भूटान द लैंड ऑफ थंडर ड्रैगन Santosh Srivastav द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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भूटान द लैंड ऑफ थंडर ड्रैगन

भूटान – द लैंड ऑफ़ थंडर ड्रैगन

संतोष श्रीवास्तव

हिमालय पर्वत श्रृंखला में बसा छोटा सा देश भूटान बिल्कुल रोडोडेंड्रॉन फूल जैसा खूबसूरत| रोडोडेंड्रॉन पहले भूटान का राष्ट्रीय पुष्प हुआ करता था|लाल मख़मली पंखुड़ियों वाला..... इस फूल की दुनिया भर में एक हज़ार किस्में होती हैं जिसमें से दो सौ किस्में केवल भूटान में हैं| इसका भूटानी नाम एटोमेटो है..... सफेद, गुलाबी, लाल, बैंगनी..... हर रंग की छटा वाला फूल| अब ब्लू पॉपी (अफ़ीम का नीला फूल) राष्ट्रीय पुष्प है|

कोलकाता से ड्रुक एयरवेज़ के खिलौने जैसे हवाईजहाज से मैं विश्व मैत्री मंच की १६ लेखिकाओं के साथ पारो एयरपोर्ट उतरी हूँ| कन्फ्यूज़्ड हूँ..... क्या मैं पारो में हूँ जहाँ पारा इन दिनों यानी फरवरी के अंतिम सप्ताह में माइनस ०.१ है [ सूचनाइंटरनेट से] मानकर चली थी कि २२ फरवरी २०१५ जब मेरी फ्लाइट साढ़े दस बजे सुबह पारो हवाई अड्डे लैंड करेगी तो वह एक बर्फ़ानी सुबह होगी| जमा देने वाली उस सुबह की कल्पना से ही मैं पिछले तीन महीनों से ठंड को अपने में पैबिस्त कर रही थी, सहने लायक हिम्मत जुटा रही थी लेकिन पासपोर्ट, इमीग्रेशन, परमिट आदि की औपचारिकता के बाद जब मैं एयरपोर्ट के बाहर आई जहाँ टूर मैनेजर रजत मेरे नाम की तख़्ती लिए हमारा इंतज़ार कर रहा था तो मौसम खुशनुमा लगा| रजत ने बंगाली लहज़े में कहा –“काल से ही मौसम बदला है मैडम|”

हमारी २० सीटर बस सुनहली धूप में खड़ी थी| आसमान साफ़ था, दूर पहाड़ों पर बर्फ़ चमक रही थी| हवा गुनगुनी सेंक लिए भली-भली सी थी|

हम थिंफू के लिए रवाना हुए जो पारो से अपेक्षाकृत गर्म रहता है और पारो से थिंफू की दूरी ७६ कि. मी. हैजिसे हम रजत के अनुसार १.४० मिनट में तय कर लेंगे| थिंफू भूटान की राजधानी है| पहाड़ों की घाटी में बसा बेहद खूबसूरत शहर| पारो शहर की खूबसूरती इस वक्त मानो थिंफू के बारे में सोचने नहीं दे रही थी| कैसा अद्भुत शहर है..... पारोनदी को अपनी बाँहों में समेटे..... नदी को समर्पित सा| शायद इसीलिए इसका नाम पारो है| नदी भी आँखमिचौलीखेल रही थी| कभी चीड़ के दरख़्तों के बीच झिलमिलाती तो कभी भूरे, लाल, सिलेटी, काले पर्वतों की घाटी में छलछल बहती नज़र आती| पर्वतों पर हरियाली नाम को न थी| परतदार चट्टानों के पर्वत अजीबोग़रीबआकृतियोंसे भ्रमित किए थे| इतनी तरह के पर्वतों को अपने दामन में समेटे गहरी-गहरी घाटियाँ ख़ामोश थीं| न जाने क्यों ये जंगली सौंदर्य मुझे खुश भी कर रहा था, उदास भी|सड़क के दाहिनी ओर कतारबद्ध दरख़्त सूखे सूखे से थे|शाख़ों पर न पत्ते थे न फूल न फल..... मानो पतझड़ अभी-अभी उनकी नंगाझोली लेकर गया हो| प्रकृतिके ऐसे अद्भुत स्वरुप को मैं पहली बार देख रही थी| जहाँ बहार भी थी और खिज़ाँ भी| ठंड भी थी और नहीं भी थी| तरावट भी थी और सूखापन भी..... वाह.....

थिंफू शहर में प्रवेश करते ही लगा जैसे हम प्रदूषण मुक्त ज़ोन में प्रवेश कर रहे हैं| पीले, लाल, बॉटल ग्रीन, आसमानी रंगों वाली टिन की ढलवाँ छतों वाले लकड़ी के खूबसूरत मकान जो तिब्बती, चीनी और भूटानी स्थापत्य का मिला जुला नमूना थे|बाहरी दीवारों पर ज़्यादातरड्रैगनया फूलों की आकृतियाँ थीं| बिना भीड़ भाड़ शोर शराबे वाले बाज़ार..... गाड़ियाँहॉर्नतक नहीं बजातीं| बस हवा में उनकी रफ़्तार सुन लो| ध्वनि प्रदूषण से मुक्त| भूटानी स्त्री पुरुष अपने ख़ास परिधान में नज़र आ रहे थे| पैंट शर्ट में तो एकाध ही होगा|

होटलटक्संग आ गया था जहाँ हेड टूर मैनेजर सुमंतो बासु घबराया हुआ मुझे ढूँढ रहा था|“आप ही शोंतोष हैं| आपका बिहार का मेहमान उदर फुसोलिंग में भूटान बॉर्डर पर अटका पड़ा है|”

पता चला पटना, जयनगरसे ट्रेन से आने वाले सात लेखक लेखिकाएँ जिन्हें डॉ. मिथिलेश मिश्र अपने साथ ला रही थीं बॉर्डर पर रोक लिया गया है और परमिट देने से इंकार कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने इमीग्रेशन फॉर्म में भूटान आने का मक़सद इंटरनेशनल सेमिनार लिख दिया है और इसके लिए आयोजक को भूटानी दूतावास से परमीशन लेनी ज़रूरी थी| अब क्या होगा? उन सब को तो ग्यारह बजे पहुँच जाना था| सोचा था थिंफू पहुँचते ही पहले रूम एलॉट करूँगी| फिर सबके साथ लंच करके आराम करूँगी| कमरे तो एलॉटकर दिए थे पर मैं लगातार बासु के साथ रिसेप्शन में फोन, फैक्स, दूतावास से संपर्क आदि की कोशिशों में मुब्तिला थी| मेरे मोबाइल का बैलेंस भी मिथिलेश दी से संपर्क के कारणनिल हो चुका था|

