डाक्टर शोभा Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डाक्टर शोभा

23.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 47, शब्द-संख्या 16,480)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

डाक्टर शोभा

प्रकाश मनु

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545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

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जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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ई-बुक्स की दुनिया में मेरी नई पुस्तक ‘डाक्टर शोभा’। यह पुस्तक इस मानी में औरों से अलग और कुछ खास है कि इसमें मेरी दो लंबी, मर्मस्पर्शी कहानियाँ, जो मेरी अत्यंत प्रिय कहानियाँ भी हैं, पाठकों के आगे आ रही हैं। ये कहानियाँ हैं, ‘डाक्टर शोभा’ और ‘टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी’।

इनमें ‘डाक्टर शोभा’ में एक बहुत नेक और भली-भली सी महिला डाक्टर की दिल को छू लेने वाली कहानी है। वह अच्छी डाक्टर है तो साथ ही एक बहुत संवेदनशील और हमदर्द स्त्री भी। इसलिए सभी उसके मुरीद हैं। दूर-दूर तक उसका नाम है और लोग दौड़-दौड़कर उसके पास आते हैं। उसकी प्रैक्टिस बहुत अच्छी चल रही थी। पर पति की कुंठा उसकी सारी खुशियाँ लील गईं। डाक्टर शोभा के जीवन का दुखांत पाठक को हिला देता है। बहुत तकलीफ के साथ यह कहानी लिखी गई थी। पढ़ते हुए शायद इसीलिए पाठकों की आँखें भी नम हुए बिना नहीं रह पातीं।

‘टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी’ भी इसी तरह दिल को छू जाने वाली बड़ी भावनात्मक कहानी है। एक टैक्सी ड्राइवर की सच्ची कहानी। दूसरों की नजरों में तो वह महज एक टैक्सी ड्राइवर ही है। पर बहुत कम लोग देख पाते हैं कि वह भी एक इनसान है। जिन मुश्किलों और विचित्र संघर्षों के बीच वह जिंदा रहा और उसमें अपना एक अलग वजूद कायम किया, उसके बारे में सोचते हुए भीतर एक हलचल-सी मच जाती है। और तब पता चलता है कि जिसे हम एक मामूली आदमी मानकर हिकारत से देखते हैं, उसके भीतर भी इनसानियत और करुणा का कैसा सोता छिपा होता है। टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ जिस तरह अपनी कड़की के दिनों के साथ-साथ, अपनी माँ के प्यार और बड़प्पन का स्मरण करता है, उससे आँखें छल-छल करने लगती हैं। दूसरी ओर पूरी तरह दुनियादार और हिसाबी-किताबी पिता का चरित्र एक बड़े से सवालिया निशान की तरह है। कहानी पढ़ने के बाद भी रामलाल दुआ और उसके जीवन की अजीबोगरीब त्रासदी को भूल पाना मुश्किल है।

इस नाते इस पुस्तक में शामिल दोनों कहानियाँ पाठकों को जीवन की मार्मिक सच्चाइयों से रूबरू कराने वाली बड़ी संवेदनात्मक कहानियाँ हैं, जो एक बार पढ़ने के बाद आसानी से भूलती नहीं हैं और हमेशा-हमेशा के लिए हमारे और आपके जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन जाती हैं।

मुझे याद पड़ता है कि ‘टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी’ डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार जैसे प्यारे लेखक-मित्रों के बीच हिंदुस्तान टाइम्स की कैंटीन में पढ़ी गई, तो कहानी सुनते हुए डॉ. माहेश्वर की आँखों में आँसू छलछला आए थे। कहानी बीच में रोकनी पड़ी थी, और एक अंतराल के बाद वह फिर शुरू हुई। इस लंबी कहानी के पूरे होते-होते रात घिर आई थी। मैंने डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार दोनों मित्रों से क्षमा माँगते हुए कहा, “माफ करें, कहानी बहुत लंबी थी। इस वजह से आपको देर हो गई।”

इस पर डॉ. माहेश्वर ने एक सीझी हुई हँसी के साथ कहा था, “दोस्त, यही तो तुम्हारी अदा है कि जिस चीज का भी वर्णन करते हो, तुम उसके इतने बारीक से बारीक डिटेल्स देते जाते हो कि सुनने वाला ताज्जुब में पड़ जाता है। कितने लेखक हैं, जिनमें अपने पात्रों के भीतर इतनी गहराई में उतरने का धीरज है, तो तुम अपनी कहानी के लंबे होने से क्यों परेशान हो? प्रकाश मनु ऐसी कहानियाँ नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा?”

बेशक कहीं न कहीं इन कहानियों में मेरी आत्मकथा के पन्ने इनमें फड़फड़ा रहे हैं और वे इन कहानियों के पात्रों को एक अतिरिक्त ममत्व और गहरी छुअन दे देती हैं, जिससे ये कहानियाँ सीधे पाठकों के दिलों में उतर जाती हैं।

अलबत्ता, इन कहानियों पर पाठकों की खुली और बेबाक प्रतिक्रियाओं की मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

23 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

कहानी-क्रम

  • डाक्टर शोभा
  • टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी
  • 1

    डाक्टर शोभा

    प्रकाश मनु

    *

    दफ्तर से आकर अपना लटकंतू थैला एक ओर रख, अभी कुर्सी में धँसा ही था कि हाथ में पानी का गिलास पकड़ाते हुए छुटकी ने कहा, “पापा, आपको पता है डाक्टर शोभा...?”

    “हाँ-हाँ, डाक्टर शोभा! क्या हुआ उन्हें, सब ठीक तो है?”

    घबराहट के मारे गिलास का पानी कपड़ों पर छलक गया। होंठ सूख रहे थे, जीभ खुश्क। मगर पानी पीने की इच्छा मर चुकी थी।

    जरूर मेरी आवाज में कोई ऐसी थरथराहट या अजब-सा खौफ व्याप गया होगा कि छुटकी डर गई। बुरी तरह। चेहरा भय के मारे पीला।

    “नहीं!” दूर से आती सुजाता ने डाँटा। चेहरे पर एक सख्त सा झिड़कता हुआ भाव कि क्यों बताया? अभी क्यों बताया? कुछ रुककर नहीं कह सकती थी?

    पानी का गिलास मेज पर पड़ा था और मैं किसी बेजान शव की तरह कुर्सी में धँसा हूँ।

    सुजाता सामने पड़ी तो मैंने भीतर की सारी शक्ति बटोरकर, बेचैनी से पूछ लिया, “क्या हुआ डाक्टर शोभा को?”

    सुजाता चुप। आँखों में ऐसी कातर चुप्पी कि सब कुछ बोलते हुए भी, कुछ नहीं बोलती।

    इससे उबरने में उसे थोड़ा वक्त लगा। आँखों की डबडबाहट सायास रोककर तटस्थ ढंग से दो शब्द आगे बढ़ा दिए गए हैं, “नहीं रहीं।”

    “कब...? कब...? क्यों...! क्या हुआ था? क्या डॉ. सचदेवा ही जिम्मेदार थे इसके लिए? जरूर होंगे वही...वही।” मेरे सवाल धैर्य खोते जा रहे थे।

    पर इन सवालों का जवाब नहीं आया।

    जो कुछ सुजाता ने बताया, उससे सिर्फ इतना ही पता चला कि घटना तो कल आधी रात की है। पर आज दोपहर को ही लोगों को पता चला कि...सुसाइड कर लिया था...खत्म!

    “तुम...गई थीं?” पूछने में मानो काफी शक्ति लगानी पड़ी।

    “हाँ, पर क्लीनिक के गेट पर ताला जड़ा था। पास में मजदूरों की एक झोंपड़ी है। उन्हीं में से कोई बता रहा था...कि यह कांड होते ही सारे मरीज उठ-उठकर गायब हो गए। डॉक्टरनी का शव सिविल हॉस्पीटल ले जाया गया है पोस्टमार्टम के लिए। इधर पुलिस का भी चक्कर पड़ा है। तो डॉक्टर दोनों बच्चों को साथ लेकर गायब। साथ ही वह चालाक लोमड़ी पूरबी मेहता भी...!”

    यानी खत्म! खत्म एक खूबसूरत औरत की जिंदा कहानी। वह औरत जो अपनी देह से ज्यादा मन-प्राणों और आत्मा से खूबसूरत थी।

    यही—ठीक यही आशंका थी कि मेरी आवाज छुटकी की आधी बात सुनते ही बुरी तरह थरथरा गई थी। चेहरा निचुड़ गया था।

    2

    असल में, झूठ क्यों बोलूँ, आशंका तो इस बात की थी। और कोई आज से नहीं, पिछले दो-तीन बरसों से थी कि कभी...कभी भी, कुछ भी हो सकता है। मगर साथ ही यह उम्मीद भी थी कि नहीं, कुछ होगा! कुछ न कुछ ऐसा चमत्कार कि रुक जाएगा बुरी स्थितियाँ का तेजी से घूमता यह चक्का...कि दुर्घटना टल जाएगी।

    मुझे मालूम था, दो-तीन ऐसी छोटी-मोटी असफल कोशिशें पहले भी हो चुकी थीं। पर यह अंतिम थी। अंतिम और निर्णायक, जिसके बाद एक बड़ा मोड़ आता है और फिर कहानी खत्म!

    आशंका और उम्मीद के दोनों पलड़ों में से आशंका का पलड़ा दिनोंदिन भारी होता जा रहा था। तो उसका नतीजा कुछ न कुछ तो निकलना ही था।

    खासकर जब से दो-ढाई कमरों वाले, हाउसिंग बोर्ड के अपने छोटे-से फ्लैट से डाक्टर शोभा और डॉ. सुभाष सचदेवा अपना ‘होली सिटी क्लीनिक’ चार सौ गज की एक तिमंजिला आलीशान कोठी में लाए थे, तब से चीजें कुछ इस तरह से बदली थीं कि उन पर किसी का काबू नहीं रहा था। न डाक्टर शोभा का, न डॉ. सुभाष सचदेवा का। पैसा खूब कमाया था दोनों ने और पिछले पाँच-सात सालों में ही चार सौ गज की यह भव्य कोठी खड़ी कर ली थी, जो बहुतों का गर्व चूर-चूर करती, हवा में किसी सपने की तरह इठलाती हुई खड़ी थी। खूब रौनक। बत्तियों की जगर-मगर। कारों के आने-जाने का सिलसिला। रात को लॉन में देर-देर तक चलने वाली शराब पार्टियाँ...!

    तब से डॉ. सुभाष सचदेवा और डाक्टर शोभा के दांपत्य जीवन की सुख-समृद्धि से ईष्र्या करने वाले बहुत पैदा हो गए थे। पर भीतर की बात कम ही लोगों को मालूम थी। बहुत कम लोगों को उस दरार का पता था जिसने पति-पत्नी के रिश्ते की हरियाली को खत्म कर दिया था और इसकी चोट हर दफा डाक्टर शोभा के मर्मस्थल पर पड़ती। मर्दानगी के दर्द से दिपदिपाता डॉ. सुभाष हर बार उसे रौंदता हुआ कुछ और आगे बढ़ आता।

    “अब मुश्किल है, बहुत मुश्किल...! दिनोंदिन मुश्किलें बढ़ रही हैं, कोई अंत नहीं।” डाक्टर शोभा ने एक बार बहुत टूटकर बताया था सुजाता को।

    “अच्छा!” सुनकर मैं अवाक रह गया था। हालात यहाँ तक...?

    “कुछ करना चाहिए सुजाता।” मैंने मानो अंधे की तरह हवा में कुछ टटोलते हुए कहा। मैं बुरी तरह अकुलाया हुआ था।

    “क्या?” सुजाता का सीधा सा सवाल, जिसका उत्तर इतना सीधा नहीं था।

    “डॉ. सुभाष सचदेवा से मिलकर कुछ बातें, ताकि चीजें कुछ साफ हों।”

    “ठीक रहेगा? बातें साफ होंगी या उलझेंगी? वे पसंद करेंगे कि हम खामखा...” सुजाता भी इतनी ही परेशान। पर अँधेरे में लाठी शायद नहीं चलाना चाहती।

    “सच तो यह है कि डाक्टर शोभा ने मना किया है।” कुछ देर बाद सुजाता बोली, “कह रही थी कि डॉ. सुभाष बहुत तंग ख्यालों के आदमी हैं...एकदम मर्द। पूरे पक्के पाषाणकालीन ख्यालों वाले, जो समझते हैं कि बस उनकी ‘हाँ’ को ‘हाँ’ समझा जाए ‘ना’ को ‘ना’। औरत को अपनी दिमाग इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं।”

    फिर सुजाता ने जो कुछ बताया, उससे मैं एकबारगी काँपकर रह गया। पता चला कि अब तो मरीजों के आगे भी यह पत्थरदिल आदमी डाक्टर शोभा का अपमान कर डालता है। तू-तड़ाक पर उतर आता है। शोभा जैसी सेंसिटिव स्त्री के लिए यह चीज क्या मर जाने के मानिंद नहीं? आधी-आधी रात तक उस कोठी से डाँट-डपट की आवाजें आतीं, मानो डॉ. सुभाष अपनी हर चीज की ताईद चाहता है। बात-बात पर सफाई माँगने की आदत। और शोभा अनचाहे ही अपराधी के कटघरे में आ खड़ी होती।

    बहुत-से मरीज इस बात के गवाह हैं कि डाक्टर शोभा एक दिन में नहीं मरी, वह तो रोज थोड़ा-थोड़ा मर रही थी।

    और एक रोज तो जब सुभाष ने किसी बात पर उसे चिढक़र चाँटा लगा दिया, तो शोभा पूरे दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। पर बच्चों का रोना-बिलखना नहीं देखा गया, तो रात को खाना बनाने के लिए बाहर आ गई। फिर प्रेगनेंसी का एक इमरजेंसी केस था। भीतर-भीतर रो रही थी वह, लेकिन बाहर सधे हाथों से अपना डॉक्टरी का सख्त कत्र्तव्य...

    वही डाक्टर शोभा, रोज तिल-तिलकर मरती डाक्टर शोभा अब नहीं रही।

    उफ! एक समाचार—एक पंक्ति का एक समाचार कैसे पूरा एक अंधड़ बन जाता है। जितना-जितना उसे शांत करो, उतना ही बढ़ता जाता है। और इस आँधी में देखते ही देखते छप्पर-छानी सब उड़ने लगे। बल्लियाँ टूटती हैं। बाँस बिखरते हैं। सब तिनका-तिनका, सब तहस-नहस!

    कबीर को क्या पता था कि जैसे ज्ञान की आँधी आती है, वैसे ही शोक की भी एक आँधी होती है और...

    3

    “लेकिन हुआ क्या था?” मैंने शायद तीसरी या चौथी दफा पूछा। बेमतलब।

    अभी तक पूरी तरह इस मृत्यु को स्वीकार करने को मन नहीं मान रहा था। लेकिन फिर भी, चारा क्या था। मृत्यु किसी के टाले तो टलती नहीं। वह हैं—एक सख्त, पथरीला सत्य।

    “लेकिन...हुआ क्या था?” मृत्यु के उसी आघात से उबरने को कोशिश करते हुए मैं एक दफा फिर पूछता हूँ। एक कष्टकारी सवाल जो अभी तक अनुत्तरित ही था।

    अब के जो पूरी बात सुजाता ने बताई और जो टुकड़ों-टुकड़ों में डाक्टर शोभा के कई अड़ोसियों-पड़ोसियों के जरिए उस तक आई थी, वह यह कि झगड़ा तो महीनों से चल ही रहा था। कोई न कोई बात होती, कोई भी छोटी-सी, न कुछ-सी बात और वह बढ़ जाती। शोभा किसी तरह उसे टालती। चेहरे पर मुसकराहट लाकर अंदर ही अंदर पीती और जीवन चल पड़ता। लेकिन इधर दो-तीन दिनों से हालात खराब थे। रात-दिन झगड़ा। या तो दोनों मुँह पर पट्टियाँ बाँधे रहते या फिर झगड़ते। मन की सारी भड़ास निकालते। शोभा ने भी मानो जीने-मरने का फैसला कर लिया था। जो होना हो, हो। मगर...यह गुलामी नहीं!

    जिस रात हादसा हुआ, दोनों की जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आती रहीं। शोभा शायद पिट रही थी, लेकिन फिर भी जो जी में आता, कहे जा रही थी।

    डॉक्टर भला इतना बर्दाश्त कैसे करता? वह तो दरिंदा हो रहा था। उसने उसे घर से बाहर निकल जाने के लिए कहा।

    इस पर शोभा ने कहा, और जीवन में पहली बार साफ-साफ मुँह खोलकर कहा, “क्यों जाऊँ? यह मेरा भी तो घर है। मेरी भी तो कमाई से बना है।...बल्कि मेरी कमाई ज्यादा है!”

