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दो कहानियाँ

दो कहानियां---

(1)

चूहे

बच्ची और पत्नी की घटना को वहम मान कर उन्होंने टाल दिया था। पर जब उनके साथ भी लगातार तीसरी बार वही सब कुछ हुआ, तो उनका माथा ठनका। इस बार भी उसी तरह। उसी जैसा। इस बार तो नींद खुलने के बाद भी सब कुछ सही सही जानने के उद्देश्य से उन्होंने अपने हाँथ-पैर को ढीला छोड़ दिया था। खुर-खुर करता हुआ वह उनके पैर के अंगूठे पर जा चढ़ा। उसके बड़े-बड़े पैने नाखूनों की चुभन उन्होंने साफ़-साफ़ महसूस की। दो उँगलियों के बीच की मुलायम जगह पर उसने अपने नथुने से सही स्थान निश्चित किया। और अपने नुकीले दांत गड़ा कर धीरे-धीरे चमड़ी कुतरने लगा। कुतुर-कुतुर...कुतुर-कुतुर। धीरे-धीरे गोश्त तक। गुदगुदी के साथ जब एक तेज़ दर्द उनकी नसों में चढ़ने लगा, तो तिलमिला कर उन्होंने अपना पैर झटक दिया। वह उछला। और यह जा, वह जा।

इसके बाद अब उसकी पहचान के लिए उसे खोजना बेकार था। वह चूहा ही था। अब इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। तो क्या? वे फिर आ गए? और अब इस रूप में? उनके माथे पर बल पड़ गए। उनकी भृकुटियाँ तन गयीं। और डर की एक सिहरन उनकी नसों में करेंट की तरह दौड़ गयी। इनकी तादात क्या होगी? वे सोचने लगे।

पिता की कृपा पर पलने वाले इन चूहों ने तब से लेकर आज तक इस घर का साथ नहीं छोड़ा। वे शायद इस घर को अपना घर मानते हैं। पिता नियमित रूप से घर के राशन का एक हिस्सा उनके लिए निकाल देते थे। मानों वे घर के ख़ास सदस्य हों। यह उनका एक रूढ़ी ग्रस्त संस्कार था। एक मान्यता। वे कहते थे कि सभी जीव एक ही खुदा के बच्चे हैं। और अगर एक बच्चा कमाता है, तो यह उसका नैतिक कर्त्तव्य होता है कि वह औरों की जीविका भी चलाये। अगर एक सक्षम है, तो वह दूसरे को भी संबल दे। तमाम परेशानियों, उलझनों, उंच-नीचों और खिंचावों के रहते हुए भी पिता ने कभी भी उनके रहने पर कोई आपत्ति नहीं की। और न ही कभी अपना नियम तोड़ा।

पर उन्हें बचपन से ही पिता की इन बातों से काफी चिढ़ थी। वे मन ही मन कुढ़ते थे। ऐसा भी क्या दान-पुण्य? ऐसी भी क्या दया? इतनी महंगाई में इतना कीमती अनाज चूहों को दिया जा रहा है। उनको ऐसे अंधविश्वासों और मान्यताओं पर कत्तई विश्वास नहीं था। दूसरों को खैरात देने से कहीं खुद खाना मिलता है? पिता समझाते कि यह तुम्हारी दया नहीं, उनका हिस्सा, उनका हक़ है। वे अबोलते हैं, तो क्या हुआ? हैं तो जीव ही। पर कैसा हक़? कैसा हिस्सा? एक ही घर में रहने से क्या कोई हक़ कायम हो जाता है? वे सवाल करते। और पिता की सारी बातें एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते थे। पिता को वे परले दर्जे का बेवक़ूफ़ समझते थे। और चूहों को गन्दगी और बीमारी का कारण। बचपन की इसी अनिच्छा के कारण जब वे घर की सत्ता में आये, पुराने सारे नियम कायदे टूट गए। और खैरात (हक़) बटनी बंद हो गयी।

खाने की बंदी हो जाने के बाद भी उन्होंने अपना स्थान नहीं बदला। और न ही उनकी तादात में कोई कमी हुयी। थोड़े बहुत असंतोष के बावजूद उनका उछलना, कूदना और स्वच्छंद होकर घूमना पहले की ही तरह चलता रहा। दमन, कैद और छिट-पुट हत्याओं का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। काफी सोचा-विचारी के बाद पत्नी और मित्रों के साथ की एक बैठक में उन्होंने बहुत खुश होकर (मानों मैदान मार लिया हो) फैसला किया और घोषणा की---“गल्ले लोहे के ड्रमों में रखे जायें। लोहे की दीवारों के पीछे। और इस बात का ढोंग किया जाए कि घर में अन्न की भारी कमी हो गयी है।”