क़रीब तीन बजे सूचना मिली कि हम अपनी कोशिश में कामयाब हो गए हैं| उन्हें परमिट मिल गया है और वे थिंफू के लिए रवाना हो गये हैं| बासु ने चाय मँगवाई –“चाय पीकर आराम कर लीजिए मैडम..... कितनी थकी लग रही हैं आप|” बासु मुझे मेरे कमरे तक छोड़ने आया जहाँ मधु मेरा इंतज़ार कर रही थी| कमरा ठंडा था| हीटर तो चल रहा था लेकिन कमरा गर्म नहीं हो रहा था| रात कोलकाता एयरपोर्ट पर जागकर गुज़ारी थी| लेकिन तनाव की वजह से नींद जाने कहाँ गायब थी|मधु ने चाय मँगवाई| शाम ढल रही थी सोचा थोड़ा आसपास घूम आएँ| बाकी भी अपने-अपने तरीक़ेसे नज़दीक के बाज़ार या सड़कों पर टहल रही थीं| हम दोनों इधर-उधर टहलते रहे सीढ़ियाँ उतरकर कुछ दुकानें थीं सजावटी सामान, सोविनियर, ऊनी कपड़े आदि की| सड़कों पर धुँधली सी बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं और दूर पहाड़ पर बौद्ध मठ जैसा कुछ दिख रहा था| सूना-सूना सा पर्वतीय शहर, तेज़ हवा की साँय-साँय..... जीवन का सन्नाटा गहराता सा लगा|

मिथिलेश दी रात नौ बजे आईं| फिर तो डिनर पर परमिट न दिए जाने के किस्से ही किस्से थे| मिथिलेश दी के साथ पुष्पा जमुआर, संजू शरण, आलोक भारती आदि से मैं पूर्व परिचित थी|दीनानाथ साहनी से मैं पहली बार मिल रही थी| बेहद हँसमुख, सरल व्यक्तित्व, दैनिक जागरण में समाचार संपादक..... बिहार का पूरा ग्रुप सिर्फ सेमीनार के लिए ही आया था| कल ब्रेकफ़ास्ट के बाद हमें होटल नाम्सेलिंग जाना है जहाँ सेमीनार होगा|

२३ फरवरी| होटलहम बस से आए| होटल महलनुमा था| शानदार रिसेप्शन| पूरा स्थापत्य सफेद और सुनहले रंग समूहवाला बारीक कार्विंग से मनमोहक लग रहा था| लेकिनसम्मेलनचौथी मंज़िल पर होगा और लिफ़्ट नहीं थी| ज़्यादातर सीनियर सिटीज़न महिलाएँ..... लेकिन हौसला बुलंद| चार मंज़िल चढ़कर भी चेहरे पर शिकन तक नहीं| सम्मेलन साढ़े दस बजे आरंभ हुआ| विश्व मैत्री मंच के बैनर तले इस अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत से आई २५ लेखिकाओं, लेखकों ने भाग लेकर यह सिद्ध करदिया कि साहित्य सरहदों का मोहताज नहीं| कुछ भूटानी लेखिकाएँ भी थीं| जंबा याशी, करमा वांगमों, लुंगटेंन, वांगमों, सोनम के साथ भारतीय लेखिकाओं ने लघुकथा के विविध आयामों पर जमकर चर्चा की| दूसरे सत्र में कविसम्मेलन, प्रमाणपत्र और स्मृतिचिह्न वितरण था| कार्यक्रम बिना लंच ब्रेक के छै: बजे तक चला और सभी ने भरपूर आनंद लिया|

डिनर के बाद रजत और बासु ने बाउल गायकों की पारंपरिक वेशभूषा पहन बाउल गीत सुनाकर ‘आमार सोनार बांग्लादेश’ में पहुँचा दिया|

सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हम थिंफू सिटी टूर पे थे| लेकिन बिना बिहार से आई लेखिकाओं के क्योंकि वे सब केवा सम्मेलन के लिए ही आई थीं| उन्हें ग्यारह बजे पारो लौटना था| उनसे बिदा ले हमारा काफ़िला रवाना हुआ| यहाँ का समय भारतीय समय से आधा घंटे आगे है| भूटानी मुद्रा नोंग्त्रुम (या न्गल्त्रम) भारतीयमुद्रा के बराबर है| मैंने थोड़े से रुपिए हु भूटानी रुपयों में तब्दील करवाए थे क्योंकि यहाँ भारतीय सौ रुपयों के नोट बहुत प्रचलित हैं|घूमते हुए जानकारी मिली कि भूटान में सबसे ज़्यादा जनसंख्या बौद्ध धर्मावलम्बियों की है| हर जगह बौद्ध मठ, बुद्ध की प्रतिमाएँ, घूमते चक्र, अनवरत जलते दीप| हैरत की बात ये है कि भूटान में पशु हत्या निषेध है फिर भी पूरी जनसंख्या माँसाहारीहै| यहाँ माँस भारत से आयात किया जाता है|न पशुहत्या, न प्रदूषण..... शांत, मुस्कुराते चेहरे, जीवन की आपाधापी से दूर| शायद इसीलिए भूटान दुनिया का सबसे संतुष्ट और खुशहाल देश कहलाता है| सारी अर्थव्यवस्था कृषि, वन, पनबिजली और पर्यटन पर आधारित है| शायद यही वजह है कि पर्यटकों को सैर कराने वाले ड्राइवर भी बहुत खुशमिजाज और तमाम जानकारियाँ देने वाले होते हैं| हमारा ड्राइवर वांग्चू भी खुशमिज़ाज था| वह भूटानी पोशाक किरा पहने था| घुटनों तक मोज़े और भारी बूट| किरा बहुत कुछ कफ़्तान जैसी होती है| वांग्चूने अपने गाँव का नाम टांग्सा बताया|

