आओ लतिका घर चलें Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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आओ लतिका घर चलें

13.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 51, शब्द-संख्या 16,673)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

आओ लतिका घर चलें

प्रकाश मनु

*

545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

*

जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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ई-बुक की शक्ल में आने वाली मेरी नई पुस्तक है, ‘आओ लतिका घर चलें’। पुस्तक में मेरी ज्यादातर ऐसी कहानियाँ शामिल हैं, जिन्हें आत्मकथात्मक कहानियाँ कहना बेहतर होगा। ये ऐसी कहानियाँ हैं जिनके पात्र एकदम सच्चे और असली हैं और उनसे मेरा करीबी रिश्ता भी रहा। इनमें एक ऐसी कशिश है कि इन्हें पढ़ने के बाद पाठक खुद को इनके प्रवाह में बहता हुआ पाएँगे।

यों भी मेरी आत्मकथात्मक कहानियों को पाठकों की सर्वाधिक प्रशंसा और सराहना हासिल हुई। मेरी इन आत्मकथात्मक कहानियों को सराहने वाले पाठक कहाँ-कहाँ मिले, उनकी अलग-अलग ढंग की उत्तेजक प्रतिक्रियाएँ कैसी थीं, इसकी चर्चा शायद खुद एक कहानी बन जाए। हाँ, इन प्रतिक्रियाओं में एक बात आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती और साझी थी कि इनमें से सभी को लगा था कि ये कहानियाँ एकदम सच्ची हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम सच्चे हैं और ये कहानियाँ मेरी आत्मकथा के अनलिखे पन्नों में से चुपके-चुपके निकलकर आई हैं। शायद यही चीज थी जो मेरी कहानियों को औरों से अलगाती थी। इनमें बहुत-सी कहानियों के पाठकों का कहना था, “आपकी कहानियाँ कहानी-कला के लिहाज से एकदम कटी-तराशी नहीं हैं। उनका यही अनौपचारिक अंदाजेबयाँ और खुरदरापन हमें रास आता है।”

इस पुस्तक में मेरी पाँच बहुचर्चित कहानियाँ शामिल हैं—‘अपराजिता की वे आँखें’, ‘अथ कला-ड्रामा’, ‘जादू’, ‘आओ लतिका, घर चलें’ और ‘थैंक्यू सर’। ये सभी अलग-अलग मूड्स की कहानियाँ हैं। पर कहीं न कहीं एक सामान्य अंतर्धारा भी इनमें मौजूद है और वह यह कि इनमें से प्रायः हर कहानी में मेरी आत्मकथा के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं और इन पर अब भी पाठकों की इतनी ऊष्माभरी और अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं, कि सचमुच ताज्जुब होता है। और तब लगता है, एक लंबे अरसे तक ‘भूमिगत’ रही, अंदर ही अंदर बहती मेरी कथा-यात्रा अकारथ तो नहीं गई। यों यह बात अपनी जगह सही है कि ‘यह जो दिल्ली है’ और ‘कथा सर्कस’ उपन्यासों की जबरदस्त चर्चा के कारण मेरे बहुत-से निकटस्थ मित्रों-लेखकों का ध्यान इस ओर न जाता, तो यह कथा-यात्रा अभी तक भूमिगत ही रहती।

अलबत्ता, थोड़ा अतीत में झाँकने की इजाजत दें तो कहना चाहूँगा, पिछले कोई चालीस बरसों में मेरे टूटने-बनने, भटकने के दौरान चुपचाप लिखी जाती रहीं ये कहानियाँ मेरे दोस्तों की तरह हैं जो दुखी-सुखी क्षण में सीझे हुए चुपचाप साथ चले आते हैं। आँखों के चमकते विश्वास से अपना होना साबित करते हैं और महीनों-महीनों के गुमसुम एकांत में चले जाने पर भी, जो अपनी उपेक्षा के लिए कभी शिकायत नहीं करते। एक अजीब रिश्ता है, ऐसे रिश्ते जो अब ज्यादा नहीं रहे। कभी-कभी सोचता हूँ, क्या इसलिए अब जिंदगी में उतना मजा नहीं बचा, जो कभी बीच हादसों में टूटने, बिखरने धराशायी हो जाने के बावजूद आया करता था।

बहरहाल, एक तरह के ‘भयानक अकेलेपन’ और भीतर-भीतर विश्वासों के कुचले जाने के हादसों से भरपूर इन तमाम बरसों में ये कहानियाँ कंधे पर हाथ धरे मेरे साथ-साथ लंबे निर्जन पथों पर चलती रही हैं। कभी संकटों का निर्भय होकर मुकाबला करने के लिए फटकारती, तो कभी जिंदगी के बारीक दशमलव बिंदुओं के अर्थ खोलती-सुलझाती रही हैं। कभी चुपचाप पास बैठ धीमे-धीमे बतियाती, दुख हलकाती रही हैं। इनमें हादसे हैं। हादसों की तकलीफें हैं। गुस्सा है, तो मेरे कुछ एकांतिक मूड्स भी, जो शायद कहानियों के अलावा कहीं और इस कदर खुले ही नहीं।...घर हो, दफ्तर या फिर साहित्यिक महाप्रभुओं का हिंसक मुस्कानों भरा दंगल, हर जगह आप ‘मिसफिट’ हैं, क्योंकि आपको चेहरे उतारने, पहनने का खेल नहीं आता। यही दुख-दाह भरे हादसे न जाने कब, चुपचाप मेरी कहानियों में उतरते चले गए।

और यह भी सच है कि बेतरतीब कागजों के पुलिंदों, फाइलों, रजिस्टरों के अँधेरों को टटोलते, ये कहानियाँ इकट्ठी करते कहीं चकित भी हुआ कि कैसे भीषण बेरोजगारी और फिर छोटी-बड़ी नौकरियाँ पकड़ते-छोड़ते, शहर-दर-शहर भागते-भटकते भी, ये चुपचाप लिखी जाती रहीं। और जरूरी सामान में कुछ और गया न गया, फाइलों, रजिस्टरों का यह गट्ठर हर जगह मेरे साथ गया। मेरे लिए यह आस्था खुद में कोई छोटी चीज नहीं है। सारे सपनों के टूटने और विच्छिन्न हो जाने के बावजूद आखिर कोई न कोई सपना तो है जो हमसे लिखवाता है। खुद से बाहर उझक-उझककर दूसरे से मिलने को मजबूर करता है, वरना हमारे लिखने और जीने के भी मानी क्या हैं!

मेरी पसंदीदा कहानियों की इस पुस्तक पर पाठकों की खुली और बेबाक प्रतिक्रियाओं की मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

13 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

अनुक्रम

1. अपराजिता की वे आँखें

2. अथ कला-ड्रामा

3. जादू

4. आओ लतिका, घर चलें

5. थैंक्यू सर

1

अपराजिता की वे आँखें

प्रकाश मनु

*

“अंकल, यह भी कोई जीना है...ऐसे भी कोई जीता है! जिसके जीवन में कोई खुशी न हो, गिनाने के लिए कोई एक छोटी-सी खुशी तक नहीं, उसके जीने के मानी क्या हैं अंकल? मैं क्या करूँ, मुझे तो मौत तक नहीं आती। कई बार कोशिश कर चुकी हूँ, पर मेरे लिए तो न जिंदगी है, न मौत...?”

आगे उसका स्वर आँसू और हिचकियों में डूब गया था।

तेज आँधियों में डगमग-डगमग एक नाव।

हम सब स्तब्ध थे। जैसे आँखें फाड़े होने के बावजूद हम उन आँधियों के पार कुछ न देख पा रहे हों, जहाँ सब कुछ गर्दभरा और रक्तरंजित था। एक क्षण के लिए यह भी लगा था, जैसे अनजाने ही हमारे चारों ओर भयंकर गोलीबारी हुई हो और सब ओर चिथड़ा-चिथड़ा, रक्तरंजित लाशें। असहनीय दृश्य! एक औरत के भीतर कितना कुछ होता है। कितना बड़ा महाभारत! कितना भीषण, असहनीय कोलाहल भरा और खून से सना हुआ। कैसे-कैसे जतन से वह उसे छिपाए रहती है, और जब वह सब कुछ तोड़-फोड़कर बाहर निकलता है तो...

ध्वंस...! महाध्वंस...! इतिहास का मलबा। अजीब कटी-पिटी विद्रूप शक्लें। आँखें फाड़े, सभ्यों को मुँह चिढ़ाती।

हम सचमुच कुछ भी सोच या समझ पाने की हालत में नहीं थे।

हम यानी...? मैं। मेरी पत्नी सुनीता। अपराजिता के पिता मि. आनंद। माँ, भाई! और कमरे की हवा, जो इस बीच पसीज गई थी।

2

अपराजिता धार-धार आँसुओं में रोए जा रही थी। और वे आँसू कैसे तीखे, तल्ख थे, शब्दों से इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। बस, समझिए कि जैसे अभी-अभी तेजाब की बारिश हुई हो!...कि जैसे बरसों से बंदी उसका दुख सारे कूल-किनारे तोड़कर, फूट-फूटकर बह रहा हो।

मुझे कहीं हलका-सा ‘गिल्ट’ फील हुआ कि मैंने उसे छुआ ही क्यों? उस दुख को, जिसे उसने भीतर...इस कदर अँधेरे तहखानों में छिपाकर रखा था कि उसे भीतर ही भीतर दफन करने की कोशिश में उसका चेहरा प्लास्टर जड़ी किसी बिनपुती दीवार जैसा नीरस, जड़ और निर्भाव हो गया था।

और फिर अगले ही पल हलकी-सी खुशी भी हुई। इसलिए कि रो लेने के बाद उसके चेहरे पर काफी कुछ सहजता लौट आई थी। थोड़ी देर पहले का उसका बुरी तरह चीखना-चिल्लाना और ऐंठी हुई जुबान में किसी उन्मत्त की तरह जोर-जोर से भावावेश में बोलना अब थम-सा गया था।

इस समय कोई अपराजिता की बातें सुने, तो शायद ही उसे उसमें कोई असामान्यता नजर आएगी। लगेगा कि ये ऐसी लड़की की बातें हैं जो औरों से कुछ ज्यादा संवेदनशील है और किस कदर समझदार भी। एक ऐसी लड़की, जो केवल खुद के बारे में ही नहीं, खुद के बाहर भी सोचती है।

अभी-अभी उसने किसी प्रसंग में हिंदुस्तानी मध्यवर्गीय समाज के बारे में एक तीखी टिप्पणी की है कि—“ऐसा बहुत कुछ है जो हम सभी एक-दूसरे से छिपाते हैं और जानते सभी हैं कि छिपाते हैं। मगर बदलता कोई नहीं। इसी ‘हिप्पोक्रेसी’ और ‘डुअल करेक्टर’ ने मध्यवर्गीय समाज की बीमारी को बढ़ा दिया है और उसका रोग असाध्य होता जा रहा है, इनक्योरेबल...!”

मुझे शक हुआ, कहीं यह लड़की मध्यवर्गीय समाज के बहाने अपनी बीमारी पर टिप्पणी तो नहीं कर रही। एक गहरी, बहुत ही गहरी, सांकेतिक भाषा में! फिर लगा कि यह मेरा वहम है। पर उसकी बातें सुन-सुनकर यह जरूर लगता था और निश्चित रूप से लगता था कि उनके पीछे दुख का भीतर ही भीतर बन रहा बहुत बड़ा दबाव है।

उफ! कितना कुछ सहा होगा इस लड़की ने। और उस सहने ने ही उसे ऐसा बनाया! ऐसा घोर उन्मादी...अवसादग्रस्त, सिनिक और अर्धविक्षिप्त!

3

चलिए, थोड़ा पीछे लौट चलते हैं। शायद मुझे शुरू से ही कहानी सुनानी चाहिए थी।

सर्दियों का एक दिन। शायद फरवरी के अंत की बात हो। बड़ी सुबह मैं और सुनीता घूमने निकले हैं।

अचानक कुछ अजीब-सी आवाजों ने हमें चौंकाया। लग रहा था, कोई किसी को बेरहमी से पीट रहा है। नहीं, कई लोग किसी को पीट रहे हैं।

तेजी से हम वहाँ पहुँचे, तो पहले एक रिक्शा नजर आया, जिस पर लोहे के कुछ पाइप आड़े रखे हुए थे। फिर एक डरा हुआ, फटेहाल, दुबला-पतला बिहारी रिक्शा वाला दिखाई दिया, जिसे गालियाँ देते हुए, लातों और घूँसों से पीटा जा रहा था—घोर जंगलीपन से।

फिर अचानक ही उस दृश्य में एक फौजी जैसे लगने वाले चुस्त-दुरुस्त, संभ्रात बुजुर्ग व्यक्ति का हस्तक्षेप हुआ, जो आगे बढक़र रिक्शे वाले के साथ खड़ा हो गया। उसे पहले भी कई बार सुबह-शाम घूमते देखा था। पर आज...इस रूप में?

“क्यों मार रहे हो भाई? हद है! स्टुपिड, जंगली...! एक गरीब को मारते शर्म नहीं आती? खबरदार जो हाथ लगाया!” बंदूक की तरह सीधे तने हुए उस संभ्रांत व्यक्ति की आवाज सुनाई दी।

मगर वे लोग भी कम नहीं थे। खासे खाए-पिए, अघाए लगते थे। उन लोगों ने एक भयानक चमक के साथ एक-दूसरे की आँखों में देखा। और अचानक रिक्शे वाले को छोड़कर अब उन्होंने फौजी जैसे दिखते, मजबूत काठी के उस संभ्रात व्यक्ति को पकड़ लिया था।

“तू साले कौन होता है बीच में बोलने वाला? एक झापड़ पड़ेगा...समझे!”

मैं थरथरा गया। ऐसे शरीफ आदमी से भी ये शब्द बोले जा सकते हैं? लेकिन विनम्र दृढ़ता के साथ वह सीधा खड़ा शख्स यही कहता रहा, “क्यों...मैंने क्या गलत कहा? इस गरीब आदमी को मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? क्यों मार रहे हो इस बेचारे को? खुदा से डरो, खुदा से!”

“चल, अब तुझे देखते हैं! तू ज्यादा हमदर्द बनता है न!” कहते-कहते उन्होंने पास आकर उसे घेर लिया, जैसे अभी मारेंगे।

उस शरीफ आदमी को जैसे अब अपनी कमजोर स्थिति का भान हो चुका था। लेकिन फिर भी उस पर ज्यादा असर नहीं पड़ा।

“ठीक है, तुम मुझे मार लो, पर इसे छोड़ दो! याद रखो, गरीब के आँसुओं की मार बड़ी बुरी होती है। फिर इसने कोई जान-बूझकर तो तुम्हें मारा नहीं। चलते हुए रिक्शा में से कोई पाइप तुम्हें छू गया होगा, यही न! मगर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम इसकी जान ले लो।” वह अब पहले वाला रोबदाब छोड़कर जैसे उन नादान छोकरों को समझाने की आखिरी नैतिक कोशिश कर रहा था।

यही पल था, जब मैं और सुनीता वहाँ पहुँचे, “क्या बात है भाई?...इन्हें क्यों मार रहे हो? इनका क्या स्वार्थ था? ये तो सिर्फ समझा रहे थे कि एक गरीब को मारकर तुम्हें क्या मिलेगा।”

इस पर उलटे वे बिफर गए। और उनके निशाने की जद में हम भी आ गए।

“गरीब है तो क्या, एहसान है हमारे ऊपर कोई! मारेगा हमें? बड़े दिमाग खराब हो गए हैं इन भैन...के!”

उनमें से एक लाला किस्म का लड़का जो थोड़ा कसरती लग रहा था, अपनी ‘संस्कृति’ का परिचय दे रहा था।

“भाई, जान के तो इसने मारा नहीं। गलती से लग गया, तो जान ले लोगे क्या इसकी? ये साहब तो यही समझा रहे थे।...इसमें गलत क्या है भाई!” सुनीता ने समझाने की कोशिश की।

“जब आपको लगे, तब आपको पता चले! चले आए जाने कहाँ के पागलखाने से?”

अब वे लोग आँखें लाल करके हमारी ओर मुड़े। मैंने मि. आनंद से कहा, “आप जाइए, हम इनसे बात करते हैं।”

फिर तीन-चार लोग जो वहाँ दर्शक के रूप में उपस्थित हो गए थे, मि. आनंद को समझा-बुझाकर अपने साथ ले गए। तब तक रिक्शा वाला भी चुपके से निकल गया था।

उन हुड़दंगियों ने, हम पति-पत्नी पर एक अश्लील, अभद्र निगाह डाली और दो-एक गालियाँ बकने के बाद आगे चले गए।

हम मुड़े और घर जाते हुए देर तक मि. आनंद की चर्चा करते रहे। किसी गरीब के पक्ष में ऐसा नैतिक साहस आजकल दिखाता ही कौन है!

