मेरा दिल्ली का सफर - यात्रा वृतान्त Nitin Menaria द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मेरा दिल्ली का सफर - यात्रा वृतान्त

मेरा दिल्ली का सफर (यात्रा वृतान्त) ..................... 2

मेरा दिल्ली का सफर शीर्षक से मैं यहाँ एक यात्रा वृतान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ। वैसे यह मैं दूसरा यात्रा वृतान्त लिख रहा हूँ इससे पूर्व मैंने मेरी साहित्यिक यात्रा के नाम से यात्रा वृतान्त लिखा था जो झुंझनु शहर की यात्रा का था।

मैं अपने जीवनकाल में दिल्ली दो बार पूर्व मैं जा चूका हूँ और मेरा यह दिल्ली का सफर तीसरी बार था लेकिन यह विशेष होने से यादगार बन गया इसलिये इस सफर पर यात्रा वृतान्त लिखने का मानस बना। यात्रा का उद्देश्य एक भव्य पुस्तक लोकार्पण समारोह था जो राजधानी नई दिल्ली के काॅन्स्टीट्यूशन क्लब आॅफ इंडिया के सभागार में 13 जुलाई 2015 को आयोजित हुआ। वैसे कार्यक्रम दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन का था। मैं कार्यक्रम के दूसरे दिन दिनांक 13 जूलाई 2015 को ’भाषा सहोदरी हिंदी’के साझा काव्य संग्रह ’सहोदरी सोपान-2’ के भव्य लोकार्पण में सम्मिलित होने के लिए गया जिसमें मेरी रचनाऐं भी सम्मिलित थी। अब दिल्ली दूर नहीं वाली कहावत भी चरितार्थ हूई मेरे साहित्यिक सफर में दिल्ली की यादें भी जुड़ गयी।

मैंने यह सफर बस द्वारा तय किया और अपनी सीट एक दिन पूर्व ही आरक्षित करा ली। दिनांक 12 जुलाई 2015 की सायं में सफर प्रारम्भ हुआ। मेरा छोटा भाई मुझे बस स्टेशन छोड़ने आया। हम नियत समय से पूर्व ही बस स्टेशन पहूँच गये। इस सफर पर मैं अकेला था। लेकिन कभी भी किसी भी सफर पर मैंनें स्वयं को अकेला महसुस नहीं किया हर पल मेरे जीवन से जुड़ी यादे मेरे साथ चलती रहती है। जब मैं बस के रवाना होने का इन्तजार कर रहा था तभी मेरे भाई के एक मित्र श्री अंकित चौधरी भी आ पहूँचे। संयोग की बात यह रही कि ये जनाब भी उसी बस में दिल्ली जा रहे थे। पहली बार भाई के मित्र से मुलाकात हूई और दिल्ली के सफर पर हम साथ में थे। हालांकी हमारी बस मे बैठक व्यवस्था अलग-अलग थी पर बस एक थी और गंतव्य स्थान एक ही था। वो जनाब अक्सर दिल्ली से उदयपुर की यात्रा करते रहते है क्योंकि उनका गृह क्षेत्र तो उदयपुर है और नौकरी दिल्ली में तो उन्होने बस में शयनयान व्यवस्था का चयन कर आरक्षण करा रखा था और मेरा बस द्वारा दूसरी बार एवं दिल्ली का तीसरी बार सफर था। इससे पूर्व में एक बार बस से एवं एक बार कार द्वारा सफर कर चूका था। मुझे सीट ही पंसद होती है बस मैं ताकि बाहर की खुबसुरती को भी देखा जा सके।