सड़क पर लोगों की आवाजाही कम थी| बी बी एस टॉवर, सार्क बिल्डिंग आदि बस में बैठे हुए भी कितना कुछ नज़रों के सामने से गुज़र रहा है| नेशनल मेमोरियल चोटेन के सामने पार्किंग स्थल पर बस रुकी| बासु ने पंद्रह मिनट घूमने का समय दिया| पाँच मिनट तो सभी ने संतरे ख़रीदने में गँवा दिए| संतरे और सेब की भरपूर पैदावार के लिए प्रसिद्ध है भूटान| गेट पर लगे बोर्ड पर लिखा था..... १९७४ में रानी फुँतशू चोडेन वाँग्चुक नेअपनेबेटे थर्ड ड्रुक गिआलपो की स्मृति में यह स्मारक बनवाकर राजा जिग्मेदोरजी वाँग्चुक को समर्पित किया था| अंदर लाइन से धम्मचक्र..... सफेद भव्य स्मारक, बीचोंबीच सफेद ईंटों के चबूतरे पर नीली हौद में खिले कमल पर रानी की मूर्ति..... मूर्ति के ऊपर खूबसूरत कलाकृति की छत..... जिस पर ढेर सारे कबूतर बैठे थे| कबूतर बार-बार उड़ते, मँडराते, बैठते..... पूरे आसमान को अपने पँखों से भरे दे रहे थे| चोर्टन का मंदिरनुमा कलश था जिसके चारों तरफ़ चार खंभों को ऊपर सफेद सिंह की मूर्तियाँ थीं जिनमें जंजीरें बँधी थीं| ये जंजीरें कलश से बाँध दी गई थीं| किंवदन्ती है कि प्राचीन काल में यह मंदिर धरती पर ठहरता नहीं था, आकाशमें उड़ जाता था इसलिएइसे शक्ति के प्रतीक सिंह से बाँधा गया है|

वहाँ से दूर पहाड़ों का दृश्य बड़ा सुहावना था| चोर्टन से बाहर निकलते हुए बहुत अधिक बूढ़े बौद्ध लामा सीढ़ियों पर बैठे थे| पूछने पर एक लामा ने अपनी उम्र डेढ़ सौ साल बताई| क्या सच!!! मैं पलक झपकाना भूल गई| बासु का दावा था कि उसने तिब्बत में दो सौ साल का लामा देखा है|

संतरे खाते हुए और भी कितनी बातें कितने आश्चर्य! बुद्धा पॉइंट आ गया था| बस ने जहाँ छोड़ा थोड़ी दूर तक रेतीली जगह पर चलना पड़ा| फिर पक्का विशाल प्रांगण..... बेहद विशाल १६९ फीट ऊँची सुनहली बौंज्ज से बनी बौद्ध प्रतिमा पद्मासन की मुद्रा में दिखाई दी| मूर्ति तक पहुँचने के लिए पीले सुनहले रंग वाली सीढ़ियाँ थीं| एक ओर पहाड़ दूसरी ओर घाटी..... तेज़ चमकती धूप में पूरा स्थापत्य रोमांचितकर रहा था| भीतरी भाग तीन मंजिलों में बँटा था जहाँ बुद्ध की मूर्तियाँ थीं| तीनोंमंज़िलों को अपने में समेटे ध्यान की मुद्रा में डूबे गौतम बुद्ध शून्य में कुछ तलाशते से लग रहे थे|धरती से ऊपर, संसार से विरक्त|

“बुद्ध तुम प्रश्नों के उत्तर खोजो| हम संसार के हर पल के साक्षी, हर पल के आह्लाद को अपने में समो लेने के लिए आतुर (अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उस ईश्वर का अपमान नहीं होगा जिसने धरती रची) हमारी खिलखिलाहट से वादियाँ गूँज उठीं|

चँगगँगखाँ मॉनेस्ट्रीपहाड़ पर चढ़कर है| कुल ११२ सीढ़ियाँ थीं| मॉनेस्ट्री में कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था| लाइन से धम्मचक्र..... घुमाते जाओ, आगे बढ़ते जाओ| सामने गहरी घाटी का नज़ारा खूबसूरत था| चीड़ के पेड़ बहुतायत से थे| अन्य पहाड़ी पेड़ तादाद में कम थे| पेड़ों पर रंग बिरंगी चिड़ियाँ चहक रही थीं| भूटानी इस मॉनेस्ट्रीको बहुत मानते हैं| बच्चे के जन्म लेते ही माता पिता इया मंदिर में बच्चे को लेकर आते हैं| लामामंत्र पढ़कर बच्चे को ज़िन्दगी जीने योग्य बनाता है| अगर किसी कारणवश बच्चे को मॉनेस्ट्री नहीं लाया गया तो माँ को एक बड़ा पत्थर पेट पर रखकर मंदिर की परिक्रमा करनी पड़ती है|

नीचे सड़क के उस पार खाने पीने के सामान की कुछ दुकानें थीं| थोड़ा बहुत नमकीन आदि ख़रीदकर वहाँ से हम वांग्चू नदी के किनारे ताकिनज़ू आए| लम्बे-लम्बे दरख़्तों से भरा कहीं ढलवाँ, कहीं ऊँचा ताकिन ज़ू ताकिन जानवर का संरक्षण क्षेत्र है| इस क्षेत्र को लोहे की मज़बूत जाली से घेरा गया है| अन्दर प्रवेश वर्जित है| ऐसा अद्भुत जानवर मैंने पहले कभी नहीं देखा जो चेहरे से बकरे और बाकी शरीर गाय की मिली जुली आकृति वाला था| इस जानवर के बारे में कहा जाता है कि १४५५ में एक लामा को वांग्चू नदी के किनारे इस जगह पर गाय और बकरी की हड्डियाँ मिलीं जिन्हें आपस में जोड़कर उसने ताकिन बना दिया| ताकिन भूटान का राष्ट्रीय पशु है|

पारो और म्यूज़ियम देखने की इच्छा थी लेकिन म्यूज़ियम में रखी पेंटिंग और विविध सामान जहाँ से ख़रीदे जा सकते हैं हम सबने वहाँ जाना ठीक समझा| देख भी लेंगे और अगर ख़रीदना हो तो ख़रीद भी लेंगे| सभी ने सिर्फ़ देखा क्योंकि सब कुछ बहुत महँगा था|

