चाँद की आँख से झरा द्वीप – मॉरीशस
संतोष श्रीवास्तव
अपने देश से दूर विदेश की धरती पर कदम रखने का यह पहला एहसास है| हवाई जहाज की खिड़की से लगी सीट पर बैठते ही इस एहसास ने मन में जिज्ञासा जगा दी| कैसा होगा मॉरीशस? जहाँ के लिए देश भर से आये पत्रकार, लेखक मुम्बई के सहार एयरपोर्ट पर इकट्ठे हुए हैं, समकालीन साहित्य सम्मेलन के २४वें आयोजन में शरीक होने| दिल्ली से भी लेखकों, पत्रकारों का एक दल कल ही वहाँ के लिए रवाना हो चुका है| जैसे जैसे हवाई जहाज ऊँचाउठता जा रहा है आसमान नीचे भी नज़र आने लगा है| बादलों के थक्के रुई धुने ढेर से जमा हैं| हमारी कुर्सी के आगे की कुर्सी की पीठ पर छोटे-छोटेटी.वी. सैट लगे हैं| कुर्सीके हत्थे में रिमोट कंट्रोल फिट है| साढ़े तीन सौ यात्रियों को लिए विशाल जहाज आसमान में उड़ा जा रहा है| अचानक बीच की पंक्ति के ऊपर से तीन चार बड़े-बड़े टी.वी. सैट नीचे आये जिसमें सुरक्षा की जानकारी दी जाने लगी| पहलेअंग्रेजीमें फिर फ्रेंच में, फिरहिंदी में| इमरजेंसी में क्या करना है.....सुनकर दिल जिन्दगी के प्रति मोह से भर गया|विमान परिचारिकाएँ आकर नाश्ता, म्यूजिक सैट, ब्रेकफास्ट आइटम के पम्फ्लेट आदि सर्व करने लगीं|लगातार छै: घंटे की उड़ान के बाद हमने मॉरीशस में प्रवेश किया| ऊपर से यह द्वीप इतना सुंदर दिखाई दे रहा था| पाँच रंगों वाला सागर, हरे भरे पर्वत और खिलौने जैसे मकान, सड़कें, खेत धीरे-धीरे विशाल होते गये और हवाई जहाज नेशिवसागरएयरपोर्ट में लैंड किया|कस्टमआदि की औपचारिकताएँ पूरी करके हम करीब पाँच बजे शाम को (मॉरीशस समयानुसार साढ़े छै: बजे) तीन मिनी बसों के द्वारा होटल लगूना रिसॉर्टपहुँचे जो हवाई अड्डे से पैंतीस किलोमीटर दूर रिपब्लिक ऑफ मॉरीशस में समुद्र के किनारे प्रकृति की गोद में बनाया गया है| यह जगह ग्रैंड रिवर-साउथ ईस्ट रिपब्लिक ऑफ मॉरीशस कहलाती है| थ्रीस्टार लगूना रिसॉर्ट यूरोपियन पसंद को ध्यान में रखकर बेहद शानदार बनाया गया है| यहाँ हमारा स्वागत पाइन एपिल जूस से किया गया जो शीशे के डंडीदार नाजुक ग्लासों में वेलकम जूस के रूप में हमारे सामने पेश किया गया| मुझे और मेरे पति गायक संगीतकार रमेश श्रीवास्तव को पहली मंजिल के कमरा नं. ११७ में ठहराया गया| तरोताजा होकर हम नीचे उतरे और समुद्र के किनारे घूमना शुरू किया तो हिन्द महासागर के पारदर्शी जलको दूर क्षितिज की सीमा तक विविध रंगों में पाया| कहीं सिलेटी, कहीं फिरोजी, कहीं हरा कहीं गहरा नीला तो कहीं काला| उसके जल स्तर पर तैरती पालदार नौकाएँ, हवा में झूमते नारियल सुपारी के पेड़ और डूबते सूरज का पागल कर देने वाला सुनहला रंग|चाय की चहास लगी| होटल के बगीचे में लौटे तो दिल्ली से आये लेखक मित्रों से मुलाकात हुई| वेइलोसेफ आयरलैंड देखकर लौटे थे| कमलाकांत बुधकर जी ने देह को परिभाषित करने वाली दो लाईन की कविता कही जो इलोसेफ बीच पर लेटी नग्न सुंदरियों के लिए कही गई थी|हमें तो चाय की चहास दस्तक दे रही थी| एक कप चाय २५ मॉरिशियस रुपये यानी चालीस भारतीय रुपये| हम तो चकरा गये| धनंजय सिंहजी ने मुझसे कहा- “संतोषजी हमारे पास टी बैग्स है| अगर आप बिना शक्कर दूध की चाय पीना चाहें तो स्वागत है|”
लेखकों की मजबूरी है चाय.....मरता क्या न करता तो हम दस पंद्रह चाय के तलबगारों ने काली, फीकी चाय का आनंद लिया| पता चला आज की रात मॉरिशस के फ्रेंच आदिवासी हमारे लिए होटल के लाउंज में नृत्य पेश करने वाले हैं सो जल्दी से डिनर वगैरह लेकर हम सब कुर्सियों में आ जमे जो देशी विदेशी शराब के बार, काउंटर के गोल हट में राखी हुई थी|काफी प्रतीक्षा के बाद आदिवासी नृत्य आरंभ हुआ| तेज धुन का विदेशी ऑर्केस्ट्रा, कुछ कुछ नीग्रो लुक के गहरे साँवले चेहरों वाले आदिवासी, पेंट शर्ट में गहरी साँवली लड़कियाँ फूलदार स्कर्ट में मुँह से लूला ला लूला ला के अजीबो गरीब क्रियोली भाषा के गीत गाती हुई नाचती रहीं| नाच देर तक चला| थक चुके थे तो कमरे में आते ही बिस्तर पर धराशायी हो गये| नींद फिर भी देर तक नहीं आई| मैं लेखिका प्रमिला वर्मा से वादा कर आई थी कि मॉरिशस पहुँचते ही फोन करूँगी पर एक मिनिट के ९० रुपये रेट सुनकर हिम्मत नहीं पड़ रही थी| वह मेरे फोन का इंतजार कर रही होगी|
१८ अक्टूबर
भारतीय समयानुसार नींद खुली लेकिन उस वक्त मॉरिशस की घड़ी में साढ़े चार बजा था| मैं धुंधले आलोक में तेज गति से बहते समुद्र को निर्निमेष निहारती उजाला होने की प्रतीक्षा करने लगी|उजाला होते ही मैं अपने बाजू वाले कमरे में ठहरे कार्तिकेयजी से मिलने गई| वे जाग चुके थे| मेरे सुबह सुबह उनके कमरे में आने की मंशा समझ झट से बोले-
