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पांच व्यंग्य रचनाएँ

पांच व्यंग्य रचनाएँ

(1)

वाकई अमेरिका महान है

आजकल अखबारों की खबरें पढ़ते ही वे चैंक जातें हैं---“ ऐं ! अमेरिका में भयंकर आर्थिक संकट।” और मेरे पास भाग कर चले आते हैं---“ये अखबार वाले भी न, कुछ भी छाप देते हैं। अब देखिये न अमेरिका को बदनाम करने के लिये हाँथ धो कर उसके पीछे पड गये हैं।”

अब चौंकने की बारी मेरी थी। यह तो मैं जानता था कि वे एक कैरियरिस्ट, दीन-दुनिया से बेखबर, कूप-मंडूक, आत्ममुग्ध, अन्धविश्वासी और दकियानूस किस्म के व्यक्ति हैं। पर वे इतने नादान होंगे, मैं बिलकुल नहीं जानता था।

वे एक अच्छे खासे कमाने वाले डाक्टर हैं। पर भूत-प्रेत से बहुत डरते हैं। यह जानते हुए भी कि सबका खून लाल होता है, वे जात-पात और धर्म-अधर्म के नाम पर इंसानी बँटवारे को सही मानते हैं। खुद हिन्दू हैं, इसलिए अन्य धर्मो के लोगों को साम्प्रदायिक मानते हैं। और हिन्दुओं में सिर्फ अपनी जाति और अपनी जाति में सिर्फ अपने गोत्र और अपने गोत्र में सिर्फ अपने खानदान और अपने खानदान में भी सिर्फ खुद को महान, जहीन और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।

मैंने कहा---“क्यों, क्या अमेरिका में आर्थिक संकट नहीं हो सकता?”

---“कैसे हो सकता है? वह एक विकसित और धनी देश है। दुनिया का सबसे अमीर देश!”

---“किसी ज़माने में ऐसा था। पर अब ऐसा नहीं है।”

---“क्यों?”

---“क्योंकि उसकी पूंजीवादी व्यवस्था अब एक जगह पर आकर फँस गयी है।”

---“लेकिन वहाँ अभी भी भरपूर अमीरी है।”

---“वहाँ गरीबी भी है। वहाँ भी हमारे देश की तरह छोटे-बड़े और ऊँच-नीच की काली व चैड़ी खाई है। वहाँ भी समाज में तनाव व कुण्ठा है। आत्महत्या की घटनायें वहाँ भी खूब होती हैं। वहाँ भी महिलाओं को दबाया और प्रताड़ित किया जाता है। वहाँ भी लूट-पाट, डकैती और बालात्कार आये दिन होते रहते हैं। और तो और वहाँ भी साम्प्रदायिकता का गन्दा जहर जनमानस में घुला हुआ हैं।”

वे झुंझलाये---“क्या बात करते हैं? अमेरिका में साम्प्रदायिकता? वहाँ यहाँ की तरह कट्टर मज़हबी लोग थोड़े ही रहते हैं, कि साम्प्रदायिकता फैलायेंगे?”

उनकी इस बात पर मुझे गुस्सा आ गया---“डाक्टर साहब, साम्प्रदायिकता के घिसे-पिटे और प्रचलित हिन्दुस्तानी अर्थों से बाहर निकलिए, तब समझ में आएगा। अमेरिका में न सिर्फ साम्प्रदायिकता है, बल्कि वह खुद पूरे विश्व में खास करके तीसरी दुनिया के देशों में साम्प्रदायिकता और आतंकवाद को निरंतर बढ़ावा देता रहता है। वहां भी काले और गोरों के बीच नफ़रत की अनेकों दीवारें खड़ी हैं। बताइए भला, अफ्रीकन-अमेरिकन और काले-गोरों के बीच बार-बार होने वाली झड़पें आखिर क्या हैं? और यह फर्ग्यूसन की घटना और उसकी प्रतिक्रिया में जगह-जगह भड़कने वाले हिंसक प्रदर्शनों को आप क्या कहेंगे? और इराक और अफगानिस्तान पर या फि़र आतंकवाद के बहाने किसी भी मुस्लिम मुल्क पर की जाने वाली सैनिक कार्यवाई को आप किस रूप में लेते हैं?”

