सदाबहार आनंद :
देव आनंद
विनोद विप्लव
अनुक्रम
1.देव आनंद का बचपन
2. सपने का संघर्ष
3. फिल्मी सफर का पहला कदम
4. जिद्दी से मिली पहचान
5. सुरैया से प्यार
6. कामयाबी की बाजी
7. गुरूदत्त से दोस्ती
8. नवकेतन का विस्तार
9. देव आनंद और जीवन संगिनी
10. सिनेमा के गाइड
11. रंगीला रे
12. बाद के दौर की फिल्में
13. गाता रहे मेरा दिल
14. नवकेतन की खोज
15 फिल्मी कैरियर का आंकड़ा
16. राजनीति में देव आनंद
17. अभी न जाओ छोड़कर
18. देव आनंद की प्रमुख फिल्में
19. पुरस्कार, सम्मान और पहचान
20. फिल्मों की सूची
प्रस्तावना
भारतीय सिनेमा के इतिहास में सदाबहार अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले रोमांटिक छवि वाले देव आनंद ने जब 1948 में फिल्मी पर्दे पर दस्तक दी तब हमारा देष आजाद होकर अपनी पहचान की तलाष कर रहा था। उस दौर के सिनेमा पर द्वितीय विश्वयुद्ध, स्वतंत्रता आंदोलन एवं आजाद भारत की स्थापना का व्यापक असर पड़ा। उस दौर में नई पीढ़ी के अभिनेता—अभिनेत्रियों खासकर दिलीप कुमार, राजकपूर व देव आनंद का उदय हुआ जिन्होंने अपनी—अपनी विशिष्ट शैलियों की स्थापना की और आज भी उन शैलियों का अनुसरण आज के नायक कर रहे हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार और भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े षो मैन माने जाने वाले अभिनेता—निर्देषक राज कपूर के साथ मिलकर देव आनंद ने हिंदी सिनेमा को एक मजबूत आधार दिया जिसपर आज पूरा का पूरा बॉलीवुड खड़ा है जिसका विस्तार देष की सरहदों से आगे निकल चुका है और जिसका अरबोंं रुपये का कारोबार है। आजाद भारत के उभरते हुये हिंदी सिनेमा की त्रिमूर्ति का अहम हिस्सा देव थे। देव आनंद, दिलीप कुमार, राज कपूर की इस त्रिमूर्ति ने करोड़ों भारतीयों को हसीन सपने और आदर्ष दिये। उन दिनों आम आदमी का संघर्षपूर्ण जीवन कुछ ऐसा था कि जिस उत्साह से वह ट्रैजिक फिल्मों को पसंद करता था उसी उत्साह से रोमांटिक फिल्मों के मजे लेता था। इन फिल्मों की कहानियां अक्सर भारतीय जनजीवन से उठाई जाती थी और उन कथाओं तथा पात्रों से दर्शक आसानी से आत्मीयता बना लेते थे। हो सकता है कि आज देव आनंद अभिनीत जिद्दी, बाजी, टैक्सी ड्राइवर और गाइड, दिलीप कुमार अभिनीत दीदार, मेला, बाबुल और बिमल राय निर्मित देवदास तथा राजकुमार अभिनीत आवारा, श्री 420 और बरसात जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर करामात नहीं दिखा पाये, लेकिन उन दिनों दर्शकों ने जीवन के सुख—दुख से भरी कुछ सपनोें और आदर्शों को आगे बढ़ाने वाली फिल्मों को खूब पसंद किया।
उन दिनों दिलीप कुमार ने दुखांत फिल्मों के जरिये अपनी खास पहचान बनायी। यह संभव है कि दिलीप कुमार की दुखांत फिल्में आज के दर्शकों को पंसद नहीं आये लेकिन उन दिनों दर्शकों ने इन फिल्मों को खूब पसंद किया। उन फिल्मों में दिलीप कुमार के अभिनय और तलत महमूद की दर्दभरी आवाज के साथ आम आदमी के जीवन की पीड़ा थी। दुखांत फिल्मों को पसंद करना उनके संघर्षपूर्ण जीवन तथा स्वस्थ मन का परिचायक था।
उस समय दिलीप कुमार के समकक्ष राजकपूर थे, जिन्होंने गरीबों, फुटपाथ पर जिंदगी बसर करने वालों और तंगहालों को मार्मिकता के साथ छुआ। दिलीप कुमार और राजकपूर की फिल्मों को उस समय के दर्शकों ने हाथों—हाथ अपनाया। अपनी ट्रैजिक छवि के कारण दिलीप कुमार और अपनी मार्मिक छवि के कारण राजकूपर आम लोगों के नायक बन गये थे। लेकिन इसके बावजूद आजाद हिन्दुस्तान के जनमानस में एक ऐसे रोमांटिक नायक के लिये जगह खाली थी जो उसे रूमानियत, प्यार, उन्मुक्तता और गैलेमर की दुनिया में ले जाये और इस जगह को देव आनंद ने भरा।
अभिनय की विषिश्ट षैली का सृजन करने वाले देव आनंद अभिनय अदायगी के खास अंदाज की बदौलत देखते ही देखते लोगों के दिल की धड़कन बन गए। भारतीय सिनेमा के संभवतः सबसे सुंदर अभिनेता देव आनंद ने झुकी हुयी गर्दन, आँखों के एक कोने से प्यार भरी नजर, स्टाइलिष कपड़े और मासूमियत से भरे चेहरे के जरिये हजारों लड़कियों को अपना दिवाना बना लिया। अपनी मुस्कुराहट, खास तरह की हंसी, हंसने पर दाई ओर नजर आने वाले दांतों के बीच के छोटे से गैप, बेतकुल्लफी से छलकती आंखें और बोलने के अपने अंदाज के जरिये देव आनंद आम लोगों के दिलों में खास तौर पर महिलाओं और लड़कियों के दिलों में बस गये। कहा जाता है कि काले कोट में वह इतने आकर्शक लगते थे कि जब वह सड़क पर चलते तो लड़कियां कूद कर उनके सामने आ जाती। हालांकि यह मिथक था, लेकिन यह मिथक ऐसे ही नहीं बना था, वह देखने में इतने खूबसूरत थे और उनका बातचीत करने का अंदाज इतना रोमांटिक था कि वह जिस लड़की के करीब आते, वह उनकी खूबसूरती एवं उनके अंदाज के माया जाल में फंस जाती। उनके व्यक्तित्व का यह करिष्मा उनके लोकप्रिय अभिनेता बनने पर कायम नहीं हुआ बल्कि उस समय भी था जब वह कुछ बनने के लिये संघर्श कर रहे थे। उनका पूरा मायाजाल ऐसा था कि उनकी छवि ‘‘वूमेन किलर'' की बन गयी। तभी तो उस जमाने की स्टार हिरोइन सुरैया ने कहा था—उसने जैसे ही पहली बार मुझे आलिंगन में लिया था, मैं जान गयी कि यह साधारण आदमी नहीं है। वह प्यार करने और प्यार दिये जाने के लिये बना है। देव आनंद को खुद इस बात का आभास था कि वह हसिनाओं के जन्मजात कातिल हैं और उनके लिये खुबसूरत महिलाओं का दिल जीत लेना उतना ही सहज और आसान था जैसे कि सांस लेना। उनका व्यक्तित्व इतना मनमोहक और आकर्षक था कि महिलायें उन्हें देखकर उन पर लट्टू हो जाती थीं और उनसे आलिंगनबद्ध होने के लिये आतुर हो जाती थीं और ऐसा केवल उस दौर में नहीं था जब वह शोहरत के शिखर पर पहुंच चुके थे बल्कि उस समय भी था जब वह फिल्मों में जगह पाने के लिये जद्दोजहद कर रहे थे। इसके बावजूद उन्होंने किसी औरत को अपने आकर्षण का शिकार बनाकर उनका शोषण नहीं किया। उनका स्वभाव औरतों का आखेट करने का नहीं था।
वह केवल शारीरिक रूप से सुंदर और स्मार्ट नहीं थे बल्कि उनमें आंतरिक सौंंदर्य एवं स्मार्टनेस भी था। किसी के भी साथ होने वाले उनके संवाद में उनका जवाब इंटेलिजेंस से भरा होता था और सामने वाला उनके जवाब को सुनकर प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता था। वह चाहे जिस हाल में हों — जब वह फिल्मों में काम पाने के लिये संघर्ष कर रहे थे तब भी और जब फिल्मों में काम कर रहे थे तब भी, कभी अपने को दयनीय बनने नहीं दिया। उनके व्यक्तित्व में हमेशा आत्म सम्मान का भाव था लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनमें कोई रौब या घमंड था। यहां तक कि फिल्मों में भी वह रौबदार भूमिकाओं में कम दिखे। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि उन्हें दबाया नहीं जा सकता था लेकिन साथ ही साथ वह दूसरों पर रौब भी नहीं जमाते थे। जब दिलीप कुमार मुख्य तौर पर ग्रामीण युवक की भूमिका में और राजकपूर ग्रामीण एवं शहरी दोनों भूमिकाओं में नजर आते थे, देव आनंद फिल्मों में मध्यवर्गीय खूबसूरत शहरी युवक की भूमिका में ही नजर आते थे — जो शहरों में रहता है, गांव से अनजान है। देव आनंद ने चाहे बेरोजगार युवक की, चाहे ब्लैकमेलर की, चाहे स्मगलर की, चाहे धोखेबाज की, चाहे कालाबाजारी करने वाले की और चाहे खूनी की भूमिका की— हर भूमिका में उनका किरदार आधुनिक शहरी स्मार्ट युवक का होता था जो मौके —बेमौके अच्छी अंग्रेजी बोल लेता था। उनका किरदार दिलीप कुमार के देवदास और राजकपूर के आवारा जैसे नायकों की तरह हारा हुआ और दबा हुआ नहीं था बल्कि स्मार्ट, जहीन, खुद्दार और खूबसूरत था जो गरीब, बेरोजगार और कंगाल होने के बाद भी हारना नहीं जानता था बल्कि केवल जीतना जानता था। दिलीप कुमार और राजकपूर की दयनीयता के विपरीत देव आनंद यौवन, स्फूर्ति, स्मार्टनेस और ख्ूाबसूरती के प्रतीक थे। देव आनंद के किरदार ने आजाद भारत के युवकों को प्यार और नैतिकता के लिये ‘‘हारने और मरने'' के बजाय हर हाल में ‘‘जीतना और जीना'' सिखाया।
उम्मीद है कि उस सदाबहार रोमांटिक नायक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित यह पुस्तक पाठकों को पसंद आयेगी जिसने आजाद भारत के लोगों को ‘‘जिंदगी का साथ निभाने तथा हर फिक्र को धुंये में उड़ाने'' की फिलॉसफी सिखायी।
जो मिल गया मैं उसको मुकद्दर समझ लिया।
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया।
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया.......
— विनोद विप्लव
देव आनंद का बचपन
देव आनंद का जन्म २६ सितम्बर १९२३ में पंजाब के गुरदासपुर में हुआ था, जो अब पकिस्तान के नारोवाल जिला में पड़ता है। उनका पूरा नाम धर्म देव पिरोशीमल आनंद था लेकिन उनकी मां उन्हें देव कह कर बुलाती थी और इस कारण परिवार के लोग, निकट के रिष्तेदार एवं दोस्त उन्हें देव कह कर बुलाते थे जबकि पिता देव आन कह कर बुलाते थे। हालांकि स्कूल—कॉलेजों में उनका नाम धर्म देव आनंद ही रहा लेकिन खुद देव आनंद को अपना नाम डीडी रखना पसंद था।
देव आनंद के पिताजी किषोरीमल आनंद गुरुदासपुर जिले में एक जाने माने वकील थे। वह नामी वकील होने के साथ कांग्रेस कार्यकर्ता थे और स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गए थे। देव आनंद के पिताजी किसी भी तरह के भाशण देने में सक्षम थे। वह काफी अध्ययनशील थे और उनकी कई भाशाओं पर गहरी पकड़ थी। उन्हें हिन्दी, अँग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, पंजाबी, अरबी, जर्मन और हिब्रू जैसी भाशाएँ आती थीं। किताबें पढ़—पढ़ कर उन्होंने इन भाशाओं को सीखा था। गीता और कुरान पर उनका अच्छा अधिकार था और बाइबिल के बारे में तो वे सदा कहा करते थे कि अगर अँग्रेजी भाशा सीखनी हो, तो बाइबिल पढ़ो।
उन्होंने ही देव आनंद को गायत्री मंत्र सिखाया था। देव आनंद कहते हैं कि उनके पिताजी उनके सबसे अच्छे गुरु थे। देव आनंद के पिताजी आर्यसमाजी थे और स्वभाव से काफी उदार थे। देव आनंद कभी—कभी अपने पिताजी को मुस्लिम भाईयों के साथ कुरान के बारे में बातें करते हुये सुनते थे। उनके पिताजी कभी—कभी मुहावरे और ष्लोगन भी बोला करते थे।
देव आनंद अपने माता—पिता की पाँचवीं संतान थे। वे कुल नौ भाई—बहन थे। चार भाई और पाँच बहनें। देव तीसरे पुत्र थे। दो बड़े भाई थे, मनमोहन और चेतन आनंद और छोटा भाई विजय आनंद। उनका छोटा भाई विजय आनंद, जिसे प्यार से गोल्डी बुलाते थे, देव आनंद से ज्यादा करीब था। देव आनंद अपने छोटे भाई से कहते थे कि वह हमेषा उसके साथ हैं। देव आनंद षाम के समय खेलने जाते थे तो अपने छोटे भाई को भी साथ लेकर जाते थे। देव आनंद कई बार किक्रेट खेलते थे तो कई बार हॉकी और गुल्ली—डंडा लेकिन उन्हें कंचे खेलना बहुत पसंद था। देव आनंद के पास अलग—अलग तरह के कंचे होते थे जिनको वे अलग—अलग रखते थे। वह अपने पड़ोस के लड़कों के साथ ही ज्यादा खेलते थे। देव आनंद की खेलने की अलग षैली थी और इस कारण उनके काफी दोस्त उनसे चिढ़ते थे।
उनकी मां देव आनंद का खूब ख्याल रखती थीं। सर्दियों के दिनों में देव आनंद को एक मोटे कंबल से लपेट कर रखती थी। वह देव आनंद के लिये स्वेटर बुनती थीं। जब दूध पीने का समय होता था और वह अपने दोस्तों के साथ गली मे खेल रहे होते थे तब उनकी मां उनको बुलाने के लिए खिड़की से चिल्लाती थीं। रात में जब देव आनंद अपने बिस्तर पर सोने जाते थे तो उनकी मां प्यार से कहती थीं कि आंख बंद करके गायत्री मंत्र का जाप करो। जैसे ही वह गायत्री मंच का जाप करने लगती थीं तो उन्हें नींद आ जाती थी मंत्र अधूरा रह जाता था। देव आनंद सपने में अक्सर देखते थे कि वह किसी घोड़े पर बैठकर उड़ रहे हैं।
देव आनंद को फिल्में देखने और फिल्मी पत्रिकायें पढ़ने का शौक था। उन्हें बाबूराव पटेल की पत्रिका ‘फिल्म इंडिया' पढ़ने का चस्का लग गया था। वे रद्दी की दुकान से इस पत्रिका के पुराने अंक खरीद लाते और बड़े चाव से पढ़ते। अच्छे—अच्छे अभिनेताओं को उनकी क्षमता से रूबरू कराने का पटेल का अंदाज, यानी लेखन षैली देव आनंद को बहुत भाती थी। पुरानी पत्रिकाओं के ग्राहक देव आनंद के प्रति दुकानदार को भी लगाव हो गया था, जो पत्रिकाएँ छाँटकर अलग रख लेता और कभी—कभी मुफ्त में भी दे देता। इसी दुकान पर एक दिन देव आनंद ने सुना कि अपनी फिल्म ‘‘बंधन'' (1940) के प्रीमियर के लिए अषोक कुमार गुरदासपुर आने वाले हैं। जब अशोक कुमार आये तो उन्हें देखने के लिये भारी भीड़ उमड़ पड़ी। लोग अशोक कुमार से मिलने ओर उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिये उतावले हो रहे थे लेकिन देव आनंद दूर खड़े होकर अपने प्रिय कलाकार को श्रद्धा से अभिभूत होकर देखते रहे।
प्रषंसकों की भीड़ में भी अषोक कुमार को निर्विकार भाव से षांतिपूर्वक सबसे मिलते देख देव को आष्चर्य हुआ। वह उनके जीवन का एक विषेश क्षण था, जब उनके दिमाग में यह विचार आया—अगर आगे की पढ़ाई के लिए विदेष नहीं जा सका तो फिल्म स्टार बन जाऊँगा।
देव आनंद ने लाहौर के एक सरकारी कॉलेज में अंग्रेजी अॉनर्स से बी.ए. की परीक्षा पास की और वह एम.ए. करना चाहते थे। उनकी दोनों छोटी बहनों ने लाहौर के सर गंगा राम स्कूल से पढ़ाई की थी। उनके बड़े भाई गुरुदासपुर में वकालत की प्रैक्टिस करते थे लेकिन उन दिनों वह महात्मा गांधी जी के सत्याग्रह के चलते लाहौर की एक जेल में बंद थे। उनके दूसरे भाई चेतन आनंद मुंबई में फिल्मों में काम कर रहे थे।
उन दिनों लाहौर को फैषनेबल षहरों में से एक माना जाता था और देव आनंद जिस कॉलेज में पढ़ते थे उसमें देष के विषिश्ट वर्ग के छात्र पढ़ने आते थे। उस कॉलेज के छात्रों को देष का युवा एलीट कहा जाता था और इनमें से ज्यादातर छात्र आगे की पढ़ाई के लिये इंगलैंड जाते थे। देव आनंद भी आगे की पढ़ाई के लिए विदेष के किसी कॉलेज में जाना चाहते थे। देव आनंद दिमाग से बहुत होषियार थे। उन्होंने भी इग्लैंड जाने की योजना बनाई। उनका नाम भी उन भारतीय लड़कों में आया जो आगे की पढ़ाई के लिए विदेष जा रहे थे। लेकिन उन दिनों उनके पिता जीवन के बहुत बुरे दौर से गुजर रहे थे। उनके पास अपने तीसरे बेटे — देव आनंद की आगे की पढ़ाई के लिए रुपये नहीं थे। उसी दौरान देव आनंद को भारतीय नेवी की नौकरी से भी रिजेक्ट कर दिया गया था। इसका रिजल्ट सुनकर देव आनंद के आंखों में आंसू आ गये। इसके बाद देव आनंद ने एक बैंक में क्लर्क की नौकरी कर ली। लेकिन देव आनंद की मंजिल नौकरी नहीं थी— उनके अपने सपने थे जिन्हें वह पूरा करना चाहते थे लेकिन वह कोई निर्णय लेने से घबरा रहे थे। आखिरकार उन्होंने फिल्मों में हाथ आजमाने के लिए मुंबई जाने को ठान लिया।
सपने का संघर्ष
जिस दिन वह अपने घर से बंबई जाने के लिये निकले उस समय उनकी जेब में 30 रुपये थे और कंधे से लटकते थैले में दुलर्भ डाक टिकटों का संकलन था और आंखों मेंं फिल्म अभिनेता बनने के सपने थे। वह फरंटियर मेल के तीसरी क्लास में यात्रा करके सपनों की नगरी में अपना भाग्य आजमाने पहुंच गये। यहां पहुंचने पर उन्हें यह समझने में ज्यादा समय नहीं लगा कि सपनों की यह नगरी लोगों को सपने तो बहुत दिखाती है लेकिन उन सपनों को पूरा करने के लिये खून के आंसू रोने पड़ते हैं। देव आनंद भरपूर इरादे के साथ माया नगरी आये थे इसलिये इतनी जल्दी हार मानने का सवाल नहीं था।
देव आनंद रोज स्टूडियो के चक्कर लगाते रहते थे और फिल्मी दुनिया के जाने—माने लोगों से मिलते थे। देव आनंद जिनसे भी मिलते थे उनके मन को भा जाते थे। वह लोगों को प्रभावित करने के लिए अपनी पंसदीदा फिल्मों के गाने भी गाते थे। लेकिन देव आनंद को मुंबई में काम मिलने में काफी लंबा समय लग रहा था और अपनी बेरोजगारी के कारण षमिर्ंदा भी होने लगे थे।
इस बीच बंबई में उनकी मुलाकात ख्वाजा अहमद अब्बास से हुयी जो जाने—माने फिल्म पत्रकार थे। अब्बास ने देव आनंद को अपने घर में रहने की पेषकष की और कुछ दिनाें तक उनके ही साथ रहे। लेकिन एक दिन अचानक देव आनंद ने अपना समान उठाया और कहा कि वह यहां से जा रहे हैं। उनके गांव का एक व्यक्ति बंबई में है और उसी के साथ रुकना चाहते है। अब्बास साहेब ने कहा, ‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा।'' लेकिन उन्होंने देव आनंद को उनसे संपर्क बनाये रखने की सलाह दी।
देव आनंद जब अब्बास साहब के घर से निकले थे तो उनके पास कोई पैसे नहीं थे, लेकिन देव आनंदके पास हिम्मत और उत्साह की कमी नहीं थी। उन्हें हर हाल में अपने बहुरंगी सपनों को संवारना था। वह सामने आती एक बस में बैठ गये और ”विक्टोरिया टर्मिनस“ पहुंच गये। बस से उतरकर हॉर्नबाई रोड की तरफ पैदल चलने लगे। उन्हें जोर की भूख लगी थी। उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला कि षायद जेब में एक—दो रुपया पड़ा हो। लेकिन सभी जेबें खाली थीं। जेब में केवल एक रुमाल पड़ा था और कुछ नहीं। पैदल चलते हुये ही देव आनंदषिवाजी पार्क पहुंच गये। उस समय तक भूख और बढ़ गयी। सड़क के दोनों ओर मिठाइयों, फलों और जूस की दुकानें थी जो उनकी भूख और प्यास को और बढ़ा रही थी। सामने पुराने टिकटों को बेचने वाला दिख गया। अचानक उन्हें अपनी जरूरत को पूरी करने का रास्ता सूझ गया। उन्हें उस आदमी के पास टिकटों का अपना अनमोल अलबम बेच दिया जिसे वह वर्शों से संभाल कर रख रहे थे। इस अलबम को बेचने पर उन्हें 30 रूपये मिले जिससे कुछ और दिनों तक बंबई में गुजारा कर सकते थे। उन्हें अपनी प्यास मिटाने के लिये लेमनेड की एक बोतल खरीदी। उन्हें इतनी तेज की प्यास लगी थी कि एक घूंट में लेमनेड की आधी बोलत गटक गये। इसके बाद आधा दर्जन केले खाकर भूख मिटायी। अपनी प्यास और भूख मिटाकर जब आगे बढ़ रहे थे तो उन्हें किसी ने आवाज दी। उन्होंने घूम कर देखा — उन्हें आवाज देने वाला कोई और नहीं उनके बचपन का दोस्त तारा था। तारा ने उन्हें बताया कि वह अपने भाई के साथ परेल में एक चाल में रहता था। तारा ने देव आनंद को अपने साथ रहने की पेषकष की। कृश्णा निवास नाम की यह यह चाल परेल में केईएम हॉस्पिटल के सामने थी। पांच फ्लोर वाली इस चाल में एक—एक कमरे वाले मकान थे और हर मकान में अलग—परिवार रहते थे। हर फ्लोर पर रहने वाले सभी परिवारों के लिये एक बाथरुम था। देव आनंद उस चाल में तारा और उसके भाई के साथ कुछ महीने बिताए। तारा और उनके भाई ने हमेषा देव आनंद को प्रोत्साहित किया और मदद भी की। तारा और देव आनंद सुबह चाल से निकल जाते थे और काम की तलाष में दिन भर भटकते रहते थे। हर षाम जब दोनों दिन भर थककर लौटते तो चाल की गली के कोने पर स्थित उदीपी रेस्टोरेंट गरमा—गरम इडली और मसाला डोसा खाते थे जो वहां काफी मषहूर था। जल्द ही टिकटों के एलबम बेच कर कमाये गये 30 रुपये खत्म हो गये। इस दौरान देव आनंद ने फिल्मों में काम मांगने के लिए कई लोगों के दरवाजे खटखटाए लेकिन उन्हें सिर्फ निराषा हाथ लगी। इस बीच देव आनंद को क्लर्क की नौकरी करने का एक अॉफर मिला। उन्होंने यह नौकरी कर ली। उन्हें 85 रुपये का मासिक वेतनमान भी तय हुआ। देव आनंद पूरे दिन व्यस्त रहने लगे। लेकिन देव आनंद को क्लर्क की नौकरी अच्छी नहीं लगी। इसका एक कारण यह भी था कि गणित में देव आनंद का हाथ तंग था। इससे पहलेे कि देव आनंद को नौकरी से निकाला जाता, खुद ही नौकरी छोड़ दी।
उसी दौरान ब्रिटिष आर्मी के सेंसर आफिस की ओर से नौकरी का विज्ञापन निकला। ब्रिटिष आमी को वैसे लड़कों की जरूरत थी जो अंग्रेजी बोल सकें। देव आनंद ने आवेदन दिया दिया। उन्हें इंटरव्यू के लिये बुलाया गया। देव आनंद का इंटरव्यू आर्मी के एक मेजर साहब ने लिया। जब उन्होंने देव आनंद से उनकी खासियत के बारे में पूछा गया तब जवाब में देव आनंद ने बड़े ही गर्व से बताया कि उन्होंने लाहौर के प्रसिद्ध सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी आनर्स में स्नातक किया है। उन्हेंं नौकरी पर रख लिया गया। सेंसर अॉफिस में देव आनंद का पहला काम भारत में सैन्य अड्डों पर तैनात भारतीय और ब्रिटिष आर्मी अधिकारियों द्वारा भेजे जाने वाले एवं उनको लिखे जाने वाले पत्रों को सेंसर करना था। यह बहुत ही रोचक किस्म का काम था। देव आनंद को जो पत्र दिये जाते थे — उन्हें खोलकर पत्र के एक—एक षब्द को पढ़ना होता था। कुछ पत्र काफी अच्छे ढंग से लिखे होते थे। आर्मी अधिकारियों के ये पत्र अलग—अलग भाशाओं में लिखे होते थे और देव आनंद को उस विभाग में रखा गया था जिसमें केवल हिन्दी और अंग्रेजी में लिखे पत्र आते थे। इनमें से कई पत्र वैसे होते थे जो सेना अधिकारी अपनी पत्नी या प्रेमिका को लिखते थे। ऐसे पत्रों को बहुत चाव से पढ़ते थे क्योंकि इन्हें पढ़कर उन्हें घर से दूर रह कर काम करने का उर्जा मिलती थी। घर—परिवार से दूर रहते—रहते देव आनंदतन्हा महसूस कर रहे थे और एक तरह से अनिष्चितकालीन मौत के साये में जी रहे थे। वैसे में देव आनंद के लिए आर्मी अधिकारियों के कई पत्र प्रेरणा एवं शिक्षा देने के भी काम करते थे जो खुद घर—परिवार से दूर किसी मोर्चे पर तैनात थे।
देव आनंद जिस डेस्क पर काम करते थे वहां करीब दस लोग थे और इनमें से ज्यादातर जवान, खूबसूरत और पढ़ी—लिखी लड़कियां थी। इन लड़कियों को देष भर से चुना गया था। देव आनंद अपने सहयोगियों के बहुत प्रिय थे। देव आनंदके साथ काम करने वालों में से कुछ को लंच के दौरान अपने साथ काला घोडा ले जाते थे जहां एक साथ बैठकर आपस में विभिन्न विशयों पर चर्चा करते थे। ये षहर में विभिन्न सिनेमा घरों में चल रही अंग्रेजी फिल्मों और उन दिनों के मषहूर प्रोडक्षन हाऊस की बात करते थे। यह हालीवुड का स्वर्ण युग था और की बात करते थे जैसे कि जेम्स स्टेवर्ट, गैरी कूपर, स्पेंकर ट्रेसी, रोनाल्ड कोलमेन, रार्बट डोनार्ट, क्लार्क गैबल, पॉल मुनी, इनग्रिड बर्गमैन जैसे कलाकारों दुनिया भर में छाये हुये थे और देव आनंदभी इन कलाकारों में से कुछ की बोलने और एक्टिंग की स्टाइल आदि की नकल करने का प्रयास भी करते थे।
यह 1945 के आसपास का दौर था। द्वितीय विष्वयुद्ध समाप्त ही हुआ था।देश संक्रमण काल से गुजर रहा था और विश्व युद्ध के बाद अपनों बुरे हालातों से उभरने की कोषिष में जुटा था और अपने पैरों पर खड़ा होने में लगा था। उस समय हर जगह बेरोजगारी का आलम था। बम्बई में अपने सपने को साकार करने के लिये संघर्ष कर रहे कई नौजवानों की तुलना में अमीर थे। देव आनंद को हर हीने सेंसर आफिस से 165 रुपये मिलते थे जो उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी था। इसलिये वह अपने संघर्षशील साथियों की मदद भी करते थे और उनकी छोटी—छोटी जरुरतों के लिए उन्हें नकद भी दे दिया करते थे और कभी—कभी पैसे वापस लेना भूल भी जाते थे।
इसके बावजूद देव आनंद को हर समय लगता था कि सेंसर अॉफिस की नौकरी उन्हें नीचे लेकर जा रही थी, यह उनका ज्यादा समय ले रही थी। एक मेज पर बैठे रहना और लोगों को क्या पसंद है क्या नहीं हमेषा यहीं पढ़ते रहना। इस नौकरी ने फिल्म अभिनेता बनने की देव आनंद की योजना को चौपट कर दिया था। देव आनंद ने फिल्मी दुनिया के लोगों से मिलने का प्लान बनाया था, लेकिन इस नौकरी के कारण वह किसी से मिल नहीं पा रहे थे। वह हमेशा सोचते और संकल्प करते — ‘‘फिल्म के लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। भाग्य कभी किसी के पास नहीं आता। तुम्हें भाग्य के पास चलकर खुद पहुंचना होता है।'' यह सोच—सोच कर देव आनंद की बैचेनी बढ़ती जा रही थी। उसी दौरान देव आनंद आत्म —आलोचना के मूड में एक ऊंचे दर्जे के आर्मी अॉफिसर का पत्नी को लिखा खत पढ़ रहे थे। उस खत की एक पंक्ति ने देव आनंद को हिलाकर रख दिया। अधिकारी ने पत्नी को लिखा था, ‘काष मैं अभी यह नौकरी छोड़ सकता, तो अभी सीधा तुम्हारे पास आता और तुम्हारी बाहों में होता'।
‘‘काश, यह नौकरी छोड़ सकता'' — इन षब्दों ने देव आनंद को संकल्प से भर दिया और आधे—अधूरे निर्णय को पूरा करने के लिए एक कठिन फैसला लेने का रास्ता दिखाया। देव आनंद ने अचानक एक निर्णय लिया कि वह अपने भाग्य की लड़ाई लड़ेंगे। उसी दिन उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और अपने सपने को पूरा करने के लिये अच्छी खासी वेतन वाली नौकरी को तिलांजलि देकर आगे बढ़ गये।
फिल्मी सफर का पहला कदम
ब्रिटिश आर्मी की नौकरी को तिलांजलि देने के फिल्मों में काम खोजने का उनका संघर्ष एक बार फिर शुरू हो गया। उन्हीं दिनों मुंबई लोकल में यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात मुसेरेकर से हुयी जिन्होंने यह खबर सुनाई की प्रभात फिल्म कंपनी अपनी आने वाली फिल्म के लिए एक सुंदर और जवान लड़के को तलाष कर रही है। मुसेरेकर से उनकी मुलाकात कुछ समय पूर्व ओपेरा हाउस में हुयी थी। उन्होंने देव आनंद से प्रभात फिल्म कंपनी के बॉस से उसी समय मिलने को कहा। उन्होंने बताया कि तुम्हें वापस ओपेरा हाऊस जाना होगा। वहां से फेमस पिक्चर आफिस जाना होगा जो सड़क पार करके थियेटर के सामने है। वहां बाबूराव पाई से मिलना होगा।
लेकिन उस समय वह एक चलती रेल में सवार थे और उस समय शाम के छह बज चुके थे इसलिये मुसेरेकर ने दूसरे दिन सुबह—सुबह उनसे मिलने को कहा। दूसरे दिन देव आनंद सुबह जल्दी — जल्दी उठकर तैयार होकर सीधे फेमस पिक्चर के आफिस पहुंच गये। उस समय अॉफिस खुला भी नहीं था। वह बाबूराव पाई के आफिस के बाहर दरवाजे पर खड़े हो गये। वह चाहते थे कि उनको सबको पहले बुलाया जाये, ताकि उन्हें पूरा दिन वहीं खड़ा ना रहना पड़े।
वहां बाबूराव पाई से मुलाकात करने के लिये और भी काफी लोग आये हुये थे और सभी अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। किसे कब बुलाया जायेगा इसके बारे में बाबूराव पाई के अलावा कोई नहीं जानता था। इंतजार की घड़ी लंबी होती जा रही थी और वह निराश हो चले थे। अचानक जब देव आनंद पीछे मुड़े तो उन्होंने काले रंग का सूट पहने इंसान को देखा। उस इंसान की चाल बता रही थी कि वहीं वहां के बॉस थे। देव आनंदने आदर के साथ नमस्कार किया। उन्होंने अपने इंतजार में खड़े लोगों को देखे बगैर सीधे अपने ऑफिस में प्रवेश कर रहे थे। तभी वह दरवाजे पर रूक गये और तेजी के साथ देव आनंद पर नजर डाल कर कमरे के अंदर चले गये। उसी समय एक व्यक्ति अंदर आया और देव आनंद से कहा कि अंदर जाओ। बॉस तुमसे मिलना चाहते है।
देव आनंद अंदर गये जहां प्रभात फिल्म स्टूडियो के मालिक बाबूराव पाई बैठे थे। उन्होंने अपना चष्मा उतारा और देव आनंद को बैठते हुए देखने लगे, और फिर पूछा, तुम्हारा नाम क्या है?