“चाय की तलब? हमें तो पता था इसीलिए हम बैग भरकर कॉफीरीफिल लाये हैं| शक्कर, दूध, कॉफी सब है इसमें| बस गरम पानी मँगवाना पड़ेगा|” और उन्होंने दस पंद्रह कॉफी रीफ़िल मुझे पकड़ा दीं| मैं मुस्कुराते हुए कमरे में लौटी|
नहा धोकर नाश्ता करके हम मॉरिशस की राजधानी पोर्ट लुईस के कोदो वॉटर फ्रंट बस से गये जहाँ से बैंक ऑफ मॉरिशस से डॉलर को मॉरिशस रुपयों में कन्वर्ट कराया|सभी को डेढ़ घंटे सेंट्रल मार्केट में शॉपिंग का समय मिला| सब टुकड़ों में बँट गये| मैं श्रीवास्तवजी, बटुक चतुर्वेदी, रमेश माहेश्वरी और राजुरकर राज एक साथ थे|बाजार आम बाजार जैसा ही लेकिन प्रदुषण रहित| पूरे मॉरिशस की आबादी ही पंद्रह लाख है| वेशभूषा भारतीय, यूरोपीय.....लेकिन बोली क्रियोली| विदेशी यात्री ज्यादा दिखे| वैसे यहाँ यूरोपियन, अंग्रेज, फ्रांसीसी और भारतीय हैं| सब तरह की भाषाएँ हैं लेकिन मुख्य भाषा क्रियोली है| बाजार में वह सब कुछ था जो मुम्बई में बिकता है| कुछ भी खरीदने का मन नहीं हुआ| वैसे भी मुझे शॉपिंग का शौक नहीं| माहेश्वरीजी शराब ढूँढते रहे| बहुत महँगी थी| शराब की दुकान से चॉकलेट खाते हुए उन्हें आतादेखा तो ताज्जुब हुआ|बोले- “यहाँ के लोग स्वागत बहुत करते हैं| दुकान में बतौर स्वागत यह चॉकलेट मिली|” और एक चॉकलेट मुझे भी पकड़ा दी|
बाज़ार में भीड़ नहीं, शोरगुल नहीं| सिटी सेंट्रल मार्केट से लौटे तो रास्ते में ड्राइवर मिल गया| वह हमें एयर मॉरिशस ऑफिस की खूबसूरत बिल्डिंग के सामने खड़ा करके खाना लेने चला गया| बेहद खूबसूरत बिल्डिंग थी| बाजार में भी कुछ यूरोपियन स्टाइल की बहुमंजिली इमारतें थीं| जिनके स्थापत्य में फ्रेंच टच अधिक था लेकिन खूबसूरत रंगों का प्रयोग था| बेहद साफ़ सुथरी, हरी भरी सड़कें| जमादार नारंगी ड्रेस में थे| जहाँ हमारी बस खड़ी थी वह अंग्रेजों के समय कुली घाट कहलाता था| वहाँ एक सीढ़ी समुद्र से लगी हुई बनी है| २ नवंबर १८३५ को भारत से पहला गिरमिटिया इस सीढ़ी से चढ़कर मॉरिशस आया था| उससे कहा गया था कि तुम वहाँ चलकर पत्थर उलटोगे और सोना मिलेगा| लेकिन उसे मिले कोड़े, भूख,अपमान.....वहीं एक औरत की प्रतिमा है, जो पहली भारतीय महिला मॉरिशस आई थी ‘अंजारे कुपेन’ नाम की और जिसे कुली घाट पर उतरते ही फ्रेंच गोली लगी थी|उसी जगह उसकी प्रतिमा है| अब यह घाट अप्रवासी घाट कहलाता है| जहाँ तमाम आधुनिक डिजाइन की बोट है जिन पर समुद्र यात्रा की जाती है|
मैं एयर मॉरिशस बिल्डिंग में मॉरिशस का ब्रोशर लेने गई पर मिला नहीं| लौटकर बस में आये और पैम्पलेमाउसेस बॉटेनिकल गार्डन की ओर रवाना हुए| रास्ते में पोस्ट ऑफिस दिखा| खूबसूरत सिलेटी पत्थरों से बना मॉरिशस पोस्टल म्यूज़ियम भी था वहाँ, वैसा ही खूबसूरत आकर्षक| पोर्ट लुईस की चमक दमक समाप्त होते ही गन्ने के खेत, पर्वत, पर्वतों पर बादल और सर्पीले रास्ते शुरू हो गये|रास्तेडामल के लेकिन दोनों ओर हरी पींड़ वाले नारियल सुपारी या पाम वृक्षों से घिरे हुए| बेहद खूबसूरत सड़क.....यहाँ मुख्य रूप से गन्ने की खेती होती है|
बॉटेनिकल गार्डन में सबसे पहले हमने पैक्ड लंच लिया, बिरयानी और रायता| उसके बाद घूमना शुरू किया| दो वर्ष पूर्व देखे कोलकाता के बी उद्यान की याद ताजा हो गई| वैसे ही सघन वृक्ष, बाँस कुंज, पाम, सुपारी, नारियल आदि के वृक्ष| कुछ अजनबी वृक्ष| एक ऐसा पाम वृक्ष जो सौ साल में एक बार फूलता है| इस वृक्ष को दिखाने के गाइड ने पचास मॉरिशस रुपये प्रति व्यक्ति माँगे.....तो हम खुद ही चल पड़े वृक्ष की खोज में| साथ में शोभनाथ यादव और सरजू प्रसाद मिश्र थे| कविता सुनते सुनाते, छंद दर छंद हम आगे बढ़ रहे थे| कई जगह तस्वीरें लीं| फिर आया वह चिर प्रतीक्षित सरोवर जिसमें बड़ी परात के आकार के पत्तों वाली कमलिनी लगी थी| इन पत्तों की चौड़ाई १.२ से १.५ मीटर और वजन तीन किलोग्राम तक होता है|पत्ते पानी में ऐसे स्थिर पड़े थे जैसे भोजन रखने के लिये थालियाँ सजी हों| बीच-बीच में सफेद गुलाबी कमलिनी के फूल बेहद मोटी डंडियाँ जो पारदर्शी जल से झाँक रही थीं| इसेयहाँ जॉइंट वॉटर लिली कहते हैं|
