मेरी पहली रेल यात्रा (यात्रा वृतान्त) ..................... 3
मेरी पहली रेल यात्रा शीर्षक से मैं यहाँ एक यात्रा वृतान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ। वैसे यह मैं तीसरा यात्रा वृतान्त लिख रहा हूँ इससे पूर्व मैंने मेरी साहित्यिक यात्रा के नाम से पहला यात्रा वृतान्त लिखा था जो झुंझनु शहर की यात्रा का था एवं मेरा दिल्ली का सफर के नाम से दूसरा यात्रा वृतान्त लिखा था जो दिल्ली यात्रा के बार में था। दिल्ली यात्रा के दौरान ही मैंने वापसी का सफर रेल द्वारा तय किया था। जिसका यात्रा वृतान्त मैंने पीछले यात्रा वृतान्त में नहीं लिखा क्योंकि मेरा मानस ’’मेरी पहली रेल यात्रा’’ यात्रा वृतान्त लिखने का हो चला था।
मैं अपने जीवनकाल में कभी भी साधारण एवं दु्रतगामी रेल किसी में भी नहीं बैठा था। आष्चर्य की बात यह रही कि जब रेल में कभी बैठा ही नहीं और जब बैठा भी तो यात्रा दिल्ली से प्रारम्भ हुई। जब मेरा दिल्ली में एक भव्य पुस्तक लोकार्पण समारोह हेतु नई दिल्ली के काॅन्स्टीट्यूशन क्लब आॅफ इंडिया के सभागार में 13 जुलाई 2015 को जाना हुआ तभी उदयपुर वापसी में रेल द्वारा यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ। हालांकि मैंने अपना आरक्षण तृतीय श्रेणी वातानुकुलित शयनयान के अन्तर्गत पुर्व में करा रखा था।
मैं एवं मेरे मित्र नीरंजन तिवारी जी 7.00 बजे दिल्ली सराई रोहेला रेल्वे स्टेशन पहुँचे। रेल का प्रस्थान का समय 7.40 था और रेल प्लेटफार्म पर खड़ी थी। रेल्वे का बार-बार अनाउन्स्मेन्ट चल रहा था कि दिल्ली से उदयपुर जाने वाली चेतक एक्सप्रेस 12981 प्लेटफार्म नं. 2 पर है। रेल्वे स्टेशन पर बहुत चहल-पहल थी। कोई अपनो को रेल में बिढ़ाने आये थे तो कोई अपनो को लेने के लिए। मेरे मित्र और मेरा रेल का कोच अलग-अलग था लेकिन रेल एक ही थी इससे इतना ही विश्वास था कि कोई मेरा साथी पहचान का इस रेल में है। वह अपने कोच में अपनी पत्नि के साथ चढ़े और मैनें अपना कोच ढूंढा।
जब मैंने रेल के वातानुकुलित शयनयान कोच में प्रवेश किया तो मेरी सीट और सामने वाली सीट पर कोई नहीं था। रेल में काफी ठण्डक थीं। मैंने अपना सामान सीट पर रखा। कुछ ही देर में एक जनाब मेरे सामने वाली सीट पर आ कर बैठे इनकी उम्र लगभग 60 वर्ष लग रही थी। कुछ ही पलों में तीन युवा और आये जिसमें से दो युवा मेरे सामने वाली सीट पर बैठ गये और एक युवा मेरे बांयी और बैठ गये। कुछ ही पल में एक युवती ने प्रवेश किया और ये भी मेरी ही सीट पर दांयी और बैठ गई। रेल में पहली बार यात्रा करने से मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि दो सीटों पर हम छः सदस्य कैसे हैं। मैंने सोचा कि ये पास वाली सीट पर होगें और अभी यहीं बैठ गये हैं क्योंकि हो सकता हैं कि पास वाली सीट उनकी हो जिस सीट पर अभी टीटी बैठा हैं।
भारतीय समयानुसार 7.40 बजे चेतक एक्सप्रेस गाड़ी नम्बर 12981 राजधानी दिल्ली के सराई रोहेला स्टेषन से प्रारम्भ हुई। रेल का मेरा पहला ही सफर रहा था। बाहर संध्या होने से अंधेरा छा गया था और कोच के शीषे भी बंद थे क्योंकि वातानुकुलित कोच था। अब बाहर तो कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था क्योंकि रेल मार्ग पर रोड़ लाईट की तरह कोई लाईट नहीं थी। अतः अब रेल के बाहर क्या है उससे अब कोई मतलब ही नहीं था। हम आमने-सामने की सीटों पर छः सदस्य थे। सभी एक-दूसरे से अनजान थे और अपनें में ही खोये थे। मैंने सोचा यदि कोई समस्या आ भी गई तो टीटी महोदय ही है इस रेल के प्रतिनिधि उन्हीं से मदद ले लेंगें। टीटी महोदय ने हमारे टिकट चैक कर लिये।