शाम ढल रही थी जब हम दि फोक हैरिटेज म्यूज़ियम पहुँचे| इसकी स्थापना सन २००१ में हुई और भूटान की रानी माँ आशी दोरजी वांग्मो वांग्चुकने इसका उद्घाटन किया| उन्हीं ने इसकी स्थापना की थी| इस म्यूज़ियम में आधुनिक भूटान को भूटान के फोक कल्चर और रूरल हिस्ट्री से जोड़ने की कोशिश की है| समय-समय पर प्रदर्शनी, डिमाँस्ट्रेशन, शैक्षिक कार्यक्रम और डाक्यूमेंट्स के आधार पर इस म्यूज़ियम को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की गई है| तीन मंज़िला इस बहुत प्राचीन सी दिखती इमारत में हमने प्रवेश टिकट लेकर प्रवेश किया| उन्नीसवीं सदी के मध्य काल को प्रस्तुत करती प्रत्येक मंज़िल की ओर जाती बहुत पुरानी लकड़ी की सीढ़ियाँ हैं| हर एक मंज़िल के ढाँचे से पता चलता है कि कैसे वे दीवारें, फर्श आदि उस ज़माने में बनाते थे| सब कुछ मिट्टी और लकड़ी से बना..... कई तरह के घरेलू औज़ार, बर्तन, चूल्हा आदि| कुछ वस्तुएँ तो १५० साल पुरानी हैं| बड़े बड़े धुँआ खाये बर्तन, धुँआ खाया चूल्हा..... मानो हम भी उसी युग में पहुँच गये हों| अद्भुत अनुभव था|

मैंने कल बासु से भूटानी लोकनृत्य के बारे में चर्चा की थी| उसने आज शाम को ही लोकनर्तकों को बुला लिया था| लिहाज़ा होटल लौटकर जब मैं फ्रेश होकर रिसेप्शन में लौटी कलाकार अ गये| वे एक घंटे के परफॉरमेंस का छै: हज़ारमाँग रहे थे| डीलपक्की होते ही डाइनिंग रूम को ही स्टेज बनाकर लाइट आदि का इंतज़ाम कर लिया गया| सारे कलाकार यंगछेन लुगार ग्रुप के थे|पहले वेलकम नृत्य हुआ जिसमें छै: जोड़ों ने पारंपरिक गीत गाते हुए नृत्य किया| जो पुरुष कलाकार थे वे वाद्ययंत्र बजा रहे थे| एक तो बिल्कुल गिटार जैसा था जिसे यहाँ ड्रामगिन कहा जाता है| प्राचीन वाद्य शुंग्डा, तिब्बती वाद्य वियेटा और आधुनिक वाद्य रिग्सर है|गिटार, ड्रमगिन, लिम(बाँसुरी) यांग्चिन, चिवाँग (वायलिन) ये वाद्य भारतीय वाद्यों से मिलते जुलते हैं| वेलकम नृत्य के बाद लड़कियों ने लामा के लिए ट्रेडिशनल नृत्य किया| उन्होंने कुल छै: नृत्य प्रस्तुत किये| तीन प्राचीन और तीन आधुनिक| अंतमें सभी कलाकारों ने गरबे जैसा नृत्य प्रस्तुत किया| जिसमें हम सब भी उनके साथ नाचे| वे सिर पर जालीदार लकड़ी के तिकोने मुकुट पहने थे जिसे पीछे मोतियों की लड़ी से बाँधा गया था| पैरों में हाई हील जूते जो जयपुरी मोजड़ी जैसे थे| वे हर नृत्य में अलग वेशभूषा में नज़र आते थे| इन नृत्यों में भूटान की संस्कृति उभर कर सामने आई|

नृत्य मंडली को विदा कर हमने डिनर लिया| डिनर के दौरान रजत ने बताया कि कल हम पुनाखा जिला स्थित दोचूला पास जाएँगे जो ३ हज़ार ८० मीटर की ऊँचाई पर है और वह भूटान का सबसे ठंडा इलाका है जहाँ तापमान माइनस ०.१ रहता है इसलिए सब गर्म कपड़े पहन कर चलें| ठंड के नाम पे सब फुरेरी लेने लगीं| सुबह सात बजे निकलना है तो पाँच बजे तो उठना ही पड़ेगा|एक दूसरे को जगाने की ज़िम्मेदारी लेकर सब अपने अपने कमरों में चली गईं| खिड़की दरवाज़ा बंद होने के बावजूद हवा की साँय साँय सुनाई दे रही थी| मैंनेखिड़की पर पड़ा परदा सरकाया तो सामने पहाड़ पर बने बौद्ध मठ की रोशनी में पेड़ों की डालियाँहवा में डोलती नज़र आईं| सड़क पूरी तरह सन्नाटेकी गिरफ़्त में थी|

सुबहचालीस मिनट देर से रवाना हुए, तो ट्रैफ़िकमें फँस गए| पहाड़ी रास्ता होने के कारण यहाँ के ट्रैफिक नियम अलग हैं|जब जाने वाली गाड़ियों को छोड़ा जाता है तो आने वाली गाड़ियाँ दो घंटे तक रुकी रहती हैं| लिहाज़ा हमें दो घंटे रुकना पड़ा| हलकी हलकी बूँदाबाँदी होने लगी| घना कोहरा भी था| कोहरे में डूबे घाटी के दरख़्त, पहाड़ सब कुछ तिलिस्म सा| धुँध में भी मैंने पहचान लिया रोडोडेंड्रॉन के दरख़्त को| पहाड़ की ढलान पर तीन दरख़्त खूबसूरत लाल पंखुड़ियों वाले फूलों की छटा बिखेर रहे थे| कड़कड़ाती ठंड में एक चाय वाला अपना थर्मस और कप लेकर बस में चढ़ा तो सबने राहत की साँस ली| गर्म चाय ने बदन में गर्मी और तरावट भर दी| चाय वाला लड़का शेराची कॉलेज का विद्यार्थी था| बहुत स्मार्ट और तपाक से हिन्दी में जवाब देने वाला|

मैंने पूछा- “कुछ अपने देश के बारे में बताओ|”

“देश के बारे में आप भी तो जानकारी लेकर ही आई होंगी मैम|”

“फिर भी|”

