Aadarsh aur Majburiya - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

आदर्श और मजबूरियाँ,भाग-1

आदर्श और मजबूरियाँ,भाग-1 (कहानी)प्रदीप कुमार साह

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मेरे अजीज मित्र एक नौकरीपेशा व्यक्ति हैं और वर्तमान में उसकी पोस्टिंग मेरे गाँव से करीब ढ़ाई सौ किलोमीटर दूर एक शहर में है.किंतु पिछले एक दशक से वह सपरिवार स्थाई रूप से मानो उसी शहर में बस गये थे. उसने मुझे किसी ख़ुशी के मौके पर आमन्त्रित किया. मैं उससे मिलने उसके शहर गया और अब वापस अपने गाँव लौट रहा था. उस शहर तक आने-जाने के लिये कोई सीधा रास्ता नहीं है बल्कि करीब आधा रास्ता सड़क मार्ग से और शेष रेल मार्ग से सफर के हैं. मैं ट्रेन से नियत स्टेशन पर अपने सामान के साथ उतरा, सामान के नाम पर तो मेरे पास पीठ से लटकाने वाला एक बैग मात्र ही था जिसमें जरूरत भर सामान भरे थे. बैग ज्यादा भारी नहीं था और आगे सड़क मार्ग के सफर थे. बस पड़ाव भी ज्यादा दूर नहीं था इसलिये बिना किसी इंतजार के बस पड़ाव के तरफ पैदल ही चल दिया.

मैं बस पड़ाव पहुँचकर अपने गाँव से होकर जाने वाले बस के प्रस्थान-समय वगैरह की जानकारी पता करने लगा. उक्त बस का नियत प्रस्थान-समय तब से करीब एक घण्टे बाद थी अर्थात मुझे वहाँ करीब घन्टे भर रुककर बस के आने का इंतजार करने थे. समय शाम के करीब पाँच-साढ़े पाँच हो रहे थे. दिसम्बर के महीना में मौसम सर्द होता है और शाम भी जल्दी हो जाते हैं. मैं बस पड़ाव में एक चाय दुकानदार के पास रुककर चाय पीने लगा. वहाँ रुके हुए कई यात्री सर्द मौसम में गरमागरम चाय का आनन्द ले रहे थे. तभी दुकानदार बारह-चौदह बरस के एक लड़के को देखकर बिलकुल मर्माहत हो गया और हमलोगों से उसे देखने हेतु इशारा करते हुये उसकी आपबीती कहने लगा.लोग चाय के स्वाद का चटकारे लेते हुए उस लड़के को आश्चर्य से देखने लगे और उसके किस्से सुनते हुए विस्मय तथा हमदर्दी में आहें भरते रहे.

वह कोई मामूली सा सरकारी स्कुल का छात्र था जो स्कूली लिबास में था और उसके पीठ पर किताबों का बैग टँगा था. किन्तु सामने उसके गले से एक तख्ती (Sign board) भी लटक रहा था जिसमें लाल रंग में एक हिदायत अंकित था कि वह पागल है,उससे दूरी बनाये रखें और उसके बातों का ध्यान बिलकुल ही मत दो. लड़के को देख कर शायद उस बस पड़ाव के सभी दुकानदार जो संभवत: उसी इलाके के लोग थे इस दुकानदार के भाँति ही मर्माहत थे. वहाँ अपनी ड्यूटी पर मौजूद राज्य सरकार के पुलिस महकमें का एक सिपाही भी था जो उन्हीं दुकानदार के तरह ही मर्माहत होकर अपनी नजर झुका लिये,किंतु आँख के कोने से देखकर शायद उस लड़के का सम्भावित गतिविधि समझने की कोशिश भी कर रहा था. वह लड़का जिधर से गुजरता उधर मौजूद बस पड़ाव के तथाकथित संचालन कर्मी दबे पाँव खिसक लेते.यहाँ तक कि वहाँ मौजूद सदैव कृतघ्न समझे जाने वाले छोटे-बड़े वाहन चालन कर्मी अर्थात ड्राइवर-कंडक्टर भी नतमस्तक हो जाते.