4

यही मि. आनंद थे—आर.डी. आनंद यानी रामजीदास आनंद। अपराजिता के पिता। (हालाँकि तब तक हम उनका नाम कहाँ जानते थे!) लेकिन ठहरिए, अपराजिता की कथा तो थोड़ा ठहरकर चलेगी। अभी मि. आनंद से अगली मुलाकातों और घनिष्ठता की कथा पहले कह लेने दीजिए।

मि. आनंद कौन हैं? इसका पता दो-तीन महीने बाद हमें लगा, जब एक दिन सड़क पर घूमते समय हमने उन्हें देखा और पुकार लिया। उन्होंने जरा हैरानी से हमें देखा, तो हमने कहा, “आपने उस दिन बहुत अच्छा काम किया कि एक गरीब रिक्शे वाले को बचा लिया, वरना वे लोग तो उसे बुरी तरह मारने पर उतारू थे! आप की ही हिम्मत थी कि आप भिड़ गए, नहीं तो गरीब की बात आज के जमाने में कौन करता है? गरीबी तो एक तरह से गाली ही है और आज की ‘ग्लोबल’ दुनिया में और बुरी गाली बन गई है। आज आदमी बेईमान से बेईमान बंदे को तो बर्दाश्त कर सकता है, पर गरीब को नहीं!...गरीब से सबको बदबू आती है।”

कुछ देर के लिए अचकचाकर उन्होंने हमें देखा, जैसे हलकी विस्मृति के धुँधलके से धीरे-धीरे उबर रहे हों! फिर एकाएक आँखों में चमक भरकर बोले, “अच्छा, अच्छा! हाँ, आप लोग भी तो थे उस समय। अब मुझे याद आ गया...सब कुछ!”

फिर जैसे उन्हें शब्द न मिल पा रहे हों, भीतरी उत्तेजना में बहते हुए बोले, “आपने तो...आपने तो एक ऐसा प्रसंग याद दिला दिया कि क्या कहूँ। वो दिन...वो दिन मेरे लिए भी कुछ अजीब ही था।”

लगा कि वह घटना एक बार फिर से उनकी आँखों के आगे घट रही है और वे उसके तमाम डिटेल्स पर एक बार फिर से गौर कर रहे हैं।

“असल में...पता नहीं, आपने गौर किया कि नहीं, वे लोग पिए हुए थे! थोड़ी-सी अंदर पेट में पड़ी हुई थी, वही बुलवा रही थी उनसे! लेकिन चलिए, उनका अपना जीवन है, हमारा अपना। सवाल यह है कि वो अगर नहीं बदल सकते, तो हम क्यों बदलें? आखिर हमारे भी कुछ उसूल हैं! हैं कि नहीं?”

मि. आनंद की आँखों में वही चमक आ गई जो शायद उन्हें मि. आनंद बनाती थी।

उसी दिन बातों-बातों में उनसे बड़े अनौपचारिक अंदाज में और बड़ी गरमजोशी से परिचय हुआ। मालूम पड़ा कि वे कभी भारत सरकार के स्टेटिस्टिक्स डिपार्टमेंट में बड़े अधिकारी थे और अब सेवामुक्त हैं। यह जानकर कि मैं दिल्ली के एक बड़े राष्ट्रीय अखबार में काम करता हूँ, उन्होंने ‘बल्ले-बल्ले’ वाले स्टाइल में कई पत्रकारों के नाम गिनाए जो उनके परिचित थे। इन्हीं में एक सूरजमल भी थे, जो उनके अच्छे परिचित और पारिवारिक मित्र थे। मि. आनंद का जब जयपुर तबादला हुआ था, तब उनका मकान सूरजमल के मकान की बगल में ही था। तब से उनसे हुई घनिष्ठता अब तक चली आई थी। इस कदर कि उनका नाम लेते-लेते मि. आनंद आनंदित हो उठते थे।

चलते-चलते उन्होंने हमारे घर का नंबर पूछा और बड़े ही इत्मीनान से कहा, “मैं आऊँगा कभी!”

5

फिर एक दिन मि. आनंद आए—अचानक ही! काफी विस्तार से और काफी जोशखरोश से उनसे बातें हुईं और उस दिन उनके व्यक्तित्व के तमाम पन्ने खुले। कुछ वे भी जिनका हमें हलका-सा अंदाजा तो था, पर...

बातों-बातों में उस रिक्शे वाले की चर्चा फिर से छिड़ गई, जिसे बचाने के चक्कर में उन्होंने ‘लाला’ किस्म के उन तमाम खाए-पिए, अघाए, बदजबान युवकों से पंगा लिया था। और जब हमने यह चर्चा की कि “साहब, आज के वक्त में गरीब या कमजोर की बात कहने वाला कौन है? सबको अपनी-अपनी पड़ी है!” तो मि. आनंद एक क्षण के लिए कहीं खो गए। फिर धीरे से उन्होंने बताया कि यह सब उनके लिए इसलिए अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि वे शुरू से महर्षि अरविंद के दर्शन से प्रभावित हैं। वे मानते हैं कि इंसानियत की सेवा के द्वारा ही ईश्वर की सर्वोत्तम भक्ति हो सकती है।

“यह तो...यह तो ठीक वही बात है जो हम भी सोचते हैं।” मैंने उत्साह से बताया। और सचमुच उसी क्षण लगा, मि. आनंद को जानने की शुरुआत तो अब हुई है। हम अभी-अभी उन्हें समझ पाए हैं।

और तब एक भारी-भरकम दुख की किताब के ऐसे पन्ने खुले, जिन्हें आदमी कभी-कभार ही, किन्हीं अपनों के आगे खोलता है। इसलिए कि जितने-जितने वे खुलते हैं, उतनी-उतनी ही उसकी आँखें खाली होती जाती हैं।

तब मालूम पड़ा कि मि. आनंद ने अपनी ईमानदारी के चलते, जीवन में काफी कुछ खोया, काफी कुछ बर्दाश्त किया है। और न सिर्फ उन्होंने, बल्कि उनके पूरे परिवार ने ही!

“और सच पूछिए तो, ‘खोना’ तो आसान लफ्ज है। वह खोना नहीं था। वह तो एक काली आँधी थी। बहुत विकराल काली आँधी, जो हमारा सब कुछ लील गई। हमारा सारा सुख...खुशियाँ, आई कांट टैल यू!” मि. आनंद सिर पकड़कर बैठ गए, जैसे भीतर हो रहे विस्फोटों से उन्हें सिर फट जाने का खतरा हो!

“लेकिन क्यों...क्यों, कैसे?” उत्तेजना में न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकला। मुझे शुरू से लगता था, मि. आनंद बहुत-कुछ भीतर छिपाए बैठे हैं। कुछ न कुछ ऐसा घटा है इनके साथ कि...

और तब खुला ‘महाभारत’ का एक नया चैप्टर—इमरजेंसी! पता चला कि इमरजेंसी मि. आनंद की यातनाओं का असली केंद्र है। इससे पहले उनका जीवन इतने अच्छे और संतुलित ढंग से चल रहा था कि उसकी स्मृति भी उन्हें डराती है।

“क्यों, इमरजेंसी क्यों?” मैंने जैसे किसी यांत्रिक चिड़िया की तरह टिटकारते हुए पूछ लिया। पता नहीं, होश कहाँ और क्यों गुम हो गया था।

“असल में मनु जी, अब अपने बारे में ज्यादा कुछ कहना तो अच्छा नहीं लगता।” मि. आनंद ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा, “बस, इतना समझ लीजिए कि मैं एक सख्त अफसर माना जाता था। इमरजेंसी में मुझसे कहा गया कि मैं अपने अंडर काम करने वाले कुछ कर्मचारियों की सी.आर. खराब कर दूँ! ‘पर क्यों...किसलिए? वे तो अपना काम बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं।’ मैंने जानना चाहा। तब मालूम पड़ा कि सी.आर. इसलिए खराब की जानी है, क्योंकि उनका कुछ खास तरह का ‘पोलिटिकल लिंक’ है...

“मैंने बिगड़कर कहा कि उनका क्या पोलिटिकल लिंक है, क्या उनकी विचारधारा है, यह आप जानें! पर जहाँ तक काम का सवाल है, मुझे उनके काम से कोई परेशानी नहीं है। बल्कि वे मेहनती और ईमानदार लोग हैं, लिहाजा उनकी सी.आर. खराब करना मेरे बस की बात नहीं है। मैं यह सब नहीं करूँगा, हरगिज नहीं।”

कहते-कहते मि. आनंद आवेश के मारे काँपने लगे थे।

मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा, मानो कहना चाहता होऊँ, ‘मि. आनंद आराम से, आहिस्ते से...!’ पर कहा मुझसे एक शब्द भी गया।

मि. आनंद ने थोड़ा सँभलने की कोशिश की, पर आवेश दबाने की कोशिश में उनकी आवाज थोड़ी लड़खड़ा गई। आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने खुद को साधा—

“मैं...मैंने आपको बताया, बड़ा सख्त अफसर माना जाता था और वे लोग अच्छी तरह जानते थे कि मुझे झुकाया नहीं जा सकता!...आप सुन रहे हैं न! तब उन लोगों ने एक अलग रास्ता निकाला—दे दनादन तबादले, दे दनादन तबादले! साल में दो-दो, तीन-तीन तबादले। आप अंदाजा लगाइए। इसमें हमें जो परेशानी उठानी पड़ी, वह तो थी ही, पर बच्चों ने सफर किया और उनका कॅरियर तो एकदम चौपट हो गया। इसलिए कि एक जगह से दूसरी जगह आप जाते हैं, तो वहाँ पढ़ाई का अलग ही सिस्टम होता है। उसे सीखने-जानने में ही इतना वक्त लग जाता है कि ढंग से पढ़ाई हो ही नहीं पाती। और जब तक ठीक-ठाक सीख पाएँ, तब तक फिर तबादला। वे लोग जानते थे मि. आनंद को ऐसे ही मारा जा सकता है!

“मेरी बेटी तो—अब आपको क्या बताऊँ, इसीलिए डिप्रेशन की शिकार हो गई। अब तो कहती है, जीने की इच्छा ही बाकी नहीं रही! बुरी तरह परेशान रहती है।”

कहते-कहते मि. आनंद थोड़े असहज हो गए।

“कितने बड़े हैं आपके बच्चे...?” पूछने पर पता चला कि लड़की अड़तीस की है, लड़का चौंतीस का। दोनों में से किसी का विवाह नहीं हुआ। “लड़की का हो नहीं सकता। और अब लड़का कहता है, बहन का जब तक न हो, मैं कैसे करूँ?” मि. आनंद पता नहीं बता रहे थे या बताते-बताते मुँह छिपा रहे थे।

“करते क्या हैं, कोई जॉब...?” ऐसा सवाल कि पूछते हुए मैं खुद डरा।

एक अप्रिय-सी चुप्पी। फिर उसे खुद ही तोड़ते हुए मि. आनंद ने बताया, “लड़के का प्रिंटिंग का काम है। और लड़की...?” मि. आनंद के मुँह से एक आह-सी निकल गई, “वैसे तो जीनियस है! पत्रकारिता में काफी काम किया है उसने, टीचिंग भी की है। कभी-कभी पेंटिंग्स वगैरह भी करती है, पर कोई गाइड करने वाला नहीं है! तो कुछ दिन तो जमकर काम करती है, फिर अपने आप धीरे-धीरे छोड़ देती है। कहती है, आजकल इच्छा ही नहीं होती, हर चीज की इच्छा ही मर गई है!”

आखिरी वाक्य कहते-कहते मि. आनंद की आवाज ही नहीं, उनकी आँखों की चमक भी जैसे बुझ-सी गई थी। मेरे हाथों को झपटकर अपने सख्त हाथों में दबोचकर बोले, “आप अगर उससे कुछ बात करके उसे गाइड कर सकें, उसमें लगकर कुछ काम करने की इच्छा जगा सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी आपकी।”

बड़ी मुश्किल से वे उस अनुरोध को गिड़गिड़ाहट में बदलने से बचाए हुए थे।

“और देखिए, मुझे तो इंट्यूशन हुआ है कि आपका मुझसे मिलना जरूर किसी अच्छे के लिए हुआ है। इसमें जरूर ईश्वर की ही कोई छिपी हुई इच्छा है! ईश्वर ने हमारे जीवन में आशा की कोई किरण भरने के लिए आपको हमारे पास भेजा है!”

मि. आनंद की आवाज फिर कँपकँपा गई।

कृतज्ञता! यह शायद कृतज्ञता जैसी ही कोई चीज थी, जिसकी वजह से उनकी आँखें नीचे झुक गई थीं।

“नहीं-नहीं, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैं तो एक मामूली आदमी हूँ, बेहद मामूली! आप शायद मुझसे जरूरत से कुछ ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं।”

उन्होंने आद्र्र आँखों से मुझे देखा। मेरे हाथों को फिर कसकर अपने हाथों में दबाया और बोले, “आप क्या हैं, यह आपको बताने की अब कोई जरूरत तो नहीं रह गई! आपसे दो-तीन मुलाकातों में ही मैं अच्छी तरह पहचान गया हूँ आपको! आपको हमारी मदद करनी ही होगी। आप समय निकालकर कभी हमारे घर आएँ...!”

6

उसके कुछ रोज बाद सुबह-सुबह मि. आनंद का फोन आया। उन्होंने पूछा कि दिल्ली में पत्रकारिता का कोर्स कहाँ से हो सकता है और क्या मेरी कहीं कोई जान-पहचान है?

मेरे जैसे एकांतप्रिय आदमी की जान-पहचान होने का सवाल ही नहीं था। मैंने उन्हें बताया और वजह पूछी कि वे क्यों जानना चाहते हैं?

मालूम पड़ा कि उनकी बेटी अपराजिता पत्रकारिता में कोई कोर्स करना चाहती है। यह भी पता चला कि उसने कोटा से पत्रकारिता का डिप्लोमा करना चाहा था, पर बीमारी के कारण वह उसे पूरा नहीं कर पाई थी। उसकी रुचि पत्रकारिता में है, तो यह डिप्लोमा करने से उसे काफी मदद मिल जाएगी।

“अगर आपकी मदद से वह यह कोर्स कर ले तो उसमें काफी आत्मविश्वास आ जाएगा। हो सकता है, उसके मन पर निराशा का जो बोझ है, वह उतर जाए। आप कृपया हमारे घर आएँ कभी! मुझे लगता है, मुझे आपकी जरूरत है! प्लीज...सर!” अपने अनुरोध का स्वर गाढ़ा करते हुए उन्होंने फोन रखा।

उसी शाम को मैं और सुनीता मि. आनंद का घर पूछते-पूछते उनके घर पहुँचे।

उस समय मि. आनंद घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी और बेटे से मुलाकात हुई। मैंने परिचय दिया तो उन्होंने कहा, “बैठिए...बैठिए, वे अभी दस-पंद्रह मिनट में आते ही होंगे।”

मि. आनंद की पत्नी और बेटे से बात हो रही थी। थोड़ी देर में एक दुबली, साँवली लड़की भी आ गई और हलके-से परिचय के बाद बातचीत में शामिल हो गई। हमें यह समझते देर न लगी कि यही अपराजिता है।

उसके चेहरे पर स्थायी रूप से रहने वाला एक आहत निराशा का भाव हमें सबसे पहले दिखा। और अंत तक यही हम पर हावी रहा।

यों उसमें और कुछ था भी क्या! थोड़ा आगे को झुका हुआ दुबला, साँवला शरीर, चेहरे पर हलकी विद्रूपता। एक चिड़चिड़ापन भी, जो उसके स्वभाव का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था।

“मैं प्रभात टाइम्स में हूँ।” मैंने झिझकते हुए परिचय दिया। फिर पूछ लिया, “क्या आप ही पत्रकरिता में कोर्स करना चाहती हैं?”

“देखिए, सोचती तो हूँ। फिर आप सजेस्ट कीजिए कुछ! आपका गाइडेंस मेरे लिए उपयोगी होगा। यों मैंने अ...अ...यहाँ के लोकल पेपर ‘शेरे हरियाणा’ का संपादन किया है कुछ समय तक...” कुछ टूटी-फूटी, आत्मविश्वास विहीन बातें।

“वैसे क्या लिखती हैं आप खासकर...?”

“सभी कुछ लिख लेती हूँ—रिपोर्टिंग, लेख, फीचर, कविताएँ, कहानियाँ। जब भी जिस चीज की जरूरत हो।”

“अरे!” मेरे मुँह से निकला, “ऐसा...?”