मुझे लगा कि या तो वे मेरे तमतमाये चेहरे को देखकर खफा हो गयें हैं या फिर बहस को आगे बढ़ाने के लिए उनके पास कोई ठोस तर्क या तथ्य नहीं है। इसलिए बस धीरे से फुसफुसाये---“आप कुछ भी कहिए, भाई साहब, अमेरिका एक शक्तिशाली और अच्छा देश हैं।”

---“वह निश्चित ही एक शक्तिशाली देश है, पर वह अच्छा बिलकुल नहीं हैं। क्योंकि वह यह बिल्कुल नहीं चाहता कि तीसरी दुनिया का कोई भी देश कभी अपने पैरों पर खड़ा होकर उसके चंगुल से निकल भागे। जब भी कोई मुल्क अमेरिकी गुट से बाहर निकल कर अपने या अपने जैसों के बलबूते विकसित होने की कोशिश करता हैं, तो वह किसी न किसी प्रकार के षड़यन्त्र से उसको अपने चंगुल में फंसा ही लेता है। जैसा कि उसने वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान के साथ किया। और अगर वह इराक से युद्ध कर के इतनी बुरी तरह से पस्त नहीं हुआ होता, तो अभी तक वह यही सब कुछ सीरिया, ईरान और पाकिस्तान के साथ भी कर चुका होता।”

वे चूँकि चुप थे, इसलिए मैं भी चुप हो गया । हलाँकि मैं उनको यह बताना चाहता था कि आजकल अमेरिका भीषण संकट के दौर से क्यों गुजर रहा है? वहाँ खुले बाजार की अर्थव्यवस्था और नव उदार पूँजीवाद का मॉडल फेल क्यों हो गया है? मैं उनको यह भी समझाना चाह रहा था कि इससे वहां सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर क्या-क्या बन-बिगड़ रहा है? और अगर जल्दी ही वहां कोई ठोस व कारगर कदम नहीं उठाया गया, तो आने वाले दिनों में वहाँ गृहयुद्ध जैसी स्थिति हो सकती है। लेकिन मैं जानता हूँ कि वे मेरी बातें सुन तो लेंगे, पर मानेंगे नहीं। क्योंकि अमेरिका के ग्लैमर’ ने उनकी आँखो को चौंधिया ही नहीं दिया है, बल्कि अधिकांश लोगों की तरह उनके विचारों पर भी अपना वही मजबूत पंजा गड़ा दिया है, जिसके कारण जब तक अमेरिका हमारे पुट्ठे सहला नहीं देता, तब तक हम अपने आप को किसी लायक समझते ही नहीं।

पर शायद मेरी चुप्पी को उन्होंने मेरी हार मान ली। इसलिए मुस्कराते हुए उठे और बोले---“भाई साहब, आप कुछ भी कहिए, लेकिन अगर मेरा जुगाड़ बैठ गया, तो मैं तो अमेरिका जा बसूँगा। सुना हैं की वहाँ पर हिन्दुस्तानी डाक्टरों की बड़ी पूछ है।”

मुझे हँसी आ गयी। मैंने मजाक करते हुए कहा---“क्यों, अगर चीन या रूस जाने का चांस मिले, तो क्या वहाँ नहीं जाइएगा? अब तो वह भी अमेरिका की ही तरह.....”

मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा---“अरे छोडिए भी, वहाँ क्या रखा हैं? ना खाने को खाना, ना पीने को वो वाली दारू। और “उस” मामले में भी वहाँ अभी उतना खुलापन कहाँ हैं?” कह कर वे जोर से हँस पड़े। और मैं बस उनका मुँह देखता रह गया।

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(2)

मास्टर साहब और शिक्षा की ठेकेदारी

हालांकि शर्मा मास्टर साहब अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर पूरे इलाके के लोग आज भी उन्हें उसी इज्जत से याद करते हैं। क्या नेता, क्या मन्त्री, क्या डीएम, क्या सूबेदार, क्या इंजीनियर, क्या ठेकेदार, क्या सिविल सर्जन, क्या डाक्टर सबके लिये वे केवल एक मास्टर ही नहीं, परम आदरणीय गुरूजी हुआ करते थे। कहते हैं कि सूबे का मुख्यमंत्री भी उनको देखते ही सम्मान में हाँथ जोड़ कर खड़ा हो जाता था। मुझे अभी भी याद है, एक बार सरस्वती पूजा के अवसर पर जब विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय मुख्य अतिथि बन कर आये थे, तो उन्होंने बहुत ही गर्व से कहा था कि मैं आज जो कुछ भी हूँ, वह सिर्फ मास्टर साहब की वजह से हूँ। अगर इन्होंने मुझे उस दिन मारा न होता, तो आज मैं यहाँ न होता।

