असहमती Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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असहमती

9.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 66, शब्द-संख्या 21,972)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

टूटे कपों का कोरस

प्रकाश मनु

*

545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

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जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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‘टूटे कपों का कोरस’...! ई-बुक के रूप में सामने आई मेरी पसंदीदा कहानियों की इस पुस्तक के साथ ही, भीतर बहुत कुछ है जो हलचल मचा रहा है। यादें...यादें और यादें...! इस पुस्तक में शामिल कहानियों और अपनी कथा-यात्रा के साथ जुड़ी कुछ आनंदपूर्ण और शायद अबूझ सुख की यादें। मानो विचित्र सुख-दुख के आँधी-अंधड़ों से गुजरी मेरी कथा-यात्रा के पिछले चालीस बरस मेरी आँखों के आगे डब-डब, डब-डब कर रहे हों।

सच तो यह है कि कोई चालीस बरसों से मेरी कथा-यात्रा अपनी एक अलग ही लय-धुन में चलती आई है, जिसमें भीतर-बाहर की दुनिया के बहुत से महाभारत जाने-अनजाने, अनायास उतरते रहे हैं। कहानी लिखते समय हर क्षण रहने वाले आनंद और उत्तेजना की हालत का बयान करना तो मेरे लिए नामुकिन ही है। लिखते-लिखते मैं जिस दुनिया में पहुँच जाता हूँ, वहाँ से लौटना कई बार बड़ा तकलीफदेह होता है। जैसे भीतर हलचल मचाती और हिलोर पर हिलोर पैदा करती कल्पना की दुनिया अनायास सच हो गई हो। इस कदर सच कि उसके आगे रोजमर्रा की जी हुई दैनंदिन दुनिया भी कई बार तो झूठ लगने लगती है।

यह कैसे होता है? क्यों होता है? यह बता पाना शायद किसी भी लेखक के लिए मुश्किल है। नामुमकिन भी। पर यह किसी भी दीवानगी भरे लेखक की एक विचित्र और रोमांचक स्थिति तो जरूर है जो उसे लिए-लिए चलती है और वही शायद उससे लिखवाती भी है। उसमें बहुत कुछ ऐसा भी है, जो कुछ समय पहले शायद उसके भीतर इस कदर साफ शक्ल में न रहा हो। और वह शब्दों में वाकई उतर आएगा, इसकी प्रतीति भी लेखक को न रही हो। यों किसी बहुत मार्मिक अनुभव से गुजरती कहानी का लिखा जाना खुद में एक उलझी हुई रहस्य-कथा भी है, जिसमें एक अजब सी आकस्मिकता भी है। और वह आनंद भी, जो लिखने, लिखने और बस लिखने को लेखक का एक प्यारा-सा नशा भी बना देता है। और वही शायद उससे कुछ नायाब ढंग से ऐसा लिखवाता भी है, जो खुद लेखक के लिए एक हैरतअंगेज अनुभव है।

अपनी एक अलग राह पर चलने वाले कथाकार के रूप में मुझे उसकी प्रतीति बराबर होती रही, जीवन के हर मोड़ पर मिलने वाले पाठकों और उनकी दीवानगी भरी प्रतिक्रियाओं से। इन कहानियों को सराहने वाले पाठक कहाँ-कहाँ मिले, उनकी अलग-अलग ढंग की उत्तेजक प्रतिक्रियाएँ कैसी थीं, इसकी चर्चा शायद खुद एक कहानी बन जाए। हाँ, इन प्रतिक्रियाओं में एक बात आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती और साझी थी कि इनमें से सभी को लगा था कि ये कहानियाँ एकदम सच्ची हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम सच्चे हैं और ये कहानियाँ मेरी आत्मकथा के अनलिखे पन्नों में से चुपके-चुपके निकलकर आई हैं। शायद इसीलिए एक पाठक ने बहुत आकुल-व्याकुल होकर पूछा था कि “मनु जी, सुकरात क्या सचमुच उसी तरह कुरुक्षेत्र में रेल की पटरियों पर कटा हुआ पाया गया था, जैसा आपने लिखा है?... क्या आपको उसके बारे में कुछ और पता चला कि वह क्यों इतने गुस्से में हरदम गालियाँ बकता रहता था और कहाँ से आया था?” और मैं चुप। क्या जवाब दूँ, इस सवाल का? गो कि बहुत कुछ था जो जस का तस घटित हुआ था। पर बहुत कुछ भीतर से भी आया था, जहाँ आर्द्र संवेदन की भट्ठी में बहुत कुछ धधक रहा था।

मेरे कथा-गुरु दिग्गज कथाशिल्पी देवेंद्र सत्यार्थी ने शुरुआती दौर की लिखी मेरी ‘यात्रा’ कहानी सुनने के बाद जिस तरह मुग्ध और अभिभूत होकर आशीर्वाद दिया था और कहानियाँ लिखने की अपनी ही लीक पर चलते रहने का जो बल दिया था, उसे भूल पाना असंभव है। साथ ही उन्होंने कहानी को लेकर कबीर की उलटबाँसी की तरह जो मारक बात कही, वह मुझे आज भी कहानी के बड़े से बड़े शास्त्रीय सिद्धांतों से बड़ी लगती है कि—“याद रखो मनु, कहानी तुम नहीं लिखते, बल्कि कहानी तुम्हें लिखती है।” इसी तरह उन्होंने मुझे कहानी के एक और विराट सत्य का दर्शन कराते हुए कहा, “अगर तुममें कहानी को देखने की दृष्टि है, तो तुम देखोगे मनु, तुम्हारे सब ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। बस, उन्हें तुम्हारी कलम के स्पर्श की प्रतीक्षा है। तुम उन्हें प्यार से उठाओ और लिखना शुरू कर दो। वे देखते ही देखते तुम्हारे सामने हँसते-बोलते, चहचहाते या फिर उदास रंगों वाले जीवित संसार में बदल जाएँगी।”

इसी तरह याद पड़ता है, ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ कहानी पढक़र मेरे अत्यंत प्रिय और आदरणीय कथाकार बल्लभ सिद्धार्थ ने जो पत्र लिखा था, उसे पढक़र मैं रोमांचित हो उठा था। उन्होंने लिखा था, ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ उन्हें इस बुरी तरह बेचैन करने वाली पाँच-सात कहानियों में से एक है और—“मनु, तुमने कम से कम एक ‘बड़ी’ कहानी लिखी है!” इसी तरह बहुत-से कहानीकार मित्रों को यह कहानी इस कदर प्रिय है कि बरसों बाद मिलने पर आज भी कहीं न कहीं, कभी न कभी इसकी चर्चा छिड़ ही जाती है।

अलबत्ता अलग-अलग दौर में लिखी गई और अलग-अलग शक्लों में सामने आई मेरी ये पसंदीदा कहानियाँ ई-बुक के रूप में पाठकों के बीच पहुँच रही है। इस विस्मय भरे, रोमांचक सुख का वर्णन कैसे करूँ? मेरे अनुजवत प्रिय अनामीशरण बबल ने लगातार टहोका न दिया होता तो मेरे सरीखे हर पल अपने काम में डूबे शख्स के लिए इस राह पर आना अकल्पनीय था।

9 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

अनुक्रम

1. असहमति

2. अंकल को विश नहीं करोगे

3. टूटे कपों का कोरस

4. सुकरात मेरे शहर में

5. यात्रा कहीं खत्म नहीं होती

1

असहमति

प्रकाश मनु

*

वे दोनों अभी नए आए थे, एक वो, एक उसकी वो। वो चश्मा लगाए गोरा और लंबा और उसकी वो साधारण नाक-नक्श की साँवली-सी। पूरी लाइन में एक ही कमरा खाली था—बिजली दफ्तर के महेंद्र बाबू का, जो उन्होंने अपनी अधेड़ावस्था की फुरसत में बनवा लिया था, बुढ़ापे के आश्रय या किराए वगैरह के लिए। ये लोग उसी में आए थे।

कमरा यों तो अच्छा था, पर आसपास के सब घरों की दीवारों, खिड़कियों, आवाजों और सब लड़के-लड़कियों, स्त्री-पुरुषों के चेहरों के बीच इस तरह फँसा हुआ कि सबको यह अचरज ही लगता था कि कोई उसमें आए और बाकायदा रहने लगे।

फिर ये लोग तो कुछ अजीब ही थे। पहले पुरुष (हाँ, उसे पुरुष ही कह लो, वैसे था लड़का ही, शरीर, चेहरे-मोहरे और एक खास तरह के हलके-फुल्केपन की वजह से, जिसे शायद ठीक से बताया नहीं जा सकता।) बगल में वर्मा जी से चाबी लेकर मकान देख गया। फिर शाम को वह साथ में एक साँवली-सी युवती को भी लाया। (जो जाहिर है उसकी बीवी ही होगी, पर लिपस्टिक, लज्जा आदि परंपरागत सुहाग-चिह्नों से ऐसी शून्य कि सवाल पर सवाल उठते थे!) फिर दोनों ने कुछ रुचि, कुछ अरुचि से कमरा, एक छोटे से लॉन की वजह से चाहे तो मकान कह लीजिए, पसंद किया था। वहीं खड़े-खड़े देर तक वे बातें करते रहे थे। लेट्रीन, बाथरूम की टोंटियों से लेकर आसपास के माहौल तक की चर्चा की थी उन्होंने। मकान को बराबर पिंजरा कहा था, पर साथ में यह भी कि चलो कोई बात नहीं, हवा और रोशनी तो आती ही है, और मजे से जिंदा रहा जा सकता है।

आखिर वे एडवांस दे गए और अगले दिन आने के लिए कह गए।

वर्मा जी की सेहतमंद आधुनिक बीवी ने आसपास की औरतों के कानों में फुस-फुस कर कुछ कहा। (उन्हें शायद दाल में कुछ काला दिखाई पड़ गया था।) आसपास की औरतों ने और आगे बात सरकाई। बात चार से चालीस कानों तक पहुँची। फिर उन औरतों ने रात अपने-अपने मर्दों के कान में कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। मर्द कुछ हँसे, कुछ सीरियस हुए...और फिर जैसे रातें गुजरती हैं, वह रात भी गुजर गई।