वहाँ से हम ग्रैंड बे बीच आये| बीचपर दूर-दूर तक कासु आदिना के पेड़ झूम रहे थे| सुई जैसी पत्तियों वाले पाइन की शक्ल के वृक्ष| धूप तेज थी| बीच पर टहलना मुश्किल था| कुछविदेशी जोड़े नग्नावस्था में बीच पर लेटे धूप का आनंद ले रहे थे| सामने फिरोजी रंग का खूबसूरत हिन्द महासागर धूप में विभिन्न छटाएँ बिखेर रहा था| वहाँ से हम सुपर यू मार्केट आये| इतना विशाल शॉपिंग कॉम्प्लेक्स पहली बार देखा| दुनिया भर की चीजें यहाँ बिकती हैं लेकिन अजीब बात ये है कि चीजें खरीदकर खुद ही पैक करनी पड़ती हैं| एकग्लास वर्क का शोरूम देखा| इसकी फैक्ट्री पोर्ट लुईस में है| यह वर्क हाथ से होता है मशीनों से नहीं| लेकिन सब कुछ बहुत खर्चीला| रात घिरने लगी थी| एक बार फिर चमकती रोशनी वाली राजधानी को पीछे छोड़ हमारी बस चल पड़ी लगूना रिसॉर्ट की ओर|
१९अक्टूबर-
एक अजीबोगरीब कहानी सुनाई कमलकांत बुधकरजी ने| एक परी जैसी शक्ल की लड़की पर चेतक नाम का लड़का मोहित हो गया| प्रेम एकतरफा था| चेतक के पीछा करने से तंग आकर वह परी शिला बन गई| मैं बस में बैठे हुए खिड़की से पहाड़ की चोटी पर बनी उस शिला को देख रही हूँ जो मंदिर के बुर्ज सी दिखलाई पड़ती है| प्रेम के इस हश्र को देख मेरा मन बरसने लगा| बादल भी हलकी हलकी फुहारें छोड़ रहे थे| मौसम भीगा भीगा और ठंडा था|हम सब मॉरिशस के लेखकों द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग लेने हिन्दी प्रचारिणी सभा जा रहे थे| पहाड़ की गोद में सिमटे बोनाखाई गाँव की बसाहट खत्म होते ही पोपोचे नाम का एक वॉल्केनिक क्रेटर ज्वालामुखी का मुहाना मानो अपने दबे तेवर में कह रहा हो- “किसी जमाने में मुझमें आग थी| जब फटी तो दूर दूर तक मेरा लावा छिटक गया| अब देखो, हरे भरे जंगल, फूलगोभीऔर फ्रेन्चबींस के खेत.....विनाश के बाज सृजन| क्या अब भी जीवन का रहस्य नहीं समझे?
असल में मॉरिशस पूर्णतया ज्वालामुखी के गर्भ से निकला है| वह ज्वालामुखी ८५ किलोमीटर गहरा और कई किलोमीटर चौड़ा अब एक गर्त के रूप में विद्यमान है|जिसके किनारे खड़े होकर झांको तो तूफ़ानी हवाएँ झकझोर डालती हैं| मैडागास्कर के पूर्व में और अफ्रीका से २००० किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है मॉरिशस| इसकी लम्बाई १८६५ वर्ग किलोमीटर है जिसका लगभग ३३० किलोमीटर का एरिया तो समुद्री तटों ने घेर रखा है| मॉरिशस को ‘चाँद की आँख से झरा और सागर की गोद में पला मुक्तामणि भी कहते हैं|’
१५०५ ईस्वी में एक पुर्तगाली नाविक समुद्र के रास्ते मॉरिशस के तट पर जब आया तो यहाँ की प्राकृतिक समृद्धि देख दंग रह गया| दूर-दूर तक न आदम न आदमजात.....लेकिन उपजाऊ, जमीन, खुशगवार मौसम, समुद्रतट और स्वच्छ समुद्री हवाएँ, पर्यावरण ने उसका मन मोह लिया और उसने इस द्वीप को अपने राजा को नजराने के रूप में दे दिया| अफ्रीका और भारत में पैदा होने वाले फल, फूल, पक्षियों और मछलियों का भंडार था यहाँ| इन खासियतों की वजह से यह द्वीप पश्चिमी देशों को लुभाने लगा|पुर्तगालियों से हॉलैंड के डच लोगों ने इसे छीना और १५९८ से १७१२ ईस्वी तक यहाँ राज किया| १७१५ से १८१० तक फ्रांसीसी इसके शासक रहे और फिर पेरिस संधि के अंतर्गत मॉरिशस १८१४ से अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गया|उस समय तक अंग्रेज़ों का विश्व के कई देशों में शासन स्थापित हो चुका था|भारत तो उसका गुलाम था ही लिहाज़ा सूखे की चपेट से गुज़र रहे बिहार के किसानों मज़दूरों को सब्ज़बाग दिखाकर मॉरिशस लाया गया.....अधनंगे, पिचके पेट के बिहारियों ने जिनके हाथ में बस रामचरितमानस की गुटका भर थी.....खाली विस्मित आँखों से मॉरिशस की धरती को निहारा..... अंग्रेज़ों ने इन्हें नाम दिया गिरमिटिया|कोड़ों की मार, भूखे पेट सुबह से शाम तक जानवरों की तरह काम करते इन बिहारियों की पत्नियाँ, बहनें इनसे दूर दूसरी जगह काम पर लगाईं जाती थी ताकि वे अंग्रेज़ों की हवस शांत कर सकें|चाँदकी आँख से झरे इस द्वीप में ऐसा जुल्म बरसों चला है और तब जाकर मॉरिशस सजा सँवरा है| रूह काँप गई इस ऐतिहासिक तस्वीर से| धन्य है मेरे देश के वे किसान, मज़दूर.....मेरे पुरखों के खून से उपजी मॉरिशस की मिट्टी को माथे से लगाने को मन तड़प उठा|
हम घने जंगल से गुज़र रहे थे| अचानक मेरी आँखें ठिठकी.....देखा जंगल के रास्ते के किनारे पीले लाल क्रेप से सजे विशाल काँवड़ रखे थे| वैभव ने बताया कि शिव रात्रि के दिन गंगा तालाब से जल लाकर पुरखों के नाम से यहाँ चढ़ाया जाता है| अद्भुत.....परम्परा और धर्म का पालन अपने देश से इतनी दूर रहकर भी अहर्निश होता रहता है| जो भारत से जितना दूर है वह उतना ही अधिक भारतीय है|