“अब जैसे आप ‘प्रभात टाइम्स’ की बाल पत्रिका ‘नवप्रभात’ में काम करते हैं तो आप अगर यह कहें कि हमारा पन्ना खाली है, आप जल्दी से हमारे लिए कविता या लेख या कहानी लिखकर दे दें, तो मैं लिख सकती हूँ। इस मामले में काफी अनुभव है मुझे।”

“किस तरह का अनुभव...?” अनचाहे ही मेरे मुँह से निकल गया।

“काम का अनुभव और क्या! आप तो पत्रकारिता में हैं, जानते ही होंगे मेरी बात का मतलब!” उसने थोड़ा बिगड़कर कहा।

फिर पता चला कि लोकल पेपर ‘शेरे हरियाणा’ के अलावा उसने दिल्ली के एक अखबार ‘जनमार्ग’ में स्ट्रिंगर का काम भी किया है, लंबे अरसे तक।

“और वहाँ का अनुभव?” मैंने जानना चाहा।

“पचास-सौ रुपए रोज के मिल जाते थे और बदले में मुझे जाने कहाँ-कहाँ तक दौड़ना पड़ता था।” वह थोड़ी आविष्ट हो चली थी, “आज फलाँ से इंटरव्यू, कल ढिकाँ से! फिर रिपोर्टिंग। कहीं क्राइम हुआ है या कोई और घटना, तो रिपोर्टर तो आराम से दफ्तर में बैठे हैं, हमें भेज दिया जाता था कि जाकर मौके पर लोगों से बात करके आओ! हम जाने कहाँ-कहाँ भागते फिरते थे।...शाम को रिपोर्ट लेकर आते तो थोड़ा आगा-पीछा बदलकर और बीच-बीच में कुछ शब्द अपने डालकर वे लोग लेते थे अपने नाम से। हमें पचास-साठ रुपए दे दिए जाते थे। कभी-कभी सौ रुपए भी। कुछ तय नहीं था, उन्हीं की मर्जी से चलता था सब कुछ। पर नाम हमारा कभी नहीं जाता था। किसी को नहीं मालूम पड़ता था कि इसके पीछे असली मेहनत किसकी है? किसने इतना पसीना बहाया, सुबह से शाम तक जूतियाँ चटकाईं, बसों में धक्के खाए? इसका कोई हिसाब नहीं।”

“तो क्या आई कार्ड भी मिलता था आप लोगों को?”

“हाँ, आई कार्ड भी मिलता था। पर शाम को जब हम जाते थे, तो रिपोर्ट के साथ-साथ आई कार्ड भी रखवा लेते थे।”

यह पत्रकारिता जगत के ‘भीतरी अँधेरे’ की एक बिलकुल नई खबर थी मेरे लिए। खासकर एक ऐसे अखबार के लिए, जिसका आप्त वाक्य था—‘सबकी खबर दे, सबकी खबर ले!’

अपराजिता टूटे-टूटे स्वर में बता रही थी, “उन दिनों जाने किन-किन लोगों से मैं जाकर मिली, जाने किस-किस से मुलाकात हुई। बसों में बैठकर सारे दिन हम धक्के खाते थे। आज यहाँ, कल वहाँ, परसों कहीं और! बस, मकसद यही होता था कि जिस काम से निकले हैं, किसी भी तरह वह पूरा होना है, काम किए बगैर लौटना नहीं है।”

“ऐसे ही एक दिन यकीन करेंगे आप—कि मैं तिहाड़ पहुँच गई किरण बेदी से मिलने! कोई पहले से अपॉइंटमेंट तो लिया नहीं था, बस सीधे ही पहुँच गई। साथ में दो-एक और भी स्ट्रिंगर थे। हमसे कहा गया था कि किरण बेदी से तिहाड़ जेल के बारे में बात करके आनी है। अब मैं गई तो बाहर जो दरबान था, उसने घूरकर देखा कि क्या बात है? थोड़ा मैं सहम गई। फिर हिम्मत करके मैंने कहा कि किरण बेदी से मिलना है। तो उसने घुड़कर कहा, ‘क्यों, तुम लोग क्या चोर हो? क्यों भीतर आना चाहते हो...?’ इस पर और लोग तो डर गए, पर मैंने कहा, ‘मुझे तो मिलना है किरण बेदी से, हर हाल में! अखबार में लिखना है उनसे बात करके! तुम्हें जो करना है, कर लो।’

“दरबान पुकारता रह गया और मैं यह जा, वह जा। सीधे किरण बेदी के सामने। अब पता नहीं, आप उससे मिले हैं या नहीं, लेडी वो ग्रेट है! कम से कम सड़ियल नहीं है, दूसरे अफसरों की तरह। तो अंकल, उसने मुझे देखा तो पूछा कि अरे, तुम तो छोटी-सी हो बेटी!...तुम कैसे आ गईं यहाँ? किसी ने रोका नहीं? फिर बोलीं—ठीक है, मैं पंद्रह मिनट तुमसे बात कर सकती हूँ। फिर मुझे जाना है कहीं, अपॉइंटमेंट है! मैंने कहा—ठीक है, पंद्रह मिनट ही काफी हैं मेरे लिए...!

“और फिर जब मैं बात करके आई, तो जितने और स्ट्रिंगर थे मेरे साथ के, वे सब तो हैरान-परेशान कि साहब, बड़ा क्रेज है इस लड़की में तो! और यह तो अंकल, कोई पंद्रह साल पहले की बात है, तब मैं थी ही क्या! एक इक्कीस साल की जरा-सी छोकरी! पर हिम्मत खूब थी मुझमें। हाल यह था कि कोई बड़े से बड़ा काम दे दो, मुश्किल से मुश्किल काम, पर मेरे मुँह से ‘न’ नहीं निकलेगी। काम हर हाल में पूरा करके लाऊँगी! चाहे जान पर खेलना पड़े!”

अपराजिता के भीतर एक और अपराजिता!...कितनी अपराजिताएँ? मैं यही सोच रहा था।

“हालाँकि इतने बरस हो गए अब तो, सब कुछ बदल गया तब से! न वे लोग रहे, न समय! जो सज्जन मुझे जानते थे और काम देते थे—कोई मिश्रा जी करके थे, भले आदमी थे, पिता की तरह। वे नौकरी छोड़कर चले गए। उनकी जगह जो नाटा-सा, काला-सा लड़का आया, शराबी आँखों वाला, उसे सेक्स चाहिए था। गरम मांस, वह मेरे पास था नहीं। उसने एक सेक्सी-सी लड़की को टुकड़े डालने शुरू किए। शादी का लालच दिया, काम दिया। बाद में सुना, वह तबाह हुई। खैर छोड़िए, अब इसकी चर्चा से क्या फायदा? अब तो कोई जानता भी नहीं होगा कि कौन थी वह लड़की अपराजिता आनंद नाम की, क्या काम किया उसने? क्या बेताबी थी उसमें?...क्यों थी?

“यकीन करेंगे अंकल, ढेरों अवार्ड मिले थे मुझे। ढेरों फोटोग्राफ थे, पता नहीं किस-किस लीडर के साथ? अब तो सब इधर-उधर हो गए। बहुत से फाड़-फूड़ दिए मैंने...कि क्या होगा सँभालकर, जब कुछ बचा ही नहीं अब! किसको बताना कि हमने क्या किया, क्या नहीं...कि हम बड़े फन्ने खाँ थे और सच में कुछ करना चाहते थे! किसे फर्क पड़ता है इससे? सच तो यह है अंकल कि जिनका अतीत बर्बाद हो जाता है, उनका वर्तमान भी अक्सर धोखा देता है। ऐसा न होता, तो क्या यह हो सकता था कि तीन-चार सौ रुपल्ली की स्कूली नौकरी के लिए भी मुझे धक्के खाने पड़ते! एक जगह अपॉइंटमेंट मिला, पर महीने-डेढ़ महीने में बाहर! हेडमिस्ट्रेस जितना झुकाना चाहती थी, उतना झुकने को मैं तैयार नहीं थी। ट्यूशन खोजे, मगर वहाँ भी यही चक्कर। जो टीचर कहीं पढ़ा रही हो, सब उसी के पास जाते हैं। मेरे पास कोई क्यों आता? यों मैं एक बार टूटी तो फिर टूटती ही चली गई—आउट आफ टै्रक! ऐसे बंदे को पूछना कौन है?”

लगा, जैसे वह खुद से ही प्रलाप कर रही हो।

7

“जरा रुकिएगा...अंकल!” अचानक जाने क्या हुआ कि वह झटके उठ खड़ी हुई अैर लगभग दौड़ती हुई साथ वाले कमरे में चली गई।

लौटी तो उसके हाथ में फ्रेम में मढ़ा हुआ एक बड़ा-सा फोटोग्राफ था। उसने वह फोटोग्राफ मेरे हाथ में पकड़ाया।

काफी धुँधले हो चुके उस फोटोग्राफ में ज्ञानी जैलसिंह कुछ पत्रकारों से बात कर रहे थे और उसमें उनके सबसे निकट थी अपराजिता आनंद। आज से काफी अलग-सी शक्ल...लेकिन पहचान में आ जाती थी। यह एक ऐसी अपराजिता आनंद थी, जिसके चहरे पर उखड़ा-उखड़ापन या कसैली चिड़चिड़ाहट नहीं, गहरा आत्मविश्वास था।

ज्ञानी जैलसिंह का दायाँ हाथ अपराजिता के सिर पर था, जैसे उस हिम्मती लड़की को प्यार से शाबाशी दे रहे हों!...

हमें गौर से उस चित्र को देखते देखकर अपराजिता के कलेजे में जैसे दर्द की लकीर-सी खिंच गई। तड़पकर बोलीं, “अब इस सबको याद करने से फायदा? पता नहीं क्यों मैं आपको बता रही हूँ? इतने सर्टीफिकेट थे मेरे पास डिबेट के...मैं इतनी अच्छी डिबेटर थी कि आपसे क्या कहूँ! कोई पंद्रह-बीस शील्डें तो जीती होंगी! और जाने कितनी कविताएँ मैंने लिखीं, कहानियाँ लिखीं, लेख लिखे। उनमें से कुछ भी बचाकर नहीं रखा। एक दिन जरा गुस्से में थी तो बस कुछ फाड़-फाड़कर जला दिया...कि न ये चीजें आँख के आगे रहेंगी और न मुझे दुख होगा।”

जैसे कोई फिट पड़ा हो उसे। उसकी आँखों की रंगत मुझे कुछ बदलती हुई-सी लगी। फिर कोशिश करके उसने खुद को साधा।

मि. आनंद और मिसेज आनंद—मैंने गौर किया, बेहद असहज थे। जैसे उनका सारा लहू निचुड़ गया हो।

“आप ही बताइए अंकल!...क्या मैंने गलत किया? कब तक ढोती रहूँ इन सबको? सर्टीफिकेट, फोटो, यादें जमाने भर की कि हम भी कभी कुछ थे और बीमारी ने तोड़ न दिया होता तो जरूर कुछ न कुछ बड़ा काम कर सकते थे। इस सबसे क्या फर्क पड़ता है! जो नहीं हुए, सो नहीं हुए! और अब तो दुनिया जानती है कि यह लड़की पागल है। अड़ोस-पड़ोस में सबको मालूम ही है। और जो है, सो है, वो अब बदल नहीं सकता। भले ही...भले ही मेरे पापा सबके आगे मेरी झूठी तारीफ करते रहें कि मेरी बेटी ये है, मेरी बेटी वो है कि मेरी बेटी जीनियस है, जर्नलिस्ट है, डिबेटर है—सारी दुनिया से अलग है! तो देख लो आप अपनी आँख से, कैसी है इनकी बेटी! अब क्या बचा है मुझमें? एक पागल, सिर्री सी लड़की हूँ—न जीती, न मरती! न जिंदा में मेरी शुमार है, न मुर्दों में! यों भी अब अड़तीस की तो हो गई! अब क्या बाकी रहा?...शादी तो अब हो नहीं सकती। अब कौन करेगा मुझसे शादी? कौन ऐसा अभागा होगा पृथ्वी पर जो मुझे अपना साथी बनाना पसंद करे! अब तो बस, इसलिए जिए जाती हूँ कि मर नहीं सकती। तो जितने दिन साँस है, जीना ही है!

“यों तो भाई, पिता हैं, माँ है...सब अच्छे हैं। बुरा तो कोई नहीं। पर सबकी अपनी लाइफ है, अपने-अपने सुख-दुख हैं। पर मेरा तो कोई नहीं है। मैं तो ऐसी अभागी हूँ जो पता नहीं जिंदा ही किसलिए हूँ? मुझे तो पत्थर गले में बाँधकर डूब जाना चाहिए।”

और फिर फटी-फटी-सी आँखों से मुझे देखते हुए, अजीब-सी आवाज में उसने कहा, “आप यकीन नहीं करेंगे, मरने की कई कोशिशें कर चुकी हूँ। पर...मेरा भाग्य ही बुरा है जो अभी तक जिंदा हूँ। किसी को क्या दोष दूँ?’

कहते-कहते धरती और आकाश को भेद देने वाले एक घनघोर चीत्कार के साथ वह गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी!...

किस तरह मुश्किल से उसे सँभाला गया, कैसे फिर से हम उसे ‘सम’ पर लाए, यह चर्चा फिलहाल रहने ही दूँ।

पर हाँ, थोड़ी ही देर में वह प्रकृतिस्थ हुई। और जैसे भीतर का काफी ताप और गुबार निकल गया हो, सहज होकर धीरे-धीरे कुछ सोचती हुई-सी बात करने लगी।

अचानक मेरे मन में एक विचार कौंधा। मैंने उसे सुझाव दिया, “तुम अपने जीवन की पूरी कहानी लिखो। चाहो तो आत्मकथा के रूप में या फिर उपन्यास के रूप में! उससे मुझे लगता है, तुम्हें भीतर से बल मिलेगा। तुम्हारी उलझनें भी दूर होंगी। चीजें कुछ साफ-साफ नजर आएँगी। और जब भी तुम लिख लो, मुझे बताना। मैं कोशिश कर सकता हूँ कि वह कहीं छप जाए!...उसकी भूमिका के रूप में, आज तुमसे जो बातें हुई हैं, उन्हें मैं लिखूँगा। ताकि लोग जानें कि अपराजिता कहाँ से उबरकर कहाँ आ गई! योंभी दुनिया में कोई भी अपराजिता कभी हारती नहीं है। उसे जीना ही होगा, क्योंकि वह अपराजिता है, अपराजिता!”

हम उठने लगे तो अपराजिता ने अपनी डायरी उठाई और दो पंक्तियाँ लिखकर मेरे आगे रख दीं, “मेरे घर आज आए हैं पाहुन! हे ईश्वर, इन पर अपना आशीर्वाद का हाथ रखना, दया रखना!”

और मैंने मुसकराकर पनीली आँखों से देखा, तो वह झट कटे हुए पेड़ की तरह मेरे पैरों पर गिर पड़ी! मैंने हौले से उसे उठाकर उसके सिर पर हाथ रखा, तो वह सुनीता के कंधे से लगकर हिलग-हिलगकर रोने लगी।

जब हम लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए, तो शायद सभी की आँखें छलछला रही थीं। चलते-चलते मैंने पीछे मुड़कर देखा, अपराजिता की आँखें हम पर टिकी हुई थीं। एकदम निर्मल दृष्टि, जिसमें कहीं कोई उन्माद का रंग नहीं था।

उस रात हम नहीं सो सके। पूरी रात मैं और सुनीता उसी की बातें करते रहे—अपराजिता...अपराजिता...अपराजिता...!

सुबह हलकी-सी नींद आई थी कि फिर किसी ने झिंझोड़कर उठा दिया। उफ, अपराजिता की वे करुण आँखें!

8

उसके बाद दो-एक बार फिर मि. आनंद मिले।

“अपराजिता ने लिखना शुरू किया या नहीं?” उत्सुकता से मैंने पूछा।

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। तो क्या वह रोशनी जो उस दिन नजर आई थी अपराजिता की आँखों में, वह सिर्फ एक अंधी रोशनी साबित हुई?

मैं ठीक-ठीक भी कह नहीं सकता। और जाकर अपराजिता से पूँछूँ, यह साहस भी आज तक मैं नहीं कर पाया। क्या इसलिए कि अपराजिता की आँखों से अब मुझे डर लगने लगा है—या...?

**

2

अथ कला-ड्रामा

प्रकाश मनु

*

माफ कीजिए, कहानी शुरू करने से पहले एक छोटी-सी आदत (आप चाहे तो इसे सनक भी कह सकते हैं) के बारे में बता दूँ। वह यह कि इतवार को लेकर मैं काफी संवेदनशील हूँ।

पता नहीं किसने कहा है, ‘ईमान गया तो सब कुछ गया, ईमान बचा तो सब कुछ बच गया।’ मैंने लिखने वाले अज्ञात लेखक से क्षमा-याचना के साथ इसे थोड़ा-सा बदल दिया है, यानी ‘इतवार गया तो सब कुछ गया, इतवार बचा तो सब कुछ बच गया!’ और उसे किसी सुभाषित की तरह अपने अध्ययन-कक्ष की दीवार पर टाँग लिया है।

बाकी दिन चाहे जैसे रोते-बिसूरते बीतें, पर इतवार को मैं भरपूर जीना चाहता हूँ। इतवार का हर लम्हा मेरे लिए खुशी का एक जाम होता है और मैं चाय के प्याले के साथ अपनी मनपसंद चित्रा-जगजीतसिंह की गजलें सुनते या गुनगुनाते हुए, इसे घूँट-घूँट पीना चाहता हूँ। कभी घर के लॉन में हलके कदमों से टहलता हूँ, कभी अपने प्रिय लेखकों की पुस्तकें खोलकर बैठ जाता हूँ। और इससे लगता है, जैसे सारी थकान निचुड़ गई हो। पूरे हफ्ते मन फूलों जैसा महका-महका रहता है।

ज्यादातर मेरी कोशिश कामयाब हो ही जाती है, क्योंकि मैं अक्सर मिलने वालों को इसीलिए इतवार की बजाए बाकी दिनों की शामों को आमंत्रित करता हूँ। वे हैरान होकर कहते हैं, “कहिए तो इतवार को आ जाऊँ?”