देव आनंद ने बहुत ही अदब के साथ जवाब दिया, ‘‘देव आनंद, सर।''
बाबूराव पाई ने जिज्ञासा के साथ पूछा, ‘‘सिर्फ देवानंद, कोई सरनेम नहीं।''
देव आनंद ने उत्तर दिया, ‘‘ सर, देव मेरा नाम है और आनंद मेरा उपनाम है। लेकिन मेरा पूरा नाम काफी लंबा और जटिल है क्योंकि मेरे माता—पिता ने देव से पहले धर्म जोड़़ है जिसके कारण उनका पूरा नाम धर्मदेव आनंद है लेकिन मैंने कुछ कारणों से अपने नाम के आगे से धर्म हटा दिया है।''
देव आनंद की इस बात से श्री पाई दिल से प्रभावित हुए और देव आनंद की आंखों में देखते हुये बोले, ‘‘देव! मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?‘‘
इस पर देव आनंद ने कहा, ‘‘सर, आप जानते ही कि मैं यहां किसलिए आया हूं।'' उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैंने सुना है कि आप अपनी आने वाली फिल्म के लिए किसी जवान लड़के की तलाष कर रहे है। और मुझसे अच्छा कौन होगा।''
श्री पाई ने गहरी नजरों से देव आनंद की आंखों में देखा। देव आनंद ने कहा, ‘‘मैं तैयार हूं।''
श्री पाई देव आनंद को देखते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘कल 1 बजे आओ, मिस्टर पी एल संतोशी यहीं होंगे।''
देव आनंद अगले दिन ठीक 1 बजे पीएल संतोशी से मिलने पहुंच गए। देव आनंद श्री पाई के दफ्तर के बाहर अपने बुलावे का इंतजार कर रहे थे। देव आनंद ने श्री पाई के साथ बैठे श्री संतोषी के पहनावे को देखकर समझ गए कि वही फिल्म के निर्देशक होंगे। देव आनंद ने श्री पाई को यह कहते हुये सुना कि मैंने किसी को आपसे मिलने भेजा है आप उनसे मिलो।
तभी अचानक मेज पर रखी घंटी बजी। उनका पीए बाहर आया और देव आनंद को कहा कि अंदर जाइये, साहब आपसे मिलना चाहते है।
जब देव आनंद अंदर गये तो श्री संतोशी ने उन्हें एक नजर देखा और कहा कि तुम यहां क्या कर रहे हो। तुम्हें तो पुणे में चल रहे अॉडिषन में होना चाहिए था। श्री संतोशी ने देव आनंद से पूछा, ‘‘क्या तुम पुणे जाने के लिए तैयार हो?''
देव आनंद ने ज्यादा समय नहीं लिया और कहा कि सर, जब आप कहेंगे मैं तुरंत पुणे के लिए निकल जाऊंगा।
संतोशी ने देव आनंद से कहा कि हम तुम्हें डेक्कन क्वीन का टिकट देंगे, क्या तुम उसमें सफर कर सकते हो?
इससे पहले देव आनंद कुछ बोल पाते तभी संतोशी ने कहा कि स्टूडियो की गाड़ी पुणे स्टेषन पर तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी।
संतोशी ने देव आनंद को धन्यवाद कहने का मौका दिये बगैर कहा कि पुणे के लिये रवाना होने कहा।
संतोशी ने कहा कि स्टूडियो में आपके अॉडिषन के लिए सभी इंतजाम किए जाएंगे और मैं भी खुद व्यक्तिगत रुप से कैमरे के सामने तुम्हें देखना चाहूंगा। देव आनंद ने ‘‘हां'' कहते हुए सिर हिलाया। देव आनंद काफी उत्साहित थे, और थोड़़े परेषान भी थे क्योंकि वह एक परीक्षा का सामना करने जा रहे थे।
‘‘तुम मुंबई में कहां रहते हो?, सतोशी ने पूछा।
देव आनंद ने अंग्रेजी बोलने की अपनी खास शैली में जवाब देते हुए कहा, ‘‘पाली हिल। षान्ति से भरपूर जगह है।''
श्री संतोशी ने देव आनंद से कहा, ‘‘तुम अच्छी अंग्रेजी बोल लेते हो, पढ़ाई कहां से की है।'' श्री संतोषी उनके बारे में अधिक जानने के लिए इच्छुक दिखे।
देव आनंद ने बताया कि वह लाहौर के गर्वमेंट कॉलेज से पढ़े है।
श्री संतोषी उस कॉलेज के बारे में जानते थे और कॉलेज से प्रभावित भी थे। अगले ही दिन डेक्कन क्वीन की पहली क्लास का टिकट देव आनंद के पाली हिल स्थित घर पर पहुंचा दिया गया।
देव आनंद अभिनय करने के मामले में बिल्कुल नए थे। उससे पहले देव आनंद ने ना तो कभी अभिनय किया था और ना ही किसी अभिनय का प्रशिक्षण लिया था। उन्हें सब कुछ खुद ही करना था। वह खुद ही अपने शिक्षक से। उन्हें खुद ही अपनी बुद्धिमत्ता के प्रयोग से तय करना था कि उन्हें कहां, कैसे और क्या करना है। देव आनंद के मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा था और कुछ करने के लिए हमेषा किसी अध्यापक का साथ होना जरुरी नहीं। खुद के अंदर झांको और जिस क्षेत्र में कुछ करने की इच्छा रखते हो उसमें ध्यान लगाओ, काम खुद हो जाएगा। अध्यापक केवल मार्ग दिखा सकता है लेकिन काम को अंजाम आपको खुद ही देना होता है। वह जानते थे कि उनके अंदर कुछ करने की काबिलियत है, जब भी वह खुद को आइने में देखते थे तो खुद से हमेषा कहते थे कि एक दिन दुनिया तुम्हें जरुर देखेगी। यह उनका घमंड नहीं था, बल्कि उनका आत्मविष्वास था।
देव आनंद का पूरा ध्यान पूना में होने वाले अॉडिषन पर था। उनके सामने वह क्षण आने वाला था जिसके लिए देव आनंद पूरे तरीके से तैयार थे। देव आनंद डेक्कन क्वीन से तय समय के अनुसार पुणे पहुंच गये। उन्हें प्रभात स्टूडियो पहुंचना था। प्रभात स्टूडियो पहुंचने पर उन्हें मेकअप रुम ले जाया गया जहां पर पहले से ही काफी बड़ी संख्या में अभिनेता और अॉडिषन देने आए लोग मौजूद थे। जैसे ही देव आनंद के चेहरे पर मेकअप आर्टिस्ट ने हाथ लगाया उन्हें अपने महत्व का अहसास हुआ। जब मेकअप आर्टिस्ट उनके चेहरे पर मेकअप कर रहा था तो उसने गुड, वैरी गुड जैसे षब्द कई बार दोहराये। मेकअप होने के बाद देव आनंद के लिए धोेती—कुर्ता लाया गया। वह उन कपड़ो को देख कर मुस्कुराए क्योंकि उन्होंने ऐसा परिधान पहले कभी नहीं पहना था। लेकिन अब वह अभिनेता बनने जा रहे थे और उन्हें सब कुछ पहनना था और सब कुछ करना था। देव आनंद ने बहुत ही आराम एवं आसानी से धोती कुर्ता पहन लिया, क्योंकि देव आनंद के पिताजी हमेषा देसी कपड़े पहनते थे।
स्टूडियो के अंदर जाते हुए देव आनंद ने देखा कि पूरे क्षेत्र में बड़ी—बड़ी तारे बिछी हुई थी और चारों और बड़ी—बड़ी लाइटें जली हुई थी और सामने फिल्मी कैमरा था। सभी की नजरें देव आनंद पर टिकी थी। स्टूडियो में खड़े लोग के ऊपर देव आनंद के व्यक्तित्व को निहार रहे थे। देव आनंद को आभास हो रहा था कि वह क्षण उनके जीवन में कितना महत्व रखता है।
कैमरामेन ने देव आनंद के ऊपर लाइट डाली और उनका अॉडिषन षुरु हो गया। श्री संतोशी कैमरामेन के पास गए और देव आनंद से कहा, ‘‘तुमने कहा कि तुमने अब्बास के नाटक जुबैदा में काम किया था। क्या तुम्हें उस नाटक की कुछ पंक्तियां याद है जिसमें तुमने काम किया था।''
देव आनंद ने कहा कि मुझे थोड़ा वक्त दीजिए। इतना कहकर देव आनंद ने अपनी आंखे बंद कर ली। वह याद करने लगे। पीपुल्स थियेटर में उन्होंने पहले कभी इतना बड़ा किरदार नहीं निभाया था। वहां उन्हें बच्चा समझा जाता था। किसी को उनकी अभिनय क्षमता पर भरोसा नहीं था और इसलिये उन्हें छोटी—मोटी भूमिकायें दी जाती थी। पर भरोसा नहीं जताया था। ना ही किसी ने देव आनंद पर भरोसा जताया था। लेकिन अब उन बातों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने का समय था और उन्हें भाग्य ने यह मौका दिया था। वह आंखें बंद कर उन पंक्तियों को याद कर रहे थे।
देव आनंद ने अपनी आंखें खोली और कहा, ‘‘सर मैं तैयार हूं। ऑडिशन षुरु कीजिए।''
निर्देषक ने कैमरामेन से पूछा, ‘‘रेडी?''
रेडी, कैमरामेन का जवाब आया।
निर्देषक ने निर्देष दिए, रोल! देव आनंद ने एक ही सांस में जुबैदा नाटक 10 लाइनें बोल दी।
कट!, निर्देषक ने कहा और पूरा स्टाफ खुषी से मुस्कुरा उठा। निर्देशक यह कहने से अपने को रोक नहीं पायें, ‘‘गुड!, तुम्हारे अंदर आत्मविष्वास है।''
देव आनंद ने कैमरामैन को निर्देशक से कहते हुये सुना, ‘‘आंखे बहुत अच्छी है और मुस्कुराहट भी बहुत ही लाजवाब है।'' निर्देषक ने कैमरामैन की बात पर सिर हिलाया।
कैमरामेन ने फिर से दोबारा कहा, ‘‘इन्हें रख लीजिये, सर।''
देव आनंद बहुत ही सर्तक होकर सुन रहे थे। निर्देषक ने देव आनंद से कहा कि तुम काम के लिए रिपोर्ट करो।
देव आनंद ने सिर हिलाते हुए पूछा कि सर काम के लिए कब आना है?
श्री संतोशी ने कहा कि जितनी जल्दी हो सके, हम ज्यादा प्रतीक्षा नहीं कर सकते।
''लेकिन मुझे वापस घर जाना है अपनी जरुरत का सामान लेने के लिए'', देव आनंद ने कहा। देव आनंद ने संतोशी के साथ गर्मजोषी से हाथ मिलाया।
देव आनंद ऊपर की ओर सीढियों पर गए जहां स्टूडियो मैनेजर के अॉफिस में देव आनंद के लिए लिखा गया एक पत्र था। यह तीन साल का अनुबंध पत्र था जिसमें लिखा था कि देव आनंद अगले तीन साल तक प्रभात स्टूडियो के साथ 400 रुपये महीने के वेतनमान पर नौकरी करेंगे। देव आनंद को एक उम्मीद की किरण मिल चुकी थी। वह जो सपने देखते थे वह सपने हकीकत बनने जा रहे थे।
देव आनंद वापस मुंबई के पाली हिल आ गए। देव आनंद काफी उत्साहित थे। लेकिन बारिष में भीगने के कारण बुखार हो गया जिसे ठीक होने में करीब सात दिन लग गये। उस दौरान देव आनंद को प्रभात स्टूडियो से दो महत्वपूर्ण कॉल्स भी आ चुकी थी। जिसमें देव आनंद को जल्दी से हाजिर होने के लिए कहा गया।
देव आनंद प्रभात स्टूडियो पहुंचने के लिये पुणे के लिए निकल चुके थे। इस बार डेक्कन क्वीन से नहीं बल्कि रात की ट्रेन से पूणे पहुंचे। प्रभात स्टूडियो में काम के पहले दिन उनकी मुलाकात उन दिनों की मशहूर और महान अभिनेत्री दुर्गा खोटे से हुयी जो उनकी प्रिय अभिनेत्रियों में से एक थी। वह उस फिल्म में देव आनंद की मां का किरदार निभा रही थी। दुर्गा खोटे से देव आनंद ने काफी कुछ सीखा। फिल्म में दुर्गा खोटे ने देव आनंद को काफी गाइड किया। जब भी देव आनंद हिचकिचाते थे और रुकते थे वह देव आनंद को समझाती और उनका धैर्य बंधाती थी।
प्रभात स्टूडियो का उन दिनों बड़ा नाम था। उसे भारतयी सिनेमा का वटवृक्ष माना जाने लगा था। सामाजिक प्रतिबद्धता और यर्थाथवादी फिल्मों के निर्माण के लिये उसकी बहुत प्रतिष्ठा थी। व्ही. शांताराम, फत्तेलाल, दामले, सीता राम कुलकर्णी जैसे फिल्मकार उससे जुड़े थे। प्रभात स्टूडियो के बैनर तले 1929 में सबसे पहले गोपाल कृष्ण बनी थी जो अपने नाम के विपरीत धार्मिक फिल्म नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार के विरोध में था और ब्रिटिश सरकार को कंस के प्रतीक के तौर पर रखा गया था। पहली फिल्म ‘‘राजा हरिश्चन्द्र'' को आधार बनाकर प्रभात ने 1932 में ‘‘अयोध्या का राजा'' बनायी। ‘‘दुनिया ना माने'' और ‘‘आदमी'' जैसी समस्या प्रधान फिल्मों के निर्माण का श्रेय प्रभात को ही जाता है।
प्रभात स्टूडियो में बनने वाली देव आनंद की पहली फिल्म ‘‘हम एक हैं'' की नायिका थी कमला कोटनीस थी। संवाद बोलने के खास अंदाज ने देव आनंद को प्रतिष्ठित कर दिया था। यह फिल्म 1946 में रिलीज हुयी। इस फिल्म में दुर्गा खोटे भी महत्वपूर्ण भूमिका में थी। इस फिल्म का संगीत नलाल—भगतराम ने दिया था।
‘हम एक है' में अभिनेता के रूप में काम करने का अनुभव उनके लिये बहुत अच्छा रहा। उन्होंने काम करते हुए बहुत कुछ सीखा। वह प्रतिदिन कुछ ना कुछ जरुर सीखते थे। वह कैमरे के सामने किए गये अपने काम को हर दिन एक बार फिर दोहराते थे और देखते थी काम करते समय उनके काम में कहां गलती रह गई थी और साथ के साथ उसको सुधारने की कोषिष भी करते थे। देव आनंद के फिल्मी सफर की शुरूआत हो चुकी थी।
जिद्दी से मिली पहचान
हिन्दू—मुस्लिम एकता पर आधारित ‘‘हम एक है'' रिलीज हो चुकी थी। देव आनंद दर्षकों के मन को भी भा गये थे। वह कामयाबी की सीढ़ियों पर कदम बढ़ाने षुरु कर दिए थे। उन्हें फिल्मों के ऑफर आने षुरु हो गये। देव आनंद ने अपनी दूसरी फिल्म की जिसका नाम था ‘आगे बढ़ो'। यह फिल्म भी प्रभात स्टूडियो के कान्ट्रैक्ट में षामिल थी। इस बार उनके सामने एक मषहूर अभिनेत्री और गायिका थी जिसका नाम था खुर्षीद। जब देव आनंद लाहौर के कॉलेज में पढ़ते थे तो वह महान गायक—अभिनेता के एल सहगल के साथ गाती थीं। जब देव आनंद ने उनके साथ पुणे में काम षुरु किया तो के एल सहगल का निधन हो चुका था लेकिन खुर्षीद तब तक स्टार के रुप में स्थापित हो चुकी थी।
यह फिल्म 1947 में रिलीज हुयी थी जिसका निर्देशन श्री संतोषी ने नहीं बल्कि यशवंत पिथकर ने किया था। यह फिल्म खुर्शीद के गायन कैरियर के लिहाज से महत्वपूर्ण थी। इस फिल्म के बाद खुर्शीद पाकिस्तान चली गयी थी।
उन दिनों विभाजन के कारण देश में उथल—पुथल का दौर था और जगह—जगह दंगे हो रहे थे। ऐसे माहौल में देव आनंद की दोनों फिल्में ज्यादा नहीं चली। प्रभात स्टूडियो से उनकी एक और फिल्म आयी ‘‘मोहन'' जिसमें देव आनंद कलाकार सप्रू की पत्नी हेमवती के साथ नायक बने।
इसके बाद प्रभात स्टूडियो के साथ उनका तीन साल का कांट्रैक्ट भी खत्म हो गया था। एक बार फिर वह बेरोजगारी के दौर में आ गये और काम की तलाश शुरू हो गयी।
एक दिन जब देव आनंद ट्रेन में सवार हो रहे थे, उसी समय उन्हें टेन के अंदर से किसी ने पुकारा। उन्होंने देखा कि उन्हें आवाज देने वाले और कोई नहीं उर्दू लेखक शाहिद लतीफ थे, जो बाद में फिल्म निर्देशक बन गये। शाहिद लतीफ से उनकी मुलाकात तब हुयी थी जब देव आनंद अपने संघर्ष के दिनों में अब्बास के घर में रहते थे। शाहिद लतीफ के बगल में उनकी पत्नी इस्मत चुगताई बैठी थी जो उर्दू की मशहूर लेखिका थी। शाहिद लतीफ ने देव आनंद को दूसरे दिन सुबह 11 बजे बम्बई टाकीज आने को कहा। उस दौर में बनी अनेक सफल और बेहतरीन फिल्मों के निर्माण का श्रेय बम्बई टाकीज को ही था और इन सभी फिल्मों के अभिनेता अशोक कुमार ही थे। बम्बई टाकीज बम्बई के उपनगर मलाड में स्थित था और वहां पहुंचने के लिये पहले मलाड स्टेशन जाना पड़ता था और उसके बाद तांगा लेना पड़ता था जो बम्बई टाकीज के गेट पर ही उतारता था। देव आनंद ठीक समय पर बम्बई टाकीज पहुंच गये और शाहीद लतीफ से मिले। शाहीद लतीफ उन्हें कैंटीन लेकर गये। वहां से उन्होंने किसी को फोन करके पूछा कि क्या वह उसे उनके पास भेज दें।
शाहिद ने उन्हें तुरंत उनके आफिस में जाने को कहा। देव आनंद जब अफिस के अंदर पहुंचे तो उन्हें आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा — वहां बैठा शख्स और कोई नहीं खुद अशोक कुमार थे, जो देव आनंद के आदर्श थे। अशोक कुमार शाही अंदाज में बैठे थे और उनके हाथ में उनका टे्रडमार्क सिगरेट था। देव आनंद को बैठने का इशारा किया। देव आनंद ने बात शुरू करते हुये कहा, आपको आपकी फिल्मों के जरिये बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, सर। ''
अशोक कुमार हंसे और कहा, ‘‘तुम्हें सर कहने की जरूरत नहीं है। तुम मेरी फिल्म कर लो।''
देव आनंद को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या बोलें। उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। वह आश्चर्य के साथ अशोक कुमार को देखे जा रहे थे।
उसी समय शाहिद लतीफ कमरे में आये और बताया कि जिस फिल्म के लिये उन्हें बुलाया गया है उसके प्रोड्यूसर अशोक कुमार खुद हैं और वह फिल्म के निर्देशक हैं।
यह फिल्म इस्मत चुगताई के एक उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म के लिए उन्हें बीस हजार रुपए में अनुबंधित किया गया था। देव आनंद के लिए यह अच्छी शुरुआत थी। जिद्दी में देव आनंद की नायिका कामिनी कौशल थीं। इसका संगीत खेमचंद प्रकाश ने दिया थाए जिन्होंने बाद में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘‘महल''् में लता मंगेशकर से ‘‘आएगा आने वाला'' जैसा शाश्वत गीत गवाया था। ‘‘जद्दी'' की सफलता ने देव आनंद को स्टार का दर्जा दिला दिया।
फिल्म देव आनंद के करियर की पहली सबसे कामयाब फिल्म थी जिद्दी। यही वह पहली फिल्म थी जो कि देव आनंद को अभिनेता के रूप में स्थापित किया। यही फिल्म थी जिसने देव आनंद को अषोक कुमारर और उनके गायक — अभिनेता भाई किषोर कुमार के करीब लेकर आई।
फिल्म ‘‘जिद्दी'' फिल्म करने के दौरान उनके करीब दिलीप कुमार भी आए, जो बम्बई टाकीज में नौकरी करते थे। इसके बाद से दोनों के बीच गाढ़ी दोस्ती हो गयी। उस समय तक दिलीप कुमार बम्बई टॉकीज की कई फिल्मों में काम कर चुके थे। हालांकि उन दिनो फिलिमिस्तान के लिये ‘‘शहीद'' फिल्म में काम कर रहे थे। वे दोनों एक दूसरे के साथ अपने—अपने स्टूडियो आते। देव आनंद मलाड तक आते जबकि दिलीप कुमार गोरेगांव स्टेशन उतर जाते थे। दोनों फिल्मों और अपनी रूचियों के बारे में चर्चा करते हुये यात्रा करते।
इस फिल्म के जरिये देव आनंद की दोस्ती किशोर कुमार से हुयी जिन्होंने इसी फिल्म में पहली बार पार्श्व गायन किया, वह भी देव आनंद के लिए। इस फिल्म से दोनों के बीच जिस अभिन्न मित्रता की शुरुआत हुई वह 1987 में किशोर कुमार के असामयिक निधन तक कायम रही। । इस फिल्म के बाद से देव आनंद ने अपने अधिकतर गाने किशोर से ही गवाए।
किशोर कुमार ने जिद्दी के सेट पर जो पहला गाना गाया था वह एक गजल थी जिसे कवि प्रेम धवन ने लिखा था — ‘‘मरने की दुआंए क्यों मांगू जीने की तमन्ना कौन करे।ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाहिष—ए दुनिया कौन करें।'' यह गाना हिट हो गया, और लोग देव आनंद की आवाज के रूप में किषोर कुमार की पहचान बन गयी।
सुरैया से प्यार
देव आनंद को जिद्दी की सफलता के बाद 1948 में फिल्म विद्या में सुरैया के साथ काम करने का अॉफर मिला जिसे उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया। उन दिनों सुरैया कामयाबी के शिखर पर थी जबकि देव आनंद को फिल्मी दुनिया में नए थे। सुरैया सधी और मंजी हुई अभिनेत्री के साथ—साथ एक जानी—मानी गायिका भी थी। उन दिनों लोग सुरैया को देखने और उनके गानों को सुनने के लिये उतावले रहते थे। उस दौर में सुरैया फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी अभिनेत्री और गायिका थीं। वह फिल्मों में अपने गीत खुद गाती थीं और उस दौर में दर्षक उनके हर गीत पर झूम उठते थे, जबकि देव आनंद भी नए—नए आए थे और एक अभिनेता के रूप में ज्यादा मषहूर नहीं हुए थे। इसी फिल्म के सेट्स पर दोनों की पहली मुलाकात हुई। षूटिंग के पहले ही दिन देव आनंद और सुरैया के बीच एक रोमैंटिक सीन फिल्माया जाने वाला था।
सुरैया का फिल्मी दुनिया में बहुत बड़ा रूतबा था। वह जब चलती थी तो उनके साथ एक पूरी फौज होती थी — उनका मेकअप मैन, होता था, उनकी मेड होती थी, उनकी नानी होती थी, उनके चाचा होते थे, जो सुरैया के लिये मंहगे सिगरेट का डिब्बा तथा ताजे फलों के जूस और और बेहतरीन ब्रांड वाली फलेवर्ड चाय से भरी दो थमर्स बॉटल लेकर चलते थे।
जिस दिन देव आनंद कां सुरैया के साथ पहली बार कैमरे का सामना करना था, बहुत ही नर्वस थे। सेट पर देव आनंद एक एक पियानो के ऊपर अपनी उंगलियां फिरा रहे थे। उन्हें एक षॉट में ऐसा करना था। जब तक सुरैया सेट पर नहीं आयी, देव आनंद पियानो पर उंगलियां फिराने का अभ्यास करते रहे, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उनसे षूटिंग के दौरान कोई गलती हो।
सुरैया जब सेट पर आयी तो सभी लोग काम छोड़कर खड़े हो गये। डायरेक्टर ने देव आनंद की ओर इशारा करते हुये सुरैया से कहा, ‘‘ये देखो यह देव आनंद है हमारी फिल्म का नया हीरो।'' जब सुरैया उनके पास पहुंची देव आनंद ने अपने स्टूल को उनकी तरफ घुमा लिया और खड़े हो गये। इससे पहले कि कोई कुछ कहता देव आनंद ने खुद अपना परिचय दिया, ‘‘यहां सभी लोग मुझे देव कहकर बुलाते हैं। आप मुझे क्या बुलाना पसंद करेंगी।?
‘‘देव'', सुरैया ने जवाब दिया।
देव आनंद लगातार सुरैया को देखे जा रहे थे। ‘‘तुम क्या देख रहे हो?'' सुरैया ने पूछा।
‘‘आप में कुछ है।'', देव आनंद ने कहा।
सुरैया की जिज्ञासा बढ़ी, ‘‘मुझमें क्या है?''