    “ठहर, बताता हूँ मैं तुझे!” डॉ. सुभाष की आँखों मे जो पाशविक हिंसा भड़की, उसने शायद शोभा को डरा दिया। वह दौड़ी-दौड़ी मरीजों वाले कॉरीडोर में चली गई, ताकि इस बहाने बच जाए। लेकिन डॉ. सुभाष पर तो खून सवार था। उसने वही उसे दो-तीन चाँटे मारे और घसीटते हुए अपने कमरे तक लाया। बैड पर पटक दिया और उसके गले को अपनी हथेलियों से कसते हुए बोला, “बता, अब बोलेगी आगे, बता? बड़ा अपने को डॉक्टर-फॉक्टर समझती है तो अभी निकाल दूँगा घमंड सारा! इन्हीं मरीजों के आगे नंगा करके परेड न निकाली तो मेरा नाम सुभाष नहीं।”

    डाक्टर शोभा का चेहरा ऐसे सफेद हो गया था, जैसे जिंदा लाश। उसी समय चार-छह मरीजों और उनके रिश्तेदारों ने दौड़कर बीच-बचाव किया तो मामला किसी तरह शांत हुआ।

    मगर...क्या सचमुच? मरीजों के जाने के बाद भी डॉक्टर सुभाष भुनभुनाता रहा और मुट्ठियाँ भींचते हुए बोला था, “सँभल जा, वरना यहीं से तेरी अर्थी निकलेगी, अर्थी! समझी?”

    बस, वही क्षण रहा होगा कि डाक्टर शोभा पूरी तरह टूट गई और मृत्यु की इच्छा ने, मृत्यु की बर्बरता ने उस पर विजय पा ली। डॉ. सुभाष कमरे से निकला तो पीछे-पीछे वह भी मुँह-हाथ धोने के बहाने निकली। लैब में जाकर कोई इंजेक्शन भरा और सीधा नस में...

    पाँच मिनट भी नहीं बीते कि खत्म, सब खत्म!

    उससे दस मिनट पहले ही डॉ. सुभाष मरीजों के बीच चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, “नाटक करती है साली, रोज नाटक करती है! न खुद जीती है, न मुझे जीने देती है। मरती भी नहीं...पागल औरत!”

    और दस मिनट बाद यह दुखांत नाटक इस चरम तक पहुँच गया था कि जिसके आगे फिर कोई नाटक नहीं रह जाता। और हर चीज पर परदा गिर जाता है।

    4

    उसके बाद दो-तीन दिन सचमुच आँधी-तूफान की तरह निकले। भीतर-बाहर आँधी। सुजाता मुझसे और मैं सुजाता से मानो एक-एक क्षण मुखातिब होते। हम कुछ कहना चाहते हैं, मगर सारी बातें जैसे छिन गई हों। बार-बार पुरानी स्मृतियाँ कौंधती। कभी-कभी स्मृतियों की एक साथ कई-कई धाराएँ तैरती हुई चली आतीं। हम बात करना चाहते, मगर होंठ जैसे किसी ने सी दिए थे। लगता था कुछ भी कहेंगे, एक भी शब्द, तो यह दुख और बढ़ेगा—असहनीय...मारक!

    इस बीच लोगों को जैसे बड़ा भारी ‘काम-काज’ मिल गया। खबरों और अफवाहों का अनंत सिलसिला चलता रहा। अखबारों में खबरें अलग आतीं और मोहल्ले के नाम-रूपहीन अदृश्य अखबारों में वे अलग ढंग से टिपी होतीं। कहानियों में से कहानियाँ निकल रही थी, जिनमें न जाने कहाँ-कहाँ की चंडूखाने की ‘भूत कथाएँ’ जुड़ रही थीं। और यह महाकथा एक विशाल उपन्यास के कलेवर से भी कुछ आगे निकल गई थी।

    मगर यह भी तय था कि सबकी सहानुभूति डॉक्टर शोभा के साथ थी। उसे याद करते-करते लोगों की आँखें नम हो जातीं। सारे मोहल्ले से उसी के रिश्ते थे। उसी का अपनापन सबको बाँधता। किसी को उसने भाभी बना रखा था, किसी को बहन। कइयों को आंटी-ताई, कइयों को माता जी। सब उसकी बच्चों जैसी मुसकान पर निसार थे। सब कहते कि जब यह हँसती है या बातें करती हैं तो बिलकुल घर की सदस्य लगती है। इसीलिए ज्यादातर को लगता था, उनके घर का ही कोई सदस्य चला गया। डॉक्टर सुभाष का घाघ और मतलबी चेहरा सब जानते थे। उससे अगर बोलते, बात करते थे लोग, तो भी डॉक्टर शोभा की वजह से। प्रैक्टिस भी डाक्टर शोभा की ही ज्यादा चलती थी। जब देखो, तब वह मरीजों से घिरी रहती थी।

    पर अब फुसफुसाने वाले फुसफुसाकर कह रहे थे, “जरूर कोई न कोई बात तो थी। नहीं तो कोई आदमी भला क्यों अपनी औरत पर खामखा हाथ उठाएगा?”

    और औरतों में ही कुछ यह कहने वाली भी थीं, “सबसे इतना हँस-हँस के बोलती थी। जरूर कोई चक्कर चला लिया होगा।...अब मर्द तो मर्द होता है, भला कैसे बर्दाश्त करे? जिंदा मक्खी तो नहीं निगली जाती न बहन!”

    हैरानी की बात यह है इस सबमें उस पूरबी मेहता का नाम कहीं नहीं है जो इस झगड़े की जड़ थी—या कम से कम बनती जा रही थी। पिछले दो-तीन सालों से।...यह भी उस ‘जादूगरनी’ के जादू का एक कमाल! सारी डोरें उसके हाथ में थीं, मगर वह कहीं नहीं!

    क्या यह इसलिए था कि डाक्टर शोभा ने अपने पति की ज्यादतियों और लालचीपन की कथाएँ तो बहुतों को सुनाईं और यह भी कि डॉ. सुभाष उसे पीटता है दरिंदों की तरह, मगर पूरबी की कथा अनकही ही रही। यानी उसने यह किसी से नहीं कहा था कि एक कोई पूरबी मेहता है जिसे वही लाई थी क्लीनिक में, और जो बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ गई थी कि...कहानी अब उसी के चारों और घूमने लगी थी।

    क्यों, भला क्यों? पूरबी मेहता के जिक्र से वह क्यों हमेशा बचती थी? शायद इसलिए कि उसके बारे में कहते ही उसे लगता था, कहीं मैं छोटी न हो जाऊँ।

    वैसे भी डाक्टर शोभा जैसी बेहद खूबसूरत और सुरुचिसंपन्न स्त्री के आगे क्या थी पूरबी मेहता? एक रंगी-पुती चालाक बंदरिया ही तो! मगर उसने सारी डोरें अपने काबू में करके डाक्टर शोभा की सारी शोभा, भव्यता और ‘सुंदर पवित्रता’ को मात दे दी थी, बल्कि उजाड़ डाला था। किसी विषबेल की तरह वहा विषबेल जो दूसरों के हिस्से का खाती है और फिर एक दिन उनका पूरा लहू निचोड़कर मार देता है।

    यह कथा डाक्टर शोभा ने मृत्यु से कुछ ही समय पहले बताई थी सुजाता को। लेकिन कितने टुकड़ों में, कितने दुख और अमर्श से भरकर! हर शब्द के साथ मानो लहू का एक कतरा जमीन पर आ जाता हो।

    और हमारे सारे सुझाव और मरहम बेकार चले गए।...मिथ्या! असार! हुआ वही जो नहीं होना था।

    बस, कोई ढाई-तीन दिन रहा शोक का यह नाटक होली सिटी क्लीनिक में। इस बीच पैसे और पुलिस का दंगल।...महादंगल। ले ले, दे दे। दे दे, ले ले।...

    सुनते हैं, तीन लाख में बात बन गई और डाक्टर शोभा की मृत्यु हमेशा-हमेशा के लिए एक काला अतीत हो गई।

    तब से डॉ. सुभाष की गरदन थोड़ी और अकड़ गई है। उसकी तीखी चाल में से यह अंहकार फूट रहा है, हमारे पास पैसा है, हम सब कुछ खरीद सकते हैं।

    इस बीच पूरबी मेहता भी तीन दिन ‘अज्ञातवास’ में। किसी ने उसकी शक्ल नहीं देखी। किसी ने नहीं जाना इस नई रामायण की मंथरा को।

    तीसरे दिन ही शाम को उठाला कर दिया गया। लो, अब रास्ता क्लियर...!

    होली सिटी क्लीनिक से डाक्टर शोभा की आग को झाड़-फूँककर हटाने, बुझाने का काम शुरू। पर उन दिलों का क्या कीजे जिनमें वह बसती थी, बसती है—और अपने सरल बहनापे और मीठी खिलखिलाहट से सब पर राज करती थी। उसे कैसे खत्म करोगे रावण?

    5

    डाक्टर शोभा से हम लोगों की मुलाकात भी बड़े अजीब ढंग से हुई थी। शायद छह-सात बरस हो गए। नहीं, कुछ ज्यादा।

    प्रिया तब आठ-नौ बरस की रही होगी। उसके पेट में जोर का दर्द उठा तो सुजाता उसे रिक्शा पर बिठाकर दौड़ी-दौड़ी डॉक्टर शोभा के क्लीनिक में गई। डाक्टर शोभा ने अच्छी तरह चेक-अप किया। फिर कहा, “दर्द ज्यादा है, मुझे अपेंडिक्स का खतरा लगता है। अपने हसबैंड को बुलवा लीजिए।”

    दफ्तर से दौड़ा-दौड़ा मैं घर पहुँचा। वहाँ से होली सिटी क्लीनिक। रात भर प्रिया को ग्लूकोज चढ़ता रहा। सुबह स्पेशलिस्ट डॉ. मीरचंदानी को बुलवाया गया। पता चला, ऐसा खतरा नहीं है बल्कि आगे के टेस्टों से अगले रोज ही पता चल गया कि प्रिया के पेट में कीड़े हैं। उन्हीं के कारण असहनीय कष्ट है।

    खैर, तो उसी प्रसंग में जब सुजाता को रात भर होली सिटी क्लीनिक में रहना पड़ा, डाक्टर शोभा से उसकी बातें हुईं, खूब बातें। तभी उसे पहली बार उस स्त्री को जानने का मौका मिला, जो डॉक्टरी लिबास में थोड़ी-सी दब जाती थी, पर कहीं भीतर से अपनी झलक जरूर दिखाती रहती थी। तभी पता चला था कि डाक्टर शोभा ने आगरा में डॉक्टरी की पढ़ाई की और वहीं डॉ. सुभाष उसे मिले। दोनों की दोस्ती हुई, फिर शादी। तब डॉ. सुभाष शायद ऐसे नहीं रहे होंगे।

    “मुझे हैरानी है, आदमी शादी के बाद इतना कैसे बदल जाता है? तब तो ये भोले से थे, पप्पू से! और अब देखो, एकदम मेल शॉवनिस्ट...पूरा पक्का हिंदुस्तानी मर्द!” कहते-कहते डाक्टर शोभा खिड़-खिड़, खिड़-खिड़ हँसीं, तो उस हँसी में भी दर्द की कोई एक लकीर थी, जो सुजाता को दिख गई थी।

    फिर बातों-बातों में यह भी पता चला कि शशि शर्मा डाक्टर शोभा की रूममेट रही थी। वही शशि शर्मा जो करनाल में दसवीं जमात में सुजाता के साथ पढ़ी थी और दोनों पक्की सहेलियाँ थीं।

    यों बातों-बातों में रात बीती और सुबह जब डाक्टर शोभा का चाय का टाइम हुआ, तो हाथ में ट्रे लिए वे सुजाता के पास आ गईं। उसे लगभग भौचक करती हुई, मुसकराकर बोलीं, “आज सुबह की चाय तुम्हारे साथ पीने का मन हुआ। बिलकुल नया-नया-सा लग रहा है। नई सुबह, नया जीवन।”

    और फिर सुजाता से उन्होंने वादा किया था, “कभी आऊँगी तुम्हारे घर—देखने।” फिर साथ ही जोड़ा था, “तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं हैं न! देखने में तो सीधे लगते हैं।” कहकर खुद ही हँस पड़ी थीं। सुजाता भी।

    और वे आईं, सचमुच आईं अगले ही इतवार को। अपने पति और बड़े बेटे राहुल को साथ लेकर।

    राहुल और प्रिया थोड़ी ही देर में एक-दूसरे से परिचय कर, दूसरे कमरे में खेलने लगे थे और इधर बैठक में हम लोगों की गपशप।

    बहुत आनंददायक तो नहीं रही थी वह मुलाकात, क्योंकि डॉ.शोभा जितनी खुली, सरल और मस्त थीं, उनके पति उतने ही सपाट। डब्बाबंद शख्स। लगता था, कभी-कभी सामने वाले पर थोड़ी कृपा करते हुए, मुसकरा भर देते हैं।

    मौसम और इस शहर के रूखे-सूखेपन आदि-आदि से लेकर थोड़ी ऊपर-ऊपर की बातें ही उस दिन हुईं।

    फिर शायद सुजाता और डाक्टर शोभा दोनों ही स्त्रियाँ इससे ऊब गईं। पहल डाक्टर शोभा ने ही की, “चलो, तुम्हारा घर देखें!” और हमारे सीधे-सादे विशिष्टता रहित घर में थोड़ा यहाँ-वहाँ घूमने के बाद डाक्टर शोभा सुजाता के साथ रसोई में जा घुसीं। वहाँ उनका जो निहायत घरेलू और प्यारा-प्यारा-सा रूप देखा सुजाता ने, तो एकदम चकित, हैरान।

    दोनों स्त्रियों के बीच न जाने कहाँ-कहाँ की, कब-कब की बातें हुईं। न जाने कौन-कौन से इतिहास उलटाए-पलटाए गए। और इस बीच पालक, हरी मिर्च और प्याज के पकौड़े बनकर तैयार हो गए। चाय छनकर प्यालियों में आ गई।

    और जब डाक्टर शोभा मेहमान नहीं, मेजबान की तरह खुद इन्हें ट्रे में सजाकर बैठक में आई, तो डॉ. सुभाष ही नहीं, मैं भी थोड़ा भौचक्का रह गया।

    चाय और पकौड़े के साथ जो बातें हुईं, वे पहले जैसी नीरस तो नहीं थी क्योंकि डाक्टर शोभा ओर सुजाता अब काफी खुल चुकी थीं और इससे वातावरण बहुत सहज-सहज हो गया था।

    डॉ. सुभाष भी बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए अपनी सपाटता का मुखौटा उतार देते थे और एकाध बासी, पुराना ‘जोक’ सुनाकर ही सही, थोड़ा-बहुत अपने ‘रसीलेपन’ का परिचय देने की कोशिश कर रहे थे।

    यानी कुल मिलाकर वह शाम बहुत आनंददायक न सही, पर कुछ अलग-अलग-सी शाम तो थी।

    उनके जाने के बाद हम लोग सोचते रहे, डॉ. सुभाष का व्यवहार थोड़ा दंभरहित और सरल होता, तो इस शाम का शायद हमने कुछ अधिक आनंद लिया होगा।

    “ये लोग साथ-साथ रहते कैसे होंगे? एकदम विरोधी ध्रुव हैं।” सुजाता ने माथा सिकोड़ते हुए, थोड़ा परेशान होकर कहा।

    और कुछ रोज बाद डाक्टर शोभा ने ही इसकी तस्दीक की थी कि उनके पति को ज्यादा लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं है। उनका मानना है कि डॉक्टर और लोगों से अलग, विशिष्ट और ऊँचे होते हैं। आम लोगों से ज्यादा घुलना-मिलना उनकी इमेज को नुकसान पहुँचा सकता है।

    “फिर भी जोड़ी अच्छी है...औरों से बहुत अच्छी। ईश्वर करे, यह सलामत रहे।” सुजाता मानो प्रार्थना-सी करती हुई कहती है।

    क्यों? किसलिए? क्या उसके मन में कोई भय था?