अगले दिन लोगों ने देखा कि केवल एक ताँगा, आधा भरा हुआ आधा खाली, उस मकान के सामने आ खड़ा हुआ है। उसमें सामान के नाम पर कुछ छोटी-बड़ी बेतरतीब गठरियाँ हैं, दो चारपाइयाँ, एकाध कुर्सी सी, एकाध संदूक, बस। पीछे-पीछे साइकिल पर हाँफता हुआ वह लंबा आदमी आया, कैरियर पर टेबल फैन लिए, हैंडल में एकाध टोकरी लटकाए। पसीने से नहाया हुआ। उसके पीछे वह साँवली-सी युवती हाथ में दो छोटे-छोटे थैले लटकाए आराम से चलती आ रही थी।

इस अच्छे-खासे तमाशे को देखने का सुख छोड़ पाना आसान नहीं था, इसलिए लोग आए और उनके चेहरों पर हँसी फूट पड़ी। पर इन्होंने परवाह नहीं की। उस आदमी ने साइकिल खड़ी की, फटाक से ताला खोला, दरवाजा धकियाया...और...और सीरियली जुट गया। औरत अपनी सामर्थ्य के मुताबिक मदद करती रही। थोड़ी देर में सामान भीतर आ गया तो उस आदमी ने इक्के वाले को पैसे दिए, धन्यवाद दिया और शायद चाय पीने का भी आग्रह किया। फिर बाहर का दरवाजा बंद हो गया और भीतर खटर-पटर होती रही।

फर्श धोने और चारपाइयाँ तथा अन्य सामान एडजस्ट करने की आवाजें थीं वे। इन्हीं के बीच कभी-कभी पुरुष के हँसने और औरत के हलके ढंग से डाँटने का स्वर भी मिल जाता। या कभी दोनों भी साथ-साथ हँसते थे।

“यानी कि यह साँवली लगती तो खुशमिजाज-सी है।” मिसेज वर्मा ने मन ही मन नोटिस लिया था।

शाम को सब औरतें दिल में कौतूहल, आँखों में सवाल लेकर मिसेज वर्मा के घर के बाहर इकट्ठी हुईं। सबके भीतर कुछ खुदबुदा रहा था और वे कोई बढ़िया नजारा लेना चाहती थीं।

पर वे बुरी तरह निराश हुईं, क्योंकि दरवाजा तब से अभी तक खुला ही नहीं था। एक खिड़की खुली थी, पर उसमें आते ही परदा लटक गया था। परदा कभी-कभी हिलता था तो अंदर के बरतन वगैरह दिख जाते थे या कभी परदे पर कोई एकाध परछाईं आकर टिकती और फिर गुजर जाती, मगर इससे दिल तो नहीं भरता था।

भीतर हलचल के नाम पर केवल दो बार स्टोव जला और बुझा था। हलकी-सी बातचीत भी सुनाई पड़ी थी। पर वे तो ऐसी नहीं थीं जैसी मर्द-औरत करते हैं। यानी कहीं ‘ए जी’, ‘ओ जी’ वगैरह नहीं। फिर औरत या आदमी की कभी-कभी गुनगुनाने की आवाज।

“औरत शायद अच्छा गाती है, और मर्द...?” मिसेज वर्मा हँसी थीं, “एक ही ट्यून में जाने क्या आल्हा-सा गाता रहता है।”

पर मिसेज वर्मा की दी हुई इस सूचना में किसी की दिलचस्पी नहीं थी। वे कोई ज्यादा हैरानी वाली बात जानने और उस पर टीका-टिप्पणी करने आई थीं।

“हे भगवान, इत्ती घुटन में कोई कैसे रह सकता है?” राजरानी से अब नहीं रहा गया तो उसने हवा में हाथ हिलाकर कह ही दिया। खूब ऊँची आवाज में, कि हो सके तो भीतर वाले भी सुन लें। फिर बंद दरवाजे को लक्ष्य करके बोली, “आदमी तो वही अच्छे लगते हैं जो आदमियों के बीच उठें-बैठें, आदमियों की तरह रहें...”

“और ये क्या जानवर...खी...खी...खी-खी-खी-खी!” राजरानी की ननद बोली कम, हँसी ज्यादा थी।

“भई, हमने कब कहा जानवर? पर मुहल्ले में रहें तो मुहल्ले वालों की कद्र तो करनी ही चाहिए। चार दिन सबको रहना है, भाईचारे से ही अच्छा लगता है।” अब लच्छो दादी ने आगे की बात सँभाली और अपने अनुभवों का पिटारा खोलने के मूड में आ गईं।

“दादी, हो जाता है सब ठीक...! अब ये बंतो शुरू-शुरू में आई तो कितनी दूर-दूर रही थी निगोड़ी?” मिसेज वर्मा ने चुटकी ली।

“हाँ जी, मैं क्यों रहती दूर? मुझमें क्या कोई खोट था?” बंतो ने कठोर-सा मुँह बनाया। फिर कहा, “हाँ, कोई शुरू-शुरू में आए तो थोड़ी लाज-सरम...”

“और तब पेट में भी तो गुब्बारे फूल रहे थे हमारी बंतो के!” राजरानी ने कहा और हँसते-हँसते दोहरी हो गई।

*

तभी दरवाजा खुला। वे दोनों बाहर आए। दरवाजा बंद करके एक नजर बाहर चारपाई पर बैठी औरतों पर डाली, फिर वे हौले-हौले बातचीत करते, मुसकराते हुए आगे बढ़ गए।

आदमी घर के धुले और इस्तिरी किए हुए सफेद कुरते-पाजामे में था और दोपहर की तुलना में इस समय ज्यादा चुस्त और खुश लग रहा था। औरत बादामी रंग के ब्लाउज और इसी रंग की साड़ी में थी। शरीर आदमी से कुछ भारी, मगर इन कपड़ों में फब रही थी। साँवलापन एक सहज कांति से भर उठा था। कुछ थोड़ी बहुत बातचीत भी उनकी सुनाई पड़ी या अनुमान लगा गया।

“क्यों भई, किस तरफ से चलें अनु?”

“कहीं से भी। मौसम खुशनुमा है आज तो, अच्छा लगेगा। पीछे वाली सड़क से चलें?”

“काफी सन्नाटा-सा रहता है वहाँ, रास्ता भी नहीं देखा हुआ। डर तो नहीं लगेगा तुम्हें?”

“डर...? हाँ जी, मुझे तो कोई उठाकर न ले जाएगा!” वह मुसकराई, “ऐसा करो, तुम अपना विजय छोड़कर पराजय रख लो, डरपोक कहीं के!”

“दुष्ट कहीं की!” पुरुष धीरे से हँसा।

फिर वे बात करते हुए काफी आगे निकल गए। इधर रुकी हुई महफिल भी शुरू हो गई।

“इस उमर में कुरता-पाजामा तो कुछ ठीक नहीं लगता। ये तो बड़े बुजुर्गों को ही सोहता है। एक तो वैसे ही सींकिया हो आदमी, ऊपर से...हुँह!” राजरानी ने मुँह बनाया।

“औरत ज्यादा मजेदार है। मौसम का मजा लेने गई है ठंडी सड़क पर, बलम जी के साथ, खी-खी-खी-खी!” पुष्पा अपने दिल की गुदगुदी को रोक नहीं पाई थी।

“अरे, हमें लगता है, कोई मार-मूर न डाले इन्हें। हाँ, और क्या? पूरा जंगल है वो। रात में तो कोई परिंदा भी वहाँ पर नहीं फड़कता।” लच्छो दादी ने गरदन हिलाकर गुस्सा जताया, “फिर कोई कहेगा कि पहले दिन ही ये हादसा...! बदनामी सारे मुहल्ले की होगी।”

*

उनके आपस में एक-दूसरे को बुलाने से उन्हें पता लगा कि औरत का नाम अनु है, पुरुष का विजय। दोनों का एक-दूसरे को नाम लेकर बुलाना उन्हें अजीब लगता। औरत का पति को नाम लेकर बुलाना तो करीब-करीब अश्लील ही लगता।

“यह कोई ऐसी-वैसी औरत है!” वे एक दूसरे को फुसफुसाकर समझातीं। हालाँकि इसके लिए कोई खास कारण उन्हें नहीं मिलता था। उस औरत की शालीनता में कोई कमी या औरत-मर्द दोनों के व्यवहार में कहीं कोई अभद्रता उन्होंने नहीं देखी थी। वह बाहर ही दरअसल बहुत कम निकलती थी। कभी-कभी ठेले पर सब्जी बेचने आए बाबा से थोड़ी बहुत सब्जी लेने निकलती थी। औरतें अजीब-सी निगाहों से उसे घेरने या तोलने की कोशिश करतीं, पर वह सब्जी लेकर निश्चिंत भाव से वापस आ जाती।

खुद को लेकर एकाध ऊटपटाँग-सी बात उसके कानों में पड़ती तो भी वह चुप ही रहती थी। हाँ, कभी कोई औरत उससे कुछ पूछती तो वह मुसकराकर संक्षिप्त-सा जवाब दे दिया करती थी।

आसपास की औरतें चाहती थीं कि वह उनके बीच आ जाए, उनकी मंडली में—और उन्हीं की तरह बातें करे, कभी जोर से, कभी फुसफुसाकर और कभी खूब खुलकर हँसे, पर यह शायद उससे हो नहीं पाता था। वह या तो गंभीर रहती थी या केवल हौले से मुसकरा पाती थी। इसका यह अर्थ निकाला गया कि वे बेहद घमंडी औरत है। यह अपने मर्द पर हावी है, इसका मर्द इससे डरता है, यह भी कहा जाता रहा।

“तभी बेचारा कभी इधर-उधर देखता नहीं है। निगाहें बचाता हुआ निकल जाता है।” राजरानी ने हँसकर सबको समझाया।

“पर पति को तो आँखों पर रखती है। सुबह कई बार मैंने देखा है जब पति को विदा करती है। ऐन तब तक दरवाजे पर खड़ी देखती रहती है, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो जाता।” मिसेज वर्मा ने आँखों में शरारत लाकर कहा।

“ठीक है, लेकिन मर्द मर्दों में अच्छे लगते हैं, औरत औरतों में। यह क्या कि दोनों सारा दिन गुफा में घुसे रहें, साथ-साथ घूमें? आखिर सभ्यता भी कुछ होती है कि नहीं? हमारे बुजुर्ग लोग भी पढ़े-लिखे थे, अँगरेजी नहीं पढ़े तो क्या? पर आचार-विचार कोई उनसे सीखे। सारे दिन शक्ल देखने को तरस जाते थे, पर मजाल है कि भीतर पैर भी रखें। बाहर बैठकर खाना खाया, हुक्का पिया और वहीं से उठकर चले गए। ये होती है मर्यादा!” माया चाची को भी अपनी बात कहने का मौका मिल गया था।

फिर धीरे-धीरे उन्हें पता कि काम पर आदमी ही नहीं जाता, कभी-कभी औरत भी साथ जाती है, साइकिल पर बैठकर। फिर वे साथ-साथ वापस आते हैं, किताबों से लदे हुए। आकर साथ-साथ खाना बनाने में जुट जाते हैं।

“चाय अक्सर आदमी ही बनाता है।” मिसेज वर्मा ने पड़ोस की औरतों को बताया, “कभी-कभी तो जूठे बरतन भी साफ करता है। सच, मुझे तो बड़ा तरस आता है...”