‘‘मैं यह आपको बाद में बताऊंगा'', देव आनंद ने कहा।
डायरेक्टर ने षूटिंग षुरु की जिसमें सुरैया को देव आनंद के बालों में हाथ डालते हुए उन्हें बाहों में लेना था। दोनों ने बहुत अच्छे तरीके से षूटिंग की।
इस फिल्म में शूटिंग के दौरान सुरैया से अपनी पहली मुलाकात के उन लम्हों को याद करते हुए देव आनंद ने अपनी जीवनी ‘‘रोमांसिंग विद लाइफ‘‘ में लिखा है — सीन की षूटिंग से पहले मैं सोच रहा था कि देष की ड्रीम गर्ल, जो अपने हर फैन के दिल में बसती है, वह आज मेरे गले में अपनी बांहें डालेगी। कितना अच्छा होगा अगर उस समय कोई मेरी तस्वीर खींच सके। षॉट षुरू होने से पहले मैंने सुरैया से कहा कि मेरे बालों में जरा ध्यान से हाथ लगाइएगा। वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली हां मुझे मालूम है, मैं तुम्हारे ‘पफ' को खराब नहीं करूंगी।
देव आनंद और सुरैया को पहली नजर में ही प्यार हो गया था। फिल्म के सेट पर अब नजरें एक दूसरे को ही तलाषती रहतीं। दोनों ने एक दूसरे के प्यार के नाम भी रख दिए। अपने एक मनपसंद नॉवेल के हीरो के नाम पर सुरैया ने देव आनंद का नाम रखा स्टीव जबकि देव आनंद नेे सुरैया का नाम रख दिया नोजी, क्योंकि उनकी नाक जरा लंबी लगती थी।
देव आनंद के जीवन की यह इस मायने में महत्वपूर्ण फिल्म थी क्योंकि इस फिल्म के साथ सुरैय्या के साथ उनका प्यार पनपा और बाद में प्रेम कहानी का लंबा दौर चला लेकिन यह प्रेम कहानी इसकारण से कभी पूरी नहीं हो पाई क्योंकि सुरैय्या की नानी यह रिष्ता मंजूर नहीं था।
फिल्म विद्या की षूटिंग के दौरान ही एक सीन नाव में फिल्माया जा रहा था। इसी सीन की षूटिंग के दौरान अचानक नाव पलट गई और सुरैया पानी में डूबने लगी। तभी देव आनंद ने तेजी से तैरते हुए उन्हे बचा लिया। इस घटना को याद करते हुए करीब 40 साल बाद 1987 में पत्रकार षीला वेसुना को दिए एक इंटरव्यू में सुरैया ने कहा—मैंने देव से कहा अगर आज तुम मेरी जान नहीं बचाते तो मैं खत्म हो जाती। तो उन्होने जवाब दिया— अगर तुम्हारी जान चली जाती तो मैं भी खत्म हो जाता। मुझे लगता है यही वह पल था जब हम दोनों को एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत हो गई।
षुरुआत में तो देव आनंद सुरैया के घर कई बार डिनर पर गए। सुरैया के घर में उनकी मां, नानी और मामा रहते थे। सुरैया का सारा कामकाज उनकी नानी और मामा संभालते थे और सुरैया उनकी हर बात मानती थीं। देव आनंद अपने दोस्तों के साथ जब उनके घर जाते तो उनके दोस्त सुरैया की नानी को बातों में लगा लेते। और घर की छत पर, घरवालों की नजरों से दूर दोनों प्रेमी एक कोने में बैठकर घंटों तक एक दूसरे से बातें करते रहते।
लेकिन जब सुरैया और देव आनंद की मोहब्बत के चर्चे पूरी फिल्म इंडस्ट्री में होने लगे, तो सुरैया की नानी का माथा ठनका। उन्होने देव आनंद के घर आने पर पाबंदी लगा दी। हालांकि सुरैया की मां देव आनंद को बेहद पसंद करती थीं लेकिन घर में सुरैया की नानी का हुक्म चलता था। और उन्हे सुरैया और देव आनंद के रिष्ते पर सख्त एतराज था।
सुरैया की नानी को सुरैया का एक दूसरे धर्म के लड़के के साथ रिष्ता रखना कतई बर्दाष्त नहीं था। उन्होंने सुरैया पर पाबंदी लगाना षुरू कर दी कि वह षूटिंग के अलावा देव से बिलकुल नहीं मिलेंगी।
1950 में देव आनंद और सुरैया ने साथ में दो और फिल्में सनम और जीत साइन कर लीं। लेकिन अब हर फिल्म की षूटिंग पर सुरैया की नानी उनके साथ जाने लगी थीं। देव आनंद और सुरैया के बीच रोमैंटिक सीन की षूटिंग के दौरान तो वह बेहद नाराज होती और निर्देषक से सीन बदलने तक को कह देती। कई साल बाद जून 1972 में फिल्म मैगजीन स्टारडस्ट को दिए एक इंटरव्यू में सुरैया ने कहा— नानी बेहद सख्त थीं। घर में सब उनकी बात मानते थे। मैं षर्मीली थी, नादान थी और उनसे बहुत ज्यादा डरती थी। वह मुझसे गुस्से में कहतीं कि एक मुस्लिम लड़की और एक हिंदू लड़के की षादी कैसे हो सकती है? घर में मचे इस हंगामे से दूर षूटिंग के दौरान दोनों की मुलाकातें होती रही।
इंडस्ट्री में देव आनंद की षोहरत भी लगातार बढ़ रही थी। इसी दौरान देव आनंद ने अपने बड़े भाई निर्देषक चेतन आनंद के साथ मिलकर 1949 में अपना बैनर नवकेतन लॉन्च कर दिया।
नवकेतन बैनर की पहली फिल्म अफसर में हीरोइन के रूप में सुरैया को ही साइन किया गया और हीरो बने देव आनंद। साथ ही दोनों की नजदीकियों की खबरें फिर सुर्खियां बन गईं।
सुरैया की नानी उन्हे यह फिल्म साइन करने से तो नहीं रोक पाईं लेकिन इस फिल्म की षूटिंग के दौरान देव के खिलाफ उनका गुस्सा खुलकर सामने आ गया। देव और सुरैया के साथ वाले सीन्स की षूटिंग में उन्होने जमकर मुसीबतें खड़ी की। यहां तक कि हर षॉट से पहले और बाद में देव आनंद और सुरैया के बात तक करने पर उनकी नानी ने रोक लगा दी थी।
जब बात करने पर रोक लग गई तो प्रेम के दीवानों ने एक दूसरे को अपने दिल का हाल खतों के जरिए बताना षुरू कर दिया। लव लेटर्स पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई देव आनंद के दोस्तों कैमरामैन दिवेचा, अभिनेता ओमप्रकाष और अभिनेत्री कामिनी कौषल को। अब ये दोनों साथ में षूटिंग तो करते, लेकिन दिल की बातें होती थीं खतों के जरिए, जिसमें ये दोनों एक दूसरे को स्टीव और नोजी के नाम से ही पुकारते।
ऐसे ही एक रोमांटिक खत में देव आनंद ने सुरैया को लिखा— नोजी चलो जल्दी से षादी कर लेते हैं। हमारी जोड़ी सबके लिए एक मिसाल होगी। हम खुषियों से भरा एक ऐसा घर बनाएंगे जिसे देखकर पूरी दुनिया हमसे जल उठेगी।
दोनों अपनी आने वाली जिंदगी के सपनों में खोए रहते। वह अपने घर और बच्चों की बातें भी करते। एक मैगजीन को दिए इंटरव्यू में सुरैया ने बताया— मैं हमेषा देव से कहती कि मुझे लड़की चाहिए ताकि मैं उसे अच्छी अच्छी ड्रेस पहना सकूं। देव मुझे छेड़ते हुए कहते— तुम्हारे पास खेलने के लिए पहले से ही इतनी सारी गुड़िया हैं तुम्हें एक और गुडिया क्यों चाहिए? फिर मैंने उनसे कहा कि हम अपनी बेटी का नाम देविना रखेंगे।
देव आनंद की षोहरत खास तौर पर नौजवान लड़के—लड़कियों में बढ़ती जा रही थी। कहा तो यह भी जाता है कि उन दिनों देव आनंद ने काला सूट पहनना छोड़ दिया था क्योंकि वह काले सूट में इतने हैंडसम लगते थे कि लड़कियां उन्हे देखकर बेहोष हो जाती थीं। लेकिन खुद देव आनंद सुरैया पर ही जान छिड़कते थे।
इन्हीं दिनों फिल्म जीत के एक सीन में देव आनंद और सुरैया की षादी का सीन फिल्माया जाना था। सुरैया के घरवालों की सख्ती से परेषान देव और सुरैया ने फैसला किया कि इस सीन में वह असली पंडित को बुलाएंगे, असली मंत्र पढ़े जाएंगे और इन दोनों की वाकई में षादी हो जाएगी। सेट्स पर सारा इंतजाम हो चुका था। असली पंडित भी आ गया था। लेकिन तभी एक असिस्टेंट डायरेक्टर ने यह खबर, सुरैया की नानी तक पहुंचा दी। फिर क्या सेट्स पर हंगामा मच गया और नानी सुरैया को सेट्स से खींच कर जबरदस्ती घर ले गईं।
इसके बाद तो सुरैया की नानी ने उनकी जल्द से जल्द षादी करने का फैसला ले लिया। षादी के लिए उन्होने चुना उस जमाने के मषहूर निर्देषक एम. सादिक को जो सुरैया की कई फिल्में डायरेक्ट कर चुके थे। लेकिन देव की याद में तड़प रहीं सुरैया किसी भी तरह से षादी के लिए राजी नहीं हो रही थीं। और इसके बाद घर में वह हुआ जिसने सुरैया को दहला दिया। उन दिनों को याद करते हुए 1987 में पत्रकार षीला वेसुना को दिए एक इंटरव्यू में सुरैया ने कहा— हर रोज मुझे समझाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री के हमारे कई करीबी लोगों को बुलाया जाता जो मुझे समझाते कि देव के साथ षादी मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल होगी। अभिनेत्री नादिरा के पहले पति नक्षब तो मेरे सामने कुरान ले आए और बोले कि इस पर हाथ रखकर कसम खाओ कि तुम देव से षादी नहीं करोगी। उन्होने यह भी कहा कि अगर मैंने देव आनंद से षादी की तो देष में दंगे भी हो सकते हैं। मैं बेहद डर गई थी। लेकिन मेरी हिम्मत तब टूट गई जब मेरी नानी और मामा ने देव को जान से मारने की धमकी दी।
धमकी सुनकर सुरैया बेहद डर गई। उनको वाकई यह लगने लगा कि गुस्से में उनका परिवार देव आनंद को नुकसान पहुंचा सकता है। अपनी नानी और मामा की धमकी से घबराई सुरैया ने फिल्म नीली की षूटिंग के दौरान देव से बात की और बताया कि वह उनकी मौत की वजह नहीं बनना चाहतीं इसलिए देव उन्हें भूल जाएं। लेकिन उनकी बातें सुनकर देव आनंद बोले— तुम्हे डरने की कोई जरूरत नहीं है। हम कोर्ट में षादी कर लेंगे। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे धर्म अलग हैं। मेरा धर्म मोहब्बत है। मेरे लिए प्यार ही सबकुछ है। हमारे प्यार के बीच में समाज और परिवार को मत आने दो। लेकिन सुरैया कोई फैसला नहीं कर पा रही थीं। यह देखकर देव आनंद को गुस्सा आ गया। मैं तुम्हारे बारे में इतना सीरियस हूं और तुम्हे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। षायद मेरी हैसियत ही नहीं है कि मैं तुम्हारे सपने देख सकूं।
और इसके बाद गुस्से में देव आनंद इतने जज्बाती हो गए कि सुरैया के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ मार दिया। सुरैया फूटफूटकर रोने लगीं। देव उस समय तो वहां से चले गए लेकिन बाद में उन्हे बहुत पछतावा हुआ। सुरैया अपने इंटरव्यू में कहती हैं—देव ने मुझे बताया कि वह घर गए और बार—बार अपने हाथ दीवार पर मारते रहे। उन्हे मुझ पर हाथ उठाने का बेहद पछतावा था लेकिन इस घटना से मुझे यह पता चल गया कि वह मुझसे कितना प्यार करते हैं। मेरे परिवार ने उनकी बहुत बेइज्जती की लेकिन इसके बावजूद वह मुझसे प्यार करते रहे।
इसी दौर में, देव आनंद से मुलाकात ना होने पर परेषान सुरैया ने उन्हे एक खत में लिखा : मैं तुम्हारा खत पढ़कर रोती रही। मैं भी तुमसे बेहद प्यार करती हूं। और हर हाल में तुमसे मिलना चाहती हूं। कल षाम सात बजे तुम मेरे घर पर फोन करना, मैं फोन के नजदीक बैठकर इंतजार करूंगी।
अगले दिन, जब देव आनंद ने सुरैया के घर फोन किया तो फोन उठाया उनकी नानी ने। उन्होने देव आनंद को डांटते हुए कहा कि अगर उन्होने फिर उनके घर फोन करने या सुरैया से मिलने की कोषिष की तो वह पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देंगी। इसके बाद काफी देर तक देव आनंद फोन मिलाते रहे लेकिन हर बार दूसरी तरफ से आवाज नानी की ही आती। मोहब्बत पर सख्त पहरे लग गए थे।
अपनी मोहब्बत से मजबूर देव आनंद ने कुछ देर बाद फिर से सुरैया के घर फोन किया। इस बार फोन उठाया सुरैया की मां ने। मां को सुरैया और देव के रिष्ते पर ऐतराज नहीं था। उन्होने देव को बताया कि सुरैया उनसे मिलना चाहती है लेकिन नानी उसे मिलने नहीं दे रही। उन्होने यह भी कहा कि अगर देव सुरैया से मिलना चाहते हैं तो अगले दिन, रात साढ़े ग्यारह बजे उनके घर कृश्णा महल की छत पर पहुंच जाएं। कृश्णा महल बिल्डिंग मुंबई के मरीन ड्राइव पर थी और इस बिल्डिंग के सामने समंदर था। सुरैया इस बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर रहती थीं।
देव आनंद ने लिखा है, ‘‘घर की छत पर मुलाकात की बात सुनकर मुझे लगा कि कहीं यह मुझे फंसाने की कोई चाल तो नहीं? अगर मैं वहां पर पकड़ा गया तो क्या होगा ? अगले दिन अखबारों में यह खबर छप जाएगी और फिर बहुत बदनामी होगी, मैं लॉकअप में भी जा सकता हूं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि एक सुरैया की मम्मी ही तो हैं जिन पर मैं भरोसा कर सकता हूं। अपने प्यार की खातिर मैंने वहां जाने का फैसला किया लेकिन अपने साथ मैंने अपने दोस्त तारा को ले लिया जो बॉम्बे पुलिस में इंस्पेक्टर था।''
उस रात देव आनंद जब सुरैया से मिलने उनके घर की छत पर पहुंचे तो वह वहां उनका पहले से इंतजार कर रही थीं। दोनों एक दूसरे से कई हफ्तों के बाद मिल रहे थे। देव आनंदं ने सुरैया को गले से लगा लिया। काफी देर तक दोनों ने एक दूसरे से कुछ नहीं कहा। फिर देव आनंद ने सुरैया को चूम लिया।
देव आनंद लिखते हैं, ‘‘मैंने उसे किस कर लिया। वह किस मैं कभी नहीं भूलूंगा। इसके बाद वह फूटफूट कर रोने लगी। मैंने उसे षांत किया। मैं उसे हर मुसीबत से बचाना चाहता था। मैंने उनसे कहा— क्या तुम मुझसे षादी करोगी? उसने मुझे जोर से अपनी बाहों में भर लिया और बार—बार कहने लगी, ‘‘आई लव यू। आई लव यू।''
अगले ही दिन देव आनंद मुंबई के जवेरी बाजार गए और वहां से एक बेहद महंगी और खूबसूरत हीरे की अंगूठी खरीदी। वहे यह अंगूठी खुद सुरैया को पहनाना चाहते थे। उनके घर फोन किया तो फिर से फोन नानी ने उठाया। ऐसे वक्त में अंगूठी सुरैया तक पहुंचाने की जिम्मेदारी देव आनंद ने सौपी अपने दोस्त कैमरामैन दिवेचा को जो सुरैया के घर बेरोकटोक जा सकते थे। देव आनंद के दोस्त दिवेचा ने अंगूठी सुरैया तक पहुंचा दी। जून 1972 में इस घटना को याद करते हुए, स्टारडस्ट मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में सुरैया ने कहा— देव ने मुझे अंगूठी दी जिसमें तीन हीरे लगे थे। उसके साथ उनका एक संदेष भी था जिसमें लिखा था— ये सगाई की अंगूठी है हालांकि हम सबके सामने सगाई नहीं कर रहे हैं। मुझे पता है कि तुम इस अंगूठी को अभी पहन नहीं पाओगी लेकिन इसे मेरे प्यार की निषानी समझ कर संभाल कर रखना।
सुरैया ने उस अंगूठी को जल्दी से अपने कमरे में छुपा दिया ताकि उनकी नानी की नजर उस पर ना पड़े। इसके बाद उन्होने दिवेचा से कहा कि देव आनंद को बता दें कि वह उनसे बेहद प्यार करती हैं। उन दिनों को याद करते हुए देव आनंद ने अपनी जीवनी में लिखा — मैं सातवें आसमान पर था। उसने अंगूठी ले ली थी यानि अब हमारी सगाई हो गई थी। मुझे उसकी और भी ज्यादा याद आने लगी। मैं उससे मिलना चाहता था, लेकिन उसकी तरफ से कोई संदेष नहीं आया। हमारी षूटिंग भी खत्म हो चुकी थी यानि हमारे मिलने का कोई तरीका नहीं था। कई हफ्ते गुजर गए ना उसका कोई खत आया, ना फोन, ना कोई संदेष।
सुरैया का हाल जानने के लिए देव आनंद ने फिर से अपने दोस्त दिवेचा को उनके घर भेजा लेकिन जैसे ही दिवेचा वहां पहुंचे, घर के दरवाजे पर उनका सामना हुआ सुरैया की नानी से। इस बार नानी ने दिवेचा से सख्ती से कहा कि अब उन्हे घर के अंदर आने की इजाजत नहीं है। यह साफ हो चुका था कि सुरैया के घर में अंगूठी वाली बात पता चल चुकी है और सुरैया को घर से बाहर तक निकलने नहीं दिया जा रहा।
स्टारडस्ट मैगजीन को दिए इंटरव्यू में सुरैया ने कहा— एक दिन षूटिंग के दौरान मैंने देव की दी हुई अंगूठी अपनी उंगली में पहन ली। लेकिन नानी की एक्स रे जैसी नजर से वह अंगूठी छुप नहीं पाई। उन्होने मुझे सख्ती से घूरा और फौरन घर ले आईं। इसके बाद उन्होने जबरदस्ती मेरे हाथ से वह अंगूठी निकाल ली। मुझे पता था कि देव ने दोस्तों से उधार लेकर मेरे लिए वह कीमती अंगूठी खरीदी है। मैं उस रात बहुत रोई।
सुरैया की नानी तो फैसला कर चुकी थीं कि वह सुरैया और देव को एक नहीं होने देंगी। अब आखिरी फैसला सुरैया को करना था कि क्या वह सबकुछ छोड़कर अपने देव के पास जाएंगी? यह फैसले की घड़ी थी और देव आनंद के कई करीबी लोगों जैसे अभिनेत्री दुर्गा खोटे और गुरू दत्त ने सुरैया को समझाया कि वह देव आनंद से षादी कर लें। बाद में सबकुछ ठीक हो जाएगा लेकिन सुरैया चुप रहीं।
अपनी जीवनी ‘‘रोमांसिंग विद लाइफ'' में देव आनंद लिखते हैं — सुरैया के घर का माहौल ऐसा हो चुका था कि उनकी मां के अलावा कोई भी उनके साथ नहीं था। अगर वह अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाती तो या तो उनको रास्ते से हटा दिया जाता या उनकी नानी खुद को खत्म को कर लेतीं। सुरैया रोती रही और आखिरकार अपने ऊपर पड़ते दवाब के आगे झुक गईं।
और फिर देव आनंद की जीवनी के मुताबिक, घरवालों की सख्ती से तंग आकर एक दिन सुरैया ने उस अंगूठी को आखिरी बार देखा और मुझे याद करते हुए उस अंगूठी को समुद्र में फेंक दिया जहां वह उठती गिरती लहरों को हमारी मोहब्बत के अफसाने सुना सके।
हालांकि सुरैया का कहना था कि वह अंगूठी उनकी नानी ने उनसे छीन कर समंदर में फेंकी थी। लेकिन उन्होंने माना कि फैसले की घड़ी में कमजोर पड़ने वाली वह खुद थीं। इस रिष्ते के खत्म होने की कई वजह थीं। मुझे देव के प्यार पर तो यकीन था लेकिन खुद पर विष्वास नहीं था। मैं कन्फयूज थी। जब मैंने देव से षादी करने को मना कर दिया तो उन्होने मुझे कायर कहा। षायद मैं कायर ही थी। मेरे अंदर वह कदम उठाने की हिम्मत ही नहीं थी। षायद यह मेरी गलती थी या फिर किस्मत।
देव आनंद और सुरैया का रिष्ता टूट गया और इस बात ने देव आनंद को भी तोड़ कर रख दिया। वह अपने बड़े भाई चेतन आनंद के पास गए और उनके कंधे पर सिर रखकर फूटफूटकर रोने लगे। चेतन ने उनसे कहा— यह घटना तुम्हे जीवन में और ज्यादा हिम्मत देगी, ज्यादा समझदार बनाएगी ताकि तुम जिंदगी के बड़े संघशोर्ं में जीतने के लिए तैयार हो सको।
उस वक्त सुरैया देव आनंद से षादी की हिम्मत नहीं कर सकीं लेकिन फिर उन्होंने जिंदगी भर षादी नहीं की और हमेषा देव आनंद की यादों में खोई रहीं। इसके बाद काफी साल तक देव आनंद और सुरैया की कोई बात नहीं हुई। लेकिन फिर कई साल बाद एक पार्टी में दोनों आमने—सामने आए। दोनों ने एक दूसरे का हालचाल पूछा। देव ने बताया कि उनके दो बच्चे हैं एक बेटा और एक बेटी। सुरैया ने पूछा कि बेटी का नाम क्या है— देव ने कहा— तुम्हें तो मालूम होना चाहिए। मैंने अपनी बेटी का नाम देवीना रखा है।
यह वही नाम था जिसके बारे में देव और सुरैया बातें किया करते थे और कहते थे कि वह अपनी बेटी का नाम देवीना रखेंगे। 31 जनवरी 2004 को 74 साल की उम्र में सुरैया का निधन हो गया। हर किसी को उम्मीद थी कि उन्हें आखिरी विदाई देने के लिए देव आनंद जरूर आएंगे। मुंबई के मरीन लाइन्स के बड़े कब्रिस्तान में जहां सुरैया को दफनाया गया, वहां सबकी आंखे देव आनंद को तलाष रही थीं लेकिन वह नहीं आए।
कामयाबी की बाजी
अपनी पहली सफल फिल्म जिद्दी के बाद उनकी कई फिल्में आयी लेकिन बॉक्स आफिस पर खास नहीं चली। इस बीच देव आनंद और उनके भाई चेतन आनंद ने मिलकर प्रोडक्शन हाउस ‘‘नवकेतन फिल्म्स‘‘ की आधारशिला रखी। इसकी योजना सुरैया के आलीशान फ्लैट में 29 अक्तूबर, 1949 को बनी। यहीं पर नवकेतन की पहली फिल्म ‘‘अफसर'' के लिये सुरैया को बतौर नायिका साइन किया गया। फिल्म का निर्देशन चेतन आनंद ने किया था। इसका लेखन कार्य चेतन और उनकी पत्नी उमा बैनर्जी ने किया था। यह फिल्म 1950 में रिलीज हुयी जो प्रसिद्ध रूसी लेखक गोगोल के व्यंग्य नाटक ‘‘इंसपेक्टर जनरल'' पर आधारित थी। चेतन आनंद इप्टा के लिये स्टेज पर नाटकों को निर्देशित करते थे। वह ''अफसर'' को पहले स्टेज पर मंचित कर चुके थे और दर्शकों ने पंसद भी किया था। हॉलीवुड में भी ‘‘इंस्पेक्टर जनरल'' बन चुकी थी और दर्शकों ने पसंद भी किया था। चेतन आनंद ‘‘अफसर'' की सफलता को लेकर आश्वस्त थे। एक दिन बिना किसी शोर शराबे के अंधेरी के एम एंडी टी स्टूडियो में इसकी शूटिंग शुरू हुयी। यह पूरी तरह से कॉमेडी फिल्म थी लेकिन दर्शकोें ने ज्यादा पसंद नहीं किया। मांसल शरीर वाली शोख सुरैया के मदमस्त अभिनय तथा बेजोड़ संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के संगीत के बावजूद ‘‘अफसर'' नहीं चल पायी। हालांकि इसके गीत ‘‘मन हुआ मतवाला'' और ‘‘नैन दीवाने इक नहीं मानें‘‘ आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर है। इस फिल्म से ही देव आनंदने संगीतकार सचिन देव बर्मन को नवकेतन से जोड़ा।
फिल्म के बॉक्स अॉफिस पर खरी नहीं उतरने के कारण चेतन आनंद के हाथ निराशा लगी। उन्हें इसकी असफलता के लिये गहरा झटका लगा क्योंकि नवकेतन का नाम उन्होंने अपने पुत्र केतन के नाम पर रखा था। इस प्रोडक्शन हाउस का उद्देश्य नयी पीढ़ी को स्वस्थ्य मनोरंजन प्रदान करना था।
देव आनंद के सामने बॉम्बे टॉकीज का उदाहरण था जहां बनने वाली फिल्मों में नायक छोटा—मोटा अपराधी होता था और नायिका अपराधियों की कठपुतली। अपराध और रोमांस के इस ताने पर बनी ''बाम्बे टाकीज'' की किस्मत जैसी फिल्में सफल साबित हुयी थी। इसी फार्मूले को आधार बना कर देव आनंद ने ‘‘बाजी'' बनानी की सोची। अपने वायदे के मुताबिक देव आनंद ने निर्देशक का जिम्मा अपने मित्र गुरूदत्त को सौंपा। इसके बाद देव आनंद की महत्वपूर्ण फिल्म आयी ‘‘बाजी'' की पटकथा देव आनंद को ध्यान में रखकर ही लिखी गयी थी। सन 1951 में रिलीज हुई इस फिल्म को अपार सफलता प्राप्त हुई, बाजी देव साहब के फिल्मी कैरियर में मील का पत्थर साबित हुई जिसकी सफलता ने उन्हें हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार बना दिया। ‘‘जिद्दी'' में देव आनंद की जो छवि बनी थी उसे विस्तार दिया बाजी ने। जिद्दी के प्यार में तड़पने वाले मजबूर और परेशान इंसान के बजाय बाजी ने उनकी छवि बेफ्रिक और हंसमुख तथा दुखों और ठोकरों का डट कर सामना करने वाले नायक के रूप में बनी।
बेफिक्र, हंसमुख और दुनिया को अपनी ठोकर पर रखने वाला नया हीरो लड़के—लडकियों के दिलो दिमाग पर छा गया। इस फिल्म का लेखन बलराज साहनी ने किया था। इसी फिल्म से शायर साहिर लुधियानवी नवकेतन से जुड़े। इसी फिल्म के माध्यम से गुरुदत्त की मुलाकात अपनी भावी पत्नी गीता राय से हुई और देव आनंदभी अपनी जीवन संगिनी मोना सिघ से मिले, जो कल्पना कार्तिक के नाम से फिल्मों में काम करने आई थीं। कॉमेडियन जॉनी वॉकर भी इसी फिल्म से नवकेतन परिवार के सदस्य बने। राज खोसला इस फिल्म के सहायक निर्देशक थे। कहानी कुछ इस तरह की थी कि वह रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ भागने वाले युवकों को दिशा देती थी। फिल्म में रोमांस और अपराध के अलावा कामेडी भी खूब थी। इसी फिल्म के जरिये पहली बार गीता दत्त की सुरीली आवाज दुनिया के सामने आयी। ‘‘बाजी'' से ही हिन्दी फिल्मों में दो नायिकाओं का चलन शुरू हुआ। फिल्म हिट हो गयी और नवकेतन की ध्वजा फहराने लगी। इसके बाद नवकेतन से बनने वाली फिल्मों को फिल्म जगत में गंभीरता से लिया जाने लगा।
गुरूदत्त से दोस्ती
अपनी पहली फिल्म ‘‘हम एक हैं'' में काम करने के दौरान देव आनंद वहीं पास में एक गैस्ट हाउस में रहते थे। एक दिन सुबह जब वह प्रभात स्टूडियो जाने के लिये तैयार हो रहे थे, तो कबर्ड में अपनी सबसे अच्छी शर्ट ढूंढ रहे थे लेकिन वह शर्ट मिल नहीं रही थी। दरअसल उस दिन शाम को उन्हें अपनी एक महिला मित्र के साथ ‘‘डेट'' पर जाना था और उस महिला मित्र ने उन्हें अपनी सबसे अच्छी कमीज पहन कर आने का कहा था। उन्हें जब अपनी सबसे पसंदीदा शर्ट नहीं मिली तब उन्होंने शर्ट खोजने के लिये अपनी बड़ी बहन को आवाज दी जो उन दिनों उन्हीं के साथ रूकी हुयी थी। बहन ने कबर्ड़ में रखी एक शर्ट निकाल कर उन्हें पहनने को दी। देव आनंद ने कहा कि यह तो उनकी शर्ट नहीं है। असल में धोबी ने शर्ट बदल दी थी। उनकी बहन ने कहा कि वह इसी शर्ट को पहन लें। यह शर्ट भी भी तो उनकी पसंदीदा शर्ट जैसी ही है। अपनी बहन के कहने पर देव आनंद वहीं षर्ट पहनकर स्टूडियो चले गए।
जब वह स्टूडियो पहुंचे तो उनसे मिलने आए एक व्यक्ति ने उन्हें हैलो कहा। उस व्यक्ति ने देव आनंद से पूछा, ‘‘तुम्हीं हो जिसकी स्टूडियो में इतनी चर्चा हो रही है।'' उस व्यक्ति ने अपना परिचय देते हुए कहा उनका नाम गुरुदत्त है और वह वहां एक असिस्टेंट डायरेक्टर हैं। वह देव आनंद की षर्ट की ओर देख रहे थे। अचानक से फिर अपनी षर्ट देखी जो उन्होंने खुद पहनी थी। देव आनंद ने भी गुरूदत्त की शर्ट देखी। देव आनंद ने कहा कि आपकी षर्ट काफी सुंदर है। गुरूदत्त ने देव आनंद से पूछा कि तुमने यह शर्ट कहां से खरीदी है? देव आनंद ने भी पूछा, ''तुम बताओ कि तुमने यह शर्ट कहां से खरीदी है?''