बस यथा समय प्रारम्भ हो गई। बस वातानुकूलित होने से बस के शीशे बंद थे और उन शीशों पर परदे भी लगे हुए थे। मैंने बाहर के दृश्य देखने के लिए परदा हटा दिया। बाहर का मौसम सुहाना था बारिश के दिन थे और सांझ हो चली थी। बस वातानुकूलित होने से बाहर के मौसम की ठंडक का भी अहसास होने लगा। मेरे साथ दिल्ली जाने वाले जनाब तो बस मैं सो गये। मैंने मोबाईल पर हेडफोन लगा पुराने गानों का लुत्फ लिया। सफर का बहुत समय व्यतित हो ही गया। बस में मोबाईल चार्ज की सुविधा होने से किसी प्रकार का तनाव नहीं था जो अक्सर आज के युग में युवाओं को यात्रा के दौरान रहता है कि मोबाईल की बेट्री समाप्त हो गई तो क्या करेंगें। फिर मैंने अपना भोजन बस में बैठकर कर लिया। कुछ पल में हल्की नींद का अहसास होने लगा। कुछ देर बाद बस रात्रि भोजन के लिए एक हाॅटल पर रूकी। मैं बस से उतरा और वो जनाब जो बस में मेरे साथ थे वो भी उतरे जिससे में बस में तो बात नहीं कर पाया था। अब बात की जा सकती थी बाहर का खुला वातावरण मन को भाने लगा। उन्हें अपना रात्रि भोज करना था अन्होनें अपने भोजन का आॅर्डर दिया। मैं भी उन्ही के साथ बैठ गया। कुछ हल्की फुल्की बाते हूई और उन्होनें मेरे दिल्ली जाने के उद्देश्य पर चर्चा की। फिर उन्होनें कहा की वो मुझे सही मार्गदर्शन दे देगें जिससे मुझे दिल्ली शहर में कंही आने व जाने में दिक्कत नहीं होगी। मुझे उन्होनें छाछ पिलाई जो आज भी याद है मुझे। अक्सर चाय पर बात होती है लेकिन इस यात्रा में छाछ पीने के दौरान हमारी बातचीत चली। बस की रवानगी का वक्त हो चला था। हम बस में चढ़े और शुभ रात्रि कहकर सुबह साथ उतरने की बात कही। रात्रि अधिक होने से अब नींद आने लगी थीं। मैनें आखें मुंद ली और सुबह की दिल्ली शहर की यात्रा के बारे में सोचते-सोचते नींद आ गई।

सुबह जब नींद खुली तो हमारी बस गुडगांव तक पहूँच चुकी थी। प्रातः का समय सुन्दर दिख रहा था। सुर्यदेव प्रकट होने वाले थे मैंने भी अपने मोबाईल का कैमरा चालु कर दिया ताकि सुर्य को कैमरे में कैद किया जा सके। कुछ ही पलों में लालीमा लिये सुर्य दिखने लगा और मैंने सुर्य की कई तस्वीरें ली। आज का यूवा फेसबुक पर अपडेट करने से नहीं चुकता है मैंने भी फेसबुक पर ’’सुप्रभात दिल्ली’’ लिखा। कुछ ही पलों में मित्रों के शुभकामनाऐं एवं मगंल यात्रा के संदेश प्राप्त होने लगे।

कुछ ही पलों में दिल्ली शहर की ऊँची ईमारते दिखने लगी। जिस दिल्ली शहर के सफर पर मैं था वह दौड़ता-भागता शहर सामने आ ही गया। महानगर एवं राजधानी दिल्ली की सड़को पर लालबत्तीयाँ लगी गाडि़या बड़े शहरों में नौकरी करने वाले आम व्यक्ति, वहाँ की जनता के चार पहिया वाहन दिनभर दौड़ते-भागते देखे जा सकते है मानों ऐसे लगता है कि सड़के दौड़ रही है जिन्हें कभी थमते किसी ने देखा नहीं। भीड़ में चलने वाले ऐसे लग रहे थे जैसे आगे वाले को धक्का मार कर बढ़ रहे हो।

मेरे साथ वाले जनाब ने कहा कि अब आगे हमें करोल बाग पर उतरना है यह सुनकर मैंने तत्परता दिखाते हुए अपने सामान की सुध ली और हम करोल बाग उतर गये। कुछ देर पैदल चले और सामने बजरंग बली की विशाल मुर्ती के दर्षन हो गये। कुछ आगे ही मेट्रो का रेल्वे स्टेषन था इस मेट्रो स्टेशन का नाम झण्डेवालान था। मेरे साथी ने दिल्ली की मेट्रो रेल व्यवस्था का परिचय पुर्व में कराया था और उन्होनें कहा कि आप दिल्ली में कंही भी जाये मेट्रो की पूरी व्यवस्था है और सस्ता परिवहन भी है।

हम झण्डेवालान स्टेशन से मेट्रो में चढ़े। अपने जीवनकाल में मेट्रो में बैठने का मेरा पहला अनुभव रहा। मैं साधारण एवं दु्रतगामी रेल किसी में भी कभी नहीं बैठा था। मेट्रो का किराया कम था। आज तेज रफतार वाली मेट्रो में बैठने का वास्तव में आनन्द आया। कभी मेट्रो के दरवाजे बाईं ओर खुलते तो कभी दांयीं ओर। लेकिन यह सफर 2 मिनिट ही चला और मेरा स्टेशन रामकृष्ण आश्रम मार्ग आ गया और मेरे साथी अंकित चौधरी जो उदयपुर से मेरे साथ बस में थे उनसे मैंने विदाई ली। उदयपुर से दिल्ली तक बस में एक पहचान वाले का साथ रहा लेकिन अब दिल्ली महानगर में मैं अकेला था।