“हमारा मर्द तो पानी का गिलास तक अपने हाथ से न उठाए। वहीं से आवाज लगाएगा—राजराणिए...पाs...णीss...!” राजरानी ने पति की नकल उतारी।

कभी-कभी वे हालचाल पता करने के लिए बच्चों को भेज देतीं। वह साँवली-सी युवती प्यार से उन्हें बिठाती और बातें करती। कभी-कभी टाफियाँ या बिस्कुट भी खाने को देती। आदमी भी कभी-कभी उन बच्चों को कहानियाँ सुनाता, उनके साथ हँसता-बोलता रहता।

मुहल्ले वालों को यह कमोबेश बहुत अजीब लगता था। हालाँकि इससे उन्हें कोई प्रत्यक्ष कठिनाई नहीं थी। पर भीतर ही भीतर कहीं कुछ हिलता था, जड़ता काँपती थी और इससे वे डर जाते थे। वे सोचने लगे थे कि ये लोग चले जाएँ तो अच्छा हो।

असल बात यह थी कि यह लंबा-सा विजय और साँवली-सी अनु अपने ढंग से जीवन जीने के आदी थे। इसलिए किसी से बहुत ज्यादा संबंध बढ़ाने की जरूरत भी उन्होंने कभी नहीं समझी। न ही वे किसी की बुराई या चुगली ही करते थे, जिसमें दूसरे लोगों को खासा रस मिलता है।

बस, अपने ही काम में दोनों लीन रहते थे। एक बोलता रहता, दूसरी लिखती रहती। एक पढ़ता रहता, दूसरी घर का काम कर लेती। एक बीमार पड़ता तो दूसरी साइकिल पर दवाई लेकर आ जाती। और अगर औरत अस्वस्थ होती तो वह सिर दबाता, चाय बनाता, खाना बनाता और ट्रांजिस्टर लगाकर या गाना गाकर उसे खुश रखने की कोशिश करता।

सारा दिन वे पढ़ते या लिखते, शाम को घूमने जाते और बातचीत करते। रात देर तक पढ़ते, खबरें सुनते और आल इंडिया रेडियो से तामीले इरशाद भी। फिर सो रहते। वे अपने आप में पूरे थे, इस बात से सबको तकलीफ होती थी। वे इनका घमंड तोड़ने का कोई बहाना ढूँढ़ना चाहते थे, पर वह मिलता ही नहीं था, क्योंकि एक तो ये बोलते कम थे, फिर जब भी बोलते, विनम्रता और आदर से।

पर एक दिन औरतों को बहाना आखिर मिल ही गया।

हुआ यह कि एक दिन सुबह-सुबह एक शैतान से लड़के ने परदा उठाकर अंदर का दृश्य देखा, फिर उसने दूसरे लड़कों को भी बुला लिया। दरअसल, वे दोनों अस्त-व्यस्त कपड़ों में एक-दूसरे से लगे सो रहे थे।

बच्चों का यह कुतूहल उन तक ही सीमित नहीं रहा, औरतों तक भी पहुँचा। पर जब एकाध औरत परदा उठाकर झाँकने आई, तब तक वे जग चुके थे।

साड़ी ठीक करती हुई उस साँवली-सी औरत यानी अनु को बहुत गुस्सा आ रहा था। न दबाई गई नफरत से वह बोली, “कितने ओछे और बदतमीज है यहाँ के लोग!”

औरतें तो चली गईं, पर बच्चों ने घर जाकर सब हाल कहा कि आंटी रोती रहीं और देर तक अंकल समझाते रहे। कुछ ‘दकियानूस-दकियानूस’ दो-तीन दफा कहा। फिर कहा, “बेचारे पुराने ढंग से सोचने के आदी हैं, गुस्सा नहीं करना चाहिए।”

उधर अनु का गुस्सा तो थम गया, पर उन औरतों का नहीं। उन्होंने जाकर मुहल्ले की लीडर औरतों से भड़ककर और भड़भड़ाकर सब कुछ कहा, बल्कि सबका सवाया कहा। लीडर औरतों ने आसपास की सब औरतों को उस घटना को ड्योढ़ा और दोगुना करके बताया। सब औरतों ने रात को अपने-अपने मर्दों से कानाफूसी से दूना-तिगुना कहा।

*

सुबह मर्दों ने तय किया कि मुहल्ले में मर्यादा बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। आखिर मुहल्ले में यह अनैतिकता कब तक बर्दाश्त की जाएगी? इन्हें जरूर बोल देना चाहिए कि अगर रहना है तो हमारी तरह ठीक से रहो, नहीं तो कहीं और ठिकाना ढूँढ़ो!

पर मि. वर्मा और बंतो का पति हवासिंह—दोनों शामिल नहीं हुए। मि. वर्मा ने यार लोगों से माफी माँग ली थी। बोले थे, “भई, हमारे तो पड़ोसी हैं। हमारा जाना ठीक नहीं लगता।”

वैसे असल बात तो यह थी कि मिसेज वर्मा ने ही पति को मना किया था। हुआ यह था कि उनकी थोड़ी बहुत बातचीत इस साँवली गंभीर औरत से शुरू हो गई थी और थोड़ा बहुत सब्जी-वब्जी या कम पड़ गई गृहस्ती की चीजों का लेन-देन भी। बाजार यहाँ से खासा दूर था, सो इसमें उन्हें सुविधा थी। फिर यह औरत उन्हें घमंडी भी नहीं लगी थी। जीने का सबका अपना ढंग होता है, कोई किसी को क्या कह सकता है, उन्होंने सोचा था।

एक खास बात यह थी कि उनके बच्चे जब उधर जाते तो वह औरत उन्हें खूब प्यार करती और टाफियाँ देती थी। हालाँकि उन्होंने यह बात छिपाए रखी थी और किसी से कहा नहीं था।

बंतो ने भी अपने पति को रोक लिया था। उसे शुरू से ही यह ज्यादती लग रही थी कि किसी को अकेला देखकर सब उस पर वार करने लगें। उसे याद था, जब वह यहाँ आई थी तो किस तरह उसकी गरीबी और साधारण कपड़ों को लेकर उसकी हँसी उड़ाई गई थी। वह तो उसका पति हवासिंह अक्खड़ और भारी डील-डौल का मजबूत आदमी था, इसलिए कोई उसकी ओर देखती नहीं थी। वरना उसका पेट जो कुछ ज्यादा ही फूला हुआ और बेडौल लग रहा था, को देखकर आँखों-आँखों में किसने उसका मजाक नहीं बनाया था? सो उसने हवासिंह को जाने नहीं दिया।

फिर भी प्रत्यक्ष विरोध उन दोनों ने नहीं किया। दिनेशकुमार, सोहनलाल और ठाकुर ज्ञानसिंह से कहा कि वे ही पूरे मुहल्ले के प्रतिनिधि बनकर हो आएँ। पूरी भीड़ के जाने की क्या जरूरत है?

आखिर तीनों धड़धड़ाते हुए गए और जाकर जोरों से दरवाजा खटखटा दिया। दरवाजा औरत ने खोला। बिना सकपकाए हुए, मुसकराकर कहा, “आइए...!”

“वो...मास्टर जी हैं?” उनकी समझ में कुछ और नहीं आया तो उसके दिन भर पढ़ने-लिखने की आदत को याद करके अचानक ही ‘मास्टर जी’ उन्होंने कहा।

“हाँ-हाँ, आप बैठिए। विजय, देखो, ये मिलने आए हैं।” औरत ने निभ्र्रांत भाव से पुरुष को बुलाया। पुरुष आया, हाथ में पैन और किताब लिए हुए। उसी तरह प्रसन्नचित्त, जैसे वह हमेशा रहता था। हँसते हुए बोला, “आप लोगों ने बड़ी मेहरबानी की। कहिए, कैसे आना हुआ?”

“कुछ नहीं, वैसे ही। सोचा, थोड़ा मिल आएँ।...आखिर हम एक ही मुहल्ले के हैं।” दिनेशकुमार ने अवसर के अनुकूल यथासंभव आवाज को दबाया।

“क्यों नहीं, क्यों नहीं! बड़ी खुशी की बात है।...चाय पिएँगे?” फिर बिना उनका जवाब सुने, भीतर आवाज लगाई, “अनु, चाय बनाओ भई!”

“आप जूनावस्टी में हैं?” ठाकुर ज्ञानसिंह ने जानना चाहा। हालाँकि वे यूनिवर्सिटी का ठीक उच्चारण नहीं कर पा रहे थे।

“जी।” लगता था कि पुरुष इस अटपटे उच्चारण पर हँसी दबाने की चेष्टा कर रहा है।

“वो तो हम लोगों ने सोच ही लिया था।” ठाकुर ज्ञानसिंह बोले, “दिन भर पढ़ते ही रहते हैं...किताबें ही किताबें। इसी बात से।”

“हाँ, काम ही कुछ ऐसा है।” पुरुष ने हँसकर कहा।

“क्या काम करते हैं जी आप...?”