मैंने सुना था कि रेल के सफर में तो कोई समुह से सफर करे तो सफर बहुत जल्दी कट जाता हैं। यहाँ भी हम छः सदस्य तो थे पर सभी एक-दूसरे से अनजान थे। सभी अपने हाल में मस्त थे कोई अपने मोबाईल पर व्यस्त था तो कोई अपनी फाईलों में व्यस्त था। आखिर हम छः सदस्य इस 650 किमी की दूरी एवं 12 घंटे के सफर में कब तक चुप्पी साधे रहते। आखिर में मेरे सामने वाले जनाब जो 60 वर्ष के प्रतीत हो रहे थे उन्होनें बहुत देर की इस खामोशी को तोड़ ही दिया।
उन्हानें अपना परिचय दिया और बताया कि वह भीलवाड़ा उनके गृहक्षेत्र जा रहे है। इनका नाम श्री जवाहर ईसरानी जी था। ये जनाब मेकान सेल(कंस्लटिंग फर्म) में मेनेजर रहे जिससे इनका विदेश यात्रा जाने का सपना साकार हुआ। इससे इन्हें कुवेत, कोरिया, सिंगापुर, नेपाल और अन्य देषों में जाने का मौका मिला। वे जिस भी देश जाते वहाँ के डाकटिकट एवं सिक्के जरूर लाते एवं उन्हें संग्रहीत करते। इनके शिक्षक से इन्हें प्रेरणा मिली और कई लोगों ने भी इन्हें सहयोग दिया। इन्होनें बताया कि वह अब तक 190 देषों के 30 हजार डाक टिकट का संग्रह एवं 90 देशों के ढाई हजार सिक्कों का संग्रह कर चुके है। विभिन्न शहरों में विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अपने संग्रहीत डाकटिकटों की प्रदर्शनी के माध्यम से अपने जुनुन को लोगो तक पहुँचाते हैं।
आश्चर्य की बात यह भी रही कि उन्हें इस शौक का कोई रिकार्ड बनाने की चाहत भी नहीं है। इसलिए अब तक इन्होनें लिम्का बुक आॅफ रिकार्ड एवं गिनिज बुक में अपना नाम शामिल कराने के लिए कोई आवेदन भी नहीं किया। इसरानी जी ने कहा कि हर बच्चा ऐसा शौक पाले। इन्होनें अपनी फाईल दिखाई जिसमें कई डाक टिकिट का संग्रह था। इन्होनें अपनी विजिटर डायरी निकाली और सभी से प्रतिक्रिया एवं दस्तखत लिये। आज ऐसी खासियत से मिलकर मुझे भी बहुत प्रेरणा मिली। वास्तव में अब रेल यात्रा का आनन्द भी आ रहा था।
श्री जवाहर इसरानी जी ने जब मेरा परिचय पुछा तब मैनें उन्हें बताया कि मैं उदयपुर शहर से हुँ और यहाँ नई दिल्ली के काॅन्स्टीट्यूशन क्लब आॅफ इंडिया के सभागार में एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में आना हुआ था। जिसमें सांझा संग्रह ’’सहोदरी सोपान-2’’ का लोकार्पण हुआ जिसमें मैं सम्मिलित हुँ। फिर मैंने अपने बेग से पुस्तक निकाल कर दिखाई। इसके साथ ही मैंने अपनी प्रथम कृति ’’कवि की राह’’ एवं सांझा संग्रह ’’अहसास एक पल’’ भी दिखाई। मेरी तीनों किताबें अब तीन सदस्यों के पास थी और उन्होंने इसे पढ़ना प्रारम्भ किया। श्री जवाहर इसरानी जी ’’सहोदरी सोपान-2’’ पढ़ने लगे। मैंरे पास वाले युवक ’’अहसास एक पल’’ के पन्नें ही पलटते रहें। मैं बहुत देर तक उन्हें देखता रहा फिर मुझे समझ आया कि यह जनाब तो हिंदी पढ़ना ही नहीं जानते हैं। वह भारत के दक्षिणी प्रान्त से थे और दिल्ली में कार्यरत है एवं भीलवाड़ा कार्यालय के किसी कार्य से जा रहे थे। हमारे भारत देष में कई भाषाओं का भण्डार हैं और देश में बहुत से बहुभाषी व्यक्ति भी हैं लेकिन सभी को राष्ट्रीय भाषा हिन्दी नहीं आती है। यह बहुत ही चिंता का विषय है। मैं हिन्दी के राष्ट्रीय अधिवेशन से ही लौट रहा था जिसमें कहा था कि हम हिन्दी भाषा के लिए कार्य करेगें। मैंने इन जनाब को कहा कि आप अपने देष के सम्मान के लिए हिन्दी भाषा जरूर सिखिए।