चायवाले ने उस बालक की जो आपबीती बताई वह इस प्रकार थी कि "एक दिन बस पड़ाव संचालन कर्मी अर्थात बस स्टॉप मैनेजमेंट वर्कर्स किसी छोटी-मोटि(मामूली) बात पर किसी छोटे वाहन चालन कर्मियों की बुरी तरह पिटाई कर रहे थे.वहाँ उक्त वाहन चालन कर्मियों की पिटाई चुपचाप देखने वाले बहुतेरे लोग थे, किंतु किसी में प्रतिरोध अथवा बिच-बचाव करने का साहस नहीं था. तभी बस पड़ाव के पास वाले उस रास्ते से एक बालक स्कुल से पढ़ाई कर वापस घर जा रहा था. वह कोमलांग बालक भारी भीड़ देखकर इधर आ गया और यहाँ बीच-बचाव करने का दुस्साहस किया.इस जमाने में जबकि सत्य और अहिंसा नामक शब्द एक मिथक समझे जाते हैं तथा उस धारणा का प्रबल आधिपत्य है कि हारे के हरि नाम या मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी इत्यादि-इत्यादि......वह कोमलांग बालक अहिंसात्मक प्रयोग कर रहे थे.वह प्रयोग जिसे बड़े-बड़े तजुर्बेदार नहीं साध सकते, वह एक मासूम बालक आजमा रहा था.

जवाब में बस पड़ाव संचालन कर्मी भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय की अंग्रेजी तानाशाही जैसे धक्कम-मुक्की करने के कृत्य पर आमादा हो गए.किंतु उस कोमलांग बालक के अति सशक्त मनोबल न टूटे और उसने अपना सत्याग्रह जारी रखे. इससे उन आततायियों के रिष और रोष उत्तरोत्तर बढ़ते गये और उन्होंने अंग्रेजों के तर्ज पर ही दमन करने का रास्ता अख्तियार कर लिये. पहले से पिट रहे वाहन चालन कर्मी बालक की भावी दुर्गति समझ पड़ाव संचालन कर्मियों से निहोरा करने लगा कि वे सब दया कर बालक की पिटाई नही करें.आक्रांत वाहन चालन कर्मी बालक को पूर्णत: नादान समझकर छोड़ देने हेतु दुहाई भी देने लगा, जिसे दर्शक-दीर्घा से दीर्घ मौखिक समर्थन मिलने लगा. किंतु उन आततायियों को उस छोटे से बालक के हाथ अपनी उस तरह पराजय बिल्कुल भी हजम नहीं हो रहा था. उन्होंने बदस्तूर उन लोगों की पिटाई जारी रखे.महज संयोग से उस रास्ते से उसी समय पुलिस पेट्रोलिंग दस्ता गुजर रही थी,जिसे किसी ने अपनी पहचान छुपाते हुए उक्त घटना की गुप्त सुचना दी. गुप्त सुचना पर पुलिस मौके वरदात पर पहुँचकर घायलों को अपने अभिरक्षा में लेकर इलाज हेतु अस्पताल पहुँचाया."