मुझे ठहरने के लिए एक होटल की तलाश थी। मैंने पैदल ही कुछ चहलकदमी की और होटल की पुछताछ की और कुछ दूरी पर होटल मिल गया। लेकिन वहाँ होटल में रूकने का मन नहीं हुआ। मुझे ये बात पता थी कि मेरे मित्र नीरंजन तिवारी जी जो भीलवाड़ा से है वह एक दिन पुर्व ही दिल्ली आ चुके हैं। अतः मैंने सोचा कि वह जिस होटल में ठहरे हैं मुझे भी वहीं रूकना चाहिए। अगर वक्त मिलेगा तो उनसे वहाँ बात भी हो जायेगी। मैंने उनको फोन किया और वो जिस होटल में रूके थे वहाँ का पता ले लिया। वह पहाडगंज में हाई लाईफ होटल में रूकें थे।

फिर मैंने वहाँ जाने के लिए साईकिल रिक्शा लिया। दिल्ली जैसे बड़े शहर में साईकिल रिक्शा का अलग ही आनन्द था। सड़को पर यातायात की बहुत भीड़ दिखाई दी तेज रफतार से भागती कारें एवं बसे और में अपने साईकिल रिक्षा में आराम का सफर कर रहा था। आस पास की ऊँची ईमारते सुन्दर प्रतित हो रही थी जो एक महानगर का वजूद बन कर खड़ी होकर मुझे चिढ़ा रही थी। मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था। मुझे जिस होटल पर जाना था वह पहाडगंज था। उस रास्ते में दोनों तरफ होटलो की लम्बी कतारे थीं दूर-दूर तक केवल होटल ही दिख रहे थे और सबके नाम भी अनोखे और अलग से थे। कंही एक होटल का नाम व्हाॅईट हाॅउस था तो दुसरी ओर अनमोल होटल। ऐसा लगा जैसे होटल की पुरी मण्डी हो। साईकिल रिक्शा 10 मिनिट में ही गंतव्य स्थान ले आया। आखिर में होटल हाई लाईफ पहुँच गया। मैंने उसे 30 रूपये देकर धन्यवाद् कहा। मेट्रो से उतरते समय किसी को धन्यवाद् नहीं कह पाने का मलाल मन में रहा।

होटल में कमरा लिया और अपने परिचित मित्र का कमरा नं. पुछकर उनसे मुलाकात की। नींरजन जी तिवारी से पहली बार झुंझनु दौरे पर मिलना हुआ था। सारी यादें ताजा हो गई। उनके साथ उनके भी मित्र ठहरे हुए थे। उनसे कार्यक्रम की चर्चा की और उन्होनें कहा की वह दिल्ली भ्रमण कर पुनः होटल आकर कार्यक्रम स्थल आयेगे। मैंने वापसी की भी चर्चा की क्योंकि हमारी वापसी की ट्रेन एक ही थी जिसका नाम चेतक ऐक्स्प्रेस था। उन्होनें संक्षिप्त चर्चा की फिर मेरे मित्र उनके मित्रों के साथ कुछ ही पल में वहाँ से दिल्ली भ्रमण पर निकल गये। मैं अब फिर से उस होटल में अकेला रह गया। कुछ समय विश्राम कर रवानगी की तैयारी कर ली।

मैं जिस कार्यक्रम में सम्मिलित होने वाला था उसका समय दोपहर 2.00 बजे से था और कार्यक्रम स्थल काॅन्स्टीट्यूषन क्लब आॅफ इंडिया के सभागार में था। अभी प्रातः की 10.00 ही बजी थी। फिर मैंने सोचा कि इंडिया गेट जाकर भ्रमण करूंगा और वह कार्यक्रम स्थल के नजदीक भी है। मैंने होटल का रूम चेक आउट किया और निकल पड़ा। मैंने साईकिल रिक्शा लिया और रिक्शे वाले को कहा कि मुझे मेट्रो स्टेशन के नजदीक वाले स्थान पर जाना है ताकि मेट्रो द्वारा ही आगे का रास्ता पता चल सके। मैंने तकनीकी ज्ञान का उपयोग लिया और अपने मोबाईल पर दिल्ली के मेट्रो का एप्लिकेशन डाउनलोड कर लिया। अब में स्वयं ही पता कर सकता था कि नजदीक कौनसा स्टेशन है और किस मार्ग और लाईन द्वारा आगे का सफर तय किया जा सकता है।