बस वैली में उतराई पर है| बादल पर्वतों से उतर आये हैं| बादलों से ढंका है तो बस मोताईलांग पर्वत..... ये सभी पर्वत, जंगल.....मॉरिशस का कण-कण गवाह है कि चीनी, मुसलमान आदि धर्मावलम्बियों के बावजूद यहाँ कभी भी धर्म को लेकर दंगे-फसाद नहीं हुए| शिवरात्री के दिन काँवड़िये कंधों पर काँवड़ रख गंगा तालाब जाते हैं तो उनके ईसाई, मुसलमान मित्र साथ-साथ चलते दिखते हैं| दीपावली, ईद, क्रिसमस, गणेश चतुर्थी, उगादी, चीनियों का वसन्त उत्सव यानी नया साल बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं| सामने आर्ट हिन्दी हिन्दुज्म के ट्यूशंस बोर्ड और हिन्दी प्रचारिणी सभा का भवन देख आँखें चमक उठीं| प्रवेश द्वार पर ही मॉरिशस के हिन्दी लेखकों राजेंद्र अरुण,अजामिल माता-बदल, अभिमन्यु अनत, चिन्तामणि, जनार्दन,r राज हीरामन हेमराज, रेणुका और हरिनारायणजी से मुलाकात हुई| याद दिलाने पर अभिमन्यु अनत को याद आया कि हम दोनों भारती जी और कमलेश्वरजी के सम्पादन काल में धर्मयुग और सारिका में काफी छपे हैं|
“लेकिन तब आप संतोष वर्मा नाम से लिखती थीं| जहाँ तक मुझे याद है धर्मयुग में छपी आपकी कहानी ‘एक जोड़ी आँखों के कैक्टस’ को उज्जयिनी शाखा परिषद् से पुरस्कृत भी किया गया|’
“जी.....मेरे साहित्य को आपने याद रखा.....वरना तो लोग.....अभिमन्युजी ने क्लासरूम की ओर इशारा किया.....”चलिए, लंच तैयार है|”
क्लास रूम में ही बेहद आत्मीयता भरा लंच| दौड़-दौड़कर परोसते अध्यापिकाओं के हाथ| मेरा मन प्रेम से भर गया| लंच के बाद एस एम भगत कक्ष में शानदार कवि सम्मेलन हुआ| भारत और मॉरिशस का कविता संगम यादगार बन गया| सभी की कविताएँ असरदार| वैसे भी मॉरिशस एक छोटा सा भारत ही तो है| जिसे भारतीय हाथों ने गढ़ा है| फिर भी इस मिनी भारत में बहुत कुछ ऐसा है जो भारत जैसा नहीं| यहाँ अपने घरों से बाहर जाते हुए लोग ताले नहीं लगाते| चोरी शब्द से ये परिचित नहीं है| एक दूसरे पर विश्वास उतना ही अटल है जितना ईश्वर पर|दूसरी आश्चर्यजनक बात यह है कि यहाँ नेताओं की कारें न तो आम जनता को डिस्टर्ब करती हैं और न उनकी कार के साथ कारों का काफ़िला चलता है| पोर्टलुई की बासठ सदस्यों की संसद का हर सदस्य पार्किंग स्थल तक पैदल चलकर जाता है और अपनी कार में बैठकर अन्य लोगों की तरह ही गंतव्य की ओर चल देता है| जबकि भारत के हर प्रदेश की राजधानी में मंत्रियों का आगमन यानी पुलिस द्वारा खाली कराई सड़कें, सिग्नल पर कोई पाबंदी नहीं और दस बीसकारों के बीच में मंत्रीजी की कार भारी सुरक्षा के साथ गंतव्य तक जाती है|
यहाँ के विभिन्न उद्योगों ने जिनमें कपड़ा शक्कर और पर्यटन प्रमुख है कई लोगों को रोजगार दिया है| आम आदमी भी खुशहाल है, खास तो फिर है ही| इसीलिए न चोरी डकैती की घटनाएँ होती हैं न लूटमार कीऔर यह सब यहाँ के लोगों की ईमानदार मेहनत के नतीजतन है.....जिनके दिलों में यह दृढ़ आस्था थी कि भले ही उन्हें अब भारत लौटने न मिले पर वे भारत को इस द्वीप में ज़िन्दा रखेंगे तुलसी बिरवे के रूप में, हनुमान जी की मूर्ति और पताका के रूप में|
२० अक्टूबर-
पोर्टलुईस में पोताई प्लांग नामक जगह में बनी यूनिवर्सिटी ऑफ़ मॉरिशस, हरे-भरे बाँस के झुरमुट से घिरा प्रेसीडेंट हाउस, सिलवर पेंट किया उसका गेट रमशोधन कारखाना, गन्ना पेराई जो बैलों द्वारा की जाती है से गुजरते हुए हम पहुँचे हैं हिन्दू भवन, पता लगा अब दो नवम्बर राष्ट्रीय दिवस घोषित कर दिया गया है| मैंने मन ही मन अपने देश के उस पुरखे को प्रणाम किया जो २ नवम्बर को पहला गिरमिटिया बनकर मॉरिशस आया था अपना सब कुछ भारत में छोड़कर| यहाँ से हमें कृष्णानंद आश्रम जाना था| हरे भरे बाँस के झुरमुट को पारकर शिक्षा अधिकारी उमा बसगीत साड़ी ब्लाउज में भारतीय छवि बिखेरती हमें केलाबेसिस स्थित कृष्णानंद आश्रम ले आई हैं| रास्ते में स्वामी कृष्णानंद की समाधि देखी|
“इस लम्बे चौड़े प्लॉट पर कृष्णानंद आयुर्वेदिक अस्पताल बनेगा|” बताया उमा जी ने|
यहाँ अभी वसंत का मौसम है| चहुँओर ऋतु गमक रही है| वृक्ष आम की लाल बौर और आम के गुच्छों से लदे हैं| आम की किस्म का नाम है लाल आम| खेतों, बगीचों, सड़क के दोनों ओर के वृक्षों पर वसंत ही वसंत है|
२४वें समकालीन साहित्य सम्मेलन का तीसरा अधिवेशन कृष्णानंद सेवा आश्रम में आयोजित था| ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट की ओर से हारमोनियम पर एक मॉरिशस बाला गीत गा रही थी.....बाजे रे मुरलिया.....हरे हरे बाँसों से बनी रे मुरलिया.....