मेरे पास वाली युवती ने मेरी प्रथम कृति ’’कवि की राह’’ को पढ़ना प्रारम्भ किया। पढ़ने के दौरान ही इनसे भी परिचय हुआ तो पता चला कि यह भी मुलतः भीलवाड़ा से ही है और दिल्ली के नोएड़ा में डेल कम्पनी में कार्यरत हैं। आज की युवती जो शिक्षित भी है और अच्छी कम्पनी में कार्यरत भी। भारत देश को ऐसी बेटियों पर गर्व होना चाहिए। बेटियों का संरक्षण करना चाहिए एवं उन्हें बेहतर षिक्षित कर रोजगार करने की स्वतंत्रता भी देनी चाहिए। आज के समाज के लिए यह बेटी किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं हैं।
सामने वाले दो युवकों ने रेल्वे से अपना भोजन पैकेट मंगवाया और भोजन करना प्रारम्भ कर लिया। ये भी भीलवाड़ा ही जा रहे थे। हम छः सदस्यों में मुझे छोड़कर सभी भीलवाड़ा ही जा रहे थे। इसी बात पर मुझे मेरे मित्र नीरंजन तिवारी जी की याद आ गई जो भी भीलवाड़ा ही जा रहे हैं और दूसरे कोच में बैठे है। मैनें सभी से उनके बारे में जिक्र किया और कहा कि वह आर.सी.एम. कम्पनी में है।
इस दौरान कई बार रेल रूकी और रूकी-रूकी सी रेल फिर चल पड़ी लेकिन बातों बातों में कुछ पता ही नहीं चला। अब मुझे भी भुख का अहसास होने लगा और रात्रि भोज करना बाकी था। मैंने रेल्वे कर्मचारी से अपना भोजन का पैकेट मंगवाया तभी पास वाली युवती ने भी अपने भोजन का आर्डर दिया। मैंने मेरी सांझा संग्रह ’’सहोदरी सोपान-2’’ पुस्तक पर सभी के हस्ताक्षर लिये। मैं लोकार्पण कार्यक्रम में अधिक देर तक रूक नहीं सका था एवं किसी के भी हस्ताक्षर ना लेने का मलाल रहा था। कुछ ही पल में रेल्वे का कर्मचारी भोजन के दो पैकेट ले आया। हमारी सीटो के बीच में एक छोटी सी टेबल थी जिस पर मैंने अपना भोजन रखा एवं तभी पास वाली युवती ने अपना भोजन का पैकेट भी उसी के ऊपर रख दिया। हम छः सदस्यों में से दो व्यक्ति घर से भोजन कर आये थे एवं दो युवाओं ने भोजन कर लिया था।
अब मुझे और उस युवती को ही भोजन करना शेष था। वह युवती अब तक मेरी पुस्तक ’’कवि की राह’’ ही पढ़ रही थी। उन्हें यह पुस्तक बहुत अच्छी लगी। मुझे अब भोजन करना था लेकिन मेरे भोजन के पैकेट पर युवती का भोजन रखा था अतः मैनें उनसे आग्रह किया कि आप भी भोजन कर लिजिए। वो सहमत हो गई और कहा कि मुझे टेबल पर खाने की आदत है तो मैं खिड़की की तरफ आना चाहती हुँ उन्हें टेबल की तरफ बैठने को जगह दी। युवती ने अपना पैकेट लिया और मैंने अपना पैकेट लिया। तभी जवाहर इसरानि जी ने मुझे अपनी सीट पर आने को कहा कि बरखुरदार आप भी टेबल पर आ जाईये। यह कहकर उन्होंने अपना लेपटाॅप एवं बेग टेबल से हटा लिया। अब युवती और मैं आमने सामने थे। हमने आराम से खाना खाया और बाकी सदस्य अपने हाल में मस्त थें। मैं एक मुसाफिर की तरह था लेकिन रेल का मुसाफिर पहली बार ही था। रेल के बाहर क्या है मुझे कुछ ज्ञात नहीं। मैं रेल में कभी नहीं बैठुंगा मेरे इस वाक्य का खण्डन हो गया था। रेल में पहली बार बैठना और सभी अनजान लोगों के साथ रहना और एक युवती के साथ एक टेबल पर बैठकर खाना खाना। मुझे बहुत अजीब लग रहा था लेकिन खामोषी के अलावा कुछ भी कहने को शब्द नहीं थे। रेल की यह पहली यात्रा जिसमें मैं अकेला था पर मेरा अकेलापन नहीं दिखा। सभी सदस्यों में मेरा अकेलापन बंट गया था। हमने अपना खाना खत्म किया।