मैंने रिक्शे वाले को कहा कि आप मुझे रामकृष्ण आश्रम मार्ग ले चलिए। साईकिल रिक्शा से मैंने कई बच्चों को विद्यालय जाते देखा तो किसी यूवा को बेग लटकाये जाते देखा। दृष्टि पटल पर दो बात सामने आई बड़े शहरों में अध्ययन के लिए खतरे से भरा मार्ग और जब अध्ययन पुरा हो जाये तो भी उस मार्ग पर अपनी डीग्रीयों के लेकर भटकना। थोड़ी देर में ही मैं मेट्रो स्टेशन पहुँचा। मैंने केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन के लिए टोकन ले लिया और मेट्रो में बैठ गया। मेट्रो में बैठने के बाद पता चला कि मुझ जिस स्टेशन जाना है उसकी दूसरी लाईन है में अचम्भीत रह गया। मैं ब्लू लाईन वाली मेट्रो में था और जिस स्टेशन पर उतरना है वह औरेज लाईन पर है। फिर एक साथी से पुछने पर पता चला कि आप सही मेट्रो में ही है आपको राजीव चैक उतर कर दूसरी मेट्रो में बैठना है और टोकन यही चलेगा। सब समझने के बाद मैंने राहत की सांस ली और मैं सांस लेता तब तक मेट्रो से राजीव चैक उतरने का एलाउन्समेन्ट हो गया। जब मैं राजीव चैक उतरा तो दुसरे लाईन पर मेट्रो थी मैं उसमें चढ़ा और कुछ ही पल में केन्द्रीय सचिवालय आ गया। मेट्रो के दरवाजे तेजी से खुले और में उतर गया और दूसरे पल मेट्रो को ऐसे देखता रहा जैसे उसने मुझे कंही बीच मझधार में छोड़ दिया हो। सोचा वापसी में मेट्रो से ही रेल्वे स्टेशन जाऊगाँ। मुझे नहीं पता था कि वापसी में मैं रेल्वे स्टेशन पहुँच भी पाऊगाँ कि नहीं। मुझे रफी मार्ग पर जाना था जहाँ कार्यक्रम स्थल था लेकिन वक्त बहुत बाकी था तो मैंने अपने कदम राजपथ की तरफ बढ़ा लिये।

बचपन से दूरदर्शन पर गणतंत्र दिवस की परेड देखी थी जो इसी राजपथ पर होती है। आज जब मैं स्वयं इस राजपथ पर चल रहा था तो मुझे यह अहसास हो रहा था कि मैं भी परेड मैं चल रहा हूँ। मैंने रिक्षा भी नहीं लिया और पैदल ही चलने लगा। राजपथ पर वाहन बहुत कम दिखे, मेरे उदयपुर शहर से भी कम वाहन थे। ऐसे लगा राजपथ ठहरा हुआ है। राजपथ की सुन्दरता का बखान क्या करें इस राजपथ को कौन नहीं जानता। हाँ लेकिन यह प्राकृतिक छटा बिखेरने वाला मार्ग लगा। दोनो तरफ 500 फीट की चैड़ाइ का हरा भरा मैदान और बड़े-बड़े वृक्ष विद्यमान थे। ऐसा लगा जैसे कि किसी स्वर्ग मैं हो। दानो तरफ नहरें थी और इस पानी में पेड़ो के प्रतिबिंब का बहुत ही मनमोहक नजारा था। मैंने कई तस्वीरें ली। कुछ कदम और चला ही था तो दूर मुझे इंडिया गेट दिखाई दिया। वैसे में कुछ वर्ष पुर्व दिल्ली भ्रमण पर आया था तब देखा था पहली बार। लेकिन इस बार इस इंडिया गेट को सुकुन से देखा क्योंकि मुझसे बतियाने वाला कोई था ही नहीं। मैं अकेला था लेकिन इंडिया गेट को देख लगा कि यह मुझसे दोस्ती करना चाहता है। मैंने दूर से और नजदीक से कई तस्वीरे ली। इस राजपथ पर चलते-चलते बीच में जनपथ भी आ गया। कुछ देर बैंच पर बैठा और फिर चलना प्रारम्भ किया। आगे अमर ज्योति देखा। लगभग 1 घंटें का समय केन्द्रीय सचिवालय से यहाँ आने में लगा और समय दोपहर के 12.00 बज रहे थे सूरज ऊपर से गुर रहा था और मैं भी अपनी मस्ती में दोपहर में पैदल घुमने का आनन्द ले रहा था। अब पुनः उसी रास्ते से लौटना था क्योंकि रफी मार्ग पीछे रह गया था। मैंने रिक्षा लेने की सोची लेकिन मुझे रिक्षा नहीं मिला फिर पता चला कि एक तरफा मार्ग होने से रिक्षा नहीं मिलेगा। अब पैदल ही चलना था उसी राजपथ पर जिस पर मुझे बड़ा आनन्द आ रहा था।