वैसे, मारा तो उन्होंने मुझे भी था। और वह भी एक बार नहीं, कई-कई बार। पर वाइस चांसलर की तो छोड़िये, मैं तो किसी स्कूल का कोई छोटा मोटा मास्टर भी नहीं बन पाया। और सिर्फ कागजों को काला कर कर के किसी तरह से दिन गुज़ार रहा हूँ। और सिर्फ मैं ही क्यों, तब उनका बेटा गुल्लू और बाकी के अन्य गदहे भी थे, जिनको मास्टर साहब घोड़ा नहीं, तो कम से कम खच्चर तो बनाना ही चाहते थे। पर जैसी कि कहावत है, अगर हर कुत्ता तीरथ यात्रा करने चला जायेगा, तो कूड़े के ढेर में से हड्डियाँ ढूँढ़ ढूंढ कर चाभेगा कौन? और यह भी कि मुर्गी चाहे मिट्टी के ढेले पर कितना भी बैठ जाये, उससे चूजा थोड़े ही निकल आएगा।

बहरहाल, अभी पिछले दिनों जब मैं मास्टर साहब के घर की तरफ से निकल रहा था, तो चौंक गया। उनका पुराना, प्लास्टर उखड़ा और जर्जर मकान एक नयी नवेली कोठी जैसा लग रहा था। रिन्यूवेशन और पेंट-सेंट के बाद उसका पूरा नक्शा ही बदला हुआ था। नया गेट। नया गेटअप। चमचमाती नयी कार। और गेट पर वर्दी धारी सिक्योरिटी गार्ड। मुझे उत्सुकता हुयी, सो मैं अन्दर चला गया। उनका बेटा कई प्रतिष्ठित से दिखने वाले लोगों के साथ बैठा हुआ कोई ज़रूरी मीटिंग कर रहा था। सिर से लेकर पाँव तक उसका भी हुलिया काफी बदला हुआ था। वह गुल्लू नहीं, कोई गुल्लू सेठ लग रहा था। मुझे देखते ही उसने उठ कर मेरा स्वागत किया। और जल्दी ही उन लोगों से फुर्सत ले ली।

---क्या गुल्लू? कोई लाटरी-वाटरी लग गयी है क्या?

---नहीं यार, लाटरी नहीं, मुझे शिक्षा विभाग का ठेका मिल गया है।

---ठेका? किस चीज़ का?

---हर चीज़ का।

---मतलब?

---पूरे सूबे के हर स्कूल में किताबों, कॉपियों से लेकर टीचरों को सप्लाई करने तक, हर चीज़ का ठेका। और मिड-डे मील का भी। अब तो तुम्हारी भाभी भी एक टीचर बन गयी है।

---भाभी? टीचर? पर मास्टर साहब तो कहते थे कि वह कुछ ख़ास पढ़ी-लिखी नहीं है।

---हाँ, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? शिक्षा की ठेकेदारी में डिग्री-डिप्लोमा हासिल करना कौन सा मुल्श्किल काम है? अब वह बाकायदा नर्सरी टीचर है। घर बैठे तनख्वाह उठा रही है।

---घर बैठे? मैं कुछ समझा नहीं।

----रजिस्टर में तो नाम उसका चढ़ा है। पर हमने अन्दर खाने में उसकी जगह एक काबिल पढ़े-लिखे लड़के को ठेके पर लगा रखा है। दो हज़ार रुपये लेकर पढ़ाता वह है और तनख्वाह मेरी बीबी उठाती है। ऊपर वालों को देने-दिवाने के बाद भी अच्छे खासे पैसे घर आ जाते हैं। इसे सिर्फ महीने के आखीर में या कभी-कभार अधिकारी-मंत्री-सचिव के दौरे के समय स्कूल जा कर दस्तखत आदि करना पड़ता है। वैसे तुम क्या कर रहे हो आजकल? अगर चाहो, तो तुम भी मास्टरी कर लो।