और मैं उनकी हैरानी को और बढ़ाता हुआ कहता हूँ, “अजी, आज ही आ जाइए न! या कल...! इतवार का क्या इंतजार करते हैं?”

वे खुश हो जाते हैं और मेरी योजना कामयाब हो जाती है।

2

पर इस बार कुछ ऐसा घट गया, जिससे मैं वाकई डरता था।

यह बादलों के मौसम वाला एक खुशनुमा इतवार था। हलकी-हलकी फुहार पड़ रही थी। मन हलका होकर मस्त हवा के झोंकों में बहा जा रहा था। मैं अधलेटा-सा, खिड़की खोलकर बाहर रिमझिम का संगीत सुन रहा था। इतने में ही मेघदूत जी पधार गए। आकाश के बादल या अपने कालिदास वाले ‘मेघदूत’ नहीं, धरती के बल्कि हमारे अपने मोहल्ले के महान आधुनिक चित्रकार मेघदूत जी।

“अरे भई सुधांशु जी, कहाँ हो?...जिंदा भी हो या नहीं!” बाहर से ही उन्होंने आवाज लगाई और धड़धड़ाते हुए भीतर बैठक में दाखिल हो गए।

कोई हफ्ते भर की बढ़ी हुई दाढ़ी। बादामी रंग का ढीला-सा कुरता और चूड़ीदार पाजामा। कुल मिलाकर मेघदूत जी अपनी सदाबहार पोशाक में थे और एक खास रौ में। ये ऐसे पल होते जब सामने वाला कोई भी हो, मेघदूत जी केवल अपनी बात करते थे और उन पर अपनी महानता की छाप छोड़ने का भूत सवार रहता था।

सचमुच इस खुशनुमा मौसम में मेघदूत जी का बगैर सूचना के यों पधार जाना खल गया।

“बैठिए मेघदूत जी!” मैंने अपनी आवाज की कड़वाहट छिपाते हुए कहा।

“कोई नहीं समझता, भइए, कोई नहीं! एक तुम हो, इसीलिए चले आते हैं!” जुमला फेंककर वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गए।

उनके आते ही वातावरण संजीदा हो गया था। अघोषित कफ्र्यू की तरह।

“कुछ परेशान हैं क्या?” मैंने जिज्ञासा प्रकट की।

“होगा क्या, कुछ नहीं! न कोई कला समझता है, न समझना चाहता है! फिर भी मैं जुटा हूँ साधना में। आखिर आज नहीं तो कल दुनिया मुझे जानेगी, पहचानेगी कि एक मेघदूत हुआ करता था जिसने अपनी जिंदगी गला दी। मगर पाया क्या...? लोग कुछ समझना ही नहीं चाहते। मैं कहाँ-कहाँ सिर खपाऊँ?” उनके चेहरे पर फिर से दुख की काली-काली घटाएँ गहराने लगीं।

उनका प्रवचन जारी रहा, “कोई समझे न समझे, मैं तो भाई चित्रों में प्रतीकात्मकता की तरजीह है देता हूँ। यानी जो आप दिखाना चाहते हैं, वह बिलकुल मत दिखाइए और जो नहीं दिखाना चाहते, वह पेश कर दीजिए! इसे कहते हैं कला...आर्ट...पेटिंग! लेकिन हमारे चित्रकार हैं कि घसियारे, अभी तक सोलहवीं सदी से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं है। धिक्कार है हमें, धिक्कार है सबको, अगर हम कोई क्रांति नहीं कर पाए!”

अचानक वह तैश में आ गए और लाल अंगारे की तरह दहकने लगे।

3

सुबह-सुबह इतना प्रचंड भावोच्छ्वास झेलने का जिगरा मुझमें नहीं है, पर एक कड़वी सजा समझकर निगल गया। मन का सारा स्वाद खराब हो गया। सिर में हलका-हलका दर्द महसूस होने लगा था।

“चाय पिएँगे?” वातावरण को हलका करने की गरज से मैंने कहा।

“हाँ...हाँ, क्यों नहीं? चाय के साथ नाश्ता भी चलेगा। सुजाता भाभी जी को पकौड़े बनाने के लिए बोल दो। मैं तो घर से ही सोचकर आया था, हैं...हैं!”

मेघदूत जी की नाक फुरफुराने लगी। उनकी फरमाइश भीतर पहुँचाकर लौटा, तो वे फिर शुरू हो गए।

“हाँ, तो मैं कह रहा था कि चित्रकार दुनिया में असल में केवल तीन हुए हैं। माइकिल एंजलो, रेफल और ल्योनार्दो द विंसी—और इनमें भी किसका योगदान कितना है, इसको लेकर विद्वानों में काफी मतभेद पाया जाता है! नहीं, असल में बात यह नहीं है, बात असल में...समस्या! समस्या आप जानते हैं, क्या है?”

चित्रकला का पूरा इतिहास समस्याओं समेत वह सुबह-सुबह मेरे कानों में उँड़ेल देना चाहते थे।

मैं वाकई घबरा गया। विषय को मोड़ देने के लिए वैसे ही पूछ लिया, “वैसे आजकल आप क्या कर रहे हैं? मेरा मतलब है, कोई खास चित्र—कोई खास कल्पना, आपकी तूलिका जिसे आँकने के लिए बेकरार हो!”

“अरे हाँ, याद आया! ऐसा है यार, कि आज चित्रकला प्रदर्शनी है मेरी। मैं तो यही बताने आया था, पर मैं भूल ही गया। इसको कहते हैं कला की सच्ची स्प्रिट, यानी कलाकार का आत्मसमर्पण! अपने ‘आधुनिक कला’ वाले राजा भैया इसी को ‘आत्मतर्पण’ बोल देते हैं। मगर भाई, असल चीज तो है आत्मसमर्पण! कहते हैं कि माइकिल एंजलो चित्र बनाते समय एकदम समाधिस्थ हो जाता था! दीन-दुनिया का कोई होश नहीं, किसी और ही संसार में पहुँच जाता था...!”

कहते-कहते एक क्षण के लिए वे रुके। उनके चेहरे पर ‘परम शांति’ विराज गई। फिर वे अचानक बाहरी दुनिया में लौटे, “तो ऐसा है, सुधांशु जी, आपको चलना है। आप जैसे कला-मर्मज्ञों से कला जीवित है, वरना क्या है कि...”

इतने में ही सुजाता चाय और गरमागरम पकौड़े लेकर आ गई।

“नमस्ते, भाभी जी। आप भी आ रही हैं न चित्रकला-प्रदर्शनी में?” पकौड़ों की प्लेट को प्यार से अपने पास खिसकाते हुए उन्होंने कहा।

“किसके चित्रों की प्रदर्शनी?” सुजाता ने उड़ते-उड़ते पूछा।

“मेरी, और किसकी?” मेघदूत जी थोड़ा आहत हुए।

“अब ये मुन्नू और टुन्नू आने दें तो...!” कहती हुई सुजाता भुन-भुन करती भीतर चली गई।

मैंने मन ही मन सुजाता की व्यवहार-बुद्धि को दाद दी।

“अब यही तो चक्कर है भइए, गृहस्थी में आदमी एक दफा उलझा तो उलझता चला गया। इसीलिए हमने तो यह झंझट ही नहीं पाला, हैं...हैं...हैं!”

मेघदूत जी की पूरी बत्तीसी एकाएक सामने आ गई। फिर अचानक गंभीर होकर उन्होंने कहा, “खैर, भाभी जी को छोड़िए, आप तो आ रहे हैं न?”

“समय क्या रखा है...?”

“बस, यही सवेरे ग्यारह बजे उद्घाटन है। अपने जिलाधीश महोदय हैं न आंनदीलाल जी ‘सदानंद’। वे उद्घाटन के लिए मान गए हैं।...बड़े सज्जन पुरुष हैं साहब। कला-मर्मज्ञ...ऐन कला-मर्मज्ञ! जैसा पद, वैसी योग्यता। मुझे तो सिर-आँखों पर रखते हैं! आप मिले हैं न उनसे?”

“नहीं।”

“ओह!” उनके चेहरे पर मेरे लिए दया भाव प्रकट हो गया, जैसे कह रहे हों, “ओह, बेचारा!”

“देखिए, फिर तो आप जरूर आइएगा। इस बहाने उनसे मिलना भी हो जाएगा।”

फिर मेघदूत जी जाने के लिए उठ खड़े हुए, “देखिए, जरूर आइएगा। मैं दिल की गहराइयों से आपका इंतजार करूँगा। एक आप ही तो हैं जो मीडिया में...!” कहते-कहते वे भावुक हो गए।

“अच्छा...!”

पर इस अच्छा के पीछे की अनिच्छा, पता नहीं वह कैसे भाँप गए! रुके। चौंके। फिर मेरी ओर देखकर कहा, “मैं अपने मित्र शुभंकर जी को भेज दूँगा। वे आपको ले जाएँगेे।”

“क्या...भयंकर जी? आप भयंकर जी को भेज देंगे मुझे लेने? नहीं...नहीं, मैं खुद ही आ जाऊँगा।” हवा में हलकी ठंडक के बावजूद मैं पसीने-पसीने।

“अरे, भयंकर जी नहीं, शुभंकर जी।” मेरी घबराहट भाँपकर तसल्ली देते हुए वे बोले। फिर उन्होंने समझाया, “दरअसल नाम तो इनका शंभूपरसाद था। पर जब से चित्रकला के मैदान में दो-दो हाथ करने उतरे हैं, इन्होंने खुद को शुभंकर कहना, कहलवाना शुरू कर दिया है।”

सुनकर जान में जान आई। मैंने हवा में जल्दी-जल्दी कुछ लंबी साँसें लीं।

4

खैर, वे गए और मैं जल्दी-जल्दी तैयार होने में लग गया। सिर पर सवार इस संकट की घड़ी से बचने के लिए हर हाल में साढ़े दस बजे तक तैयार होकर बाहर निकल जाना चाहता था।

पर अभी पहनने के लिए कपड़े निकाले ही थे कि ठीक दस बजकर दस मिनट पर एक विराटाकार व्यक्तित्व भीतर लपकता हुआ दिखाई दिया। हट्टा-कट्टा शरीर, थोड़ी-सी आगे निकली हुई तोंद। माथे पर झूलते हुए घुँघराले बाल। नुकीली, लंबी मूँछें, खद्दर का कुरता और धोती। देखने में यह व्यक्ति किसी पहलवान से कम नहीं लगता था।

पहचानने में भूल नहीं हुई कि हो न हो, यही शुभंकर जी हैं।

“नमस्ते...! आप तो तैयार ही बैठे थे।” शुभंकर जी ने अट्टहास किया तो उनकी मूँछें बेवजह फड़फड़ाने लगीं।

मुझे जाने क्यों उनके अट्टहास में एक विजेता का-सा गर्व दिखाई पड़ा। मानो उनसे कहा गया हो, जैसे भी हो, ‘सुधांशु के बच्चे’ को पकड़कर लाना है। सो शुभंकर जी ताल ठोंककर ‘जय बजरंग बली’ कहकर दौड़े आए हों और अपनी सफलता पर गद्गद हो रहे हों।

“अगर भागे भी तो इनसे छूट नहीं सकते और फिर तो ये सचमुच कचूमर ही निकाल देंगे।” उनकी विशाल काया पर भरपूर नजर डालकर मैंने मन ही मन कहा। सचमुच शुभंकर जी किसी यमदूत से कम नहीं लग रहे थे और मैं उनके साथ ऐसे चल दिया, जैसे बकरा जिबह करने के लिए ले जाया जाता है।

खैर, मन ही मन अपने आप पर भन्नाते और उस घड़ी को कोसते हुए जब मेघदूत जी से परिचय हुआ था, मैं वधशाला...(ओह, जबान फिसल गई न!) सॉरी, चित्रकला प्रदर्शनी में पहुँचा।

5

एक छोटे-से गलियारे में यह प्रदर्शनी सजाई गई थी। उसके प्रवेश-द्वार पर परदा टँगा था, क्योंकि अभी विधिवत उद्घाटन होना बाकी था। बाहर टीन की टूटी-फूटी कुर्सियों पर 15-20 लोग बैठे थे। मैं भी वहाँ जा बैठा और जिलाधीश आनंदीलाल ‘सदानंद’ जी की ‘सामूहिक प्रतीक्षा’ में शामिल हो गया।

एक बजे तक मीटिंग में ‘आनंद’ का संचार करने वाले आनंदीलाल नहीं आए और हम 25-30 लोग मुहर्रमी सूरत बनाए बैठे रहे। इस बीच कुछ लोग उठ गए, कुछ अखबार या पत्रिका में डूब गए, जिन्हें वे शायद इसी प्रयोजन से साथ लाए थे। दो-एक मौसम पर और दो-चार राजनीति पर बतियाने लगे।

मैं चुपचाप मेघों से घिरे आसमान का नजारा ले रहा था। वह किसी महान चित्रकार के विशाल कैनवस सरीखा लग रहा था।

हवा ठंडी-ठंडी थी, मौसम सुहावना था। पर जो बात घर पर थी, वह यहाँ कहाँ? घर पर मजे से पसरकर या यहाँ-वहाँ टहलते हुए रेडियो या टेपरिकार्डर पर गीत-गजलें सुनना या अपने टुन्नुओं-मुन्नुओं के साथ खेलते हुए अपने बचपन और बीते दिनों को याद करना एक बात है और यहाँ कुर्सियों में धँसकर बैठना बिलकुल अलग चीज।

इस बीच एक दफा चाय आई। काली, जली हुई चाय। एक में से दो कप बनाए गए, तब वह पूरी पड़ी। उसके कालेपन को लक्षित करके ‘कलात्मक चाय’ कहते हुए सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और हौले-हौले सिप करके पी।

काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब जिलाधीश महोदय अपने आनंद की बरखा करने नहीं आए तो आखिर वहाँ बैठे लोगों में सबसे ज्यादा बुजुर्ग भूलाराम जी बखेड़ा वाले से (शायद उनकी उम्र और चाँदी जैसे बालों का ख्याल करके) फीता काटकर बाकायदा प्रदर्शनी का उद्घाटन करने का अनुरोध किया गया।

वैसे भूलाराम जी बखेड़ा वाले उसी दफ्तर में बड़े बाबू थे, जहाँ मेघदूत जी क्लर्क के रूप में काम किया करते थे। उन्होंने मेघदूत जी की तारीफ में एक प्रेरणादायक प्रसंग सुनाया कि मेघदूत जी शुरू से ही दफ्तर में लेट आते थे और थोड़ी देर बाद ही सामने वाले स्टूल पर टाँगें फैलाकर खर्राटे भरने लगते थे। इसी से उन्होंने अंदाज लगा लिया कि ये जरूर कोई बड़ी शख्सियत हैं—और अगर नहीं हैं तो होने वाले हैं!

“तो सज्जनो, मैं जानता था कि यह अजीबोगरीब शख्स एक दिन कुछ बनकर दिखाएगा। और आज वह शुभ दिन आ गया है। आज इनकी चित्रकला-प्रदर्शनी का उद्घाटन जिलाधीश महोदय कर रहे हैं...!”

लोगों की फुसफुसाहट और हँसी देखकर शायद भूलाराम जी बखेड़ा वाले अपनी गलती भाँप गए। झेंप मिटाने के लिए जोश में आकर बोले, “नहीं कर रहे तो क्या, करने वाले तो थे। आज नहीं तो कल करेंगे। बल्कि कल कोई और बड़ा अफसर करेगा, परसों मुख्यमंत्री, फिर प्रधानमंत्री, फिर राष्ट्रपति...! और आप देखेंगे कि एक दिन कामयाबी की सीढिय़ाँ चढ़ते-चढ़ते कला का यह अनमोल सितारा एक राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय हस्ती बन जाएगा। इतनी बड़ी हस्ती के इनके ऑटोग्राफ लेने के लिए स्कूल-कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ ही नहीं, अमिताभ बच्चन, धोनी और सलमान खान भी लाइन में लगा करेंगे...लाइन में!”