देव आनंद ने कहा, ‘‘मैंने तो यह चुराई है।'' गुरूदत्त हंसने लगे। वह समझ गये कि माजरा क्या है।
गुरुदत्त भी देव आनंद की तरह अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष कर रहे थे। गुरुदत्त फिल्में बनाना चाहते थे और देव आनंद एक सफल अभिनेता बनना चाहते थे। दोंनों के विचारों में काफी समानता थी। दोनों में दोस्ती हो गयी। देव आनंद और गुरुदत्त साथ—साथ समय बिताने लगे, वे रोज षाम को घूमने जाते थे और रेस्टोरेंट में समय गुजारते थे। अक्सर वे समय व्यतीत करने के लिए पहाडियों पर भी चढ़ा करते थे।
दोनों जब बम्बई में होते तो गुरूदत्त मॉडल स्टाइल में देव आनंद की फोटो खींचते। दोनों अपनी योजनाओं पर चर्चा करते थे। वे बसों और लोकल ट्रेन से यात्रायें करते थे और घूमा करते थे। एक दिन जब दोनों कहीं बैठे थे तो गुरुदत्त ने देव आनंद से कहा कि जब मैं डायरेक्टर बनूंगा तो तुम मेरे स्टार होंगे।''
देव आनंद ने कहा, ‘‘जब मैं कोई फिल्म बनाउंगा तो आप उस फिल्म के डायरेक्टर होंगे। मैं तुम्हारा साथ हर कदम पर निभाऊंगा।''
मुंबई में एक दिन जब देव आनंद और गुरुदत्त ट्रेन यात्रा कर रहे थे तो गुरुदत्त को एक स्टेशन पर एक पोस्टर दिखाई दिया। गुरूदत्त ने देव आनंद का ध्यान खींचते हुये कहा, ‘‘यह तुम हो।‘‘
यह पोस्टर देव आनंद की पहली फिल्म ‘‘हम एक हैं'' की थी और वह रिलीज होने वाली थी। देव आनंद ने चलती हुयी ट्रेन से उस पोस्टर को देखने की कोशिश की लेकिन जल्द ही पोस्टर उनकी निगाह से ओझल हो गया। देव आनंद ने गुरूदत्त से अनुरोध किया कि वह वापस जाकर उस पोस्टर को देखना चाहते हैं। वह अपने को पोस्टर में देखना चाहते थे जैसा कि वह अशोक कुमार को बैनर में देखा करते थे।
जब दोनों उस स्टेशन पर पहुंचे तो पोस्टर के पास दो लड़कियां भी खड़ी थीं। तभी गुरुदत्त ने उन दोनों से पूछा कि यह कैसा दिखता है?
‘‘अच्छा!, उन लड़कियों ने उत्तर दिया।
‘‘गुरुदत्त ने उनसे कहा कि फिल्म देखने जरुर जाना।''
गुरूदत्त और देव आनंद की दोस्ती दोनों की कामयाबी का आधार बनी। समय के साथ यह दोस्ती गहरी होती चली गयी। बाद में जब देव आनंद ने नवकेतन की स्थापना की तो गुरूदत्त उसकी सफलता के प्रमुख सूत्रधार बने। देव आनंद ने 1950 में नवकेतन के बैनर तले बनने वाली दूसरी फिल्म बाजी का निर्देशन का जिम्मा गुरूदत्त को सौंपा और इस फिल्म के जरिये देव आनंद ने अपनी पहचान स्थापित की। इसके दो साल 1952 में फिल्म ‘‘जाल'' का निर्देशन करने का काम मिला तो उन्होंने देव आनंद को बतौर हीरो के तौर पर काम करने का मौका दिया और इस फिल्म से देव आनंद ने रोमांटिक एंटी हीरो की पहचान बनी। दोनों की दोस्ती पारिवारिक दोस्ती में भी बदल गयी। देव आनंद गुरूदत्त की पत्नी गीता दत्त को बहन मानते थे जबकि देव आनंद की पत्नी कल्पना कार्तिक गुरूदत्त के लिये मोना भाभी थी।
देव आनंद और कल्पना कार्तिक की अचानक हुयी शादी में जो चुनिंदा लोग शामिल थे उनमें गुरूदत्त सबसे पहले पहुंचने वाले थे।
गुरूदत्त हालांकि बाद में अभिनेता भी बने लेकिन दोनों में कभी प्रतिस्पर्धा नहीं रही। गुरूदत्त ने 1956 में अपने निर्देशन में बनने वाली फिल्म सीआईडी में भी देवानंद को मुख्य भूमिका दी। सीआईडी ने पूरे देश में सफलता के झंडे गाडे और इसने देश भर में सिल्बर जुबली मनायी।
1958 में बनी नव केतन की एक और फिल्म ‘‘काला पानी'' की सफलता के मुख्य सूत्रधार गुरूदत्त ही बने।
हालांकि 1960 में दोनों की दोस्ती के बीच अचानक दरार आ गयी। जब देव आनंद की कई फिल्में फ्लाप हो रही थी तो वह गुरूदत्त के पास गये ताकि वह अपने निर्देशन के जरिये उनकी अगली फिल्म को सफल बना दें। लेकिन गुरूदत्त ने ऐसा करने से मना कर दिया और कोई और निर्देशक को लेने को कहा। इससे देव आनंद को काफी दुख हुआ और वह फिर कभी गुरूदत्त से मदद नहीं मांगने की कसम खायी।
असल में इससे एक साल पूर्व 1959 में गुरूदत्त की अत्यंत महत्वाकांक्षी फिल्म ‘‘कागज के फूल'' फ्लाप हो गयी थी और गुरूदत्त पूरी तरह से टूट गये थे। जीवन जीने में उनकी दिलचस्पी खत्म हो गयी और खूब शराब पीने लगे थे। दूसरी तरफ देव आनंद अपनी फिल्मों की असफलता के बावजूद अपने को संभाले रखा और अपना आशावादी नजरिया बरकरार रखा। अपनी अगली कुछ फिल्मों ‘‘काला बाजार (1960), ‘‘जब प्यार किसी से होता है'' (1961) और ‘‘हम दोनों'' (1962) की सफलता के बाद देव आनंद ने अपनी लोकप्रियता फिर से कायम कर ली।
गुरूदत्त को 1961 में अपनी गलती का अहसास हुआ और निर्देशक डी डी कश्यप को उनकी फिल्म ‘‘माया'' में देव आनंद को हीरो के बतौर लेने का सुझाव दिया। उधर गुरूदत्त को ‘‘चौदहवीं की चांद'' और ‘‘साहब बीबी और गुलाम'' में कामयाबी मिली। गुरूदत्त 6 अक्तूबर, 1954 को देव आनंद के पास उन्हें और वहीदा रहमान को लेकर नवकेतन के लिये सामाजिक विषय पर एक गंभीर फिल्म बनाने का सुझाव लेकर गये। देव आनंद ने खुले दिल से अपने दोस्त के सुझाव का स्वागत किया। लेकिन उसके चार दिन बाद ही गुरूदत्त ने नींद की गोलियां खाकर खुदकुशी कर ली। गुरूदत्त के आखिरी शब्द थे, ‘‘मैं बहुत थक गया हूं। थोड़ा सोना चाहता हूं।
गुरूदत्त की आत्महत्या की खबर सुनकर देव आनंद अत्यंत विचलित हो गये। उन्होंने ‘‘तीन देवियां'' की शूटिंग रद्द कर दी। जहां गुरू दत्त का पार्थिव शरीर रखा गया था वहां अत्यंत दारूण दृश्य उपस्थित हो गया। देव आनंद रो रहे थे। वह गुरूदत्त का हाथ पकड़ कर बार—बार केवल यही कहे जा रहे थे — ''गुरू उठ। कहा चला गया तूं।'
नवकेतन का विस्तार
नवकेतन ने अपनी स्थापना के बाद से ही फिल्म निर्माण से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों की नयी प्रतिभाओं को सामने लाने तथा उन्हें आगे बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आखिर तक जारी रहा। नवकेतन ने जिन प्रतिभाओं को सामने लाया उनमें गुरूदत्त सबसे महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने फिल्म ‘‘बाजी'' के जरिये निर्देशक के रूप में पहली जिम्मेदारी को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद अपनी खुद की फिल्म कंपनी कायम की और प्यासा, कागज के फूल और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों के जरिये एक ऐसा मुकाम हासिल किया जिस तक पहुंचना किसी के लिये संभव नहीं हुआ।
बाजी की सफलता ने नवकेतन के विस्तार के द्वार खोल दिये। अब नवकेतन पंख फैला कर फिल्मी दुनिया के आकाश में उड़ान भरने को तैयार था। बाजी के बाद चेतन आनंद ने नवकेतन की अगली फिल्म के रूप में ‘‘आँधियाँ'' बनायी जिसे समीक्षकों की सराहना मिली। जाल मिस्त्री की खूबसूरत फोटोग्राफी से सजी इस फिल्म को वेनिस, मॉस्को और चीन के फिल्म समारोह में प्रदर्शन का मौका मिला और देव आनंद इंटरनेशनल हो गए। ‘‘आँधियाँ'' को समीक्षकों ने तो बहुत सराहा लेकिन बॉक्स आफिस पर अधिक नहीं चल सकी। असल में यह फिल्म काफी हद तक कलात्मक थी और बॉक्स आफिस पर इसका चलना शुरू से ही संदिग्ध था। इसके बाद चेतन आनंद ने ‘‘हम सफर'' बनायी और वह भी बॉक्स आफिस पर पिट गयी। इसके बाद से ही दोनों भाइयों का एक दूसरे पर से विश्वास डगमगाने लगा। चेतन आनंद बौद्धिक फिल्में बनाने के पक्षधर थे जबकि देव आनंद चाहते थे कि नवकेतन की जो भी फिल्में बने वह आर्थिक लाभ भी दे। इसके बाद नवकेतन के बनैर तले ‘‘किनारे—किनारे'' जैसी कुछ फिल्में बनी। लेकिन बात नहीं बनी और चेतन आनंद ने अपनी अलग फिल्म कंपनी ‘‘हिमालयन फिल्म्स'' की स्थापना कर ली और अपनी प्रेमिका प्रिया को लेकर स्वतंत्र रूप से फिल्में बनाने लगे। नवकेतन में चेतन आनंद का स्थान देव आनंद के छोटे भाई विजय आनंद उर्फ गोल्डी ने लिया। वह आंधियां में भी अपने बड़े भाई के साथ सह निर्देशक रहे थे। हालांकि उन दिनों विजय आनंद कॉलेज में पढ़ रहे थे। वह सेंंट जेवियर कॉलेज के छात्र थे और कालेज की गतिविधियों में बढ़—चढ़कर भाग लेते थे और नए—नए विचारों में से लबरेज थे।
उधर गुरूदत्त अपने दोस्त से किये गये वायदे को निभाते हुये अपने निर्देशन में बनने वाली फिल्म ‘‘सीआईडी'' एवं ‘‘जाल'' में देव आनंद को बतौर अभिनेता लिया। ये दोनों फिल्में सफल रही और दोनों की दोस्ती और प्रगाढ़ हो गयी।
सीआईडी के अलावा देव आनंद की सफलता में चार चांद लगाने वाली फिल्में थी टैक्सी ड्राइवर, हमसफर, हाउस नम्बर 44, मुनीम जी, फंटूश, पाकेट मार, पेइंग गेस्ट और नौ दो ग्यारह। इन सभी फिल्मों में अपराध के साथ—साथ ग्लैमर भी था।
दरअसल इन फिल्मों की सफलता में उनके छोटे भाई विजय आनंद की महत्वपूर्ण भूमिका थी। विजय आनंद ने एक फिल्म की पटकथा तैयार की थी जिसे उन्होंने चेतन आनंद को सुनाई थी। चेतन आनंद के सहयोग से ‘‘टैक्सी ड्राइवर'' की पटकथा पूरी हुयी। देव आनंद, कल्पना कार्तिक, शीला रमानी और जॉनी वॉकर अभिनीत यह फिल्म जीवंत साबित हुई। इस फिल्म के लिये सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी को लाया गया। लता मंगेशकर को अनुबंधित किया गया। इसकी अधिकांश शूटिंग आउटडोर में — बम्बई की सड़कों पर की गई। पूरी फिल्म में केवल एक सेट लगा था — शीला रमानी के कैबरे नृत्य के लिये। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान देव आनंदने कल्पना कार्तिक से शादी कर ली और देव—सुरैया के दुखदायी प्रणय अध्याय का समापन हो गया।
चुस्त पटकथा और सटीक संपादन ने फिल्म को दिलचस्प बना दिया और नवकेतन की साख फिर से लौट गयी। इस फिल्म में तलत महमूद का गाया गीत ‘‘जायें तो जायें कहां'' आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है।
इस फिल्म में देव आनंद ने बिल्कुल स्वभाविक अभिनय किया। बम्बई में ताज महल होटल के सामने इस फिल्म की शूटिंग के दौरान जब टैक्सी से एक यात्री को उतारने के दृश्य को फिल्माया जा रहा था तब एक विदेशी उस टैक्सी के पास जाकर देव आनंद से उन्हें ‘‘रेड लाइट डिस्ट्रिक'' ले चलने को कहा। जब उस विदेशी को पता चला कि टैक्सी ड्राइवर की वास्तविकता बतायी गयी तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
इसके बाद नवकेतन ने ''हाउस नंबर 44'' और ‘‘फंटूश'' का निर्माण किया जो असाधारण गीत—संगीत की वजह से दिलचस्प रही।
वर्ष 1955 में रिलीज हुयी फिल्म ‘‘हाउस नम्बर 44'' में देव आनंदके व्यक्तित्व को एक नया आयाम मिला। उन पर फिल्माया गया हेमंत कुमार का गीत ‘‘तेरी दुनिया में जीने से के बेहतर है कि मर जायें'' का फिल्मांकन बिल्कुल अलग तरह का था। इस फिल्म का निर्देशन एम के बर्मन ने किया था। इस फिल्म में नायिका की भूमिका में कल्पना कार्तिक थी।
उन दिनों फिल्म निर्देशक के साथ—साथ विजय आनंद उर्फ गोल्डी की पढ़ाई भी चल रही थी। फिल्म निर्देशन के लिये उन्हें नवकेतन से 50 रूपये महीना मिलते थे। सन् 1956 तक विजय आनंद ने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उसके बाद एम.ए. करने के लिये कॉलेज में दाखिला भी लिया लेकिन पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर फूल टाइम निर्देशक बन गये। उस समय उनकी उम्र महज 22 साल की रही होगी लेकिन तब तक गोल्डी स्वतंत्र निर्देशक बन चुके थे और इसका श्रेय भी बहुत कुछ देव आनंदको जाता है जिन्होंने अपने छोटे भाई पर इतना विश्वास किया। गोल्डी ने ''नौ दो ग्यारह;; (1957) फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी थी। एक दिन कार से महाबलेश्वर जाते हुए उन्होंने देव और कल्पना कार्तिक को कहानी सुनाई। देव इस कहानी को पहले ही सुन चुके थे, कल्पना को भी कहानी पसंद आई और महाबलेश्वर की अपनी प्रिय फ्रेडरिक होटल पहुँचते ही देव आनंद ने अपने मुंबई स्थित प्रॉडक्शन स्टाफ को सूचित किया कि विजय आनंद के निर्देशन में बनने वाली फिल्म की तैयारियाँ शुरू करो। इसकी कहानी फ्रेंक काप्रा की कहानी ‘‘इट हैप्पंड वन नाइट'' से प्रेरित थी। गोल्डी की शर्त थी कि वे निर्देशन की शर्त पर ही अपनी पटकथा देंगे।
यह फिल्म दिल्ली—मुंबई सड़क मार्ग के बीच पड़ने वाले कई लोकेशनों पर शूट की गई। इनमें इंदौर के रेलवे स्टेशन के सामने के सड़क यातायात का दृश्य था और देव आनंदने इंदौर—महू के बीच चलने वाले बस कंडक्टरों के समान ‘‘इंदौर—माऊ'', ‘‘इंदौर माऊ'' कहकर सवारियों के लिए हॉक लगाई थी। गोल्डी ने इस फिल्म के गीतों के पिक्चराइजेशन में अद्भुत कमाल दिखाया था। हालांकि ‘‘नौ दो ग्यारह'' कल्पना कार्तिक की आखिरी फिल्म थी क्योंकि उसके बाद उन्होंने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया।
देव आनंद ने नवकेतन के माध्यम से हमेशा नये कलाकारों एवं फिल्मकारों को अवसर देते रहे। बाद के दौर में तो उन्होंने केवल नये कलाकारों को लेकर ही फिल्में बनायी। हालांकि नवकेतन के आरंभ के दौर में पहले गुरूदत्त को बाद में विजय आनंद को स्वतंत्र निर्देशन का जिम्मा सौंपा। उन्होंने अपनी अगली फिल्म ‘‘काला पानी'' (1958) में निर्देशक के तौर पर राज खोसला को मौका दिया। देव आनंद, मधुबाला और नलिनी जयवंत के अभिनय वाली इस फिल्म में अभिनय के देव आनंद को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार दिलाया।
उस समय तक देव आनंद की गिनती दिलीप कुमार और राजकपूर के साथ त्रिमूर्ति के तौर पर होने लगी। उनकी अलगी फिल्म ‘‘काला बाजार'' का निर्देशन एक बार फिर विजय आनंद ने किया। उन्होंने फिल्म की कहानी और पटकथा का भार भी संभाला था। इस फिल्म में तीनों भाइयों ने भूमिका निभायी थी—बड़े भाई ने नायक का मुकदमा लडने वाले एक वकील का किरदार निभाया है। इस फिल्म में दो नायिकायें थीं — वहीदा रहमान और नंदा। हालांकि वहीदा रहमान का अनुबंध गुरूदत्त के साथ लेकिन देव आनंदकी दोस्तीकी खातिर गुरूदत्त ने वहीदा को नवकेतन की फिल्म में काम करने की अनुमति दे दी। इसी फिल्म के लिये पहली बार शैलेन्द्र ने मशहूर गीत लिखे ‘‘खोया—खोया चांद, खुला आसमान''। इस गीत ने संगीत प्रेमियों के दिलों पर चमत्कार पैदा किया।
काला बाजार, सिनेमा के सम्मोहन और उसके कारोबार से जुड़े टिकटों की काला बाजारी में लगे लोगों के जीवन को दर्शाती फिल्म है। इसी माहौल में हम फिल्म के नायक को देखते हैं जो एक पुराने बदमाश को पीट—पाटकर, धमकाकर अपना वर्चस्व कायम करता है। इस फिल्म का एक खूबसूरत मगर दार्शनिक मोड़ यह है कि एकतरफा प्रेम में डूबा नायक, किसी दूसरे से प्यार करने वाली नायिका का पीछा करते हुए ऊटी चला जाता है और लगातार उसे प्रभावित करने, मोहने की कोशिश करता है। उसका प्रेमी विलायत गया है, जिसे बाद में किसी विदेशी लडघ्ी से प्यार हो जाता है। प्रेमी की भूमिका विजय आनंद ने निभायी है। वह लौटकर फिल्म की नायिका को यह बात बताता है, नायिका के मन की देहरी पर नायक खड़ा है, जिसे बस उसकी ओर से अनुमति देने की ही देर है, और फिर गाना है, ‘‘सच हुए सपने तेरे, झूम ले ओ मन मेरे।'' वहीदा रहमान इस भूमिका में बड़े गहरे उतरकर अपने किरदार को जीती हैं। काला बाजार का नायक बुराई के रास्ते को छोडना चाहता है। वह अपने साथियों के साथ, सफेद बाजार स्थापित करता है और सबको दुकानें दिलवा देता है, एक मसीहा रूप। लेकिन बुराई आसानी से पीछा नहीं छोड़ती, नायक को जेल हो जाती है। उसका मुकदमा वही वकील लड़ता है जिसका कभी उसने नोटों से भरा बैग चुराया था, मगर बाद में आत्मग्लानि में उसे वापस जाकर सौंप दिया था।
शैलेन्द्र, एस.डी. बर्मन, मोहम्मद रफी, आशा भोसले, गीता दत्त, सुधा मल्होत्रा के गाने अनूठेपन के कारण आज भी याद आते हैं। ‘‘खोया—खोया चांद, रिमझिम के तराने ले के आयी बरसात आदि। ‘‘न मैं धन चाहूँ'' गीत उस वक्त मर्म को छू जाता है जब नायक की माँ, बहन और छोटा भाई भगवान के सामने बैठकर यह गाना गा रहे हैं और नायक घर में कालाबाजारी के धन से सामान लेकर घर में आता है। इस गाने के बीच देव आनंद के चेहरे के भाव असहजता और ग्लानि को प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हैं। एक और गाना, एक रुपए का सिक्का हाथ में लिए नायक गाता है, सूरज के जैसी गोलाई, चन्दा सी ठण्डक है पाई, चमके तो जैसे दुहाई, यह गाना एक कॉमेडियन के साथ दिलचस्प ढंग से फिल्माया गया है। फिल्म कई तरहों से यादगार है, खास एक दृश्य का जिक्र जरूरी है, जिसमें प्रीमियर शो पर नरगिस, अनवर हुसैन, मेहबूब खान, सोहराब मोदी, राजकुमार, मेहताब जैसे यादगार सितारे कार से उतरकर सिनेमाघर में जाते हुए दिखायी देते हैं और हजारों की भीड उनका इस्तकबाल करती है।
देव आनंद ने नवकेतन की अगली फिल्म ‘‘हम दोनों'' के निर्देशन का काम अमरजीत थे को सौंपा जो नवकेतन के मुख्य प्रचारक थे। इसकी पटकथा विजय आनंद ने लिखी थी। जयदेव का संगीत इस फिल्म की प्रमुख विशेषता थी। नवकेतन ने ही जयदेव को पहली बार स्वतंत्र संगीतकार का अवसर दिया। इस फिल्म के लिये फिर से साहिर लुधियानवी को लाया गया जो उन दिनों सचिन देव बर्मन से रूठे हुये थे और उनसे अलग हो गये थे। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म भारत की ओर से अधिकृत रूप से भेजी गयी थी। यह नवकेतन के बनैर तले बनने वाली आखिरी श्वेत श्याम फिल्म थी। हालांकि कई वर्षों बाद इस फिल्म को रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया जिसका मुख्य श्रेय उनके पुत्र सुनील आनंद को जाता है।
देव आनंद की जीवन संगिनी
सुरैया से संबंध टूटने के बाद देव आनंद भावनात्मक सदमे से उबरने की कोशिश कर रहे थे। सुरैया से रिश्ते के टूटने के बारे में अपनी जीवनी में देव आनंद ने लिखा है कि सुरैया से रिश्ता टूटने से वह टूट चुके थे। वह बहुत रोये लेकिन रोने से क्या फायदा था। वह अब इस बंधन से आजाद हो चुके थे। वह एक पंक्षी की तरह हवा में उड़ने लगे। पंख फैला कर मैं कहता कि मैं आजाद हूं। मैं आजाद हूं।
वह अब जल्द से जल्द सुरैया को भुलना चाहते थे और उसी दौरान उनके दिल को कल्पना कार्तिक से सहारा मिला। कल्पना कार्तिक का मूल नाम मोना सिंघ था। वह जब षिमला में सेंट बेडेस कालेज में पढ़ रही थी तो मिस षिमला चुनी गयी थी। इस प्रतियोगिता के दौरान चेतन आनंद भी मौजूद थे और उन्हें मोना सिंघ इतनी भा गयी कि उन्होंने अपनी फिल्मों में हीरोइन बनाने का मन बना लिया। मोना के परिवार वालों को राजी करके चेतन आनंद उन्हें फिल्मों में काम करने बम्बई लेकर आये थे। फिल्मों के लिये चेतन आनंद ने मोना सिंघ का नाम कल्पना कार्तिक रखा। वह 1951 में फिल्म बाजी में देव आनंद की हीरोइन बनी।
फिल्म अफसर की शूटिंग के दौरान चेतन आनंद ने ही पहली बार मोना को आने वाली फिल्म बाजी की हीरोइन के रूप में देव आनंद से मिलवाया।
चेतन आनंद ने फिल्म बाजी के लिये दोनों के लिये अंबालाल पटेल के स्टुडियो में फोटो सेशन रखा था। उन दिनों कल्पना कार्तिक अपनी मां के साथ वाईएमसीए हॉस्टल में रह रही थी। चेतन आनंद और देव आनंद फोटो सेशन के लिये कल्पना कार्तिक और उनकी मां को लेकर स्टूडियो आये थे। फोटो सेशन के बाद दोनों भाई मां—बेटी को कार से जुहू बीच लेकर आये। कल्पना कार्तिक पहली बार बम्बई आयी थी और शहर का आनंद ले रही थी। जुहू बीच पर देव आनंद और कल्पना कार्तिक पहली बार एक दूसरे के करीब आये। जुहू बीच पर कल्पना और देव आनंद समुद्र की ओर दौड़ लगाये। कल्पना अपने हाथों में सैंडल लेकर दौड़ रही थी और देव आनंद को चुनौती दे रही थी — कौन समुद्र की लहरों तक पहले पहुंचता है। दौड़ने के दौरान कल्पना पानी में फिसल गयी और देव आनंद पर गिर पड़ी। इसके बाद कल्पना कार्तिक समुद्र के किनारे गिले बालू से घरौंदा बनाने लगी। जब देव आनंद वहां पहुंचे तो कल्पना ने हाथ में गिले बालू लेकर उनके चेहरे पर रगड़ दिया।
इसके बाद कल्पना वहां से भागने लगी। कल्पना ने भागते हुये जोर से कहा, ‘मुझे पकड़ कर दिखाओ। जब देव आनंद उसकी तरफ मुड़े तब तक वह कहीं छिप गयी। कल्पना ने कहा , ‘मुझे खोज कर दिखाओ।''
देव आनंद ने कहा, ‘‘मै जानता हूं तुम कहां हो। ''
दोनों एक दूसरे से हिल —मिल चुके थे। कल्पना ने कहा कि उन्होंने फिल्म अफसर में उन्हें देखा है।
देव आनंद ने उसी समय पूछ लिया, ‘‘क्या तुम्हें इस फिल्म में मैं अच्छा लगा हूं।''
कल्पना कार्तिक ने कहा, ‘‘थोड़ा—थोडा। लेकिन अपनी अगली फिल्म में तुम और अच्छे लगोगे, क्योंकि इसमें मैं हूं।''
कल्पना पीछे से आयी और देव आनंद को पकड़ कर समुद्र की लहरों की तरफ ले गयी। वह देव आनंद की तरफ पानी उछालने लगी। वह देव आनंद की निकटता का आनंद ले रही थी और देव आनंद को भी यह अच्छा लग रहा था। जल्द ही दोनों एक दूसरे के जीवन के अभिन्न हिस्से हो गये। कुछ समय बाद नवकेतन ने कल्पना कार्तिक को वाईएमसीए हॉस्टल से एक गेस्ट हाउस में रखा जो इरोज सिनेमा के पीछे था। इसके बाद देव आनंद रोज कल्पना कार्तिक से मिलने जाने लगे। दोनों में धीरे—धीरे प्यार बढ़ने लगा। दोनों एक दूसरे के साथ अधिक से अधिक वक्त बीताने लगे। देव आनंद अपनी गाड़ी से कल्पना को मुंबई में जगह—जगह लेकर जाते। कभी वे दोनों जुहू बीच जाते, कभी काफी पीने के लिये खंडाला जाते और कभी मधु सरीखी मीठी चिक्की खाने के लिये लोनावाला जाते। वे फिल्में देखने जाते। देव आनंद रोजाना मोना के गेस्ट हाउस में बालकनी में साथ बैठते और बातें करते। दोनों को एक दूसरे के साथ दुनिया भर की खुशियां मिल रही थी।
बाजी की शूटिंग के दौरान दोनों में नजदीकियां बढ़ती गयी। बाजी सुपर हिट हो गयी और कल्पना कार्तिक ने फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने के साथ—साथ देव आनंद के दिल में भी जगह बना ली। सुरैया देव आनंद के दिल से निकल चुकी थी।
बाजी की सफलता के बाद दोनों ने टैक्सी ड्राइवर में साथ काम किया। टैक्सी ड्राइवर में कल्पना कार्तिक ने बहुत ही उम्दां काम किया। जिसके बाद कल्पना कार्तिका को नेवकेतन के बाहर की फिल्मों के लिये भी ऑफर आने लगे। लेकिन वह केवल देव आनंद के साथ काम करना चाहती थी। उन्होंने देव आनंद से कहा — वह कोई ओर ऑफर स्वीकार नहीं करेगी। वह देव आनंद की है, न केवल अभी के लिये बल्कि हमेशा के लिये।
कल्पना ने देव आनंद से उनकी इच्छा पूछी। देव आनंद इसके लिये थोड़ा समय चाहते थे, लेकिन कल्पना कार्तिक ने कहा कि उन्हें इसी समय उनका जवाब सुनना है। देव आनंद ने कल्पना को चूम लिया। कल्पना खुशी के मारे देव आनंद से लिपट कर रोने लगी। देव आनंद ने कहा कि हम कल सगाई करने जा रहे हैं।
कल्पना ने कहा — सगाई की जरूरत नहीं है। मैंने तो अपने मन में तुम्हारे नाम की सुंदर अंगूठी पहन ली है। कोई ताम—झाम करने की जरूरत नहीं है। कोई संगीत बजाने की जरूरत नहीं है। किसी मेहमान की, किसी पार्टी की जरूरत नहीं है। तुम मेरे मेहमान होंगे और मैं तुम्हारे लिये भोजन बनाउंगी।''
इसके बाद दोनों ने विवाह पंजीयक के कार्यालय में शादी की तिथि का पंजीकरण करा लिया। विवाह पंजीयक कार्यालय में दोनों की शादी की नोटिस दो सप्ताह तक टंगी रही। ठीक दो सप्ताह बाद टैक्सी ड्राइवर की शूटिंग के दौरान कुछ देर के लिये बे्रक मिलने पर दोनों चुपके से विवाह पंजीयक के कार्यालय पहुंच गये। देव आनंद ने अंगूठी निकाली और कल्पना कार्तिक को पहना दी। दोनों ने रजिस्टर पर हस्ताक्षर किये और शादी के बंधन में बंध गये। केवल दो—एक लोगों को छोड़कर किसी को उनकी शादी के बारे में पता नहीं चला। वहां उन दोनों के अलावा दो गवाह थे जो उनके अत्यंत करीबी एवं विश्वसनीय थे।
विवाह होने के बाद दोनों शूटिंग के लिये पहुंच गये। किसी को कुछ पता नहीं चला। केवल कैमरामैन रत्रा, जो दोनों के बहुत करीब था, कल्पना कार्तिक को अंगूठी पहना देखकर कुछ अंदाजा लगाने लगा। देव आनंद ने रत्रा को चुप रहने के लिये राजी किया और वह मान गया।
लेकिन यह बात ज्यादा दिन छिपी नहीं रह सकी। उस शादी से उनके भाई और उनके पिता को ऐतराज था लेकिन बाद में दोनों मान गये। हालांकि शादी को लेकर उनके बीच तीखी बहस हुयी।
शादी के बाद मोना ने अपने आप को घर—गृहस्थी में समर्पित कर दिया। ‘नौ दो ग्यारह'' कल्पना कार्तिक की आखिरी फिल्म थी क्योंकि उसके बाद उन्होंने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया। दोनों की शादी से एक पुत्र सुनील आंनद तथा पुत्री देविना हैं। उनके पुत्र सुनील ने तीन फिल्मों में काम किया लेकिन असफलता हाथ लगी। इसके बाद अमरीका से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन तथा मास कम्युनिकेशन का कोर्स किया और अपने पिता की कंपनी नवकेतन इंटरनेशनल फिलम्स का काम संभालने का फैसला किया। उनकी पुत्री देविना ने कभी फिल्म में हाथ आजमाने का विचार नहीं किया। उनकी शादी हो चुकी है और उनकी एक पुत्री है।
शादी के कुछ वर्ष बाद कल्पना कार्तिक एवं देव आनंद का परिवारिक जीवन कोई खास सुखी नहीं रहा लेकिन देव आनंदने न तो तलाक लिया और न ही किसी से प्यार किया। दोनों के दाम्पत्य जीवन में काफी उतार—चढाव आये। दूरियां बढ़ने के कारण देव आनंद वह लंबे समय तक होटल सन—एंड—सैंड में एक स्थायी कमरा लेकर रहते थे।