अब सभी सदस्यों ने शयन के लिए सहमती कर ली। जो बात मुझे अब तक समझ नहीं आई थी वो अब समझ आ गई थी हमारी सीटो पर दो-दो सीटे और थी जिन्हें एक हुक और बेल्ट से लटकाया गया था और ये अब तक फोल्ड थी। इसलिए हम दो शयन सीटो पर छः सदस्य थे। सभी ने अपनी सीटों को बांधा और चद्दर बिछाने लगें। मैं रेल में पहली बार था मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं था तभी युवती ने मुझे एक चद्दर का पैकेट दिया जो उनकी ऊपरी सीट पर रखा था जो रेल्वे की तरफ से था। मैं एक चद्दर को बिछाने लगा तभी युवती ने कहा कि आप गलत चद्दर बिछा रहे है। फिर मुझे पता चला कि जिस चद्दर को मैं पहले बिछा रहा था वह तो औढ़ने के लिए मिला था। एक युवती से रेल के बारे में सही जानकारी मिली थी। मैंनें सभी को शुभ रात्रि कहकर अपना हेडफोन लगाया और पुराने गानों को सुनने लगा। बाकी सदस्य अपने मोबाईल फोन पर अलार्म लगा कर सो गये उन्हें प्रातः 4.00 बजे भीलवाड़ा स्टेषन पर उतरना था। कोच के वातानुकुलित होने से कुछ ही देर में मुझे भी नींद आ गई।
प्रातः 4.00 बजे सभी सदस्य उठ गये थे जिससे मेरी भी नींद खुल गई। सभी ने स्टेषन उतरने की तैयारी कर ली थी। सभी अपने सामान के साथ भीलवाड़ा स्टेषन के आने का इंतजार कर रहे थे। कुछ ही देर में उन सभी पाँचों सदस्यों का स्टेशन आ ही गया। सभी पाँचों सदस्य उतर गये मैं उन सभी को देखने गेट तक गया। लेकिन खामोश रहा किसी से कुछ नहीं कह सका। ना अलविदा कह सका ना ही फिर मिलेंगें कह सका। मेरे शब्द मेरे पास ही रह गये। शायद उन्हानें मेरे शब्दों को मेरी रचनाओं में पढ़ लिया हो। मैं भी उनकी बातों से बहुत कुछ सिखा। अब रेल में फिर से अकेला था लेकिन उनके विचारों को मैंने एकत्र कर लिया था।
वास्तव में इस रेल यात्रा के दौरान मैंने एकांकी जीवन को करीब से देखा जब लोगो को अपने आजीविका के लिए बड़े शहरों में अकेले रहना पड़ता है। स्वयं को अकेलेपन से दूररख सम्भालना होता है। कुछ मुसाफिर मिलते है जो अपनी तन्हाईयों को अधिक देर तक नहीं छीपा सकते है। अपना परिचय देते है और फिर अपनी मंजिल की और कद़म बढ़ा लेते है। कुछ सिख कर जाते है तो बहुत कुछ सिखा कर चले जाते हैं। किसी को यह भी ज्ञात नहीं कि वह फिर कभी किसी से मिलेंगें या नहीं। पर जिन पलों में साथ रहे एक समुह की तरह रहे। सभी ने परस्पर बातचीत की एवं एक-दूसरे की मदद की अपनी पहचान और जज्बा बता गये। एक बुजुर्ग जो कोई शौक पालने की बात कह गया जिसने कभी अपना रिर्काड नहीं बनाना चाहा बस मन लगाकर कार्य करता रहा और दूसरों को प्रेरणा देता रहा। एक युवा जो स्वयं हिन्दी नहीं जानता पर मेरी हिन्दी की रचनाओं के पृष्ठ पलटकर मेरी सराहना करता रहा। दो युवक जो खामोष रह कर भी सबके साथ थे और सभी की हँसी में शामिल भी वह खुलकर हँसना सिखा गये। एक युवती जो नीडर एवं शिक्षित थी। सेवाभावी यह युवती नई सिख दे गई। बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं के नारे को चरितार्थ करती यह युवती भारत देश में बेटियों के प्रति सम्मान की प्रतिक बनी रही। हमने एक युवती के सम्मान का पुरा ख्याल रखा। टीटी भी अनुशासन का द्योतक बना रहा उसने भी कोच में दुसरों के सामान को रखवाने में मदद की। मैंने राष्ट्रभाषा हिंदी के ज्ञान को भारत देश के लिए सम्मान देने की बात कहकर युवक को हिन्दी सिखने के लिये प्रेरित किया और रेल द्वारा कभी यात्रा ना करने के वाक्य का खण्डन कर रेल यात्रा के भय से मुक्त हुआ।
मैं प्रातः 7.50 पर अपने शहर उदयपुर लौट आया था। सच में मेरी पहली रेल यात्रा मेरे जीवन के यादगार पल में सम्मिलित हो गयी।
पाठको का हार्दिक आभार।
-- नितिन मेनारिया
उदयपुर