“यों समझिए...कि घास खोदता हूँ। वैसे जो काम मैं करता हूँ, उसे रिसर्च कहते हैं, यानी नई बात खोजना। लेकिन नया-वया कुछ नहीं, घास खोदनी पड़ती है रात-दिन।” वह हँसा।

इतने में चाय आ गई। साँवली सी युवती ने सबको चाय दी, फिर खुद भी एक कप लेकर कुर्सी पर बैठ गई। यह उनके लिए अप्रत्याशित था, वे ज्यादा कांशस हो गए और बात करने की भूमिका तलाशने लगे। इतने में आदमी ने परिचय कराया, “अनु, देखो भई, ये अपने मुहल्ले के लोग आए हैं—दिनेश जी, सोहनलाल जी और ये हैं ठाकुर ज्ञानसिंह जी।”

औरत ने बारी-बारी से नम्रतापूर्वक हलका-सा सिर झुकाते हुए उन्हें नमस्कार किया। फिर बोली, “यह तो सौभाग्य है हमारा, जो आप खुद मिलने आए।”

“आप...आप कौन जात हैं?” चाय पीते हुए बड़ा साहस करते ठाकुर ज्ञानसिंह ने पूछा।

“हम जात-पाँत को नहीं मानते।” पुरुष के चेहरे पर अप्रत्याशित कठोरता आ गई थी।

“फिर भी अ...वैसे ही!”

“तो हरिजन समझ लीजिए! अगर आप जात-पाँत को मानते ही हैं तो मैं खुद को हरिजन कहूँगा। जिस जाति-प्रथा को आप मानते हैं, उसे मैं नहीं मानता। उस हिसाब से हमारी शादी भी एक जाति में नहीं हुई।”

उन्होंने अचानक चाय के कप रख दिए, “नहीं साहब, ऐसा मत कहिए। हरिजन तो बहुत गंदे होते हैं।”

“हरिजन कैसे गंदे हो सकते हैं? वे तो हरि के जन है, ईश्वर के खास लोग। उनसे पवित्र कौन होगा?”

“लेकिन असलियत में तो ऐसा होता नहीं, साहब।” अब तक चुप और सहमे बैठे सोहनलाल ने अपना मुँह खोला।

“नहीं होता, तो होना भी नहीं चाहिए। यह नतीजा आपने कैसे निकाला?” विजय का आक्रोश बढ़ता जा रहा था।

उन लोगों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। इसलिए भीतर ही भीतर कसमसाते हुए भी वे चुप ही रहे।

थोड़ी देर बाद सोहनलाल ने मौन तोड़ा, “यूनिवर्सिटी में तो बहुत लोग काम करते होंगे, विजय साहब।” वह मन ही मन कुछ कहने की भूमिका बना रहा था।

“बहुत लोग काम करते हैं। अरे, आपके इत्ते नजदीक है यूनिवर्सिटी, कभी ठीक से देखी नहीं क्या?” विजय ने अपने आक्रोश को कम करते हुए यथासंभव सहज होने की चेष्टा की।

“बस साहब, कामकाजी आदमी हैं, दुकान से फुर्सत ही नहीं मिली।” सोहनलाल ऊपरी ढंग से हँसा। फिर असल बात पर आ गया, “साहब, हमारे साले को भी कहीं लगवा दीजिए। बी.ए. पास है, क्लर्क ही लग जाए।” उसने दीन भाव से कहा।

“भई, सिफारिश की तो मेरी औकात ही क्या है, दूसरे मैं इसे मानता नहीं हूँ। वांट्स निकलती हैं, उसे एप्लाई करना चाहिए। हाँ, अगर पढ़ने में किसी मदद की जरूरत हो तो यहाँ भेज दीजिए। मैं या अनु पढ़ा दिया करेंगे।”

“बीबी जी भी पढ़ी हुई हैं क्या?” ठाकुर ने हैरानी से पूछा।

“हाँ, मेरे बराबर ही। बल्कि मुझसे एक कदम आगे। इनका एम.ए. में फस्र्ट डिवीजन है, मेरा सेकंड...!” पुरुष हँसा। “इसलिए ये घर के कामकाज रोब डालकर मुझसे करवा लेती हैं। कहती हैं, हर चीज बराबरी की होनी चाहिए।”

“ये तो ज्यादती है साहब इनकी।” ठाकुर साहिब मूँछों के बीच से हँसते हुए बिलकुल बच्चों जैसे लग रहे थे।

“नहीं साहब, ज्यादाती तो हम लोगों की, हम आदमियों की हजारों सालों से रही है। इससे दिमाग ऐसा उलटा बन गया है कि ये उस ज्यादती का विरोध करती हैं तो हमें अजीब लगता है या कि ज्यादती लगती है, जबकि इसमें कोई गलती नहीं है। यह न्याय का सवाल है। आखिर हमें क्या हक है कि हम औरत को रंगीन कपड़ों, गहनों और विलासिता के थोड़े से सामान के साथ घर की चारदीवारी में बंद कर दें, उसे पैर की जूती या नरक का द्वार कहें? जरूरत इस बात की है कि वह हमारे पूरे जीवन में सहभागी बने। आखिर वह भी हमारे जैसे ही हाड़-माँस की है, उसमें भी दिल है, दिमाग है। वह किस बात में हमसे कम है? क्या वह जिंदगी भर रसोईघर में कैद रहने के लिए बनी है...?” विजय ने बोलना शुरू किया तो बोलता ही चला गया।

पता नहीं, उन्हें कितना समझ में आया, पर विजय के चेहरे के आवेश को देखकर वे त्रस्त हो गए थे।

फिर वे उठे, नमस्कार किया और चल दिए। वे इस आदमी से ऊपरी तौर से असहमत थे, पर भीतर उसकी सच्चाई और सवालों का जवाब नहीं ढूँढ़ पा रहे थे।

घर आकर उन्होंने अपनी औरतों से कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। उस दिन के बाद वहाँ औरतों का जमघट लगना बंद हो गया। अलबत्ता बच्चे इस घर में कभी खेलने, कभी कहानियाँ सुनने और टाफियाँ खाने आते रहे।

**

2

अंकल को विश नहीं करोगे

प्रकाश मनु

*

यह कहानी शुरू करने से पहले एक निवेदन कर दूँ। डॉक्टर की जो भी कल्पना आपके जेहन में है, पहले उसे अच्छी तरह झाड़ दें। और जो इस कहानी का खासमखास डॉक्टर है, यथासंभव उसी के आसपास रहें—यानी अपनी दिलचस्पी उसी तक महदूद रखें। क्योंकि इसके अलावा शायद ही दुनिया का कोई और डॉक्टर यहाँ चल सके, कम से कम मैंने तो देखा नहीं अपनी लंबी जिंदगी के ऊबडख़ाबड़ ग्राफ में।

यों जैसा कि आप आगे चलकर देखेंगे, किसी ऊबडख़ाबड़ ग्राफ से भी ज्यादा ऊबडख़ाबड़ है उस डॉक्टर का कैरेक्टर!...मगर वो डॉक्टर है ही कहाँ? वह तो...खैर छोड़िए। कहानी पढ़ रहे हैं तो खुद ही जान जाएँगे। मैं क्यों इस झमेले में पड़ूँ?

देखने में तो वह साधारण-सा ही है—पिद्दी सा। हालाँकि नाक-नक्श बुरे नहीं। बातचीत में और भी धीमा, कमजोर। उसकी बेसिर-पैर की बातचीत में मजा लेना मुश्किल है और बहुत देर में पता चल पाता है कि वह असल में कहना क्या चाहता है। हालाँकि एक बात अच्छी है उसमें जो शुरू-शुरू में थोड़ी अटपटी भी लग सकती है—नोट्स लेने की आदत! आप यों समझ सकते हैं कि अपनी इस आदत का वह करीब-करीब गुलाम है। उसकी जेब में कुछ और हो न हो, एक डायरी और पेन हर वक्त मिलेगा। बातचीत में जो भी सूचना या मिसरा उसे अच्छा लगता है, वह तुरंत उसकी डायरी में दर्ज हो जाता है। और उसकी पसंद कुछ बुरी नहीं, यह आप उसके निकट हों तो जान जाएँगे। आखिरी सूचना यह कि कभी-कभी आप उसे रजनीश मार्का आदर्शवादी प्रवचन घोकते देखें, तो उसकी आँखों में उभर आई अजीब-सी चमक से डरें नहीं। यह क्षण भर के लिए कौंधती है, फिर किसी उदास दरिया में बिला जाती हैं।

शुरू में पत्नी ने बताया कि डॉक्टर मिलना चाहता है तो थोड़ी हैरानी, थोड़ी असुविधा महसूस हुई थी। क्यों मिलना चाहता है मुझसे? आखिर क्या कॉमन फैक्टर हो सकता है मुझमें और उसमें? उसकी तमाम चारित्रिक विशेषताएँ जो ऊपर लिख आया हूँ, तब तक मालूम नहीं थीं। मैं डॉक्टर को सिर्फ डॉक्टर समझता था—यानी पैसा ऐंठने वाली क्रूर और हिंस्र मशीन। फायदे-नफे की दुनिया की बातें वैसे भी मुझसे सध नहीं पातीं और मैं चिढ़ जाता हूँ। लिहाजा मैं किसी डॉक्टर-वाक्टर से मिलने को उत्सुक नहीं था।

लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी। शायद पत्नी ने बता दिया था कि मैं लेखक हूँ और बच्चों की पत्रिका में काम करता हूँ। तभी उसने मिलने की इच्छा प्रकट की थी, “भाईसाहब से कहिएगा, कभी आएँ तो मिलें। या फिर मैं ही चला आऊँगा कभी आपके घर। एक कप चाय तो पिलाएँगे न!”

कुछ भी हो, बात चौंकाने वाली तो थी ही। आज के जमाने में किसी लेखक या बच्चों की पत्रिका में काम करने वाले पत्रकार से भला कौन मिलना चाहता है! और फिर डॉक्टर क्यों? डॉक्टरों के बारे में मेरा अपना अनुभव यह है कि उनमें से आधे से ज्यादा तो खुद बीमार होते हैं। चिड़चिड़े, घमंडी और एक किस्म के तानाशाह! इस हद तक हृदयहीन कि वे दूसरों का दर्द महसूस ही नहीं कर सकते। यानी उनमें से आधों को तो आप एकबारगी खारिज कर सकते हैं कि वे आदमी ही नहीं हैं। और दिलचस्प बात यह है कि फिर भी वे दूसरों का इलाज करने का दम भरते हैं। खैर...