    6

    शायद था।...जरूर होगा। और उसके प्रमाण भी मिलने लग गए थे।

    बल्कि अगली मुलाकात ही हमारी थोड़ी कटु रही थी। डॉ. सुभाष ने मेरे कमरे में जगह-जगह लगे हुए कितबों के ढेर और अलमारियों में बेतरतीब ढंग से रखी, ढेर-ढेर किताबों की ओर इशारा करते हुए कहा था, “यह सब किसलिए? साहित्य-फाहित्य से क्या मिल जाता होगा आपको?...थोड़ा प्रेक्टिकल बनिए!”

    सुनकर मुझे धक्का लगा। सुजाता को भी।

    “हमारे घर में किताबें ही हमारी सबसे बड़ी संपत्ति हैं क्योंकि इनसे हमें जीवन के बहुत-से दुर्लभ अर्थ और खजाने मिले हैं। इसलिए आज भी किताबों के नजदीक जाकर ही हम सबसे अधिक आनंद पाते हैं।” मैंने मुसकराकर कहा था।

    “थोड़े जीवन के धक्के खाएँगे तो सब भूल जाएँगे।” कहकर डॉ. सुभाष ठहाका माकर हँसे थे।

    रावण...रावण! मैंने देखा, एक रावण है जो डॉ. सुभाष के भीतर से निकलता है कभी-कभी।

    अलबत्ता इस पर मैंने गंभीर होकर कहा था, “मेरा तो निजी अनुभव है, किताबें हमें मनुष्य बनाती हैं। हमारी संवेदना को जगाए रखती हैं। बल्कि मेरा तो आपको भी सुझाव है कि आप थोड़ा-थोड़ा पढ़ना शुरू कीजिए। बहुत-से डॉक्टर अपने मरीजों के साथ कसाई जैसा बर्ताव करते हैं, क्योंकि उनकी संवेदना मर जाती है। आप किताबों से जुड़ें तो औरों का दुख-दर्द भी आपको व्यापेगा।”

    इस पर डॉ. सुभाष एकदम हत्थे से उखड़ गए थे। “आपने डॉक्टरों को कसाई कहा। हम पैसा कमाते हैं, तो क्या गलत करते हैं? पैसे के बगैर क्या कोई इज्जत से रह सकता है? पैसा कोई छोटी चीज है! जिनके पास नहीं है, उनसे पूछिए!” लगभग चिल्लाकर उन्होंने कहा था।

    “पैसा बेशक छोटी चीज नहीं है। पर वह इतनी बड़ी चीज भी नहीं है कि आदमी से बड़ा हो जाए।” मैंने मुसकराकर कहा, तो डॉ. सुभाष कटकर रह गए।

    इसके बाद जैसी कि आशंका थी, डॉ. सुभाष कभी हमारे यहाँ नहीं आए। लेकिन डाक्टर शोभा महीने में एकाध बार जरूर चक्कर लगा लेतीं। साथ में बच्चे भी। राहुल और अनुज।

    उन्हें पता चला कि मैं लिखता हँू तो हर बार सुजाता से मेरी कोई न कोई किताब माँगकर ले जाती थीं। लौटाती तो साथ ही साथ सुजाता से उसे लेकर ढेर-ढेर-सी बातें। या आजकल मैं क्या लिख रहा हूँ, इस बारे में जानने की उन्हें उत्सुकता रहती।

    “भाई साहब आजकल क्या लिख रहे हैं, कोई नया नावेल...?” अक्सर सुजाता से वह पूछ लेतीं।

    जब सुजाता ने पूछा कि डॉक्टर साहब इधर आपके साथ नजर नहीं आते, तो थोड़ा उदास हो गईं। फिर मानो उस पर एक झीना सा आवरण चढ़ाकर बोलीं, “बस, ये ज्यादा पसंद नहीं करते।...थोड़ा इंटोवर्ट।”

    “आप लोगों ने तो प्रेम-विवाह किया था न! कोई पारंपरिक शादी नहीं, फिर भी? इतनी दूर-दूर...?”

    सुजाता के पूछते ही डाक्टर शोभा ने एक इतनी लंबी साँस भरी थी कि मानो कुछ न कहकर भी वे सब कुछ कह देना चाहती हों। और थोड़ी देर बाद सचमुच उन्होंने कह ही दिया था, और ऐसे भयानक शब्दों में कि सुजाता एकदम चौंक गई।

    “यह आदमी, आदमी नहीं, जानवर है सुजाता। बल्कि मुझे तो लगता है, शादी के बाद हर आदमी जानवर हो जाता। हो सकता है, यह मेरी गलतफहमी हो। मगर अपने इस मर्द को देखकर तो...!” कहते-कहते उनके चेहरे का रंग स्याह हो गया था।

    चलते-चलते उनके मुँह निकला था, “सॉरी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।” पर जो वे कह गई थीं, वह सत्य था। भले ही अर्धसत्य हो। इसे डाक्टर शोभा भी जानती थीं, सुजाता भी।

    7

    “क्यों भला क्यों हो गए डॉ. सुभाष ऐसे...?” सुजाता जब-तब डाक्टर शोभा से पूछती। और डाक्टर शोभा चुप। मानो उन्हें खुद भी प्रकृति के इस क्रूर रहस्य का अर्थ ठीक-ठीक समझ में न आता हो।

    मगर धीरे-धीरे वे खुलीं, तो उनके पति की हीनता और अपराधी वृत्ति के पीछे का सारा मर्म भी खुलता चला गया।

    असल में डॉ. सुभाष डेंटिस्ट थे और डाक्टर शोभा गाइनी स्पेशलिस्ट। अब होता यह था कि डाक्टर शोभा के आगे सुबह से रात तक मरीजों की लाइन लगी रहती थी और उनके पति ज्यादातर अकेले बैठे उँगलियाँ चटकाया करते थे। कहीं न कहीं दोनों का व्यवहार भी इसके लिए जिम्मेदार था। डॉ. सुभाष के पास जो मरीज आता, उसे वे प्लेट में रखा अपना शिकार समझते थे, जिस पर दाँत गड़ाएँ और खा लें। लेकिन डाक्टर शोभा के लिए हर मरीज एक मनुष्य भी था। किसी का भी दुख उन्हें व्यथित-विचलित कर देता और वे जो कर सकती थीं, करने को बेचैन हो जाती थीं। यहाँ तक कि मजदूरों और रिक्शा चलाने वालों के मुर्झाए चेहरे और मैले वस्त्रों वाली उनकी पत्नियाँ भी आती थी, तो उनके साथ भी वही अपनेपन और दोस्ती का-सा व्यवहार। जो भी उनके पास एक बार आया, उसका वे दिल जीत लेती थीं और ऐसे व्यवहार करती थीं, जैसे सगी बहन हों।

    इसलिए चाहे घंटों इंतजार करना पड़े, तो उनका कोई मरीज, उठकर वापस नहीं जाता था। और यों, होली सिटी क्लीनिक के वैभव की नींव में, असल में डाक्टर शोभा थीं।

    पैसा आया...बहुत पैसा, लेकिन उन्होंने अपनी सरलता नहीं खोई। कोई गरीब रिक्शे वाला, मजदूर, झल्ली वाला होता तो उसके लिए बिना कहे खुद ही फीस कम कर देतीं। फिर चाहे बाद में डॉ. सुभाष के गुस्से और बौखलाहट का शिकार ही क्यों न होना पड़े!

    यों पैसा आया तो मुश्किलें भी बढ़ीं, बल्कि पहले से ज्यादा बढ़ीं। पैसा आता गया और डॉ. सुभाष ज्यादा से ज्यादा ङ्क्षहसक पशु में बदलते चले गए। हर वक्त आँखों में पैसे की पाशविक चमक। जब डेंटिस्ट के रूप में दिन भर खाली बैठे मक्खियाँ मारने की अपनी ‘रूटीन’ दिनचर्या से वे ऊब गए, तो उन्होंने खुद-ब-खुद होली सिटी क्लीनिक के मैनेजिंग डायरेक्टर की पोस्ट ईजाद की और उस पर काबिज हो गए।

    डाक्टर शोभा की पूरी कमाई...उसके एक-एक पैसे पर अब उनका हक था। वे थे होली सिटी क्लीनिक के मैनेजिंग डायरेक्टर, यानी मालिक। और डाक्टर शोभा वहाँ काम करने वाली एक मामूली डॉक्टर। ठीक है कि वे गाइनी स्पेशलिस्ट थीं, पर गाइनी स्पेशलिस्ट तो सारी डॉक्टरनियाँ होती हैं। पैसा दो और ले आओ। आप चाहो तो इसको हटाकर उसको नौकरी दे दी। फिर डाक्टर शोभा क्या चीज हैं!

    यों डॉ. सुभाष सचदेवा का कद बढ़ते-बढ़ते अब ‘आसमान’ हो गया था और डाक्टर शोभा जो निरंतर काम में लदी-फदी, हाँफती रहती थीं और अपनी मरीजों के लिए ‘भगवान’ थीं, निरंतर छोटी होती जा रही थीं।

    यह व्यवस्था...हमारी यह ‘दलाल’ व्यवस्था केवल ठलुओं और बिचौलियों को ही बड़ा करती है। काम में ही रात-दिन साँस लेने वाली, इंसानी भावनाओं और अपने कत्र्तव्य को ही पूजा मानने वाली डाक्टर शोभा भला यह बात कैसे जान पातीं? उनकी सरलता, बेशक उनकी ताकत थी, लेकिन वही उनकी कमजोरी भी थी। और वे समझ नहीं पाती थीं कि जो क्रूर फंदा उनके चारों ओर जकड़ता जा रहा है, उसका वे क्या करें?

    इस बीच न जाने कब उन्होंने मुझे भाई बना लिया था और मानो घोषणा-सी करते हुए कहा था, “मैं आऊँगी, रक्षाबंधन वाले दिन राखी बाँधने!”

    सुनकर मैंने हँसते हुए कहा, “मुझे भाई मानना आपको सुख देता है, तो अच्छी बात है। आपकी एक अच्छी दोस्त डॉक्टर के रूप में मैं इज्जत करता हूँ। अब यह प्यार और इज्जत शायद और बढ़ जाए। पर इसके लिए राखी-वाखी का झंझट किसलिए? मन की भावना कहीं ज्यादा सच्ची है।”

    इस पर डाक्टर शोभा ने हँसकर सुजाता से शिकायत की थी, “देखो मेरे इन कंजूस भैया को! सोचते हैं कि यह डॉक्टरनी रक्षाबंधन वाले दिन राखी बाँधने आएगी, तो जेब से पचास-सौ रुपए तो ढीले होंगे ही।...इसलिए अभी से ऐसी कोई दार्शनिक बात बघार दो कि जरा दूर-दूर ही रहे।”

    कहकर खुद ही एक भोली बच्ची की तरह ऐसे खुदर-खुदर हँसीं कि मैं और सुजाता टुकुर-टुकुर देखते रहे कि भला यह भोली स्त्री कहीं से लगती है डॉक्टरनी?

    ...तो जैसा कि डाक्टर शोभा ने ‘घोषणा’ की थी, रक्षाबंधन वाले वे आईं। न सिर्फ राखी बाँधी, बल्कि हम लोगों के साथ ही उन्होंने नाश्ता किया और देर तब बचपन के प्रसंगों में खोई रहीं। बताती रहीं कि उनका एक ही भाई है...छोटा, जो अब अमरीका में है! और फिर दाँतों से जीभ काटती हुई बोलीं, “नहीं, सॉरी, दो हैं। बस, दूसरे सज्जन जरा कवि-अवि हैं। अपनी बहन की चिंता नहीं करते! यह भी नहीं पूछते कि बहन तुझ पर क्या गुजर रही हैं? तू जीती भी है या...!”

    जिस ढंग से यह वाक्य उन्होंने कहा था, वह मुझे भीतर तक छीलता हुआ चला गया। मैंने सुजाता की ओर देखा, सुजाता ने मुझे। दोनों को लगा, कोई भारी गड़बड़ है। लेकिन क्या? हम कैसे जान सकते थे।

    तब तक बहुत कम बातें खुली थीं। सुजाता ने जानना चाहा, तो डाक्टर शोभा ने बहाना बना दिया, “आज नहीं, आज तो त्योहार है। आप लोगों का मूड नहीं खराब करना चाहती। फिर कभी सही।”

    फिर धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा हमें पता चलता रहा। पर अपनी इस नालायकी को स्वीकार कर लेना ही अच्छा है कि हम चाहकर भी सचमुच कुछ नहीं कर पा रहे थे। हम नहीं जान पा रहे थे कि पति-पत्नी के इस झगड़े को सुलझाने में हमारी क्या भूमिका हो सकती थी? खासकर उस हालत में, जब पति दिनोंदिन पत्थर होता जा रहा हो!

    बहरहाल उसके बाद कई रक्षाबंधन आए।...चार-पाँच तो जरूर ही, शायद पाँच! और कोई ऐसा रक्षाबंधन नहीं था, जब डाक्टर शोभा राखी और मिठाई का डिब्बा लिए, मुसकराती हुई सुबह-सुबह हमारे घर की दहलीज पर नजर न आईं हों।

    बाद में डॉ. सुभाष से संबंध बिगड़ते गए और हम लोगों के प्रति पति की नापसंदगी भी उनके लिए अप्रकट नहीं रही थी। तब भी वे आतीं जरूर, फिर चाहे पाँच-दस मिनट के लिए ही क्यों न आएँ।

    लगभग हाँफते हुए आतीं, और आते ही कहतीं, “माफ कीजिए भाईसाहब, सिर्फ पाँच मिनट के लिए आई हूँ बहाना बनाकर। अब आपसे तो क्या छिपाना? आप तो अच्छी तरह जानते हैं मेरे ‘महान’ पतिदेव को! वे पसंद नहीं करते कि...”

    और चाय पीते-पीते मानो खौफजदा होकर वे उठ जातीं।

    इस पर एक बार मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की थी, “अब आगे से रहने दीजिए शोभा जी। जितना निभा, सुंदर निभ गया। आप क्यों खुद को परेशानी में डालती हैं? यों भी जितने भी संबंध हैं, असल में तो वे मन की भावनाएँ ही हैं न! मन में दूसरे के लिए भावना हो, और वह भावना सुंदर हो, इतना ही काफी है। बाकी तो सब फिजूल है।”

    लेकिन मेरी बात के जवाब में डाक्टर शोभा के चेहरे पर पत्थर की लकीर की तरह खिंची जो एक असाधारण किस्म की दृढ़ता मुझे नजर आई थी, उसे मैं आज भी भूल नहीं पा रहा। वह मानो एक जिद थी कि वह एक संबंध जिसे बनाया था, उसे निभाना है, अंत तक निभाना है। यह एक स्त्री की शायद अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व पाने की तड़प थी कि क्या हर काम पति की इच्छा से ही करना पड़ेगा? उसके बगैर मैं कुछ नहीं, कहीं नहीं! क्यों भला?

    मुझे आश्चर्य होता है कि डाक्टर शोभा ने, जो कि इतनी सरल और विनीत थीं और बात-बात पर बच्चों की तरह खुदड़-खदड़ हँसती थीं, अपने भीतर कहाँ, किस कोने में यह असाधारण दृढ़ता छिपाई हुई थी! और अगर यह असाधारण दृढ़ता उनमें थीं, तो उससे वे अपनी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर पाती थीं? क्यों ऐसा हुआ कि धीरे-धीरे, जैसे-जैसे समय आगे सरकता चला गया, उनके चेहरे पर मृत्यु की उदास छायाएँ मँडराती हुई साफ नजर आने लगी थीं।

    और जब से ढाई कमरों वाले अपने छोटे फ्लैट से चार सौ गज की इस भव्य आलीशान कोठी में वे आई थीं, दुष्ट अशुभ छायाओं का यह प्रेत-नाच और अधिक उग्र हो गया था।...वीभत्स!

    कई कमरों वाली एक तिमंजिला कोठी, जिसमें कुल मिलाकर छोटे-बड़े पच्चीस-तीस कमरे तो थे ही। नीचे बेसमेंट और भूतल पर क्लीनिक। पहली मंजिल पर उनकी रिहाइश। और उससे ऊपर वाली मंजिल अक्सर खाली रहती थी। या फिर वहाँ मेहमानों को टिकाया जाता था—विशिष्ट आगंतुकों को!

    क्लीनिक में काम करने वाली नर्सों के आराम करने के कमरे भी वहीं थे। वहीं बाद में पूरबी मेहता का भी एक स्थायी कमरा हो गया था।...खासा सुसज्जित और आरामदेह!