“छोटा सा देश है मेरा| भूटान का अर्थ ही है निहायत छोटा देश| वैसे भूटान को द्रकयू और भूटानियों को द्रुपका कहते हैं| भूटानी पुरुष सिर पर छोटे-छोटे बाल रखते हैं| मेरे जैसे| हमारी पारम्परिक वेशभूषा गोकिरा कहलाती है| हमारे में लड़के लड़की में फर्क नहीं करते| दोनों को समान अधिकार कानून और समाज ने दिये हैं| लड़कियाँ हर क्षेत्र में आगे हैं| सरकार भी लड़कियों को बढ़ावा दे रही है| अगर लड़कियाँ विदेश जाकर पढ़ना चाहती हैं और माता-पिता ख़र्च नहीं उठा सकते तो उन्हें राजशाही स्पाँसरशिप मिलती है| वे भारत के देहरादून शहर की पढ़ाई के लिए पसंद करती हैं| शिक्षित लड़कियाँ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं| ज़्यादातर प्रेम विवाह होते हैं| अगर विवाह अंतरजातीय है तो दोनों परिवारों की रज़ामंदी ज़रूरी है| शादी का ख़र्च दोनों परिवार उठाते हैं| लड़की शादी में जो पोशाक पहनती है यानी गो वह हैसियत के हिसाब से ख़रीदी जाती है|लड़के की पोशाक किरा कहलाती है| गो-किरा लाल, भूरा, पीला, गुलाबी होता है| उस पर जो कशीदाकारी होती है उसे सेठा माठा कहते हैं| फूलों की जगह वर वधू कपड़े का कशीदा किया हुआ छै: या सात इंच चौड़ा दुपट्टा गले में पहनते हैं और वेडिंगरिंग शादीशुदा होने की निशानी है|

ड्रग्ज़ लेना, चोरी करना ग़ैरकानूनी है जिसकी सख़्त सज़ा दी जाती है| बालमज़दूरी, बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ नहीं हैं| तीरंदाज़ी यहाँ का राष्ट्रीय खेल है| वैसे क्रिकेट, बास्केटबॉल, बैडमिंटनराष्ट्रीय स्तर के खेल माने जाते हैं|

यहाँ की जनसंख्या ६,६२,४२५ है जिसमें बौद्ध धर्म को मानने वाले ७५ प्रतिशत हैं| २५ प्रतिशत हिंदू और नेपाली हैं|लेकिन इन्हें यहाँ हिंदू और नेपाली नहीं कहते बल्कि शारचोप, ल्होतशांपा और भूटानियों को गांलोप कहा जाता है|

“अरे अभी तो तुमने बताया कि द्रुपका कहते हैं भूटानियों को?”

“हाँमैम, दोनों ही नामों से उन्हें सम्बोधित किया जाता है| सत्रहवीं सदी के अंत में भूटानियों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था| राजशाही तो यहाँ १९०७ में स्थापित की गई| बौद्धों की बहुलता के कारण यहाँ बौद्ध त्यौहार खूब धूमधाम से मनाते हैं लेकिन नोमेदयहाँ का ऐसा वार्षिक उत्सव है जिसमें पूरा भूटान हर्षोल्लास से भर जाता है|”

भूटानी भाषा डजोगका कहलाती है| नहीं मैम, स्कूलों में हिन्दी नहीं पढ़ाते| भारतीय हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता ने ही हिन्दी सिखाई है| सलमानख़ान और दीपिका पादुकोण हमारे प्रिय कलाकार हैं| भूटानी फ़िल्में भी बॉक्स ऑफ़िस परहिट होती हैं| भूटानी अभिनेता सेंचोतूजी और अभिनेत्री श्रीयंकी लोकप्रिय कलाकार हैं| ज़्यादातर कॉमेडी फिल्में पसंद की जाती हैं|

लड़का क्या था जानकारी का ख़ज़ाना था| बहुत मान मनौबल केबाद उसने मेरे दिये सौ रुपए लिए| उसके जाते ही दूसरा चाय वाला आ गया| चाय का एक और दौर साथ में लाए आलू के पराँठे और चटनी के नाश्ते के साथ चला|

थोड़ी देर में दोचूला पास के लिए रास्ता खुल गया| इस बीच ड्राइवर वांग्चू जो टोग्सा का था अपनी कॉमेडी से हँसाता रहा| वह पान के पत्ते पर चूना और कच्ची नशीली सुपारी का बड़ा सा टुकड़ा डालकर खाता रहा| इस तरह का पानआलस्यऔर थकावट से दूर रखता है| ज़्यादातरभूटानीपानखाते हैं| दोचूलापास का रास्ता घुमावदारऔरधुँध सेभरा था|हम सब डैम साधे रास्ते पर टकटकी लगाए थे| कठिन चढ़ाई, दुर्गम और पहाड़ी दरख़्तों, फूलों से भरी वैली अब धीरे-धीरे उभर रही थी| सूरज उग रहा था| कोहरा भी छँट रहा था| पुनाखा सचमुच खूबसूरत शहर है| प्राचीन काल में पुनाखा ही भूटान की राजधानी था|

गाड़ी समतल रास्ते पर रुकी| अब सब कुछ धूप में जगमगा रहा था| सामने सिम्थोका फोर्ट था| जहाँ तक जाने के लिए नदी के ऊपर पुल बना था| माँचू और फोंचू नदी का यह संगम स्थल है| नदी के किनारे सफेद रेत थी| उज्जवल जल में तलहटी के पत्थर दिखलाई दे रहे थे| किनारों पर सफेद गोल बटिया पत्थर थे|

सिम्थोका फोर्ट यूँ तो दुश्मन से रक्षा के लिए बनाया गया है| चार सौ साल पहले से भूटान को पड़ोसी देशों ख़ासकर चीन से ख़तरा बना रहता है| यह फोर्ट उससे रक्षा के लिए बनाया गया है| फोर्ट को भूटानी भाषा में ज़ौंग कहते हैं| इस फोर्ट में राजाओं की शादियाँ भी हुआ करती थीं| वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्येल वांग्चुक पंचम की शादी भी इसी फोर्ट में हुई है| यहाँ राजा चुना नहीं जाता वंशानुगत होता है| फोर्ट में बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए मेडिटेशन रूम, धम्मचक्र आदि बने हैं| सीढ़ियाँ चढ़कर जब मैं ऊपर गई तो बिल्कुल श्रीलंका के बौद्ध मंदिरों जैसा ही दृश्य लगा|

फोर्ट घूमकर हम सब नदी के किनारे आ बैठे| नदी का पानी खूब ठंडा था फिर भी कुछ ने पैर डुबोए..... मेरी हिम्मत नहीं पड़ी|