तबलेकी जगह ढोलक बजी.....कृष्ण, तुम बहुत याद आये|
देख रही हूँ हैंडीकेप्ड, रिटायर्ड लोगों, बच्चों के निरीह चेहरे.....मेरे सामने थाली में है गोभी मटर की सब्जी, ककड़ी का रायता, फूली फूली करारी पूरियाँ और भी बहुत कुछ.....पर खाया नहीं जा रहा|क्या मैं इन असहाय, वक्त के हाथों मारे गये व्यक्तियों का हिस्सा नहीं खा रही? यह सब तो इस मानव सेवा आश्रम को दान में मिले धन से ही बना होगा| मुँह जुठार कर उठ गई हूँ| मानव सेवा आश्रम की महिला कार्यकर्ता आती हैं-“मैडम कुछ खाया नहीं आपने?”
“थोड़ा खाया है, चलिये बस तक मैं आप लोगों के लिए बतौर उपहार” “आओ भारत देखें की सी डी लाई हूँ.....इन्हें दिखाईएगा|”
रिमझिम बरसते मेह में वे हमारी बस तक भीगती आईं| उपहार लेकर गले लगाया| कितना तो प्यार था उन आँखों में|
पानी अब भी बरस रहा है| कुछ ग्लास बोटिंग करना चाहते हैं कुछ नहीं| मेरी बोट में अठारह लेखक हैं| हमने लाइफ़ जैकेट पहन ली है| दूर दूर तक बौखलाया नीली लहरों वाला सागर| कहीं ओर छोर दिखता नहीं|काफ़ी अंदर समुद्र में बोट झूले जैसी हिचकोले खा रही है|सभी की भयभीत नज़रें लहरों का आपस में जूझना देखरही हैं| मेरीनिगाहें बोट के तले बने ग्लास पर हैं| तलहटी में कोरल, मूंगे की चट्टानें, टाइगर फिश, स्टार फिश, सीप, रंग बिरंगी बेनाम छोटी बड़ी मछलियाँ देखकर रोमांच हो आया| जैसे नेशनल जॉगरफी चैनल देख रहे हों| भय के माहौल में भी यादव जी कैमरा क्लिक करने में लगे थे| समुद्र में साइक्लोन था जिसकी चपेट में हमारी ग्लास बोट किसी भी क्षण आ सकती थी| शोभनाथजी और सरजूप्रसाद जी बहुत ज्यादा घबराए लग रहे थे| वे नाविक से बार-बार कह रहे थे कि “वापिस चलिए, तूफ़ान आने ही वाला है|” पर नाविक फ्रेंच था| उनकी भाषा समझ नहीं पाया|उसे लगा कि वे उससे और आगे चलने कह रहे थे| वैसे पर्यटकों को इसी तरह के रोमांच में मजा आता है| वह दूर तक नौका ले गया| हवाएँ तेज होती गईं और किनारे की ओर छोर दिखाई देना बंद हो गया| हमने मान लिया कि अब जो होना है हो.....और आँखें बंद कर लीं| जीवन के प्रति मोह पहली बार जागा| जैसे तैसे नौका किनारे लगी तो जान में जान आई| उस रोमांचक क्षण को नहीं बिसरा पाती मैं| प्लेंटेपापाई में उमाजी के घर से कार्तिकेयजी को लेकर बस होटल की ओर चल पड़ी| बारिश बंद हो गई थी और मौसम खुशगवार हो चला था|
२१ अक्टूबर-
किसी इंसान या शहर की आत्मा को देख सकने के लिए बहुत वक्त चाहिए पर इंसान की जिस्मानी खूबसूरती की तरह किसी शहर की बाहरी दिखावट का भी असर तो होता ही है| मॉरिशस की खूबसूरती भी कुछ इसी तरह की है| नये और पुरातन स्थापत्य का इतिहास समेटे फूल, फल और छायादार वृक्षों से घिरी लम्बी सड़कों ने उसे और रोमांटिक बना दिया है| ऊपर से बसंत ऋतु.....जवाकुसुमलदा है डंडियों पे.....कमल के फूल शुभ्र जल पर बिछे हैं और चम्पाका पेड़ डाली भर-भर फूलोंसे खुशबू बिखेर रहा है.....हवा महक उठी है, मचल उठी है और गुनगुनाती हुई कान के पास से सर्र से निकल जाती है.....”सुनना सीखो, हवा को, सननन नन कहती है क्या.....” गीत याद आ गया| लीची, आमऔर सीताफल, रामफल.....फलों से भरी डालियाँ जैसे झुक-झुककर हमारा अभिनंदन कर रही थीं| हम दक्षिण दिशा की सैर पर हैं और प्रकृति के सन्नाटे को सुन पा रहे हैं| बायीं ओर समुद्र है, दाहिनी ओर मकान, बाग़ बगीचे| गार्ड पॉइंट में दो विशाल तोपों के नमूने रखे हैं| काले और गेरुआ रंगों से पुते हुए| यहाँ से फ्रेंच सैनिक विशाल सागर में दुश्मन को वॉच करते थे| जब अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की लड़ाई हुई तो फ्रांसीसियों ने बिना हारे यह द्वीप अंग्रेजों को इसलिए सौंप दिया क्योंकि यहाँ की धरती पर वे गन्ना नहीं उगा सकते थे| यह बात अटपटी सी लगी| गन्ने की उपज को बहाना बनाकर फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों की ताकत को शायद परख लिया हो और अपने निर्दोष सैनिकों का खून बहाने से बचा लिया हो|