    और देखते-देखते यही दूसरी मंजिल होली सिटी क्लीनिक के अवांछित करतबों का केंद्र हो गई। यहीं चलता सत्ता, पैसे और मोह, घृणा और देह-भोग का व्यापार।

    यहीं से निकल-निकलकर आती थीं वे काली अशुभ छायाएँ जो नंगी प्रेतात्माओं की तरह सारे होली सिटी क्लीनिक में नाचा करती थीं और मौका पाते ही डाक्टर शोभा को चारों ओर से घेर लेती थीं।

    लोग कहते, डाक्टर शोभा हँसना भूल गई हैं।...वे लगातार अवसादग्रस्त होती जा रही थीं और अपने भीतर बंद, गुमसुम-सी।

    हमारे घर जब-जब वे इन दिनों आईं, उन्हें दो-चार मिनट बाद ही घर जाने की बेचैनी घेर लेती और चेहरा इस कदर काला...बल्कि नीला दिखाई पड़ने लगता कि हम डर जाते। मैंने और सुजाता ने सुझाव दिया कि किसी बहाने उनके माता-पिता को यहाँ बुलाया जाए, ताकि समस्या का कोई सम्मानजनक हल निकले।

    पर डाक्टर शोभा ने कभी इसके लिए मुँह खोलकर ‘हाँ’ नहीं कहा।

    एक कठिन और अबूझ चुप्पी, जिसका थोड़ा-थोड़ा मतलब हम समझते थे। अपने माता-पिता से बिना पूछे, बल्कि एक तरह से उनका विरोध झेलकर ही उन्होंने डॉ. सुभाष से शादी की थी। और अब जबकि निभ नहीं रहा और मुश्किलें आ रही हैं, अपने माता-पिता को बीच में लाकर वे और अधिक अपराधी नहीं होना चाहती थीं।

    “हम कुछ करें...मिलें डॉ. सुभाष से?” एक दिन नहीं रहा गया तो अकुलाकर मैंने पूछा।

    “नहीं!” डाक्टर शोभा के होंठों से सिर्फ एक शब्द निकला, सूखा, बे-रस और फिर एक लंबी, वीरान चुप्पी। फिर उससे थोड़ा उबरीं, तो कहा, “कभी जरूरत हुई तो कहूँगी।...आपसे नहीं तो किससे कहूँगी?”

    8

    और फिर एक बार बहुत अशोभन हालत में...जबकि मौत को करीब-करीब नंगा नाचते वहाँ देखा जा सकता था, हमें होली सिटी क्लीनिक में लगभग दौड़ते हुए जाना पड़ा था।

    होली सिटी क्लीनिक से मेरे और सुजाता के लिए एक घबराहट पैदा करने वाला फोन आया था। डाक्टर शोभा का नहीं, डॉ. सुभाष सचदेवा का।

    फोन पर दो ही लफ्ज, “प्लीज, आप लोग जल्दी आ जाइए—अभी, इसी वक्त!”

    “बात क्या है, सब ठीक तो है न!” मेरे काँपते होंठों से टूटे-टूटे-से शब्द निकले।

    “आप आ जाइए—अभी! यहीं बताऊँगा।”

    वह दीवाली का दिन था। इसकी याद इसलिए है कि दीए जलाने के बाद हम संक्षिप्त दीवाली-पूजन के लिए बैठने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी थी। और उस पर यह अशुभ समाचार जिसने हमारे रोंगटे खड़े कर दिए थे।

    डॉ. सुभाष ने बताया कुछ नहीं, पर जो नहीं बताया उससे आशंकाओं का एक भयावह जंगल हमारी आँखों के आगे उग आया था और हम बौखला गए थे। पूजा का सामान ऐसे ही पड़ा रहा और बच्चों को थोड़ा-बहुत समझाकर मैं और सुजाता पैदल ही, होली सिटी क्लीनिक की ओर दौड़ पड़े थे।

    वहाँ अजब नजारा था। पूरे घर में मिट्टी के तेल की असहनीय गंध ‘मृत्यु-गंध’ की तरह समाई थी और हमें लगा, डाक्टर शोभा अब नहीं मिलेंगी। कभी नहीं!

    डॉ. सुभाष अपने कमरे में ही थे। चक्कर पर चक्कर काट रहे थे, पागलों की तरह। सिर के बाल बुरी तरह बिखरे हुए। कुरते के बटन टूटे हुए। मुँह से जैसे झाग निकल रहा था।

    हमें देखते ही चिल्लाकर बोले, “आपकी बहन इस कमरे में है। उसने खुद पर मिट्टी का तेल छिड़क लिया है और कमरा भीतर से बंद! इसलिए आपको तकलीफ दी। आप खुद अपनी आँख से देख लीजिए अपनी बहन की करतूत!”

    उस रात, जो दीवाली की रात थी, कितने विकट हाहाकार के साथ, कैसे हमने उस अशुभ को झेला...या किसी हद तक टाला, अब क्या शब्दों में कहा जा सकता है?

    मैं और सुजाता रो रहे थे और बुरी तरह दरवाजा पीटते रहे थे। रो-रोकर डाक्टर शोभा से विनती कर रहे थे कि वह कोई ऐसा कदम न उठाएँ, जो अनर्थकारी हो और जिससे सब कुछ ध्वस्त हो जाए!

    कोई पाँच-सात मिनट बाद दरवाजा खुला और डाक्टर शोभा की जो हालत हमने देखी, उसे देखकर हमारे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनके पूरे शरीर पर चोटें और मार-पीट के चिह्न थे। गाल सूजे हुए! डॉ. सुभाष के तमाचों के नीले-नीले निशान!

    कमरा खुलते ही वे जिस बुरी तरह आर्तनाद करती हुई मेरे और सुजाता के कंधे से लगकर रोईं, उससे शायद थोड़ी देर के लिए होली सिटी क्लीनिक की दीवारें भी थरथरा गईं होंगी।

    कैसे मृत्यु की छाया बन चुकी डाक्टर शोभा को हमने शांत किया और कैसे डॉ. सुभाष को थोड़ा-बहुत समझाया, यह प्रसंग भी रहने ही दें।

    कमरे में ही एक कोने में डाक्टर शोभा का छोटा-सा मंदिर था, जिसमें राम-सीता विवाह और शिव-पार्वती की तस्वीरें थीं। डॉ. सुभाष ने न जाने किस बात पर क्रोध में आकर उन तस्वीरों को उठाकर फर्श पर दे पटका था और अब सारे फर्श पर काँच ही काँच बिखरा हुआ था। लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्तियाँ भी, जो शायद अभी दो-एक रोज पहले ही वे लाई थीं, भू-लुंठित थीं। और यह मलबा खाली कुछ तस्वीरों और मूर्तियों का मलबा ही नहीं था, उस विश्वास का भी मलबा था, जिससे दो लोग एक मीठे दांपत्य संबंध में बँधते हैं।

    सुजाता ने कमर कसकर वह सारा मलबा उठाया। झाड़ू लगाकर कमरा साफ किया। फिर रिक्शे में बैठकर दौड़ी-दौड़ी बाजार गई। वैसी ही तस्वीरें और मूर्तियाँ लेकर आई। फिर मंदिर सजाया गया, एक छोटा-सा आस्था का स्थल!

    और फिर पूजा...दीवाली पूजा। किसी तरह मनाकर डाक्टर शोभा, सुभाष और दोनों बच्चों को साथ-साथ बिठाया। और उस विश्वास को फिर से निर्मित करने की एक कोशिश शुरू हुई, जो किरच-किरच हो चुका था। बहुत छोटी-सी, आधी-अधूरी कोशिश।

    फिर सुजाता ने ही वहाँ खाना बनाया। पूरी-सब्जी, खीर, सभी कुछ। उस दिन वहीं हमारी दीवाली मनी। शोक और सुख के अजब से तारों से बनी, त्योहार की अजब-सी कातर मूर्ति! क्या वो सच में दीवाली ही थी? भीतर जैसे किसी न तेजाब भर दिया हो! सब ओर मृत्यु-गंध बिखरी हुई थी और बीच में हम एक छोटा-सा कोना साफ करके दीवाली मना रहे थे।

    सुख था तो यही कि चलो, एक अशुभ टल गया। पर क्या सचमुच...? भीतर सवालों के साँप सिर पटक रहे थे।

    जो भी हो, उस रात बारह-साढ़े बारह वहीं बज गए। हम लौटे तो पटाखों की धूँ-धुम्म के बाद, मोहल्ला थककर सो चुका था। प्रिया लगभग भूखी ही सो गई थी।

    किसी तरह उसे उठाकर थोड़ा-बहुत खिलाया। वह बुरी तरह उदास थी कि उसे देखकर खुद हमें रोना आ रहा था।

    फिर पूजा तो क्या होनी थी? काँपते हाथ जोड़कर प्रार्थना की और सो गए।

    9

    उसके बाद डाक्टर शोभा से कुछ ही मुलाकातें हुईं।

    और वे अपने को ऐसा बनाती चली गई कि मानो वे है भी और नहीं भी। थोड़ी जीवित, थोड़ी छाया। मानो वे मृत्यु से पहले ही मृत्यु के घर में झाँक आई हों और उनका एक-एक कदम अब उसी ओर बढ़ रहा हो!

    उस हादसे...उस अंतिम हादसे से कोई महीना, डेढ़ महीना पहले वे घर आई थीं, तो सुजाता से देर तक बातें करती रही थीं। “देखना, मैं कुछ कर लूँगी एक दिन। तब समझ में आएगा इस कसाई को!” तैश में आकर उन्होंने सुजाता से कहा था।

    और पूरी कहानी सुनाते हुए, होंठों तक लबालब भरी घृणा के साथ कहा था, “वह चुड़ैल ही करा रही है यह सब।”

    चुड़ैल...? यानी पूरबी मेहता! अपने पति को छोड़कर आई थी पूरबी मेहता और अब डॉ. सुभाष पर...बल्कि उसकी अकूत संपत्ति पर उसकी नजर थी। इसके लिए डाक्टर शोभा जैसी कातर हिरनी का शिकार करना उस सिंहनी के लिए कौन मुश्किल था!

    उसी का पहला दाँव था, डाक्टर शोभा को पागल घोषित कर देना। इसलिए कि जब खत्म हो उनकी ‘कहानी’ तो उसे ‘एक पागल स्त्री की मौत’ कहकर अनदेखा किया जा सके।

    सारी डोरें अब डॉ. पूरबी मेहता के हाथ आ गई थीं और मुच्छड़, रोबीले चेहरे वाला डॉ. सुभाष सचदेवा सिर्फ एक अदना आज्ञापालक! कद्दावर जिस्म, मगर असल में पूरबी मेहता के हाथ की सिर्फ एक कठपुतली। जिधर चाहे नचाए, उधर इसे नाचना था।

    शायद कोई दुष्ट जादू जानती थी पूरबी मेहता। डाक्टर शोभा के पास भला उसका काट कहाँ? जहाँ तक सहा गया, सहा। और जब तीर पार चला गया, तो एकाएक चीखी...और खत्म!

    सब खत्म...!

    10

    अभी मुश्किल से एक-डेढ महीना ही तो गुजरा है। होली सिटी क्लीनिक में नए मरीज अब नजर आने लगे हैं। ‘डाक्टर शोभा की जगह देखेंगी पूरबी मेहता।’ सबको बता दिया गया है।

    नर्सें अब पूरबी मेहता के इर्द-गिर्द चक्कर काटती हैं। उसी के हाथ में उनका प्रमोशन, एडवांस, ड्यूटी टाइमिंग...आदि-आदि।

    होली सिटी क्लीनिक अब फिरसे आबाद हो रहा है। रात भर बड़े-बड़े बल्बों, बत्तियों की जगर-मगर...बड़ी कीमती कारें। नए ढंग से तराशे हुए लॉन। लोगों की आवाजाही...बैठकी।

    कुछ दिन पहले होली सिटी क्लीनिक के विशालकाय बोर्ड पर, जहाँ डाक्टर शोभा का नाम था, वहाँ सफेद पेंट नजर आने लगा। और अगले ही दिन बड़े-बड़े अक्षरों में डॉ. पूरबी मेहता का नाम। ‘कोई आदमी अनएवोइडेबल नहीं!’ डॉ. सुभाष के चेहरे पर दुष्ट अक्षरों में लिखा है।

    डॉ. सुभाष और डॉ. पूरबी मेहता चमचमाती कार में रोज शाम को ‘रँगोली’ की राह पर होते हैं। शहर के अमीरों का ‘रंगीन’ सिटी क्लब। यह शायद गम से पीछा छुड़ाने के लए जरूरी है।...बहुत जरूरी।

    कभी-कभी उनकी कार के पीछे वाली सीट पर सहमे हुए दो बच्चे भी बैठे नजर आते हैं। शोभा के दोनों बेटे। राहुल और अनुज। उनकी हँसी भी शायद डाक्टर शोभा के साथ ही चली गई।

    अजब बात है कि डाक्टर शोभा के जाने का गम अब यहाँ किसी को नहीं है। वह या तो इन दो छोटे-छोटे बच्चों के स्तब्ध चेहरे पर नजर आता है या फिर दार्शनिक वाले अंदाज में बैठे उस भूरे बादामी रंग के बूढ़े बंदर के चेहरे पर, जिसे डाक्टर शोभा शायद बदरपुर के किसी ‘देसी’ मेले से खरीदकर लाई थीं और न जाने क्या सोचकर इसे उन्होंने अपनी कोठी के गेट पर बैठा दिया था।

    आश्चर्य, जब कभी होली सिटी क्लीनिक के सामने से निकलो तो वही बूढ़ा बंदर अपनी शोकांतिका में डूबा, सिर धुनता नजर आता है।

    हा-हा-हा-हा-हा...

    हा-हा-हा...!

    इस विकट शोकांतिका के ‘हाहाकार’ में...या कि बीच-बीच के ‘स्पेस’ में क्या कहता होगा यह? मैंने कई बार गौर से सुनने की कोशिश की है, पर उत्तर कभी नहीं मिला। हो सकता है कि होली सिटी क्लीनिक के नाम से ही उसे इतना सख्त एतराज हो कि मारे गुस्से के उसने कुछ भी अललटप्प बकना शुरू कर दिया हो।

    डाक्टर शोभा ही तो इस होली सिटी क्लीनिक की ‘आत्मा’ थीं। उनके जाने के बाद अब यह सिटी क्लीनिक ‘होली’ कहाँ रहा? ‘अनहोली’ हो गया है।...अनहोली सिटी क्लीनिक!

    शायद यह भारी कष्ट गेट पर अभी तक शोक की मुद्रा में बैठे उस बूढ़े बंदर को है। उन सैकड़ों मरीजों को भी, जो इस क्लीनिक में आकर पागलों की तरह न जाने क्या खोजने लगते हैं!

    **

    2

    टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी

    प्रकाश मनु

    *

    यह एक संयोग ही था कि अपने कलकत्ते वाले भतीजे आशु की सगाई के समारोह में जिस टैक्सी से मैं सपरिवार दिल्ली गया, वह टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की थी। यह हमें बाद में पता चला कि वही उसका मालिक था और ड्राइवर भी।

    यह संयोग एक सुखद संयोग इसलिए था कि वह दिन, जैसा कि हम घर से ही आशंका लेकर चले थे, हमारे जीवन के तमाम-तमाम ‘बोझिल’ दिनों में से एक था। बात शायद कुछ गड़बड़झाले में फँसी जा रही है। तो मैं साफ कर दूँ कि सगाई तो सगाई की तरह ही हुई थी और ठीक उसी ‘पंप एंड शो’ के साथ हुई थी, जैसी होती ही है हमारे जैसे मध्यवर्गीय घरों में। और जिसमें भीतर के तमाम दाग-धब्बे ऊपर की चमकदार पालिश-आलिश से छिपा लिए जाते हैं।...यों भी आशु कलकत्ते की किसी बड़ी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, तो उसका ‘कद’ और ‘कीमत’ भी ऊँची ही हुई! फिर भला ‘शो-शो’ क्यों न होती?

