यात्रा वृतान्त - मेरी साहित्यिक यात्रा Dr Nitin Menaria द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

यात्रा वृतान्त - मेरी साहित्यिक यात्रा

मेरी साहित्यिक यात्रा (यात्रा वृतान्त) ..................... 1

मेरी साहित्यिक यात्रा शीर्षक से मैं यहाँ एक यात्रा वृतान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह मेरी पहली ही साहित्यिक यात्रा रही और जिसकी कई अनमोल यादे मेरे जीवन में एक अमुल्य धरोहर बनी रहेगी। यात्रा 12 अप्रैल 2015 के उस कार्यक्रम की है जिसमें मेरी सांझा संकलन ’’अहसास एक पल’’ नामक पुस्तक का विमोचन समारोह था।

मेरी प्रथम कृति ’’कवि की राह’’ का विमोचन समारोह मेरे शहर उदयपुर में मेरे घर पर ही हुआ। इसके पश्चात मेरी रूची कविता के क्षैत्र में आगे बढ़ने की हो चली। फेसबुक पर कई मित्रों के शुभकामनाऐं संदेश प्राप्त होते रहे। इसी बीच मेरा श्री ऋषि अग्रवाल जी जो झुंझनु शहर राजस्थान से है उनसे फेसबुक पर सम्पर्क हुआ। श्री ऋषि जी अपने जीवन में साहित्य को बढ़ाने के लिए प्रयासरत थे। उन्होने मुझे उनके काव्य संकलन से झुड़ने को कहा। मैं उनके काव्य संग्रह से सहज ही जुड़ गया। उन्होने तीन काव्य संग्रह का संपादन कार्य किया।

राजस्थान के झुंझनु जिले में काव्य संग्रह के विमोचन समारोह हेतु आमंत्रण प्राप्त हुआ। मेरे मन में कई विचार उत्पन्न हुए कि मुझे समारोह में जाना चाहिए या नहीं। क्या मेरे परिवार वाले मुझे दूर यात्रा पर भेजेंगे या नहीं? जब कार्यक्रम तय हो गया और मन में इस अवसर पर जाने की प्रबल इच्छा जाग्रत हुई तो मैं अपने आपको रोक नहीं सका। कार्यक्रम के एक दिन पूर्व ही मैंने अपने माता-पिता से आज्ञा ली और मेरा यह निवेदन अभिभावक द्वारा स्वीकार किया गया। जिससे मेरा इस यात्रा पर जाना संभव हो पाया।

मैंनें कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर अपनी यात्रा सांयकाल से प्रारम्भ की। मेरे शहर उदयपुर से गंतव्य तक का सफर 650 किलोमीटर था और 12 घंटे की अवधी मुझे उस सफर के दौरान व्यतित करनी थी। यात्रा बस द्वारा की गई और मैंने टिकट द्वारा अपना मन चाहा स्थान खिड़़की वाली सिट पर आरक्षित करा रखा था। मैं बस प्रारम्भ होने के नियत समय से पूर्व ही पहूँच गया। कुछ देर पश्चात सभी यात्री के पहूँचने के उपरान्त बस प्रारम्भ हो गयी।

संध्या का समय हो चला था और मैं खिडकी वाली सिट पर था मुझे सांझ होने के नजारे स्पष्ट दिख रहे थे। सड़को पर वाहनो की बहुत भीड़ थी। लोग अपने घरो की और लौट रहे थे जैसा अक्सर संध्या समय होता है। आज मैं बस में शान्त बैठा था। सुर्यास्त का समय हो चला था आज के दिन की समाप्ति का ईशारा करता हूआ सुर्य अस्ताचल में डूब रहा था। मैंने भी बड़े भाव विभोर होकर उसे देखा और मन में सोचा कि कल का सूर्य एक नई उमंग के साथ निकलेगा और जिस कार्यक्रम में जा रहा हूँ वह निष्चित सफल होगा।

हमारा शहर उदयपुर चारो तरफ से अरावली पर्वत श्रृंखला से घिरा हूआ है। जब भी शहर से बाहर जाना हो तो इन बड़े-बड़े पर्वतो की चीरते हुए रास्तों का पार कर ही निकलना होता है। आज हमारा देष विकसीत हो गया है कई पर्वत जो रास्ते में थे उन्हे ध्वस्त कर बड़े-बड़े राजमार्ग निकाल दिये गये है लेकिन पहाड़ी रास्ता बड़ा नैसर्गिग लगता है। मेरे सफर का जो रास्ता जो एक राष्ट्रीय राजमार्ग न. 8 है उस पर कई बड़े पर्वत हमारे शहर की शान बने विद्यमान है। रास्ते में जिन पर्वतो के बीच से गुजरे वह चिरवा घाट सेक्षन कहलाता है। यह महज 5 किलोमीटर का रास्ता है। सामने की और से बड़े बड़े रंग बिरंगे ट्रक व ट्रेलर आ रहे थे। यह बहुत रोमांचक था। रास्ते में एक टनल से गुजरे वह सुंरग मन में कई स्वरों को प्रकट कर गई।