पत्नी रोज सुबह बेटी को स्कूल बस के स्टैंड तक छोड़ने जाती थी। बस डॉक्टर की दुकान के पास ही रुकती थी। लिहाजा वहीं डॉक्टर से मुलाकात हो जाती होगी। ऐसी मैंने कल्पना कर ली थी।

अगले दिन सुबह मैंने ऋचा के साथ चलने का इरादा बनाया। झूठ क्यों कहूँ, डॉक्टर से मिलने की उत्सुकता भी थी। देखा, बच्चे डॉक्टर की दुकान के पास ही घेरा बनाए खड़े हैं। कुछ वहाँ पड़ी कुर्सियों और बेंचों पर जम चुके हैं। उनकी मम्मियाँ पास ही गंभीर स्टेचू की तरह मुँह लटकाए खड़ी थीं। इस कदर गंभीर कि उन्हें देखकर सिर्फ हँसी आ सकती थी।

मेरी बेटी ऋचा भी दौड़ती हुई गई और खाली पड़ी बेंच के एक कोने पर बस्ता पटककर खड़ी हो गई। शायद वह डॉक्टर से कुछ ज्यादा हिलमिल गई थी, इसलिए काफी कुछ अधिकार जैसा भाव उसमें आ गया था।

डॉक्टर कुर्सी के सहारे एक ओर खड़ा अखबार पढ़ रहा था। मैंने उचटती निगाहों से उसकी ओर देखा, फिर सड़क पर नजर दौड़ा दी। बस आज लेट थी, इसलिए बच्चों की मम्मियाँ ‘तार सप्तक’ में भुनभुना रही थीं।

कुछ देर बाद डॉक्टर का ध्यान टूटा। अखबार परे सरकाकर इधर-उधर देखने लगा। उसकी आँखों में विचित्र चौकन्नापन था। ऐसा चौकन्नापन जो बड़ी तेजी से संवाद के लिए किसी को खोजता है। उसके माथे पर उलझी हुई रेखाओं का पूरा एक जाल था।

मैं कुछ कहना ही चाहता था कि तब तक ऋचा के पास मुझे खड़ा देख, डॉक्टर मुसकरा दिया। पास आकर बोला, “तो आप हैं न, ऋचा के पापा...?”

“हाँ।” और क्या कहूँ, मेरी समझ में नहीं आया।

“इनकी मम्मी बता रही थीं, प्रभात टाइम्स में हैं न आप? भई, अखबार वाले ही हैं आज वक्त में जिन पर सारी उम्मीदें टिकी हैं मुल्क की। अच्छा, कैसे खबरें बनाते हैं आप? कभी समझाइएगा मुझे।”

वह शायद अब तक भूल गया था कि मैं बच्चों के लिए कहानियाँ लिखता हूँ। समाचार बनाना मेरा काम नहीं है। पर मैंने मुसकराकर टाल देना उचित समझा। डॉक्टर उसी रौ में बोले जा रहा था, “मैं तो रोज नियम से अखबार देखता हूँ साहब, लेकिन सच कहता हूँ, देखने की इच्छा नहीं होती। रोज कत्ल, हत्याएँ, बलात्कार...और अब तो आत्मदाह। अजीब सिलसिला चल निकला है साहब, जैसे किसी जिंदा आदमी का जलना कोई बात ही नहीं, कोई घटना...! ये नेता जो हैं न, ये बदमाश हैं साले। मैं आपसे ठीक कहता हूँ, ये लोगों को मरवा देंगे, देखना आप! फिर आजकल के लड़के भी तौबा-तौबा। ये वैसे लड़के नहीं है, जैसे हमारे-आपके जमाने में हुआ करते थे या जैसे हम हुआ करते थे। हालात भी आप देखते हैं साहब, दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे हैं। एक तो अनएंप्लायमेंट है इतना, फिर फ्रस्ट्रेशन...! इन्हीं सारी चीजों ने तो अ...वो...वो क्या कहते हैं, दुस्साहसी बना दिया है लड़कों को। वर्ना कोई हिम्मत कर सकता है खुद आग में जलने की। कोई खेल तो नहीं है आत्मदाह! कोई न कोई तो बड़ा कारण है इसके पीछे—क्यों साहब?”

डॉक्टर ने अचानक यह सवाल उछाल दिया था मेरी तरफ! मैं खुद इसी मसले को लेकर बहुत उत्तेजित था। लेकिन कोई दूसरा उत्तेजित हो, तो मेरी आदत है शांत हो जाना। खुद पर काबू पाते हुए धीरे से कहा, “मंडल कमीशन मेरे ख्याल से बुरा नहीं था। लेकिन वह जिस चिढ़ाने वाले अंदाज में पेश किया गया—राजनीतिक अस्त्र के रूप में, वह गलत था। कोई हथियार आप चलाते हैं और उलटकर वह आपकी ही गरदन काटने लगता है, तो हाय-तौबा क्यों?”

“तो आप मंडल समर्थक हैं या...?” डॉक्टर थोड़ा अचकचा गया।

“देखिए, इसका कोई बना-बनाया जवाब तो है नहीं मेरे पास। इतना जरूर लगता है कि इसे थोड़ा और बैलेंस्ड किया जा सकता था। और लागू करने से पहले इसके सभी पहलुओं पर डिबेट होती, तो शायद ऐसे हालत न बनते।”

*

कुछ देर बाद शायद उसे खुद-ब-खुद ख्याल आ गया कि मैं बच्चों की पत्रिका में काम करता हूँ। शरमाकर उसने बताया कि दस-बारह बरस पहले तक वह भी बच्चों की यह पत्रिका नियमित रूप से पढ़ता रहा है और अब भी मिल जाए तो देख लेता है। फिर बोला, “बच्चों के लिए जो आप कर रहे हैं, वह बड़ा पुण्य का काम है। बच्चों को बनाना, उन्हें नए-नए ख्यालात देना बहुत जरूरी है, वरना...”

“वरना...क्या...? जिस जगह वह रुक गया था, वहाँ मेरे मुँह से अपने आप मुड़े-तुड़े से ये शब्द निकले।”

“वरना...देश वैसे ही हो जाएगा जैसी मेरी हालत है। आप देख रहे हैं न मुझे! मैं कहीं से लगता हूँ कि डॉक्टर हूँ? मैं तो एक सहज आदमी तक नहीं हूँ, सच्ची!”

मैंने देखा, उसकी आँखें मेरे देखते ही देखते सूखे कुएँ में बदल गई थीं, जिसमें जंगली घास और झाडिय़ों की झुरमुराती गंध थी और तड़कता हुआ बीहड़ अंधकार!

मैं चौंक गया।

कुछ और गौर से देखना, समझना चाहता था उसे। लेकिन तब तक सब फैला हुआ तिलिस्म समेट लिया था उसने। यानी कि पट-परिवर्तन! यह आदमी एक कुशल अभिनेता भी है—ऐसा मुझे लगा।

फिर वह एकाएक सब भूल-भालकर स्कूल बस का इंतजार कर रहे बच्चों से बोलने-बतियाने लगा। बल्कि बच्चों में जरूरत से ज्यादा रुचि लेने लगा। यह भी शायद कुछ छिपाने की प्रक्रिया का ही कोई हिस्सा हो—मैंने सोचा।

वह जोकर जैसा मुँह बनाकर हँस-हँसकर सब बच्चों से जबरदस्ती बात करने की कोशिश कर रहा था, “किस क्लास में पढ़ते हो बेटा? नाम क्या है तुमाला? अले, अंकल को विश नहीं कलोगे? अंकल प्रजेंट देंगे तुम्हारे बर्थ डे पर! अच्छा...डेट आफ बर्थ क्या है तुमाला? लिखवा दो मुझे...जल्दी!” और उसने सचमुच अपनी डायरी निकाल ली थी। पेन खोलकर लिखना शुरू कर दिया था।

हालाँकि बच्चों से ज्यादा तो बच्चों की मम्मियों में हलचल मची थी, जिसे वे चालाक कनखियों में छिपाने में लगी थीं। अभी तक स्टेचू बनी मम्मियाँ अब हरकत में आ गई थीं और चंचल आँखों से ध्वनि-तरंगें एक-दूसरे की ओर सरकाने लगी थीं। वे ध्वनि तरंगें थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक सवाल में बदल रही थीं कि ऐसा आदमी क्या ठीक-ठाक लगता है? ठीक-ठाक माने मानसिक रूप से...खि खि खि!

अब वह मेरी बेटी से मुखातिब था, “अच्छा बेटे, नाम बताओ? विश नहीं किया अंकल को!...शाब्बाश! मनु जी की बेटी हो न। मैं समझ गया था, समझ गया... अच्छा, डेट आफ बर्थ बताओ बेटे! मैं तुम्हारे बर्थ डे पर ग्रीटिंग कार्ड भेजूँगा। क्यों, ठीक है न?”

लेकिन जब तक डॉक्टर नोटबुक को आगे सरकाए, ऋचा शिकायत दर्ज करने वाली मुद्रा में आ गई, “पर अंकल, आप पहले भी पूछ चुके हैं।”

और डॉक्टर का पेन ठिठका-सा रह गया।

“ऐं! अच्छा, लेकिन लिखा नहीं होगा मैंने, खाली सुन लिया होगा। तो वह भूल गया। मैमोरी जरा वीक है न मेरी, इसलिए तो डायरी पास रखता हूँ।” डॉक्टर के चेहरे पर हलकी झेंप है।

“नहीं अंकल, लिखा भी था। दो बार लिखा था, मम्मी के सामने।” ऋचा भी हार नहीं मानना चाहती थी।

“तब तो जरूर रजिस्टर में दर्ज हो गया होगा। मैं रोज रात को डायरी का मैटर रजिस्टर में उतारकर ही सोता हूँ।”

डॉक्टर ने फिर चौंका दिया है मुझे। भला, इसे क्या जरूरत है यह सब गोरखधंधा करने की? पहले डायरी में नोट करेगा, फिर रजिस्टर... अजीब आदमी है!