    तो बहरहाल जिस सगाई के लिए हम गए थे, वह हुई और वहाँ तमाम किस्म के नफीस पारिवारिक नाटकों के बीच, जहाँ हैसियतों के हिसाब से सबका अलग-अलग किस्म का स्वागत हो रहा था, ज्यादा अपमानित हुए बगैर हम किसी तरह खुद को बचाकर वापस ले आए, यही शायद उस दिन का सबसे बड़ा सौभाग्य था। अब आपको कैसे समझाऊँ कि इस काम में टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ ने हमारी काफी मदद की—मेरा मतलब उसकी कहानी ने। और कहानी की ओट में छिपे उसके संजीदा चेहरे ने, या हमारी ‘सभ्य’ दुनिया से अछूती उसकी भोली बातों ने...जिससे अगर कोई अपमान-वपमान हुआ होगा, जो हमारे जैसे ‘मिसफिट’ लोगों का होता ही है समाज में, तो हमें कुछ खास वो महसूस नहीं हुआ।

    हम उसकी टैक्सी से उतरकर जब होटल के भीतर खुशबूदार फूल-फाल, लटुटुओं और झाड़-फानूसों से सजे से सजे लकदक हॉल में दाखिल हुए, तब भी उसमें और उसकी दुखभरी कहानी में इस कदर खोए रहे कि हारे साथ क्या-कुछ हुआ...कैसे बारीक आत्मीयता में लपेटकर हमारा वध किया गया और उस फंक्शन में दूसरों के बच्चों की चटक-पटक, चुस्ती की तुलना में हमारी और हमारे बच्चों की मामूली हैसियत और मामूली कपड़ों के कारण कैसी उपेक्षा भरी नजरें हम पर पड़ीं, इस सबकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। इसलिए कि हमारे भीतर तो ‘कुछ और’ था और हम उसमें पूरी तरह लीन थे।

    रामलाल...! रामलाल दुआ की संजीदा कहानी, जिसका दर्द हमारी कहानी से कई गुना बढ़ा और भीतर तक सिहरा देने वाला था।

    *

    यह भी संयोग ही था कि रामलाल दुआ की उस नीली मारुति वैन में, उसकी बगल की सीट पर मैं बैठा था। भीषण गरमियाँ थीं, पसीने से लथपथ कर देने वाली। आसमान मुहावरे में नहीं, सचमुच लपटें उगल रहा था और जमीन अंगारा बनी हुई थी। लिहाजा वह मारुति वैन भी लूओं के गरम उच्छ्वास से तप रही थी। छोटी बेटी नन्ही मेरी गोद में थी और मैं लगातार उससे बातें करता जा रहा था। ये बातें करना इसलिए जरूरी था, क्योंकि पैट्रोल की गंध उसके लिए नागवार थी। कोई बस हो, कार या फिर टैक्सी—किसी में भी उसकी यात्रा यातनादायक है। बैठते ही उसे उलटी होती है और मेरी इधऱ-उधर की गपशप शुरू, ताकि उसका ध्यान किसी तरह मेरी बातों और किस्सों में उलझ जाए। बीच-बीच में मैं उसे सुझाव देता, “बेटी, नाक को बाहर निकालो, ऐन हवा की सीध में! और हाँ, शाबाश, लंबी साँस लो! अब धीरे-धीरे छोड़ो...!” और छुटकी कभी हँस पड़ती, कभी सीरियसली मेरी बात मानकर वैसा ही करने लगती।

    रामलाल दुआ मुझे उत्सुकता से देख रहा था, तो मैंने उससे कहा कि लड़की की तबीयत खराब हो जाती है पैट्रोल की गंध से, इसीलिए इसका मन लगाना जरूरी है।

    “साब, कहीं से छोटी इलायची मिल जाए, तो थोड़ी-सी ले लेंगे। उससे तबीयत खुद-ब-खुद सँभलती है।” रामलाल दुआ ने सुझाव दिया।

    “छोटी इलायची...?” मुझे झटका-सा लगा, “हाँ-हाँ, इलायची! खूब याद दिलाया, इलायची घर से लेकर तो चले थे, कहाँ गई पुड़िया...?”

    “शायद बुआ जी के घर रह गई।” छुटकी ने आशंका प्रकट की। मगर तब तक बड़की ने किसी जादुई कहानी की तरह पर्स में से इलायची की पुड़िया निकालकर हाथ में रख दी, “लो पापा...मिल गई!”

    इलायची से सचमुच छुटकी की तबीयत कुछ सँभली। एक इलायची मैंने ली, एक रामलाल दुआ को दी...और इलायची चबाते हुए मौसम, चिलचिलाती धूप की तपिश, महँगाई, पोल्यूशन, हर मामले में सरकार की ढिल-पों और बेवकूफी...मौजूदा खराब समय और आने वाले और जयादा खराब समय की चर्चा आदि-आदि से गुजरते हुए हमारी बातचीत कब, कैसे एक अतरंग कथा की ओर मुड़ गई, इसे तो कैसे कहूँ! ये बातें कुछ तय करके तो होती नहीं! बस, चलती हैं तो चल ही निकलती हैं।

    यहाँ तक कि रास्ते में पानी की जरूरत पड़ी तो रामलाल दुआ ने अपनी पानी की बॉटल मुझे पकड़ाते हुए कहा, “बहिन जी को बोलिए, इसमें से पानी ले लें। एकदम साफ पानी है। रास्ते में ठेले-वेले का पानी पीना तो खतरे से खाली नहीं है।” फिर तुरंत इसमें जोड़ा, “मैं तो जी, घर से चलने से पहले दो बार खुद से पूछता हूँ, रामलाल दुआ, पानी लिया? फिर जब तक पानी की बॉटल साथ न रख लूँ, घर से बाहर हरगिज नहीं निकलता।”

    बहरहाल, इसी बातचीत में मालूम पड़ा कि रामलाल दुआ यू.पी. का है—यू.पी. के रामपुर शहर का। शायद मैंने अपने यू.पी. वासी होने की चर्चा की थी, और इसी पर रामलाल दुआ भी दौड़कर अपने गृहनगर जा पहुँचा था। और अब उसकी आँखें चमक रही थीं—असामान्य ढंग से चमक रही थीं! हालाँकि अपने घर और अपने शहर का जिक्र चलने पर उसके चेहरे—एक सीधे-सादे, गोल, शरीफ किस्म के चेहरे पर दुख की कुछ ऐसी झाइयाँ नजर आई, जिन्हें मैं चाहूँ भी तो अपने शब्दों में बाँध नहीं सकता।

    तभी पहले-पहल पता चला कि जिस टैक्सी—यानी नीली मारुति वैन को रामलाल दुआ चला रहा है, वह असल में उसी की है।

    तभी पता चला कि उसकी एक बेटी है रिंकी—छुटकी जितनी ही, जिसे वह बहुत प्यार करता है। और एक बेटा है नील, जो बेटी से शायद साल-डेढ़ साल बड़ा है।

    “साब, हमें तो सब कुछ मिला जिंदगी में। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है। हालाँकि जो कुछ गुजरा, सो तो गुजरा...गुजर ही गया! उसका अब क्या सोचना!...किससे क्या गिला?”

    रामलाल दुआ पता नहीं, खुद से कह रहा था या मुझसे? लेकिन उसके स्वर में बेहद संजीदगी थी, जो सीधे दिल में उतरती थी।

    क्यों...? क्यों...? क्या...! क्या हुआ भाई रामलाल दुआ तुम्हारे साथ? मैं पूछना चाहता था, मगर कह नहीं पाया!

    “जिंदगी भी एक नाटक है साब, और वह नाटक कभी खत्म नहीं होता। हमारे मर जाने के बाद भी! कितनी ही कोशिश करें, हम इस नाटक से छूट नहीं सकते। क्यों साब, आपको नहीं लगता?” उसने सवालिया निगाहें मेरी ओर उठा दीं।

    इससे एक गलत ‘सिग्नल’ मेरी पकड़ में आ गया कि रामलाल दुआ का नाटक-वाटक से कोई रिश्ता है, यानी कोई ‘पुराना खिलाड़ी’ है जो कभी थिएटर वगैरह करता रहा है। मुझे अपने एक लँगोटिया यार की याद आई जो नौटंकी के लिए घर से भाग निकला था और नौटंकी की ‘तीसरी कसम’ टाइप कोई एक साँवले बदन की पतली-सी औरत थी, जिसके चक्कर में वह पड़ गया। फिर सालों बाद वह घर वालों की पकड़ाई में आया तो उसे मार-पीटकर बाल-वाल कटवाकर और शरीफजादों वाले कपड़े पहनाकर बमुश्किल बंदा बनाया गया।

    मैंने गौर से रामलाल दुआ की ओर देखा। उसके जरूरत से थोड़े ज्यादा ही सेहतमंद शरीर में कोई ऐसी कला-अला नजर नहीं आती थी! फिर भी क्या कह सकते हैं! कभी ऐसी कोई ‘बीमारी’ रही होगी। आदमी का कुछ पता नहीं चलता।

    पर मैंने जब इस बारे में कुछ खोलकर पूछना और दरयाफ्त करना चाहा, तो उसने साफ कहा, “जी, काहे का नाटक-वाटक? हमारी तो जिंदगी खुद एक नाटक है। आप देखेंगे कि यह जो जिंदगी का नाटक है—राम जी का नाटक, यह सारे नाटकों से बढ़कर है।” कुछ रुककर उसने फलसफाना अदाज में कहा, “यहाँ तो हर चीज नाटक है साब। जो मैं आपसे बात कर रहा हूँ, हो सकता है, वह भी कोई नाटक हो!”

    इस ‘नाटक...नाटक’ की अजब-सी धुन में मैं थोड़ा ऊब गया और खिड़की से बाहर देखने लगा। छुटकी अब तक मेरे कंधे से लगकर सो गई थी। लिहाजा मन अब थोड़ी देर हवा में खुला उड़ना चाहता था। यों भी ‘एम्स’ पार हो जाने के बाद सड़क कुछ इस कदर खुली मिल जाती है कि मन उड़ना ही चाहता है!

    इस बीच रामलाल दुआ ने फिर एक-दो बार मेरा ध्यान आकर्षित किया। और घर-परिवार की कुछ ऐसी बातें छेड़ दीं, जिन्हें मैं चाहते हुए भी अनसुना नहीं कर सका।

    मालूम पड़ा कि वह अपने बच्चों को बेहद प्यार करता है। रात दस-ग्याह बजे भी पहुँचे, तो बच्चे इंतजार करते हुए मिलते हैं कि देखें, पापा आज उनके लिए क्या लाए हैं? फिर शुरू होती हैं पापा से बातें और फरमाइशों का लंबा सिलसिला कि पापा, आज तो कोफ्ते बनाओ, फोहा बनाओ, चीला बनाओ। और रामलाल दुआ तब टैक्सी ड्राइवर का बाना छोड़कर झट ‘कुक’ का बाना पहने लेता है और वो लजीज आइटम बना-बनाकर पेश करता है कि बच्चों के चेहरे खिल जाते हैं।

    “क्यों, मम्मी से नहीं कहते वे?” मैं चौंका।

    इस पर रामलाल दुआ के चेहरे पर जो कुछ अजीब-सी आड़ी-तिरछी रेखाएँ उभरीं, उन्हीं में उसकी पूरी जीवन-कथा पढ़ी जा सकती थी।

    “मम्मी...? उहँ, एक तो वह इतनी दिलचस्पी नहीं लेती, फिर वह पापा जैसा लजीज खाना भी नहीं बना सकती! बच्चों को तो ऐसा आदमी चाहिए न साब, जो बगैर चिढ़े हुए उनके मन की सारी फरमाइशें पूरी करे और उन्हें खुश रखने की हरचंद कोशिश करें। तभी तो बच्चे सोते नहीं मेरे बगैर। खाना खाने के बाद रात बारह बजे तक उनकी बातों का पीरियड चलता है और तब कहीं उन्हें नींद आती है।” रामलाल दुआ की आँखों में झप से एक चमक कौंध गई।

    फिर उसके स्वर में एक अजीब-सी आर्द्रता नजर आने लगी, “मुझे तो अपनी जिंदगी में कोई खुशी नहीं मिली साब। पर अब नहीं मिली, तो नहीं मिली। उसका तो क्या किया जाए? पर मैं अपने बच्चों को दुनिया-जहान की सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ—जी हाँ, सारी! मेरा बस चले तो मैं आसमान के चाँद-तारे तोड़कर उनकी झोली में डाल दूँ।” कहते-कहते उसकी आँखें छलछला आईं। चुपके से हथेली के पार्श्व से उसने उन्हें पोंछ लिया।

    अब तक हमारी टैक्सी वजीरपुर डिपो के आसपास जा पहुँची थी। वह फैशनेबल और आधुनिक साज-सज्जा से पूर्ण ‘सूर्या मड हाउस’ जिसे सगाई के लिए चुना गया था, यहाँ से कोई डेढ़-दो किलोमीटर दूर था। पर जब गंतव्य का पता चला रामलाल दुआ को, तो उसके चेहरे पर खिंचाव हो गया, “होटल!...होटल क्यों चुना साब आपने? घर की तो बात ही कुछ और है। घर पर जो खाना बन सकता है, साफ-सुथरा और जायकेदार और किफायती भी, होटल वाले क्या खाकर मुकाबला करेंगे उसका? फिर—माफ कीजिए—होटल में फंक्शन हो, तो मन में कोई छाप नहीं पड़ती साब! ऐसा लगता है, बाहर-बाहर गए और बाहर-बाहर से आ गए। घर में चाहे थोड़ी-बहुत दिक्कत हो, पर घर की बात कुछ और है। आदमी जो एक बार आता है, कभी भूलता नहीं। इसीलिए तो साब, उसे घर कहते हैं।”

    फिर वह उसी धुन में लहक-लहककर बताने लगा, “अभी साब, मेरे साले की शादी की सालगिरह थी। पच्चीस साल हो गए साब उसकी शादी को। खूब धूम-धड़ाका हुआ। बड़ा-सा फंक्शन उन्होंने रखा। मैं भी पहुँचा अपनी वाइफ और बच्चों के साथ तो मालूम पड़ा, किसी होटल-वोटल में चलने का प्रोग्राम है। तो मैंने कहा—मारो झाडू होटल को! मुझे आप बताइए क्या बनना है और बेफिकर हो जाइए!... और साब, मैंने सँभाल लिया। खुद मैं गया मंडी में और आलू से लेकर बैगन, गोभी, मटर, पनीर सब कुछ खरीद लाया, इसी गाड़ी में रखकर जिसमें आप बैठे हैं। अब तो जी, रात में मैंने शाही पनीर बनाया, और उड़द की धुली हुई दाल। सुबह गोभी के शानदार पराँठे और आलू-मटर की सब्जी। दोपहर को कोफ्ते, पुलाव, रायता। रात में आलू-बैगन ऐसे कि चाटते रह जाओ हाथ! और आप यकीन नहीं करेंगे, सबके सब उगलियाँ चाटते रह गए कि वाह रे रामलाल दुआ, तेरी वजह से तो हमने जश्न मना लिया, जश्न! वरना तो क्या होटल, क्या होटल का सड़ा हुआ घासलेटी खाना। सबमें जैसे मोबिलाइल डाल रखा हो। हर चीज में एक जैसी बू-बास। एक ही-सा स्वाद, मरे हुए चूहे जैसा! और रोटियाँ ऐसी चिबड़ी कि दातों को कुश्ती लड़नी पड़े। लोगबाग कैसे खा लेते हैं साब, हमसे तो खाया नहीं जाता।...”

    रामलाल दुआ ने टैक्सी साइड में खड़ी की, इंजन में थोड़ा पानी डाला, फिर अपनी सीट पर जमते हुए कहा—

    “...घर की चीज में एक और अच्छाई है साब, जिसे आप भी मानेंगे कि घर के लिए आप कोई खराब चीज लेकर नहीं आओगे। न खराब गोभी, न आलू, न मटर-पनीर। ऐसा कुछ भी जिसमें गड़बड़ हो, आप उसे हाथ नहीं लगाओगे। मगर होटल वाले को क्या फर्क पड़ता है? वो तो ऐसी सारी चीजें बटोरकर ले जाएँगे। बस, सस्ती मिलनी चाहिए। सड़ा हुआ गोभी या सड़ा हुआ आलू—तो ग्राहक निपटेगा, हमें क्या! जबकि अच्छा खाने वाले इन चीजों की चिंता करते हैं। हर औरत इस चीज को जानती है। गरीबनी से गरीबनी औरत भी सड़ी हुई चीज नहीं ले जाएगी, चाहे जो हो! और मैं तो साब, मसाले भी साबुत खरीदता हूँ, उन्हीं को पीसकर काम चलाता हूँ। पता नहीं हल्दी या गरम मसाले के नाम पर बाजार में क्या चीज मिल जाए! और आप ये मत सोचो कि उसमें पैसा ज्यादा लग जाता है। अजी, जो दावत हमने अपने साले के घर दी, उसमें पैसा एक चौथाई भी नहीं लगा और चीजें टनाटन। आदमी अगर खुद को थोड़ी तकलीफ दे ले, तो...!”