हमें रास्ता बंद होने के पहले थिंफू लौट जाना था नहीं तो फिर सुबह के समान दो घंटे जाम में फँसना पड़ता| एक जगह नदी का सुंदर किनारा देख हमें गाड़ी रुकवाई| तेज़ हवा में दुपट्टे सम्हालना मुश्किल हो रहा था| सभी खिलखिला कर हवा की दिशा दुपट्टे उड़ जाने दे रही थीं..... हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा..... खुश होने के लिए बहुत सारे सरंजाम की क्या ज़रुरत? पंद्रह मिनट उन वादियों में कपूर से उड़ गए|

सूर्यास्त ज़िद्द पे था| घुमावदार रास्ते की शुरुआत में हमें आधा घंटा रुकना पड़ा| चाय की तलब थी पर चाय कहीं नहीं थी| सुबह के बचे हुए पराँठे खाए और बाकी बाहर खड़े भूटानी लड़के को दे दिए| वह मुस्कुराने लगा| तेज़ी से पराँठे ले जाने कहाँ गायब हो गया| सूर्यास्त के तुरंत बाद कोहरा दबे पाँव वैली से बाहर निकल चारों ओर फैलने लगा| धुँध में सड़क की बत्तियाँ लालटेन की लौ सी लग रही थीं| गाड़ी उस भीगी ठंडी रात में जहाँ रुकी वहाँ शहीदों के १०८ स्मारक (चोटन) बने थे| ये स्मारक उन भूटानी और भारतीय सैनिकों के थे जो १९६९-७० में चीन से युद्ध के दौरान शहीद हुए थे| बड़ी ही खूबसूरती से इन स्मारकों को सफेद और कत्थई रंगों से बनाया गया था| सीढ़ियाँचढ़ते हुए दाएँ-बाएँ स्मारक और अंतिम सीढ़ी से थिंफू का विहँगम दृश्य..... थिंफू की टिमटिमाती बत्तियाँ जैसे आसमान के सितारे घाटी में उतर आये हों| खूबसूरती और उदासी का संगम उन स्मारकों को देखना खुद को गहरी चुभन से भरना था|

लौट रहे थे तो गाड़ी में सभी की वाणी मूक हो चुकी थी|

होटल के रिसेप्शन में हम सब सोफों पर बैठ गये..... चायपीते हुए बासु ने बताया कि कल साढ़े दस बजे हम पारो चले जाएँगे| थिंफू में यह हमारी आख़िरी रात है|

थिंफू सन्नाटे में डूबा था| हम सब भी थके थे सो डिनर के बाद नींद आते देर न लगी|

थिंफू की धरती को कब किरनों ने छुआ पता ही नहीं चला| जागे तो गुलाबी धूप शीशों से झाँक रही थी| चाय पीते ही तरावट से आँखों में चमक आ गई, उनींदापन गायब हो गया| सामान पैक हो चुका था| मैं भी तैयार थी| इतने दिन थिंफू में रहे| होटल की व्यवस्था भले ही आरामदायक नहीं थी पर रिसेप्शन में लड़कियाँ भोली भाली, मासूम सी..... मुझे नहीं लगता कि वे १७-१८ से अधिक की उम्र की होंगी| सभीगोरे रंग की, लम्बी और पारंपरिक पोशाक में रहती थीं| वैसे यहाँ मैंने सभी गोरे और लम्बे भूटानी देखे| चाहे औरत हों या मर्द सभी और सभी अपनी पारंपरिक पोशाक में| सलवार सूट, जींस, टॉप पहने तो कोई दिखा ही नहीं| पुरुष अपने सिर पर छोटे-छोटे बाल रखते हैं और लड़कियाँ लम्बे बाल जो खुले होते हैं या जूड़े की शक्ल में| बहरहाल लड़कियों ने हमें भावभीनी बिदाई दी|

थिंफू से प्रस्थान| दूर हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं पर जमी बर्फ़ धूप में चमक रही थी| वैली में उतरकर पारो की ओर बहती नदी का छलछल बहता पानी मन मोह रहा था| सड़क के दोनों ओर पत्र विहीन शाख़ाओं वाले पेड़ थे| जिन्हेंरजत ने सेब के पेड़ बताया| ठंड के कारण पेड़ उजड़ गए थे| वैली में और समतल में हरी, नीली, भूरी, पीली छत वाले खिलौनेनुमा पहाड़ी मकान थे| वहीँ पेल्खिल स्कूल का बोर्ड लगा था| थोड़ा आगे जाने पर स्कूल फॉर लैंग्वेजेज़एण्ड कल्चरल स्टडीज़ की इमारत थी| ताशीडेलक गेट के बाद पारो एयरपोर्ट था| हम ऊँचे स्थान पर खड़े होकर एयरपोर्ट का विहंगम दृश्य देख रहे थे| कोलकाता जाने वाला एयरड्रुक एयरवेज़ का जहाज बस उड़ान की तैयारी में था| आँखों को ठंडक देते गहरे हरे रंग की छत वाली एयरपोर्ट की इमारत थी| बासु ने बताया कि वर्तमान रानी के पिता पायलट हैं और उनका हवाई जहाज चलाने का तरीका अन्य पायलटों से अलहदा है| थोड़ा आगे चलने पर पारो कोर्ट था| बस, इसी सड़क से पारो शहर शुरू हो जाता है| लकड़ी के मकानों का ऊँचा-नीचा सिलसिला भी| पूरा भूटान पहाड़ पर बसा है|दक्षिणी भाग थोड़ा समतल है| भूटान के उत्तर में कुछ पर्वत चोटियाँ ७००० मीटर से भी ऊँची हैं जबकि चेलेला दर्रा १३००० मीटर की ऊँचाई पर है| भूटान का ७० प्रतिशत भूभाग जंगलों से आच्छादित है| पारो, थिंफू सहित बीस जिले हैं यहाँ| थिंफू और पारो की आबादी ५० हज़ार से ज़्यादा नहीं है|