इतने में बस आ गई, तो बच्चे उधर लपके। बच्चों की मम्मियाँ ड्राइवर पर भुनभुनाईं। खूब हंगामा-सा मचा।

बस के जाने के बाद डॉक्टर ने कहा, “आइए, आपको दुकान दिखा दूँ।”

अब के मैंने गौर किया—बाहर से वह डिपार्टमेंटल स्टोर था जहाँ रोजमर्रा के इस्तेमाल की सारी चीजें मिल जाती थीं, बिंदी-कंघी से लेकर गारमेंट्स तक। बच्चों के स्कूल बैग, बॉटल, पैन-पेंसिल, कापियाँ भी मिल जाती थीं। छोटी-मोटी डायरियाँ और ग्रीटिंग काड्र्स भी। और अभी हाल में दाल-चावल-चीनी, पनीर और सूखे मेवे भी मिलने शुरू हो गए थे। डॉक्टर बता रहा था, “दो काउंटर हैं। उन पर दोनों बेटे बैठते हैं...और मिसेज आ जाती हैं दोपहर में। मेरा तो कभी-कभार का चक्कर लगता रहता है, जब इनमें से कोई न हो या फिर किसी फालतू आदमी की जरूरत हो।”

मैं ‘फालतू’ शब्द की अर्थ-व्यंजना पर विचार कर ही रहा था कि डॉक्टर मुझे उस दुकान के भीतर एक छोटे से केबिन में ले गया, जिसमें मुश्किल से दो-तीन लोगों के बैठने की जगह थी। धूल में सनी मेज पर स्टेथोस्कोप, दवा की शीशियाँ और कुछ सिरिंज बिखरी पड़ी थीं। कुछ दवा की शीशियाँ साथ वाली अलमारी में—बेतरतीब।

डॉक्टर अब भी उसी तरह अपनी आदत के मुताबिक बोलता जा रहा था। लेकिन मुझे जाने क्या हुआ कि कुछ सुनाई पड़ता था, कुछ नहीं। मैं जाने क्या-कुछ सोचने लग गया था।

तभी पता चला कि डॉक्टर पंजाब सरकार की अच्छी-खासी लगी-लगाई नौकरी छोड़कर चला आया, जरा सी बात पर। अफसर से मामूली झगड़ा हो गया था। डॉक्टर ने कहा, “तू क्या समझता है? तू मेरा मुकद्दर तो नहीं बदल सकता।” यह भी पता चला, यहाँ फ. नगर में उसके भाई हैं। सबकी अपनी अपनी फैक्टरियाँ हैं। खूब अच्छे खाते-पीते हैं, पर डॉक्टर पंजाब से उजड़कर आया तो किसी से कुछ नहीं लिया और अपने बलबूते पर यह दुकान खोल ली। अब तक किसी से हार नहीं मानी थी, लेकिन अब...

तब तक डॉक्टर का शायद बड़ा वाला बेटा भी दुकान में चला आया था। एक लंबा, स्वस्थ युवक, जिसके चेहरे से भरा-भरा आत्मविश्वास फूट रहा था। डॉक्टर ने परिचय कराया, “ये लेखक-पत्रकार हैं बेटा। इनके साथ खास रियायत करनी है, जितनी भी हो सके।”

“जी अच्छा!” लड़के ने ओढ़ी हुई विनम्रता से कहा, जो दूसरों की उपस्थिति में मजबूरी की तरह ढोई जाती है।

“अच्छा, मैं चल रहा हूँ। कोई मरीज आ जाए तो घर भेज देना...या मुझे बुला लेना।” डॉक्टर ने चलते-चलते कहा, तो लड़के के चेहरे पर अजीब-सी मुसकान उभर आई। बड़ी ही काँइयाँ मुसकान सामने वाले को उसकी तुच्छता का अहसास करा देने वाली।

*

घर आकर मैंने पत्नी से कहा, “डॉक्टर तो एकदम सीधा है...”

“और विचित्र भी?”

“नहीं, उस रूप में नहीं, पर मेरा मतलब है...एक अलग कैरेक्टर तो है। दूसरों से इस कदर अलग कि...”

“सिर्फ अलग, एब्नार्मल नहीं?” लगता है, पत्नी ने भी उस पर विचार किया था। अपने नतीजों से मेरे नतीजे का मिलान करना चाहती थी।

“नहीं, एब्नार्मल नहीं।” कुछ सोचते हुए मैंने कहा, “लेकिन प्रैक्टिस चलती होगी क्या? मुझे तो संदेह है। धूल, इस कदर धूल जमी पड़ी थी सब चीजों पर। चलते-चलते लड़के को कहकर गया कि कोई मरीज आए तो घर भेज देना।”

“बेचारा!” पत्नी के मुँह से यह शब्द इस कदर अनायास निकला कि मैं तड़पकर रह गया, “क्यों...बेचारा क्यों?”

“मरीज तो कभी कोई नजर नहीं आया, लेकिन इसका इंतजार जैसे चलता है। उस दिन सुषमा के साथ मैं कुछ सामान लेने गई थी, तो हमारे सामने भी यही बोलकर गया। सुषमा कह रही थी, दीदी, कोई पेशेंट तो दिखाई पड़ता नहीं, जबकि कहकर हमेशा यही जाता है कि...”

“अजीब बात है। तो फिर यह कहता क्यों है?”

“बस, इंतजार...! या फिर अतीत में जीने की आदत। अपने डॉक्टर होने का अहसास छूटता नहीं, इसीलिए पेशेंट जरूरी है। यह चीज लगता है, उसके वजूद से जुड़ी है...”

पता नहीं, क्या हुआ कि लगा, आँखें खुश्क होती जा रही हैं। अजीब सी चिनचिनाहट। “ऋचा के बर्थ डे पर कोर्ड भेजने के लिए कह रहा था। अब पता नहीं, यों ही कह रहा था या भेजता भी है?” मैंने बात बदलने के लिए कहा।

“दो बार मुझसे भी पूछ चुका है। मेरे ख्याल से भेजता ही होगा। दुकान तो अच्छी-खासी चल रही है। कोई कमी तो है नहीं।” फिर जैसे बात खत्म करने का बहाना तलाश रही हो, पत्नी रसोई के काम में जुट गई।

थोड़ी देर बाद—कुछ याद आया, तो बरतन साफ करते-करते बीच में यह बताने के लिए चली आई, “लेकिन लड़के बड़ा अपमान करते हैं बाप का। और माँ की पूरी शह रहती है। खुद रोज लिपस्टिक-पाउडर थोपकर बैठी रहती है दुकान पर। पति की कोई परवाह ही नहीं। मुझे लगता है, सब मिलकर उपेक्षा करते हैं जान-बूझकर...!”

“पर क्यों, मिसेज सोनी क्यों?”

“इसलिए कि आज उसे पति की तुलना में बेटे ज्यादा सबल नजर आने लगे हैं, ज्यादा बड़ा सहारा। पति अव्यावहारिक है, किसी काम का नहीं।” कुछ देर बाद, जैसे खुद-ब-खुद फैसला ले रही हो, वह बोली, “लेकिन पछताएगी यह औरत एक दिन, देख लेना। लड़के इसकी भी कोई कम दुर्गति नहीं करेंगे। आएगा वो वक्त भी जल्दी ही, बस, इसे नजर नहीं आ रहा।”

इसके दो-चार दिन बाद सुबह-सुबह छोटी बेटी के लिए बैग लेने गया तो डॉक्टर को तन्मयता से झाड़ू लगाते पाया। मुझे देखकर उसने झेंप मिटाने के लिए बोलना शुरू कर दिया, “आइए मनु जी, आइए। सुबह-सुबह कैसे? भई सुबह-सुबह झाड़ू-बुहारी की ड्यूटी हमारी रहती है। आजकल के लड़के आठ-नौ बजे से पहले कहाँ उठते हैं? मिसेज को भी घर के कामकाज निपटाने होते हैं। एक मैं खाली होता हूँ तो चला आता हूँ।” फिर जाने क्या तरंग आई कि बात को किसी और दिशा में उछाल दिया, “मैं तो जी फ्री स्टाइल आदमी हूँ। जीवन अपनी मर्जी से जिया और लड़के जो भी करें, अपनी मर्जी से, मैं नहीं टोकता।”

फिर कुछ देर बाद सोचते हुए कहा, “आप लड़कों के लिए लिखते हैं। उन्हें सिखाते हैं, यह तो बहुत अच्छा है। लड़के सँभल जाएँ, तो सब ठीक...कहीं कोई मुश्किल ही नहीं।”

मैंने गौर किया, पिछली दफा भी यही कहा था डॉक्टर ने, पर इस दफा कुछ अलग अर्थ खुलने लगे थे इन्हीं शब्दों के।

कुछ देर बाद डॉक्टर ने जैसे खुद को ही सुनाना चालू कर दिया, “जमाना बदल गया है, साहब। अब वो दिन कहाँ रहे साहब, न वो बात। हमारे वक्त में बाप का डर होता था पूरे घर में। कोई आँख तो मिला ले। बाप आता था तो हम छिप जाते थे, सामने नहीं आते थे। माँएँ डराया करती थीं बच्चों को कि तेरे बापू आएँगे तो ये कहूँगी, वो कहूँगी।...और आजकल? बाप की अपनी इज्जत बची रहे तो बड़ी बात है।”

कहते-कहते डॉक्टर चुप हो गया। पर साफ लग रहा था, वह रुका है, उसका आवेश चुका नहीं। चेहरा आरक्त।

मुझे याद आया, छुटकी के लिए स्कूल बैग लेना है। लग रहा था, खरीदूँ और जाऊँ, पर उसकी अधूरी बात यों छोड़कर...

डॉक्टर ने अब तक झाड़ू लगाकर बुहारी एक ओर रख दी थी। मुझे उत्सुक नजरों से देखता पाकर बोला, “अब लड़के आजकल के अपनी लिमिटेशंस तो देखते नहीं, एंबीशंस बहुत हैं। बड़ा वाला कहता है—कार ले दो। अब पी.एफ. का पैसा तो मैं कार में लगाने से रहा। मैंने कह दिया कि ‘काम फैलाओ। बचत करो। कार लायक पैसे हो जाएँ, तो जरूर खरीदो। मगर यह भी देख लेना, पेट्रोल का खर्चा भी निकलता है कि नहीं?’...क्यों साहब, लड़कों को स्वतंत्रता चाहिए तो अपने बाप की स्वतंत्रता पर हमला करके ही वे इसे हासिल करेंगे?”