    “कौन करे भई रामलाल दुआ, ये सारे झंझट?” मैंने उसके लंबे भाषण से थोड़ा परेशान होकर कहा, “पहले शादी-ब्याह हो या कोई और फंक्शन, तो बिरादरी के लोग आ जाते थे और सब सँभाल लेते थे। तब चाहे तंदूर ता लो या मिठाइयाँ बना लो, सब हो जाता था। मगर अब कोई किसी के घर झाँकने नहीं जाता। सब ऐन टाइम पर पहुँचते हैं टाई-सूट पहनकर...बन-ठनकर! तो अकेला बंदा क्या-क्या करे, क्या-क्या न करे!”

    “यही तो...यही तो...यही तो मुश्किल है साब! आदमी ने बिरादी को छोड़ दिया और बिरादरी ने आदमी को। इसका असर अभी तो नहीं, मगर आगे जाकर जरूर कहीं न कहीं नजर आएगा साब। और तब हमारे हाथ में पछतावे के सिवा कुछ नही रहेगा। हुआ यह कि आदमी ने पहले खुद को औरों से काटा, फिर औरों ने उसे काट दिया। अब तो हर आदमी अकेला है, साब। बड़ी जल्दी ही वह समय आने वाला है कि किसी के मरने पर कंधा देने और रोने को चार आदमी भी नहीं जुटेंगे। किराए के लोग लाने पड़ेंगे! याद रखना रामलाल दुआ की बात साब, यह मैं कोई झूठ नहीं कह रहा!...”

    वैन एक झटके के साथ रुकी, सामने ‘सूर्या मड हाउस’ था। मैं बच्चों को सँभालने में व्यस्त हो गया और रामलाल दुआ की बात अधूरी रह गई।

    2

    ‘सूर्या मड हाउस’ में पहुँचे तो उम्मीद के मुताबिक खासी गहमागहमी थी। और वहाँ लरजती हुई साड़ियों, क्रीजदार पैंटों, रेडिमेड शर्टों, स्कर्टों, नकली हँसियों और नफीस ठहाकों का एक भरा-पूरा जंगल था जिसमें हम थोड़ा झिझकते और परेशान होते हुए घुसे और एक कोने में जाकर अँट गए।

    थोड़ी देर में ‘ठंडा’ सर्व किया गया तो मैं गिलास लेकर बाहर गया। रामलाल दुआ ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “इसकी क्या जरूरत थी, साब?”

    “अरे भाई, ले लो। ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अदर ठंडा पीते रहें और तुम बाहर गरमी और लूओं में अपनी टैक्सी में प्यासे पड़े रहो।” मैंने प्यार से कहा।

    रामलाल दुआ ने धन्यवाद के साथ गिलास थाम लिया और मैं अदर आ गया।

    थोड़ी देर बाद खाने की बारी आई तो मैंने बैरे से कहा, “एक प्लेट हमारे टैक्सी ड्राइवर के लिए भेजिए। वह बाहर ही है, नीली वाली मारुति वैन में।”

    बैरा थाली लेकर बाहर गया और लौट आया, “वहाँ तो कोई नहीं है, साब।”

    “अरे!” हैरान होकर बैरे के साथ मैं बाहर गया तो सचमुच रामलाल दुआ नजर नहीं आया, वैन लॉक्ड थी। परेशान होकर इधर-उधर ताका, तो वह एक पान वाले की दुकान पर नजर आ गया। वह उससे लहक-लहककर बातें कर रहा था और खूब खुश था।

    मैंने बैरे से प्लेट लेकर पास जाकर उसे पकड़ानी चाही, पर वह लगातार ‘न-न’ कर रहा था, “नहीं साब, मैं तो सुबह घर से खाना खाकर निकलता हूँ और रात को घर पर जाकर ही खाता हूँ। मेरे लिए लंच-वंच का कोई चक्कर नहीं। और फिर बाहर का खाना...बुना न मानिए, मैं तो अवॉइड ही करता हूँ।’

    “अब ले लो भाई! हम भी कोई होटल-वोटल का खाना खाने वाले जीव नहीं। मगर कभी-कभार तो नियम तोड़ना ही पड़ जाता है।”

    मेरे बहुत आग्रह पर उसने प्लेट पकड़ ली और धीमे से अपनी मारुति वैन की ओर बढ़ गया। उसकी आँखों में एक ऐसी नमी थी, जिसने क्षण भर के लए मुझे बाँध-सा लिया।

    इसके बाद कोई घंटा-डेढ़ घंटा और लगा उस पार्टी के निबटने में, जिसमें लोग खाने पर बुरी तरह टूट पड़ने के बाद अब उसे पचाने के लिए बातों का ‘हॉट’ सिलसिला चलाए हुए थे। और इतना मुसकरा रहे थे कि मैं खुद को हँसी और मुसकानों के ‘सुगंधित दलदल’ में फँसा हुआ महसूस कर रहा था।

    हम चले तो रामलाल दुआ कुछ और आत्मीय ‘सुर’ में अपनी कथा के गर्भगृह में प्रवेश कर चुका था।

    अब वह बता रहा था—

    “मेरी माँ ग्रेट औरत थी साब, एकदम ग्रेट! कितना प्यार करती थी मुझे, यह मैं आपको बता नहीं सकता।...और मुझे लगता था, बस, मैं अपनी माँ के लिए जान दे दूँ तो हो गया मेरे जीवन का मकसद पूरा!”

    “और पिता...?” मैंने औचक ही पूछ लिया।

    “उलटे—माँ से एकदम उलटे! आप यकीन नहीं करेंगे साब, मेरी कहानी सुनकर कि ऐसा भी कोई पिता होता है या कि हो सकता है! आप कहेंगे, झूठ बोल रहा है रामलाल दुआ! पर मेरी कहानी का एक शब्द भी झूठ हो तो हे प्रभु, जो कातिल को सजा मिलती है, बड़े से बड़े पापी को सजा मिलती है, वह सजा मुझे मिले।”

    “मगर...तुम्हारे पिता ऐसे क्यों थे रामलाल?” मैंने बात की तह में उतरने की कोशिश में, जैसे एक बेवकूफी का सवाल पूछ लिया।

    “क्या कह सकते हैं साब, क्या कह सकते हैं?” रामलाल दुआ ने जैसे दुख से सिर धुनते हुए कहा, “मुझे तो कई बार लगता है, ईश्वर एक बनिया है। हिसाब बराबर रखता है साब, एकदम बराबर। इतनी अच्छी माँ उसने मुझे दी, तो बाप ऐसा जल्लाद कि उसे बाप कहते शर्म आए। हालाँकि आपको यकीन नहीं आएगा कि मैं अब भी अपने पिता की इज्जत करता हूँ। इसलिए कि जो कुछ उन्होंने किया सो किया, मगर बाप तो एक ही होता है। साब, उसकी जगह तो कोई नहीं ले सकता न!...

    “हाँ तो साब, माँ मेरी गुजर गई और मेरी जिंदगी तो उसी दिन फीकी पड़ गई जिस दिन माँ गई इस दुनिया से। कितना भर-भरकर प्यार करती थी मुझे। मझे तो कितने लाड़ से खिलाती-पिलाती, पुचकारती थी। मुझे एक जरा-सा काँटा भी चुभ जाए, तो तड़पती थी। मैं जब तक रोटी न खा लूँ, उसके गले में रोटी जा नहीं सकती थी। और आज...? आप यकीन नहीं करेंगे साब, आप जब प्लेट में मेरे लिए खाना लेकर आए और मेरी ‘ना...ना’ के बावजूद मेरे हाथ में थमा गए, तो मुझे अपनी माँ की याद आ गई। आपमें अपने लिए वही प्यार देखा, साब। आपकी आँखों में ठीक वही भाव था, जो मेरी माँ की आँखों में हुआ करता था, जब वह मेरे लिए थाली लेकर आती थी और पुचकारकर कहती थी, ‘ले, खा ले रामलाल।’ आज इतन बरस बाद लगता है...आपमें अपनी माँ को देख लिया।”

    कहते-कहते रामलाल दुआ की सिसकियाँ चालू हो गईं। वह फूट-फूटकर रो पड़ा।

    3

    संयोग से उस समय वैन रुकी हुई थी और उसमें मेरे और रामलाल के सिवाय और कोई नहीं था। सुनीता और दोनों बेटियाँ छुटकी और बड़की सामने मेरे बड़े भाई साहब के घर मिलने गई थीं। और वैन में मैं और रामलाल अकेले थे। भाभी की जिद थी कि मैं भी एक बार ऊपर आऊँ! बार-बार संदेश आ रहे थे, पर रामलाल दुआ को ऐसे गहरे भावोद्रेक के क्षणों में अकेला छोड़कर जाने का मेरा मन नहीं हुआ। लिहाजा उसे फूट-फूटकर रोते देख, मैंने खींचकर गले से लगा लिय। उसे भरसक दिलासा दिया कि नहीं, तमाम मुश्किलों के बावजूद उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है...कि दुनिया अभी बची हुई है।

    सुनीता और दोनों बेटियाँ लौटकर आ गई थीं और गाड़ी चल पड़ी थी।

    “लेकिन क्यों, तुम्हारे पिता ऐसे क्यों हो गए रामलाल दुआ?” मैं जैसे समझ नहीं पा रहा था और बार-बार किसी अटकी हुई जिद्दी सूई से इसी चीज को खोलने में लगा था।

    “शायद इसलिए कि...मेरे पिता पहले बिजनेसमैन हैं, बाद में पिता।” रामलाल दुआ ने संजीदा स्वर में कहा, “उन्होंने अपने जीवन में किसी चीज को माना या उसकी पूजा की तो पैसे की, सिर्फ पैसे की! पैसे से ज्यादा कीमती इस दुनिया में उन्हें कुछ और नहीं लगा साब, न कोई आदमी न रिश्ता। इसी चीज से खुंदक खाकर तो मैं घर से निकला था साब।”

    “अरे, क्यों? किसलिए?...यह चीज तो तुमने मुझे बताई ही नहीं।” मेरे मुँह से खुद-ब-खुद मुड़े-तुड़े-से शब्द निकले, “क्या कोई खास घटना हुई थी।”

    “अजी, खास तो क्या!... यों खास कह भी सकते हैं।” साफ लग रहा था कि रामलाल दुआ अपनी जीवन-कथा के इस चैप्टर को खोलना नहीं चाहता। जबरन उसे इधर आना पड़ा था, “खास तो यही था साब, कि हमारी एक बड़ी भाभी थी, जरा तेजतर्रार। थोड़े पैसे वाले घर की थी। तो हमारा बड़ा भाई भी उससे दबता था और पिता भी! तो ऐसे में उसका दिमाग तो खराब होना ही हुआ, साब। उसने माँ से भी कुछ उलटा-सीधा बोल दिया। एक दिन मेरे सामने ही आँय-बाँय की तो मैंने कहा—खबरदार, आज तो मैंने सुन लिया। मगर आइंदा से मेरी माँ से कुछ कहा तो इस घर में या तो तू नहीं या मैं नहीं!

    “बस, वो तो जी लगी फूँ-फाँ करने, रोने-गाने, चिल्लाने! बड़े भाई को पकड़कर ले गई अलग कोने में। कुछ उलटा-सीधा पढ़ाया। दोनों ने साब, घर में आफत मचा दी। इधर मैंने पिता से कहा, ‘या तो इन लोगों को घर से अलग करो या फिर मैं निकलता हूँ। बड़ी भाभी ने माँ से जो बातें कहीं, मैं उन्हें हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।’

    “तो इस पर बाप ने कहा, ‘ये तो यहीं रहेंगे, तुझे घर में नहीं रहना तो निकल जा।’

    “मैंने कहा, ‘ठीक है, मैं निकल जाऊगा।’

    “बाप बोला, ‘तो फिर देर क्यों करता है, अभी निकल...!’

    “मैं बोला, ‘लो, अभी निकलता हूँ।’

    “मैंने साब, आप यकीन करोगे—घर से कोई कपड़ा-लत्ता नहीं लिया! दो पैसे तक नहीं लिए और जिस हाल में था, उसी में घर से बाहर आ गया। बस, माँ रोती-कलपती, आँसू बहाती रही मेरे लिए। उसकी धाड़ें बाहर तक आ रही थीं। बाकी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।”

    एक क्षण के लिए होंठ भींचकर रामलाल दुआ ने अपनी भावनाओं को जैसे काबू में किया। फिर थोड़े पसीजे हुए स्वर में बोला—

    “तो खैर! वो रात मैंने रेलवे स्टेशन पर गुजारी। कैसे गुजारी? कैसे आग रात भर मेरे भीतर जलती रही और कैसे खून का घूट मैंने पिया, यह सब मुझसे मत पूछो, साब। मगर हाँ, रात भर मैंने एक फैसला कर लिया। और उसके बाद अगले दिन से उसी स्टेशन पर कुलीगीरी का काम भी शुरू कर दिया। ईश्वर की कृपा से शरीर तो ठीक ही था, मेहनत करने लायक। दिल में वलवला भी था कि बाप को कुछ बनकर दिखाना है। तो जी, मैंने जमकर कुलीगीरी शुरू कर दी। और एक-दो दिन नहीं, कोई साल-डेढ़ साल तक यही सिलसिला चालू रहा। लोग जो भी देखते थे, हैरान होते थे। अब कोई बड़ा शहर तो है नहीं रामपुर। वहाँ जान-पहचान वाले भी खूब मिलते थे और हैरान-परेशान होकर पूछते, ‘अरे, रामलाल, तू तो लाला खरैतीलाल दुआ का बेटा है ना? बाप ने क्या घर से निकाल दिया? कुलीगीरी की नौबत कैसे आ गई?’

    “मैं कहता, ‘देखो भाई, मैं किसी खरैतीलाल का बेटा नहीं। मैं तो खुदा का बंदा हूँ और उसके अलावा मेरा कोई बाप नहीं।’

    “तो खैर साब, मेरी मेहनत सच्ची थी तो रंग लाई। मैं ढाबे का मोटा-झोटा खाता था, खूब मेहनत-मजूरी करता और स्टेशन पर ही सो जाता। डेढ़-एक साल में जेब में कुछ पैसे जमा हो गए। अब कपड़े का काम तो मैं शुरू से जानता था। बाप की कपड़े की दुकान थी, सो यह मेरे खून में था। तो मैं कपड़े के एक व्यापारी माणिकलाल मनचंदा के पास गया और बोला, ‘सेठ साब, मैं कपड़े का काम शुरू करना चाहता हूँ। मुझे थोड़ा-सा कपड़ा उधर चाहिए। जैसे-जैसे बिकेगा, मैं देता जाऊँगा। हाँ, मेरे पास एक हजार रुपए हैं। ये आप सिक्योरिटी के रख लो अपने पास!’

    “सेठ ने मेरा कंधा थपथपाया, ‘तू चिंता न कर रामलाल। मैं जानता हूँ, तू मेहनती लड़का है। मैंने तेरे बारे में खूब सुना है। तू जितना मर्जी कपड़ा ले ले। और पैसे जब हों, तो देना। न हों तो मत देना।’

    “देख लो साब, कोई अपना न हो तो विपदा में कैसे-कैसे मदद करने वाले मिल जाते हैं।” रामलाल दुआ ने कहा, “तो साब, मैंने कपड़े का काम काम चालू कर दिया। दुकान तो कोई थी नहीं। कपड़ों की खूब बड़ी-सी गठरी बाँधकर निकलता और देहात में रोजाना तीन-चार सौ की बिक्री करके लौटता था। चालीस-पचास रुपए रोज के कमा लेता था। कुछ रोज बाद तो हालत यह हो गई साब, कि मेरे ग्राहक इंतजार में रहने लगे, रामलाल आएगा, हमारे मनमाफिक डिजायन का कपड़ा लेकर। तो अब तो बिक्री और बढ़ गई, महीने के दो-तीन हजार रुपए बचने लगे। होते-होते दो साल में इतने बचे कि मैंने एक छोटी-सी दुकान किराए पर ले ली और कपड़े का बिजनेस शुरू कर दिया।”

    “यहाँ एक छोटी-सी बात और! मैं भूल न जाऊँ, इसलिए सुन लो, साब। जिस दिन दुकान का मुहूर्त था, मैंने घर पर संदेश भिजवाया, ‘मुझे पाँच हजार रुपए की सख्त जरूरत है। अगर मिल जाएँ तो मैं एक साल के भीतर मय सूद लौटा दूँगा।’...”