इतना बताने के पश्चात चायवाला थोड़ा ठहरा और एक गहरी साँस अंदर खींचा फिर उसने आगे कहा,"हमारे संसार का एक शाश्वत सत्य यह है कि एक सज्जन के मन में लोभ, ईर्ष्या,क्रोध और घृणा कभी होते ही नही.वे किसी दुर्जन के प्रति भी यथासाध्य उपरोक्त भाव नहीं रखते. बल्कि उन्हें उसके कर्म के प्रतिफल स्वरूप ईश्वर कृपा से वंचित और सत्य से अनभिज्ञ समझकर उसके प्रति भी मन में केवल दया भाव ही रखते हैं.शायद सज्जन के मन में प्रेम और दया के अतिरिक्त कुछ होते भी तो नहीं. वैसे सज्जन से फिर किसी के अस्तित्व को भला क्या खतरा? किंतु संसार का यथार्थ है कि दुर्जन सदैव अपने मनोभाव अनुरूप उसे अपने अस्तित्व पर सबसे बड़े खतरे के रूप में लेते हैं.क्योंकि आशंकित रहना इनका मूल स्वभाव है.इन्हें सज्जन से सदैव भय मालूम होता है.क्योंकि इन्हें पता है कि स्वनुशासन धारण करना कितना कठिन हैं.स्वनुशासन धारण करने हेतु कितने साहस और पराक्रम की आवश्यकता होती है. फिर वैसे लोग इरादे के कितने पक्के और सदैव सजग रहते हैं तथा अन्याय अथवा अनुचित कर्म के धुर विरोधी भी होते हैं.अत:बहुत कुछ करने में समर्थ होते हैं. वे कुछ काम ठान ले तो उन्हें रोक पाना असंभव है."इतना कहते-कहते उसके ललाट पर पसीने की कुछ बूँदें छलक आयी थी.

अपना पसीना पोंछते हुये भी वह बताता रहा,"खैर,पन्द्रह दिन में जब वह बालक इलाज से पूर्ण स्वस्थ हो गया तो अस्पताल प्रबंधन से उसे अवतारण (discharge) की अनुमति मिल गयी. किंतु उस आक्रांत वाहन चालन कर्मियों को पुलिस उठा ले गयी.अस्पताल से बाहर आने पर उस लड़के को किसी तरह पता चला कि दबंग बस पड़ाव संचालक जो पहले से कई गंभीर मामले में अवांछित आरोपी थे, उनके गुरगों और क़ानूनी धाराओं की लचकता के फायदे उठाने में माहिर इन कुख्यात लोगों के तगड़े गैंग की प्रतिशोध की भावना के भय से तथा गवाह के आभाव की मजबूरी से कुछ पुलिस कर्मी इतने डरे-सहमे थे कि उनके द्वारा रिपोर्ट में बालक के जख्मी होने का कारण उन आक्रांत वाहन चालन कर्मियों द्वारा लापरवाही से गाड़ी चलाना ही बताया गया. फिर अनुसंधान में आगे बताया गया कि दुर्घटना होने पर जन-आक्रोश के वजह से वाहन चालन कर्मियों की पिटाई अज्ञात हमलावर के हाथ हुई.

अस्पताल से छूटकर उसने यह भी देखे की वहाँ बस पड़ाव के समुचित संचालन हेतु किसी व्यवस्था में अथवा संचालन कर्मी के किसी व्यवहार में रंच-मात्र(किंचित) बदलाव भी नही आया था.ततपश्चात वह बालक अकेले ही दुबारा सत्याग्रह छेड़ दिया.पहले की भाँति इसबार भी दमन करने की चेष्टा हुई. लड़के की पिटाई हो रही थी कि संयोग से वहाँ मौजूद एक ईमानदार कांस्टेबल से केवल मूकदर्शक बने रह जाना नहीं हुआ और उसने साहस कर अकेले ही आगे आकर बिच-बचाव के प्रयत्न किये. उन बहुतेरे दबंगों के सामने एक मामूली कांस्टेबल की क्या औकात-जिसे क़ानूनी विधि की पूरी जानकारी तक नहीं होती. किंतु आज प्रत्यक्षदर्शियों की जमीर भी शायद अँगड़ाई ले चुकी थी.अब भीड़ द्वारा बस पड़ाव संचालन के प्रबंधक और उनके गुरगों की जमकर पिटाई होने लगी. वे सब अपनी-अपनी जान बचाकर संचालक के पास भागकर गये.पीछे एकमत से वहाँ के सभी वाहन चालक बस पड़ाव संचालक के विरोध में खड़े हो गये.