ठीक वैसा ही किया गया। पर कोई खास अंतर नहीं पड़ा। ठोस अनाज तो नहीं (सवाल ही नहीं उठाता), पर रोटी के टुकड़ों, भात के एकाध दानों और कागज़ की कतरनों पर उनकी गुजर बसर होने लगी। शायद उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके समझौता कर लिया था। हाँ, उनके व्यवहार में एक अंतर ज़रूर नोट किया गया। उनकी उदंडता पहले से काफी बढ़ गयी थी। और अब वे कपड़े और किताबें भी कुतरने लगे थे। कभी कभार तो उन्होंने अलमारी में रखे रुपयों को भी अपने पैने दाँतों का शिकार बना डाला। काफी नुक्सान हुआ। इस बार पहले से कहीं ज्यादा। उनकी चिंता फिर बढ़ी। और उनका राजनीतिक दिमाग फिर से इधर-उधर दौड़ने लगा। उन्होंने अपने कुछ ख़ास दोस्तों से सलाह मशविरा करने के बाद फ़ौरन ही एक आपातकालीन बैठक बुलाई।

इस बार संहार की नीति अपनाई गयी। और चूहों के विरुद्ध महासंहार अभियान शुरू कर दिया गया। और वह भी बड़े जोर-शोर से। चूहे मार दवाइयां रखी गयीं। और फंसाने का पिंजड़ा भी प्रयोग में लाया गया। कुछ बिल्लियां भी इम्पोर्ट की गयीं। कुछ बूढ़े, लालची और बेवक़ूफ़ चूहे फंसे ज़रूर। मारे भी गए। पर बाकी इस महादमन अभियान के डर से अपने दल-बल के साथ कहीं लापता हो गए। उनके हमले और उपद्रव बंद हुए। और पूरे घर में शांति छा गयी।

इसी खुशी से उन्होंने अपने पूरे परिवार के साथ चैन के उन्मुक्त ठहाके लगाये। और शैम्पेन की बोतल के साथ दोस्तों को एक बहुत बड़ी दावत दे डाली। पर अब पता चला कि वे डर कर भागे या गायब नहीं हुए थे। कुछ सोच कर ही वे कुछ दिनों के लिए चुप होकर छुप गए थे। कुछ दिनों की चुप्पी के बाद छिपे हुए चूहे जब बाहर निकले, तो उनके तेवर काफी बदले-बदले और उग्र थे। दिन भर लापता रहने के बाद अब उन्होंने रात के अंधेरे में हमला करना शुरू कर दिया। पहले उनकी छोटी बच्ची पर हमला हुआ। वे उसकी एक उंगली पर दांत गड़ा कर भाग गए। फिर पत्नी ने बताया कि उनको भी नोचा गया है। और आज तीसरी बार लगातार उनकी उँगलियों को भी कुतरने की कोशिश की गयी थी। उन्होंने अनुमान लगाया कि वे एक नहीं थे, बल्कि अनेक थे।

इस बात की किसी को आशा या दुराशा नहीं थी कि चूहे, जो कि शाकाहारी जीव होते हैं और धर्मानुसार जिनको गणेश जी की सवारी मान कर मान-सम्मान दिया जाता है, इस तरह से हिंसक और मांसाहारी हो जायेंगे। कोई मान ही नहीं सकता। उन्हें अपने दोस्तों से इस बात की चर्चा करते हुए भी काफी झिझक और शर्म महसूस हुयी। पर जिक्र करने पर पता चला कि उनके तमाम दोस्त भी आजकल इसी परेशानी से त्रस्त हैं। और उनके पूरे तबके पर इस प्रकार के हमले हो रहे हैं। रात के अंधेरे में वे चुपके से आते हैं। और नर्म चमड़ी या नमकीन गोश्त नोच कर फ़ौरन भाग जाते हैं।

सबने बैठ कर एक बहुत बड़ी बैठक की। खूब माथा पच्ची हुयी। और चूहों के इस नए तेवर के खिलाफ बड़े पैमाने पर युद्ध छेड़ दिया गया---समूल नष्ट करो अभियान। फैसला किया गया कि इस अभियान के प्रथम चरण में पहले उनके निवास स्थान को तोड़ा और नष्ट किया जाएगा। और फिर उनके खिलाफ सैनिक करवाई की जायेगी। फ़ौरन ही उनके बिलों की खुदाई शुरू कर दी गयी। एक दिन नहीं। दो दिन नहीं। यह खुदाई हफ़्तों तक चली। हालाँकि इस खुदाई के शुरूं में कुछ परेशानियाँ ज़रूर आयीं। पर बाहरी लोगों की मदद से उन्हें जल्दी ही सुलझा लिया गया।

