आदर्श और मजबूरियाँ,भाग-2 Pradeep Kumar sah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आदर्श और मजबूरियाँ,भाग-2

आदर्श और मजबूरियाँ,भाग-2(कहानी)प्रदीप कुमार साह

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  • 'क्या आपलोगों को उनसे डर लगता है?' बालक ने प्रतिप्रश्न किया. किंतु उनलोगों ने प्रतिप्रश्न के कोई जवाब न दीये. हाँ,उनके सिर प्रतिप्रश्न सुनकर झुक जरूर गये.जिसका तातपर्य था कि उन्हें संचालक से डर लगता है. बालक बोला,"आपको उनसे और बहुत चीज से डर आवश्य लगते होंगे क्योंकि सचमुच आपके कोई सच्चे आदर्श नहीं हैं न,जिसपर आपका संपूर्ण विश्वास हो.फिर आपके यदि कोई आदर्श हैं भी तो वह स्वयं ही कमजोर, प्रतिकूल परिस्थितियों में बदल जाने की प्रवृतिवाले और क्षणभंगुर हैं,तब आपका विश्वास दृढ़ कैसे हों.किंतु मुझे बिल्कुल भी किसी चीज से डर नहीं लगता."

    "वह तुम्हारा आदर्श क्या है?"

    " मेरे एक आदर्श हैं और वह बेहद सबल है.फिर मेरा उसपर संपूर्ण विश्वास भी है. क्योंकि संपूर्ण जगत में एकमात्र,पक्का और सच्चा आदर्श केवल वही हो सकता है और वह है-सत्य. सत्य अर्थात जो मन,वचन और कर्म में प्रेम, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और अहिंसा इत्यादि सद्गुणों और सतकर्मों के खान हैं. सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर हैं. फिर जिसके आदर्श ही शिव हो उसे भय कैसा? जाके राखे साईयाँ मार सके न कोई."

    कुछ दूर ख़ामोशी से चलने के पश्चात बालक पूछा,"क्या आप भी उस आदर्श का लाभ लेना चाहेंगे? क्या आपलोग इस दलदल से बाहर आकर और भयमुक्त जीवन जिते हुये ईमानदारी की रोटी खाना चाहेंगे?"

    सुदृढ़ प्रतिभा के धनी उस बालक के प्रतिप्रश्न से सामना होने पर गुरगे उससे नजर चुराने लगे.किंतु बालक के बारंबार पूछने पर उसे निष्कपट और अपना शुभाकांक्षी समझकर उनके दर्द उनकी जुबाँ पर इन वाक्यों में आ गयी,"इस दलदल में एकबार आकर कोई बाहर नहीं निकल सकता.बाहर आने की जितनी चेष्टा होगी वह उतना ही उसे अपनी तरफ खिंचेगा अन्यथा उसे प्राणभय और तबाही भी दे सकता है."

    बालक भरोसा दिलाया,"ईश्वर पर विश्वास करो.अंगुलिमाल डाकू के तरह ईश्वर के समक्ष शरणागत होकर भय का त्याग करो और धारणा करो कि जाके राखे साईयाँ, मार सके न कोई. फिर अंततः वैसी धारणा को सुदृढ़ कर तड़ (मुक्त) जाओ."

    उस बालक की आपबीती बताते हुए दुकानदार के आँखों में आँसु आ गये जिसे उसने अंगुली से पोछा और बस पड़ाव में मौजूद कुछ संचालन कर्मी के तरफ आँख के इशारा से बताते हुये भावविह्वल होकर पुनः कहने लगा,"साहब देखो, तब तो इन्होंने दबे जबान में ही सही सुधरने की कोशिश करने की बात स्वीकार कर ली.उसे तब तो उसके कहेनुसार ही कर्म करने के आश्वासन दिये और अब हरेक दिन वह बच्चा इन्हें अच्छे कर्म अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने इसके पीछे भागते हैं और ये बालक के नजर में आने से.किंतु उस निर्बोध को अभी तक विश्वास है कि एक दिन येसब सही रास्ते पर आवश्य आ जायेंगे."

    उस चायवाले के चुप हो जाने के पश्चात वहाँ के वातावरण में कुछ क्षण सन्नाटा पसरा रहा,जिसे मैंने जिज्ञासावश दुकानदार से प्रश्न पुछने के रूप में तोड़ा,"किंतु आपलोग उस बच्चे के सत्याग्रह में लंबे समय तक साथ क्यों नहीं देते? यहाँ दुकान लगाना छोड़ कर?"

    "साहब अपनी मजबूरी है कि अपना और अपने परिवार के पापी पेट को किस तरह भरूँ? उन्हें सुधरने में कितने समय लगेंगे और यह शरीर कबतक बिना आहार के टिकेंगे? फिर हमारे अनुपस्थिति में हमारे स्थान पर कोई और दुकान लगाना शुरू कर दिये तो?"