आगे सड़क से लगा समुद्री किनारा हरी बारीक पत्तियों वाली डंडियों से घिरा था| पत्तियाँइतनी खूबसूरत थीं कि फूल का आभास करा रही थीं| किनारे किनारे कतारबद्ध इन पौधों की जड़ में मछलियाँ अंडे देती हैं ताकि समुद्रीजीवों से उन अंडोंको खतरा न हो| अंडे देकर वे सागर में समा जाती हैं जो अपने में न जाने कितने रंग समेटे हैं फिर भी साफ पारदर्शी पानी है उसका|
बेहद खूबसूरत द्वीप जो सागर पर तैरता सा लग रहा है| द्वीप पर लाइट हाउस है| शायद भटके हुए जहाजों को रास्ता दिखाने के लिए बनाया गया हो| सड़क के किनारे बोर्ड लगा था बदजामोगे गाँव|बादाम के दरख्तों की बहुतायत थी वहाँ| एक बात तय पाई कि यहाँ जिस इलाके में जिस चीज की पैदावार अधिक है उस इलाके का वही नाम भी है| बदजामोगे बादाम का क्रियोली नाम है| ग्रैंड पोर्ट सन राइज पॉइंट इस वक्त सूना पड़ा था|सुबह के वक्त यहाँ सैलानियों की भीड़ रहती है| सड़क से समुद्र के ऊपर आगे तक लकड़ी की रेलिंग वाला रास्ता बना है जहाँ खड़े होकर सूर्य उदय देखा जा सकता है|
बादाम के दरख्तों की छाया में कुछ ग्रामीण बैठे थे| पूछने पर उन्होंने भोजपुरी भाषा में पहले हमारे बारे में ही पूछ डाला.....भारत में हम कौन से प्रदेश में रहते हैं, क्या हम बलिया इलाहाबाद गये हैं.....क्या अब भी वह वैसा ही दिखता है?“हम तो यहाँ भोजपुरी फ़िल्में देखकरही संतोष कर लेते हैं और ये जो समुद्र पर रास्ता बना है न ये अंग्रेजों ने नहीं बल्कि हमारे प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ ने बनवाया है” ग्रामीणों ने बताया|
सघन वृक्षों से घिरी, डालियोंकेआर्च से गुजरती सड़क पर बस दौड़ी जा रही है| फर्ने, माहेबू, गाँव..... ज्यादातर एक मंजिलें मकान|हर हिन्दू के घर के सामने हनुमान चौरा और लाल पताकाएँ.....दुर्गा, शिव, पार्वती के भी मंदिर हैं यहाँ| हनुमान चौरा हिन्दुओं के घर का प्रतीक चिह्न है|
माहेबू में नेशनल हिस्ट्री म्यूजियम देख रही हूँ| अंग्रेजों का जुल्म हर तस्वीर से झलक रहा है| डोली पर बैठे अंग्रेज को ढोते भारतीयों को काम खत्म हो जाने पर समुद्र में ले जाकर डुबो दिया जाता था|मैंने अपनी नसों में उबलते खून को महसूस किया.....फिर देखा बट्रेंड फ्रांसिस की तस्वीर, जहाज का नमूना, बड़ा पलंग, पालकी, सिक्के, हथियार, मरीन लाइफ को सुरक्षा प्रदान करने वाला तांबे का और लकड़ी का ढांचा, एडमिरल लॉर्ड नेल्सन, भारतीय दुरेस्वामी वंडेयार, डबल डेकर ट्रेन का मॉडल,ढेर सारा इतिहास एक छोटे से द्वीप का जिस द्वीप की खूबसूरती बनाये रखने में मेरे देश के पूर्वजों का बहा पसीना.....लहू.....प्यास से होंठ सूखने लगे| तेजी से सीढ़ियाँ उतरकर बगीचे में आती हूँ,नल की धार से अंजली भर होंठों तक लाती हूँ.....उस अंजली के जल में दो बूँद आँसू चू पड़े हैं मेरे|
म्यूजियम के दायीं बाजू छै: टीन की कुटियाँ हैं, कंगूरेदार| इनमें से चार बंद थीं| एक में सजावटी सामान बिक रहा था, दूसरी में एक लड़की बैठी दादी नानी के स्टाइल की कपड़े की गुड़िया बना रही थी| एक गुड़िया सौ रुपयों की|म्यूजियम की पहली मंज़िल पर प्रांगण में दो तोपें रखी थीं और मॉरिशस का झंडा लहरा रहा था|
मन अजीब से भावों में डूब उतरा रहा था कि बलाईसंस नाम की जगह बस से दिखी| कुछ प्लॉट्स को रोड बनाकर रेज़िडेंशियल परपज़ से छोड़ रखा था| इन्हें यहाँ मोसलमो प्लॉट कहते हैं| हमारे यहाँ तो घर बन जाने के बाद भी रोड का ठिकाना नहीं रहता| शुगर फैक्ट्री से उठते सफेद धुएँ के बीच से गुज़रती बस ग्रेंड बेसिन, रिवोइत्स विवयर, डिज़जोगी होती हुई जॉर्डिन टेलकेयर पहुँची जहाँ गिरीगिरी पब्लिक बीच है| आह! सौन्दर्य का अकूत खज़ाना है जैसे सफेद रेत का तट, काफीनीचे समुद्र, ऊँचाई पर हम| ऊँचाई चट्टानों के पहाड़ों की| बीचों बीच एक सीमेंट की नीली सफेद छतरी, नीचे सागर, गाढ़ा नीला, दूर गाढ़ा लौकी रंग, बड़ी-बड़ी झागदार सफेद लहरें| विशाल नीली लहर उठती और झागदार सफेद रूप धारण कर चट्टानों से टकराती और पानी की ऊँची बौछार छोड़ चली जाती| सागर के इस भव्य रूप से मैं चकित थी| आँखों में सब कुछ कैद कर लेने के सिवा और चारा ही क्या था|