“शायद दिल्ली से सामान लाने में दिक्कत होती हो।” उसे शांत करने की गरज से मैंने कहा।

“हाँ, सो तो है। लेकिन और कनवेंस भी हैं ही, और लोग करते ही हैं। लड़कों का तो यह काम करने का वक्त है, स्ट्रगल से कैसा घबराना? हमने भी किया है साहब। सुविधा से जीने की बात अभी नहीं सोचनी चाहिए। हालाँकि मेरे सोचने से क्या होता है?” फिर एक पराजित मुसकान।

“लड़के ही लाते हैं सामान? आप नहीं।” मैंने यों ही पूछ लिया।

“हाँ जी, मैं तो अनफिट हूँ।” डॉक्टर का चेहरा विद्रूप हो गया, “सामान लेने जाऊँ तो कहा जाता है, मैं गलत चीज ले आया, गलत दामों में ले आया। बेचने बैठूँ तो कहा जाता है, मैंने सस्ते में सब लुटा दिया। अब झिकझिकबाजी तो मुझे अच्छी लगती नहीं मनु साहब। मेरा तो ये उसूल है कि हर चीज में टेन परसेंट मुनाफा आप ले लो—ज्यादा नहीं। लेकिन हर पीढ़ी का अपना कायदा होता है। हमारा कुछ और था, इनका कुछ और...!”

मुझे लगा, इस तरह तो काफी देर हो जाएगी। मैंने उसे याद दिलाया कि मैं छोटी बेटी के लिए स्कूल बैग लेने आया हूँ। तब तक लड़का भी आ गया था। डॉक्टर ने लड़के से कहा, “बेटे, अंकल को दिखा कोई अच्छा-सा बैग।”

लेकिन लड़के के व्यवहार में उपेक्षा बड़ी साफ थी। वह बड़ी देर तक सामान इधर से उधर रखता रहा। फिर मुझ पर नजर पड़ती तो बोला, “अंकल, आप खुद ही निकाल लीजिए न, जो ठीक लग रहा है।”

साफ लग रहा था कि पिता की उपेक्षा का एक हिस्सा उसने पिता के मित्र के खाते में भी दर्ज कर दिया है। बगैर बैग लिए मैं घर लौट आया।

इस बार डॉक्टर कुछ हिला हुआ सा लगा। मैं रास्ते भर उसी के बारे में सोचता रहा। पता नहीं, कुछ ही दिनों में उसके साथ मेरा यह कैसा रिश्ता बन गया था कि उसका दर्द मुझे विकल कर रहा था। मैं साफ तौर से अशांत था, बेचैन। और इसका कारण उसकी बेचैनी थी। उसके साँवले चेहरे पर रेखाओं का जाल कुछ और कस गया था। हँसी उदास कि जैसे कोई हँसते-हँसते हक्का-बक्का छूट गया हो और आगे की यति-गति भूल गया हो।

डॉक्टर का चित्र मेरे जेहन में बार-बार एक ही तरह से बन रहा था, जैसे धीरे-धीरे कालिख में गुम होता हुआ कोई तारा।

*

इसके बहुत दिनों तक डॉक्टर से भेंट नहीं हुई।

पत्नी से दो-एक दफा पूछा, तो पता चला कि अब वह दुकान पर कम ही आता है। मिसेज सोनी और बच्चे ही ज्यादा बैठते हैं। फिर जैसे कुछ याद आया हो, बोली, “चार-छै रोज पहले शाम को एक दिन देखा था, बड़ा ही बदहवास सा। लड़कों से कुछ कहा-सुनी हो रही थी और मिसेज सोनी दूर बैठे-बैठे देख रही थी।”

“मिसेज सोनी का मन नहीं पसीजता पति की हालत देखकर? क्यों मार रहे हैं एक अच्छे-भले आदमी को ये लोग?”

“पैसा-पैसा...पैसा, एक अंधी दौड़! और क्या? मुझे तो लगता है, मिसेज सोनी की पूरी-पूरी शह है। वरना लड़के, मजाल है जो...” पत्नी ने गुस्से से तिलमिलाते हुए कहा।

इसके कुछ रोज बाद डॉक्टर से मेरी भेंट हुई, तो मैं चौंक गया। उसके चेहरे की आड़ी-तिरछी रेखाएँ जैसे युद्ध-मुद्रा में आ चुकी थी। वह बहुत उत्तेजित था। अपने आसपास से बहस करने, कुछ कर डालने के लिए उद्धत। कुछ-कुछ उस कैदी की तरह, जिसके पैरों में बेडिय़ाँ हों और हाथ हवा में फड़फड़ा रहे हों।

“यह देश, यह कंट्री कैसे चलेगा...बताइए, आप जरा? जब लोगों की नैतिकता का यह हाल है। ये जो नेता हैं, चोर हैं ससुरे! ये मरवा देंगे सबको, मैं आपसे ठीक कहता हूँ। यह देखिए, एक ओर सरकार ने योजना बनाई है कि जो डॉक्टर अपना नर्सिंग होम खोलना चाहे, उसे दस लाख तक का अनुदान मिल सकता है। दूसरी ओर ये नेता! मैं आपको बताऊँ मनु जी, मंत्री तक सीधे-सीधे रिश्वत माँग रहे हैं—कैन यू इमेजिन?”

उसके हाथ में अखबार फड़फड़ा रहा था। जैसे अखबार नहीं, कोई परमाणु अस्त्र हो। वह अखबार सिर्फ पढ़ता ही नहीं था, जड़ और ठस होते समाज में एक नैतिक अस्त्र के रूप में मानो उसे फहरा रहा था।

मैं खामोशी से देखता रहा, देखता रहा—जैसे धुंध साफ हो रही हो। अब मुझे समझ में आ गया उसके उद्वेग का रहस्य। उसके भीतर का ‘डॉक्टर’ जोर मार रहा था। पत्नी और लड़कों का महज सेवक होने की बजाय वह कुछ होना चाहता था। कुछ जो कि उसके वजूद से जुड़ा हो। और उसे एक फालतू आदमी न समझा जाए। लेकिन...

लेकिन उसका आत्मविश्वास छीज चुका था—एक बहुत ही कमजोर आदमी, जिसकी ताकत निचोड़ ली गई हो।

थोड़ी देर बाद वह शांत हुआ तो उसके चेहरे पर मुझे हलका भय उतरता दिखाई दिया।

“मैं अभी आता हूँ।” कहकर हड़बड़ाता हुआ वह चल दिया। सड़क के दूसरी ओर के एक मकान की तरफ। लस्टम-पस्टम चाल।

मैं समझ गया, अखबार किसी और का था। वही लौटाने गया है। नहीं तो उस आदमी के बिगड़ने का डर होगा।

अखबार से न मिसेज सोनी का कोई लेना-देना था, न लड़कों का। जब पढ़ते ही नहीं, तो भला क्यों पैसे खरचें—उस आदमी के लिए जो कुछ कमाता नहीं, जिसकी ‘सेल वेल्यू’ कुछ भी नहीं। वह इस्तेमाल होते-होते इतना घिस चुका है कि अब वह सिर्फ है। वह किताबी भाषा में, कानूनी भाषा में पति है, पिता है। लेकिन जिनका पति है, पिता है, उनके दुनियावी शब्दकोश में तो उसके लिए एक ही टीप लिखी है—‘एक फालतू बोझ’।

मुझे मिसेज सोनी पर गुस्सा आने लगा। वह चाहती तो इस आदमी की यह हालत न होती। पत्नी सम्मान न करे तो लड़कों के दिमाग तो बिगड़ ही जाएँगे।

मैं डॉक्टर की मानसिक स्थिति के बारे में सोचने लगा था। उसमें विक्षेप तो कहीं था नहीं, लेकिन उत्तेजना के कारण थोड़ी-सी असामान्यता जरूर आ गई थी। थोड़ा-सा प्यार, थोड़ा-सा आदर इस आदमी को चाहिए जो शायद दवाओं से भी ज्यादा असर करेगा—मैंने सोचा।

इतने में ही स्कूल बस आ गई और ऋचा भी धक्कामुक्की करती हुई बस में घुसी। अब वह हाथ हिला रही थी। कुछ देर के लिए मैं अपने बचपन में लौट गया, जब चीजों को बदलने की जिद अजीब-सा आवेश भर देती थी और मैं बैठा-बैठा सोचता रहता कि...

*

मैं लौटने ही वाला था। इतने में सामने नजर गई। सड़क के दूसरी ओर डॉक्टर झुका हुआ कुछ कर रहा था। मैंने गौर से देखा, वह बड़ी तन्मयता से कुछ बटोरता हुआ, रूमाल में रखता जा रहा था।

और उसका चेहरा स्याह था। किसी चिथड़ा बादल के टुकड़े की तरह। यह क्या? यह कंकड़ क्यों बीनने लगा? तो क्या यह पागल हो गया? सचमुच!

मेरे भीतर तो चक्की चल पड़ी, दगड़...दगड़...दगड़...दगड़...और फिर कहीं से आकर एक हथौड़ा-सा बजा—द न् न् न् न् न्...न!

इतने में डॉक्टर पास आया, तो मैं तेजी से सोचने लगा, इससे किस तरह बात की जाए? यानी कितना डिस्टेंस रखकर।

मगर डॉक्टर तो डॉक्टर था। एकदम पास सरक आया। आँखों में सतर्क चौकन्नापन।

“साहब, ये देखिए, ये...देख रहे हैं न आप? ये क्या चीजें हैं भला...?” कहकर उसने झट से रूमाल खोला।

जैसे कोई जादू का खेल हो रहा हो।

मैंने देखा, पंद्रह-बीस कीलें थीं, छोटी-बड़ी।

कीलें!...यकीन मानें आप।

मैं चकित होकर उसका मुँह देखने लगा। तो क्या यह शख्स सड़क पर झुका हुआ कीलें ही इकट्ठी कर रहा था। मगर क्यों?