सूरज अभी ढला नहीं था| हम पारो म्यूज़ियम के गेट के सामने खड़े थे| वहाँ से काफ़ी आगे चलकर थोड़ी सीढ़ियाँ चढ़कर हम दि नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ भूटान पहुँच गए| काफीऊँचाई पर बना है म्यूज़ियम| गोल गुम्बदनुमा इमारत सफेद और कत्थई रंग की| बड़े गुम्बद के बाद एक छोटा गुम्बद और फिर एक नन्हा सा गुम्बद बादलों से होड़ लेता| नीचे वैली में चीड़, देवदार और ओक के दरख़्त| पहलेइसे पारो ज़ौग कहते थे| पूरे पारो के लिए यह एक वॉच टॉवर था| यह बात १६४९ की है| यह यहाँ के प्रथम राज्यपाल ला गोइंग्पा तेनज़िन द्रुग्द्रा का आवास यानी राजभवन था| पारो के तमाम दुर्ग राजनैतिक स्थिरता आने के बाद खंडहर में तब्दील होने लगे| तब इसे भूटान के तीसरे राजा जिग्मे दोरजी वांग्चुक ने जीर्णोद्धार करके नेशनल म्यूज़ियम का नाम दिया और १९६८ में इसे पब्लिक के लिए खोला गया| भूटान में आधुनिकता लाने की शुरुआत भी जिग्मे दोरजी ने ही की|

गेट पर ही बनेछोटे-छोटे ख़ानों में हमारे बैग, कैमरे, मोबाइल रख लिए गए| अंदर प्रवेश करते ही गैलरी की दीवार पर भूटान के पारंपरिक मुखौटे लगे थे जो लोकनृत्य के समय नर्तक पहनते हैं| म्यूज़ियम की अन्य गैलरियों में भूटान की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास के दर्शन होते हैं| इन गैलरियों के अलग-अलग नाम हैं| जैसे मास्क गैलरी, थंगका गैलरी(सोलहवीं सदी का बौद्ध काल) हैरिटेज गैलरी (हथियार, युद्ध में पहने जाने वाले वस्त्र, जूलरी, पारंपरिक पोशाकें, टी पॉट और घोड़ी का अंडा) हम चौंक पड़े| घोड़ी का अंडा भूटान के तत्कालीन राजा की दादी ने कहीं से प्राप्त कर राजा को भेंट किया था| अंडा छोटे इलाहाबादी ख़रबूजे जितना बड़ा था| अंडा एक असंभव परिकल्पना..... तो फिर? दिमाग़ के घोड़े दौड़ने लगे| ज़रूर उसके पेट में अंडे के शेप का ट्यूमर रहा होगा| मेरी यह बात सभी को युक्तिसंगत लगी| नैचरल हिस्ट्री गैलरी में टी.वी. पर चिड़ियाँ की तस्वीरें और आवाज़ डिस्प्ले की जा रही थी| भूटान में ८०० प्रकार के पक्षी हैं जो यहाँ की धरोहर माने जाते हैं|

पूरा म्यूज़ियम छै: मंज़िला है| भूटान की पूरी संस्कृति को इसमें समेटने की कोशिश की गई है|

बाहर निकले तो तेज़, ठंडी, तीखी हवाओं ने दबोच लिया| चलना तो दूर खड़ा रहना भी मुश्किल था| घाटी तक ढलान में लगे पेड़ों की डालियाँ झुकी जा रही थीं| काफ़ी देर बाद अपने करतब दिखा थक कर हवाएँ बिदा हुईं| तेज़ भूख की वजह से बासु ने हमें पारो मार्केट लाकर छोड़ दिया|

“यहाँ थाई फूड बहुत अच्छा मिलता है मैम, ट्राई कीजिए|” पारोमार्केट मेन सड़क के दोनों ओर था| थाई फूड का रेस्टॉरेंट तो कहीं दिखा नहीं| हैंडी क्राफ्ट, सजावटी सामान, वूलन कपड़े और घरेलू उपयोग के सामान की दुकानें थीं| बारिश भी होने लगी थी| बारिश से बचने के लिए हम जिस दुकान में गये वो चॉकलेट, नमकीन आदि की ही थी| लिहाज़ा भूख मिटाने का थोड़ा सहारा तो मिला| दो घंटे बाद बस रवाना हुई| जिस होटल में हमें रुकना था वो वांग्चाग एरिया में था| रास्ता पहाड़ी घुमावदार| होटल ही पहाड़ पर था| बेहद शानदार लेकिन सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ..... कमरे भी सीढ़ियाँ चढ़ उतरकर बने थे| आसपास का व्यू बेहद खूबसूरत| सबको रूम एलॉट कर जब मैं अपने रूम में आई तो बाल्कनी देख तबीयत खुश हो गई| हालाँकि ठंड थिंफू से ज़्यादा थी पर कमरा गर्म..... सुहावना समाँ..... बाल्कनी से गहरी घाटी, बर्फीले पहाड़, चीड़, देवदार, ओक..... अद्भुत व्यू| डिनर आठ बजे रिसेप्शन से लगे डाइनिंग रूम में था| फिर सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो| लिहाज़ा मैंने डिनर ऊपर ही मँगवा लिया| बहुत स्वादिष्ट खाना था| चार दिन बाद अच्छा खाना नसीब हो रहा था|

बहुत गहरी और उम्दा नींद ने दिन भर की थकान मिटा दी| यहाँ तक कि रात अच्छी ख़ासी बारिश हुई और पता ही नहीं चला|

सुबह मौसम भीगा भीगा..... ठंडा-ठंडा था| लेकिन सबमें जोश इतना कि सभी गरम कपड़ों से लैस चेलेलापास जाने को तैयार| बासु डर रहा था- “मैम..... रिस्क है, स्नोफॉल भी मिल सकता है| छै: हज़ारमीटर तक तो बस जाती है उसके बाद ट्रैकिंग है| ब्रीदिंगप्रॉब्लम भी हो सकती है|”

“आप परेशान न हों, सभी अपनी रिस्क उठाने को तैयार हैं|आप कपूर खरीद लीजिए| उसको सूँघते हुए जाएँगे तो ब्रीदिंग प्रॉब्लम नहीं होगी| लद्दाख़ का मेरा तजुर्बा है|”

लेकिन कपूर कहीं नहीं मिला| बासु ने च्युंगम ख़रीद ली| सुबह नाश्ते में आलू की सब्ज़ी और पूड़ियाँ थीं| कुछ ने खाईं, कुछ ने साथ रख लीं|