मुष्किल नहीं था क्योंकि मार्ग में दोनो तरफ छायादार वृक्ष थे और आज बादल भी छाये हुए थे। लेकिन अब पैर थकने लगे थे कुछ कदम चला तो मुझे जामुन के पेड़ दिखाई दिये और पेड़ो के नीचे बहुत से जामुन। जामुन तो बहुत थे लेकिन किसी काम के नहीं सभी कदमों तले कुचले गये थे ऐसा लगा जैसे दिल्ली में किसी बड़ी रैली में भगदड़ मच गई हो और लाषे बिछी हो। मै आज जब दिल्ली में घुम रहा था तब यहाँ आम आदमी की सरकार चल रही थी और मैं भी एक आम आदमी की तरह पैदल चल रहा था क्योंकि रिक्शा मिला ही नहीं। वहाँ सीटी बसे थी और मुझे छोटी दूरी ही तय करनी थी। कुछ देर मैं ही मैं रफी मार्ग आ पहूँचा।

और काॅन्स्टीट्यूश न क्लब आॅफ इंडिया मेरे सामने था। जो भारतीय रिजर्व बैंक के ठीक सामने था।

मैं एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम के लिए आया था और जिस स्थान पर पहूँचना था वह अब मेरे सामने ही था। मैंने गेट पर देखा कि हिंदी भाषा सहोदरी का बेनर लगा है इसका मतलब में सही जगह ही पहूँचा हूँ। वहाँ एक बहुत बड़ा होर्डिंग लगा रखा था जिस पर मेरा भी फोटो था। मन में बड़ा आष्चर्य हुआ कि आज मेरी फोटो इतने बड़े शहर दिल्ली के रफी मार्ग पर लगी है जिसे सब आते-जाते लोग निहार रहे हैं। मैंने हार्डिंग ध्यान से देखा जिसमें कुछ चेहरे पहचाने से लग रहे थे तो कुछ अनजान लग रहे थे। खास बात यह रही कि जो पहचान वाले लग रहे थे उनसे में कभी मिला ही नहीं वह तो फेसबुक पर देखे गये थे।

मैं अन्दर प्रवेश के लिए आगे बढ़ा तो गार्ड ने मुझे रोक लिया और कहा कि अभी समय बाकी है आप बाहर ही प्रतिक्षा कीजिऐ। बड़े शहरों में तय समय से पहले कंही प्रवेश ही नहीं मिलता। यह भी नहीं पुछा जाता कि आप कितनी दूर से आये हो और भुखे प्यासे हो। खैर इसमें सुरक्षा कर्मी की क्या गलती जब आयोजक ही वहाँ मोजूद नहीं तो वहाँ प्रवेश कर किससे मिलेगें। मैंने संयोजक महोदय को फोन लगाया उन्होने कहा कार्यक्रम सायं 4 बजे प्रारम्भ होगा। जिस कार्यक्रम की रूप रेखा 15 दिन पूर्व निर्धारित थी एवं समय निर्धारित था वह अचानक बदल कैसे सकता हैं मैं अचंभित सा खड़ा ही रह गया जबकि कार्यक्रम 2 बजे प्रारम्भ होने वाला था और मैं 650 किमी का सफर तय कर निर्धारित समय से आधे घंटे पूर्व पहूँच चकुा था। फिर मुझे पता चला कि बचपन से इंडिया टाईम के बारें मे सुना है हमेषा 1 घंटा पीछे ही चलता है पर यहाँ राजधानी में दो घंटे की देरी।

अब दो घंटे का समय अकेले बिताना था। मैंने भोजन करने के लिए होटल के बारे में पुछा तो पता चला कि यहाँ खाने की कोई व्यवस्था आस-पास है ही नहीं। लेकिन मुझे भुख का बड़ा अहसास होने लगा। मेरे लिए मुष्किल नहीं था मैं कुछ कदम चला ही था कि एक कार्यालय दिखाई दिया जिसमें कुछ कर्मचारी भोजन अन्तराल के लिए बाहर निकल रहे थे। तो कुछ वहीं गेट पर ही इक्कटठे हो गये थे। मैंने नजदीक जाकर देखा तब समझ आया कि यहाँ अन्दर एक केन्टीन है जिस पर भीड़ जमा हो रही हैं सभी के गले में उस कार्यालय के पहचान पत्र का फंदा लटका था जैसे कंही वह दिल्ली जैसे शहर में गलती से गलत दफतर में नौकरी करने ना चले जाये। मैरे पास वहाँ का पहचान पत्र नहीं था। हाँ भुख का पहचान पत्र जरूर चेहरे पर पढ़़ा जा सकता था। मैं बेझिझक अन्दर प्रवेष कर गया और मैंनें इडली सांभर का टोकन लिया। अपनी थाली लेकर एक टेबल पर खाने लगा। अब कुछ राहत मिली जब किसी अनजान कार्यालय के केन्टीन में भुख को शान्त किया।