कहते-कहते वे खुशी के मारे छलछला आए आँसुओं को पोंछने लगे।

वातावरण वाकई बोझिल हो गया।

अब मेघदूत जी उठे। आँखें गीली-गीली सी, जैसे अभी बरस पड़ेंगी। भरे हुए गले से बड़े बाबू यानी भूलाराम जी बखेड़ा वाले का आभार प्रकट किया। फिर कहा, “चलिए बंधुओ, अब मैं चित्रों से आपका परिचय करा दूँ।”

हम सब श्रद्धाभिभूत होकर उनके पीछे-पीछे गलियारे में दाखिल हुए।

6

वहाँ भीतर रंगों का—तेज नीले, पीले, हरे रंगों का सैलाब था।

एक चित्र की ओर इशारा करके मेघदूत जी मेरी और मुखाबित होकर बोले, “सुधांशु जी, यह चित्र देखिए। कुछ पहचाना आपने?...नहीं पहचाना? दरअसल इसमें बड़ी गूढ़ कला है, यह जिंदगी का चित्र है!”

“पर इसमें तो केवल दरवाजे दिखाई पड़ रहे हैं, कोई चालीस, पचासेक छोटे-बड़े दरवाजे...?” मैंने कला की उर्वरा धरती पर शंका का एक छोटा बीज डाला।

“नहीं, इसे यों कहिए कि दरवाजों में दरवाजों में दरवाजे हैं। और भइए, यही तो जिंदगी है। यानी हर मोड़ पर एक दरवाजा खुलता है और आप उसमें दाखिल हो जाते हैं। जरा...जरा आप सिंबोलिक ढंग से सोचिए!” मेघदूत जी देखते ही देखते कुछ गहरे-गहरे और रहस्यात्मक हो गए।

कैसा दरवाजा खुलता है? कैसे दाखिल हो जाते हैं? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। पर इस नाजुक मौके पर ज्यादा बहस करना ठीक नहीं था, सो चुप रहा।

इसके बाद जो चित्र था, उसमें पूरे कैनवस पर एक विशाल ठूँठ दिखाया गया था, जिसमें एक बड़ी-सी गाँठ थी।

“इसे तो आप देखते ही समझ गए होंगे कि...” मेघदूत जी मंद-मंद मुसकराए।

“जी हाँ, ठूँठ!” एक व्यक्ति ने कहा।

“ठूँठ!” मेघदूत जी हँसे। यह एक अलग तरह की हँसी थी। सामने वाले पर बुरी तरह तरस खाने वाली।

“जी नहीं, जी नहीं!” वह हँसे तो हँसते ही गए। उनकी आँखें बुरी तरह मिचमिचा रही थीं। होंठ फड़फड़ा रहे थे, “यही तो आप लोग समझ नहीं पाते, आह!”

फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने बताया, “यह औरत है, औरत का संपूर्ण चित्र...!”

“औरत का संपूर्ण चित्र!” दर्शकों में से किसी ने दोहराया, हालाँकि समझ कोई नहीं पाया। यह सबके चेहरों से साफ पता लग रहा था।

“क्या नहीं लगता?” मेघदूत जी की गहरी-गहरी निगाह ‘स्काईलार्क’ की तरह मुझ पर गिरी। मैंने मासूमियत से ‘वाह...वाह’ वाली मुद्रा में सिर हिला दिया।

“देखो, सुधांशु जी समझ गए, मगर आप लोग नहीं समझ पाए!” उन्होंने किसी बाजीगर की तरह दोनों हाथ फैलाते हुए कहा, “असल में इस ठूँठ में यह जो गाँठ है, यह है असली औरत—क्योंकि औरत एक पहेली है और उसका कोई भी सिरा, कभी भी हमारे हाथ नहीं आता! भई, सीधी सी बात है, हैं...हैं...हैं!” वह मुझे छोड़कर बाकी सब पर तरस खा रहे थे।

“अब तो समझ गए न?” उन्होंने प्यार से मेरी बगल में खड़े मि. मिनोचा के कंधे थपथपा दिए।

लगा कि समझ में तो उनके खाक नहीं आया था, पर अगर कहते कि नहीं समझा तो फिर यही धाराप्रवाह भाषण सुनना पड़ता। इसलिए इस दफा उन्होंने भी मजबूरी में ‘हाँ’ में सिर हिलाने में ही खैरियत समझी।

“अब जरा आगे आइए। आपको इस प्रदर्शनी की सबसे नायाब कलाकृति दिखाएँ।” एकाएक वह लहर में आ गए।

हम लोग थोड़ा-सा आगे बढ़े और कई आँखें उस चित्र पर एक साथ टँग गईं, जिसमें एक लंबी-सी खड़ी रेखा के ऊपर एक पड़ी रेखा थी। आसपास दो काले-भूरे गोले थे।

“देखा आपने, यह लंबी-सी नाक...और चिंतापूर्ण ललाट? ये जलती-बुझती आँखें! यह आदमी की महत्वाकांक्षा है! कैसा लगा चित्र?”

“वाकई सुंदर है!” अब सभी ने जिरह करना छोड़ दिया था। कुछ देर के लिए दिमाग पर ताला लगाकर रखना बेहतर था।

“अब थोड़ा-सा और आगे आइए। इसी क्रम में एक और चित्र, जिसमें जीवन की विडंबना का चित्रण है! ‘जीवन में विडंबना और विडंबना में जीवन’—यह है इसका शीर्षक। मुझे महीनों लग गए यह शीर्षक खोजने में, पर आखिर जिन खोजा तिन पाइयाँ!” एक गद्गद आनंद-भाव।

हमने चित्र देखा। पूरे कैनवस पर नीला रंग पुता हुआ था, जिसे बीच-बीच में काले रंग की आड़ी-तिरछी लकीरों से खूब काटा-पीटा गया था।

“देखिए बंधुओ, आसमान जमीन पर गिर चुका है। टुकड़े-टुकड़े हो चुका है और सिसक रहा है। यानी यह आज का वक्त है, जहाँ जीने के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।” मेघदूत जी एकाएक दार्शनिक गहराइयों में प्रवेश कर गए।

मगर हमारे ‘दुनियादार’ चेहरों पर परेशानी के भाव पढक़र उन्होंने कहा, “इस बात को आप अभी नहीं, आज से दस साल बाद समझ पाएँगे, जब दुनिया थोड़ी समझदार हो चुकी होगी। खैर, अब अगला चित्र देखिए। यह आदमी किसी लाश को उठाए है, है न? एक नंगी, अधजली लाश—क्या है यह?”

“क्या है यह?” सबकी आँखों पर प्रश्नवाचक चिह्न लटक गया।

“असल बात यह है कि यह लाश किसी और की नहीं, बल्कि इसी आदमी की है। यह खुद अपनी ही लाश ढो रहा है। यह आदमी, मैं, आप, कोई भी हो सकता है। देखिए कितनी खूबसूरती है इसमें!...कला! आहा, कला! ओहो, कला!” मेघदूत जी बाकायदा कथक नृत्य की मुद्रा में आ गए।

मजबूरी में हमें ‘हाँ’ कहना पड़ा और कलाकार की संभावनापूर्ण कला की दाद देनी पड़ी।

आखिरी चित्र में एक नारी आकृति का ‘आभास’ पैदा किया गया था और जो भी ‘स्त्रीनुमा चीज’ वहाँ दिखाई गई थी, उसका वक्ष अैर कूल्हे बेहद उभरे हुए थे। चेहरे की जगह दो-तीन आड़ी तिरछी लकीरें थीं, जो एक-दूसरे को काट रही थीं। कोई पहचानने में भूल न कर जाए, इसलिए इस चित्र के नीचे उसका शीर्षक भी मोटे-मोटे अक्षरों में टाँक दिया गया था—‘स्वप्न सुंदरी!’

इस चित्र का प्रशस्ति-गान हमें सुनाया जाता, इससे पहले ही प्रवेश-द्वार की ओर अचानक शोर उभरा और सबका ध्यान उधर खिंच गया।

7

“चल! कोण सी कला है, अम देखते हैं इब्बी...!” एक खाकी तूफान-सा धमधमाता हुआ प्रदर्शनी-कक्ष में प्रवेश कर रहा था।

मालूम पड़ा कि थानेदार भुजंगीलाल यादव आए हैं।

“थानेदार साहब...?” सभी उपस्थित लोग बुरी तरह चौंक गए।

“हाँ, और साथ में चार सिपाही भी हैं। हाथ में डंडे लिए हुए।” रमेश जी ने घबराए स्वर में कहा, “मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है।”

“ऐं, सच?” सत्येंद्र जी ने भयभीत स्वर में पूछा।

मि. मिनोचा के सुर्ख गाल इस समय एकदम निचुड़े-निचुड़े लग रहे थे। मेघदूत जी भी कम बदहाल नहीं थे। भूलाराम जी बखेड़ा वाले सोच रहे थे, ओह, मैं किस बखेड़े में आन पड़ा?

“पर इसमें तो कोई सरकार विरोधी चीज नहीं है, न भ्रष्टाचार और महँगाई की आलोचना की गई है। यह तो कला है, इसमें सरकारी दखल...?” कहते-कहते शुभंकर जी रुक गए। थानेदार सिपाहियों सहित भीतर दाखिल हो चुके थे।

“आपमें मेघनाथ कोण है?” थानेदार ने भीतर आते ही कड़क आवाज में पूछा।

मेघदूत जी सिर झुकाए आगे बढ़े, जैसे फाँसी के फंदे पर झूलने जा रहे हों। बाकी लोग भी सकते में आ गए, काटो तो खून नहीं।

पर थानेदार भुजंगीलाल यादव के चेहरे पर गुस्सा नहीं, मुसकराहट थी। (...ओह गजब!) इसी से उसकी काली, लंबी मूँछें, जगमग-जगमग हो रही थीं। उसने आगे बढक़र कलाकार के कंधे थपथपाते हुए अभयदान दिया, “ऐसा है मेघनाथ बाबू, कि जिलाधीश साहब को एक जरूरी मीटिंग अटेंड करनी थी। इसलिए खुद नहीं आ पाए। अपनी जगह मुझे भेज दिया है। बताइए, क्या करना है...? आप लोग बिलकुल घबराइए नहीं, मैं सब ठीक-ठाक कर दूँगा!”

यह पता चला तो भय से थर-थर काँपते मेघदूत जी की जान में जान आई। बाकी लोग भी जो डर के मारे दीवार से जा चिपके थे, अब फिर से चलने-फिरने, बोलने-बतियाने लगे।

खैर, उद्घाटन तो हो चुका था। अब थानेदार साहब के लिए इन आधुनिक चित्रों की व्याख्या का काम दोबारा शुरू किया गया। इस बीच मौका देखकर मैं भाग जाना चाहता था, पर मेघदूत जी ने शहर के प्रतिष्ठित पत्रकार और कला-पारखी के रूप में मेरा परिचय देकर मुझे अनावश्यक रूप से चेप दिया था। यहाँ तक कि उन चित्रों की व्याख्या का काम भी अब मुझे सौंप दिया गया था।

गरदन फँस चुकी थी और उससे मुक्त होने की कोशिश में मैं सिर्फ छटपटा सकता था। जो बातें मैंने मेघदूत जी से सुनी थीं, अब वे ही ब्योरेवार मुझे अपनी खाकी वरदी की तरह ही अकड़े हुए थानेदार भुजंगीलाल यादव को समझानी पड़ीं।

बताते समय मेरा चेहरा विवर्ण हो गया था, जीभ सूख रही थी। पर उन चित्रों की तारीफ में चेहरे पर नकली उत्साह पैदा करना पड़ रहा था। पता नहीं, मेरे शब्द-कौशल का असर था या किसी और बात का, थनेदार महोदय काफी प्रभावित लग रहे थे और लगतार मुसकराए जा रहे थे।

अंत में उन्होंने दो शब्द कहे, “प्यारे भाइयो, हम यहाँ एक महान चित्तरकार के चित्तर देखने और उन्हें श्रद्धांजलि देने आए हैं। चित्तर भी कैसे-कैसे? एक-एक चित्तर में कई-कई रंग। कहीं हरा है तो कहीं नीला, कहीं लाल तो कहीं आसमानी। कहीं एकबारगी चिट्टा सफेद वा-वा-वा...वा जी, वा! तो भाइयो, हम सब एक-दूसरे पर ऐसे ही प्यार के रंग छिड़कें। यही क्या नाम है, इस मेघदूत नाम के सच्चे कलाकार को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अच्छा जी, भाइयो, धन्यवाद!”

कहकर उन्होंने गर्व और प्रसन्नता के साथ फड़फड़ाती मूँछों से चारों ओर देखा, फिर अपनी कुर्सी पर विराज गए।

मैंने चोर नजर से देखा, ‘भाषण-वाषण में क्या है जी? बातों में से बातें निकालना तो हमें भी खूब आता है!’ जैसी तसल्ली उनके चेहरे पर दिप-दिप कर रही थी।

उसके बाद कुछ नाश्ते-पानी का प्रोग्राम था। पर अब तक दिल किसी अड़ियल घोड़े की तरह एकदम बेकाबू हो गया था।

चुपके से मेघदूत जी की नजरों से बचता हुआ मैं बाहर आया। ताजी हवा में दो-तीन लंबी-लंबी साँसें लीं और जितनी तेजी से हो सकता था, घर की और सरपट दौड़ लगा दी।

**

3

जादू

प्रकाश मनु

*

आइए, पहले इस कहानी के नायक से मिलते हैं। हमारी इस कहानी का नायक है नंदू। एक बड़ा ही नटखट, चपल-चंचल, गोल मुटल्ला नंदू। शाम के समय वह खेल के मैदान से तेजी से भागता हुआ घर आ रहा हो, तो आप धोखा खा जाएँ। लगेगा, यह नंदू नहीं, आकाश से बाल सूर्य उतरा है, चमकती आँखों और सुर्ख टमाटर जैसे लाल-लाल गालों वाला! बच्चे तो बहुत होते हैं और सभी प्यारे-प्यारे होते हैं, पर नंदू तो भई, नंदू ही है, इसलिए कि वह हमारी कहानी का नटखट, चपल-चंचल, गोल मुटल्ला नंदू है, जिसकी आँखों में हर वक्त उत्साह की चमक दिखाई देती है।

मगर भई, कहानी का नायक वह नन्ही-सी जान...यानी वह जरा सा, शरीर, ऊधमी चिड़िया का बच्चा भी तो हो सकता है, जो अपन नन्हे-नन्हे रोएँदार भाई-बहनों से झगड़ते हुए एकाएक घोंसले से निकलकर बाहर आ गिरा था और...और...उसने एक नन्ही-सी कहानी को जन्म दिया था! फर्श पर इधर उधर बिखरे तिनकों के साथ, एक बेहद मासूम, रोएँदार नन्ही शख्सियत महसूस की जा सकती थी। और वह नन्ही कहानी भी, जो मैं सुनाने जा रहा हूँ!...

खैर, आप नहीं मानते, तो उस नन्ही-सी जान... यानी चिड़िया के उस नन्हे शरीर बच्चे को ही कहानी का नायक मान लेते हैं! पर अब मेहरबानी करके थोड़ा पीछे चलें। अतीत के उस छोर पर, जब चिड़िया का बच्चा अभी अस्तित्व में नहीं आया था। चिड़िया ने घोंसला बनाया है नंदू के छोटे से घर में...और नंदू खुश है। इतना खुश, इतना खुश, मानो उसके पंख उग आए हों ओर वह जब चाहे आसमान की सैर कर सकता है।

बेशक जब से उस चिड़िया और चिड़े ने उसके घर के आँगन में, दीवार की खोखल में अपना घोंसला बनाया है, तभी से उसकी यह हालत है। जब देखो, वह उड़ा-उड़ा-सा दिखाई देता है!

वाकई उड़ा-उड़ा-सा!

2

नंदू की मम्मी यानी मिसेज आनंद हैरान हैं। आँगन की दीवार में एक ईंट की जगह न जाने कैसे खाली रह गई थी। बस, चिड़िया को घोंसला बनाने के लिए वह जँच गई। और अब तो दिन में पचासों चक्कर उसके लगते हैं।...कभी तिनके ला रही है, कभी घास, कभी सूतली का छोटा-सा टुकड़ा, कभी फूस, कभी कुछ और। नंदू को मानो दिन भर का काम मिल गया। दिन में बीसियों दफा मेज पर चढक़र, उचक-उचककर देखता है, चिड़िया के घोंसले में कितनी ‘प्रोगेस’ हुई?...क्या-क्या नई चीजें आ रही हैं। और उन्हें कहाँ-कहाँ जँचाया जा रहा है!

और यह सब देखकर वह दौड़ा-दौड़ा मम्मी के पास जाता है तथा सारा हाल और घोंसले के बारे में ‘ताजा समाचार’ मम्मी को बताता है। और फिर खोद-खोदकर मम्मी से सवाल पूछता है कि मम्मी, चिड़िया यह क्यों करती है? वह क्यों करती है? और चिड़िया के घोंसले में अंडे कब आएँगे? कब आएँगे चिड़िया के बच्चे?