    अपनी जगह पर उसका कहना भी सही था.मैंने बालक की आपबीती सुनने वाले वहाँ मौजूद मुसाफिरों से जानना चाहा कि क्या हमलोग उस बालक की मदद किसी तरह कर सकते हैं? इसपर उन सज्जनों की राय यह आई कि जब स्थानीय लोग ही कुछ नही कर पाते तो हम मुसाफिर भला इसमें क्या मदद कर सकते? वास्तव में उनलोगों का कहना भी तो सही था कि वे भी मजबूर हैं,बिना स्थानीय लोगों के सहयोग के कोई क्या कर सकते? फिर मुसाफिर तो मजबूर ही होते हैं, इसलिये उस महान बालक के सामने से दर्शन मात्र कर धन्य क्यों न हो लिये जाये. मन में वैसे शुभ विचार आते ही शरीर पुलकित हो गए और मैं उससे मिलने हेतु उतावला हो गया.

    वैसा सोचकर उस बालक के सामने गया. वह दिखने में बिलकुल सामान्य बालक था. किंतु उसके बड़े-बड़े कार्य के स्मरण कर उससे पूछा,"आपके बारे में बहुत कुछ सुने हैं.वह सब किस तरह संभव हुआ?"

    "मैंने तो कुछ किया ही नहीं, ईश्वर की जो मर्जी है वही तो होते हैं." उसने मुस्कुरा कर जवाब दिये.

    "आपके ईश्वर-विश्वास के सम्बंध में सुने हैं,और आपके वचन में अब वह महशुश भी हो रहा है.परंतु क्या आपके ईश्वर के साक्षात दर्शन हुए ?"मैं आश्चर्य से पूछा.

    "ईश्वर की प्रतिमाऐं बनवाकर लोग जिस रूप में पूजते हैं,उसी रूप में उनके दर्शन तो कदापि नहीं हुये, किंतु ईश्वर कहाँ नहीं हैं."

    "यदि ईश्वर के निर्दिष्ट रूप में दर्शन नहीं हुए, यदि भविष्य में उनकी परोक्ष मदद भी निर्दिष्ट समय पर न आये तब उस परिस्थिति में इस विश्वास के क्या होगें?"

    " यदि मुझे यह विश्वास भी हो जाये कि वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं हैं तब भी मैं हठ पूर्वक उसे (सत्य)अपना आदर्श मानूँ. फिर मेरे साथ मेरे आदर्श तो होंगे? यद्यपि आदर्शहीन जीवन किसी काम के नहीं. वैसे जीवन से न तो कोई वांछित सफलता पाते हैं और ना प्रसन्नता पाते हैं. फिर बिना आदर्श के एक जीवन की कल्पना तो हो भी नहीं सकती. तब जीवन में एक आदर्श वैसा ही क्यों न हो जो सदैव प्रेम, प्रसन्नता, असीमित धैर्य और साहस दे. और वह चीज केवल सत्य के पालन से मिल सकते हैं."

    "आपके विचार अतिउत्तम हैं, किंतु मुझे क्षमा करें कि मैं आपके विचार से सहमत होकर भी कुछ करने का साहस नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मैं महज एक मुसाफिर हुँ."

    "कोई बात नहीं,इस संसार में सभी मुसाफिर मात्र हैं." उसने अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेरे किंतु मैंने अपना हाथ जोड़ लिया.हमारा निर्दिष्ट बस भी आ चूका था इसलिये उससे विदा लेकर बस में सवार हो गया.मैं सीट पर आकर राहत महशुश किया और खिड़की से बाहर झाँका. उसने मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुये मुझे बाय-बाय कहा फिर मेरे नजर से ओझल हो गया.जब बस प्रस्थान का समय हुआ तो बस चल पड़ा और धीरे-धीरे पड़ाव से बाहर निकल कर सड़क पर आ गया. मैं सीट से चिपकर अपनी आँखे बंदकर लिये और अपने शरीर तथा सिर को सीट के सहारे ढीला छोड़ दिया.