कल्पना कार्तिक पिछले पांच दशक से देव आनंद से अलग रह रही हैं। वह इन दिनों अपना समय चर्च और प्रार्थना में व्यतीत करती हैं। वह बहुत ही खामोशी के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। 50, 60 और 70 के दशक में भारतीय सिनेमा में अपना खास रूतबा रखने वाली नवकेतन फिल्मस परिवार की वह एकमात्र जीवित सदस्य हैं। पिछले दिनों द हिन्दू में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कहा कि उन्होंने अपने अनुभव से सीखा है कि बिना कोई शोर मचाये जीवन का सामना कैसे किया जाता है। ईश्वर ने मुझे जितना दिया, उससे मैंं संतुष्ट हूं।''
वह अपने पुत्र सुनील, पुत्री देविना और अपनी नातिन गीना को बहुत चाहती हैं। वह कहती हैं ‘‘ये मेरे जिगर के टुकड़े हैं। मैं चेतन आनंद के बड़े पुत्र कुंकी को भी बहुत चाहती हूं।''
देव आनंद के निधन के बाद उनके जीवन में किस बदलाव आया है, यह पूछे जाने पर कल्पना कार्तिक एक लंबा सांस लेकर कहती हैं, ‘‘वह बहुत ही ख्याल रखने वाले पति और पिता थे। लोग समझते हैं कि हम अलग हो गये, लेकिन यह पूरी तरह से गलत है। आज भी देव मेरे दिलों में जिंदा है। वह मुस्कुरा रहे हैं और मुझे गाइड कर रहे हैं। मैं यह नहीं मान सकती कि वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेरे लिये वह मेरे पति देव आनंद हैं, 1954 में टैक्सी ड्राइवर के सेट पर विवाह के बाद से आज तक मेरे पति हैं।''
सिनेमा के गाइड
देव आनंद ने न केवल भारतीय सिनेमा अपनी धाक जमायी बल्कि विदेशों में भी भारतीय सिनेमा को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
1960 के आसपास देव आनंद अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकारों के संपर्क में आये। देव आनंद ने एक अमरीकी फिल्म ‘‘द इविल विद इन‘‘ में भी काम किया। इन्हीं दिनों संयोगवश देव आनंद की मुलाकात नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यास लेखिका पर्ल बक से हुई, जो भारत—अमेरिकी सहयोग से एक फिल्म बनाना चाहती थीं। उन्होंने ने देव आनंद को आर. के. नारायण के उपन्यास ‘‘द गाइड'' की पटकथा लिखने को अनुबंधित किया। पहले यह फिल्म अंग्रेजी में बनायी गयी ताकि विदेशों में मान्यता मिले। लेकिन अंग्रेजी में बनायी गयी फिल्म चली नहीं लेकिन विजय आनंद के निर्देशन में हिन्दी में बनी गाइड (1965) ने सफलता के नये प्रतिमान स्थापित किये।
गाइड किसने नहीं देखी, चार पीढियों के लोगों ने इसे देखा है। 60 के दषक में देखी, 70, 80, 90 के दषक में देखी। जब भी देखते हैं तो लोगों को लगता है कि आज ही बनी है। बेहतरीन तरीके से फिल्माई गई फिल्म थी। समीक्षकों ने इसे समय से आगे की फिल्म बताया। यह फिल्म उस जमाने के हिसाब से काफी बोल्ड थी। फिल्म का हीरो ‘‘राजू गाइड'' हिंदी फिल्म ों के अन्य नायकों की तरह अच्छाई का पुलिंदा नहीं था और न ही फिल्म की हीरोइन ‘‘रोजी'' ज्यादातर अभिनेत्रियों की तरह त्याग और सहनषीलता की मूर्ति थी। जब षादी—षुदा जिंंदगी उसे खुषियाँ न दे सकी तो उसने विवाह के बंधन के बाहर रिष्ता बना लिया।
संगीत के मामले में भी गाइड बेमिसाल थी। देव आनंद को आज भी मलाल है कि इसे फिल्म फेयर का सर्वश्रेश्ठ संगीत पुरस्कार नहीं मिला था। हालांकि1967 में सर्वश्रेश्ठ अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देषक, फिल्म आदि श्रेणियों में फिल्म फेयर पुरस्कार गाइड को ही मिले थे। गाइड एकमात्र ऐसी भारतीय फिल्म रही जिसे 2008 में आधिकारिक तौर पर कान फिल्म फेस्टिवल में भी षामिल किया गया था।
देव आनंद ने बीबीसी को दिये गये एक साक्षात्कार में बताया कि ‘‘गाइड जब तैयार हो रही थी तो उसी समय कलर फिल्मों का दौर षुरू हो चुका था। ऐसे में इस फिल्म के दो संस्करण बने थे। अग्रेजी वर्जन आरके नारायण के उपन्यास पर आधारित था। इसके लिए नोबल पुरस्कार विजेता लेखक पर्ल बक के साथ समझौता किया था। लेकिन हिंदी संस्करण अग्रेजी वर्जन से अलग था। हमने स्क्रिप्ट को बदल दिया था। कहानी में एक ऐसी लडकी थी जो षादी—षुदा थी पर उसका किसी और से संबंध था। ये भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाता था। इस वजह से हिंदी फिल्म का क्लाइमैक्स बदल दिया गया था। हिंदी गाइड को एक रूहानी अंजाम दिया गया।''
इस फिल्म की कथा में विजय आनंद ने कई परिवर्तन किए। फिल्म की कथावस्तु में व्यभिचार का चित्रण था। इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री के धुरंधरों ने देव आनंद को पागल तक कहा और फिल्म की असफलता की घोषणा कर डाली, नतीजा उलटा रहा। इस फिल्म ने बॉक्स आफिस पर कमाई के रेकार्ड बनाये और एक बार फिर देव आनंद मालामाल हो गये। फिल्म फेयर ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के साथ सर्वश्रेष्ठ निर्माता भी घोषित किया।
वहीदा रहमान पर फिल्माये गये इस फिल्म का लोकप्रिय गीत की शूटिंग राजस्थान के चित्तौड गढ़ किले में हुयी थी। इस गीत के फिल्मांकन के एक दृश्य में वहीदा रहमान एक दर्पण में दिखाई देती है। यह दृश्य अलाउद्दीन खिलजी और रानी पदमावती के प्रसंग से लिया गया है जिसमें अलाउद्दीन किसी आईन में पदमावती को देखता है।
इस फिल्म के निर्माण के दौरान देव आनंद के पसंदीदा संगीत निर्देशक — एस डी बर्मन गंभीर रूप से बीमार पड़ गये थे लेकिन देव आनंद ने उनकी जगह पर कोई और संगीत निर्देशक को रखने के बजाय बर्मन साहब के स्वस्थ होने का इंतजार किया।
इस फिल्म के एक गीत ‘‘दिन ढल जाये‘‘ को मूल रूप से हसरत जयपुरी ने लिखा था। असल में वह इस फिल्म के पहले गीतकार थे। देव आनंद और विजय आनंद को इस गीत की पहल लाइन पसंद नहीं आयी और उन्होंने हसरत जयपुरी से कहा कि वह इस लाइन हटा दें। लेकिन हसरत जयपुरी ने ऐसा करने से मना कर दिया और वह इस फिल्म से हट गये। दोनों भाइयों ने इसके बाद गीतकार का जिम्मा संभालने के लिये शैलेन्द्र से संपर्क किया कि लेकिन शैलेन्द्र इस बात को लेकर नाराज हो गये कि उन्हें किसी अन्य गीतकार की जगह पर रखा जा रहा है। इस नाराजगी में उन्होंने अपने गीतों के लिये अत्यंत अधिक कीमत रखी लेकिन दोनों भाई इसके लिये भी तैयार हो गये। इनके बीच बातचीत समाप्त होने तक उन्होंने इस फिल्म का मुखड़ा ‘‘गाता रहे मेरा दिल'' तैयार कर लिया था। मजेदार बात यह है कि ‘‘दिन ढल जाये'' वाले गीत में शैलेन्द्र ने भी वही लाइन रखी जो लाइन हसरत जयपुरी ने रखी थी और यह गीत बालीवुड का क्लासिक गीत बन गया।
न्यूयार्क में इस फिल्म के प्रीमियर के दौरान देव आनंद की मुलाकात डेविड सेल्जनिक से मुलाकात हुयी। वह देव आनंद को अपनी फिल्म में लेना चाहते थे जिसकी शूटिंग कश्मीर में होनी थी। लेकिन इस फिल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गयी।
गाइड की सफलता की कहानी एक बार फिर ज्वेल थीफ के रूप में दोहरायी गयी। गोल्डी देव आनंद को लेकर कुछ रोमांचक फिल्में बनाना चाहते थे। उन्होंने देव आनंद के साथ मिलकर ‘‘ज्वैल थीफ'' पर काम करना शुरु कर दिया। इस फिल्म में उनके लेखक साथी के ए नारायण भी उनके साथ थे। इस फिल्म की शूटिंग नयी जगह पर करने का प्रस्ताव और देव आनंद ने अपनी तरफ से सिक्किम में फिल्म की शूटिंग करने को कहा और गोल्डी ने ज्वैल थीफ फिल्म की शूटिंग सिक्किम में ही की।
देव आनंद अपने आर्दश अभिनेता अशोक कुमार को इस फिल्म में महत्वपूर्ण किरदार देना चाहते थे। अशोक कुमार इसके लिये राजी हो गयी और उन्होंने ज्वेल थीफ की भूमिका निभायी।
ज्वैल थीफ एक सुपरहिट फिल्म रही। देव आनंद जब इस फिल्म की प्रीमियर के लिये आये तो दर्शकों ने उन्हें कंधे पर उठा लिया। दर्शक उन्हें छूकर देखना चाहते थे कि वह वास्तव में वहीं हैं जिन्हें देख रहे हैं। उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया।
रंगीला रे
देव आनंद के लिए फिल्में बनाना एक जुनून था। इस फिल्म के बाद देव आनंद ने अपनी अगली फिल्म की तैयारी की जिसका नाम था ‘प्रेम पुजारी।' इस फिल्म की नायिका वहीदा रहमान थी। इस फिल्म की शूटिंग स्विटजरलैंड में जबकि कुछ हिस्से की शूटिंग बिहार में प्रसिद्ध पर्यटन स्थल राजगीर में हुयी थी। फिल्म की शूटिंग देखने आयी भीड़ में से शत्रुघन सिन्हा को चुना गया था जिन्होंने फिल्म में पाकिस्तानी सेना अधिकारी की भूमिका की थी। इसकी शूटिंग महाराष्ट्र के अहमदनगर में शिरडी के पास अस्टागांव में भी हुयी। फिल्म का संगीत एस डी बर्मन ने दिया था जबकि फिल्म के लिये नीरज ने गीत लिखे थे। इस फिल्म में कई अच्छे गीत थे — ‘‘रंगीला रे'', ‘‘फूलों के रंग से'' और ‘‘शोखियों में घोला जाये'' लेकिन इसके बावजूद बॉक्स आफिस पर यह फिल्म खास नहीं चली।
देव आनंद अपनी अगली फिल्म ‘‘हरे रामा हरे कृष्णा'' के लिए एक अभिनेत्री की तलाश कर रहे थे जो फिल्म में उनकी बहन का रोल निभा सके। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में कोई भी अभिनेत्री देव आनंद की बहन का रोल नहीं निभाना चाहती थी। हर अभिनेत्री कोई देव आनंद के साथ रोमांटिक सीन करना चाहती था। उन दिनों देव आनंद अपने भाई गोल्डी के लिए मुमताज के साथ ‘‘तेरे मेरे सपने'' फिल्म कर रहे थे। देव आनंद की मुमताज के साथ काफी अच्छी दोस्ती थी। एक शाम देव आनंद को मुमताज ने अपने घर रात्रि भोज के लिए लिए आमंत्रित किया। डिनर के दौरान मुमताज ने देव आनंद से पूछा कि क्या मैं आपकी फिल्म में हूं।'' देव आनंद ने कहा कि अगर मेरी फिल्म में काम करना है तो अपने को बदलना होगा।''
देव आनंद ने उस फिल्म की कहानी मुमताज को सुनाई। मुमताज ने कहा कि मैं नहीं समझती कि मैं आपकी बहन की भूमिका कर सकूंगी। देव आनंदने जब इसका कारण पूछा तो मुमताज ने कहा कि जब वह उनके साथ होती है तो वह बहन जैसा महसूस नहीं करती। इस पर दोनों हंस पड़े। डिनर खत्म होने पर मुमताज ने फिर पूछा कि उस फिल्म में वह रहेगी या नहीं। देव आनंद ने कहा कि इस फिल्म में मेरे साथ रोमांटिक भूमिका करेंगी लेकिन यह बहुत छोटी और कम महत्वपूर्ण भूमिका है। मुमताज इसके लिये तुरंत तैयार हो गयी। तभी मुमताज ने देव आनंद को कहा कि आपके साथ फिल्म में बहन का किरदार कौन निभा रहा है?
देव आनंद ने उत्तर देते हुए कहा कि आप चिंता ना करे उसके लिए भी कोई ना कोई इंतजार कर रहा होगा।
नवकेतन के प्रचार का जिम्मा संभालने वाले अमरजीत ने अपने घर पर एक छोटी सी पार्टी दी थी, जिसमें देव आनंद को भी शामिल होना था। इस पार्टी को ग्लेमरस बनाने के लिए पार्टी में मिस एशिया का खिताब जीत चुकी जीनत अमान को भी बुलाया गया था। जीनत अमान देव आनंद के सामने बैठी थी।
देव आनंद को इस लड़की में अपनी फिल्म की मुख्य किरदार की छवि दिख गयी। बिंदास और आत्मविश्वास से भरपूर। देव आनंद ने देखा कि उस लड़की ने अपनी जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली और दूसरे हाथ से अपने बैग से चमकता लाइटर निकाला। उसने सिगरेट होठों से दबाई और उसे लाइटर से जलाया। जब उस लड़की की नजर उसे देख रहे देव आनंद पर पड़ी तो उसने देव आनंद की ओर एक मीठी मुस्कान दी और देव आनंद को भी सिगरेट पीने को कहा। देव आनंद कभी — कभार ही सिगरेट पीते थे, लेकिन वह इस हसीन पेशकश को इंकार नहीं कर सके। वह देव आनंद के लिए पहले ही सिगरेट निकाल चुकी थी। देव आनंद ने अपने अंदाज में एक ही बार में सिगरेट को जला दिया। देव आनंद ने उससे पूछा कि क्या आप फिल्में करना चाहती है। उस लड़की ने देव आनंद के चेहरे पर सिगरेट काम धुंआ फेंक दिया। देव आनंद ने अगला सवाल करते हुए कहा कि क्या में तुम्हें स्क्रीन टेस्ट के लिए आमंत्रित कर सकता हूं।
उसने पूछा, कब?
देव आनंद ने कहा कल आ जाओ। जो भी समय आपको सही लगे। जीनत अमान स्क्रीन टेस्ट के लिये पहुंच गयी और उनकी फिल्म की मुख्य किरदार बनने के लिये राजी हो गयी।
दम मारो दम!
‘‘हरे रामा हरे कृष्णा'' में उन्होंने युवकों में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति पर प्रहार किया था। जीनत अमान पर फिल्माया और आशा भोंसले का गाया प्रसिद्ध गीत ‘‘दम मारो दम'' ने लोकप्रियता का रेकार्ड बना डाला। इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा उन्हें नेपाल में नशेड़ी हिप्पियों का हुजूम देखकर मिली थी। इसी फिल्म से आर. डी. बर्मन ने नवकेतन की फिल्मों में अपने संगीत का जादू बिखेरना शुरू कर किया।
इस फिल्म की जबर्दस्त कामयाबी के बाद जीनत अमान की लोकप्रियता आसमान छूने लगी और वह स्कूल—कालेज जाने वाली लड़कियों के रोल माडल बन गयी। ‘‘दम मारो दम'' गर्ल सुपरस्टार बन गयी लेकिन ‘‘बहन वाली छवि'' से बाहर निकलना इतना आसान नहीं था। जीनत अमान को ‘‘बहन वाली छवि'' से बाहर निकलाने के लिये देव आनंद ने ''हीरा पन्ना'‘ फिल्म बनायी।
वर्श 1971 में अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृश्णा' की कामयाबी के बाद सदाबहार हीरो देव आनंद महसूस करने लगे थे कि वह अपनी खोज और इस फिल्म की नायिका जीनत अमान से प्रेम करने लगे हैं। फिल्मों की शूटिंग के दौरान दोनों धीरे—धीरे एक दूसरे के नजदीक आने लगे और और उन दोनों के बीच रोमांस की कहानियां अखबारों एवं फिल्मी पत्रिकाओं की सुर्खियां बनने लगी। निश्चित तौर पर जीनत अमान और देवानंद के संबंध को आगे बढ़ाने में पत्रिकाओं और समाचार पत्रों का काफी योगदान रहा। पत्र— पत्रिकाओं में उनके बारे में तरह—तरह की खबरें छपती थीं और लोग इन खबरों को पढ़ने के लिए लालायित रहते थे। जीनत के प्रति अपनी भावना का इजहार करते हुए देव आनंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ' में लिखा है कि फिल्म की कामयाबी के बाद जब अखबारों और पत्रिकाओं में उनके रोमांटिक संबंधों के बारे में लिखा जाने लगा तो उन्हें अच्छा लगने लगा था।
जब कभी जीनत उत्साह पूर्वक बात करती थी, तो देवानंद को बहुत अच्छा लगता था और जब वे इसी संबंध में चर्चा करते थे तो जीनत भी काफी रोमांचित होती थी। इस तरह वे दोनों एक दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़ गये।
कलकत्ता में एक थियेटर में हरे रामा हरे कष्श्णा के सिल्वर जुबली सेलिब्रेषन के बारे में देवानंद ने कहा, ‘‘प्रसिद्ध पॉप गायिका उशा उत्थप मंच पर ‘दम मारो दम' गीत गा रही थी, तो गीत के बीच में ही वेे दर्षकों के बीच बैठी जीनत को भी पकड़ कर मंच पर ले जाने लगी। अचानक जीनत मेरे पास आयीं और मुझे भी मंच पर ले गयीं। फिर मैं और जीनत भी उशा उत्थप के साथ वह गीत गाने लगे। एक क्षण में ही कई दर्षक भी मंच पर आ गये और फिर सौ से अधिक लोग मिलकर मिलकर वह गीत गाने लगे और इस प्रकार वह गीत एक कोरस बन गया। उन्मत्त दर्षकों ने जीनत को अपने कंधे पर उठा लिया और उन्हें उछालने लगे। मुझे जीनत पर अभिमान हुआ, लेकिन उसी क्षण मुझे जीनत से ईर्श्या भी होने लगी। आखिर उन्हें यह प्रसिद्धी तो मेरे कारण ही मिल रही थी। हालांकि बाद में मुझे अहसास हुआ कि मेरी सोच गलत थी।
करीब दो साल बाद, मेट्रो सिनेमा में इष्क इष्क इष्क के प्रीमियर के बाद, राज कपूर ने आमंत्रित दर्षकों के बीच ही जीनत को किष कर लिया, और इस फिल्म में चकाचौंध कर देने वाले प्रदर्षन के लिए उन्हें षाबाषी दी। उस षाबाषी ने जीनत के उस षाम को और रंगीन बना दिया। उस समय मैंने राज कपूर के नेक और स्वाभाविक प्रतिक्रिया की प्रषंसा की लेकिन जीनत से मुझे ईर्श्या महसूस हुई।
उन्होंने जीनत अमान के प्रति अपने प्यार की घोशणा करने का निर्णय ले लिया था लेकिन लेकिन जब उन्होंने जीनत को राज कपूर के करीब देखा तो उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए। राज कपूर अपनी फिल्म ‘सत्यम षिवम सुंदरम' में जीनत को नायिका बनाना चाहते थे।
देव आनंद के अनुसार, ‘कहीं भी और कभी भी जब जीनत के बारे में चर्चा होती तो मुझे अच्छा लगता। उसी प्रकार मेरी चर्चा होने पर वह खुष होती। अवचेतन अवस्था में हम दोनों एक दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़ गए थे।'
देव आनंद ने स्वीकार किया कि उन्हें उस समय ईर्श्या हुई जब उनकी अगली फिल्म ‘इष्क इष्क इष्क' के प्रीमियर पर राज कपूर ने लोगों के सामने सार्वजनिक रूप से जीनत को चूम लिया। उन्होंने महसूस किया कि वह जीनत से प्रेम करने लगे थे और मुंबई के द ताज में एक रोमांटिक भेंट के दौरान इसकी घोशणा करना चाहते थे।
देव आनंद ने लिखा है, ‘अचानक, एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं जीनत से प्रेम करने लगा हूं और इसे उन्हें बताना चाहता था।' इसके लिए उन्होंने होटल ताज को चुना था जहां वे दोनों एक बार पहले भी साथ साथ खाना खा चुके थे। उन्होंने लिखा कि पार्टी में कुछ देर ठहरने के बाद जीनत के साथ भेंट स्थल पर जाने की व्यवस्था कर ली थी। लेकिन पार्टी में ‘नषे में राज कपूर ने अपनी बांहें फैला दी। जीनत ने भी जवाबी प्रतिक्रिया व्यक्त की।'
देव आनंद को संदेह था कि इसमें कुछ तो है। उन्होंने याद किया कि उन दिनों अफवाह थी कि जीनत ‘सत्यम षिवम सुंदरम' की नायिका की भूमिका के लिए स्क्रीन टेस्ट की खातिर राजकपूर के स्टूडियो गयी थी।
उन्होंने लिखा, ‘अफवाहें सच होने लगी थीं। मेरा मन दुखी हो गया था।' देवानंद के लिए स्थिति और बदल गयी जब ‘नषे में राज कपूर ने जीनत से कहा कि वह उसके सामने सिर्फ सफेद साड़ी में दिखने का अपना वादा तोड़ रही है।' दुखी देवानंद ने लिखा कि जीनत अब उनके लिए वह जीनत नहीं रह गयी थी।
वह जीनत अमान के साथ के अपने संबंधों को भूल जाना चाहते थे लेकिन जीनत अमान की यादें उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी। अतीत की यादों और मानसिक सदमे से उभरने के लिए देवानंद अपने पुत्र सुनील से मिलने अमरीका चले गये। उनका पुत्र वाषिंगटन में अमेरिकन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रहा था। जब वह वापस भारत लौटे तो एक अखबार में उनकी नजर एक लेख पर पड़ी जो इंग्लैंड में गैर कानूनी तरीके से रह रहे भारतीय प्रवासियों पर था। इसी से उनके मन में ‘देष परदेष' बनाने का विचार आया।
‘देष परदेष' के लिए मुख्य नायिका के तौर पर टीना मुनीम को लिया गया जो फिल्म बुलेट के साथ— साथ उन दिनों जाने मन पर भी काम चल रहा था। इस फिल्म को चेतन आनंद बना रहे थे। देवानंद ने ही इस फिल्म का नाम जाने मन दिया था।
देष परदेष की षूटिंग इंग्लैंड में हुई थी। इस फिल्म को न्यूयार्क में क्वीन्स थियेटर में प्रदर्षित किया गया था। इस फिल्म को देखकर लौट रही भीड़ में से तीन लड़कियां देवानंद से मिलने पहुंची। वे तीनों देवानंद से अलग से मिलने की जिद पर अड़ी थी। उन्होंने उन्हें दूसरे दिन पीयरे होटल में मिलने बुलाया। उन लड़कियों में से एक लड़की रिचा षर्मा थी जिसे उन्होंने अपनी अगली फिल्म लूटमार के लिये चुन लिया।
जब वह न्यूयार्क में थे तभी उनकी मुलाकात एक अमरीकी लड़की से हुई जो गले में रूद्राक्ष माला पहनी हुई थी। उसके हाथ में एक छोटा डिब्बा था जिसमें सैफ्रन भरा था। उस लड़की ने देवानंद के माथे पर टीका लगा दिया। उस लड़की के साथ एक स्वामी थी थे और वह भी रूद्राक्ष माला पहने हुये और टीका लगाये हुये थे। उन दोनों ने बताया कि वे दोनों आपस में प्यार करते हैं और वे किसी आश्रम सेे जुड़े हुये हैं। उन्हें देखकर देवानंद के मन में स्वामी दादा बनाने का विचार आया।
जीनत अमान की तरह टीना मुनीम भी देव आनंद की खोज थी। टीमा मुनीम कुछ लड़कियों के साथ देव आनंद का आटोग्राफ लेने के लिये आयी थी। उस समय देव आनंद ‘‘बुलेट, बुलेट, बुलेट'' की शूटिंग कर रहे थे। टीना मुनीम को देखते ही देव आनंद ने अपनी अगली फिल्म ‘‘देश परदेश'' के लिये चुन लिया।
बाद के दौर की फिल्में
देव आनंद की मुख्य नायक के तौर पर मांग हालांकि 1980 के दषक तक भी कम नहीं हुई, लेकिन उन्हें लगा कि अपने पुत्र सुनील आनंद को फिल्मांें में बतौर हीरो लाने का यह सही समय है। उन्होंने क्रामर वर्सेज क्रामर से प्रेरित होकर आनंद और आनंद (1984) के जरियें अपने बेटे को लांच किया, जिसे देवानंद ने खुद ही निर्मित और निर्देषित किया था और उसमें संगीत आर.डी. बर्मन का था। उन्हें उम्मीद थी कि फिल्म अच्छा करेगी लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गयी। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र के लिये कार थ्ीफ (1986) और ‘‘मैं तेरे लिये'' (1988) बनायी। लेकिन ये फिल्में भी नहीं चली और सुनील आनंद ने और फिल्मों में काम न करने का निर्णय लिया।
सुनील ने एक डाक्युमेंटरी के लिये भी काम किया। लेकिन फिल्मों में अपनी असफलताओं से सुनील आनंद ने फैसला किया कि उन्हें क्या करना है।
अपने पुत्र को लेकर बनायी गयी फिल्में तो नहीं चली लेकिन बाद में देवानंद की मुख्य भूमिका वाली कुछ फिल्में ‘हम नौजवान' (1985), ‘लष्कर' (1989) बॉक्स ऑफिस पर सफल हुई और उन्हें काफी सराहना मिली। आमिर खान के साथ देवानंद की सह अभिनेता की भूमिका में बनायी गयी फिल्म अव्वल नंबर (1990) को औसत सफलता मिली। आमिर ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अव्वल नंबर एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसे उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़े बगैर साइन किया था क्योंकि इसे उनके सीनियर देवानंद निर्देषित कर रहे थे। आमिर ने कहा था, ‘‘देवानंद कई पीढ़ियों के लिए एक आइकन थे और अपनी पूरी जिंदगी में हमारा मनोरंजन किया। जब वह 1983 में पद्मिनी कोल्हापुरे के साथ स्वामी दादा में काम कर रहे थे तो वह 60 वर्श के थे लेकिन अपनी उम्र से आधे दिखते थे और पद्मिनी के साथ उनकी केमिस्ट्री भी बहुत अच्छी थी। 1989 में, उनके द्वारा निर्देषित फिल्म ‘सच्चे का बोलबाला' रिलीज हुई। हालांकि इस फिल्म की सराहना की गयी, लेकिन व्यावसायिक रूप से यह फिल्म असफल रही।
उनके द्वारा निर्देषित फिल्म ‘गैंगस्टर' (1995) में एक अज्ञात अभिनेत्री के नंगे बलात्कार के दष्ष्य के कारण यह फिल्म विवादों में घिर गयी, लेकिन फिल्म इस दष्ष्य को काटे बगैर रिलीज हुई। 1990 के दषक में उन्होंने 9 फिल्में निर्देषित की, लेकिन ‘अव्वल नंबर' को छोड़कर बाकी 8 फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल रहीं। लेकिन ‘सौ करोड़' (1991) और ‘सेंसर' (2000) की काफी प्रषंसा हुई। उनकी आखिरी फिल्म ‘चार्जषीट' (2011) को विदेषों में भी सराहना मिली।
सितंबर 2007 में, देवानंद की खुद की जीवनी रोमांसिंग विथ लाइफ प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ एक जन्मदिन पार्टी में रिलीज की गयी। फरवरी 2011 में, उनकी 1961 की ष्वेत—ष्याम फिल्म ‘हम दोनों' को डिजिटल और रंगीन किया गया और फिल्म रिलीज की गयी।
गाता रहे मेरा दिल
हालांकि देव आनंद की फिल्में हमेषा ही अपने समय से आगे मानी जाती रही लेकिन इन फिल्मों की एक बड़ी विशेषता उनका कर्णप्रिय संगीत रही। उनकी कई फिल्में अपने हिट गानों की वजह से आज भी काफी लोकप्रिय हैं। अपनी कई फिल्मों के म्यूसिज सेषन में उनकी सक्रिय रूप से भागीदारी रहती थी। षंकर—जयकिषन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी—आनंदजी, सचिन देव बर्मन और उनके पुत्र राहुल देव बमैन, संगीतकार हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, नीरज, षैलेन्द्र, आनंद बख्षी और गायक मोहम्मद रफी, हेमंत कुमार और किषोर कुमार के साथ उनके सहयोग से कई लोकप्रिय गीत बने। एस.डी. बर्मन, आर.डी. बर्मन, रफी, प्राण और किषोर कुमार फिल्म उद्योग में उनके करीबी दोस्त थे।
देव आनंद के फिल्मी फिल्मी सफर की षुरुआत 1946 में ‘‘हम एक हैं'' से हुयी। उसके बाद ‘‘आगे बढो'', ‘‘मोहन'', ‘‘हम भी इंसान हैं'' जैसी कुछ षुरूआती फिल्मों के बाद, उनके सफर का पहला मुख्य मील का पत्थर साबित हुई फिल्मिस्तान की ‘‘जिद्दी''। इसकी खास बात यह थी कि लता मंगेषकर और किषोर कुमार के लिए भी यह उनकी सबसे महत्वपूर्ण प्रारंभिक दौर फिल्म रही। इस फिल्म में किषोर कुमार का गाया गीत ‘‘मरने की दुआएं क्यूं मांगूं , जीने की तमन्ना कौन करे'' संगीत प्रेमियों को काफी पवसंद आया। इसके बाद ‘‘जीत'', ‘‘नमूना'', ''खेल'' जैसी फिल्मों के गीत लोकप्रिय तो हुए पर, धूम नहीं मचा सके। देव आनंद के फिल्मी सफर में अगला महत्वपूर्ण पड़ाव था नव केतन की स्थापना और इस बैनर के तहत पहली फिल्म थी ‘‘अफसर'' जिसके संगीत की जिम्मेदारी सचिन देव बर्मन को सौंपी गई जो देव आनंद के साथ पहले ‘‘विद्या'' में संगीत दे चुके थे। ‘‘अफसर'' में सुरैया के गाये गीत ‘‘मन मोर हुआ मतवाला'' और ‘‘नैन दीवाने'' की याद आज भी संगीत प्रेमियों के जेहन में ताजा है.
