एस्ट्रोसैटः ब्रह्मांड में हमारी भी वेधशाला Shambhu Suman द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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एस्ट्रोसैटः ब्रह्मांड में हमारी भी वेधशाला

आवश्यक लेखः खगोल विज्ञान

प्रस्तुतिः शंभु सुमन

अंतरिक्ष में भारत की ऐतिहासिक छलांग

एस्ट्रोसैटः ब्रह्मांड में

हमारी भी वेधशाला

अंतरिक्ष मंे एक साथ चार कैमरे वाले दुनिया के पहले टेलीस्कोप को स्थापित कर भारत खगोलिय गतिविधियों पर नजर रखने में न केवल सक्षम हुआ, बल्कि अंतरिक्ष अनुसंधान के ‘विशिष्ट क्लब’ में शामिल होकर विश्व का पहला विकासशील देश भी बन गया।

आकाशगंगा, ब्लैक होल, बृहस्पति, शानि, बुध, प्लूटो आदि ग्रहों के साथ-साथ ब्रह्मांड में होने वाली नित नई हलचलों को समझने के लिए खागोलविज्ञानी वर्षों से शोध में जुटे हैं। इस सिलसिले में अब भारत की असाधारण क्षमता वाले दूरदर्शी एस्ट्रोसैट की भी नजर टिक गई है। अंतरिक्ष में खगोलीय गतिविधियों का अध्ययन करने वाली हमारी भी वेधशाला सफलतापूर्वक स्थापित हो चुकी है। यह कामयाबी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) को तब मिली जब उसके द्वारा सात उपग्रहों के प्रक्षेपण और अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर लिया गया। इन उपग्रहों में भारत के एस्ट्रोसैट के साथ पहली बार अमेरिका के चार नैनो उपग्रहों के अतिरिक्त एक कनाडा और एक इंडोनेशिया का उपग्रह भी शामिल किया गया। इसी के साथ इसरो ने अपनी उपलब्धि का एक नया इतिहास लिख दिया। अंतरिक्ष में विश्व की चैथी और भारत की पहली वेधशाला स्थापित होने के बाद भारत विकसित देशों अमेरिका, जापान और रूस के ‘विशष्ट क्लब’ में शामिल होने वाला दुनिया का चैथा देश बन गया।

वर्तमान में केवल तीन देशों के पास ही ऐसी अंतरिक्ष में वेधशालाएं हैं। अमेरिका-यूरोप की हब्बल वेधशाला जहां सन् 1990 में स्थापित की गई थी, वहीं रूस सन् 2011 में स्पेक्टर-आर और जापान सन् 2013 में सुजाकू नाम की वेधशाली स्थापित कर चुका है। अमेरिका आनेवाले वर्ष 2018 में जेम्स वेब्ब वेधशाला स्थापित करने वाला है। भारत की कामयाबी इस लिहाज से भी खास महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारा पड़ोसी प्रतिद्वंद्वी देश चीन फिलहाल अपनी पहली अंतरिक्ष दूरबीन ‘हार्ड एक्सेस माड्यूलेशन टेलीस्कोप’ से ही काम चला रहा है।

अंाध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के लांच पैड से ध्रुवीय प्रक्षेपण यान पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीकल (पीएसएलवी) सी30 ने 28 सितंबर को ठीक 10 बजे उड़ान भरी तथा 22 मिनट 32 सेकेंड के बाद ही एस्ट्रोसैट को पृथ्वी के ऊपर निर्दिष्ट भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर दिया। इसके साथ ही भारत के अंतरिक्ष अध्ययन में नए चरण की शुरूआत हो गई। हालांकि इसके ठीक एक साल चार दिन पहले अंतर-ग्रहीय मिशन मंगलयान को भी मंगल की कक्षा में स्थापित करने में सफलता मिल चुकी है। इसी के साथ इसरो ने विदेशी उपग्रहों के प्रक्षपण का अर्द्धशतक भी पूरा कर लिया। इस तरह से इसरो द्वारा अब तक 51 विदेशी उपग्रह प्रक्षेपित किए जा चुके हैं और आने वाले दो सालों मंे छह देशों अल्जीरिया, कनाडा, जर्मनी, इंडोनेशिया, सिंगापुर और अमेरिका के कुल 23 उपग्रहों को प्रेक्षेपित करेगा। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स काॅरपोरेशन के अनुसार इस संबंध में समझौत पर हस्ताक्षर हो चुके हैं। इन 23 विदेशी उपग्रहों में दो को अलग-अलग रॉकेट के जरिए अंतरिक्ष में स्थापित किया जाएगा। बाकी के इक्कीस उपग्रहों को भारत के बड़े उपग्रह के साथ छोड़ा जाएगा। इसके द्वारा जल्द ही सिंगापुर के छह उपग्रहों का प्रक्षेपण किया जाना है, जो करीब 660 किलोग्राम होगा। इनमें सबसे बड़ा 410 किलोग्राम वजनी अर्थ आॅब्जर्वेशन सेटेलाइट भी शामिल होगा। इसके अलावा दो माइक्रो और तीन नैनो-सेटेलाइट होंगे। एंट्रिक्स ने इसके अलावा अमेरिका के साथ भी नौ उपग्रहों के प्रक्षेपण का करार किया है। इनमें से चार, एस्ट्रोसैट के साथ प्रक्षेपित किए जा चुके हैं।