    अपनी आँखे बंद रखकर सुषुप्तावस्था में होंने पर भी खिड़की के शीशे से टकरा कर उत्तपन्न होती हवा की सरसराहट और गाड़ी के इंजन की ध्वनि में आई बदलाहट तथा सड़क वो टायर के घर्षण से उत्तपन्न होती चर्चराहट से मुझे अहसास हुआ कि अब शहर से बाहर खुले सड़क पर बस अपने पूरे रफ़्तार से दौड़ रही थी.ततपश्चात अब मै विचार गंगा में डूबने उतराने लगा. मेरे नजर में जितने भी लोग आये सभी की अपनी-अपनी मजबूरियाँ थी. किंतु वह लड़का पहला और संभवत: आखिरी मनुष्य था जिसे शायद कोई मजबूरी न थी.क्या सचमुच उसकी कोई मजबूरी नहीं थी या उसे मजबूरियाँ परेशान नहीं करती थी.अथवा वह स्वयं इतना सशक्त था कि शायद उसने अपने घर और बाहर की मजबूरियों पर अकेले ही विजय प्राप्त कर लिये थे. क्या वैसी दुर्घटनाओं की वजह से उसे अपने माता-पिता और सम्बंधियों के विरोध झेलने नहीं होते थे, क्या उसे स्कुल,अपने सहपाठी और अपनी पढ़ाई की परवाह न थी? क्या उसने अपना भविष्य संवार और सुरक्षित कर लिया था अथवा उसने मृत्यु पर ही विजय पा लिये थे.

    वास्तव में वैसा कुछ नही था.प्रत्येक प्राणिमात्र का यह स्वभाव है कि वह सुख चाहते हैं और सम्भावित हरेक जोखिम से यथासम्भव बचना भी चाहते हैं. किंतु संसार में बिना जोखिम उठाये एक भी काम नहीं होते.यह सभी जानते हैं, फिर मनुष्य मात्र की यह कोशिश होती है कि न्यूनतम जोखिम उठाकर अत्यधिक प्रतिफल प्राप्त किये जायें. अथवा न्यूनतम प्रतिफल देनेवाले जोखिम बाद में उठाया जाये.वह टालने वाली प्रवृति एक सीमा तक उचित है.किंतु कुछ जोखिम वैसे भी होते जिसे उठाना अनिवार्य होते हैं किंतु वह भविष्य में प्रतिफल देतें हैं.उसके प्रतिफल बहुआयामी और सदैव शुभता देने वाले होते हैं. चूँकि वह भविष्य में प्रतिफल देने वाले होते हैं इसलिए उसे बारम्बार टालने की कोशिश होती है. फिर टालने की उस प्रवृति के ढ़कने हेतु एक और कोशिश होती है जिसे मजबूरी का नाम देकर स्वयं और दूसरे को समझाने के प्रयत्न होते हैं.वास्तव में वह बारम्बार टालने की प्रवृति ही एक वास्तविक मजबूरी है.एक कहावत है कि यदि एक झूठ सौ बार दुहराया जाये तो वह सत्य सा प्रतीत होता है. इसी तरह बारम्बार मजबूरी शब्द दुहराते रहने से उत्तरोत्तर हमारा मन और हमारी कार्य क्षमता प्रभावित होती है और हमारी आत्म शक्ति भी दुर्बल हो जाते हैं.

    तभी बस कंडक्टर टिकट जांचवाने हेतु बोल कर मेरे ध्यान भंग किये. मैंने अपना टिकट दिखालाया. यह कंडक्टर हँसमुख स्वभाव और खुशमिजाज थे. उसी बात का फायदा उठाते हुए मैंने कंडक्टर से उक्त बालक के बारे में अधिक जानने के लिहाज से उसके सम्बंध में पूछा. उस बालक के बारे में वह अच्छी तरह जानता था और मैंने मानो उसके दुःखते रग पर हाथ डाल दिये थे. वह बेचैन होते हुए बोला,"साहब, हम जैसे खोटे किस्मत के लोगों से कुछ मत पूछो.कोई हमारे भले के लिये आवाज बुलंद करता है और हमारी केवल मजबूरियाँ ही मजबूरियाँ हैं, हर जुल्म देखने,सहने और चुप रह जाने की. कभी-कभी जी में आता है कि वैसा जीवन ही जीना किस काम के?"

    इतना कहते कहते उसके चेहरे का भाव बदल गया, आँखों में बेवसी झलकने लगी.धत वह भी कोई प्रश्न था? जिससे कुछ समय के लिए ही सही एक खुशमिजाज और भला व्यक्तित्व न जाने कहाँ गुम हो गये.कंडक्टर कुछ समय के लिये खामोश होकर खुद को संभालने की कोशिश करने लगा तो मैंने भी उसकी स्थिति देखकर उस सम्बंध में और अधिक पूछना उचित न समझा.फिर वह अपने काम में लग गया और मै पुनः अपने उधेड़-बुन में फंस गया.