संसार में बहुत से अच्छे अथवा किसी बुरे काम का होना बिना धन के संभव नहीं हैं. इसलिये सामान्य जनमानस,वाहन चालन कर्मियों और वाहन चालकों के विरोध के खबर पाते ही दबंग संचालक के होश फाख्ता हो गये. धन आगमन के श्रोत बंद होने के आशंका मात्र से संचालक विचलित हो गया.बुद्धिमान के विचार हैं कि यदि शत्रु असाद्ध्य हैं तो उससे जतन कर परहेज कर लेने में ही भलाई है और तत्समय उसने भी दबंगई छोड़ लोगों की बात मान लेना ही उचित समझा. उनसे डरने वाले पुलिसकर्मियों को इस बात की भनक लगी तो मौके का फायदा उठाते हुए और अपनी कर्तव्य निष्ठा निभाने की कोशिश करते हुये उक्त निर्दोष और पड़ाव संचालक से आक्रांत वाहन चालन कर्मी के मामले को गुप्त तरीके से रफा-दफा कर उन्हें मुक्त कर दिये. किंतु वह कार्यवाही उनके दबंग से भयमुक्त होने में आंशिक सफलता पाने मात्र की निशानी भी बिल्कुल नही थी और अब भी उनके समक्ष शायद पूर्व के वही मजबूरीयाँ बनी हुई थी.तभी वेलोग निष्पक्ष जाँच करने का साहस नहीं कर पाये.

संचालक द्वारा लोगों की बातें मान लिये गये जिसका त्वरित असर भी दिखने लगा.लोग उतने सफलता से ही संतुष्ट हो गये, क्योकि अधिक की आशा करना अधिक खतरनाक हो सकता था. फिर सभी के कुछ न कुछ अपनी मजबूरी होती है. किंतु उधर बस पड़ाव के संचालक इस छोटे से बालक के अतुल्य साहस देखकर चकित और भयभीत थे. उसे अपने दबंगई और भय के बलबूते स्थापित अपने साम्राज्य के अस्तित्व पर संकट महशुश हो रहा था. वर्तमान परिस्थिति में वह अपने हिसाब से 'कुछ भी ऐसा-वैसा'नहीं कर सकता था.किंतु उसके पास अब भी एक अचूक उपाय थे जिसके समक्ष अच्छे-अच्छे महारथी घुटने टेक देते हैं. वह इस बालक अथवा उसके अभिभावक के मन में लोभ जागृत तो कर ही सकता था. वैसा करने से उसका भावी खतरा तो टल ही जाता साथ ही बिन ढूंढे उस बालक में एक भावी नमकहलाल दुर्जेय गुरगे का पृष्टभूमि भी तैयार किया जा सकता था.

उसने वह कूटनीति अपनायी. उसने बालक के पिता को बुलवाकर तोहफे में बहुत से धन दिये और बालक की शिक्षा आधुनिक तरीके से करवाने हेतु किसी अच्छे प्राइवेट स्कुल में दाखिला करवाने कहा. उसने बालक के आगे की पढ़ाई का खर्च वहन करने के आश्वाशन भी दिये. साथ में उसे यह अहसास भी कराया गया कि वह बालक को नियंत्रण में रखे अन्यथा भविष्य में उसे सपरिवार गंभीर अंजाम भुगतने होंगे.बालक के पिता के समक्ष कुँए और खाई में किसी एक को स्वेच्छा से चुनने की परिस्थिति उत्तपन्न हो गयी. सामने अजेय शत्रु था, जिसका वह चाहकर भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता था. फिर बालक के मन और शरीर पर जो स्थाई-अस्थाई जख्म हुए किसी तरह उसकी भरपाई तो हो नहीं सकती थी. इसलिये उसने बच्चे पर हुए अत्याचार को स्मृति में दबाकर तोहफा कबूलने में ही अपनी भलाई समझी.