क्या है एस्ट्रोसेट?

भारतीय वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष की तमाम गतिविधियों को जानने-समझने में मदद करने वाला एस्ट्रोसैट कई मायने में खूबियों से भरा है, जिसमें लगे पांच अत्याधुनिक उपकरणों के जरिए ब्रह्मांड की संरचना की गहराई को समझा जा सकता है। खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली वेधाशाला संबंधी परियोजना की स्वीकृति इसरो के द्वारा वर्ष 1996 में छोड़े गए भारतीय एक्स-रे खगोल विज्ञान प्रयोग (आईएक्सएई) की सफलता के बाद वर्ष 2001 में ही मिल गई थी। इसके अनुसार एस्ट्रोसैट का प्रक्षेपण 2007 में ही होना था, मगर संरचनात्मक उपकरणों और विभिन्न पहलुओं की पेचीदगियों के कारण प्रक्षेपण टलता रहा।

कुल 1513 किलोग्राम के वजन वाला एस्ट्रोसैट बहु-तरंगदैर्ध्य वाला अंतरिक्ष निगरानी का उपग्रह है, जो ब्रह्मांड के बारे में अहम् जानकारियां प्रदान करेगा। यह मिशन एक ही समय में अल्ट्रावायलेट, ऑप्टिकल, लो एंड हाइ एनर्जी एक्स रे वेव बैंड की निगरानी में सक्षम है। इसका लक्ष्य अंरितक्ष में विभिन्न तरंगों की निगरानी कर अलग-अलग तरह के खगोलीय पिंड खेजना, एक्स रे और पराबैंगनी किरणों के आधार पर आसमान कर सर्वेक्षण करना, आकाशगंगाओं व नक्षत्रों के विभिन्न तरंगों के आधार पर अध्ययन के साथ-साथ सामयिक व गैर सामयिक एक्स-रे के स्रोतों का भी अध्ययन करना है। मल्टी वेवलेंथ आब्जर्वेटरी के जरिए तारों के बीच दूरी का भी पता लगाया जा सकेगा। इसके आॅप्टिकल मिरर का व्यास 30 सेंटीमीटर है तथा यह ब्रह्मांड के अन्य स्रोतों पर एक साथ नजर रख सकता है। यह ब्लैकहोल, तारों और उनमें होने वाले विस्फोटों के अध्ययन में काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकेगा, जबकि इस काम में विश्व के दूसरे दूरदर्शी पिछड़ जाते हैं। यानि कि एस्ट्रोसैट की मदद से ब्रह्मांड के और भी नए राज खुलेंगे। इसकी मदद से भारत के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में पाई जाने वाली तमाम किस्म की किरणों और पिंडों के बारे में ठोस और महत्वपूर्ण जानकारी हासिल कर पाएंगे, जो दूसरे अनुसंधानों में उपयोगी साबित होंगे।