ठंड माइनस ०.१ थी| घुमावदार पहाड़ी रास्ता शुरू होते ही खूबसूरत वादियों का नज़ारा सामने था| घने देवदार, चीड़, ओक, सेब और अन्य दरख़्तों का जंगल..... दरख़्तों की डालियों से आँख मिचौली खेलती पहाड़ों पर जमी बर्फ़| अभी बर्फ़ देख ही रहे थे कि रास्ते के दोनों ओर बर्फ़ दिखी..... फिर रास्ता भी बर्फ़ से पटा नज़र आया| खुशी की इन्तिहा न थी| सोचा भी न था कि रात स्नोफॉल होगा और चेलेला पास का हर दरख़्त, सड़क बर्फ़ से पट जाएँगे| छै: हज़ार मीटर की ऊँचाई पर ही हम बस से उतर गये| अब आगे ट्रैकिंगका होश किसे था जब जन्नत यहीं मिल गई थी| अद्भुत नज़ारा..... पत्ते-पत्ते, बूटे-बूटे पर बर्फ़ का साम्राज्य| मैंने न्यूज़ीलैंड, स्विट्ज़रलैंड में भी बर्फ़ देखी पर इतनी खूबसूरत बर्फ़ नहीं| सब बर्फ़ के गोले बना-बना कर एक दूसरे पर उछालने लगे| बर्फीली ऊँचाईयों पर चढ़ती, गिरती, हँसती खिलखिलाती सभी महिलाओं ने जी भर कर बर्फ़ का मज़ा लिया| कैमरे हर भंगिमा को कैद कर लेने की होड़ में थे| स्नोमैन भी बनाया गया| सोचती हूँ कितना कुछ दबा रहता है हमारे दिल में जो मौका पाते ही बाहर निकल समूची कायनात को अपनी आँखों में बसा लेना चाहता है| सड़ककी बर्फ़ पर बस के पहियों के निशान पर मैं आहिस्ता-आहिस्ता डग भरने लगी| कारवाँ भी साथ चल पड़ा| बस भी साथ साथ चलने लगी| रककर बर्फ़ की चादर पर हमने आलू की सब्ज़ी और पूड़ी का मज़ा लिया| शायदनज़ारों का असर था नाश्ता लाजवाब था| सबके चेहरे पर ख़ुशी..... आँखों में कितना कुछ भर लेने की बेताबी और यह एहसास भी कि जैसे-जैसे नीचे उतरेंगे बर्फ़ का ये साम्राज्य छूटता जाएगा| तेज़गानोंकी धुन पर सब नाचने के मूड में आ गये| चेलेला का जंगल हमारीखिलखिलाहटसे लबरेज़ था| पत्तियोंने चौंककर हम पर बर्फ़ गिराई|

चेलेला पास की चढ़ाई उतरकर हम टाइगरस नेस्ट आए| मैंसड़क के किनारे खड़े होकर देख रही थी| १५०० मीटर की ऊँचाई पर सामने पहाड़ पर टाइगरस नेस्ट को| यह हैंगिंग बौद्ध मॉनेस्ट्री हैजिसे ताकशंग भी कहते हैं| यहाँपहुँचना बहुत कठिन है हालाँकि कई पर्यटक ट्रेकिंग के द्वारा जाते हैं| ड्राइवरकर्माजोनेपाली था बता रहा था कि आठवीं सदी में बौद्ध गुरु जब ईश्वर के ध्यान में मग्न थे तो आसुरी ताक़तें उनका ध्यान भंग कर रही थीं| गुरु संतप्त थे, ध्यान कैसे करें? तब उनकी बीवी शेरनी बन कर उन्हें पीठ में बैठाकर सामने पहाड़ पर ले गई|बाद में वहाँ बौद्ध मॉनेस्ट्री बनी| बाईस देशों का भ्रमण कर मैंने यह तय पाया कि पूरा विश्व इस तरह की अविश्वसनीय कथाओं से भरा पड़ा है|

एक और मंदिर| मंदिर के प्रवेशद्वार पर पीपल का अद्भुत वृक्ष था जो एक चबूतरे पर था| उसकी पींड़ जैसे किसी ने लोहे के मोटे मोटे तार लम्बाई में जड़ दिए हैं| चारों ओर धम्मचक्र लगे थे| घुमाते-घुमाते हाथ दुख गये| अंदर पद्मसंभव की विशाल पीतल की मूर्ति थी| पद्मसंभव कमलनाल से निकले थे| नीचे फ़र्श पर लाइन से तिब्बती भाषा में लिखी पोथियाँ रखी थीं| सामने आसन..... जिस पर बैठकर बौद्ध धर्मावलम्बी इन पोथियों का पाठ करते हैं| पद्मसंभव को सेकेंड बुद्ध भी कहते हैं| बाहरकी दीवार हरी नीली ज़ालीदार थी|

रास्ते में रिंग्पांग्जांग फोर्ट देखते हुए हम पारो मार्केट गये| बारिश..... ठंडी हवाओं के बावजूद थकान नाम को नहीं| एक रेस्तरां में चाय नाश्ता कर और भी तरोताज़ा हो गए| होटल लौटते हुए सोचा कि आज भूटान में हमारी आख़िरी रात है सो क्यों न कैंपफ़ायर किया जाए| लेकिन होटल के मालिक ने तीन हज़ार रुपए में केवल लकड़ियाँ जलाने की बात कर हमारा इरादा डगमगा दिया| बिना लकड़ियों की आग के ही कैंपफ़ायर हुआ| नाच गाना, मिमिक्री, नाटक की एकल प्रस्तुति..... ग़ज़ब की कलाकार, ग़ज़ब का उत्साह| उस रंगारंग कार्यक्रम की समाप्ति डिनर के साथ हुई| पैकिंग, सुबह छै: बजे के आसपास एयरपोर्ट के लिए प्रस्थान..... उफ़..... पारो का कड़कड़ाता जाड़ा बालकनी से दिखते रात्रि सौंदर्य को आँखों से पी लेने में अपनी मौजूदगी का एहसास तो दिला रहा था पर आँखें अनझिप थीं| यही तो सौंदर्य की तासीर है|

भूटान छूट रहा है| एयरपोर्ट क़रीब आ रहा है| बासु ने सबको नाश्ते के डिब्बे दिए| रजत किसी से मिलना नहीं चाहता..... उसका मन भर आया है| वह खंभे से टिका खड़ा हमसेनज़रेंचुरा रहा है| छै: दिन का साथ जैसे छै: युगोंका साथ..... कोलकाता पहुँचकर सब अपने अपने ठिकानों की ओर अकेले लौट जाएँगे| यही तो मुसाफ़िरी है|

‘तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला’

संतोष श्रीवास्तव

१०१, केदारनाथ को. ओप. हा. सो.,

सेक्टर ७, चारकोप बस डिपो के पास,

कांदिवली(प.) मुम्बई-४०००६७

मो.- ०९७६९०२३१८८