम मिलेगा मुझे ?"

"वही काम,जो मैं करता हूँ. बिलकुल उसके योग्य हो."

"किंतु मुझे वह काम मंजूर नहीं."

"क्यों ,क्या बुराई है उसमें ?"

"वह एक काम तो कदापि नहीं हो सकता, बल्कि कोई भी उसे धोखेबाजी और छल-कपट मात्र ही समझने है."

"संसार में बहुतायत लोग एक-दूसरे से छल-कपट रचते रहते हैं. जो थोड़े सीधे-सादे लोग हैं उनके जीवन काफी संघर्षमय हैं."

"संघर्षमय ही तो हैं, नामुमकिन कदापि नहीं. यदि वैसा होता तब वैसे जीवन का विकल्प चुनने से अच्छा उसका त्यागना होता. मैं अपना ज़मीर खोना नहीं चाहता."

"ज्यादा हठ ठीक नहीं. सोचो किसी के पास पैसे हों तो वह अपने बीमार माँ का अच्छे से इलाज करवा सकता है.वह घर-गृहस्ती बसाने का आनंद भी प्राप्त कर सकता है."

"मेरे सारे संस्कार मेरे माँ की देन है,मेरी माँ मेरा जमीर है. उसने अबतक बहुत कष्ट झेले, किंतु सदैव वैसे बुरे कर्म से स्वयं दूर रहीं और मुझे भी हमेशा अच्छे कर्म करने हेतु ही प्रोत्साहित करती रहीं. उसे जिस दिन मालूम होगा कि मैने कपट से धन कमाए हैं; वह जीते-जी मर जायेगी. किंतु वैसा मैं किसी कीमत पर कदापि होने नहीं दूँगा. फिर वैसा गृहस्ती बसाना भी क्या, जब आदमी खुद की नजरों में इतना गिर जाये की आगे कि जिंदगी नर्क ही बन जाये."

"तुम्हारे नजर में मेरी जिंदगी क्या है ?'

"आपके जिंदगी के बारे में मुझे कुछ भी नहीं कहना.किंतु मैं लोगों की नजर में हठी हो सकता हूँ. मेरे दीन-हीन अवस्था से कोई मेरे प्रति उदासीन रह सकता है, मेरी जिंदगी भी कोई जीना नहीं चाहेगा. किंतु मेरे जीवन के बारे में जानकर कोई घृणा तो कतई नहीं करेगा.कृपया अब मुझे जाने की इजाजत दें."

धीरज के जवाब पर उसने कुछ नहीं कहा. घड़ी देखते हुए बोला,"काफी समय हो गए हैं,भोजन का समय हो रहा है. तुम्हें भी भूख लग गए होंगे, चलकर भोजन कर लो."

"भोजन हेतु पूछने के लिये आपका आभार.किंतु रात में माताजी के सामने बैठकर भोजन करने की आदत है, इसलिए कृपया मुझे क्षमा करें कि आपके साथ नहीं आ पाउँगा.यदि हो सके तो कृपया मुझे घर भिजवाने के प्रबन्ध कर दें.आपकी बड़ी मेहरवानी होगी."

"मैं स्वयं उस माता के दर्शनाभिलाषी हूँ जिसके कोख में तुम्हारे जैसे रत्न हुए. इस पापी पर इतनी कृपा तो आवश्य करो."

साहब धीरज को उसके घर छोड़ने स्वयं साथ हो लीये.धीरज के घर में उसकी बीमार माँ टूटे हुये चारपाई पर पड़ी उसका इंतजार कर रही थी. साहब उसके माता के दर्शन कर चरण छुये और उनके सेवा में उनलोगों को सप्रेम स्वादिष्ट उत्तम भोजन करवाए. लौटते वक्त माता को प्रणाम किये और मना करने के वावजूद कुछ धन माता को अर्पित किये. साहब के बारम्बार आग्रह करने पर माता ने उसका अर्पण स्वीकार किया तो उसने स्वयं को अहोभाग्य समझा और वापस लौट गया.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)