मैं पूनः कार्यक्रम स्थल की ओर लौट आया लेकिन अब तक यहाँ ना तो कोई आयोजक आये और ना ही कोई मेरे साथी रचनाकार पहूँचे थे। मानो ऐसा लगा कि सबकी घड़ी में समय को पीछे कर दिया गया हो। इस बार में गेट पर नहीं रूका और सुरक्षा कर्मचारी को सुचित कर अन्दर प्रवेश कर गया। अन्दर एक केन्टीन था वही बैठकर इन्तजार किया। थोड़ी देर में बाहर कुछ चहल-पहल दिखी। कार्यक्रम के आयोजक श्री सुधाकर जी पाठकए श्री अनिल त्रिका एवं श्री दीपक जी दुलगच से मैंनें मुलाकात की। उनसे कार्यक्रम के बारे में जानकारी ली और उन्होनें मुझे सभागार बताया और कहा कि सभी तैयारी पूर्ण कर ली गई है अतिथियों ने थोड़ा देरी का समय दिया है अतः कार्यक्रम 4.00 बजे से प्रारम्भ होगा।

अब कुछ रचनाकार भी नजर आने लगे थे जो इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने वाले थे। हम सभागार में पहूँचें। काॅन्स्टीट्यूषन क्लब आॅफ इंडिया का यह सभागार सुन्दर सुसज्जित था। अब घड़ी में 4.00 बज चुके थे कार्यक्रम प्राररम्भ नहीं हो पाया था। मन में अब बैचेनी सी होने लगी थी। बार-बार नजरें प्रवेष द्वार पर टिक रही थी कि कब अतिथिगण आयें और कार्यक्रम प्रारम्भ हो। प्रवेश द्वार से रचनाकार एवं दर्षकगण ही आते नजर आयें। कुछ चेहरे जाने-पहचाने से लगे जिन्हें मैं फेसबुक पर देख चूका था। धीरे-धीरे सभागार में बहुत भीड़ जमा हो गई। दो-तीन अतिथिगण भी आ पहूँचें लेकिन कार्यक्रम के प्रमुख संयोजक श्री जयकांत मिश्रा जी दिखाई नहीं दिये वो मुख्यअतिथि जी को लेने गये हुए थे। अब समय 4.30 हो गया मुझे वापसी में 7.00 बजे की चेतक एक्सप्रेस पकड़नी थी। जिसके लिए कार्यक्रम स्थल से 1 घंटा पूर्व प्रस्थान करना अनिवार्य था। मन में यह पीड़ा लिये बैठा रहा तभी मेरे मित्र नीरंजन तिवारी जी आ गये जिनकी वापसी भी मेरे साथ ही चेतक एक्सपे्रस में थी। उन्होंने मुझे तस्सली दी की हम 6.00 बजे कार्यक्रम स्थल से प्रस्थान कर जायेगें। कुछ ही पल में कार्यक्रम संयोजक श्री जयकांत मिश्रा जी मुख्य अतिथि के साथ आ गये। मंच पर मुख्य अतिथि को बिठाया गया। संयोजक जी ने सभागार में चार-पाँच चक्कर लगाये और सारी व्यवस्था देखी। इसी बीच मैंने उनका अभिवादन भी किया।

आखिर 5.00 बजे कार्यक्रम प्रारम्भ हो ही गया। सभी अतिथियों ने माँ सरस्वती के समक्ष दीप जलाकर कार्यक्रम का आगाज किया। इसके पश्चात सभी अतिथियों का माल्यापर्ण द्वारा स्वागत किया गया। मुख्य अतिथि डाॅ. उदित राज जी, अध्यक्ष डाॅ. वेद प्रताप वैदिक जी एवं कार्यक्रम संयोजक श्री जयकांत मिश्रा जी थे। साथ ही प्रमुख वक्ता श्रीमती मैत्रिय पुष्पा जी, डाॅ. प्रभा ठाकुर जी, श्री बलदेव शर्मा जी, श्री जगमोहन सिंह राजपुत जी, श्री अभय कुमार सिंह जी, श्री अमिताभ अग्निहोत्री जी, श्री सुनील शास्त्री जी, डाॅ कृष्णबीर चैधरी जी, श्री एन. के सिंह जी थे। हिन्दी भाषा सहोदरी के प्रमुख गणमान्य डाॅ. हामीद खान, श्री पवन जैन, श्री सुधाकर पाठक, श्री ज्ञान चक्षु, श्रीमती चन्द्रकान्ता सिवाल भी कार्यक्रम में उपस्थित थे। श्री सुधाकर पाठक जी ने स्वागत उद्बोधन दिया और पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम के बारे विस्तुत जानकारी दी।