बालक को उस बात की खबर हुई तो उसने स्वयं संचालक से मिलकर उसे अपने वैचारिक विनिश्चय से अवगत कराने का निश्चय किया.शीघ्र ही उसने संचालक से मिलकर उसके समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य को मेहनत और ईमानदारी की कमाई ही सर्वप्रथम करनी चाहिये. अनुचित लाभ लेने की प्रवृति अंततः दुष्कर होती है, इसलिये उसका सदैव त्याग करना चाहिये. वे बातें संचालक के मंसूबे पर कुठारा घात थी. उसे ना शब्द सुनने की आदत नही थी, उसे बालक पर अत्यंत क्रोध आया. किंतु बालक के अद्भुत साहस देखकर वह मन ही मन उसे अपना भावी गुरगा बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिये. वह समझदार और अत्यंत कुटिल तो था ही,उसे अपने मतलब साधने हेतु कुछ भी उपाय करने से कोई गुरेज न था.

उसने तभी गुरगों को बुलवाकर आदेश किया कि वह (बालक) जबभी पड़ाव में अपने कदम रखें उसके गले में एक तख्ती लटका दिया जाये जिसमें चेतावनी में लिखे हों कि "वह पागल है, उसके किसी बात पर कोई ध्यान मत दें."इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाये कि यह जबतक पड़ाव में रहे इसके गले में तख्ती पड़ा रहे. कभी वैसे प्रतिकृति में चूक न हो इसलिए एक अतिरिक्त तख्ती हमेशा तैयार रखो.गुरगों ने स्वीकारोक्ति में अपने सिर हिलाकर सब कुछ समझ जाने के संकेत किये. इसके पश्चात संचालक गर्व से ठहाका लगाते हुये बोला,"आदमी जब मानसिक रूप से टूटता है तो उसके टूटने की आवाज नहीं होती और सारे हेकड़ी भी स्वतः ही फुर्र हो जाते हैं. फिर जाति के बैरी जाति ही होते हैं. एक समाजिक प्राणी को असमाजिक बनाने हेतु एक समाजिक व्यवस्था के इस्तेमाल की आवश्यकता ही होती है.फिर वहाँ अंधों, भेड़ों और सियार की कमी भी नहीं हैं.एक दिन यह भी हमारे कदमों में पड़ा गिड़गिड़ा रहा होगा."

उसके मनसूबे पर बालक मुस्कुरा कर बोला,"यह तो ईश्वर ही जाने कि आपकी मनोकामना कभी पूरी होगी या नही. किन्तु मैं आपको इस बात के लिये आवश्य आस्वस्त करता हूँ कि आपको रोज नये तख्ती के इंतजाम करने के जहमत उठाने नहीं होंगे. क्योंकि मैं जितने समय पड़ाव में रुकूँगा स्वयं ही वह तख्ती अपने गले में धारण रखुँगा."

उसकी बातें सुनकर संचालक जलभुन गया. उसके नेत्र में ज्वाला धधक उठी और वह क्रोध से हथेली आपस में रगड़ने लगा. उसके एक इशारे मात्र से गुरगे बालक को लेकर बाहर आ गए. थोड़ा दूर सभी बिल्कुल ख़ामोशी से चलते रहे. गुरगे उस बालक के अद्भुत साहस के कायल हो गये.वे दबंग संचालक के हाथ बारंबार प्रताड़ित और अपमानित होने से अपने मन में उपजे खुनस में बालक के जवाब का मन में स्मरण कर आश्चर्य जनक शांति महशुस कर रहे थे.किंतु बालक के अद्भुत साहस देखकर उनके मन में अनेक प्रश्न भी उठ खड़े हुये और पूछने हेतु अकुलाहट उनके चेहरे पर स्पष्ट प्रलक्षित होने लगे.आखिरकार अपनी चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने बालक से पूछ ही लिये,"क्या तुम्हे उनसे डर नहीं लगे?'***(क्रमशः भाग-2में)

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