अब काफ़िला पूर्व दिशा की ओर बढ़ा रहा है| चैमिन गाँव, पाइन वृक्षों के जंगल से घिरा बीच, गन्ने का ढलवाँ खेत.....और चढ़ाई आरंभ| घुमावदार पहाड़ी रास्ता| धीरे-धीरे ठंड लगी| हम बलूदाकप से गुज़र रहे हैं| सामनेफैक्ट्री है जहाँ कोरल को क्रश करके सीमेंट में मिलाने का काम होता है| सिल्वर पेंट के लोहे के फाटकों से घिरी वैली.....शायद अंग्रेजों का घुड़सवारी करने का मैदान होगा.....और अब सफेद फूलों वाले कॉफी के बग़ीचे.....वहाँ आये हर मुसाफिर से प्रवेश शुल्क लिया जाता है| अंदर है हज़ारों फीट गहरी घाटी में गिरते तीन झरने.....वैली का नाम है ब्लैक रिवर घाटी उसके आगे समारेल की सतरंगी मिट्टी| किसी समय वहाँ ज्वालामुखी फटा था और उसका लावाजमकर सात रंग की मिट्टी बन गया है| विशाल क्षेत्र को घेरे इस लावे के रंग बिरंगे ढूह सचमुच प्रकृति की अद्भुत कारीगरी को सोच चकित कर देते हैं|रंगों के ऐसे शेड्स जैसे किसी चित्रकार ने उन्हें कलात्मक तरीके से प्रकृति के कैनवास पर उकेरा हो| यह मुहाना लकड़ी की रेलिंग से घिरा है|
ब्लैक रिवर-एरिया में ही है गारजेस व्यू पॉइंट| यहाँ भी एक झरना हजारों फीट गहरी घाटी में गिर रहा है| पेड़ों के झुरमुट में दो बंदर दिखे जो हमें देखते ही छिप गये| कहते हैं न यहाँ शेर होते हैं न साँप बिच्छू.....इतने दिन के प्रवास में पक्षी तो खूब दिखे लेकिन जानवर पहली बार| पहाड़ों के परली तरफचाँदीसी चमकती क्यूपिप सिटी थी|
गंगातालाब जिसे परी तालाब भी कहते हैं की ओर जाते हुए ठंडक काफी बढ़ गई| अचानक धुंध छा गई और बादल बस में घुसाने लगे| गंगा तालाब ज्वालामुखी के फटने से प्रगट हुआ है| इसे घेरता विशाल सीमेंट का चबूतरा है जिस पर लगभग पाँच मीटर ऊँची गंगा प्रतिमा है| नंदी है जिसके सींगों में हाथ का त्रिकोण बनाकर देखने से अंदर का शिवलिंग दिखता है| शिव अपने पूरे परिवार समेत बिराजे हैं वहाँ| गंगा तालाब में मॉरिशस के हिन्दुओं ने भारत से गंगाजल लाकर छिड़का है और शिवरात्री के दिन यहाँ से जल ले जाकर शिव का अभिषेक करते हैं| उनकी आस्था से मन गद्गद् हो उठा| सामने ऊँचे पहाड़ की बुर्जी पर हनुमान मंदिर था| अचानकबूँदाबाँदी शुरू हो गई| ठंडक और बढ़ गई| अधभीगे से हम तीन सफेद पट्टियों से पुती सड़क पर दौड़ती बस से क्यूपिप सिटी आ गये हैं| रास्ते में इंदिरा गाँधीइंस्टिट्यूट फिर फिनिक्स सिटी और उसी में विशाल क्षेत्र में स्थित मॉरिशस का सबसे विशाल शॉपिंग कॉम्प्लेक्स कोरा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स.....यहाँखास तरह की फिनिक्स बीयर मिलती है और कोको से बनाई बेहतरीन चॉकलेट| लौटते हुए रास्ते में रुकना पड़ा, बस खराब हो गई थी|
२२ अक्टूबर-
दिल्ली से आये पूर्व सांसद डॉ. रत्नाकर पांडे के हाथों समकालीन साहित्य सम्मेलन की ओर से सभी साहित्यकारों को प्रमाणपत्र दिये जा रहे हैं| अभिमन्यु अनत भी हैं| दो घंटे चर्चा का दौर चला..... “हम तो बोतल भर गंगाजल ही लाये थे यहाँ, पर आज तो आप लोगों के रूप में गंगा की धारा ही बह आई है यहाँ|” ऐसा ही होता है जब परदेश में अपने देश के मिल जाते हैं, हमारे अपने| मॉरिशस का इतिहास भी तो हमारा अपना है, हमारे पूर्वजों द्वारा रचा|
मैं इलोसेफ आयरलैंड पर हूँ| दूर दूर तक फैली है शुभ्र धवल रेत और दूर दूर तक फैला है घने पाइन वृक्षों का जंगल| यहाँ हमारे दिल्ली के साथी नहीं है लेकिन बुधकरजी की सुनाई वे पंक्तियाँ याद आ रही हैं.....देह इतनी देखी कि देह क़ा आकर्षण चला गया| धूप स्नान करते रेत पर लेटे यूरोपियन जोड़े नग्न.....पाषाण युग की याद दिलाते| जब मानव को वस्त्रों की जानकारी नहीं थी| मैं चट्टान पर बैठी लहरों में पैर डुबोये हूँ| लौटने का वक्त हो चला है| तट पर कुछ दुकानें, सीप, मोती, पिक्चर पोस्टकार्ड.....सब कुछ बेहद महंगा| हिन्दुस्तान पाकिस्तान से आयात किया गया.....बस देख भर लेती हूँ| बोट आ चुकी है जिसने बहुत तेज़ी से सागर का चक्कर लगाकर हमें होटल पहुँचा दिया है|
२३ अक्टूबर-