सांझ ढलने से बस में अंधेरा छाने लगा लेकिन सांझ को प्रभु को याद करने के लिए रोषनी या दीया जलाया जाता है इसके तहत बस में भी रंग बिरंगे बल्ब जल उठे। व्याकुल मन कुछ शान्त हुआ। मन में उमंग हो तो सफर कितना भी लम्बा हो गुजर ही जाता है। यह सफर जो एक साहित्यिक सफर था क्योंकि इस यात्रा का उद्देश्य एक साहित्यिक कार्यक्रम में सम्मिलित होना था। सफर में मेरा एक सच्चा हमसफर मेरी अपनी कृति ’’कवि की राह’’ पुस्तक मेरे साथ थी। पुस्तक वास्तव में एक सच्चे मित्र की भांती होती है जिसे आप से कभी कोई षिकायत नहीं रहती कि आप उसे पढ़ रहे है या नहीं? यदि पुस्तक आपके रूची की है तो आप अपने आप को रोक नहीं पायेगें। और मजे की बात तो जब कि आप द्वारा लिखित ही पुस्तक आपके हाथ में है तो उसे कितनी बार भी पढ़ने पर आपका मन कभी नहीं भरेगा।

ऐसा ही मेरे साथ मेरी यात्रा पर हुआ। मैंने अपनी कृति ’’कवि की राह’’ पुस्तक को अपने बैग से निकाली और पढ़ने लगा और अपनी ही रचनाओं में मग्न होकर डूब गया। सौ कविताओं के इस संग्रह को पढ़ते-पढ़ते मेरे सफर के दो घंटे आराम से बीत गये। इस दौरान मेरे कई अनुभव फिर से याद हो चले थे जिन्हे मैंने शब्दों में पिरोकर कविताओं में ढाला था।

सफर में अब भूख का अहसास होने लगा था। अक्सर राहगीर सफर में अपने साथ कुछ खाद्य सामग्री भोजन या चटपटा व्यंजन अपने साथ लेकर ही जाता हैं। मुझे भी यह ज्ञात था कि सफर रात्रि का है और रात्रि का भोजन मुझे कंही करना होगा। लेकिन इस मार्ग और इस गंतव्य स्थान शहर झुन्झनु का मेरा पहला ही दौरा था। अतः मन में ये प्रष्न था कि गाड़ी कहाँ और कब रूकेगी इसका सटीक समय ज्ञात करना आसान नहीं होगा। अतः मेने अपने घर से ही भोजन का पैकेट तैयार करा लिया था। काफी देर से मुझे मेरे भोजन के पैकेट से अचार और पराठों की खुश्बू आ रही थी जिस पर अब मेरा काबु होना मुश्किल लग रहा था। मैंने अपना रात्रि भोजन किया। भोजन के रसास्वाद में कुछ स्वाद कविताओं का मिला हुआ लग रहा था।

सच ही है कवि को हर समय अपनी कविताओं और रचनाओं का ही ख्याल आता रहता है। मैं मन ही मन कुछ सोचता रहा और मुझे सफर में मीठी नींद आ ही गई। सुबह जल्दी नींद खुली तो देखा सूरज की लालीमा आसमां में छाई हुई थी। मेरी बस के कुछ यात्री बस से उतर चुके थे और बहुत से यात्रि को अपने गंतव्य स्थान का इन्तजार था। सूरज की किरणें बढ़ते-बढ़ते मेरी मंजिल भी आ ही गई। जिस शहर झुन्झनु की यात्रा पर मैं था वह अजनबी शहर अब मेरे सामने था।