    उसने सच ही तो कहा, इस वर्ग की मजबूरियाँ कम थोड़े न हैं, जब स्थानीय जनमानस, दुकानदार, पुलिस और मुसाफिरों की अपनी-अपनी मजबूरी हैं फिर इस वर्ग का क्या औकात? मैं कल्पना करने लगा कि यदि सामने एक पत्रकार अथवा कोई प्रेस या मिडिया रिपोर्टर होता तो इस मामले में उसके क्या राय होती? यही न कि जब जनसामान्य,पुलिस-प्रशासन,नेता-मंत्रालय सभी वर्गों की मजबूरियाँ हैं तो हमारा वर्ग नैसर्गिक थोड़े न है.फिर किसी अकेले पत्रकार की हैसियत ही क्या.अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ते.फिर कहाँ अंडर वर्ल्ड के रईस और कहाँ वह हजार- पन्द्रह सौ रुपये महीना कमाने वाला एक निरीह पत्रकार.फिर उसके पीछे खड़े रहने वाले प्रकाशक वर्ग और मिडिया समूह के अपने व्यवसायिक समस्या हैं. आजकल तो सी.सी.टीवी कैमरे के बदौलत खुलासा होकर खबर भी आने लगे हैं कि मिडिया समूह वर्ग में भी कुछ ईमान बेचने और ब्लैकमेल करने पर उतारु हो गए हैं. फिर कौन सा रिपोर्टर अकेला किस तरह निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने की जहमत उठाए? रही बात साहित्यकारों की, सो गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, विद्यापति,रहीम और कबीरदास से बढ़कर कौन हुये? इनके प्रयत्न के सेनापति अपने लिपिकीय योद्धा के साथ तो पुस्तकिया बैरक में ही फंसे रह जाते हैं और उस बैरक रूपी कन्दराओं से बाहर आ ही नहीं पाते.

    इतना कुछ विचारने के बाद मुझे महशुश हुये कि जितने भी मत्वपूर्ण वर्ग और हस्तियाँ हैं सभी मजबूर हैं. साथ में सब को संरक्षण प्रदान करने वाले जनसाधारण वर्ग भी मजबूरी से पीड़ित हैं.मैंने निश्चय किया कि मैं भी कोई विशिष्ठ व्यक्ति नहीं हूँ,बल्कि इन्ही जनसामान्य में एक हूँ. इसलिये, बेशक मेरे एक भी आदर्श न हों लेकिन मेरी कोई तो मजबूरी होंनी ही चाहिये? नही भी हुये तो इस मजबूरी नामक झूठे शब्द को रोजाना सौ बार बोलूंगा और अपने इस नादान हृदय को समझाऊँगा कि तुम तो मजबूर हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता. ऐ मन,तू धीरज धर! पृथ्वी पर जब-जब पाप बढ़ता है, धर्म की हानि होती है तब तब पापियों के उद्धार करने स्वयं ही प्रभु आते हैं. इसलिये निश्चिंत रहो और मौन रहकर इतने पाप वृद्घि होने तक इंतजार तो कर लो.

    इस तरह मैं बाकी के पुरे सफर में अपने मन को समझता रहा. रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे और बस मेरे गंतव्य स्थान-मेरा गाँव पहुँचा. मैंने बस रुकवाया और अपना सामान लेकर उतर गया.उतरते ही एकबार फिर से मेरे ख्याल में वह बालक आने लगा. मन को उससे जितना मोड़ना चाहता वह हठ पूर्वक उतना ही उधर जाता. मन बिलकुल विचलित होने लगा और पास का समान (बैग)जरूरत से ज्यादा भारी और मजबुरी की पोटली मालूम होने लगा. उसके वजन मुझसे झेले नहीं गये और उसे एक तरफ रख दीये और वहीं धम्म से जमीन पर बैठ गया.

    उसके बाद का मुझे कुछ याद नहीं.कहते हैं ईश्वर सब ही की इच्छा पूरी करते हैं.जो जिस रूप में चाहते हैं उसे उसी रूप में उनके दर्शन होते हैं. उनसे चाहो तो अपना आदर्श बनने हेतु याचना कर अनुग्रहित होओ, वरदान मांगों या मजबूरी के राग अलापने हेतु नि:वरुद्ध कंठ ही मांग लो.यदि मजबूत आदर्श चाहिये तो स्वयं को देखना-जानना होता है अर्थात आत्मनिरीक्षण कर स्वयं में सद्गुण के विकास करने होते हैं.फिर आत्मबल भी सशक्त बनाने होते हैं.यदि मजबूरियों की इच्छा हो तो दूसरे के जन-धन,शील- स्वभाव और परायी चीज ही अधिकाधिक देखनी चाहिये होता है.तुलसीदास जी भी श्री रामचरित्र मानस में कहते हैं कि जिसे जिस चीज से प्रीति होती है उसे वही वस्तु चाहिए होता है.फिर जैसे विचार होते हैं वैसा कर्म होता है.फिर कर्मफल सिद्धांत के अनुरूप जैसा कर्म होता है वैसा प्रतिफल प्रदान करने के लिये ईश्वर बाद्ध्य हैं. और उसी अनुरूप में प्रतिफल स्वरूप ईश्वर के दर्शन भी प्राप्त होते हैं, इसिलिये शायद मुझे तब से स्मृति दोष हो गये.(समाप्त)