1952 में आयी ‘‘जाल'' में देव आनंद हीरो के एक गैर पारंपरिक अवतार में प्रस्तुत हुए.उनकी भूमिका नकारात्मक भाव लिये खलनायक सी थी, लेकिन हेमंत कुमार के गाये गीत ‘‘ये रात ये चांदनी फिर कहां, सुन जा दिल की दास्तां‘‘ में अपने प्रेम की ऐसी जादुई अभिव्यक्ति पर्दे पर उन्होने प्रस्तुत की, कि उनके मोहपाष से छूट पाना लगभग नामुमकिन सा हो गया। सचिन देव बर्मन की धुन, साहिर के बोल, हेमंत कुमार की आवाज के साथ देव आनंद के व्यक्तित्व ने एक कालजयी रचना के जन्म में बड़ी भूमिका निभाई। हेमंत कुमार के स्वरों और पर्दे पर देव आनंद के व्यक्तित्व ने इसके बाद और बहुत से गीतों में मोहक प्रभाव उत्पन्न किया। ‘‘है अपना दिल तो आवारा'', ‘‘याद किया दिल ने कहां हो तुम'', ‘‘ना तुम हमें जानो'', ‘‘तेरी दुनिया में जी ने से तो बेहतर है'', ‘‘आ गुप चुप गुप चुप प्यार करें'' जैसी अमर रचनाओं के के अतिरिक्त ‘‘दिल की उमंगें हैं जवां'' और ‘‘षिव जी बिहाने चले'' जैसे मजेदार गीत को भी हेमंत कुमार ने आवाज दी।
हेमंत कुमार के बाद तलत महमूद ने देव आनंद के लिये कई यादगार गीत गाये, जिनमें ‘‘टैक्सी ड्राइवर'' का कालजयी गीत ‘‘जाये ंतो जायें कहां'' प्रमुख हैं। इसके अलावा फिल्म पतिता (1953) में देव आनंद के लिये एक यादगार गीत गाया —हैं सबसे मधुर वो गीत। मन्ना डे ने फिल्म काला बाजार और किनारे किनारे में जबकि और मुकेष ने फिल्म षायर और विद्या में देव आनंद के लिए पार्ष्व गायन किया। देव आनंद की फिल्म गाइड और प्रेम पुजारी जैसी कुछ फिल्मों मे सचिन देव बर्मन के स्वरों में कुछ गीत बहुत यादगार रहे।
इन गायकों के अलावा जिन दो गायकों के स्वर पर्दे पर देव आनंद के साथ सबसे ज्यादा जमे, वे थे मोहम्मद रफी और किषोर कुमार। मोहम्मद रफी ने अगर देव आनंद के रूहानी और रोमांटिक अंदाज को बखूबी स्वर दिये तो किषोर ने उनकी ऊर्जा और उनके अंदर के मनमौजी, खिलंदडपने को अपने स्वरों में पेष किया।
हालांकि उनकी फिल्मों के अनेक गीतों को मोहम्मद रफी ने आवाज दी है और उनकी फिल्मों में मोहम्मद रफी के गाये अनेक गीत काफी लोकप्रिय रहे लेकिन देव आनंद की आवाज के तौर पर किशोर कुमार को ही जाना जाता है। किषोर के स्वरों को देव आनंद ने पर्दे पर प्रेम की, मस्ती की, दर्षन की, दर्द की ऐसी अभिव्यक्ति दी कि गायक और नायक के बीच की दूरी खत्म सी हो गई। खुद देव आनंद ने कहा था कि हालांकि रफी साहब ने मेरे सबसे सर्वश्रेश्ठ गीत गाए, लेकिन किषोर की आवाज मेरे व्यक्तित्व पर ज्यादा फबती है।''
किषोर कुमार ने देव आनंद अभिनीत फिल्म जिद्दी में पहला फिल्मी गीत गाया था। खेमचंद प्रकाष के संगीत निर्देषन में किषोर कुमार ने इस फिल्म में एकल गीत गाया था—‘‘मरने की दुआएं क्यूं मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे।'' इस फिल्म में किषोर कुमार ने देव आनन्द के माली की एक छोटी से भूमिका भी निभाई और कुछ दृष्यों में देव आनन्द के साथ पर्दे पर अवतरित भी हुए। यह आने वाले समय के एक लंबे और मजबूत रिष्ते की षुरुआत भर थी। समय के साथ दोनों के बीच बहुत गहरी दोस्ती भी थी। जब भी देव आनंद उनसे गाने की फरमाइष करते थे तो किषोर कुमार हमेषा तैयार रहते थे। दोनों के बीच हंसी—मजाक का भी दौर चलता था।
किषोर कुमार ने फिल्म ‘‘सच्चे का बोल—बाला'' में देव आनंद के लिये आखिरी गीत गया। उसकी जब रिकॉर्डिंग होनी थी तो किषोर कुमार ने देव आनंद को रिकॉडिर्ंग बूथ में बुलाया और कहा, ‘‘देव भाई मैं अपने अंतिम कंसट के लिये विदेष जा रहा हूं। इस बार मेरी इच्छा है कि तुम भी मेरे साथ चलो। मैं चाहता हूं कि तुम वहां के लोगों को संबोधित करो। अमरीका में हर किसी की यही इच्छा है।''
देव आनंद ने कहा, ‘‘मुझे बहुत खुशी होगी कि मैं तुम्हारे जैसे अपने प्रिय मित्र के लिये ऐसा कर सकूं। लेकिन मुझे बताओ कि कब जाना है।''
लेकिन कुछ दिनों बाद देव आनंद को खबर मिली कि किशोर कुमार इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गये हैं। देव आनंद को किशोर कुमार के जाने का बहुत दुख हुआ। वह किशोर कुमार के पार्थिव शरीर के पास देर तक बैठकर आंखें बंद करके मन ही मन उन गीतों को याद करने लगे जिन्हें किशोर कुमार ने उनके लिये गाये थे। इसके बाद देव आनंद अपनी कार के पास चले गए और कार के पास आकर रोने लगे। वह घर लौटते समय पूरे रास्ते में रोते रहे।
देव आनंद के सिनेमाई व्यक्तित्व को पर्दे पर उनके गीतों से षब्दों का आकार देने में जिन गीतकारों ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वो थे साहिर, मजरूह, षैलेन्द्र और नीरज। हिंदी फिल्मों में कभी भी यदि सर्वकालिक सर्वश्रेश्ठ फिल्म संगीत एलबमों की सूची बनाई जाएगी तो देव आनंद की जयदेव द्वारा स्वरबद्ध ‘‘हम दोनो'' और सचिन देव बर्मन की स्वरबद्ध ‘‘गाइड'' हमेषा सबसे ऊपर के स्थानों पर रखी जाएंगी।
वैष्विक स्तर पर भी भारतीय फिल्म संगीत का सबसे बेहतरीन प्रतिनिधित्व करती हैं ये दो फिल्में। फिल्म गाइड के गीत ‘‘पिया तोसे नैना लागे रे'' में भारतीय लोक और षास्त्रीय संगीत का अनूठा मेल है तो ‘‘अल्लाह तेरो नाम ईष्वर तेरो नाम'' साम्प्रदायिक सद्भभाव की बेहतरीन मिसाल है, ''ंमैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया'' और ‘‘और ‘‘वहां कौन है तेरा'' में जीवन दर्षन है तो ‘‘कभी खुद पे कभी हालात पे'' और ‘‘दिन ढल जाये'' में दर्द और विरह की गजब की अनुभूति है।
गाइई का लोकप्रिय गीत ‘‘कांटों से खींच के ये आंचल'' मे परंपराओं को ठुकराता एक विद्रोही गीत है, सचिन दा ने जिसकी संरचना में परंपरा से हट कर मुखड़ा की बजाय, अंतरे से गीत को षुरुआत दी, और इनके सबके साथ रोमांस के रंग बिखेरते ‘‘अभी ना जाओ छोड़ कर'' और ‘‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैंं'' जैसे अद्भुत गीत हैं। हिंदी फिल्म संगीत को फिल्म हम दोनों और गाइड का संगीत नवकेतन की ओर से अमूल्य योगदान है।
देव आनंद के गीतों का एक और महत्तवपूर्ण पहलू था पर्दे पर अपनी अभिनेत्रियों के साथ उनकी केमिस्ट्री, जो गीतों में बहुत खूबसूरती से उभर के सामने आती थी। काला पानी में मधुबाला के साथ छेड़—छाड़ की मस्ती लिए ‘‘अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना'' हो या सुचित्रा सेन के साथ बंबई का बाबू में ‘‘दीवाना मस्ता हुआ दिल'' हो।
साधना के साथ हम दोनों में ‘‘अभी ना जाओ छोड़ कर'', कल्पना कार्तिक के साथ नौ—दो—ग्यारह में ‘‘आजा पंछी अकेला है'', नूतन के साथ ‘‘दिल का भंवर करे पुकार'' ‘‘छाड़ दो आंचल;'' या फिर वहीदा रहमान के साथ ‘‘गाता रहे मेरा दिल'' ऐसे कितने ही जबरदस्त गीतों का जादू वशोर्ं बाद भी बिल्कुल ताजा है।
सचिन देव बर्मन के साथ निर्माता देव आनंद ने बहुत लंबा सफर तय किया लेकिन अपने फिल्मी सफर के दूसरे पड़ाव में पंचम के साथ कई फिल्में की जिनमें ‘‘हरे रामा हरे कृश्णा'' मील का पत्थर साबित हुई। युवाओं की कुण्ठा और ऊर्जा के अनूठे मेल से जनित अमान पर फिल्माये गये ‘‘दम मारो दम'' के तेवर बहुत पसंद किये गए। इसके बाद ‘‘हीरा पन्ना‘‘, ‘‘इष्क इष्क इष्क‘‘, ‘‘वारंट‘‘, ‘‘बुलेट‘‘, ‘‘स्वामी दादा‘‘, ‘‘हम नौजवान‘‘ जैसी कई साधारण सी फिल्में की लेकिन इन फिल्मों के गीत आज भी लोकप्रिय हैं। हालांकि राजेष रोषन के साथ ‘‘देस परदेस‘‘ और ‘‘लूटमार‘‘ की और बाद में बप्पी लाहिरी के साथ ‘‘अव्वल नम्बर‘‘ और ‘सच्चे का बोलबाला‘‘ जैसी फिल्मों के साथ गीतों की गुणवत्ता में कमी आती गयी हालांकि उनके फिल्मी सफर की सबसे खास बात यह कि देव आनंद के इस दौर के कमजोर गीत — संगीत एवं कमजोर फिल्मों ने स्वर्णिम दौर के उनके बेहतरीन कष्तियों की चमक को किसी तरह से फीका नहीं किया.
हालांकि देव आनंद मानते थे कि किषोर कुमार की आवाज उनके व्यक्तित्व पर ज्यादा फबती है लेकिन देव आनंद के व्यक्तित्व को अगर किसी गीत से बयां करना हो तो जयदेव द्वारा स्वरबद्ध और साहिर लुधियानवी रचित गीत ‘‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया'' ही याद आता है जिसे मोहम्मद रफी ने गाया था। उनके व्यक्तित्व का सारांष चार मिनट के गीत में उभर के आता है और इसका दर्षन कई लोगों के लिये प्रेरणा साबित हुआ है। इसके अलावा मोहम्मद रफी का एक मार्मिक गीत और है मदन मोहन द्वारा संगीत बद्ध फिल्म षराबी का ‘‘मुझे ले चलो'' जो देव आनन्द की फिल्मी यात्रा का विदाई गीत कहा जा सकता है।
नवकेतन की खोज
बेहतरीन सिनेमा के कद्रदान अभिनेता—निर्देषक गुरुदत्त का नाम बड़े अदब से लेते है। कौन भुला सकता है जीनत अमान जैसी दिलकष अभिनेत्री को या फिर तब्बू जैसी बेमिसाल अदाकारा को। हरफनमौला गायक किशोर कुमार की आवाज के जादू से कौन बच सकता है। तीन बार राश्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले संगीत निर्देषक जयदेव आज भले ही न हों लेकिन उनके गीत जहन में ताजा है ।
इन सब कलाकारों में एक बड़ी समानता है और वह यह कि इन्हें पहली दफा मौका देने या तराषने का काम किया है देव आनंद द्वारा 1949 में षुरू किये गये नवकेतन फिल्म्स ने।
1949 में नवकेतन के बैनर तले बनी पहली फिल्म बनी थी अफसर जिसमें देव आनंद और सुरैया ने काम किया था और अंतिम फिल्म थी ‘‘चार्ज षीट'' जो तीन दिसंबर, 2011 में देव आनंद के निधन से करीब दो महीना पूर्व 30 सितम्बर 2011 को रिलीज हुयी। इन दोनों फिल्मों के बीच 100 से अधिक फिल्मों के जरिये अनेक प्रतिभाओं की खोज की गयी, उन्हें दुनिया के सामने लाया गया और उन्हें तराषा गया।
फिल्म अफसर के बाद नवकेतन ने फिल्में बनाने का जो सिलसिला षुरु हुआ तो मानो रुकने का नाम ही नहीं लिया। फिल्म ‘‘बाजी'' का एक गाना था— ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, अपने पे भरोसा है तो इक दांव लगा ले'। यही खूबी थी नवकेतन और इससे जुड़े तीनों भाइयों की — देव, चेतन और विजय आनंद की— अंजाम की परवाह किए बगैर दांव लगाना।
नवकेतन के बैनर तले ऐसी फिल्में बनी जिन्होंने लक्ष्मण रेखाओं को तोड़ नए आयाम स्थापित किए — कभी रुढ़ीवादी परपंराओं को चुनौती देते विशयों पर फिल्में बनाईं, कभी नई—नई तकनीकों का इस्तेमाल तो कभी ऐसे गीत—संगीत का प्रयोग जो आपने पहले न कभी सुना हो न कल्पना की हो।
नवकेतन ने एक सौगात समय—समय पर हमेषा हिंदी सिनेमा को दी — नए हुनरमंद अभिनेता—अभिनेत्रियाँ, गायक, निर्देषक, गीतकार, सिनेमेटोग्राफर।
नवकेतन की सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण खोज थे गुरूदत्त, जो देव आनंद के बहुत ही अजीज दोस्त थे ओर जिन्हें नवकेतन के बैनर तले बनने वाली दूसरी फिल्म बाजी (1951) के निर्देषन की कमान सौंपी गयी थी। यही नहीं अपनी कॉमिक टाइमिंग से सबको मात देने वाले जॉनी वॉकर भी नवकेतन की खोज थे। हिंदी फिल्मों की सबसे बिंदास अभिनेत्री मानी जाने वाली जीनत अमान भी नवकेतन की देन है।
देवानंद के नवकेतन के बैनर तले गुरुदत्त, राज खोसला, वहीदा रहमान, एस.डी. बर्मन, जयदेव, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, यष जौहर, षेखर कपूर, कबीर बेदी को हिंदी फिल्मों में ब्रेक दिया गया।
देव आनंद जब खुद निर्देषन करने लगे तो उन्होंने 1978 में टीना मुनीम को देखा, परखा और देस परदेस में पर्दे पर उतारा। स्वामी दादा में बॉलीवुड के जग्गू दादा यानी जैकी श्रॉफ को भी मौका दिया।
इष्क इष्क इष्क में जरीना वहाब, हम नौजवान में तब्बू को अभिनेता—अभिनेत्री बनाने का श्रेय जाता है और रिचा षर्मा (संजय दत्त की पहली पत्नी) को फिल्म उद्योग में ब्रेक देने का श्रेय हासिल है। देवानंद ने ही जाहिरा, जाहिदा हुसैन, नताषा सिंहा, एकता सोहिनी, सबरीना को लांच किया।
संगीतकार राजेष रोषन का उन्होंने प्रोत्साहित किया। अमित खन्ना ने 1971 में कार्यकारी निर्माता के तौर पर नवकेतन के साथ अपने कैरियर की षुरूआत की और 70 के दषक में वह देवानंद के सेक्रेटरी रहे। उन्होंने कहा था, ‘‘नवकेतन इस मायने में विषिश्ट है क्योंकि यह दुनिया में एकमात्र ऐसी फिल्म कंपनी है जिसे अभी भी वही आदमी चला रहा है जिसने उसे षुरू किया था।
षत्रुघन सिंहा ने एक साक्षात्कार में कहा था कि देवानंद ने ही ‘प्रेम पुजारी' में मुझे भूमिका देकर मुझे फिल्मों में ब्रेक दिया था। उस फिल्म में देवानंद ने षत्रुघन सिंहा को एक बहुत छोटी भूमिका दी थी, जिसकी भरपाई उन्होंने षत्रुघन सिंहा को अपनी अगली फिल्म ‘गैम्बलर' में बड़ी भूमिका देकर की। षत्रुघन सिंहा ने कहा था, ‘‘उसके बाद हमलोगों ने ‘षरीफ बदमाष' में एक साथ काम किया। उनके साथ काम करना मेरे लिए गर्व की बात है।
नवकेतन वह बैनर रहा जिसने न केवल नये चेहरों को मौका देने बल्कि लीक से अलग हटकर समसामयिक और सामाजिक महत्व के विशयों को फिल्मों में उठाने से कभी गुरेज नहीं किया। 70 के दषक में प्रचलित हिप्पी कल्चर, ड्रग्स। इसी सब को मुद्दा बनाया देव आनंद ने नवकेतन की फिल्म हरे कृश्णा हरे राम जो आज कल्ट फिल्म मानी जाती है। 1971 में आई इस फिल्म का विशय बोल्ड था, इसका फिल्मांकन प्रयोगात्मक था, हीरोइन भी पारंपरिक छवि से दूर पाष्चात्य कपड़े पहने, कष भरती एक लड़की थी।
नवकेतन की फिल्में संगीत के मामले भी अव्वल मानी जाती थी। एसडी बर्मन ने काला पानी, गाइड, बाजी, ज्वेल थीफ, टैक्सी ड्राइवर जैसी फिल्मों में नवकेतन को कई खूबसूरत गाने दिए। आरडी बरमन, राजेष रोषन और कल्याणजी आनंदजी जैसे संगीतकारों ने भी नवकेतन के साथ काम किया।
हालांकि 80 का दषक आते—आते फिल्मी परिदृष्य बदलने लगा। हालांकि नवकेतन के बैनर तले फिल्में बनती रही लेकिन बॉक्स अॉफिस की कसौटी पर ये फिल्में पिटती गई। ये फिल्में कब आयी और कब चली गयीं, बहुत से लोगों को षायद पता भी नहीं चला होगा, लेकिन एक फिल्म के पिटने के साथ ही देव आनंद एक नई महत्वाकांक्षी फिल्म की घोशणा करते रहे।
चेतन और विजय आनंद के इस दुनिया को अलविदा कहने के बाद भी और सदाबहार देव आनंद ने अपनी जिंदादिली से लंबे समय तक नवकेतन को जिंदा रखा। हालांकि इसकी चमक फीकी पड़ गई है, बॉक्स अॉफिस पर खनक कम हो गई है लेकिन अपने नाम के अनुरुप नवकेतन फिर भी कुछ नया करने की कोषिष करने में जुटा रहा—अंदाज और अंजाम चाहे कुछ भी रहा हो।
नवकेतन/देव आनंद की खोज
गुरूदत्त — निर्देशक
जयदेव — संगीत कार
राज खोसला — निर्देशक
कल्पना कार्तिक — अभिनेत्री
जानी वाकर — — हास्य कलाकार
विजय आनंद — अभिनेता/निर्देशक
किशोर कुमार — गायक
यश जौहर — निर्माता
साहिर लुधियानवी — गीतकार
नीरज — गीतकार
भप्पी सोनी — निर्देशक
मोहन सहगल — निर्देशक
अली अकबार खान — संगीत निर्देशक
मंडी बर्मन — निर्देशक
जादिदा — अभिनेत्री
प्रताप सिन्हा — सिनेमेटोग्राफर
जीनत अमान — अभिनेत्री
हर्ष कोहली — निर्माता
शत्रुघन सिन्हा — अभिनेता
जैकी श्राफ — अभिनेता
डी के प्रभाकर — कैमरामैन
गोगी आनंद — निर्देशक
क्रिस्टीनी ओ नील — अभिनेत्री
सुनील आनंद — निर्देशक/अभिनेता
नताशा सिन्हा— अभिनेत्री
शेखर कपूर — निर्देशक / अभिनेता
जरीना वहाब — अभिनेत्री
ऋचा शर्मा — अभिनेत्री
एकता — अभिनेत्री
मिंक — अभिनेत्री
मनु गार्गी — अभिनेता
फातिमा शेख — अभिनेत्री
रमन कपूर — अभिनेता
जस अरोड़ा — अभिनेता
शबरीना — अभिनेत्री
तब्बू — अभिनत्री
जसपिंदर नरुला — गायिका
शबाना आजमी — अभिनेत्री
कबीर बेदी — अभिनेता
अमित खन्ना — संगीतकार
हीनी कौशिक — अभिनेत्री
उदित नारायण — गायक
अभिजीत — गायक
फिल्मी कैरियर का आंकडा
देव आनंद अपने छह दषक के लंबे फिल्मी कैरियर में कुल मिलाकर 114 हिंदी फिल्मों में दिखाई दिये। ‘कहीं और चल' (1968) 1970 के दषक के प्रारंभ में रिलीज हुई और मल्टी स्टारर फिल्म ‘एक दो तीन चार' (1980) अभी तक रिलीज नहीं हुई है। और ‘श्रीमानजी' (1968) में वे अतिथि कलाकार की भूमिका में थे। उनकी 82 फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट हुइर्ं और 29 व्यावसायिक रूप से असफल रहीं। 2011 में, उन्होंने हिंदी फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाने वाले दूसरे अभिनेता होने का रिकार्ड कायम किया। उन्होंने 104 फिल्मों में अकेले मुख्य भूमिका निभायी। पहला श्रेय राजेष खन्ना को जाता है जिन्होंने 106 फिल्मों में हीरो के रूप में मुख्य भूमिका निभायी।
देवानंद ने 19 फिल्में निर्देषित की और 35 फिल्मों का निर्माण किया जिनमें से 7 फिल्मों को निर्देषन के तौर पर और 18 फिल्माें को व्यावसायिक रूप से बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिली। उन्होंने अपनी 13 फिल्मों की कहानी लिखी।
उन्होंने दो अभिनेता वाली सिर्फ दो ही फिल्मों — 1955 में दिलीप कुमार के साथ इंसानियत और 1996 में धर्मेन्द्र के साथ ''रिटर्न ऑफ ज्वेल थीफ''। उन्होंने ‘द एविल विदिन' (1970) जैसी इंग्लिष फिल्मों में भी काम किया जिसमें उनके साथ प्रख्यात अभिनेत्री कियू चिन और जीनत अमान थी। इसके अलावा उन्होंने गाइड (अंग्रेजी संस्करण) में भी काम किया।
राजनीति में देव आनंद
देव आनंद संभवतः पहले बालीवुड स्टार थे जिन्होंने सुविचारित तरीके से राजनीति में अपनी किस्मत आजमायी। वह बहुत कम समय के लिये राजनीति में रहे। हालांकि राजनीति का उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा लेकिन यह जरूर है उन्होंने फिल्मी हस्तियों के राजनीति में आने का सिलसिला शुरू किया।
उन्होंने व्यवस्था को दुरूस्त करने तथा राजनीतिज्ञों को सबक खिसाने के लिये राजनीति में आने का फैसला किया तथा नेशनल पार्टी आफ इंडिया (एनपीआई) भी बनायी। देव आनंद ने खुलकर इंदिरा गांधी, संजय गांधी और शीर्ष कांग्रेस नेताओं का विरोध किया। वह सार्वजनिक और निजी बैठकों में कांग्रेसी नेताओं का खुलकर विरोध करते थे और कहते थे कि उन सबको सबक खिाना है।
राजनीति में सक्रिय होने का फैसला उन्होंने 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाये जाने के कारण किया। उन दिनों कांग्रेस की ओर से देव आनंद और उस समय के मषहूर फिल्मी हस्तियों को संजय गांधी की रैली में षामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था। देव आनंद जब दिल्ली पहुंचे तो दिलीप कुमार को भी वहां देखा, जिन्हें भी रैली के लिए आमंत्रित किया गया था। कांग्रेस के सभी बड़े नेता उस रैली में मौजूद थे। रैली में जिस तरह से संजय गांधी की वाहवाही की जा रही थी और कांग्रेस नेता जिस तरह से संजय गांधी की चापलूसी कर रहे थे उसे देखकर देव आनंद का मन खिन्न हो गया। रैली खत्म होने के बाद जब देव आनंद और दिलीप कुमार बाहर निकल रहे थे तब उनसे टेलीविजन सेंटर जाकर युवा कांग्रेस के बारे में कुछ बोलने को कहा गया, जिसके लिए दोनों तैयार नहीं थे। देव आनंद ने जोरदार तरीके से और खुलकर इंकार कर दिया किया। इसका नतीजा यह निकला कि उनकी फिल्मों को टेलीविजन पर प्रदर्षित किये जाने से रोक दिया गया। देव आनंद ने सरकार के इस कदम के विरोध में दिल्ली जाकर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री से मुलाकात की।
सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने देव आनंद को समझाने की कोषिष की कि सत्ता में जो सरकार है, उसके पक्ष में बोलने में कोई बुराई नहीं है। देव आनंद ने साफ तौर पर सरकार के पक्ष में बोलने से इंकार कर दिया। वह बम्बई लौटकर गांधी परिवार की बहुत निकट मानी जाने वाली नरगिस से मिले। नरगिस ने भी सरकार के उस सर्कुलर के खिलाफ नहीं जाने की सलाह दी जिसमें फिल्म कलाकारों को निर्देष मिलने पर टेलीविजन पर सरकार के पक्ष में बोलने को कहा गया था।
उन्हीं दिनों प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी के कहने पर देव आनंद ने जनता पार्टी की एक रैली में लोगों की भारी भीड़ के बीच सरकार के खिलाफ भाशण दिया, जो दूसरे दिन अखबारों की सुर्खियां बनी। देव आनंद ने संभवतः पहली बार इतनी बड़ी जन सभा को संबोधित किया था।
आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय हुई और जनता पार्टी सत्ता में आई। उन्हें जनता पार्टी की ओर से दिल्ली में राजघाट पर राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित सभा में बुलाया गया था। इस सभा में वह हजारों जनसमुदाय के बीच अटल बिहारी बाजपेयी, लाल कष्श्ण आडवाणी और जयप्रकाष नारायण के पास खड़े हुए। बाद में उन्हें देष के प्रधानमंत्री का नाम चुनने के लिए आयोजित सभा में भी बुलाया गया। उसी सभा में अगले प्रधानमंत्री के रूप में मोरारजी देसाई का नाम चुना गया। उसके बाद वह जनता पार्टी नेताओं के करीब आते गये, लेकिन कुछ महीनों के बाद ही पांच साल का अपना षासन काल पूरा करने के पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिर गई। इससे देव आनंद काफी दुखी हुये और जनता पार्टी के नेताओं से उनका मोहभंग हो गया।
दोबारा आम सभा की घोशणा हुई और देव आनंद एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बनाने के बारे में विचार करने लगे जो देष में सुधार ला सके। उन्होंने एक बैठक बुलायी जिसमें नयी राजनीतिक पार्टी का नाम नेषनल पार्टी ऑफ इंडिया रखा गया तथा देव आनंद को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। पार्टी की पहली रैली बम्बई में षिवाजी पार्क में हुई और काफी अधिक संख्या में लोग जमा हुये जिससे उत्साहित होकर पार्टी की अगली रैली दिल्ली के रामलीला मैदान में करने की योजना बनायी गयी। उन्हीं दिनों किसी जानकार ने बताया कि इंदिरा गांधी बम्बई में हैं और वह चाहती है कि देव आनंद उनसे हाथ मिलायें। लेकिन देव आनंद ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।
पार्टी में षामिल होने के लिए देष के विभिन्न भागों से नौजवान आ रहे थे और उन सबसे उत्साहित होकर देव आनंद ने पार्टी को लोकसभा चुनाव मैदान में उतारने का फैसला कर लिया, जो कुछ सप्ताह बाद ही होना था। उन्होंने पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए कई मषहूर हस्तियों से बात की लेकिन कई ने चुनाव लड़ने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। यही नहीं, इतने कम समय में चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करना तथा तैयारी करना बहुत मुष्किल काम था और इसलिए देव आनंद ने बहुत सोच विचार कर पार्टी को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में डालने का फैसला किया। हालांकि देव आनंद ने अटल बिहारी बाजपेयी के लिए प्रचार किया और दिल्ली के रामलीला मैदान में बाजपेयी की चुनावी सभा को भी संबोधित किया। चुनाव में इंदिरा गांधी पूरे बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। कुछ दिनों के बाद संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत हो गयी। देव आनंद ने इंदिरा गांधी को षोक संदेष भी भेजा था।
इसके बाद उन्होंने फिर से अपना ध्यान फिल्म बनाने की ओर लगया। कुछ साल बाद जब केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतष्त्व में सरकार बनी तब उन्हें दिल्ली से लाहौर के लिए षुरू हुई बस सेवा के उद्घाटन के लिए बुलाया गया और वह श्री बाजपेयी और अनेक प्रमुख हस्तियों को लेकर जाने वाली बस से लाहौर गये थे।
अभी ना जाओ छोड़कर
देव आनंद का जाना एक जोगी का चले जाना है। अलौकिक आभा लिए एक रमता जोगी, जिसने परदे पर अपनी मौजूदगी से, अपने उपर फिल्माये गये गीतों से और परदे से परे, व्यक्तिगत जीवन में भी जीवन के कई अनूठे रंगों से हमारा परिचय कराया। ऐसे असाधारण व्यक्तित्व और असीमित ऊर्जा से दमकते एक प्रेरणा पुंज थे जिसकी चमक आने वाली कई पीढ़ियां रौशन होती रहेगी।
देव आनंद यौवन, जिंदादिली, रोमांस, आनंद और यूं कहें तो जीवन के नायक थे जो अपने पूरे जीवन काल में चिर यौवन के प्रतिरूप बने बने। जीवन के आखिरी पड़ाव में अपनी उर्जा और सक्रियता के जरिये बुढ़ापे को मात देते रहे और मौत को झुठलाते रहे। देव आनंद को लेकर वर्षों से उन्हीं पर फिल्माये एक गीत की पैरोडी बहुत प्रचलित है, ‘‘सौ साल पहले, देव आनंद जवान था, आज भी है और कल भी रहेगा।“ आज जब देव आनंद नहीं हैं तो उनके चाहने वालों के बीच देव साब के चले जाने की खबर को झुठलाने और दिल को बहलाने की कोषिष हो रही है.