एस्ट्रोसैट को बनाने में इसरो को दस साल से अधिक समय लगे और इसपर कोई 178 करोड़ रुपए की लागत आई। इसमें सुदूर आकाशीय पिंडों के अध्ययन के लिए पांच विशेष उपकरण लगे हुए हैं, जिनमें एक पराबैंगनी दूरदर्शी और चार एक्स-रे दूरदर्शी हैं। ये खास उपकरण इस तरह से हैं- 1. अल्ट्रावायलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (यूवीआईटी), 2. लार्ज एरिया एक्स रे प्रपोशनल काउंटर (एलएएक्सपीसी), 3. सॉफ्ट एक्स रे टेलीस्कोप (एसऐक्सटी), 4. कैडमियम जिंक टेल्यूराइड इमेजर (सीजेडटीआई) और 5. स्कैनिंग स्काई मॉनीटर(एएसएम)।

1.यूवीआईटीः- एस्ट्रोसैट में 40 सेंटीमीटर के दो अल्ट्रा वाइलेट इमेजिंग टेलीस्कोप लगे हैं। यह पराबैंगनी तरंगों के आधार पर वैसे खागोलीय पिंडों को खोजने और देखने में सक्षम है, जिन्हें सामान्य प्रकाश दूरबीनों से देखना असंभव है।

2.एलएएक्सपीसीः- इसमें तीन लार्ज एरिया एक्सनान प्रमोशनल काउंटर लगे हैं, जो 6000 वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्र में तीन से 80 किलो इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा के एक्स-रे पर प्रभावी तरह से नजर रखने मंे सक्षम है।

3.एसऐक्सटीः- साॅफ्ट एक्सरे टेलीस्कोप में एक शंकु के आकार का दपर्ण और एक्स रे सीसीडी डिटेक्टर लगे हुए हैं। यह 0.3 से 8 किलो इलैक्ट्राॅन वोल्ट ऊर्जा की श्रेणी में काम करता है। हालांकि इसकी आदर्श स्थिति एक किलो इलेक्ट्राॅन वोल्ट की है, जिसमें 120 वर्ग सेंटीमीटर की सटीकता से काम कर सकता है।

4.सीजेडटीआईः- यह एक इमेजर है, जो 0.1 डिग्री की सटीकता के साथ हार्ड एक्स रे और साफ्ट गामा रे का पता लगाने में सक्षम है। एस्ट्रोसैट में लगे सीजेडटीआई 10 और 150 किलो इलेक्ट्राॅन ऊर्जा वाले एक्सरे की 500 वर्ग सेंटीमीटर की सटीकता से तस्वीर बना सकते हैं।

5.एएसएमः-यह त्रिआयामी अवस्था मंे स्थापित है। इसके जरिए आसमान को हर छह घंटे में खगंाला जा सकता है। जिससे एक्स रे किरणों के स्रोतों का पता लगेगा।

इन उपकरणों से मिले वैज्ञानिक आंकड़े विश्लेषण के लिए निगरानी मिशन आॅपरेशन काॅम्पलेक्स (मॉक्स) इकाई के जमीनी स्टेशन को भेजा जाएगा। पांच साल तक काम करने वाले इस उपग्रह के संचालन की पूरी अवधि के दौरान इसका प्रबंधन बंगलुरु में इसरो टेलीमिट्री, ट्रैकिंग एंड कमांड नेटवर्क के अंतरिक्ष यान नियंत्रण केंद्र द्वारा किया जाएगा।

विशेषताएंः एस्ट्रोसैट में कई खास विशेषताओं में इसके जरिए विभिन्न खगोलीय पिंडों से जुड़ी अलग-अलग लंबाइयों वाली तरंगों के आंकड़े जुटाना है। इसरो के मुताबिक एस्ट्रोसैट, ब्रह्मांड का अध्ययन विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के प्रकाशीय, पराबैंगनी और उच्च ऊर्जा वाली एक्सरे के क्षेत्रों में करेगा। जबकि अधिकतर अन्य वैज्ञानिक उपग्रह विभिन्न लंबाई की तरंगों के एक संकीर्ण फैलाव (नैरो रेंज) का ही अध्ययन करने में सक्षम होते हैं। हालांकि एस्ट्रोसैट का संपूर्ण अवलोकन करीब एक साल बाद ही हो पाएगा तथा दूसरे खगोलविदों के प्रस्ताव आमंत्रित किए जा सकेंगे। इसके प्राथमिक आंकड़े बंेगलुरु के पास इंडियन स्पेस साइंस डाटा सेंटर

