काहे को दुनिया बनाई Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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काहे को दुनिया बनाई

काहे को दुनिया बनाई

अरविन्द कुमार

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काहे को दुनिया बनाई

राजकपूर की फिल्म ”तीसरी कसम“ यह गाना कई बार कई जगहों पर बड़ा सटीक बैठता है। ”दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, तूने काहे को दुनिया बनाई?“ तीसरी कसम राजकपूर का एक ड्रीम प्रोजेक्ट था। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी, शैलेन्द्र के गीत, शंकर जयकिशन का संगीत और राजकपूर व वहीदा रहमान की बेहतरीन अदाकारी। यह और बात है कि फिल्म रिलीज होते ही बाक्स—आफिस पर बुरी तरह पिट गयी थी। लेकिन राजकपूर और उनकी टीम ने हार नहीं मानी और न ही फिल्म की आत्मा से कोई समझौता किया। पर धीरे—धीरे मुहां—मुंही प्रचार से जब वह सही दर्शकों तक पहुँची, तो यकायक ही चर्चित होकर पुनर्जीवित हो उठी। आज भी इसे शैलेन्द्र और राजकपूर की बेहतरीन कृतियों में से एक माना जाता है।

बहरहाल, हमारे देश में जब भी चुनाव होने को होता है, तो राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की शतरंजी चालों और उठा—पटक वाले नूरा—दंगलों को देख कर यह सवाल स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाता है कि आखिर दुनिया बनाने वाले तूने काहे को दुनिया बनाई? इंसान बनाया तो बनाया, पर उनमें से कुछ के दिमाग को नेताई जीवाश्मों से काहे भर दिया? अच्छा भला इंसान नेता नेता का चोला धारण करते ही चालाकी की मशीन बन जाता है। और अपनी चालाकी में नटवरलाल से लेकर शकुनी और कौआ से लेकर लोमड़ी तक को पीछे छोड़ देता है। इंसानों के बीच से ही उभरता है और इन्सानों को ही धता पढ़ाने लगता है। बातें तो हमेशा भ्रष्टाचार मिटाने की करता है, पर मौका मिलने ही खुद भ्रष्ट रास्तों पर चल पड़ता है। हर दिल में प्यार और भाईचारा भरने की बातें कर के लोगों का विश्वास तो खूब जीत लेता है, पर बाद में बड़ी सफाई से उसी विश्वास की पीठ में खंजर घोंप देता है। अथ नेता चरितं। खास करके चुनावी बाज नेता की चाल, चलन और नीयत यही होती है।

यह दुनिया की वह विशिष्ट प्रजाति होती है, जो इस खूबसूरत धरती को जाति, धर्म, रंग, क्षेत्र, भाषा, बोली, लिंग और देश—प्रदेश की चौहद्दियों में बाँटने और इसे स्वार्थ, ईर्ष्या—द्वेष और नफरत के प्रदूषण से भरकर अंततः एक दमघोंटू वातावरण में बदल देने की हर संभव कोशिश करती है। खास करके तब तो और भी जब हमारे यहाँ लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए चुनावी कुम्भ और महा कुम्भ का आयोजन हो रहा होता है। हरबार इन कुम्भों में हर दल और हर पार्टी अपनी सारी राजनीतिक बिसातें जाति—बिरादरी और धर्म—संप्रदाय के इर्द—गिर्द इस तरह से बिछा देती हैं कि महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, और आतंकवाद सरीखे सारे जरूरी मुद्दे, जिनको लेकर निवर्तमान सरकारों को घेरा जाता है, गुम होकर नेपथ्य में चले जाते हैं। और हवा में तैरने लगते हैं आंकड़े, आंकड़ें और सिर्फ आंकड़े। जाति—धर्म के आंकड़ें। स्त्री—पुरुष के आंकड़ें। नए नए बने वोटरों के आंकड़ें। और चुनावी शोर—शराबे में हर तरफ सुनायी पड़ने लगता है———कितने मुस्लिम, कितने दलित, कितने महादलित, कितने अगड़े और कितने पिछड़े?

चुनावों के समय का माहौल वाकई बहुत गजब का होता है। राजनीति के धुरंधर जहाँ एक तरफ अपनी सियासी बिसातें बिछाने में मशगूल हो जाते है, वहीं सरकार बहादुर की तरफ से जनता के लिए अकस्मात ही छप्पड़ फाड़ कर सौगातों की बरसात होने लगती है। सड़कें साफ और गडढा—रहित हो जाती हैं। पाला बदलू नेताओं की कीमत आसमान छूने लगती है। उधर का भ्रष्ट इधर आते ही ईमानदारी का महान पुतला बन जाता है। माईक, कुर्सी, तम्बू—कनात, झंडों, टोपियों, शराब और वैध—अवैध हथियारों के व्यापारियों और भीड़—जुटाऊ ठेकेदारों की बांछें खिल जाती हैं। हार—जीत के समीकरण सेंसेक्स की लहरों की तरह हर पल बनने—बिगड़ने लगते हैं। टी वी चौनलों की खूब चांदी कटने लगती है। उनकी टीआरपी अचानक से बढ़ जाती है। ज्योतिषियों और सर्वेक्षण कराने वाली कंपनियों की दूकानें दौड़नें लगती हैं। बहस मुबाहिसों का बाजार अच्छा—खासा गर्म हो जाता है। हर आदमी एक्सपर्ट कमेंटेटर बन जाता है। हर नुक्कड़ पर कयासों का मजमा लगने लगता है। सट्टेबाजों के यहाँ लक्ष्मी की बरसात होने लगती है। सबसे मजेदार बात तो यह होती है कि कभी कभी सरकार और पार्टियाँ इन तमाम सर्वेक्षणों से इतना घबरा जाती हैं कि ओपिनियन पोल्स पर ही बैन लगाने की सोचने लगती हैं। क्योंकि वे सरकारें और पार्टियां जनता से नहीं, जनता के पल—पल बदलते हुए मिजाज से घबराती हैं।

अरविन्द कुमार