मैंने रिक्षा लिया और जिस पते पर जाना था वहाँ के लिए प्रस्थान किया। सुबह सुबह शहर की हलचल काफी अच्छी लग रही थी। देखते ही देखते रास्ता कट गया और मैं अब उस स्थान की तलाष में था जहाँ कार्यक्रम होने वाला था। मैंने सम्पादक महोदय जी को फोन लगाया और ताजुब की बात यह रही कि उन्होनें फोन उठाते ही कहा बरखुरदार सीधे चले आईये मैंने आपको देख लिया है। मैं भी कुछ कदम सीधे चलता गया और मुझे मेरे सम्पादक जी के दर्षन हो ही गये। और मेरे साथ चल रहे एक शक्स जिनसे में अनभीज्ञ था वह सम्पादक महोदय से बात कर रहे थे। उनकी मंजील भी वही थी। वह जनाब भी इसी कार्यक्रम में शरिक होने के लिए उसी रास्ते में थे जहाँ मैं रिक्षे से उतरा था। सम्पादक महोदय से बात होने के बाद हम दानों एक मुस्कान लिए एक दूसरे को देखने लगे। आखिर इस आत्मियता से मिलने पर दोस्ती हो ही गई। उनका नाम राजेन्द्र जी बहुगुणा था।

आखिर हम अपनी मंजिल पर पहूँच ही गये। हमारे लिए वहाँ ठहरने की उत्तम व्यवस्था थी। दस कमरों में आरामदायक गद्दे बिछे थे। कई साथी रचनाकार पहले आ पहूँचे थे तो कुछ रास्ते में आ रहे थे। इस साहित्यिक कार्यक्रम की उत्सुकता हर पल बनी हुई थी। वहाँ का माहौल बेहद खुबसुरत था। कई लोगो से वार्ता हूई। हर थोड़ी-थोड़ी देर में चाय की प्याली सामने आती रही। हमारा चेतन मन बना रहा।

हमने सम्पादक जी से कार्यक्रम के रूपरेखा की संक्षिप्त जानकारी ली और उनके सहयोग के लिए आगे बढ़े। सम्पादक महोदय बड़े खुषमिजाज व्यक्तित्व वाले थे। उन्होने वहाँ पहूँचे सभी रचनाकारों से परस्पर परिचय कराया। फिर क्या था सभी रचनाकार अपनी काव्य शैली में अपना परिचय स्वयं ही देने लगे। कोई मथुरा से तो कोई उज्जैन से था। कोई पानीपत से तो कोई दिल्ली से। चर्चा परिचर्चा होने लगी। वास्तव में यह साहित्यिक यात्रा देष की एकता एवं भाईचारे को प्रर्दर्षित करने वाली लगी। सभी के चेहरे प्रसन्न एवं खिले हुए लग रहे थे।

सभी इन्टरनेट की दूनिया से निकल वास्तव में मिल गये थे बड़ा अच्छा संयोग था। कार्यक्रम की तैयारी लगभग पुरी हो चूकी थी। हम सभी ने साथ में अल्पाहार का आनन्द लिया। कार्यक्रम स्थल धर्मदास भवन के सभागार में था। हम सभी वहाँ नियत समय पर पहूँच गये। मंच पूरी तरह से तैयार था। सभागार खुबसुरत साज-सज्जा से युक्त रचनाकारों के स्वागतातुर विद्यमान था।

कुछ ही पलों में सभागार सभी रचनाकार से भर गया और संक्षिप्त एवं अनुषासनात्मक परिचय चलने लगा क्योंकि कार्यक्रम प्रारम्भ होने वाला था। कार्यक्रम के अतिथिगण एवं दर्षकगण पधार गये और सभागार में शालीनता दिखने लगी। सम्पादक महोदय ने अतिथियों से सरस्वती के माल्यापर्ण का निवेदन किया। सरस्वती वंदना के साथ माल्यापर्ण हुआ। मच संचालनकर्ता सुश्री परि एम. श्लोक एवं श्री यष जैन ने अतिथियों के स्वागत के लिए रचनाकारों द्वारा माल्यापर्ण कराया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री केसरीकांत शर्मा, श्री मनोज मील, वैद्य श्री बी.एल. सावन, अध्यक्ष श्री रामचन्द्र तुलस्यान, विशिष्ठ अतिथि श्री राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, श्री सुरेन्द्र गुप्ता, जनाब जहीर मो. फारूकी थे सबका माल्यपर्ण द्वारा स्वागत किया गया।

कार्यक्रम की अगली कड़ी में सभी रचनाकारों का बारी-बारी से परिचय देते हुए माला पहनाकर स्वागत किया गया। मैं सभागार में ऐसा सम्मान पाकर अभिभूत हुआ।