(आईएसएसडीसी) में एकत्रित किए जाएंगे। इस तरह से इसकी जमीनी कमान इसी सेंटर के हाथों में होगी। उपग्रह के आंकड़े इसके बंगलुरु के ऊपर से गुजरने के दौरान डाउनलोड किया जाएगा। यह दिनभर में 14 बार कक्षा में चक्कर काटेगा, जिसमें 10 बार जमीन केंद्र से नजर आएगा।

तैयारी में लगे 14 साल

ऐस्ट्रोसैट को तैयार करने और पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किए जाने में 14 साल के समय लग गए। इसे बनाने वाली संस्थानों में शामिल टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च(टीआईएफआर) के प्रोफेसर ए आर राव के अनुसार वर्ष 2001 में एक समर्पित टीम गठित की गई थी, जिसने महत्वाकांक्षी योजना पर लगातार काम किया। टीआईएफआर ने एस्ट्रोसैट के एक उपकरण कैडमियम जिंक टेल्लुराइड इमेजर का विकास किया। प्रो राव ने प्रयोगशालाओं में विशेष डिटेक्टरों के अध्ययन करने के बाद नई पीढ़ी के एक्स-रे डिटेक्टरों की तलाश शुरू की। उन दिनों इजरायल की एक कंपनी एक खास किस्म के डिटेक्टर के विकास में जुटी हुई थी। उन्होंने उसके डिटेक्टर को मंगवाया, लेकिन वह काम नहीं आया। बाद में अपना डिटेक्टर विकसित किया गया। यह एस्ट्रोसैट का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इस तरह से इसरो ने एस्ट्रोसैट के विकास के लिए पूना के इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फाॅर एस्ट्रोफिजिक्स, बंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एस्ट्रोफिजिक्स और रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट का भी सहयोग लिया।

एक वैज्ञानिक के अनुसार इसके विकास के लिए बड़े पैमाने पर अनुसंधान और विकास की जरूरत के लिए इसरो से जो कोष मिला था उसे लेकर संदेह बना हुआ था कि यह पनपने वाले विचारों के लिए कितना उपयुक्त और पर्याप्त होगा ? इस क्रम में वैज्ञानिकों ने जापानियों से पहले मिरर बनाने की तकनीक सीखी, उसके बाद अपने यहां प्रयोगशाला की स्थापना कर छोटे-छोटे उपकरण बनाए। इसमें लघु एवं नए उद्योगों को भी शामिल किया गया। आखिरकार इन सभी कार्योें को पूरा करने के प्रयास के बाद दूरदर्शी का पूरा विकास संभव हो पाया।

हब्बल से कई मायनों में बेहतर

विश्व मंे सिर्फ तीन ही अंतरिक्ष एजेंसियों की वेधशालाएं स्थापित हैं। एस्ट्रोसैट की तुलना नासा तथा यूरोपीय एजेंसी द्वारा संचालित खगोलीय दूरबीन हब्बल के साथ की जा रही है। हब्बल की तुलना में एस्ट्रोसैट का वजन काफी कम उसके दसवें हिस्से के बराबर है। इसकी लागत भी हब्बल से बहुत कम आई है। इस कारण इसे कई मायनों में हब्बल का लघु संस्करण कहा जा सकता है। नासा ने हब्बल के विकास और प्रक्षेपण के लिए यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का सहयोग लिया, वहीं इसरो ने स्वयं के संसाधनों से ही देश में ही एस्ट्रोसैट का निर्माण किया और अपने ही अंतरिक्ष यान पीएसएलवी-सी30 से प्रक्षेपित किया। बावजूद हब्बल के मुकाबले एस्ट्रोसैट कई गुना बेहतर है।

हब्बल सिर्फ इस दृष्टि से बेहतर है कि यह पच्चीस साल से लगातार काम कर रहा है और इसके 2030 तक या उससे भी ज्यादा सालों तक काम करने की उम्मीद है। हालांकि इस बार में इसरो के अध्यक्ष ए एस किरण कुमार का कहना है कि एस्ट्रोसेट में उपकरणों का चयन जिस ढंग से किया गया है उससे वह विश्व के अन्य अंतरिक्ष दूरदर्शियों की तुलना मंे अलग हो गया है। इसकी कई सुविधाएं हब्बल मंे नहीं है। जहां हब्बल ने नई आकाशगंगाओं की खोज की और ब्रह्मांड के कई रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं एस्ट्रोसेट से भी बड़ी उम्मीदें हैं। इसके आॅप्टिकल मिरर का व्यास 30 सेंटीमीटर है, जबकि हब्बल का 2.4 मीटर है, लेकिन ऐस्ट्रोसेट की खूबी यह है कि इससे ब्रह्मांड के अन्य स्रोतों पर भी नजर रखी जा सकती है, जिसमें विश्व के अन्य दूरदर्शी काफी पीछे हैं। इसे सबसे किफायती भी माना जा रहा है, क्योंकि एस्ट्रोसेट के उपकरणों को भारतीय वैज्ञानिकों ने इसे 4 से 5 करोड़ डालर की लागत से तैयार किया है। जबकि विदेशों में यही उपकरण तैयार करने मंे 50 से 80 करोड़ डालर तक खर्च हो जाते हैं।