---पर यार मास्टर साहब तो, शिक्षा को एक मिशन मानते थे। पवित्र पेशा।

---इसीलिये, तो खुद पूरी ज़िंदगी सुदामा बने रहे और हमको भी बनाते रहे। अब देखो न, अपनी कुल जमा-पूंजी से वे मात्र यह घर बनवा पाए थे। और बस एक लम्ब्रेटा स्कूटर। अब जमाना बदल गया है। मैं भी बदल गया हूँ। समय के साथ चल रहा हूँ। आज मेरे पास गाड़ी है। बंगला है। बैंक बैलेंस है। सरकार में मेरी पूछ है। चाहे किसी की भी सरकार हो, मैं आज जिसको चाहता हूँ सरकार उसी को प्रिंसिपल, डाइरेक्टर और सचिव बनाती है। पर पिताजी के पास क्या था?...क्या उनके पास था ऐसा रुतबा? यह सब कुछ?...पूरी ज़िंदगी तो बेचारे रूखे-सूखे सम्मान को लेकर रूखी-सूखी खाते रहे। और हमें भी वही सब खाने के लिए मज़बूर करते रहे। इसीलिये अब मैंने शिक्षा को एक सही अर्थ-दाई पेशा बना दिया है।

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(4)

मैं, वह और बैताल

उस निपट निर्जन पार्क के उस एकाकी पेड़ के नीचे बनी हुयी उस बेंच पर हम दोनों बड़ी देर से चुपचाप बैठे थे। हम दोनों में से किसी को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या बोलें, क्या बतियायें? यह हम दोनों की पहली डेट थी। और हम दोनों को बड़ी मुश्किल, तिकड़म और जुगाड़ के बाद उस पार्क के उस सुनसान हिस्से में पनाह मिली थी। इसलिए हम दोनों यह कत्तई नहीं चाहते थे कि सिर्फ मौसम, महंगाई, इबोला, राजनीति और कूटनीति पर बातें करके अपने अपने हिस्से के उस कीमती समय को बर्बाद करें।

हम अब तक कई कई बार एक दूसरे से फार्मली यह पूछ चुके थे---“और कुछ सुनाओ।” और जवाब में भी हम एक दूसरे को मुस्कुराते हुये फार्मली यही कह चुके थे---“मैं क्या सुनाऊँ? तुम ही कुछ सुनाओ।” पर न वह कुछ सुना पा रही थी। और न मैं। हालाँकि हमारे तन-मन में सुनने सुनाने को ढेरों बातें थीं, जो उमड़-घुमड़ कर लगातार बाहर आना चाह रही थीं। पर शर्मो-हया ने हमारे जुबान, आँखों और हांथों को जबरन रोक रखा था। और हमारी संकोची चुप्पी में लिपटा हुआ समय बड़ी तेज़ी से बीतता जा रहा था। क्या आज का दिन ऐसे ही बेकार जायेगा? मैंने सोचा। और जैसे ही मैंने उसका हाँथ पकड़ कर चूमने की कोशिश की, वहां जोर की एक गर्जना हुयी। और एक भयानक-सा अट्टहास गूंजा। इससे पहले कि हम कुछ सोच-समझ पाते एक विशालकाय प्राणी हमारे सामने प्रगट हो गया---“रुको। तुम ऐसा नहीं कर सकते।”

मैंने पूछा---“क्यों भला? ...मुझे इस तरह से रोकने वाले तुम हो कौन?”

पूछने को तो मैंने पूछ लिया। पर फ़ौरन डर भी गया कि कहीं वह किसी मॉरल पुलिसिंग गिरोह, दल, वाहिनी और सेना का प्रमुख तो नहीं? मैंने फ़ौरन अपनी निगाहों से उसके व्यक्तित्व और उसके चारों तरफ के परिवेश का जायजा लिया।

उसने भी शायद मेरी चिंता भांप ली थी---“डरो मत वत्स, न तो मैं कोई सांस्कृतिक ठेकेदार हूँ। और न ही प्रेमी-युगलों की पार्क पिटाई करने वाले किसी ब्रिगेड या खाप का मुखिया। मैं एक बैताल हूँ। और इसी पेड़ पर रहता हूँ। जिसके नीचे बैठ कर तुम अपनी इस नयी-नवेली प्रेमिका से कुछ लप्पो-झप्पो करने की चेष्टा कर रहे थे।”

मैंने देखा कि मेरी दोस्त डर कर मुझसे चिपक गयी थी। मैंने पूछा---“आप चाहते क्या हैं?”