पहली और सबसे बड़ी परेशानी थी मजदूरों की। उनका न मिलना। शहर का कोना कोना छान मारा गया। पर कहीं कोई भी मजदूर नहीं मिला। पता चला कि पिछले दिनों शहर की सफाई वाले अभियान में मजदूरों और गरीबों की सारी मलिन बस्तियां तो उन्होंने खुद ही उजड़वा दी थीं। झुग्गियों-झोपड़ियों को हटा कर सड़कों को चौड़ा किया गया था और आलीशान इमारतें बनीं थीं, यह तो उन्हें याद था। पर उन उजड़े हुए लोगों का क्या हुआ? वे कहाँ गए? वे जिंदा भी हैं या मर गए। उन्हें इस बावत कुछ भी नहीं मालूम था। वे अब कहाँ रह रहे हैं? कहाँ जा कर बसे हैं? किस हाल में हैं? इसकी कोई खबर, कोई रिपोर्ट उनके पास उपलब्द्ध नहीं थी। अपनी इस भूल और अदूरदर्शिता का उन्हें काफी अफ़सोस हुआ। झुंझलाहट भी हुयी। पर अब उस बावत कुछ भी नहीं किया जा सकता था। और अब ज्यादा कुछ सोचने का समय भी नहीं था। ठेके पर तुरंत बाहरी मदद ले ली गयी। और फिर, पैसों से क्या कुछ नहीं हो सकता? सब कुछ किया गया। और खुदाई का कार्य सफलता पूर्वक संपन्न हुआ।

खुदाई करने पर पता चला कि वे बिल नहीं एक मोटी सुरंग के अलग-अलग रास्ते थे। वह सुरंग धीरे-धीरे चौड़ी और अंधेरी होती गयी थी। काफी खुदाई के बाद जाकर उसमें प्रकाश नज़र आया। पर आश्चर्य! उसका अंत एक घने जंगल में था, जहां वे चूहे हजारों-लाखों की तादाद में मोर्चेबंदी के साथ डटे हुए थे। इतने चूहों को एक साथ, इस तरह से देख कर वे इतना डर गए कि बदहवासी में उनको सिर पर पैर रख कर वापस भागना पड़ा---बाहर से शीघ्र सैनिक मदद लेने के लिए।

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(2)

कुत्ते

हाँ वे कुत्ते ही थे, अलग-अलग नस्ल, आकार-प्रकार और रंग के कुत्ते, जिन्होनें पूरे गाँव का जीना दूभर कर रखा था।

वे कहाँ से आये थे? कब आये थे? उन्हें यहाँ कौन लाया था? वे एक एक करके आये थे या कि झुण्ड में? वे यहाँ खुद आये थे या उन्हें कोई यहाँ छोड़ गया था? किसी को भी उनके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। मालूम था तो सिर्फ इतना कि सबसे पहले कुत्तों के इस गिरोह को शिवालय के पंडित रामानुज शास्त्री और मस्जिद के मौलवी हाजी समशुल अहमद ने देखा था।

वह ब्रह्म मुहूर्त की बेला थी। दोनों अपने-अपने घरों से निकल कर रोज़ की तरह इकट्ठे दिशा फिराकत को जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि ये कुत्ते मस्त होकर घोड़ों की तरह गाँव की गलियों में धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। दोनों ने एक दूसरे को सवालिया निगाहों से देखा, मुस्कराए और बुदबुदाये---ये ससुरे कहाँ से आ गए?...ज़रूर रात में आये होंगे।

फ़ौरन से पेश्तर इन आगंतुक कुत्तों के लिए गाँव की पंचायत बुलाई गयी। और पंचों ने काफी सोच विचार का यह फैसला किया कि चूंकि ये कुत्ते रास्ता भटक कर यहाँ आ गए हैं। इसलिए इनको यहाँ चैन से रहने दिया जाय। इनको भगाने या इनको परेशान करने की कोई ज़रुरत नहीं है। जिस दिन इनको रास्ते या अपने ठिकाने की याद आ जायेगी ये खुद ब खुद यहाँ से चले जायेंगे। तब तक ये गाँव के मेहमान हैं। और इसी गाँव में ग्रामवासी बन कर रहेंगे।

पंचों की राय, आम जनता की राय। और वो भी पंडित और मौलवी की सिफारिश पर। इसीलिये किसी ने कोई सवाल नहीं किया। पूरे गाँव ने चुपचाप यह मान लिया कि ये कुत्ते सिर्फ कुत्ते नहीं, गाँव के खास मेहमान हैं। और मेहमान तो खास ऊपर वाले का रूप होता है। फिर क्या था, देखते ही देखते वे कुत्ते गाँव के जीवन में पूरी तरह से रच बस गए।