सर्वप्रथम ’स्वप्न सृजन’ काव्य संग्रह का लोकार्पण किया गया। जो तीन सखियों श्रीमती प्रिया वच्छानी जी, श्रीमती मधुर परिहार एवं श्रीमती एकता शारदा द्वारा रचित था। इसके पश्चात ’चुभन’ का लोकार्पण किया गया जिसके रचनाकार अल्फाज जायसी थे। जीवन में पहली बार दिल्ली शहर में पुस्तक लाकार्पण कार्यक्रम में सम्मिलित होने का यह अवसर हिंदी भाषा सहोदरी द्वारा मुझे प्राप्त हुआ था। कार्यक्रम की अगली कड़ी में ’’सहोदरी सोपान-2’’ का लोकार्पण किया गया। इस कृति में 58 रचनकार का सांझा संग्रह था जिसमें में भी सम्मिलित था। सभी रचनाकार मंच पर पहुँचे और पुस्तक का लोकार्पण किया गया। भारत देष के विभिन्न प्रान्तों से आये सभी रचनाकारों को एक पुस्तक में रचनाओं द्वारा एकसुत्र में बांध दिया। देष की एकता में हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का महत्व है इसकी द्योतक हमारी पुस्तक ’’भाषा सहोदरी सोपान-2’’ है।

मुख्य अतिथि एवं वक्ताओं ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। भाषा सहोदरी के प्रमुख संयोजक श्री जयकांत मिश्रा जी ने भाषा सहोदरी के प्रमुख उद्देष्यों को सबके समक्ष रखा और कहा कि हम सब मिलकर हिन्दी शषा के लिए कार्य करेगें। आज पहली बार में हिन्दी के राष्ट्रीय अधिवेषन में उपस्थित था। अब समय 5.45 हो गया था। कार्यक्रम में देर तक रूकना सम्भव नहीं हो पा रहा था क्योंकि वापसी में रेल में आरक्षण करा रखा था और तय समय पर प्रस्थान करना था। मैं एवं मेरे मित्र नीरंजन जी श्री जयकांत मिश्रा जी से मिले और हमारी व्यथा उन्हें बताई और उन्होंने हमारी बात का मान रखा और कहा कि 5 मिनिट और रूकीये आपका सम्मान होना बाकी है। इसी बीच मैंने कई लागों से मुलाकात की।

कुछ ही पल में मंच पर कहा गया कि हमारे कार्यक्रम में बहुत दूर-दूर से रचनाकार आये हुए है। नीरंजन तीवारी भीलवाड़ा और नितिन मेनारिया जो उदयपुर राजस्थान से आयें है और इन्हें रेल द्वारा प्रस्थान करना हैं। संयोजक जी ने मुख्यअतिथि से रचनाकार के सम्मान के लिए आज्ञा मांगी और मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष जी को हमें सम्मानित करने का आग्रह किया। फिर हमें कार्यक्रम के अध्यक्ष डाॅ. वेद प्रताप वैदिक जी ने स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। इसके पश्चात हमनें हाथ जोड़कर सभी का अभिवादन किया। हमें झिझक भी हुई की सम्मान समारोह के कार्यक्रम में देरी थी और सर्वप्रथम हमने पहले ही स्मृति चिन्ह ले लिया।

मुझे इस कार्यक्रम में कई लोगों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ जिसमें श्रीमती नीरजा मेहता, श्रीमती मिनाक्षी सुकुमारन, श्री दिनेश जी दवे, श्रीमती प्रिया वच्छानी जी, श्रीमती मधुर परिहार जी, श्रीमती एकता शारदा जी, श्रीमती माया सिंह जी, श्री जयंकात मिश्रा जी, श्री ज्ञान चक्षु, श्री सुधाकर पाठक जी, श्री दीपक दुलगच जी, श्री अनील त्रिका जी। सभी के साथ तस्वीरें भी खिंची। बहुत सारी यादें लेकर मैं और मेरे मित्र व उनकी पत्नि हम सभागार से बाहर आ गये।