---“मैंने कहा न, मैं एक बैताल हूँ। और जो भी इस पेड़ के नीचे बैठ कर लल्लो-चप्पो करता है, मैं हमेशा उससे तीन सवाल पूछता हूँ। जो मेरे सवालों का सही-सही जवाब दे देता है, मैं उसके वारे-न्यारे कर देता हूँ। लेकिन जो मेरे सवालों का जवाब नहीं देता है, मैं उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ।”

---“और जो आपके इस क्वीज़ में भाग न लेना चाहे तो?” मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह पूछ बैठी।

---“यह तुम्हारे हाँथ में नहीं है, बालिके। अब तुम चाहो या न चाहो, इस पेड़ के नीचे इस सुनसान जगह पर बैठ कर जिस तरह से तुमने अपनी यह रोमांटिक प्रक्रिया आरम्भ की है, उससे अब तुम स्वयं इस क्वीज़ के प्रतियोगी बन गये हो। अब तो तुम्हें इसे खेलना ही पड़ेगा। नहीं तो, विवाह के पूर्व ही नहीं, विवाह के पश्चात भी तुम दोनों कभी चैन से प्यार नहीं कर पाओगे।”

---“तो पूछिए, क्या पूछना है?” मैंने डरते-डरते थोड़ी बहुत हिम्मत दिखलाने की कोशिश की। वैसे भी, डरे हुए इंसान को कोई भी स्त्री कभी पसंद नहीं करती। यह मैं जानता हूँ।

---“पहला सवाल---अगर महंगाई डायन सुरसा के मुंह की भाँति दिन पर दिन इसी तरह बढ़ती रही, तो तुम दोनों अपना घर-परिवार कैसे चलाओगे?”

---“सर, माफ़ कीजियेगा। घर-परिवार पैसे से नहीं, प्यार और मोहब्बत से चलता है। हम रुखी-सूखी खायेंगे, सादा पानी पीयेंगे और प्रभु के गुण गायेंगे। और क्या?”

---“वाह! क्या बात है? बैताल खुश हुआ।...अब दूसरा सवाल---कहा जा रहा है कि इस देश के शरीर में भ्रष्टाचार एक कैंसर की तरह फैला हुआ है। पर इस देश की कोई भी सरकार इस भ्रष्टाचार को समूल ख़त्म करने के लिए कभी भी कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाती? अन्ना जी आये और आनन-फानन में एक टूटा-फूटा लोकपाल विधेयक बनवा कर अंतर्ध्यान हो गये। अरविन्द आये। अरविन्द गये। अब फिर से वापस आने के लिए अपना रास्ता बना रहे हैं। पर कुल मिलकर नक्कारखाने में तुतुही बन कर रह गये हैं। फिर यह कैंसर ठीक कैसे होगा?”

---“सर, मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार को इस देश में पूरी तरह से लीगल कर देना चाहिये। अगर यह कानूनन वैध हो जायेगा, तो आप से आप कम ही नहीं, ख़त्म भी हो जायेगा। क्योंकि हमारे यहाँ ज्यादातर लोग कानूनी काम कम और गैर कानूनी काम करना ज्यादा पसंद करते हैं।”

---“वाह! क्या बात है? बैताल खुश हुआ।...और अब आख़िरी सवाल---अगर प्रधानमंत्री की आज्ञानुसार हर सांसद और हर विधायक अपनी मिलने वाली निधि से अपने गाँव और अपने क्षेत्र का विकास करने लगेगा, तब फिर वह क्या खायेगा ? क्या कमायेगा? और क्या ले जाकर विदेशों में जमा करेगा?”

---“सर, आप भी क्या बात करते हैं? सांसद और विधायक और विकास? अगर घोड़ा घास से दोस्ती ही कर लेगा, तो फिर खायेगा क्या? और अगर सरकार उनको रुला-धुला कर ऐसा कुछ करवा भी लेगी, तो भी वे सूख कर कांटा नहीं होंगे। और भी ढेरों सरकारी योजनायें हैं। और आप तो जानते ही हैं सर कि जितनी योजनायें, उतना ही कमीशान और उतनी ही कमाई। और अगर इनको रूखी-सूखी खाकर ही जिन्दगी गुजारनी थी, तो फिर वे पोलिटिक्स में काहे के लिए आते?”

---“वाह! क्या बात कही है? बैताल बहुत खुश हुआ।”

और वाकई बैताल बहुत खुश हुआ। उसने मेरी दोस्त के सिर पर हाँथ फेरा। उसको दूधो नहाओ और पूतों फलों का आशीर्वाद दिया। और भारी गर्जना और अट्टहास करते हुये पुनः पेड़ पर जा कर अंतर्ध्यान हो गया।

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(5)