इसरो की कामयाबी

एस्ट्रोसैट के अलावा इसरो द्वारा छह विदेशी उपग्रहों में दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के चार उपग्रह को प्रक्षेपित कर कक्षा में स्थापित करना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह सफलता उसकी पिछली सफलताओं के क्रम में एक और महत्वपूर्ण पड़ाव है। वैसे इसरो 28 अप्रैल 2008 को एक साथ 10 उपग्रह प्रक्षेपित करने का विश्व रिकार्ड बना चुका है। इसके पहले सर्वाधिक 8 उपग्रह छोड़ने का कीर्तिमान रूस के नाम था, जो उसके द्वरा 2007 में बना था। इसी के साथ इसरो ने 22 अक्टूबर 2008 को मानव रहित चंद्रयान की अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत कर सभी को हैरत में डालने वाली सफलता हासिल की। चंद्रयान-1 के बाद मंगलयान की कामयाबी ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को दुनिया में एक नई पहचान दिलाई।

15 अगस्त 1969 को कनार्टक के बंगलुरु में स्थापित इसरो अभी तक चंद्रयान और मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के बावजूद रिमोट सेंसिंग, संचार, मैपिंग, नेविगेशन आदि तक ही सीमित था, लेकिन एस्ट्रोसैट के सफल प्रक्षेपण के बाद अब हम खगोलीय घटनाओं का अध्ययन करने वाला अग्रणी संस्थन बन गया है। अभी तक भारतीय खगोलविद जमीनी दूरबीनों से आकाशीय हलचलों पर नजर रखते थे, लेकिन अब उन्हें अंतरिक्ष में अपनी वेधशाला का लाभ मिलेगा और उनका काम पहले से आसान हो जाएगा। न केवल हमारी नई पीढ़ी को नए ग्रहों और तारों के बारे में जानकारी मिलेगी बल्कि उनके परंपरागत ज्ञान में भी बढ़ोत्तरी होगी। यानि कि एक अकेले एस्ट्रोसैट के सफल प्रक्षेपण से अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में कई नए दरवाजे खुल गए है। दशकों पहले 1962 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की देखरेख में भारत की राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति का गठन हुआ था। उसके बाद से भारत की अंतरिक्ष में स्थिति मजबूत होती जा रही है। उसके कई अहम् पड़ाव मील का पत्थर साबित हुए तो ठीक पचास साल पहले 1965 में थुम्बा में अंतरिक्ष विज्ञान एवं तकनीकी संस्थान की भी स्थापना की गई।

इसरो नासा या अन्य एजेंसियों से टक्कर लेने लायक भले ही नहीं हो, लेकिन वर्ष 1974 में भारत पर परमाणु परिक्षण की वजह से प्रतिबंध लगने के बावजूद इसने बिना किसी बाहरी मदद के कई उन्नत तकनीकें विकसित करने में साफलता पाई है। आज भारत के पास 11 दूरसंचार उपग्रह हैं, जो पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। एशिया प्रशांत क्षेत्र में किसी देश के पास इतने दूर-संचार उपग्रह नहीं हैं। इसके बनाए उपग्रहों की क्षमता काफी अधिक है। कई उपग्रह तो आसमान से धरती पर एक मीटर की ऊंचाई वाली किसी वस्तु को भी देख सकता है। और तो और, इसरो का व्यापार भी काफी मुनाफे वाला है, क्योंकि इसके हर एक डालर निवेश पर दो डालर वापस मिलते हैं। रिमोट सेंसिंग तस्वीरों का एक-तिहाई विश्व बाजार भारत के पास है। इसरो का बजट जहां एक अरब डालर से भी कम है, वहीं नासा का बजट 17 अरब डालर से भी अधिक है। इसरो ने व्यावसायिक प्रक्षेपणों के क्षेत्र में भी अपने पचास साल पूरे कर लिये हैं। इसके वैश्विक ग्राहकों में जर्मनी, फ्रांस, जापान, कनाडा, ब्रिटेन जैसे विकसित देश शामिल हैं।