उनका निधन 3 दिसंबर 2011 (भारतीय मानक समय के अनुसार 4 दिसंबर 2011) को सदाबहार अभिनेता देवानंद का 88 वर्श की उम्र में हृदयाघात के कारण लंदन में निधन हो गया लेकिन उनके चाहने वालों को आज भी यकीन नहीं है कि देव आनंद अब उनके बीच नहीं हैं।
उन्होंने अपने बेटे को अपने पार्थिव शरीर को उनके चाहने वालों के सामने नहीं लाने की हिदायत दी थी। यह संयोग कहें या कुछ और जब उनका निधन हुआ तो वह अपने चाहने वालों से काफी दूर लंदन में थे और संभवत उन्हें भी अपनी मौत का आभास नहीं हुआ क्योंकि जब जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा तो वह द वाषिंगटन मेफेयर होटल में अपने कमरे में सो रहे थे। जब उनके पुत्र सुनील जब स्नानागार से बाहर निकले, तो उन्होंने देखा कि देव साहब कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं.। पिछले कुछ दिनों से देवानंद का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और वह यहां पर चिकित्सकीय जांच के लिए आए हुए थे। वह 8—10 दिन में भारत लौटने वाले थे।
देवानंद अपने पीछे पत्नी (पूर्व अभिनेत्री कल्पना कार्तिक), एक पुत्र एवं एक पुत्री छोड़ गए। उनके दोनों भाई विजय आनंद और चेतन आनंद भी कुछ वशोर्ं पहले दुनिया को अलविदा कह चुके थे। उनकी बहन षील कांता कपूर है, जो प्रख्यात फिल्म निर्देषक षेखर कपूर की मां हैं।
देव आनंद की हिदायत के मुताबिक उनका पार्थिव षरीर भारत नहीं लाया गया। देव आनंद ने परिवार वालों से कहा था कि वह नहीं चाहते थे लोग उनका षव देखें, इसलिए लंदन में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया।
10 दिसंबर को उनका अंतिम संस्कार सेवा लंदन में एक छोटे चैपेल में आयोजित किया गया उसके बाद उनके कैस्कट को दाह संस्कार के लिए दक्षिण पष्चिम लंदन में पुटनी ष्मषाम घाट लाया गया। उनकी राख को गोदावरी नदी में प्रवाहित करने के लिए भारत लाया गया।
देव आनंद के निधन पर हेमा मालिनी ने षोक जताते हुए कहा कि उनके पास कहने के लिए षब्द नहीं है। अमिताभ बच्चन ने कहा कि देव साहब का जाना एक युग का अंत है। उनकी कमी हमेषा खलेगी। नामचीन अभिनेता नसीरूद्दीन षाह तो निधन की खबर सुनते ही रो पड़े। षबाना आजमी ने कहा कि देव साहब हमेषा फैंस के दिलों में जिंदा रहेंगे। षाहरुख खान ने कहा कि देवानंद के निधन से भारतीय सिनेमा को बड़ा नुकसान हुआ। ऋशि कपूर ने कहा कि देव साहब दिलों में हमेषा जिंदा रहेंगे। चर्चित फिल्मकार षेखर कपूर का कहना है कि सदाबहार अभिनेता व उनके मामा, दिवंगत देव आनंद ने जिंदगी अपनी षतोर्ं पर जी। कपूर ने टि्वटर पर लिखा है, ‘देव आनंद अपनी षतोर्ं पर जीए और मरे। वह हर मिनट काम करते थे। बैठ जाते और मुस्कराते और आगे बढ़ जाते थे। उनसे सीखने के लिए बहुत कुछ है।
उनकी मौत के करीब दो माह पहले ही उनकी फिल्म ‘चार्जषीट' रिलीज हुयी थी।
देव आनंद की प्रमुख फिल्में
अफसर
देवानंद ने फिल्मकार के रूप में राजकपूर की सफलता से आकर्शित होकर खुद भी इस दिषा में कदम बढ़ाने का निष्चय कर 1950 में अपनी फिल्म निर्माण संस्था नवचेतन की नींव रखी। उन्होंने निर्देषन की बागडोर अपने अत्यंत प्रतिभावान अग्रज चेतन आनंद के हाथों में सौंपी जो ‘नीचानगर' से अंतर्राश्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे। उन्होंने अपनी ख्याति के अनुरूप गोगोल के नाटक ‘द इंस्पेक्टर जनरल' को कथावस्तु के रूप में चुना। पटकथा भी स्वयं चेतन ने तैयार की थी और गीतकार थे विष्वामित्र आदिल और पं. नरेन्द्र षर्मा। संगीत सृजन एस. डी. बर्मन ने किया था, जिनका नवकेतन के साथ उसी तरह का रिष्ता कायम रहा जिस तरह षंकर, जयकिषन का आर. के. के साथ था। देवानंद और सुरैया का स्टार जोड़ी तो स्वाभाविक रूप से उपलब्ध थी ही, पर यही फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुयी।
‘अफसर' ने ‘नीचा नगर' की तरह यथार्थवादी फिल्म बन सकी और न देव—सुरै्या की सितारा छवियों का लाभ उठा सकी। सुरैया के दो सदाबहार गीत ‘मन मोर हुआ मतवाला' और ‘नैन दीवाने इक नहीं माने' भी इसे कामयाब नहीं बना सके। मूलकथा पर देव—सुरैया की प्रेमकथा भारी पड़ गई और कथा का मूल तत्व उभर नहीं सका। कन्हैयालाल, जोहरा सहगल, कृश्ण धवन, मनमोहन कृश्ण और रषीद खान सहायक भूमिकाओं में थे।
बाजी
देव दिलीप राज की त्रिमूर्ति ने हिन्दी सिनेमा के स्वर्णकाल पर राज किया है। हालांकि देवानंद, राज, दिलीप से कम लोकप्रिय नहीं थे और उन्होंने इन दोनों से अधिक फिल्मों में अभिनय किया था। किंतु अंदाज, बरसात, आवारा जैसी लोकप्रियता और सराहना किसी फिल्म को नहीं मिली थी। उनके प्रोडक्षन की पहली फिल्म अफसर भी कोई खास चमक पैदा नहीं कर सकी थी। उन्होंने अपने संघर्श काल के मित्र गुरुदत्त के निर्देषन में बाजी को किसी कालजयी फिल्म की तरह याद नहीं किया जाता लेकिन यह अपने जमाने की ट्रेड सेंटर फिल्म थी और सही मायने में आजाद भारत के दिषाहीन नौजवान की ख्वाहिषों की षिनाख्त करती थी। अपराध कथा के रूप में प्रस्तुत होने वाली बाजी हिंदी सिनेमा में क्लब कल्चर की संवाहक भी बनी। इसने गीताबाली के स्वाभाविक चुलबुलेपन को प्रखरता से स्थापित करते हुए देवानंद की छवि को नया तेवर दिया। इसकी पटकथा गुरुदत्त ने बलराज साहनी के साथ मिलकर लिखी थी और उनके बीच गीतों को लेकर गहरे मतभेद उभरे थे। बलराज नहीं चाहते थे कि अनावष्यक रूप से पटकथा में गीतों का समावेष हो। खुद गुरुदत्त की यही मान्यता थी कि ज्यादातर गीत फिल्मों में कथातत्व के प्रवाह में अवरोधक बनते हैं। पर वेे ये भी जानते थे कि हिंदुस्तानी समाज गीत—संगीत का बड़ा प्रेमी है और इसके अभाव में फिल्म का कामयाब होना नितांत मुष्किल है। यह उनका पहला अवसर था। इसमें असफलता का मतलब फिर एक लंबे संघर्श या गुमनामी के अंधेरे में उतर जाना था। वे ये भी जानते थे कि नवकेतन की पहली फिल्म अफसर की असफलता का एक बड़ा कारण देव की रूमानी छवि का बखूबी इस्तेमाल न हो पाना है।
मजबूरीवष अपराध के कुचक्र में फंसा नायक अंततः इस सच्चाई को पहचानने के लिये रागात्मक स्तर पर पहुंचता है कि यह वह मुकाम है जहां एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई है। जो एकतरफा रास्ता है। गुरू के निर्देषन की यह खूबी थी कि उन्होंने क्लब की कैबारे डांसर की खल भूमिका गीताबाली को ऐसा सुनहरा रंगरूप दे दिया था कि वह दर्षकों के दिलों में आत्मीय बनकर उतरती है। नायिका कल्पना कार्तिक के मुकाबले गीताबाली की भूमिका अधिक सषक्त थी। के.एन. सिंह की खलनायक की भूमिका को गुरुदत्त ने एक नया लुक दिया था जिसे बाद में प्राण ने षीर्श तक पहुंचाया। छाया—प्रकाष की झिलमिल का खेल जो बाद में गुरुदत्त की फिल्मों की खास बात बना। उसके उसके उत्स यहीं बखूबी स्पश्ट हैं। सचिन देव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध गीतादत्त की जादुई आवाल में साहिर के गीत कौन भूला सकता है — ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले', ‘सुनो गजर क्या गाए, समय गुजरता जाए', ‘लाख जमाने वाले डाले दिल पे ताले।'
गुरुदत्त ने एकमात्र ‘बाजी' ही नवकेतन के लिए निर्देषित की। देव ने उनके निर्देषन में इसके बाद सिर्फ ‘जाल' में ही अभिनय किया। दो चरम मुष्किल से ही एक साथ चल पाते हैं। पर गुरुदत्त ने 1956 में अपने प्रोडक्षन की ‘सी.आई.डी.' में देव को नायक बनाया। इसके निर्देषक थे राज खोसला। इन फिल्मों का देवानंद की अभिनय यात्रा में खास मुकाम है और ‘बाजी' का उनकी निराली रूमानी छवि गढ़ने में।
आंधियां
चेतन आनंद द्वारा नवकेतन के लिए निर्देषित दूसरी है आंधियां। देवानंद, निम्मी, कल्पना कार्तिक, के.एन. सिंह, जॉनी वाकर, दुर्गा खोटे अभिनीत इस फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद भी चेतन आनंद के थे। हमीद बट सहयोगी पटकथा लेखक थे। नरंेंद्र षर्मा के गीतों को अली अकबर खान ने संगीतबद्ध किया था। निर्देषक ‘अफसर' के बाद ‘आंधियां' में भी देवानंद की सितारा छवि को न ही नया आयाम दे सका और न भुना सका। जाहिर है टिकट खिड़की पर असफल होना ही था। पर यह फिल्म तब भी अपने कथ्य के कारण महत्वपूर्ण थी जो पूंजीवादी समाज की असहिश्णुता की कलई उधेड़ती थी।
राही
कामरेड ख्वाजा अहमद अब्बास ने हमेषा सामाजिक सरोकारों को सामने रखकर फिल्मों का निर्माण किया। उनकी व्यावसायिक सफलता—असफलता को लेकर वे कभी चिंतित नहीं हुए। राजकपूर, दिलीप कुमार, देवानंद, बजराज साहनी, पष्थ्वीराज कपूर, नरगिस, मीना कुमारी, नलिनी जयवंत जैसे बड़े सितारों को लेकर भी उन्होंने अपनी पसंद की फिल्में ही बनाई। उनकी फिल्मों के लिए सितारे हमेषा उपलब्ध रहे। वे सिर्फ नाम के कामरेड नहीं थे, अपने काम करने की षैली से भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता स्पश्ट की थी।
‘राही' मुल्कराज आनंद के उपन्यास ‘टू लीव्स एंड ए बड' पर आधारित थी। इसे अंग्रेजी में भी उपन्यास के मूलनाम से बनाया गया था और ‘गंगा' षीर्शक से रूसी भाशा में डब किया गया था। गंगा फिल्म की नायिका का नाम है। असम के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के षोशण को रूपायित करते हुए निर्देषक ने वर्ग—संघर्श का छौंक लगाया था। देवानंद, नलिनी जयंत, बलराज साहनी, हबीब तनवीर, डेविड, मनमोहन कृश्ण, रषीद खान अभिनीत राही के गीतकार थे प्रेमधवन और संगीतकार अनिल बिस्वास। फिल्म की पटकथा अब्बास ने अपने सहयोगी वी.पी. साठे और मोहन अब्दुला के साथ मिल कर तैयार की थी। ‘ये जिंदगी है एक सफर' और ‘ओ जाने वाले राही एक पल रूक जाना' इसके लोकप्रिय गीत थे।
जाल
‘बाजी' के बाद गुरुदत्त ने देवानंद और गीताबाली को ही मुख्य भूमिकाओं में लेकर ‘जाल' बनाई। यह भी एक अपराध फिल्म है। देवानंद की स्टाइलिष एक्टिंग, गीताबाली का अल्हड़ चुलबुलापन दर्षकों को लुभा गया। गोवा के समुद्र तट पर देव—गीता पर चित्रित गीत ‘ये रात ये चांदनी फिर कहां' का फिल्मांकन गुरु की ‘प्यासा' और ‘कागज के फूल' की तर्ज पर हुआ है जो बाद में बनीं। सिर्फ यह गीत ही फिल्म की सफलता के लिए पर्याप्त था। फिल्म के अन्य कलाकार थे — के.एन. सिंह, रामसिंह, पूर्णिमा, जॉनी वाकर और रषीद खान। प्रसिद्ध निर्देषक राज खोसला ने भी एक छोटी भूमिका निवाही थी। गीतकार थे साहिर और संगीतकार सचिन देव बर्मन। इसी फिल्म से गुरुदत्त का छायाकार वी.के. मूर्ति के साथ जो सामंजस्य बना और वह उनकी आखिरी फिल्म ‘साहिब बीबी और गुलाम' तक बना रहा।
बादबान
अषोक कुमार, देवानंद, मीना कुमारी, उशा किरण, षेख मुख्तार, जयराज, गोप अभिनीत, फणि मजूमदार निर्देषित यषस्वी बांबे टॉकीज के बैनर तले बनी यह अंतिम फिल्म है जिसे वर्कर्स इंडस्ट्रियल सोसायटी ने बनाया था। 1050 के बाद बांबे टॉकीज का बिखरता हुआ षीराजा बचाने की अषोक कुमार, सुबोध मुखर्जी, सेवक वाचा आदि ने बचाने की बड़ी कोषिष की और ‘मां' तथा ‘तमाषा' बनाई जिसकी आखिरी कड़ी ‘बादबान' है। इस फिल्म की एक खास बात यह है कि एक स्वनामधन्य संस्था को बचाने के लिए सभी ने बगैर पारिश्रमिक के काम किया, भले ही आखिरी कोषिष भी उसके अस्तित्व को नहीं बचा सकी। इंदीवर और उद्धव कुमार के गीतों को तिमिर बरन और सूर्यकांत पाल ने संगीतबद्ध किया था। ‘कोई कैसे जिये, जहर है जिंदगी' हेमंत कुमार और गीतादत्त के स्वर में सम्मोहक गीत था जिसकी गमक आज भी बरकरार है। पटकथा नवेंदु घोश ने षक्ति सामंत के साथ तैयार की थी। कथानक में प्रेम त्रिकोण और ग्रामीण सामाजिक पुनरुत्थान के घालमेल ने इसे लोकप्रिय नहीं होने दिया।
टैक्सी ड्राइवर
चेतन आनंद द्वारा नवकेतन के लिए निर्देषित सात फिल्मों में सबसे सफल और सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है। अपनी सामाजिक जागरूकता का अंडरकरंट बरकरार रखते हुए इस फिल्म में निर्देषक देवानंद की सितारा छवि का सम्मोहक रूप प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। बम्बई की रातों का ऐसा सम्मोहक रूमानी नजारा बहुत कम फिल्मों में प्रस्तुत हुआ है। इस अपराध कथा में देवानंद के अलावा अन्य कलाकार थे— कल्पना कार्तिक, षीला रमानी, जॉनी वाकर और रषीद खान। साहिर के गीतों को सचिन देव बर्मन ने संगीतबद्ध किया था। ‘जायें तो जायें कहां समझेगा कौन यहां दर्द भरे दिल की जुबां' और ‘मस्तराम बनके जिंदगी के दिन गुजार दें' सदाबहार गीत हैं।
इंसानियत
जिस तरह दिलीप—राज एक साथ सिर्फ एक फिल्म में (‘अंदाज' 1949) साथ आए, उसी तरह दिलीप—देवानंद भी जेमिनी मद्रास की एस.एस. वासन निर्देषित ‘इंसानियत' में ही सिर्फ एक बार साथ आए। यह भी एक फंतासी फिल्म थी जिसमें नायक गांव वालों को डाकुओं के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देता है।
दिलीप, देवानंद, बीनाराय, जयराज, षोभना समर्थ, आगा आदि के होते हुए भी जंगूरा डाकू की भूमिका में जयंत ने वह कमाल कर दिखलाया था कि वे सब पर भारी पड़े। ठीक ‘षोले' की तरह जहां गब्बर सिंह के रूप में अमजद खान सब पर भारी पड़ते हैं। षायद इसी को इतिहास का दोहराना कहते हैं। जयंत अमजद के पिता थे। ‘इंसानियत' का स्मरण करते हुए आज भी सबसे पहले जंगूरा ही याद आता है। इसके गीतकार—संगीतकार भी राजेन्द्र कृश्ण और सी. रामचंद्र थे और संवाद लेखक थे रामानंद सागर। प्रसिद्ध गीत— ‘आई झूमती बहार', ‘चुपचुप होने लगा कुछ'।
सीआईडी
गुरुदत्त फिल्म्स के अंतर्गत निर्मित इस फिल्म का निर्देषन गुरुदत्त ने अपने सहायक राज खोसला का सौंपा और देवानंद को नायक लेकर अपना पुराना वादा निभाया था कि निर्माता बने तो उन्हें अपनी फिल्म का हीरो बनायेंगे। बतौर निर्देषक उनकी पहली दोनों फिल्मों के नायक भी देवानंद ही थे। बाद में दोनों के बीच मतभेद पैदा हुए और गुरुदत्त ने खुद ही नायक बनने की ठानी। यदि गुरुदत्त को अपनी फिल्मों के लिए उपयुक्त अभिनेता मिल जाता तो षायद वे कभी हीरो नहीं बनते। इसलिए कि अभिनेता उनके निर्देषक व्यक्तित्व के लिए कठपुतलियों की तरह थे। ‘प्यासा' के नायक के लिए उनकी पसंद दिलीप कुमार थे। उनके सुलभ न होेने पर ही वे नायक बने।
‘सी.आई.डी.' गुरुदत्त की ‘बाजी' से षुरू हुई सामाजिक अपराध फिल्मों की श्रृंखला की आखिरी कड़ी है जिसने उनके चतुर सहयोगी राज खोसला को कामयाब निर्देषक बना दिया। राज खोसला 1955 में देवानंद की स्क्रीन इमेज का सार्थक इस्तेमाल करते हुए हॉलीवुड की ग्रेगरी पैक अभिनीत ‘मि. डीड गाज टु टाउन' का देसी संस्करण ‘मिलाप' बना चुके थे और सफलता प्राप्त की थी। गुरुदत्त के अपने और देवानंद के बीच किसी भी संभावित टकराव को टालने और राज को आगे बढ़ाने के लिए इसका उत्तरदायित्व उन्हें सौंपा। राज खोसला को सी.आई.डी. ने निर्देषकों की अगली पंक्ति में ला खड़ा किया और खुद देवानंद ने उन्हें अनेक अवसर दिए।
यह वहीदा रहमान की भी पहली फिल्म है जिसमें उन्होंने खलनायिका की भूमिका की। नायिका थीं षकीला। खलनायिका की भूमिका में ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निषाना' गीत में उनके आंखों के इषारे बेहद मकबूल हुए थे और उन्होंने नायिका को पीछे छोड़ दिया था। इसके अलावा गीतकार मजरूह और जां निसार अख्तर तथा संगीतकार ओ.पी. नैयर की त्रयी ने एक से बढ़कर एक मधुर गीतों की रचना की थी। ‘आंखों ही आंखों में इषारा हो गया', ‘ले के पहला पहला प्यार, भरके आंखों में खुमार, जादू नगरी से आया कोई जादूगर', ‘बूझ मेरा क्या नाम रे', ‘जाता कहां है दीवाने' यादगार गीत हैं। जॉनी वाकर पर फिल्माया गया ‘ऐ दिल है मुष्किल जीना यहां, जरा हटके जरा बचके ये है बाम्बे मेरी जां' गीत में बम्बई की रोमांटिक कषिष का नजारा आज भी उत्फुल्ल करता है।
फंटूष
नवकेतन के लिए चेतन आनंद निर्देषित यह फिल्म देवानंद की सितारा छवि को ध्यान में रखकर बनाई गई जो साधारण रूप से सफल हुई। इसकी नायिका थी षीला रमानी। नायिका को लेकर ही देवानंद और चेतन के बीच मतभेद हुए। यह चेतन आनंद की नवकेतन के लिए बनाई गयी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद भी उन्होंने तीन फिल्मों में देवानंद को निर्देषित किया (‘किनारे किनारे' 1963, ‘जानेमन' 1976 और ‘साहेब बहादुर' 1977) पर ये फिल्में नवकेतन की नहीं थीं। ‘दुखीमन मेरे सुन मेरा कहना' (किषोर कुमार) का जादू आज भी मौजूद है। संगीतकार है एस.डी. बर्मन और गीतकार हैं साहिर।
नौ दो ग्यारह
नवकेतन के लिए विजय आनंद निर्देषित देवानंद, कल्पना कार्तिक, ललिता पवार, हेलन, षषिकला, कृश्ण धवन, जीवन, रषीद खान अभिनीत यह फिल्म ‘चोरी चोरी' के पदचिन्हों पर चलकर बनाई गई थी। इसमें प्रेमकथा के साथ सम्पत्ति के उत्तराधिकार को लेकर खलनायक के साथ संघर्श भी जोड़ दिया गया था। विजन आनंद के चुस्त निर्देषन और मजरूह सुलतानपुरी, सचिन देव बर्मन, किषोर कुमार और आषा भोंसले के संगीत सृजन से मालामाल यह फिल्म बेहद लोकप्रिय हुई। ‘हम हैं राही प्यार के, हमसे कुछ न बोलिये' और ‘आंखों में क्या जी, सुनहरा बादल' जैसे गीतों को कौन भूल सकता है। ‘चोरी चोरी' खुद हॉलीवुड की ‘इट हैपेंड वन नाइट' (1934) से प्रभावित होकर बनाई गई थी और वह एक ट्रैंडसेटर फिल्म बनकर सामने आई। ‘नौ दो ग्यारह' के बाद इसी से मिलते—जुलते दृष्यों के साथ हू—ब—हू कथानक पर राज खोसला निर्देषित ‘सोलवां साल' भी 1958 में बनी थी। इसके नायक भी देवानंद थे और नायिका थीं वहीदा रहमान। उसका भी एक अत्यंत लोकप्रिय गीत है जो अब भी नया है और भुलाया नहीं जा सका है। हेमंत कुमार के स्वर में ‘है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आएगा'।
काला पानी
नवकेतन कष्त राज खोसला के निर्देषन में बनी देवानंद, मधुबाला, नलिनी जयवंत, सप्रू, रषीद खान, आगा, कष्श्ण धवन, नजीर हुसैन अभिनीत ‘काला पानी' सुगठित अपराध कथा थी। इसमें नायक अपने पिता को काले पानी की सजा से बचाने के लिए संघर्श करता हुआ विभिन्न मोड़ों से गुजरता है। जहां एक ओर उसे कोठेवाली बाईजी का सहारा मिलता है तो दूसरी ओर एक मेधावी महिला पत्रकार का। राज खोसला को इस फिल्म ने एक सषक्त निर्देषक के रूप में स्थापित किया। हालांकि नायिका मधुबाला थीं लेकिन कोठेवाली बाई की भूमिका में नलिनी जयवंत ने इतना जबरदस्त अभिनय किया था तथा उनकी अदाएं इतनी उत्तेजक थीं कि ऐसा पहली बार हुआ कि कोई सह—अभिनेत्री मधुबाला जैसी सौंदय प्रतिमा के उपर छा जाए। ‘नजर लागी राजा तोरे बंगले पर' उन दिनों हर जुबान पर चढ़ा हुआ था। इसके अलावा ‘दिल लगाके कदर गई प्यारे', ‘अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न' तथा ‘हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए' लाजवाब गीत थे। गीतकार महरूह और संगीतकार सचिन देव बर्मन थे।
काला बाजार
नवकेतन के लिए विजय आनंद निर्देषित ‘काला बाजार' के मुख्य कलाकार देवानंद, वहीदा रहमान, नंदा, लीला चिटनिस और किषोर साहू। स्वयं विजय आनंद भी अभिनेता के रूप में थे। हालांकि देवानंद की फिल्मों में अधिकांषतः साहिर और मजरूह को ही गीतकार के रूप में पसंद किया जाता था लेकिन जिन फिल्मों के निर्देषक विजय आनंद रहे उनमें बहुधा षैलेंद्र से गीत लिखवाए गए। इस फिल्म के गीतकार षैलेंद ही थे और संगीत रचना एस.डी. बर्मन ने की।
बेरोजगारी से तंग आकर नायक रघुवीर बंबई में सिनेमा टिकट ब्लैक करने वाले रैकेट का सरगना बन जाता है लेकिन नायिका अलका के संसर्ग में आने पर उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह उसे पाने के लिए ‘काला बाजार' बंद कर सफेद बाजार की षुरुआत करता है। इस फिल्म के द्वारा देवानंद ने अपनी इमेज को बदलने का प्रयास किया था। विजय आनंद गीतों के चित्रांकन और चरित्रों की स्थापना में तो सफल हुए लेकिन कृति को एक यथार्थवादी आधार देने में चूक गये। इस फिल्म में ‘मदर इंडिया' के प्रीमियर पर टिकट ब्लैक करते हुए देवानंद और उनके साथियों को दिखाया गया है। उस समय दर्षकों के लिए यह बहुत बड़ा आकर्शण था कि वे सिनेमा के पर्दे पर किसी फिल्म का यथार्थ प्रीमियर देखें जो उन्होंने सिर्फ सुन रखा था। उस समय आज की तरह टेलीविजन का अस्तित्व नहीं था इसलिए इस प्रीमियर पर उमड़ने वाले उस समय के सबसे बड़े सितारों को देखने और वास्तविकता का जायका लेने में दर्षकों ने खासा मजा लिया।
नवकेतन की अधिकांष फिल्मों की तरह इस फिल्म का गीत—संगीत भी बेहद प्रभावषाली था। गीता दत्त के स्वर में ‘न धन चाहूं न रतन चाहूं' हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेश्ठ भजनों में से एक परिगणित किया जा सकता है। ‘खोया खोया चांद', ‘सच हुए सपने तेरे', ‘उपर वाला जान के अनजान है' और रात के अंधेरे में फुटपाथ पर सोए हुए लोगों के बीच से झूमते—गाते गुजरते देवानंद और रषीद खान पर फिल्माया गया गीत ‘सूरज के जैसी गोलाई, चंदा सी ठंडक भी पाई / खनके तो प्यारे दुहाई / तेरी धूम हर कहीं / तुझसा यार कोई नहीं / मुझको तो प्यारे तू है सबसे प्यारा लइ लइ लइ लइ कृकृ' बेहद प्रभावषाली थे।
बंबई का बाबू