मॉरिशस में आज अंतिम दिन है हमारा| इस अंतिम दिन में कितना कुछ देख लेना चाहते हैं हम.....इस दौड़ की पहली कड़ी है ट्रू ऑक्स सर्फ़्स| डेड ज्वालामुखी जो पश्चिमी भाग में ८५ मीटर गहरा है| इतनाभयावह गोल घेरा, घेरेके चारों ओर रेलिंग जहाँ से देख रही हूँ लावे का दलदल, घेरे में उगे पेड़ और आसपास से दिखता क्यूपिप शहर का खूबसूरत नज़ारा| लगूना रिसॉर्ट से यहाँ पहुँचते हुए पेलेया, ओलिविया(यहाँ जैतून के पेड़ हैं) बाजू में फ्रेंच सिमिट्री बहुतायत में कब्रें, उन पर गड़ी सूली, सेवास्त पुल, मोताईब्लाँस सिटी, मेलराज गाँव की गामदेवी का मंदिर, पोर्विटांस काचेनमिलिटे सब्ज़ी मार्केट (ब्रिटिश पीरियड में यह मिलिट्री एरिया था) श्रीमती इंदिरा गाँधी हाईस्कूल, उसके सामने डिस्ट्रिक्ट कौंसिल, कैलाशनाथ मंदिर आदि देखते हुए मॉरिशस की भव्यता का परिचय मिला था|
मेरीवैन का ड्राइवर नीलकंठ था| वैन में हम अठारह लेखक| ड्राइवर के बाजू की सीट पर मैं सीट बेल्ट बाँधे बैठी थी|
“मेरे दादाजी ब्रिटिश आर्मी में थे, हम बिहार के हैं लेकिन दादाजी जो कि अब ९२ वर्ष के हैं तभी मॉरिशस आ बसे थे|” बताया नीलकंठ ने “मैडम, ये सफेद फूल वाले खेत देख रही हैं आप, ये आलू के खेत हैं जो माहेबर्ग एरिया में है| प्लेनमागिया में चाय के खेत हैं जिनकी पत्तियों से वेनीला की खुशबू आती है| आप यहाँ की वेनीला चाय ज़रूर खरीदना|”
चाय की वेनीला खुशबू तो क्या, मैं तो मॉरिशस को दिल में महसूस कर रही हूँ| पंद्रह लाख की आबादी मात्र| प्रदूषण मुक्त प्यारा सा द्वीप मेरे मन में जड़ गया है| कोदेगाद पहाड़, बोशोन्स गाँव, ब्लैक रिवर डिस्ट्रिक्ट| यहीं बोशोन्स तालाब है पक्के तट से घिरा| खेतों में फव्वारों से सिंचाई होती है| यह फ्रेंच सिंचाई सिस्टम है जिसे फ्रेंच में गुटआगुट यानी बूँद-बूँद सिंचाई कहते हैं| यहाँ से हम खूबसूरत सफेद रेत के तट वाला फ्लिक-एन फ्लिक बीच गये जिसे मैं पाइन के पेड़ समझ रही थी उसे यहाँ फ़्लाउ ट्री कहते हैं| तमाम फ़्लाउ वृक्षों से घिरा समंदर|
नीलकंठ ने मुझे विशाल ओपन मार्केट से वनीला चाय खरीदवा दी| मोका पर्वत माला से घिरे मोका नामक जगह पर बने महात्मा गाँधी संस्थान में महात्मा गाँधी की काले मार्बल की प्रतिमा देख गद्गद् हूँ मैं| प्रतिमा से उतरती ढलान की दूब पर लाल क्रोटन से ‘हे राम’ लिखा है| बाजू में बने हरे रंग के स्थापत्य पर हिन्दी वर्णमाला के उभरे अक्षर हैं| हम हिन्दी विभाग के भाषा प्रमुख चेट्टी और हिन्दी विभागाध्यक्ष रश्मि रामधनी से मिलते हैं| अंगूर के रस और कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए आत्मीयता बढ़ती है| हैड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट श्री सुंदरम हमें लाइब्रेरी ले जाते हैं जहाँ हर भाषा की किताबें हैं| फिरम्यूज़ियम जहाँ भारतीयों का मॉरिशस आने का ब्यौरा एक रजिस्टर में नाम पते सहित दर्ज है| पहला गिरमिटिया कब आया? पहली खेप में कितने भारतीय गुलाम आये| उनके उपयोग में लाये बर्तन, कपड़े सुरक्षित रखे हैं| विभिन्न झाकियों द्वारा उनका दर्द भरा इतिहास दर्शाया गया है| एक बड़े से पत्थर पर लिखा है- “मैं पहला गिरमिटिया हूँ जो जहाज से इस द्वीप में लाया गया|” समय कम था इसलिए प्रिंटिंग प्रेस नहीं देख पाये| सुंदरमजी ने बेहद आत्मीयता से हम सबसे विदा ली| मैंने उन्हें सी. डी. भेंट की|
वैदेन, टागोजिया से होते हुए हम रिसॉर्ट लौटे| रात ११.५५ की फ्लाइट थी| मॉरिशस से विदाई के चंद घंटे और.....लेकिन ढेरों यादें| विदा ले रहे हैं रिसेप्शन के कर्मचारी, होटल किचन के वेटर.....हेड वेटर ने मुझे ढेर सारी लौंग, इलायची और जैतून का अचार भेंट में दिया है| आँखेंडबडबा आई हैं| इससे भी बढ़कर विदाई दी है एयरपोर्ट के उस सफेद शर्ट, नीली टाई और नीले पैंट वाले कर्मचारी ने| मैं मॉरिशस की करेंसी को डॉलर में कन्वर्ट कराना भूल गई थी|सामने ही फ़ोरेक्स बैंक था पर मैं कस्टम की जाँच से गुज़र चुकी थी सो अब बाहर निकलना मुश्किल था| उस कर्मचारी ने मदद की| मेरा पासपोर्ट और करेंसी लेकर दौड़ता हुआ गया और लौटकर डॉलर हाथ में थमाये|” आप तो श्रीवास्तव हैं| अमिताभ बच्चन की कास्ट की.....आपको जयहिंद.....भारत को जयहिंद”
जयहिंद.....तुम्हें मॉरिशस.....तुम जो मेरे पुरखों के खून पसीने से सजे सँवरे| विदा.....अलविदा|
संतोष श्रीवास्तव
१०१, केदारनाथ को. ओप. हा. सो.,
सेक्टर ७, चारकोप बस डिपो के पास,
कांदिवली(प.) मुम्बई-४०००६७
मो.- ०९७६९०२३१८८