सायं की 6.00 बज ही गई थी अब हमे दिल्ली के सराई रोहेला स्टेशन जाना था। हमनें कई आॅटो रिक्शा को राकने का प्रयास किया। लेकिन कोई रूका ही नहीं और कोई रूका भी तो उसने स्टेषन जाने के लिए मना कर दिया। अब ह्दय की धड़कने बढ़ रही थी कि कंही हम समय पर पहूँच भी पायेंगें कि नहीं। आखिर में एक आॅटो दिखाई दिया जो खाली था और रूका हुआ भी और मैंने उससे बात की और उसे 100रू के अलावा 50 रू अधिक मेहनताना देने की बात कही जिस पर वो तैयार हो गया। आॅटो चालक ने कहा कि यहाँ से स्टेषन जाने में 1 घंटा लगता है लेकिन में आपको 20 मिनिट में ही ले जाउगाँ।

हम आॅटो में बैठे और आॅटो वाले ने अपना मीटर स्टार्ट कर काउन्टडाउन शुरू किया। सांय का समय हो चला था लोग अपने घरो की तरफ बहुत तेजी से जा रहे थे जैसे अपनी नौकरी के बंधने से हमेषा के लिए मुक्त हो गये हो। आॅटो चालक तंग गलियों में से ले गया उसने वादा किया था कि वह हमें 20 मिनिट के अन्तराल में ही ले जायेगा। हम भी अपना तमाशा देख रहे थे। एक रास्ता ऐसा भी आया जिसमें अन्दर तक जाने पर पता चला कि आगे कोई रास्ता है ही नहीं। हमारे चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई। फिर वापस लौट कर मुख्य मार्ग पर आकर चलेे। आगे चैराहे पर लाल बत्ती चालु होने वाली थी और हमें अब उसे ही पार करना बाकि था। तभी ट्राफिक पुलिस कर्मी ने आॅटो चालक को निकलने का ईषारा किया। लेकिन चालक सहम कर वहीं ठहर गया और लाल बत्ती चालु हो गई तभी पुलिसकर्मी ने फिर से निकलने का ईशारा किया और इस बार हमने चालक से कहा कि आप जल्दी से पार कर लिजिए पुलिसकर्मी सहयोग कर रहा है। अगर हम वहाँ रूक जाते तो हम ट्रेफिक जाम में फस सकते थे और हमारी रेल निकल सकती थी। आखिर हम दिल्ली सराई रोहेला रेल्वे स्टेशन पहुँच ही गये। हमनें अपना सामान उतारा और आॅटो चालक को भुगतान कर धन्यवाद् दिया। उसने हमें आखिर 20 मिनिट में स्टेशन पहुँचा ही दिया।

हम वहाँ 7.00 बजे पहुँचे रेल का प्रस्थान का समय 7.40 था और रेल प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मैंने दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर सुर्यास्त की तस्वीर लीं जिस प्रकार सुरज लौट रहा था उसी तरह मैं भी दिल्ली से लौट रहा था। मेरे मित्र और मेरा रेल का कोच अलग-अलग था लेकिन रेल एक ही थी इससे इतना ही विश्वास था कि कोई मेरा साथी पहचान का इस रेल में है। वह अपने कोच में अपनी पत्नि के साथ चढ़े और मैनें अपना कोच ढूंढा और बैठ गया। अब मैं फिर से अकेला था।

इस दिल्ली की यात्रा के दौरान कई बार में अकेला रहा, दिल्ली की यात्रा में मैंने बस, पैदल, साईकिल रिक्शा, आॅटो रिक्षा, मेट्रो रेल एवं ब्राडगेज रेल द्वारा सफर तय किया। दिल्ली में पैदल चलने के दौरान मुझे एक पुराना गीत घरौंदा फिल्म से बार-बार याद आता रहा। ’’एक अकेला इस शहर में रात मैं और दोपहर में आबदाना ढूंढता है, दिन खाली-खाली बरतन है और रात है जैसे अंधा कुआँ, दिल आषियाना ढूंढता है जीने की तो कोई वजह नहीं मरने का बहाना ढूंढता है। इन भागती दौड़ती सड़को को कभी थकते देखा नहीं अपनी मंजिल पर पहुँते कभी देखा नहीं।’’

प्रातः 7.50 पर सुरज गगन में लौट आया और मैं भी अपने शहर उदयपुर लौट आया था। मैंने उदयपुर रेल्वे स्टेशन पर सुर्यौदय की तस्वीर ली। रेल यात्रा के दौरान का वृतान्त मैंने यहाँ नहीं लिखा है क्योंकि वह अलग से प्रस्तुत करने की मेरी इच्छा रही। सच में यह दिल्ली का सफर मेरे जीवन के यादगार पल में सम्मिलित हो गया।

पाठको का हार्दिक आभार।

-- नितिन मेनारिया

उदयपुर