छायाकार जाल मिस्त्री और निर्देषक राज खोसला ने संयुक्त रूप से देवानंद और सुचित्रा सेन को मुख्य भूमिकाओं में लेकर इस फिल्म का निर्माण किया था। गीतकार थे महरूह और संगीतकार एस.डी. बर्मन। एक अपराधी के द्वारा बिचौलियों के चंगुल में फंसकर एक समष्द्ध परिवार में उनके खोए हुए बेटे के रूप में प्रवेषकर नगदी और जवाहरात लूटने की योजना बनाई जाती है। नायक बाबू पूंजीपति की लड़की माया के प्रेम में पड़ जाता है। पर माया उसे अपना भाई ही समझती है। अंत में जब नायक को पता चलता है कि वास्तविक रूप में खोया हुआ बेटा वही था जिसका उसके हाथों कत्ल हुआ था तो वह अपने बेटे की भूमिका को मन से स्वीकार कर अपनी प्रेमिका की डोली विदा करता है। इस अवसर पर बजनेे वाला गीत ‘चल री सजनी अब क्या सोचे / कजरा न बह जाए रोते—रोते' आज भी जादू जगाता है। इनके अलावा ‘साथी न कोई मंजिल, दीवाना मस्ताना हुआ दिल', ‘देखने में भला है दिल का सलोना' आदि गीत भी बहुत प्रभावषाली थे। इस फिल्म की एक और विषेशता थी, इसके प्रभावषाली संवाद जो राजेंद्र सिंह बेदी ने लिखे थे।
हम दोनों
अभिनय की दष्श्टि से देवानंद की सर्वश्रेश्ठ फिल्मों में से एक है हम दोनों। यहां तक कि ‘गाइड' से भी उन्नीस नहीं। इस युद्धकथा में उनकी दोहरी भूमिका थी और दोनों ही भूमिकाएं आर्मी ऑफीसर की। कैप्टन आनंद और मेजर वर्मा। एक जो अपनी प्रेमिका के पिता के तानों से चोट खाकर कुछ बनने के लिए फौज में भर्ती होता है और दूसरा जो उसका अधिकारी है। वह अपनी पत्नी को छोड़कर युद्धभूमि में आया है। युद्ध में मान लिया जाता है कि मेजर वर्मा मारा गया है और जब कैप्टन आनंद यह सूचना देने के लिए उसके घर पहुंचता है तो उसकी पत्नी उसे ही अपना पति समझ लेती है। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि बतलाना चाहकर भी नहीं बतला पाता कि वह उसका पति नहीं है क्योंकि डॉक्टरों के अनुसार ऐसा करने पर वह गर्भवती महिला मर भी सकती है।
मेजर वर्मा वापस लौटता है और अपनी पत्नी के साथ आनंद को देखकर समझता है कि उसने हमषक्ल होने का फायदा उठाकर उसे और उसकी पत्नी को धोखा दिया है। अंततः क्लाइमैक्स में एक विषाल मंदिर में चारों उपस्थित होते हैं और सच्चाई प्रकट होती है। आनंद को उसकी प्रेमिका मिल जाती है और वर्मा को उनकी पत्नी। प्रेमिका की भूमिका में साधना का सौंदर्य चरम पर उभरकर आया है और पत्नी की भूमिका में नंदा ने बेहद प्रभावषाली अभिनय किया है। नंदा ने एक बार कहा था कि इस भूमिका के बाद फौजी भाइयों के सैंकड़ों पत्र आए थे कि वे अपने जीवन में ऐसी ही पत्नी चाहते हैं जैसा कि उन्होंने इस फिल्म में किरदार निभाया है। लता के स्वर में नंदा के उपर चित्रित ‘अल्ला तेरो नाम ईष्वर तेरो नाम' बेहद प्रभावषाली रचना थी। इसके अलावा भी ‘हम दोनों' में एक से बढ़कर गीत थे— ‘अभी न जाओ छोड़कर के दिल अभी भरा नहीं', ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया', ‘कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया'। एस.डी. बर्मन के सहायक रहे जयदेव बेहद प्रतिभाषाली संगीतकार थे। उन्हें स्वतंत्र अवसर कम मिले लेकिन उन्होंने अपने अत्यंत महत्वपूर्ण होने का परिचय हमेषा दिया। गीतकार थे साहिर। देव, नंदा, साधना के अलावा अन्य सहायक कलाकार हैं ललिता पवार, लीला चिटनिस, रषीद खान और गजानन जागीरदार।
जब प्यार किसी से होता है
नासिर हुसैन की देवानंद, आषा पारेख, प्राण और प्रेमनाथ अभिनीत यह धूम—धड़ाका फिल्म अपने रोमांटिक वातावरण और उत्कष्श्ट संगीत की बदौलत सुपरहिट हुई थी। राजेंद्रनाथ का पागलपन में डूबा हास्य अभिनय दर्षकों को लोटपोट करने में कामयाब था। षीर्शक गीत के अलावा ‘सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था' और ‘तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं मांगी थी, कैद मांगी थी रिहाई तो नहीं मांगी थी' भी बहुत लोकप्रिय हुए थे। गीतकार थे षैलेंद्र—हसरत और संगीतकार षंकर जयकिषन।
तेरे घर के सामने
नवकेतन की देवानंद—नूतन अभिनीत विजय आनंद निर्देषित और देवानंद की सितारा इमेज को पुख्ता करने वाली इस फिल्म में नया कुछ नहीं है। नायक—नायिका के पिता दुष्मन और बच्चों में प्यार। अंत में सुलह और सुखद समाप्ति। लेकिन अच्छे अभिनय, चुस्त निर्देषन और मधुर संगीत के लिए दर्षनीय। ‘दिल का भंवर करे पुकार', ‘देखो रूठा न करों', ‘ये तनहाई हाय रे हाय जाने फिर आए न आए', ‘तू कहां ये बता इस नषीली रात में' और ‘तेरे घर के सामने एक घर बनाउंगा' सभी गीत मधुर थे। संगीतकार एस.डी. बर्मन और गीतकार हसरत जयपुरी।
गाइड
आर.के. नारायण के उपन्यास ‘द गाइड' को फिल्म में जिस खूबसूरती से विजय आनंद ने ढाला है वह किसी भी दर्षक को हर बार नए अहसास में ले जाती है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि इसमें देवानंद कहीं हावी नहीं है। दर्षक को याद रह जाता है सिर्फ राजू गाइड। गाइड में उन्होंने नायक के भीतर छिपे खलनायक में देवत्व की स्थापना की है और बड़ी गहरी संवेदना के साथ कि दर्षक भीतर तक भीग जाता है। चालीस साल बाद भी यह फिल्म दर्षक को मोहती है तो इसके किरदारों के जीवंत और मार्मिक अभिनय की वजह से। राजू की कोई भी कमजोरी या कोई भी दर्द दर्षक को अपना सा लगता है। रोजी की वजह से पड़ोसियों के ताने झेलता राजू, घर आये मामा से उसके संघर्श, रोजी के लिए मां को मनाता राजू, कोई भी दष्ष्य ऐसा नहीं है जो दर्षक के मन को मथता न हो। राजू रोजी को पाने की जद्दोजहद में क्या नहीं खो देता। पहले अपनी गाइडी, फिर रेलवे की अपनी कैंटीन, मां, मामा, गफूर और रोजी सभी तो जिंदगी से चले जाते हैं और अंत में खुद अपने आप को भी खो देता है। सबसे ज्यादा मन को मथते हैं रोजी और राजू के बीच पैदा हुई दूरी से उपजे दर्द को व्यक्त करते संवाद। इसी दर्द में राजू द्वारा बोला गया यह संवाद— ‘जिंदगी भी एक नषा है दोस्त, जब चढ़ता है तो पूछो मत क्या आलम रहता है और जब उतरता हैकृकृ' और उसके बाद मोहम्मद रफी का यह गीत — ‘दिन ढल जाए हाए रात न जाए / तू तो न आए तेरी याद सताए....
हम क्या पाना चाहते हैं और क्या पाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, यह हमें तब ही पता चलता है जब हम अपनी तथाकथित मंजिल तक पहुंच जाते हैं, जहां पर अपनी मर्जी से सांस लेना भी संभव नहीं होता। राजू का पष्चाताप रोजी को भी जागष्त करता है और रोजी की आत्मस्वीकष्ति राजू गाइड को आईना दिखलाती है। आत्म साक्षात्कार कराती है कि जिसे दिल की रानी बनाना चाहिए था उसे दुनिया की रानी बनाने निकल पड़े। जो पाना था उसी को खो दिया और जो कुछ पाकर इतरा रहे थे उसके आईने में पता चला कि इसके लिए वही तो गंवाया है जिसे पाने के लिए छटपटा रहे थे।
हिंदी सिनेमा में जिन फिल्मों में षीर्श सितारों के होते हुए भी गहरी दार्षनिक बातें कहने की चेश्टा की और जिनका जनमानस पर गहरा असर हुआ, उनमें गाइड निष्चित रूप से सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में गिनी जाएगी। यह एक हर क्षेत्र के सर्वश्रेश्ठ को प्राप्त कर लेने वाली फिल्म है। इस फिल्म का संगीत भी नवकेतन की हर फिल्म की तरह बहुत कामयाब हुआ था। षैलेंद्र के गीतों में गहरी कविता थी— ‘वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां / दम ले ले घड़ी भर, ये छइंयां पाएगा कहां'। इस गाने में तो जैसे जीवन के उल्लास का अलौकिक उत्सव ही नाच—गा उठा है — ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज भी मरने का इरादा है'। तकनीकी रूप से भी गाइड बहुत साउंड फिल्म है। इसके छायांकन का तो जवाब ही नहीं है। चुस्त संपादन और बहुत सूक्ष्म ध्वनि अंकन हर तकनीकी पक्ष का बहुत कुषलता से निर्वाह हुआ है।
जब भारत में गाइड रिलीज हुई थी तो दर्षकों ने इसे काफी पसंद किया। भारत का पूरा कैबिनेट (नेहरू के अलावा) दिल्ली में इसके प्रीमियर में षामिल हुआ और फिल्म का यादगार गीत — ‘गाता रहे मेरा दिल', ‘तेरे मेरे सपने', ‘क्या से क्या हो गया', ‘आज फिर जीने की तमन्ना है', ‘पिया तोसे नैना', और ‘वहां कौन है तेरा' लोकप्रिय भारतीय संस्कृति का अब भी अभिन्न हिस्सा है और यह भारत के अलावा विदेषों में भी काफी लोकप्रिय रहा। देवानंद से ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने गाइड को 30 बार से भी अधिक देखा था और 2008 में इस फिल्म को फ्रेंच फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। जब देवानंद रेड कार्पेट पर आये, तो यह स्पश्ट था कि वह फिर लाइमलाइट में आ गये हैं।
ज्वेलथीफ
विजय आनंद के निर्देषन में बनी नवकेतन की देवानंद, वैजयंतीमाला, अषोक कुमार, तनूजा, हेलन, फरयाल, अंजू महेंद्रू, सप्रू, नजीर हुसैन अभिनीत यह रहस्यमय रोमांटिक कथा थी। निर्देषक के रूप में विजय आनंद का कीर्तिमान ‘गाइड' को ठहराया जाना वाजिब भी मान लें, तब भी विजय आनंद की कई कष्तियां इस तरह निराले और बिल्कुल अलग हुनर से रची गई हैं कि वे स्वयं अपना प्रतिमान हैं। हिंदी सिनेमा के पारंपरिक फार्मेट में वे बहुत चतुराई से अपनी निजी षिनाख्त इस तरह घोल देते हैं कि आपके ही माल के खुद नए ट्रेंड सैटर बन जाते हैं।
‘ज्वेलथीफ' के रहस्य को वे सहजता से खड़ा करते हैं और रहस्य के तनाव को 2009 के ‘देव डी' के अल्फाज उधार लेकर कहें तो— ‘इमोषनल अत्याचार' के द्वारा सम्मोहक बना देते हैं। नायक नायिका तक परस्पर छल कर रहे हैं। वैजयंती, तनूजा, फरयाल, अंजू महेंद्रू— किसी के भी साथ आप प्रेम में तनाव और तनाव में प्रेम का देवानंदीय चमत्कार देख सकते हैं। फिल्म का एक—एक चरित्र रहस्य की गुत्थियों की जकड़न में है। और अंत में आप इस रहस्य भेदन में भी मजा लेते हैं कि यह तो कोई रहस्य था ही नहीं। प्रेम के जरिये निरंतर भ्रम रचते रहने की स्क्रीन पर कूबत राजकपूर और विजय आनंद के पास बहुत उंचे दर्जे की है। यहां डबल रोल नहीं, उसका भ्रम है।
षैलेंद्र और सचिन देव बर्मन का योगदान भी कम नहीं। ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई' हरदिल अजीज है। ‘रुला के गया सपना मेरा' चुभन में मजा परोसने वाला बहुत मीठा गीत है। ‘ये दिल न होता आवारा', ‘दिल पुकारे आ रे आ रे', ‘रात अकेली है' — जैसे तमाम गीतों के साथ — ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई'— सिर्फ इसी गीत के लिए लोगों ने इसे कई—कई बार देखा। खास सबब वैजयंतीमाला द्वारा सुरीली धुन की उतनी ही लचकदार सुरीली प्रस्तुति। दृष्यों के साथ मिलकर गीतों का प्रभाव चौगुना हो जाता है।
जॉनी मेरा नाम
यह देवानंद की आखिरी सुपरहिट फिल्म थी। ‘ज्वेलथीफ' की तर्ज पर बनाया गया यह रोमांटिक क्राइम थ्रिलर विजय आनंद के कल्पनाषील चुस्त निर्देषन में कलाकारों के मंजे हुए अभिनय के सहयोग से दर्षकों का दिल जीतने में कामयाब हुआ। ‘जॉनी मेरा नाम' अपने ढंग की एक निराली फिल्म थी। विजय आनंद बंबइया सिनेमा के कितने गहरे जानकार हैं, इसके साथ ‘ज्वेलथीफ' इस बात का प्रमाण है। वे मुक्केबाजी, तमंचाबाजी से बढ़कर अपराध कथाओं में भी मानसिक अंतसंघर्श का तानाबाना बुनते हैं। अत्यंत रोचक चरित्र गढ़ते हैं और अपने स्टारपेअर की रोमांटिक लोकप्रियता का उनके चरित्रांकन में भरपूर दोहन करते हैं। यहां देवानंद का साथ देने के लिए वैजयंती की अगली पीढ़ी की युवा हेमामालिनी हैं। प्रेमनाथ, प्राण, पद्मा खन्ना और प्रेमनाथ का मादक नष्त्य— ‘हुस्न के लाख रंग' देखने के लिए लोग बार—बार सिनेमाघरों में लौटते थे। ‘एका राम', ‘दूजा राम' और ‘तीजा राम' का आई.एस. जौहर का ट्रिपल रोल और वह भी इस तरह कि आप भूल ही नहीं सकते। यह भूमिका बतलाती है कि वे कितने उंचे दर्जे के अदाकार थे। पर वे षायद खुद से ही बहुत नाराज इंसान थे।
‘जॉनी मेरा नाम' के संगीत को उन दिनों काफी सराहना मिली। किषोर की ताजा—ताजा उछाल का देवानंद को भरपूर फायदा मिला। ‘नफरत करने वालों के सीने में प्यार भर दूं' और ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले' की मस्ती ने तरुणाई को विभोर किया और लता के ‘बाबुल प्यारे' ने भी रससिक्त किया। यह उन फिल्मों में है जिन्हें आप बगैर किसी तनाव के तनाव का पूरा लुत्फ लेते हुए देख सकते हैं। इसके गीतकार थे इंदीवर और श्री राजेंद्र कष्श्ण। निर्माता थे गुलषन राय।
प्रेमपुजारी
यह फिल्म इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देवानंद निर्देषित पहली फिल्म थी। देवानंद ने निर्देषक के रूप में सामने आने के लिए लंबी प्रतीक्षा की। देवानंद, दिलीप कुमार की तरह महज अभिनय के अखाड़े में नहीं जमे थे। वे 1951 से निरंतर फिल्में भी बना रहे थ। उनकी निर्माण संस्था नवकेतन की अधिकांष फिल्में हिट और सुपरहिट रही थीं। भले ही राजकपूर उनसे पहले निर्माता बन गए हों लेकिन वे 1970 तक राजकपूर से अधिक फिल्में बना चुके थे और अपनी जिंदगी में राजकपूर से अधिक फिल्में निर्देषित कर चुके हैं।
इक्कीसवीं सदी की बात कौन करता है, देवानंद तो बाइसवीं सदी के युवा थे। वे आगा—पीछा नहीं देखते जो मन करता है, कर गुजरते हैं। राजकपूर ने अपनी जिंदगी में कुल 10 फिल्में निर्देषित की और देवानंद ने 1970 के बाद 18 फिल्में निर्देषित कर डालीं। इन अठारह में ‘प्रेम पुजार' के अलावा ‘हरे रामा हरे कष्श्णा' और ‘देस परदेस' के अलावा षेश सभी का अस्तित्व होना न के बराबर है लेकिन देवानंद ने कभी इसकी परवाह नहीं की। देवानंद के निर्देषन में जो चंद फिल्में सफल साबित हुई उनमें भी निर्देषकीय स्पर्ष का ऐसा कोई मुकाम नहीं था जिसके लिए वे देवानंद स्पर्ष के रूप में जानी जातीं। देवानंद पूरी तरह विजय आनंद का अनुकरण करते नजर आते हैं।
‘प्रेम पुजारी' युद्ध की पष्श्ठभूमि पर आधारित पारपरिक प्रेमकथा थी जिसमें देवानंद ने खुद ही अपनी कहानी पर अपने नायक व्यक्तित्व का रंगीन तिलिस्म रचा था जिसमें वे नाकामयाब रहे। यह फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम' के मुकाबले बहुत छोटी हिट थी। दूसरे इसकी मामूली कामयाबी में भी देवानंद से बढ़कर वहीदा के अभिनय और एस.डी. बर्मन के संगीत का बड़ा योगदान था। नीरज के गीत लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे। ‘षोखियों में घोला जाए फूलों का षबाब' की मादकता का खुमार श्रोताओं और दर्षकों के सिर चढ़कर बोला था।
पुरस्कार, सम्मान और पहचान
नागरिक सम्मान
2001 — पद्म भूशण (भारत सरकार के द्वारा दिया जाने वाला भारत का तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान)
नेषनल फिल्म अवार्ड
विजेता
1965 — गाइड के लिए हिंदी में सर्वश्रेश्ठ फीचर फिल्म के लिए नेषनल फिल्म अवार्ड
2002 — दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, सिनेमैटिक एक्सेलेंस के लिए भारत का सबसे बड़ा पुरस्कार
फिल्मफेयर अवार्ड
विजेता
1959 — काला पानी के लिए सर्वश्रेश्ठ कलाकार
1967 — गाइड के लिए सर्वश्रेश्ठ फिल्म
1967 — गाइड के लिए सर्वश्रेश्ठ कलाकार
1991 — फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
राश्ट्रीय सम्मान और पहचान
1996 — स्टार स्क्रीन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
1997 — भारतीय फिल्म उद्योग में उनकी उत्कष्श्ट सेवा के लिए मुम्बई अकेडमी ऑफ मूविंग इमेजेज अवार्ड
1998 — कलकत्ता में उजाला आनंदलोक फिल्म अवार्ड्स कमिटी के द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
1999 — नयी दिल्ली में भारतीय सिनेमा को उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए सैनसुई लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2000 — मुम्बई में फिल्म गोयर्स मेगा मूवी मेस्ट्रो ऑफ द मिलेनियम अवार्ड
2001 — भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए स्पेषल स्क्रीन अवार्ड
2001 — नासाओ कालीजीयम, न्यूयार्क में 28 अप्रैल 2001 को जी गोल्ड बॉलीवुड अवार्ड्स में एवरग्रीन स्टार ऑफ द मिलेनियम अवार्ड
2003 — जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में आइफा अवार्ड में भारतीय सिनेमा में उत्कष्श्ट उपलब्धि के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2004 — अटलांटिक सिटी (अमरीका) में लीजेंड ऑफ इंडियन सिनेमा अवार्ड
2004 — भारतीय मनोरंजन उद्योग में उनके योगदान के सम्मान में फेडरेषन ऑफ इंडियन चैम्बर अॉफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के द्वारा लिविंग लीजेंड अवार्ड
2005 — सोनी गोल्डन ग्लोरी अवार्ड
2006 — अक्किनेनी इंटरनेषनल फाउंडेषन के द्वारा एएनआर नेषनल अवार्ड
2006 — आईआईएएफ, लंदन के द्वारा ग्लोरी ऑफ इंडिया अवार्ड
2007 — कला और मनोरंजन के क्षेत्र में उनके उत्कृश्ट योगदान के लिए विष्व पंजाबी संगठन (यूरोपीय प्रभाग) के द्वारा पंजाब रतन (जेवेल ऑफ पंजाब) पुरस्कार
2008 — विनम्यूजिक क्लब के सहयोग से राम्या कल्चरल अकेडमी के द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2008 — रोटरी क्लब ऑफ बॉम्बे के द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2008 — आईआईजेएस सोलिटेर अवार्ड्स में पुरस्कार से सम्मानित
2009 — मैक्स स्टारडस्ट अवार्ड्स में भारतीय सिनेमा में उत्कष्श्ट योगदान
2009 — रजनीकांत के द्वारा देवानंद को लीजेंड अवार्ड
2010 — दादासाहेब फाल्के अकेडमी के द्वारा फाल्के रत्न अवार्ड
2010 — राश्ट्रीय गौरव अवार्ड
2011 — मध्य प्रदेष सरकार से राश्ट्रीय किषोर कुमार सम्मान
2011 — राहुल द्रविड़ के साथ एनडीटीवी इंडियन ऑफ द ईयर्स लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
विस्लिंग वुड्स इंटरनेषनल इंस्टीट्यूट के द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट माइस्ट्रो अवार्ड
2013 — उन्हें सम्मानित करने के लिए, उनकी पीतल की एक मूर्ति का फरवरी 2013 में मुंबई में बांद्रा बैंडस्टैंड में वॉक ऑफ द स्टार्स में अनावरण किया गया
2013 — भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरा होने के अवसर पर, 3 मई 2013 को उन्हें सम्मानित करने के लिए उनके चेहरे वाला डाक टिकट भारतीय डाक द्वारा जारी किया गया
अंतर्राश्ट्रीय सम्मान और पहचान
जुलाई 2000 में, न्यूयॉर्क षहर में, ‘भारतीय सिनेमा में उत्कृश्ट योगदान के लिए' अमेरिका की तत्कालीन प्रथम महिला हिलेरी रोधम क्लिंटन के हाथों उन्हेंं एक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
2000 में, उन्हें सिलिकॉन वैली, कैलिफोर्निया में इंडो—अमेरिकन एसोसिएषन ‘‘स्टार ऑफ द मिलेनियम'' अवार्ड से सम्मानित किया गया।
न्यूयॉर्क राज्य विधानसभा के सदस्य डोना फेरार ने उन्हें 1 मई 2001 को न्यूयॉर्क के सिनेमाई कला के लिए उनके उत्कष्श्ट योगदान और आभार के लिए न्यूयॉर्क स्टेट विधानसभा प्रषस्ति पत्र से सम्मानित किया।
2005 में, स्टॉकहोम में नेपाल के पहले नेषनइंडियन फिल्म समारोह में नेपाल सरकार ने उन्हें एक ‘विषेश राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार' से सम्मानित किया।
2008 में, पहली बार स्कॉटिष हाईलैंड्स में काम षुरू करने के 10 साल पूरा होने पर, वे इन्वरनेस, स्कॉटलैंड में हाइलैंड परिशद के प्रोवोस्ट के द्वारा आयोजित रात्रिभोज में सम्मानित अतिथि बनेे। उन्होंने हाइलैंड्स एवं आइलैंड्स फिल्म आयोग के एक अतिथि के रूप में कान सहित उस क्षेत्र में कई दिन बिताए।
लेखक परिचय
विनोद विप्लव करीब एक दषक से अधिक समय से लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। विनोद विप्लव फिल्म, मीडिया, विज्ञान एवं स्वास्थ्य आदि विशयों पर भी लेखन करते हैं। उनकी सैकड़ों रचनायें नवभारत टाइम्स, कादम्बिनी, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक भास्कर, जनसत्ता, आजकल, वर्तमान साहित्य, द पायनियर, नवभारत, नई दुनिया, षुक्रवार आदि पत्र—पत्रिकाओं में प्रकाषित हो चुकी हैं।
उन्होंने महान गायक मोहम्मद रफी की पहल जीवनी (मेरी आवाज सुनो) के अलावा अभिनय सम्राट दिलीप कुमार तथा हरफनमौला अभिनेता—निर्देषक राजकपूर की जीवनी लिखी है। इसके अलावा सिनेमा जगत की 140 हस्तियों के बारे में ''हिन्दी सिनेमा के 150 सितारे'' नामक पुस्तक लिखी है।
देष की प्रतिश्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कई कहानियां प्रकाषित हो चुकी हैं। ‘‘अवरोध'' नामक उनकी कहानी को दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी की ओर से प्रथम नवोदित लेखन पुरस्कार मिल चुका है। इसके अलावा हिन्दी अकादमी के वित्तीय सहयोग से उनका पहला कहानी संग्रह ‘‘विभव दा का अंगूठा'' प्रकाषित हुआ। मीडिया और राजनीति पर कई व्यंग्य भी लिखे। उनका व्यंग्य संग्रह ‘‘ढिबरी चैनल‘‘ षीघ्र प्रकाषित होने वाला है। उन्होंने बिहार के मगध विष्व विद्यालय से स्नातक करने के बाद नयी दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान के हिन्दी स्नातकोत्तर पत्रकारिता डिप्लोमा किया। बाद में राश्ट्रीय संवाद समिति — यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया से सम्बद्ध यूनीवार्ता में करीब 25 वर्श तक विभिन्न पदों पर काम किया। इन दिनों न्यूज पोर्टल ‘‘फर्स्ट न्यूज लाइव'' का संचालन करते हैं।
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर कई पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं जिनमें ‘‘चिकित्सा विज्ञान से नयी आषायें'', ‘‘मानसिक रोग'', ‘‘हृदय रोग : कारण और बचाव'', ‘‘कमर दर्द : कारण और बचाव'', ‘‘खुषहाल बचपन'' आदि षामिल है।