मिसेज आनंद फुर्सत में होती हैं, तो थोड़ा-बहुत बता देती हैं। मगर कभी काम में लगी हों, तो गाल पर हलकी-सी चपत लगाकर कहती हैं, “जा भाग, तुझे और कोई काम नहीं है?...दुष्ट कहीं का!”

मगर क्या करे नंदू? उसका मन तो चिड़िया के घोंसले से हटता ही नहीं। और उसे लगता है कि उसे तो इतना बड़ा खजाना मिल गया है, इतना बड़ा कि कुछ न पूछो। स्कूल में अपने दोस्तों को भी यह सब बताता है, तो वे हैरानी से ताकते रह जाते हैं। और आस-पड़ोस के बच्चे तो घर तक चले आते हैं, “दिखा तो नंदू, कहाँ है चिड़िया का घोंसला?”

अब नंदू एकदम राजाओं वाली शान और अकड़ से वह चिड़िया का घोंसला दिखाता है और उसके बारे में एक-एक छोटी से छोटी बात बताना नहीं भूलता।

“एक दिन ऐसा हुआ...सुन मोंटू, ऐसा कि चिड़िया हमारे घर आई। साथ में अपने चिड़े को भी लाई। उसने यहाँ देखा, वहाँ देखा। इधर उड़ी, उधर उड़ी...और पंखे की टोपी के ऊपर वाले हिस्से में घोंसला बनाने लगी कि मैंने उसे टोका। फिर दरवाजे के ऊपर वाले रोशनदान पर उसने रखने शुरू किए तिनके। सारा फर्श गंदा हो गया, तो मम्मी का तो पारा हाई! मम्मी ने रोका...बड़ी मुश्किल से हटाया! फिर चिड़िया को भा गई यह जगह।...देख रहे हो न दीवार के बीच छूटी यह छोटी-सी जगह। हर बार बस, अब तो चिड़िया और श्रीमान चिड़ा सारा दिन तिनके ला रहे हैं, धर रहे है, घोंसला बना रहे हैं। वो मार-तूफान इन्होंने मचाया कि क्या कहने! मगर भई, फिर घोंसला बना, बनकर रहा। और अब तो अंडे भी आएँगे, फिर चिड़िया के बच्चे। मगर भई, मुझे तो डर लगता है, कहीं बिल्ली ने आकर...! वैसे भी चिड़िया तो छोटी-सी जान है बेचारी!”

नंदू की कहानी हर बार यही से शुरू होती और फैलते-फैलते इतनी फैल जाती कि खुद नंदू को कुछ सुध-बुध न रहती।

नंदू के दोस्त हैरान होते है, आजकल यह नंदू को क्या हो गया है? बात कहीं की हो, उड़ते-उड़ते कहाँ से कहाँ जा पहुँचता है! अब यही लो, बात तो रही थी चिड़िया के घोंसले की, मगर यह तो ऐसा लगता है, जैसे महादेवी वर्मा की कविता सुना रहा हो—‘मैं नीर भरी दुख की बदली...!’

3

फिर कुछ रोज बाद चिड़िया ने अंडे दिए। और अब तीन-चार दिनों से, जब से चिड़िया के बच्चों की आवाजें सुनाई देने लगी हैं, नंदू की उत्सुकता का कोई पार ही नहीं है। वह उछलकर मेज पर चढ़ता है, बड़े गौर से चिड़िया को अपने बच्चों के मुँह में दाना डालते देखता है और कूदकर फिर नीचे। पढ़ते-पढ़ते उसका ध्यान उचटता है ओर वह झट मेज पर खड़ा होकर चिड़िया के बच्चों को देखने लगता है।

सुबह उठते ही उसका पहला काम यही होता है। मेज पर खड़ा होकर चिड़िया के बच्चों की ‘चीं-चीं’ करते देखता है और फिर खुश होकर अपने काम में लग जाता है। स्कूल जाने से पहले चिड़िया के बच्चों को ‘टा-टा’ कहना भी नहीं भूलता। शाम को स्कूल से आते ही बस्ता फेंककर सीधा मेज पर आ खड़ा होता है और चिड़िया के घोंसले के आगे ऐसे खड़ा हो जाता है, मानो अभी-अभी दुनिया का सबसे नया, नायाब तमाशा यहाँ होने जा रहा हो।

रोज स्कूल से आकर वह मम्मी से यह पूछना भी नहीं भूलता, “मम्मी, चिड़िया आई थी अपने बच्चों के लिए दाना लेकर?...कहीं भूल तो नहीं गई? ये कहीं भूखे तो नहीं होंगे।...हैं मम्मी!”

सुनकर घर और दफ्तर के ख्यालों के बीच उलझी मिसेज आनंद खिलखिलाकर हँस देती हैं। एक हलकी चपत नंदू के गाल पर लगाकर कहती हैं, “तू क्यों चिंता करता है नंदू? चिड़िया खुद अपने बच्चों की चिंता कर लेगी।”

या कभी-कभी उसे टालते हुए वे कहती हैं—“यह सब बाद में...पहले तू अपना खाना तो खत्म कर।”

मगर नंदू जब तक बीसियों बातें चिड़िया के बारे में नहीं पूछ लेगा और जब तक बीसियों दफा मेज पर चढक़र खुद अपनी आँखों से चिड़िया के बच्चों का हाल-चाल नहीं पता कर लेगा, तब तक उसे चैन नहीं।

कई बार मिसेज आनंद खीज भी जाती हैं। कुछ बरस पहले मि. आनंद का तबादला बंगलुरु हो जाने के कारण, घर की दोहरी जिम्मेदारियों से लदी-फँदी मिसेज आनंद जब गुस्से को जज्ब नहीं कर पातीं, तो डपटकर कहती हैं, “तू तो बड़ा उतावला है नंदू। देखना, किसी दिन तू चिडिय़ों के बच्चों को हाथ लगाएगा और फिर चिड़िया इन्हें यहीं छोड़ जाएगी। ये भूखे कलपते रहेंगे, याद रखना!”

तब से डर के मारे नंदू ने चिड़िया के बच्चों को हाथ तो नहीं लगाया, लेकिन उन्हें बार-बार देखने की खुदर-बुदर तो मन में मची ही रहती है। उसे लगता है, दुनिया का सबसे बड़ा खजाना उसके हाथ में है। हीरे और रत्नों से भी बड़ा। भला वह उसे देखने से अपने आपको कैसे रोके?

सारे सर्कस-तमाशे और टीवी-शीवी एक तरफ और चिड़िया के नन्हे-नन्हे रोएँदार बच्चे दूसरी तरफ। मगर जीत हमेशा चिड़िया के बच्चों की होती है।

सो क्यूट...!

4

यों ही एक-एक कर दिन बीतते जाते थे। मानो पंख लगाकर उड़ रहे हों। और नंदू की प्रसन्नता का कोई अंत नहीं था।

लेकिन आज तो कुछ ऐसी अजीब सी हालत हो गई कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था—वह क्या करे, क्या नहीं। यहाँ तक कि उसे तो इतना भी समझ में नहीं आ रहा था कि इस घटना से उसे खुश होना चाहिए या दुखी?

असल में आज नंदू की छुट्टी थी। मम्मी दफ्तर गई हुई थी। नंदू ने सोचा, “चलकर पीछे वाले आँगन में खेला जाए। चिड़िया के बच्चों का क्या हाल है, यह भी देखना चाहिए।”

उसने मेज पर चढक़र देखा, तो जी धक से रह गया। चिड़िया के चार बच्चों में से तीन ही थे। चौथा कहाँ गया! कहीं चील तो झपट्टा मारकर नहीं ले गई, या फिर बिल्ली...?

नंदू ने घबराकर इधर-उधर देखा और उदास होकर मेज से नीचे उतर आया। जैसे युद्ध हारा हुआ राजा, जिसके किले की एक दीवार दुश्मन ने ढहा दी हो!

मगर मेज से नीचे आते ही वह चौंका। आँगन के एक कोने में वही चिड़िया का बच्चा था, एकदम वही! डर के मारे एकदम सिकुड़ा हुआ सा बैठा था।

देखते ही नंदू की सारी उदासी गायब हो गई। एकबारगी तो उसे इतनी खुशी हुई कि वह मारे खुशी के चीख पड़ने को हुआ। फिर अचानक उसका ध्यान इस बात की ओर गया कि चिड़िया का बच्चा डरा हुआ है। इतनी देर से भूखा-प्यास भी होगा।...कहीं इसे पानी की जरूरत तो नहीं है?

वह एक कटोरी में पानी भर लाया और उसे चिड़िया के बच्चे के पास ला रखा। मगर वह छुटका-सा चिड़िया का बच्चा पानी पिए कैसे?

नंदू उलझन में है। मगर ठीक समय पर उसे गुपलू की याद आई। नंदू को यकीन था, गुपलू से ज्यादा इस दुनिया में चिड़िया और चिड़िया के बच्चे के बारे में कोई और नहीं जानता। इसीलिए क्लास के ज्यादातर बच्चे चाहे उसके शेखीखोर होने से चिढ़ते थे, पर नंदू उसे बर्दाश्त करता था। यहाँ तक कि प्यार भी करता था।

“गुपलू कह रहा था—अगर रुई भिगोकर चिड़िया के मुँह में पानी डालो, तो वह पी लेगा।” नंदू को याद आया, तो उसकी निराशा कम हुई। वह झट रुई लेने के लिए अंदर गया।

अभी वह रुई लेकर बाहर आया ही था कि आँगन में अमरूद के पेड़ पर से चीं-चीं-चीं की इतनी आवाजें आईं कि वह चौंक गया।

“कौआ...मुटल्ला, काला! ...उफ!!” उसके माथे पर मारे भय के पसीना छलछला आया।

इसमें शक नहीं कि वह दुष्ट खलनायक कौआ नीचे आकर चिड़िया के बच्चे को हड़पना चाहता था। अमरूद के पेड़ पर बैठीं चिडिय़ाँ इसीलिए आवाजें कर रही थीं।

“हे राम, चिड़िया को तूने इतना भोला, इतना मासूम क्यों बनाया? हे राम, यह दुनिया ऐसी क्यों है, जिसमें कोई किसी दूसरे के बच्चे को...? हे राम...हे राम!” जाने कितने ‘हे राम’ आज पहली बार नंदू के मुंह से निकले थे।

मगर इसीलिए नंदू चिंता में। नंदू पसीने-पसीने। नंदू इस समय, जरा गौर कीजिए—दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक है!

5

तो यानी कि नंदू परेशान हो गया। वह क्या करे, क्या नहीं! उसने रुई से दो बूँद पानी चिड़िया के बच्चे के मुँह में डाला था। मगर घबराहट के मारे वह भी उसने पिया नहीं। इधर यह दुष्ट कौआ न जाने कहाँ से चला आया!

नंदू की सारी खुशी काफूर हो चुकी थी। और वह डर सा गया था—कहीं चिड़िया के इस बच्चे का अनिष्ट न हो जाए।

“जब तक मम्मी नहीं आती, तब तक मैं यहीं रहूँगा।” सोचकर वह दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। और प्यार से चिड़िया के बच्चे को पुचकारने लगा।

कुछ देर बाद उसे भूख लगी, लेकिन कहीं वह पाजी कौआ फिर न आ जाए! सोचकर वह वहाँ से नहीं हिला। और मन ही मन भगवान से दुआएँ माँगने लगा—‘हे भगवान, किसी तरह चिड़िया के बच्चे को बचा ले—हे भगवान...हे भगवान!’

6

‘...ट्रिन्न...ट्रिन्न्...न!’

दोपहर को कालबैल की आवाज सुनाई दी, तो नंदू समझ गया, जरूर मम्मी आईं हैं। अरे, मम्मी के आने का आज पता ही नहीं चला।

वह दिन भर के अपने भीषण कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान से निकलकर दरवाजा खोलने गया। दरवाजा खोलते ही नंदू फिर दौड़कर आँगन की ओर भागा।

“क्या है नंदू? आज तो तुमने मुझसे बात ही नहीं की!” मम्मी ने लाड़ से कहा।

“मम्मी, चिड़िया का बच्चा!” नंदू के मुँह से बस इतना ही निकला। वह रोआँसा हो चुका था।

“क्या हुआ चिड़िया के बच्चे को?” मम्मी तब तक आँगन में आ चुकी थीं।

आँगन के कोने में डरे, सिकुड़े चिड़िया के बच्चे और नंदू को देखा, तो मिसेज आनंद का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। आज ऑफिस में बॉस ने कुछ ऐसा कह दिया था कि वे अंदर ही अंदर तिलमिला गई थीं, पर चाहते हुए भी जवाब नहीं दे पाई थीं। असल में कभी-कभी नंदू की वजह से उन्हें दफ्तर से वक्त से कुछ पहले उठना पड़ता था। पर वे रोज का सारा काम रोज निबटाती थीं नियम से और कुछ भी कल के लिए पैंडिंग नहीं छोड़ती थीं। लिहाजा बॉस को भी कोई परेशानी न थी।

पर आज पड़ोस के भेंगी आँखों वाले मिस्टर अरोड़ा ने कुछ ऐसा कह दिया...ऐसा कि बॉस के अंदर हवा भर गई। भरती गई और फिर उन्होंने कह ही दिया कि “मिसेज आनंद, देखिए यह रोज-रोज की बात, ऐसे तो चलेगा नहीं!”

‘तू...तू...तेरा परिवार नहीं है! तू नहीं जानता किस तरह मैं अपने बच्चे को पाल रही हूँ, जबकि मेरे हसबैंड, तू अच्छी तरह जानता है कि यहाँ नहीं...! तुझ पर भी कभी कुछ बीते तो पता चले!’

गुस्से में खदबदा गई थीं मिसेज आनंद। कहना तो बहुत कुछ चाहती थीं, पर कहतीं कैसे! यह नौकरी जरूरी थी उनके लिए, वरना तो...!

लेकिन रास्ते भर हवा में उँगलियाँ हिला-हिलाकर मानो वे बॉस को यही सब सुनाती आई थीं। उनका ब्लड प्रेशर बढ़ गया था और सिर चक्कर खाने लगा था। वे घर आते ही लेटना चाहती थीं। और...और अब घर पर लाड़ले ने यह दृश्य क्रिएट कर दिया।

चिल्लाकर बोलीं, “मुझे मालूम था, तू ये शरारत करेगा...मुझे मालूम था।”

नंदू को काटो तो खून नहीं।

“नहीं मम्मी, मैंने कुछ नहीं किया, मैं तो...!” नंदू कहना चाहता था, पर मम्मी को सख्त नजरों से अपनी ओर देखते देखा, तो चुप हो गया।

7

“मम्मी, मैं तो इसे कौए से बचा रहा था।” कुछ देर बाद नंदू ने फिर धीरे से कहा।

“मगर...यह नीचे आया कैसे, गिरा कैसे?” मिसेज आनंद ने गुस्से से बिफरकर पूछा।

“मुझे नहीं पता मम्मी, मैंने तो इसे आँगन में गिरा हुआ देखा था। फिर मैं रुई लाया, इसे पानी पिलाने के लिए। कौआ इसे खाना चाहता था, इसलिए मैं सुबह से यहीं बैठा हूँ...नाश्ता भी नहीं किया।”

सुनते ही एक क्षण में मिसेज आनंद का गुस्सा काफूर हो गया। उन्हें नंदू पर बहुत लाड़ आया। बोलीं, “अरे नंदू, तू तो बहुत अच्छा है रे! मैं तो यों ही तुझ पर बिगड़ रही थी।”

पर नंदू अब भी अपनी उसी भाव-समाधि में था—“मम्मी...मम्मी, यह चिड़िया का बच्चा...? इसका अब क्या करेंगे?”

मिसेज आनंद हँसीं, “अरे, करना क्या है? मैं इसे फिर से घोंसले में रख देती हूँ।”

उन्होंने बहुत प्यार से पुचकारकर चिड़िया के बच्चे को हथेली पर लिया और आहिस्ता से घोंसले में रख दिया।

रखते समय उन्हें लगा, मानो ‘खुल जा सिम-सिम’ करते हुए, बचपन के जादुई करिश्मों से भरे अजायबघर का दरवाजा खुल गया है। और भीतर...इतने ललचाने वाले दृश्य, और चीजें और खेल हैं कि...अगर उन्होंने खुद को नहीं रोका तो अभी बच्ची बनकर नंदू के साथ खेलने और बतियाने लगेंगी।

नंदू ने भी देखा और सोचा—आज मम्मी कितनी अच्छी लग रही हैं! सचमुच कितनी अच्छी, कितनी प्यारी...!

उधर चिड़िया और चिड़ा भी यह देख रहे थे। उनकी एक साथ चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। मानो दोनों मिलकर नंदू और उसकी मम्मी को धन्यवाद दे रहे हों!