    “अच्छा...!” मुझे हैरानी हुई।

    पर रामलाल दुआ रुका नहीं, बहता गया, “अब मैं कोई बेवकूफ तो था नहीं! मैं अच्छी तरह जानता था, साब कि मुझे क्या जवाब सुनने को मिलेगा। फिर भी दिल नहीं माना। मैं एक दफा टैस्ट करना चाहता था कि देखें उनका दिल कितना बड़ा है। तो साब, मेरे बाप ने साफ-साफ कह दिया कि ‘रामलाल, इस घर में तेरे लिए एक पैसा नहीं है। तू जी या मर, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता!’ तो जी, जो थोड़ा-बहुत भरम कह लो या गलतफहमी बनी हुई थी मन में, वह उस दिन खत्म हो गई। उस दिन घर आकर मैं कितना फूट-फूटकर रोया हूँ, यह किसको बताऊँ? बताया भी तो कौन समझेगा? मुझे लग रहा था, लोगों के बाप मर जाते हैं। पर मेरा बाप तो जिंदा होकर भी मर गया...!”

    उत्तेजना के मारे उसका स्वर काँपने लगा था।

    *

    “उफ! यकीन नहीं होता, इतना सख्त भी कोई बाप हो सकता है।” मैंने विचलित होकर कहा।

    “क्या कह सकते हैं?” रामलाल दुआ अचानक दार्शनिक हो गया, “हो सकता है, इसी में कुछ भला हो मेरे लिए! हो सकता है, कुछ सोचा हो मेरे बाप ने कि अपने आप ठोकर खाकर घर आएगा, और मैंने तय कर लिया था कि नहीं जाऊँगा। जान दे दूँगा लेकिन घर नहीं जाऊँगा। और मैंने अपना कौल निभाया, नहीं गया साब, आज तक नहीं गया।”

    “तो काम चल निकला तुम्हारा?...मेरा मतलब कपड़े की दुकान?” मैंने फिर से उसी ‘किस्से’ पर लौटते हुए कहा।

    “हाँ साब, खूब चली। बाजार में अच्छी-खासी इज्जत हो गई। थोक के दुकानदार दिल खोलकर मुझे उधार देते थे और मैं माल बेचकर टाइम से पैसा वापस कर देता था। ग्राहक की सतुष्टि, बस यही मेरा ‘एम’ था। तो साब, लोग पूछ-पूछकर मेरी दुकान पर आते थे। और कहते थे कि रामलाल दुआ, तेरी दुकान छोड़कर हमने कहीं नहीं जाना, भले ही कोई मुफ्त में माल क्यों न देता हो! लेकिन साब, शुरू-शुरू में दिक्कतें भी बहुत आईं! मैंने आपको बताया ना वो किस्सा कि मेरे बाप ने सूखी ना कर दी थी। तो एक दिन मैं अपनी दुकान पर बैठा था और रो रहा था कि मेरे जैसा अभागा भी कोई होगा, जिसका बाप जिंदा होते हुए भी मर गया। अब चांस देखो साब, मेरी दुकान के ऊपर ही एक बैंक था। तो बैंक का एकाउंटेंट कोई कपड़ा खरीदने आया। मुझे रोता देखकर बोला, ‘यार, तू रोता क्यों है?’ मैंने रोते-रोते कहा, ‘बाप मर गया है, इसलिए...!’ और पूरा किस्सा सुना दिया। उसने कहा, ‘तू चिंता न कर, मैं कुछ करता हूँ।’ तो साब जी, उस एकाउटेंट ने, कमलकिशोर सक्सेना उसका नाम था—पाँच छोड़, दस हजार रुपए मुझे लोन दिला दिया, अपनी जिम्मेदारी पर! वह लोन, साब, मैंने ढाई साल में पूरा चुकता कर दिया किस्तों में, ब्याज समेत! तो साब, अब एक और चांस देखो! बैंक में जिन साब ने लोन दिलाया था—सक्सेना साब, वो बड़े भले आदमी थे। एकदम देवता। उन्होंने एक दिन पूछा कि रामलाल दुआ, तुम्हारी शादी हो गई? मैंने कहा—नहीं साब, मैं अकेला बंदा हूँ। कोई मेरा कुछ करने वाला नहीं है। कौन करेगा मुझसे शादी?

    “इस पर उन्होंने कहा, ‘इससे क्या! अच्छे तदुरुस्त आदमी हो। नेक ख्याल हैं तुम्हारे। कमाते-धमाते भी ठीक-ठाक हो। फिर क्या मुश्किल है?’

    “मैंने कहा, ‘आपकी जान-पहचान में कोई लड़की हो तो देखना साब।’

    “कुछ रोज बाद सक्सेना साब आकर बोले, ‘रामलाल, मेरी एक छोटी साली है। सुंदर है, अच्छे स्वभाव की है। बस, थोड़ी साँवली है और एक आँख में थोड़ा डिफेक्ट है। तुम कहो तो बात करूँ?’

    “मैंने कहा, ‘ठीक है साब। मैंने शक्ल थोड़े ही देखनी है। बस, लड़की ऐसी हो कि मेरा साथ निभा सके!’

    “कुछ रोज बाद हमने एक-दूसरे को देखा, पसंद कर लिया और शादी हो गई।”

    “अच्छा! शादी में क्या तुम्हारे घर वाले भी आए—माता-पिता, भाई-भाभी...?” मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा।

    “हाँ साब, मैंने तो सबको खूब आदर से बुलाया था और जितना भी जिसका आदर-सत्कार कर सकता था, किया! मगर मेरे बाप ने, आप यकीन नहीं करेंगे, शादी में एक फूटी कौड़ी नहीं खर्ची। बहू तक को जेब से निकालकर आशीर्वाद के ग्यारह रुपए नहीं दिए। हाँ, मेरी माँ ने जरूर चोरी से कोई साढ़े अट्ठानवे रुपए की रेजगारी और एक पुरानी सोने की अँगूठी दी थी ट्रंक से निकालकर। मैंने साब, उसे ले तो लिया। मगर उसे छाती से लगाकर देर तक रोता रहा। आज तक माँ के दिए हुए वो साढ़े अट्ठानवे रुपए मेरे पास ज्यों के त्यों पड़े हैं। उन्हें खर्च नहीं किया साब मैंने, और वह अँगूठी भी पहनी नहीं गई। रखी हुइ्र है आज तक माँ की निशानी के तौर पर! हर साल बैसाखी वाले दिन निकालता हूँ और सिर पर लगाता हूँ।...बैसाखी मेरी माँ का जन्मदिन है साब!’

    “तो माँ कब गुजरीं? कब हुआ उनका इंतकाल...?” बेसुधी में उसकी ‘कहानी’ के साथ बहते-बहते मैंने पूछा।

    “हाँ जी, माँ गुजर गईं, उस घर में बहुत-बहुत दुख पा के! और मैं तो कहता हूँ, अच्छा हुआ जो उनकी जल्दी मुक्ति हो गई, वरना और जीतीं तो और दुख उठातीं।” कहते-कहते उसका गला भर आया। क्रोध और करुणा का एक ऐसा उफान उसके भीतर उमड़ा कि चेहरा तमतमा गया।

    उसी आवेश में बहते हुए रामलाल दुआ ने पतियाए हुए स्वर में कहा, “किसी ने घर में उसकी इज्जत नहीं की, साब। एक देवी थी, जो आई थी हमें प्यार का पाठ पढ़ाने। पर दुखी दिल लेकर चली गई। इसीलिए आज हमारे घर की यह हालत है। पूरा घर जैसे भूतों का डेरा बना हुआ है।...आप उस घर में साँस नहीं ले सकते पाँच मिनट। मैं ठीक कहता हूँ साब! दम घुटने लगता है।”

    4

    उसने कातर निगाहों से मुझे देखा। फिर एक ठंडी साँस लेकर बोला, “और यही वजह है साब, कि मुझे रामपुर छोड़ना पड़ा। मुझसे देखा नहीं जाता था साब, घर की जो हालत थी और बाप को जिस तरह बेइज्जत किया जाता था। अब जैसा बोओगे, सो तो काटोगे ही। मगर मुझसे नहीं देखा गया तो रामपुर छोड़कर चला आया दिल्ली। मन कहता था—भाग...भाग! कहीं भी चल, कहीं भी जा, मगर यहाँ नहीं। सो सब टांडा-टीरा बटोरकर चला आया दिल्ली। एकाध बिजनेस जमाने की कोशिश की ट्रांसपोर्ट वगैरह का, पर जो पार्टनर था, वह बेईमानी कर गया साब। पूर डेढ़ लाख उसने खा लिए और भाग गया।...तो अब क्या रास्ता था? बाकी जो पैसे थे, बटोर-बटारकर और बीवी के गहने बेचकर यह मारुति वैन खरीदी और टैक्सी ड्राइवर बन गया। दिल्ली में गुजारा मुश्किल से होता था। किसी भले आदमी ने कहा कि फरीदाबाद में हुडा के फ्लैट मिल रहे हैं आसान किस्तों पर। तो यहाँ आ गया। अब जिंदगी चल रही है साब। बहुत ज्यादा नहीं है। मगर ऐसा भी नहीं है कि रोटी-पानी का कोई झंझट है। जो मिला, काफी मिला। मुझे तो किसी से शिकायत नहीं है, साब।”

    5

    कुछ देर की चुप्पी। शायद अपने आवेग को सँभालने के लिए उसे यह जरूरी लगा हो। फिर थोड़े हल्के ‘सुर’ में संजीदगी से बोला, “माँ तो अब रही नहीं, पर बाप के बारे में जरूर सोचता रहता हूँ अब भी। बाप चाहे कुबाप हो, पर है तो बाप। मैं सोचता हूँ, मैं उनका बेटा होकर उनके लिए कुछ नहीं कर सकता? वहाँ रामपुर में तो साब, बड़ी दुर्दशा है। अब तो हालत यह है कि भाई-भाभी, जिनके पास वो रहते हैं, बात-बात में उनकी बेइज्जती करते हैं और यहाँ तक कि उनके बच्चे भी!...अभी पिछले साल की बात है। मेरे बड़े भतीजे ने उन्हें इतनी बुरी तरह धक्का दे दिया कि जमीन पर जा गिरे। कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया। पूरे साल भर तक इलाज हुआ, अच्छे से अच्छे डॉक्टरों को दिखाया, मगर हड्डी ठीक से जुडऩे में नहीं आती। यों भी बुढ़ापे का शरीर है, हड्डियों में भी अब जान कहाँ रही। अब थोड़ा-थोड़ा लँगड़ाकर तो चल लेते हैं मगर वो बात नहीं रही। और पूरे शहर में बेइज्जती अलग हुई कि लाला खरैतीलाल दुआ के पोते ने उनको मारा।...देख लो साब, कैसा वक्त आ गया है!”

    “आपको इस घटना की असली वजह बताऊँ तो आप भी ताज्जुब करोगे। मेरे भतीजे बबलू ने जो दिन भर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता है और लड़कियाँ छेड़ता है, पिताजी से मोटर साइकिल खरीदने के लिए पच्चीस हजार रुपए माँगे थे। अब ये पुराने आदमी हैं साब, किफायत से खर्च करने वाले, तो उन्होंने मना कर दिया। बस इसी बात पर बबलू ने—उनके सगे पाते ने गुस्से में उन्हें धक्का दे दिया। और कोई साल भर वे हाय-हाय करते खाट पर पड़े रहे। अब जैसे-तैसे लाठी लेकर डगमगाते, लगड़ाते हुए दुकान पर जाते हैं, मगर इज्जत घर में दो पैसे की नहीं है। और शहर में भी लाला खरैतीलाल दुआ के पुराने दिल लद गए। जिंदा रहकर भी मुर्दे के समान है साब, वो आदमी।...”

    “और घर की हालत...? अब मैं आपको तफसील से बताऊँ। आप इससे अंदाजा लगाइए कि मुझे जब पता चला कि ऐसी-ऐसी बात हो गई तो मैं यहाँ से गया टैक्सी लेकर कि उन्हें अपने साथ फरीदाबाद लेकर आऊँगा। गाड़ी में उन्हें आने में कोई मुश्किल नहीं होगी। पर आप देखिए, मेरे साथ क्या बर्ताव हुआ!...यानी मैं उनसे मिलने तो गया, पर मैं उस घर में एक दिन नहीं रुका। मैंने उस घर में एक वक्त का खाना तक नहीं खाया। चाय तक नहीं पी। मैं सीधा रामपुर में होटल में रुका था और कोई पंद्रह दिन वहीं रहा।... तो रोजाना होटल में नहा-धोकर, खाना खाकर जाता था। बाप के पास बैठता दो-चार घंटे, फिर लौटकर होटल में आकर टिक जाता। और मुझसे—यह हकीकत है, साब—अगर मैं झूठ बोल रहा होऊँ तो जो गाय का मांस खाने की सजा होती है, वह सजा मुझे मिले—कभी किसी ने एक वक्त की रोटी या चाय क लिए नहीं पूछा। जबकि किस मुश्किल से मैं वहाँ पहुँचा था। वैन चाहे अपनी है, पर यहाँ से वहाँ तक जाने का पैट्रोल का खर्जा तो लगता है कि नहीं? होटल में रुकने का, खाने का, चाय-पानी का खर्चा अलग से। और फिर पूरे पंद्रह दिन तक काम का हर्जा! यह सब काहे के लिए? उसी बाप के लिए न, जिसने चाहे कितने ही दुख दिए, धक्का मारकर घर से निकाला, मगर फिर भी मेरे मन में उसके लिए इज्जत बची हुई है। मैं तो खुद से एक ही बात कहता हूँ कि रामलाल दुआ, अगर तेरे बाप ने खुद को आदर के योग्य साबित नहीं किया, तो क्या! तुझे तो अपना फर्ज पूरा करना ही है।

    “और एक दफा नहीं, मैं बहुत दफे उनसे मिलने जा चुका हूँ, साब। कोई दस-बारह बार। पर भाई-भाभी के घर में मेरी इतनी भी इज्जत नहीं, जितनी कि घर में घुस आए खजैले कुत्ते की! वो भी जानते हैं कि कितनी ही दुर-दुर करो, फिर भी आएगा, क्योंकि इसका बाप यहाँ है। और मजे की बात देखो साब, जिस बाप के लिए मैं धक्के खाता वहाँ पहुँचता हूँ, वह अभी तक इस उमर में भी माया-मोह के चक्कर में इस कदर फँसा है कि उसे लिए बेटा-वेटा कोई चीज नहीं है पैसे के आगे! मैं कहता हूँ, ‘छोड़ो यह सब। क्या ले जाना है आपको अपने साथ? मेरे पास आकर रहो सुख से चार दिन। मेरे भी दिल को शांति पड़ेगी।’ पर उनका मन तो साँप की तरह पैसे की कुंडली मारकर बैठा है। मैं, आपको यकीन नहीं आएगा, पंद्रह दिन तक लगातार रट लगाता रहा कि आप चलिए...चलिए...चलिए मेरे साथ! पर वे नहीं आए। टस से मस नहीं हुए।’

    “उन्हें कोई गलतफहमी न रहे, इसलिए मैं साफ-साफ कहा कि मुझे आपका एक पैसा नहीं चाहिए। बस, मेरी एक ही इच्छा है कि कुछ आप हमारे घर चलकर रहिए, ताकि हमें भी लगे कि हमारा घर भी घर है। जरा अपनी छोटी बहू को, पोते-पोतियों को भी देखिए। वो तरसते हैं आपके लिए।...मगर मजाल है जो उनके कानों पर जू भी रेंग जाए!

    “आखिर में जब मैं लौट रहा था, निराश होकर मैंने कह ही दिया कि देखिए पिताजी, आप माया के चक्कर में पड़ गए हैं। अब इस उम्र में आप माया का जंजाल छोड़िए। एक बेटे को आपने देख लिया, अब दूसरे बेटे को भी आजमाकर देख लीजिए। हमें भी सेवा का मौका दीजिए।...मगर नहीं साब, माया तो बेड़ी बनकर उनके पाँवों में पड़ी है।”

    “क्यों? क्या वहाँ दुकान तुम्हारे बड़े भाई के जिम्मे नहीं है?...क्या इस उम्र में भी पिताजी ही उसे देखते हैं?”