पुतलों के इस खेल में

मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आयी कि लोग-बाग़ बात-बात पर पुतला क्यों फूंकने लगते हैं? कभी किसी नेता का पुतला फूंकते हैं, तो कभी किसी मंत्री का पुतला। कभी-कभी तो जब बहुत जोशिया जाते हैं, तो किसी का भी पुतला बना कर उसको फूंकने निकल पड़ते हैं। एक बार तो मैंने देखा कि यूनिवर्सिटी और कॉलेज के छात्र जुलूस निकाल कर खुशी-खुशी फीस वृद्धि का पुतला फूंक रहे थे। बड़ा और मोटा पुतला तो झट-पट फुंक गया, पर बाद में पता चला कि उनकी बढ़ी हुयी फीस बस ज़रा सी ही कम हुयी।

कुछ सचेत और समझदार से दीखने वाले लोग तो महंगाई और भ्रष्टाचार के पुतलों पर भी गाहे-बगाहे अपना हाँथ साफ़ कर लेते हैं। पुतले को पहले पीटते हैं, उसके साथ तमाम तरह की बदसलूकी करते हैं। और जब थक जाते हैं, तो उसे फूंक डालते हैं। वहाँ खड़े होकर हंसते-मुस्कुराते हुए अपनी-अपनी फोटू खिचवाते हैं। और कल के अखबारों में अपनी क्रातिकारी टाईप की छवि को देखने की लालसा लिए अपने-अपने घरों को प्रस्थान कर जाते हैं। भले ही न महंगाई कम हो और न ही भ्रष्टाचार ख़त्म हो। उनकी बला से।

पुतलों के इस फूंका-फूंकी वाले खेल में रावण तो बेचारा एक ऐसा परमानेंट पुतला है, जो हर साल बड़े ताम-झाम के साथ फूंका जाता है। पर फुंकने के फ़ौरन बाद से ही वह अगले साल फिर फूंके जाने के लिए फिर से जिंदा हो जाता है। लगता है कि उसको भी इस पुतलेबाज़ी के खेल में बड़ा मज़ा आता है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से लोगों को उसके पुतले को फुंकता हुआ देख कर आता है। लोग-बाग़ इस अवसर पर इतने जश्नी और भक्तिमय हो जाते हैं कि अपनी जान तक की बाज़ी लगा देते हैं। भक्ति रस में डूबे जमघट की धक्का-मुक्की, जेब कतरों के हाँथ की सफाई, शोहदों की छेड़-छाड़ और भगदड़ों से दो-दो हाँथ करते हुए वे पुतलई रावण को जलता हुआ देखकर एक उन्मादी और जय-जय कारी भीड़ में तब्दील हो जाते हैं।

अब तो खैर इस जश्न में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार भी पूरी तरह से शामिल हो गया है। और दोनों हांथों से मुनाफा बटोर रहा है। तुम पुतला फूंकते रहो, हम धन कमाते रहेंगे। इस पुतला फूंक और तमाशा देख के खेल में जन, धन और समय की हानि तो होती ही है, प्रदूषण फैलता है सो अलग। पर उसकी चिंता किसे है? न सरकार को और न ही लोगों को। यह वाकई एक गंभीर चिंतन और बहस का मुद्दा है। मेरी चिंता तो यह है कि जब इस देश का हर तीसरा बच्चा हर शाम भूखे पेट सो जाता है, तो क्या हमें दशहरा, दीवाली, ईद या बड़ा दिन को पैसा फूंक तरीके से मनाने का कोई नैतिक अधिकार है?

बहरहाल, इन दिनों एक राजनीतिक कुनबे के लोग आपस में ही एक दूसरे का आभासी पुतला जलाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। तू मेरा वाला जला। मैं तेरा वाला जलाता हूँ। और उनके बीच में फंसी हुयी जनता बेचारी भौंचक हो कर कभी इधर तो कभी उधर देख रही है। वैसे तो, वह इस नूरा-कुश्ती को खूब समझती है। और जानती है कि उनकी यह पुतलेबाज़ी सिर्फ स्टॉक रहने तक ही सीमित है। उसके बाद तो तेरा पुतला मेरा पुतला और मेरा पुतला तेरा पुतला होना ही होना है। पर अभी फिलहाल वह यह नहीं समझ पा रही है कि इस राजनीतिक प्रहसन का आनंद ले या कि अपना सिर पीटे। क्योंकि उसको यह अच्छी तरह से पता है कि पुतला राजनीति के इस खेल-खिलवाड़ से उसका नहीं, भला तो अंततः कुनबे का ही होना है। क्यों न हो भला ? बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? और जब दोनों एकसाथ बदनाम होंगे, तो क्या दोनों का एकसाथ नाम न होगा?

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