कार्यक्रम पुस्तक विमोचन का होने से पूर्व में सांझा संग्रह के विमोचन के लिए अपने-अपने समुह के रचनाकारों को मंच पर बुलाया गया और अतिथियों एवं रचनाकारों ने विमोचन किया। जिन्दगी में पहली बार ऐसे कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। पहले ’समय की रेत’ कृति को विमोचन किया गया जो ऋषि अग्रवाल जी का एकल काव्य संग्रह था। उसके पश्चात ’अहसास एक पल’ सांझा संग्रह का विमोचन हुआ जिसमें मेरी 11 रचनाऐं सम्मिलित थीं। मैं एवं मेरे सभी साथी रचनाकार हम मंच पर साथ थे। पुस्तक का विमोचन हुआ। तालियों की गड़गड़ाहट गुँज उठी। हमारे समुह के बाद ’कदमों के निशान’ एवं ’हौंसलों की उड़ान’ सांझा संग्रह का विमोचन किया गया। ऐसे भव्य कार्यक्रम में सभी साथी रचनाकारों से मुलाकात का अवसर प्राप्त हुआ।

पुस्तक विमोचन के पश्चात काव्य पाठ प्रारम्भ हुआ। सभी रचनाकारो ने बारी बारी से काव्य पाठ की प्रस्तुती दी। इस दौरान वातावरण पुरी तरह काव्यमय हो गया। दर्शको एवं साथीयों ने हर शब्द को ध्यानपुर्वक सुना और काव्य पाठ की समाप्ती पर तालियों की खुब बौछार हुई। रचनाकारों की किसी ने तस्वीर ली तो किसी ने उनके हस्ताक्षर लिये। कुछ साथियों ने काव्य पाठ की ओडियो रिकार्डिंग भी ली। बहुत सारी यादें समा गई। मैंने अपनी बारी आने पर काव्य पाठ की प्रस्तुती दी और ऐसे सुनहरे अवसर को यादगार बना दिया।

काव्य पाठ के बाद अतिथियों ने अपनी अपनी बात रखी और कार्यक्रम की प्रषंसा के साथ सभी रचनाकारों की बहुत प्रषंसा करते हुए शुभकामनाऐं दी। साहित्यिक प्रेमी अतिथियों ने भविष्य में ऐसे और आयोजन कराने एवं स्वयं द्वारा मदद करने का भी सुझाव दिया। एक अतिथि द्वारा कहा गया कि आज में इस मंच से 50 रचनाकारों के सम्पर्क नं. ले जा रहा हूँ जो इन पुस्तकों में अंकित हैं जब भी आपकी याद आयेगी और मन बैचेन होगा और कविता सुनने की तृष्णा होगी मैं आपसे सम्पर्क कर कविता का आनन्द ले पाऊँगा।

कार्यक्रम के अन्तर्गत सभी रचनाकारों को स्मृति चिन्ह एवं प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया गया। यह साहित्यिक कार्यक्रम सदैव के लिए याद रहेगा। कार्यक्रम के अंतिम चरण में स्वरूची भोजन का प्रबन्ध किया गया था। भोजन के दौरान सभी मित्रों से वार्ता भी चलती रही और मुलाकात का अंतिम क्षण भी व्यतित होता रहा।

कार्यक्रम रात्रि 8.00 बजे समाप्त हुआ और सभी रचनाकारों के प्रस्थान का समय भी हो चला था। मुझे भी तय समय पर अपनी बस पकड़नी थी और मैंने सम्पादक महोदय से जाने की अनुमती ली और आत्मिय भाव से उन्होनें मुझे गले लगा लिया। विदाई का क्षण असहनीय होने से मैं क्षणिक भी नहीं रूक पाया और अपनी राह पर निकल गया। मैंने बस स्टेषन जाने के लिए आॅटो रिक्षा लिया और मुझे अपनी बस मिल गयी और टिकटी ले ली। बस में बैठने से पहले घर की याद आ ही गई। मैने घर के लिए वहाँ के प्रसिद्ध पेडे लिये।

पुरे रास्ते दिनभर के कथन दृष्य पटल पर घुमते रहे। सम्पादक महोदय से मैंने झुंझनु शहर के प्रसिद्ध वस्तु के बारे में पुछा तो उन्होनें बड़ा अच्छा जवाब दिया जो मुझे आज भी याद है उन्होनें कहा यहाँ का गणेष मन्दिर, बंधेज साड़ी, पेडे बहुत प्रसिद्ध है और उन्होनें कहाँ कि यहाँ का ऋषि अग्रवाल प्रसिद्ध है आप मुझे भी साथ ले जाइये।

रास्तें में आखिर सोचते-सोचते नींद आ ही गई और प्रातः जब आँख खुली तो मैं अपने शहर झीलों की नगरी उदयपुर में था।

सच में यह साहित्यिक यात्रा जीवन के यादगार पल में सम्मिलित हो गई।

पाठको का हार्दिक आभार।

-- नितिन मेनारिया

उदयपुर