कहानीकार का ध्यान अभी चिड़िया, चिड़े और चिड़िया के बच्चे की सम्मिलित चीं-चीं-चीं की ओर था कि अचानक उसने देखा, नंदू और उसकी मम्मी भी चिड़िया और चिड़िया के बच्चे में बदल गए हैं। शाम के डूबते सूरज की मद्धिम रोशनी में उनके खूब बड़े, रोएँदार सुनहले पंख चमक रहे हैं, ठीक चिड़िया की तरह। और फिर चिड़िया, चिड़ा, चिड़िया के बच्चे और नंदू और नंदू की मम्मी सभी एक सुनहले आसमान की ओर उड़ने लगते हैं। वे उड़ रहे हैं—उड़ते जा रहे हैं...यहाँ तक कि उड़ते-उड़ते नजरों से ओझल हो जाते हैं।

**

4

आओ लतिका, घर चलें

प्रकाश मनु

*

सड़क थी—एक लंबी खिंची हुई, काली और बदसूरत सड़क। जैसे तेज गरमी के कारण वक्त की हाँफती हुई जीभ बाहर निकल पड़ी हो और बेतरतीब घुमावों के साथ पसर गई हो। बिलकुल बेमतलब, बेमानी।

और क्या? सड़क का भी कोई मतलब होता है। सड़क तो सड़क होती है, जिस पर से लोग, नहीं, लोग नहीं—पैर, सिर्फ पैर गुजरते हैं। आते हैं, जाते हैं और उन पैरों के नीचे दबी सिसकियाँ भरती सड़क। सड़क का भी कोई मानी होता है?

चलते-चलते अचानक सोचने लगी लतिका—लोगों से खचाखच भरे, समूचे शहर का बोझ अपनी छाती पर झेलती सड़क। और फिर भी कित्ती अजीब चीज है कि सड़क का कोई अपना अर्थ, कोई अपना वजूद, कोई अपना प्रयोजन नहीं। बस हमें, हमारे काम के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है। नहीं, ले कहाँ जाती है, वह तो ठहरी रहती है। गुजरते तो पैर हैं।

तो क्या उन पैरों का ही कोई प्रयोजन है? और उन तमाम मोटरगाडिय़ों, कारों, बसों का, जो तैरती हुई आती हैं। खचाखच लोगों से भरी। कुछ लोगों को छोड़ती, कुछ को भरती हैं और फिर हड़बड़ी मैं वैसी ही हाँफती हुई गुजर जाती हैं।

क्यों, कहाँ! कहाँ जाते हैं इत्ते सारे लोग? इन्हें कहाँ पहुँचने की इतनी हड़बड़ी है? क्या इनकी जिंदगी में इतना ढेर सारा सुख है कि...? क्या इनकी जिंदगी का वाकई कोई प्रयोजन है!

और अगर है तो कितने भाग्यशाली हैं ये लोग। लेकिन...

2

लेकिन...असंख्य अनजाने चेहरों, असंख्य आँखों, असंख्य पैरों के हूजूम में, एक बेतरतीब भीड़ का हिस्सा बनी हुई, चलते-चलते अब वह थक गई थी।

सिर पर सूरज चिलक रहा था और उसकी तेज, नंगी धूप आँखों में चौंध पैदा कर रही थी। गरमियों में शाम के वक्त भी सूरज इस कदर तपता है कि जैसे वह मन की सारी आद्र्रता को जलाकर सोख लेना चाहता है।

उसने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करने की कोशिश की, लेकिन बेकार। भीतर कोई और भट्ठी तप रही है और भीतर और बाहर की दोनों धधकती हुई भट्ठियाँ जैसे उसकी भावनाओं के रस को सोख लेना चाहती हैं, पी जाना चाहती हैं।

क्या उसी को इतनी झुँझलाहट हो रही है? या सभी इस ताप में ऐसे ही तपते हैं, लेकिन कहते नहीं। उसका मन हुआ किसी से पूछे। लेकिन किससे?

पास ही पानी वाला दिखाई पड़ा तो वह हड़बड़ाहट में करीब-करीब दौड़ते हुए, उस तक गई और जल्दी-जल्दी पानी के दो-तीन गिलास पी डाले। बैग से निकालकर उसने पाँच रुपये का नोट दिया, बाकी पैसे लेकर चल दी।

पानी के ठेले वाला लड़का थोड़ी देर उजबक-सा, उसे अजीब-सी नजरों से देखता रहा। शायद उसकी प्यास या बेसब्री उसे अजीब लगी हो। फिर कॉलेज के कुछ लड़के-लड़कियाँ आ गए, तो वह झट उनकी सेवा में लग गया। उन लड़के-लड़कियों की चीं-चपर बातों और बेवजह हँसी के बीच उस पानी वाले लड़के भी उत्साहित ‘लीजिए...लीजिए’ की आवाजें दूर तक उसे सुनाई देती रहीं।

अचानक उसे लगा कि आधुनिकता का अर्थ पैसा है, सिर्फ पैसा। अपनी हर जरूरत, हर इच्छा की पूर्ति जो चाहे जहाँ से करे, सिर्फ जेब में पैसे होने चाहिए कीमत चुकाने के लिए। भावना और जज्बात की लाश पर कहकहे लगाती आज की जिंदगी पैसा है, सिर्फ पैसा। हर स्वार्थ, धोखा और चालाकी इसी पैसे को लेकर है। उसे लगा कि वही जैसे पिछड़ गई है। बार-बार धोखे और चोट खाती हुई भी इस हकीकत को मानने से इनकार करती रही है। और इसीलिए बिन्नू और मोना तक उसका मजाक उड़ाते हैं।

कल ही तो टीवी प्रोग्राम ‘ग्रेट लाफ्टर’ देखते-देखते मोना ने कहा था, “लतिका दीदी को तो आज से दो सौ साल पहले होना चाहिए था। बिलकुल अठारहवीं सदी जैसी सीधी और सेंटीमेंटल!” और यह सुनकर बिन्नू तालियाँ बजाकर हँस पड़ा था—“आइडिया, आइडिया! बिलकुल अठारहवीं शताब्दी का मॉडल। तुमने मेरे मन की बात छीन ली मोना!”

—अठारहवीं शताब्दी की मॉडल! सीधी-सादी मिट्टी की मूरत, भावुक... दकियानूस! और भी न जाने क्या-क्या? छोटे-छोटे बच्चे भी उसे चिढ़ाने लगे हैं। इसलिए कि उसे वह सब अच्छा नहीं लगा जो सबको अच्छा लगता है।...किसी एक को निशाना बनाकर ‘हा-हा’ करना, यह फूहड़ता है या मनोरंजन? उसके भीतर सवाल पर सवाल उठते हैं। पर उन सवालों की क्या इतनी बड़ी सजा होती है कि हर कोई उस पर फब्तियाँ कसे? बच्चे तक!

तो क्या अब यही उसकी जिंदगी रह गई है? इसमें कहाँ है कोई अर्थ! एक बेजान सा हड्डी का टुकड़ा जैसे जिंदगी के नाम पर उसके गले में लटका दिया गया है कि वह कल्पना से उसमें रंग भरे। झूठी गलतफहमियों के रंगों से उसे कोई इंद्रधनुष, कोई कलाकृति बना दे। और सबके बीच नकली मुस्कानें ओढक़र खड़ी हो जाए कि वह सुख से जी रही है, खुश है, बहुत खुश।

लेकिन वह जानती है कि सुख की सूरत देखने के लिए वह तरस गई है। जिंदगी को सिर्फ एक लंबे, घिनौने अपमान के चक्के के रूप में उसने जाना है। दफ्तर में क्लर्कों की लिजालिजाते कीड़ों जैसे रेंगती हुई निगाहें जैसे उसके कपड़ों को तार-तार करके नंगा कर देना चाहती हों। और दिनेश वर्मा जैसे लीचड़ अफसरों के हाथ “तुम बहुत अच्छी हो, प्यारी हो, लता...ऐं! हम तुम्हारी तरक्की करवा देंगे।” जैसे वाक्यों के साथ लिजलिजाते केंचुओं की तरह पहले कंधों और फिर कंधों के नीचे फिसलने लगते हैं, तब...तब उसे लगता है कि वह गुस्से में थूक दे उनके चेहरों पर! चिल्ला पड़े कि क्या सभी आदमी जंगली भेड़िए होते हैं जो औरत की इज्जत को नाखूनों से काट-काटकर स्वाद लेना चाहते हैं?

तो फिर इस जिंदगी का मकसद ही क्या बचा है? झूठ...मुखौटे...नकली मुस्कानें। लपलपाती जीभें। वासना के कीड़े। भेड़िए...! और इस सबको दिया हुआ एक खूबसूरत कलेवर, यानी प्यार, यानी सौंदर्य! क्या यही हैं सौंदर्य के माने कि हर बार उसे मर्द के नाखूनों पर तुलना है? क्या यही है जिंदगी?

उसका मुँह बुरी तरह कसैला हो आया। जैसा कि हर बार करीब-करीब हर दूसरे-चौथे दिन हो ही जाता है। जब वह ऐसा ही रूखा चेहरा, ऐसे ही अपमान के तमाचे खाकर लौटती है, घिसटते पैरों से। घिसटते पैरों पर लदा हुआ एक निर्जीव जिस्म बनकर। हर बार उसकी तबीयत होती है कि वह इस संसार से दूर कहीं और कहीं और चली जाए। और हर बार उसके थके-थके कमजोर कदम सड़कों पर बेशुमार पैरों की भीड़ से गुजरते हुए, उसे उसके घर लाकर पटक देते हैं। घर पर सौतेली माँ के तानों और बिन्नू और मोना के तीखे व्यंग्य-बाणों से बिंधी हुई, कातर और असहाय वह बिस्तर पर जा गिरती है।

और बिस्तर पर पड़ी हुई देर तक सोचती है, सोचती रहती है। क्या सोचती है वह? वह शायद खुद भी नहीं जानती। टूटे, खंडित और बदसूरत चित्रों और खौफनाक आवाजों का एक ऐसा सिलसिला, जिसके बीच उसका अस्तित्व तार-तार होता है। तेज धूलभरी आँधियों के बीच पैरों से रौंदे जाते किसी असहाय फूल की तरह छटपटाता है। और वह सोच नहीं पाती कि दर्द कहाँ ज्यादा है, नागफनी के काँटे कहाँ अधिक जहरीले हैं, घर में या दफ्तर में...?

घर...! कहाँ है उसका घर? क्या चार दीवारों और छत तथा रोज-रोज चेहरे पर तमाचों की तरह पड़ने वाले अपमान के धक्कों को ही कहते हैं घर? नहीं, उसका कहीं घर नहीं है। आज वह अभी से घर नहीं जाएगी। वह थोड़ी देर अलग बैठकर अपनी जिंदगी के बारे में सिलसिले से कुछ सोचना चाहती है। लेकिन कहाँ...कहाँ मिलेगा उसे सुकून?

3

अचानक उसने पाया कि उसके थके पाँव एक बस स्टॉप पर आकर रुक गए हैं। एक बस आई है, वह भीड़ के रेलेे के साथ उसमें चढ़ गई है। बस कनाट प्लेस की ओर जा रही है। हाँ, वहीं तो उसे जाना है! पर बस की यात्रा भी क्या लिस-लिस करते धक्कों और अपमान के बगैर पूरी नहीं होगी? यह पीछे खड़ा गंजा अधेड़ आदमी...! यह इतना चिपककर क्यों खड़ा है? उफ, उसे कै आने को हुई। शुक्र है कि रीगल आ गया। दोनों हाथों से भीड़ के धक्कों को बचाती हुई, झटके से वह उतरी है।

तेज दौड़ती कारों और कानों को फोड़ती हॉर्नों की आवाजों को नजरअंदाज करती वह सेंट्रल पार्क में आ जाती है। ठीक वहाँ, जहाँ वे दोनों बैठा करते थे। वह और अरुण... अरुणेश! अक्सर एक दीवानगी का परचम लिए कि करना है, करना है, कुछ कर गुजरना है जिंदगी में, और इसलिए एक-दूसरे का साथ...!

हाँ, यहीं तो वे बैठा करते थे, यहीं! दूर-दूर तक हरियाली थी। एक क्यारी में बहुत खूबसूरत लाल-पीले फूल हवा के साथ हौले-हौले झूम रहे थे, जैसे किसी गृहिणी ने कोई नई चटख साड़ी अभी-अभी धोकर सूखने डाली हो। साथ ही क्यारी में कुछ छितराए हुए-से उजले सफेद फूल थे, जैसे तारे छिटके हों। और सामने चमकती बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतें! रोशनी की जगर-मगर!

तेज रोशनियों से जगमगाती वह सड़क, सड़क नहीं, रोशनी का समंदर लगती थी। तेज सर्राटा भरती, दौड़ती कारें। नहीं, कारें नहीं, तैरती हुई किश्तियाँ! और इन सबसे तटस्थ वे हैरान रह जाते थे कि इस सबके बावजूद सुख कैसे लोगों की मुट्ठियों से फिसल जाता है? सुख उनके आसपास उस हरियाली, उन फूलों में था। उसी सुख के चारों और एक छोटा-सा घर रचते वे दोनों।

अरुणेश के पास कितनी बातें थी। घर, दफ्तर, छोटे भाई-बहन, सबके बारे में वह बड़ी दिलचस्प बातें बताता था। उसके दफ्तर में कुछ अशांति चल रही थी। मैनेजमेंट का दमन-चक्र शुरू हो गया था और यूनियन प्रभावी ढंग से उससे टक्कर नहीं ले पा रही थी।

“ये सब मिल गए है मैनेजमेंट से...दोगले, दल्ले कही के!” गुस्से में कई बार अरुणेश उबल पड़ता है और तब उसका तमतमाया चेहरा बेशब्द नारे लगाते हुए दिखता था—हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है...!

वह केवल सुनती थी, सुनती थी, चुपचाप सुनती रहती थी। उसे अच्छा लगता था कि अरुणेश बोले और बोलता रहे! अरुणेश के बोलने का ढंग था भी इतना प्रभावी और आकर्षक।

और अरुणेश जब उसे अपने बारे में कुछ बताने, बोलने के लिए कहता, तो वह लज्जित होकर सिर झुका लेती या फिर सोचती कि कुछ कहे भी तो क्या? क्या वह बताए कि घर में सौतेली माँ, बिन्नू और मोना की जहरीली बातें के कैक्टस उसे कैसे छीलते हैं, और दफ्तर में कैसे...तीन-तीन बॉस और तीनों एक से बढक़र एक खुर्राट। और अब तो कुछ दिनों से बुड्ढा एकाउंटेट भी लार टपकाने लगा था। तनख्वाह देते हुए चुपके से हथेली दबा देता, ‘लो, लतिका रानी...!’

वह कुछ नहीं कहती थी, कुछ नहीं कह पाती थी। फिर भी शायद अरुणेश को पता था। उसकी चुप्पी, खोई-खोई और उदास आँखें देखकर अरुणेश जैसे सब समझ गया था। और वह अपने खास जोशीले लहजे में उसे धीरज बँधाता।

कई बार तो वह सब कुछ भूलकर बस अरुणेश के हिलते हुए होंठों और उसके चेहरे पर एक के बाद एक आते-जाते भावों को देखती रहती थी, और शब्द उसके ऊपर से बहते चले जाते थे। तब अरुणेश को ही उसे जगाना पड़ता कि “अरी ओ लतिका महारानी, कहाँ हो? धरती पर कि सपने की आकाश गंगाओं के बीच! तुम नहीं बोलोगी कुछ?”

वह उसे उदासी से बाहर निकालना चाहता था। वह उसे खुश और मुसकराता हुआ देखना चाहता था। “देखो तो कभी आइने में, हँसते हुए तुम कितनी अच्छी लगती हो। और उदास होती हो तो, हुँह...ज्यॉमेट्री का त्रिभुज हो, ऐसी रूखी और बेजान!” और फिर वह जान-बूझकर अजीब सा गोलगप्पा-नुमा मुँह बनाकर बैठ जाता था उसे छेड़ने के लिए। उसकी इस मुद्रा पर वह एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ती। और उसकी सारी उदासी की पर्त के परखचे उड़ जाते।

उसकी इस खिलखिलाहट पर वह कभी-कभी बहुत भावुक होकर कहने लगता, “सच्ची लती, जब तुम हँसती हो तो लगता है, हरसिंगार अचानक महक उठे हों। या रजनीगंधा के फूल टप-टप करने लगे हों। मैं वे फूल चुन-चुनकर, अपनी कविताओं में सजा दूँगा लतिका!’

“बस्स...! या कि फिर इन्हीं फूलों से घर भी बना लोगे? बिलकुल कल्पित—इंद्रधनुष जैसा, जो केवल कविताओं में होता है!” वह जान-बूझकर उसे छेड़ती।

“नहीं लती, नहीं, यह होगा। सचमुच होगा। बिलकुल फूलों जैसा घर। हम दोनों इसे रचेंगे, हम दोनों। तुम्हें यकीन नहीं होता?” कहते-कहते अरुणेश रोंआसा हो जाता।

पर फिर यही फूल देखते ही देखते मुर्झाए और बदरंग होकर जमीन पर...