मौज से खाते और गलियों की धूल उड़ाते हुए दिन रात मस्ती करते। बच्चों के साथ खेलते। उनको खुश करने के लिए तालाब से पकड़ पकड़ कर मछलियाँ लाते। बड़े-बूढों के साथ आगे-पीछे दौड़ कर खेतों की चौकसी करते। भौंक-भौंक कर चिड़ियों को उड़ाते। गाँव की लड़कियों-औरतों के साथ बैठ कर उनका कहा अनकहा दुःख-दर्द सुनते। और प्यार से कूँ-कूँ करते हुए उनकी गोद में लेट कर उनका मन हल्का करते। जो मिलता वह चुपचाप खा लेते। और दरवाजे पर बैठ कर दिन-रात चौकीदारी करते।

पर अचानक ही न जाने क्या हुआ कि कुत्तों ने अपना असली रंग दिखलाना शुरू कर दिया। एकदम कुत्तापनी पर उतर आये। हमेशा घर की चौखट के बाहर रहने वाले वे मेहमान अब घर और आँगन में भी बेधड़क घुसने लगे। रसोई में रखे हंडिया-बासन में मुंह डालते। कितना भी दूध, रोटी, अंडा, दाल और मांस-मछली दो ससुरों की क्षुधा कभी शांत ही नहीं होती। जब देखो तब खाना। महक लगती नहीं कि लार टपकाते हाज़िर हो जाते। कभी-कभी तो हद ही कर देते। अचानक ही दूर से दौड़ते हुए आते और सामने थाली में रखा हुआ खाना मुंह में दबा कर भाग जाते। यहाँ तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शते। मौका पाते ही वे उनके हाँथ की रोटियां भी झपट्टा मार कर छीन लेते।

बात सिर्फ उनके भूख और लालच तक ही सीमित रहती तो लोग सब्र कर लेते। उनके बढ़ते हुए पेट की मांग को समझ कर गाँव वाले ज़रूर उनकी खुराक बढ़ा देते। पर उन्होंने तो अब चारों तरफ गन्दगी फैलाना भी शुरू कर दिया। पहले जब वे आये थे, तो गाँव के बाहर जाकर टट्टी पेशाब करते थे। और वो भी सिर्फ सुबह और शाम। पर अब न तो समय का ठिकाना रहा। न जगह का। उन्होंने गाँव की हर गली, हर चौपाल, दालान, घर-आँगन, खेत और खलिहान को ही अपना शौचालय बना लिया। और वो भी ऐसा वैसा नहीं छीछालेदरी वाला। गाँव में इतने बच्चे हुए। अब तो बच्चों के भी बच्चे हो गए। कई बार बच्चों ने भी खुले में इधर-उधर पैखाना किया था। पर किसी ने भी इस कदर गंध नहीं मचाई थी कि ठीक से कदम रख कर चलना ही मुश्किल हो जाये।

पर कुत्तों का यह झुण्ड इतने पर भी शांत नहीं हुआ। अब वह उद्दंड हो कर कूड़े और गोबर की खाद के ढेर में भी मुंह मारने लगा। जब देखो तब वे कूड़े के ढेर पर जा चढ़ते। और अपने अगले पंजों से ढेर को खोद-खोद कर सारी गन्दगी रास्तों पर उलीच कर रख देते। गहरे मुंह डाल कर गंदी और सड़ी हुयी चीजों को खोज निकालते। और खाने बैठ जाते। और एक-एक निवाले के लिए आपस में खांटी कुत्तों की तरह लड़ते, झगड़ते और झांय-झांय कर के गाँव वालों का राह चलना मुश्किल कर देते। शुरू-शुरू में तो गंदी चीज़ों का उनका यह भोज कार्यक्रम या तो कूड़े के ढ़ेर के पास चलता था या फिर खेतों के पास किसी पेड़ के नीचे या गली के मुहाने पर।

लेकिन ज़ल्दी ही उनका यह सामूहिक भोज निहायत ही व्यग्तिगत भोजन में तब्दील हो गया। कुत्ते न जाने कहाँ से मरे हुए जानवर का कोई अंग या महिलाओं द्वारा इस्तेमाल किये हुए खून से लथपथ कपड़े या मरी हुयी कोई चिड़िया ले आते। और किसी के घर में चारपाई के नीचे घुस कर बड़े चाव से चटकारे ले-ले कर खाते। इससे घरों में गन्दगी तो फैलती ही घर वाले भी बुरी तरह से घिना जाते। बच्चे और लड़कियां तो उल्टी कर-कर के बेदम हो जाते। धीरे-धीरे कुत्तों और उनकी कुत्तापनी को लेकर गाँव वालों में रोष फैलने लगा। और हर शख्स यह चाहने लगा कि बहुत हो गयी खातिरदारी, अब तो इनको डंडे मार मार कर भगा देना चाहिए।