इसरो पीएसएलवी के जरिए ही अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों को प्रक्षेपण की सेवा उपलब्ध करवाता है। इसने 26 मई, 1999 को पीएसएलवी-सी2 द्वारा आईआरएस-पी4 के साथ कोरिया गणराज्य के किटसैट-3 और जर्मनी के डीएलआर.-टबसैट का प्रक्षेपण करते हुए व्यावसायिक प्रक्षेपण सेवा के बाजार में प्रवेश किया।

पीएसएलवी

एस्ट्रोसेट को अंतरिक्ष मंे सफलता पूर्वक भेजने में इसरो के विश्वसनीय ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीकल (पीएसएलवी) की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही। यह विश्व के सबसे विश्वसनीय प्रक्षेपण वाहनों में से एक है, जिसकी इसबार 31वीं उड़ान थी। पीएसएलवी का क्षमता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस यान की 31 में से 30 उड़ानें कामयाब रही हैं। इस अनुसार इसकी सफलता दर निन्यानवे प्रतिशत की है। पीएसएलवी की उपलब्धि का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि यह एक ही मिशन में कई उपग्रहों को एक साथ लॉन्च कर उन्हें सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित करने में भी सफल रहा है। कुल 44.4 मीटर लंबाई वाले पीएसएलवी का वजन 320.2 टन है तथा यह कुल वजन ले जाने की क्षमता 1631 किलो ग्राम है।

इसने अपनी पहली उड़ान 20 सितंबर 1993 को भरी थी, जो कि नाकाम रही। उसके बाद उसने अपनी नाकामियों से सीख लेते हुए सुधार किए और हमेशा कामयाबी हासिल की। वर्ष 1994-2015 की अवधि के दौरान इसने कुल 84 उपग्रह प्रक्षेपित किए हैं, जिनमें से 51 अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों के हैं। इसने अब तक 15 प्रक्षेपनों में 20 देशों (अल्जीरिया, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, इजराइल, इटली, जापान, लक्समबर्ग, दी नीदरलैंड्स, कोरिया गणराज्य, सिंगापुर, स्विड्जरलैंड, टर्की, यूनाइटेड किंगडम तथा अमरीका) के अंतर्राष्ट्रीय ग्राहक उपग्रहों का सफलतापूर्वक अंतरिक्ष मंे पहुंचाया है।

बाॅक्स मैटर

ऐस्ट्रोसैट के अतिरिक्त

छह विदेशी उपग्रह

पीएसएलवी-सी 30 राॅकेट के जरिए एस्ट्रोसैट के अतिरिक्त छह विदेशी उपग्रह भी प्रक्षेपित किए गए, वे हैंः-

एनएपीएएन-ए2ः- इंडोनेशिया का 76 किलोग्राम वजनी यह उपग्रह नासा के द्वारा विकसित किया गया एक माइक्रो उपग्रह है। यह आॅटोमेटिक आइडेंफिकेशन सिस्टम द्वारा समुद्र की निगरानी करेगा।

एनएलएस 14(ईवी9)ः- कनाडा का यह उपग्रह 14 किलोग्राम वजन का है, जिसे यूनिवर्सिटी आॅफ टोरंटो के इंस्टीट्यूट फार एडवांस्ड स्टडीज के स्पेस फ्लाइट लेबोरेट्री द्वारा विकसित किया गया है। यह भी समुद्र की निगरानी करने वाला एक उपग्रह है।

एलईएमयूआर नैनो उपग्रहः-अमेरिकी चार एलईएमयूआर नैनो उपग्रह को अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को आधारित कंपनी के स्पायर ग्लोबल आईएनसी द्वारा विकसित किया गया है। ये नाॅन विजुअल रिमोट सेंसिंग उपग्रह हैं, जो ग्लाबल मेरिटाइम इंटेंलिजेंस पर केंद्रित हैं।