    मेरे सवाल ने उसे खासा उत्तेजित कर दिया—

    “अरे, राम भजिए! किसी और को भला कैसे जिम्मा दे सकते हैं वे। बयासी साल के हो गए, लेकिन चाबियाँ अभी तक उन्हीं के हाथ रहती हैं। कोई लाख माथा पटक ले, उनसे एक पैसा ले नहीं सकता।...आप मानेंगे साब, जितने दिन वे बिस्तर पर रहे, रोजाना बेटे से दुकान का पूरा हिसाब लेकर तब सोते थे। ऐतबार उन्हें किसी का नहीं है, चाहे उनके सगे पिताजी स्वर्ग से नीचे उतर आएँ, तो भी नहीं।”

    “यानी दुकान अभी तक उन्हीं के अंडर है? वही सँभालते हैं सब कुछ...?” मैंने हैरान होकर पूछा।

    “बिलकुल! बड़े भाई को तो सिर्फ महीने का घर चलाने का खर्चा देते हैं, बाकी सब कुछ अपनी मुट्ठठी में! और मुट्ठी इतनी सख्त है कि कोई एक निक्की पाई तो ले ले उनसे!...”

    “ऐसा क्यों?” मैंने भौचक होकर कहा, “आखिर आदमी परिवार के लिए ही तो करता है सब कुछ!”

    “इसलिए कि किसी पर उनका विश्वास नहीं है। आपको बताया तो है साब, पैसा ही उनका प्राण, मित्तर, प्यारा है...वही खुदा, वही ईश्वर! बस, पैसा ही दुनिया में एक ऐसी चीज है जिसके लिए वे मजे से जान दे सकते हैं।”

    रामलाल दुआ के होंठ व्यंग्य से शायद कुछ ‘टेढ़े’ हो गए।

    “खैर, मैं वहाँ से लौट तो आया।” फिर से उसी घटना-क्रम पर लौटते हुए उसने कहा, “घर आकर मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी। अपने अल्प ज्ञान के बावजूद मैंने कोशिश कर-करके ऐसी भाषा लिखी, चुन-चुनकर एक-एक ऐसा शब्द...कि सीधा मन में उतरता जाए। मैंने उन्हें लिखा कि पिताजी, अब इस उम्र में तो आपको समझना चाहिए। आप ‘नीति’ भूलकर ‘नीयत’ के चक्कर में फँस गए हैं...!”

    “तो खूब लंबा-सा पत्र मैंने लिखा साब, जिसमें दिल का पूरा दर्द उँडेल दिया। पर उन्होंने उसका जवाब तक नहीं दिया।...एक लाइन तक नहीं!”

    “अब मैं फिर से एक और चिट्ठी लिख रहा हूँ। आधी लिख ली है, बाकी आधी और पूरी करनी है। उसमें हो सकता है, महीना-डेढ़ महीना लग जाए। मुझे इतनी अच्छी भाषा कहाँ आती है! पर लिखना ऐसा चाहता हूँ कि उन्हें महसूस हो कि उन्होंने किया क्या है और क्या उन्हें करना चाहिए था। अभी तक सही अल्फाज ढूढ़ने में लगा हूँ। रोजाना कुछ-कुछ वाक्य लिखता हूँ। सारे दिन गाड़ी चलाता हुआ सोचता रहता हूँ, तब मुश्किल से दो-चार पक्तियाँ लिख पाता हूँ। जिस दिन पूरी हो जाएगी चिट्ठी, आपको दिखाऊगा। मुझे कविता तो नहीं आती, पर कोई कवि भी क्या ऐसी चिट्टी लिखेगा, जो मैंने अपने पिता को लिखी है...!

    “पहले भी जो दो-तीन चिट्ठियाँ भेजी थीं, मेरे पास उनकी रफ कापी होगी साब! आप देखना कभी, आप मान जाएँगे कि रामलाल दुआ, तुझमें कुछ बात है।”

    *

    रामलाल दुआ ने थोड़ी आत्मकरुणा से भरी निगाहों से मुझे देखा, और फिर उसने एक दूसरी ही पगडंडी पकड़ ली—

    “और दिल में कोई बात न होती या कोई आग, कोई तड़प न होती अंदर, तो मैं घर से भागता ही क्यों साब! शुरू से ही लगता था कि रामलाल दुआ, तुझे सच्चाई का पक्ष लेना है...और एक भला और नेक बंदा बनना है। कितना बन सका हूँ साब, कह नहीं सकता, मगर अंदर तड़प तो वही है।

    “आपको वो किस्सा सुनाऊँ साब, जब मैं रामपुर रेडियो स्टेशन जाया करता था। आपको पहले बताया था न? अच्छा, नहीं बताया।...वो ऐसा है जी, मैं बचपन में गाने का बहुत शौकीन था। मुकेश के, रफी के गाने तो हू-ब-हू बिलकुल उन्हीं की आवाज में गा लेता था। कोई पहचान नहीं सकता था माई का लाल कि ये मुकेश की आवाज नहीं, रामलाल दुआ की आवाज है...या कि ये रफी साब नहीं गा रहे हैं, अपना यार रामलाल दुआ मौज में आकर अलाप ले रहा है!

    “तो साब, मैं बहुत छोटा-सा था, तभी से रामपुर रेडियो स्टेशन वाले मुझे गाने के लिए बुला रहे हैं, युववाणी में! उन दिनों वहाँ के स्टेशन डायरेटर थे शाद साब! वो तो साब, इस कदर मुझे प्यार करते थे कि पूरे रेडियो स्टेशन पर यह बात फैल गई थी और हर शख्स की जुबान पर थी कि रामलाल दुआ शाद साब का खोया हुआ बेटा है जो बचपन में तीन साल की उमर में उनसे बिछुड़ गया था, जब वे किसी मेले में गए थे, और फिर उसका कुछ पता नहीं चला। बहुत खोजा, बहुत तलाशा, मगर कहीं कोई निशानी तक नहीं! तो इसी दर्द ने साब, शाद साब को भी एक मशहूर म्यूजीशियन बनाया! और क्या एक से एक कमाल की धुनें बनाया करते थे साब वो! सितार और बाँसुरी तो उनके हाथ में आते ही जादू-मंतर...बस जादू-मंतर हो जाती थी एकदम!”

    “मुझे भी कहा करते थे कभी-कभी साब वो, कि ‘रामलाल दुआ, तुझे मैं सिखाऊँगा ये सब ओर अपने पास रखूँगा बेटा बनाकर। खुद ब्याह-शादी करूँगा तेरी, नौकरी दिलवाऊँगा। लाइफ बन जाएगी तेरी!’ पर मैं कहता, ‘नहीं साब, अपन मौज में गा लेता, इतना काफी है। अपन बैठकर छह-छह घटे म्यूजिक वगैरह का, सितार-बाँसुरी का रियाज नहीं कर सकता। यह सब अपने बस की बात नहीं! मूड में आया तो गाया, नहीं तो नहीं। अपना तो बस ये शौक है। व्यापारी का बेटा हूँ सो बिजनेस आता है। म्यूजीशियन की लाइफ अपन को सूट नहीं करेगी, सो यह शौक चलेगा नहीं साब!”‘

    “बाद में शाद साब का लखनऊ तबादला हो गया। जाते समय वो भी और उनकी घरवाली भी, सादिया बेगम नाम था जी उनका—मुझे छाती से चिपकाकर आँखों में आँसू भर-भरकर रोए। मनाते रहे कि तू चल, चल हमारे साथ! और रुलाई तो मेरी भी साब, बहुत छूट रही थी। मैं फूट-फूटकर रो पड़ा कि मेरे असली माँ-बाप तो छूट ही गए, और ये जो नए माँ-बाप मिले, तो ये भी अब बिछुड़ रहे हैं। फिर जाने कभी मुलाकात हो न हो! पर साब, मैं चाहते हुए भी उनकी बात मान नहीं सका। ऐसे मामलों में तो साब, अंदर से मन जो बात कहे, सो ही माननी चाहिए। मेरा पक्का यकीन है! क्यों साब, आपका क्या ख्याल है?”

    उसकी आँखों में सवाल कम, एक उमड़ती-घुमड़ती हुई वेदना ही ज्यादा थी, जो न जाने कब आँसुओं में तब्दील हो गई।

    6

    “चलो खैर, जो गुजरी सो गुजरी! भूलो अब बीती बातें।” मैंने कंधे पर हाथ रखकर उसे दिलासा देते हुए कहा, “अब, बीवी-बच्चे तो खूब प्यार करते होंगे?”

    इस पर रामलाल दुआ का चेहरा थोड़ा खिंच-सा गया। थोड़े तंज के साथ बोला, “हाँ, बीवी तो ठीक है, वैसी ही जैसी और बीवियाँ होती हैं। पत्नी का धर्म निभा देती है, लेकिन बच्चे सच में ऐसे हैं जो बहुत प्यार करते हैं। जानते हैं कि हमारे बाप ने बहुत कष्ट सहे हैं हमारे लिए...इस घर को बनाने के लिए! इसीलिए वे दूना-चौगुना प्यार लुटाकर मेरे दुख को कम करते रहते हैं। और साब, बच्चों से बात करने से ज्यादा खुशी मुझे किसी और चीज में नहीं मिलती!...”

    “और ससुराल वाले...? वहाँ से तो खूब प्यार मिलता होगा?” पूछने पर रामलाल दुआ फिर उदास हो गया। बोला, “हाँ, साब, ठीक ही है! सब पैसे की माया है। ससुराल वाले भी जानते हैं कि जो थोड़ा कमजोर है औरों से, उसे दबा लो। अब मेरी ससुराल में सभी तो अफसर हैं, सिवाय मेरे। साले खूब अच्छी सरकारी नौकरियों में हैं!...एक साढ़ू तो बैंक मैनेजर ही है। उसका किस्सा तो आपको बताया था कि मेरी शादी उसी ने कराई थी। बाकी एक साढ़ू रेलवे में स्टेशन मास्टर, एक सेक्शन ऑफीसर है उद्योग मत्रालय में। सभी एकसे एक पहुँचे हुए हैं। और अपन तो साब, टैक्सी ड्राइवर होकर ही रह गए!...तो साब, टैक्सी ड्राइवर की खातिर तो टैक्सी ड्राइवर जैसी ही होगी न, कोई अफसर जैसी तो हो नहीं सकती। और यह बात कोई और नहीं, खुद मेरी बीवी कहती है। जिस दिन मेरी बीवी ने कहा था पहली दफा, तभी से मेरे माथे पर मोटे-मोटे हर्फों में खुद गया है—‘टैक्सी ड्राइवर’! और अब तो मुझे भी इसमें इतना मजा आने लगा है कि मैं चाहूँ भी तो इस पेशे को बदल नहीं सकता!”

    कहते-कहते, रामलाल दुआ की आँखें फिर से पनीली हो गईं। कहीं मेरी पकड़ में उसकी यह कमजोरी न आ जाए, इसलिए होशियारी से नजरें बचाकर वह बाहर देखने लगा था। फिर अचानक जैसे पूरा बटोरकर उसने मेरी ओर देखा और पनीली, बेहद पनीली आवाज में कहा, “पत्नी?...बस पत्नी ही तो मेरी हार है। वही अगर मुझे इस कदर न दागती तो मैं...मैं पूरी दुनिया से लड़ सकता था साब, पूरी दुनिया से!...”

    रामलाल दुआ रो तो नहीं रहा था, पर उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था।

    उसकी उदास नजरों का पीछा करते-करते मैंने एक निगाह बाहर डाली। हमारी बातों के साथ-साथ वैन तेजी से भागी जा रही थी। हवा में थोड़ी ठंडक घुल चुकी थी। मुद्रिका का रास्ता पार करके अब हम ‘अपर्णा आश्रम’ पर थे।

    जल्दी ही गाड़ी मथुरा रोड पर आ गई। यानी फरीदाबाद अब काई पचीस मिनट दूर था...

    “मैं जरूर कभी तुम्हारी कहानी लिखूँगा रामलाल दुआ। तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं?” मैंने उसे टोहते हुए पूछा।

    “आप...अच्छा, आप राइटर हैं। तभी तो...मैं खुद भी सोच रहाथा कि आप जरूर कुछ न कुछ हैं, कोई बिलकुल अलग किस्म के आदमी...वरना तो कौन हमसे इस तरह बात करता है!” कहते-कहते उसकी आँखों में चमक भर गई, “ठीक है साब, आप...आप लिखिए, जरूर लिखिए! मैं आपको और भी चीजें बताऊगा।”

    कुछ रुककर उसने झिझकते हुए कहा, “कभी आप खाली हों साब, तो मैं आपको अपना घर भी दिखाना चाहता हूँ। आप देखिएगा आकर कभी! आपको इस गाड़ी में बिठाकर ले जाऊगा। हमारे घर के पास ही सूरदास जी की जन्मस्थली है—सीही गाँव में, वहाँ अभी एक कवि-सम्मेलन भी करवाया था सरकार ने...आप चाहोगे तो आपको वहाँ भी ले चलूँगा।”

    “तो ठीक है, अगले इतवार को! एकदम पक्का रहा।” मैंने उसके प्रस्ताव पर खुशी जताते हुए कहा।

    कोई साढ़े नौ बजे उसने हमें घर पर छोड़ा। तब तक छुटकी मेरे कंधे पर लगी-लगी सो चुकी थी। पीछे वाली सीट पर सुनीता और बड़की तंद्रा में थीं। पैसे लेकर अगले इतवार को आने का वादा करके ‘नमस्कार’ करके उसने विदा ली।

    7

    अगले इतवार को वह शायद किसी जरूरी काम से उलझ गया। और उसके कुछ रोज बाद, शनिवार की सुबह उसका फोन आया तो मैं एक दिलचस्प उपन्यास पढ़ रहा था। जाहिर है, मैं तीव्रता से किसी और भावधारा में बहने लगा था। रामलाल दुआ की कहानी याद थी, पर नाम उसका विस्मृति के हलके कुहासे में चला गया था...

    उसने फोन पर संकोचभरी आवाज में कहा, “प्रकाश जी, मैं दुआ...पहचान रहे हैं न!”

    “हाँ-हाँ!” मैंने असमंजस में पड़कर कहा। मैं वाकई पहचान नहीं पाया था, पर यह कहना शायद बदतमीजी होती! इस बीच में लगातार उसकी आवाज के सहारे पहचानने की कोशिश कर रहा था।

    “असल में पिछले इतवार को तो मैं आ नहीं सका। कुछ काम था...कल अगर आप कहें तो मैं आ जाऊ!”

    “हाँ-हाँ, ठीक...!”

    मैंने कह तो दिया पर पहचान अब भी नहीं पाया था। मेरे एक मित्र दुआ साहब एयरफोर्स में बड़े अधिकारी रहे हैं। मुझे लगा कि कहीं वही तो नहीं बोल रहे? हालाँकि आवाज थोड़ी बदली हुई थी...

    लेकिन फोन रखते ही मुझे अपनी गलती पता चल गई। यह तो रामलाल दुआ था, टैक्सी ड्राइवर...!

    उसी समय मैं समझ गया—रामलाल दुआ कह भले ही रहा हो इतवार को आने के लिए, पर वह नहीं आएगा। हरगिज नहीं आएगा। मेरी आवाज का अनुत्साह उससे छिपा न रह गया होगा।

    मैंने सुनीता से कहा, “गलती हो गई! उसने भी सिर्फ ‘दुआ’ कहा और मैं पहचान नहीं पाया। अगर उसने पूरा नाम रामलाल दुआ ही कहा होता तो...”

    “नहीं, तुम्हारी क्या गलती है!” सुनीता ने मेरे जख्म पर फाहा रखते हुए कहा, “इतने लोग रोजाना मिलते हैं, हर किसी का नाम थोड़े ही याद रखा जा सकता है! कोई लंबी पहचान तो थी नहीं। या फिर वह पूरी बात बताता कि मैं टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ बोल रहा हूँ, आप उस दिन मेरी टैक्सी में बैठकर...!”

    “यही तो...यही तो तुम नहीं जानतीं सुनीता। यही तुम नहीं समझोगी!” मैं एकाएक चिल्ला पड़ा, “वह टैक्सी ड्राइवर के रूप में मेरे पास नहीं आ रहा था, एक व्यक्ति रामलाल दुआ के रूप में...एक दोस्त। तुम समझीं, समझीं कुछ?”

    सुनीता अचकचाकर मुझे देख रही थी कि अचानक मुझे हुआ क्या है! और मेरी गलती सचमुच ऐसी ‘अक्षम्य’ थी कि रामलाल दुआ फिर नहीं आया—आज तक नहीं आया। हो सकता है, अपना अपमान करने वाले ‘ह्रदयहीन’ लोगों में उसने एक नाम और जोड़ लिया हो! और यों भी, इसमें झूठ गया है? मेरा ख्याल है, आप मुझसे सहमत होंगे।

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