सबने मिल कर यह फैसला किया कि फ़ौरन पंचायत बुला कर इन कुत्तों को गाँव से बाहर खदेड़ने का अभियान चलाया जाए। नहीं तो, वह दिन दूर नहीं जब इनके कुत्तापनी के कारण गाँव में रहना मुहाल हो जायेगा। और अगर यही हाल रहा, तो ये जल्दी ही कटखन्ने भी हो जायेंगे। और तब एक-एक कर के सबको कुत्ता काटे की सूई लगवाने के लिए शहर के अस्पताल भागना पड़ेगा। पर इससे पहले कि गाँव की पंचायत बैठे और पंच परमेश्वर ग्राम हित में कोई फैसला लें, एक ऐसी घटना घटित हो गयी जिसके बारे में कभी किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था।

उस दिन अलस्सुबह जब पंडित रामानुज और मौलवी समशुल इकट्ठे हंसते ठिठोली करते हुए दिशा फिराकत से लौटे, तो देखा कि कुत्ते तो हरमपन की सारी हदें पार कर चुके हैं। कुछ कुत्ते तो मंदिर के प्रांगण में इत्मीनान से बैठ कर एक पवित्र जानवर के मांस का टुकड़ा खा रहे हैं। और कुछ कुत्ते मस्जिद के आहाते में बैठ कर एक अपवित्र जानवर के गोश्त की बोटियाँ चबा रहे है। फिर क्या था? क्रोध से उनकी भृकुटियाँ तन गयीं। उन्होंने एक दूसरे को देखा। मुस्कुराये कि नहीं, यह तो कोई नहीं देख पाया। पर फ़ौरन ही गाँव की पंचायत बुलवाने का फैसला किया गया।

पर इस बार एक नहीं, दो अलग-अलग पंचायतें हुईं। एक में आग उगला गया, तो दूसरे में धधकता लावा। गांववालों की भावनाओं को इतना भड़काया गया कि लोग विवेकहीन हो गए। किसी ने भी यह सोचने की कोशिश नहीं की कि आखिर इन कुत्तों के पास ये मांस के लोथड़े आये कहाँ से? और अगर ये सिर्फ टुकड़े हैं, तो बाकी समूचे जानवर गए कहाँ? कहाँ कटे? कौन इन्हें यहाँ लाया? और किसने उनको इन कुत्तों को दे दिया? सत्य की जानकारी या तो कुत्तों को थी या फिर उन मारे गए जानवरों को। पर सत्य की खोज करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई. और देखते ही देखते सत्य की जगह अफवाहों ने ले ली.

और फिर गाँव में एक ऐसी आग लगी जिसने सब कुछ जला कर राख कर दिया। लोग दरिंदें बन गए। एक दूसरे के जानी दुश्मन। खून के प्यासे। फिर क्या था? सदियों से चला आ रहा भाईचारा, रिश्ता और बंधनों का रेशमी ताना बाना पलक झपकते ही लूट-पाट, आगजनी, बलात्कार और लाशों के ढेर में तब्दील हो गया। और गाँव बन गया एक और नोवाखाली...एक और अमृतसर...एक और लाहौर...एक और भिवंडी...एक और मेरठ, गोधरा, भागलपुर और मुजफ्फरनगर!!

उस पूरी रात चाँद अपनी बेबसी पर छाती पीट-पीट कर रोया था। और अगले दिन का सूरज भी जब निकला तो पूरी तरह ग़मगीन और निस्तेज था। समूचे गाँव में अभी भी हर तरफ मातम पसरा हुआ था। खून के धब्बे। उजड़े हुए घरों से निकलता हुआ धुआं। और इंसानी जिस्मों के जलने की चिरांध। लेकिन कुत्ते नदारद थे। न तो वे दिशा फिराकत के लिए निकले पंडित और मौलवी को कहीं नज़र आये और न ही गाँव के बचे-खुचे जिंदा लोगों को। लेकिन वे गए कहाँ? और किस रास्ते से गए? वे खुद गए या कोई आकर उन्हें यहाँ से ले गया? न तो किसी ने कुछ देखा था और न ही इस बावत किसी को कुछ मालूम था।

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