और बड़ी-बड़ी बातें करने और बड़े सपने दिखाने वाला यही अरुणेश एक दिन चला गया। सामने असंख्य कारों, और मार तमाम लोगों के समुद्र में खो गया। उसे एक खूबसूरत बीवी मिली जो शायद कभी उदास नहीं होती थी। और एक स्कूटर, एक रंगीन टेलीविजन, एक फ्रिज और कुछ तोले सोना। इस सबसे उसकी बहन की शादी का बंदोबस्त भी हो गया।...लतिका से क्या मिलता उसे?

अब वह काफी निश्चिंत था। हालाँकि लतिका से मिलते समय एक गहरी उदासी उसकी आँखों में आ जाती थी। और लतिका जानती थी कि यह झूठी नहीं है। उससे झूठ नहीं बोल सकता था अरुणेश। अब वह सिर्फ यही चाहती थी कि वह जहाँ रहे, जैसा भी रहे, सुखी रहे। और उसके बारे में न सोचे—बस्स।

4

उसे याद आया, इस जगह जब वे दोनों आखिरी बार मिले थे, देर तक अरुणेश चुप रहा था। और कुछ-कुछ हक्की-बक्की-सी लतिका सोच नहीं पा रही थी कि उस अजीब-सी चुप्पी को कैसे तोड़े? क्योंकि वह तो अरुणेश का काम था। वही बातचीत शुरू करता था और लतिका को कभी अपनी सरल कभी शरारती बातों में खींच लेता था।

पर आज! क्या हो गया है अरुणेश को?

“क्यों...अरुण, दुखी हो? मुझे नहीं बताओगे?” वह कातर हो आई थी।

और अरुणेश ने भर्राए हुए गले से कहा था, “लती, सब टूट गया। वे रंग, फूल, ख्वाब...फूलों का घर! लती, सब कुछ। पापा नहीं माने। उन्होंने मेरी शादी तय कर दी है। मुझे बेच डाला है, ताकि वहाँ से जो पैसा, जो सामान मिले, उससे रजनी की शादी हो। वह अब बड़ी हो गई है। इधर मेरी नौकरी डावाँडोल है, पापा रिटायर हो चुके हैं। रोज सुबह सुना देते हैं, छोटी बहन की शादी तुम्हारे जिम्मे हैं! कहाँ से जुटाऊँगा रजनी के लिए दहेज? लती, मैं क्या करूँ? मैं कुछ भी तो नहीं!”

वह चुपचाप सुनती रही थी और अरुणेश का चेहरा अचानक आँसुओं में डूब गया, “मैं झूठा हूँ लती, झूठा और पाखंडी! मैंने तुम्हें क्यों ख्वाब दिखाया, जब मैं उसे पूरा नहीं कर सकता था? मैं कायर हूँ, बुजदिल...!” अरुणेश चीख पड़ा था।

पर वह जड़, निश्चेष्ट-सी सुनती रही थी, जैसे जो कुछ कहा जा रहा है, उससे उसका कोई संबंध नहीं है। न सुख, न दुख! दोनों से परे एक अजीब पथरायापन व्याप्त हो गया था उसमें। जैसे उसे पता हो कि आखिर यही होना था।

उसने कुछ नहीं कहा था, सिवाय इसके कि “चुप हो जाओ अरुण, चुप! चुप बैठे रहो ऐसे ही। मुझे बुरा नहीं लगा...पर कुछ कहो मत, कुछ नहीं। मुझे तुमसे जो मिला है, वह कम नहीं। वह किसी ने नहीं दिया जो तुमने इत्ता, भर-भर कर दिया है—प्यार! वह मेरी पूँजी है। जीवन भर की अकलंक पूँजी! हाँ, अरुण, उसे कम करके मत आँको।”

अपने आँसुओं को भरसक वह थामे रही थी। फिर उसने खुद प्रस्ताव रखा था मद्रास होटल चलकर कॉफी पीने का।

और कॉफी पीते हुए वह अकारण मुसकराने की कोशिश करती रही थी। अरुण को वह बार-बार सँभालती रही थी। जैसे पिछले सिर्फ एक घंटे में, वह अरुणेश से दस-बीस साल बड़ी हो गई हो और वह उसके सामने बच्चा हो—निरा शिशु!

फिर अरुण उसे हर बार की तरह उसके बस स्टॉप पर छोड़ने आया था। पर इस बार शायद...आखिरी बार। और उसके बैठ जाने के बाद वह सूनी आँखों से देखता रहा था। अभिवादन के लिए हाथ तक नहीं हिला सका था। तब उसी ने मुसकराकर हाथ हिलाकर संकेत किया था अरुण को...

पर बस के चलते ही वह अधीर हो आई थी। अब उसके लिए खुद को सँभालना मुश्किल हो रहा था। अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को और अधिक फैलाकर वह अपने आँसुओं को भीतर ही भीतर पी जाने की असफल कोशिश करती रही थी। ताकि... ताकि...बस में आसपास बैठे यात्रियों के बीच तमाशा न बने।

तब से चार महीने चार जनमों के बराबर बन गए उसके लिए। रोज दफ्तर जाना, आना और रात में सबके सो जाने पर अपने बिस्तर में लेटे अँधेरे में चुपचाप रोना। यही उसका जीवन-क्रम बन गया था। इस बीच इतना रोई है वह कि शायद जितना बारह साल लगातार सौतेली माँ के भीतर तक बेधने वाले तीरों और दफ्तर के लोगों की चुभती बातों के कैक्टसों की पीड़ा से भी नहीं रोई।

अब जिंदगी का पहाड़ दिनोंदिन भारी हो रहा था और लड़ने की उसकी ताकत लगातार कम होती जा रही थी। जैसे वह भीतर ही भीतर खुद को खोद-खोदकर खा रही हो। तो क्या वह ऐसे ही रोती रहेगी जिंदगी भर, ऐसे ही दुख सहती रहेगी जिंदगी भर? क्या यही उसकी नियति है?

5

अँधेरा हो चला था। उसने देखा कि पार्क से लोग एक-एक करके उठते जा रहे हैं। वह करीब-करीब अकेली रह गई थी। अँधेरा और सन्नाटा तथा उसके बीच भयभीत, विवश अकेलापन।

क्या वह इस नियति के खिलाफ विद्रोह कर रहे दे? मगर कैसे, कैसे! अपने आपको समूचा झोंककर भी क्या वह अपने आपको बचा सकती है? अपनी कोई मुकम्मल तस्वीर बना सकती है अब—नामुमकिन!

तो...क्या वह अरुणेश की बात पर गौर करे, उसका प्रस्ताव मान ले? क्या यही रास्ता बचा है उसके लिए अब? उसकी चिट्ठी आए भी तो पूरा हफ्ता हो चुका था और वह दर्जनों बार उसे पढ़ चुकी थी। अरुणेश ने जवाब माँगा था, मगर जवाब अब उसके पास रह ही कहाँ गए थे? तीखे बेडौल और जलते हुए सवाल! सवालों का पूरा एक जंगल था और वह उसमें घिर गई थी। फिर जवाब भला क्या दे?

उसके हाथ अनजाने पर्स में खदर-बदर करते वह मैली, घिसी हुई चिट्ठी खोज लेते हैं, जिस पर स्याही, लिपस्टिक और पानी के ढेर-ढेर-से धब्बे हैं। लिफाफे में छोटा-सा कागज। उस पर चार-छह लाइनें। उसकी आँखें एक दफा फिर मशीनी ढंग से उस कागज पर जा चिपकती हैं :

‘लती, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम पहले की तरह दोस्त बने रहें जिंदगी भर! शादी-ब्याह तो औपचारिकताएँ हैं, बंधन हैं। हुई न हुई या किसी से भी कर ली। मगर हमारी दोस्ती तो औपचारिक नहीं थी न! इस बीच मैंने तुम्हें बहुत-बहुत मिस किया है। लिखना, अगर तुम भी चाहो कि हमारी शामें फिर से एक साथ मिलकर हँसें-गुनगुनाएँ!

तुम्हारा अपना—अरुणेश’

*

पढक़र फिर उसका मुँह कसैला हो गया। पलकों तक पर वह कसैलापन बुरी तरह छा गया था। और आँखें फिर सूनी और भारी-भारी लगने लगी थीं।

पार्क में अब एकदम सन्नाटा है। भयावह और सिहरन भरा सन्नाटा! और घास पर छूट गए कनेर, अमलतास और बोगनबेलिया के कुछ फूल जिन्हें वह अनजाने इकट्ठे करती रही थी। एक काली परत उन पर चढ़ती चली जा रही थी—और गहरी...और गहरी।

कभी ये पीले अमलतास कितने लिरिकल लगते थे। और कनेर, बोगनबेलिया कितने ही फुसफसाहट भरे कोमल संवादों के गुप्तचर, भेदिए...! मगर अब ये उमस उगल रहे थे—सिर्फ उमस। ढेर-ढेर-सी न बर्दाश्त होने वाली चिपचिपी उमस।

अचानक जाने क्या हुआ कि उसके हाथ बागी हो गए। पहले हाथ और फिर सर्वांग—और वह तेज लपटों से घिर गई।

उसने उस कागज की चिंदी-चिंदी कर दी। उन फूलों को मसला और उन पर मिट्टी की, घास की तहें ऐसे जमा दीं जैसे श्रद्धांजलि दे रही हो।

—नहीं, अब वह यहाँ नहीं आएगी सुकून खोजने, कभी नहीं! उसने तय किया। जो नहीं है वह नहीं ही है। हवा पर—गरम चीखती हवा पर कितनी सुनहरी परतें चढ़ाए कोई?

उसे जाने क्यों लगा, उसके हाथ अँधेरे और कीचड़ से बुरी तरह सने हैं, टाँगें काँप रही हैं। उन्हीं कीचड़ और अँधेरे से लिपटे हाथ-पैरों से वह बस स्टाप की ओर बढ़ने लगी, जैसे कोई अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को दफनाकर लौट रहा हो!

मगर तभी अचानक किसी ने आगे बढक़र उसका हाथ थाम लिया, ‘सुनो...सुनो लतिका सुनो!’

‘कौन...कौन...?’ वह चुप, विभ्रांत, अवाक! और अब अपने भीतर गूँजते लफ्ज वह साफ सुन रही है, ‘जरूरी तो नहीं लतिका कि जीने के लिए इस या उसका सहारा लिया जाए। एक औरत का अपनी इच्छाओं का घर भी तो हो सकता है।...हाँ लतिका, हाँ, अब तुम्हें वही घर बनाना है!’

लतिका एक पल के लिए ठिठकी, अचकचाई फिर एक झीनी-सी मुसकान उसके चेहरे पर आई। और अब उसके कदम उसी घर की ओर बढ़ रहे हैं।

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5

थैंक्यू सर

प्रकाश मनु

*

अचानक ही वह प्रिंसिपल मनचंदा से टकरा गया था।

कॉलेज का स्पोट्र्स टूर्नामेंट चल रहा था और आज उसका फाइनल डे था। इस समापन-समारोह की अध्यक्षता राज्य के मंत्री महोदय बोधासिंह बिद्दू को करनी थी। अच्छी-खासी दान-राशि कालेज को मिलने की संभावना थी। प्रिंसिपल मनचंदा का नाम-वाम भी होता। पर यह साला मौसम भट्ठा बैठाने पर तुला है।

बारिश, बेवक्त-बेमौसम!...

प्रिंसिपल मनचंदा बेचैनी से बरामदे में टहल रहे थे।

मंत्री महोदय बोधासिंह बिद्दू तक वे दो-चार जैक यानी जुगाड़-तुगाड़ लगाकर पहुँच तो गए थे और उनकी ‘हाँ’ भी ले आए थे, मगर ससुर ये बादल...!

उनका बस चलता तो अपनी तर्जनी को बंदूक की तरह बादलों की ओर तानकर ‘शूट’ कर देते! पर...

पर लाचार थे। इसलिए तर्जनी से बार-बार माथा घिस रहे थे।

यही वह क्षण था, जब उसने यानी भास्कर आनंद ने उन्हें अकेला देखा तो सहानुभूति जताने के लिए पास आ गया। चेहरे पर ऐसी विनम्रता चस्पाँ करके, जिससे दुनिया भर के नौकरीपेशा गुलाम अलग पहचान में आते हैं।

“यह तो सर...कुछ अजीब ही मौसम हो गया जी!” कहने के बाद उसे लगा ‘कुछ’ पर जोर ज्यादा ही पड़ा गया है और बाद का ‘जी’ फालतू बोला गया।

प्रिंसिपल मनचंदा उसी तरह अनमने से बरामद में टहलते रहे—बेचैन, निर्वाक! क्या इन्होंने सुना, जो मैंने कहा?...या शायद नहीं सुना।

वह बिना बात नर्वस हो गया।

शब्द साथ छोड़ गए। होंठों पर केवल हिस्स...हिस्स!

फिर हिम्मत बाँधकर उसने कहा, “सर...लगता है बारिश रुक जाएगी।”

2

प्रिंसिपल मनचंदा की नजरें अब उस पर पड़ीं, “अच्छा, अच्छा देखो तो मिस्टर आनंद, जरा आसमान की ओर देखकर बताओ, यह कितनी देर तक ऐसा ही बरसोगा।”

अपनी आज्ञा को उन्होंने किंचित मुलायम स्वर में ढालकर कहा था। एक ऐसा अंदाज जिसे दुनिया भर के ‘मालिक’ खुद ब खुद सीख लेते हैं। उन्हें कहीं से सीखना नहीं पड़ता।

यह एक अवसर था—अवसर! उसने पहचानने में देर नहीं की।

फिर वह यंत्रचालित सा बरामदे के बाहर आया था। आधे मिनट तक नजरें टिकाए बेवकूफ-सा आसमान को घूरता रहा था। पूरा भीग गया था वह। पर इतनी देर में उसने सोच लिया था कि क्या कहना है।

वापस आकर उसने उगलना शुरू किया जैसे कोई जोकर मुँह से ‘छल्ले’ उगलता है। बोला, “सर, लगता है कि ज्यादा देर नहीं बरसेगा, यही...यही कोई आधा घंटा। पानी रुक जाएगा सर...! हाँज्जी, सर। और अगर न भी रुके तो सर, कोई ज्यादा तेजी से यह नहीं पड़ेगा। यानी कार्यक्रम कुछ लेट भी हो सकता है, लेकिन कार्यक्रम होगा जरूर—और शान से। इट वुड भी ए सक्सेज सर! एंड मंत्री महोदय मि. बोधासिंह बिद्दू विल भी एक्सट्रीमली हैप्पी! आई टेल यू सर, आई टेल यू...आई होप!”

दिल, दिमाग और उम्मीद के टूटे हुए पंखों की पूरी ताकत लगाकर वह बोलता गया। बोलता गया...बोलता गया।

...पंखकटा कबूतर!

गुटूर-गुटुर-गूँ...गुटुर-गूँ...गुटुर-गूँ!

हालाँकि जितनी तेजी से वह बोल रहा था, उतनी ही तेजी से भीतर कोई चिल्ला रहा था, ‘जोकर! जोकर...जोकर!...सर्कस का जोकर!’

और फिर से उसे नजर आया—मुँह से छल्ले निकालता जोकर! जलती आग के बीच से कूदता जोकर!

जोकर...! जोकर...! जोकर...!

“अच्छा, अच्छा...! अब तुम अंदर आकर बैठो।” अचानक प्रिंसिपल मनचंदा फिर तटस्थ हो आए थे।

पता नहीं, उनके चेहरे पर क्या-क्या आकर क्या-क्या चला गया था। कहाँ-कहाँ चला गया था?

डब्बा...बंद डबलरोटी!

“सर...सर वो मेरा कन्फर्मेशन!” उसने फिर से जरा ढक्कन खोलने की कोशिश की।

“अच्छा, अच्छा। सोचेंगे...”

“थैंक्यू सर!” उसने थूक निगलते हुए कहा।

*

वहाँ से आकर पंडाल में एक कुर्सी खींचकर वह बैठा, और अपने सुन्न हुए हाथ-पैरों को झटककर चेताने लगा।

आरामकुर्सी में धँसा हुआ वह सोच रहा था, “स्याला पानी बरसे, न बरसे, ऐसी तैसी में जाए आकाश और बादल! अपन ससुर कोई मौसम विज्ञानी नहीं हैं। पर...लेकिन हाँ, किसी तरह बची रहे मेरी नौकरी...ओ प्रभु!!”

और अचानक वह झाड़ी के पीछे एक ‘सेफ’ कोने में निकल गया।

उसके भीतर का जोकर अब खुलकर हँस रहा था—हा-हा-हा...! उसे लगा, कहीं हँसते-हँसते यह पागल न हो जाए!

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