“रोज यहाँ इतनी गाडिय़ाँ बस्र्ट होती हैं...साइकिल-स्कूटर पंक्चर हो जाते हैं। क्यों? कभी सोचा है आपने?” मेरे सवाल की ठीक बगल में उसका यह सवाल आकर बैठ गया था। अब उसकी उत्तेजना को फिर बात करने के लिए रास्ता मिल गया है, “ये बताइए साहब, कि सफाई का महत्व हम लोग कब समझ पाएँगे। क्या हम लोग अपना काम करते हैं पूरी ईमानदारी से? चलिए, सफाई कर्मचारी तो नाम मात्र के हैं, मेहतर नहीं आता समय से—तो क्या हम कुछ नहीं कर सकते? अगर हर कोई अपने घर के आगे का हिस्सा साफ रखे तो गंदगी कहाँ रह जाएगी? मगर हम तो ऐसे मनहूस हैं कि हमारा घर चमकता रहे, बाहर चाहे कूड़े के ढेर विराजमान रहें।...अच्छा बताइए, यह साइकिल, स्कूटर जो यहाँ अभी-अभी खामख्वाह पंक्चर हो गया होता, यह तो किसी का भी हो सकता है न साहब? यह मेरा सोचना है। वैसे आप देखें। आप अखबार वाले तो हमेशा मौलिक आइडियाज ही लाते हैं।”

मैं मुसकरा भर दिया—कहा कुछ नहीं, तो उसे लगा जैसे किसी ने थाप लगा दी हो। वह एक दूसरे बिंदु पर फिसल गया, “अच्छा, एक बात बताइए, यह जो सेल्फ डिसिप्लिन है जिसे क्या कहते हैं हिंदी वाले? आत्मानुशासन—ठीक है न! तो वह आत्मानुशासन कहाँ है हमारे देश में? हर कोई दूसरे का फायदा उठा रहा है। हर कोई दूसरे का इस्तेमाल कर रहा है, और यह सिर्फ बाहर नहीं, अब तो घर में भी होने लगा है। तो क्या ये मौरेल वेल्यूज हैं हमारे मुल्क की जिनका दुनिया भर में डंका पिटता है? मुझे तो लगता है, सिरे से ही गड़बड़ है। चीजें क्यों नहीं सुलझतीं, समस्याएँ क्यों बढ़ती जा रही हैं? क्योंकि कोई दूर नहीं करना चाहता, इच्छा ही नहीं है। कई बार लगता है, गुलाम देश में हम आजाद थे। आजादी ने हमें गुलाम बना दिया...!”

“पापा जी, अब बस भी करिए।” बड़े लड़के ने जो ऊबा हुआ देर से सुन रहा था, अचानक बीच में टोका, “एक बॉटल दे दीजिए इन साहब को। कितनी देर से तो खड़े हैं।” और उसने खुद को तत्क्षण किसी महिला को कार्डीगन दिखाने में व्यस्त कर लिया।

इस हिंस्र हमले में डॉक्टर अकबका गया। अब आजादी और गुलामी के बड़े-बड़े संदर्भों को छूने वाले डॉक्टर के चेहरे पर रिरियाहट थी। वह आजादी और गुलामी के कौन-कौन से भेद खोल गई, क्या उसे कभी शब्दों में कह पाऊँगा?

*

इसके बाद महीनों गुजर गए। हम लोग डॉक्टर की शक्ल देखने को तरस गए। उसकी बातें गहरी गूँज-अनगूँज बनाती हुई सिर पर चक्कर काटती सी लगती थीं और सवाल पूछती थीं, पर जवाब नदारद।

लेकिन चिंता तो थी ही।

“हमें पता तो करना चाहिए, चाहे जैसी भी स्थिति हो।” मैंने पत्नी से कहा।

उधर मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। पता नहीं, कैसी व्यूह-रचना हुई हो और उसमें उलझा-फँसा रह गया हो वह। मुझे महाभारत के अकेले अभिमन्यु और सात-सात महारथियों की कथा याद आ रही थी। और किसने कहा कि औरत महारथी नहीं हो सकती, कम से कम आज के जमाने में? और वह पत्नी भी हो, तो क्या?

पत्नी मेरे स्वर के गीले-गीलेपन को जैसे समझ गई। बोली, “कल मैं मिसेज सोनी से पता करके बताऊँगी।”

अगले दिन पत्नी ऋचा को छोड़कर आ रही थी कि तभी मिसेज सोनी से उसकी मुलाकात हुई। अब वही रोज सुबह-सुबह डॉक्टर की जगह दुकान पर आने लगी थी। लौटकर पत्नी ने बताया, “मैंने पूछा तो था मिसेज सोनी से, वह बोली कि तबीयत ठीक नहीं है उनकी। घर पर आराम कर रहे हैं, पर...मुझे तो यकीन नहीं होता।”

फिर एक बार शाम के समय हम लोग सपरिवार दुकान पर पहुँच गए, कुछ पेंसिलें खरीदने के बहाने। हालाँकि भीतर उथल-पुथल तो वही मची थी।

“डॉक्टर साब नहीं नजर आ रहे, क्या बात है?” मैंने यों ही हवा में सवाल उछाला।

लड़के चुप थे। और उनकी चुप्पी सायास ज्यादा लग रही थी। जवाब मिसेज सोनी ने ही दिया, अपने स्वर को यथासंभव सहज रखते हुए, “अब उनसे नहीं होता भाईसाहब, तो मैंने कहा कि आप आराम करिए, हम लोग हैं ही करने को। तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती उनकी।”

“तबीयत?...क्यों क्या हुआ?” मैंने बात पकड़ी।

“ऐसे ही, कुछ ढीले से रहते हैं।” कहकर मिसेज सोनी ने चतुराई से बात समेट ली।

हम लौट आए, लेकिन एक उधेड़बुन थी जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। मेरे सारे विषय जैसे खत्म हो गए। आफिस से घर आते ही पहला सवाल होता, कुछ पता चला डॉक्टर का? रात में उसी की बातें। सुबह दफ्तर जाने से पहले कमजोर सा अनुरोध, “जरा पता करना, अगर मालूम पड़ता हो किसी से तो...!”

अब पत्नी के नाराज होने की बारी थी, “इसीलिए तो कुछ बताती नहीं हूँ तुम्हें। इस कदर इनवाल्व हो जाते हो कि...”

लेकिन अंदर ही अंदर वह मेरी हालत समझ रही थी। बोली, “अच्छा, करूँगी कोशिश!” और उसने की भी। सोनी के पड़ोस में मिसेज मेहता रहती थीं। टीचर थीं, मॉडल स्कूल में। थोड़ा-बहुत परिचय था। उन्हीं से संपर्क साधा। मिसेज मेहता ने बताया, “मैं खुद सोच रही थी, कई दिन से। कुछ गड़बड़ है। डॉक्टर तो सारे-सारे दिन सोता रहता है। कोई आवाज तक नहीं...”

“पहले भी कभी ऐसा हुआ क्या?” मैंने पूछा।

“नहीं, पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ। हाँ, एक दिन मिसेज सोनी की आवाज आई थी। डाँट रही थी डाक्टर को कि ज्यादा बड़-बड़ की तो बेहोशी का इंजेक्शन लगवा देंगे। फिर पड़े रहना सारे दिन! तब से यही हाल है। डॉक्टर थोड़ी देर चीखता-चिल्लाता है, प्रतिरोध करता है—फिर इंजेक्शन के असर में सो जाता है।”

“लेकिन यह तो ठीक नहीं है। इससे उसकी जान के लिए खतरा हो सकता है। अजीब बात है, परिवार वाले हैं कि दुश्मन...?”

“वो तो इंतजार में हैं कि मरे तो खलासी हो।” मिसेज मेहता बोलीं।

“लेकिन...लेकिन उसका कसूर क्या है?” मैं बदहवास सा खुद से ही यह सवाल पूछ रहा था। और जवाब नदारद था, ठीक वैसे ही जैसे डॉक्टर के सवालों के जवाब अक्सर नदारद होते थे।

*

और यह ‘लेकिन’ बड़ा होता गया। इस कदर कि लगा, मैं खुद इसके घेरे में आ गया हूँ। क्या मैं एक भले आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकता, कुछ भी नहीं? एक आदमी—जिसे जान-बूझकर पागल बनाने पर जुट गए हैं उसके घर वाले, क्योंकि वह सोचता है, अपने ढंग से सोचता है। और उसके सोचने और जीने की अपनी शैली है। कैसा वक्त आ गया है? क्या केवल नपी-तुली मुस्कानों वाले मशीनी आदमी ही जाएँगे इक्कीसवीं सदी में और सारे जिंदा आदमी पागलखाने जाएँगे? वहाँ होगा इलाज उनका?

इन दिनों पत्नी भी बहुत भन्नाई हुई रहती थी। मिसेज सोनी की शक्ल तक से नफरत हो गई थी उसे, “कुतिया...! और किसे कहते हैं कुतिया! जो अपने पति तक के साथ धोखा कर सकती है। और मैं कहती थी न, मैंने खुद देखा है, अब लड़के अपनी माँ को डाँट देते हैं। बड़ा वाला परसों ही डाँट रहा था कि मम्मी, आपको समझ नहीं है कि चीजें कैसे रखनी चाहिए तो हाथ मत लगाया करो अलमारी को! यही होना था इसके साथ। और अभी तो शुरुआत है, देखना आगे-आगे...!”

पर चिंता तो डॉक्टर की थी। पत्नी ने मिसेज मेहता से बात की। मिसेज मेहता ने मिस्टर मेहता से। आखिर तय हुआ कि कुछ करते हैं।

एक दिन हम लोग सुबह-सुबह पहुँच गए तो मिसेज सोनी हक्की-बक्की। लड़के दुकान पर गए हुए थे।

“क्या हालचाल है डाक्साब का?” पूछते हुए हम लोग भीतर आ गए।

“यों ही जरा ढीले से रहते हैं।” कहकर मिसेज सोनी बात पलटतीं, तब तक हम भीतर वाले कमरे में पहुँच गए थे जहाँ डॉक्टर लेटा हुआ था। और ठीक-ठाक था। कम से कम न दवाइयों की गंध थी और न ऐसा वातावरण जो बीमार आदमी के आसपास होता था।

मिसेज सोनी को इस हमले की उम्मीद न थी। बदहवासी में उन्हें बात बदलनी पड़ी थी, “सच बात तो यह है कि भाईसाहब, इनका दिमाग चल गया है। घर वालों को तो तंग करते ही हैं। दूसरों को तंग न करें, इसलिए...”

“तो क्या बेहोशी के इंजेक्शन लगवा रहे हैं?” मिस्टर मेहता ने पूछ लिया।

मिसेज सोनी चुप। चेहरा तमतमाया हुआ।

“पर यह तो कोई इलाज न हुआ। आप डॉक्टर को दिखा सकती हैं, मानसिक चिकित्सा भी हो सकती है आजकल तो...” मैंने बात बढ़ाई।

“हो तो सब जाता है भाईसाहब, पर कौन कराए? लड़कों को तो आप जानते हैं, दुकान पर फुर्सत नहीं है!” मिसेज सोनी अब अपनी मजबूरियों का बखान करने लगी थी।

और मैं सोच रहा था, निर्लज्जता जब फटती है तो उसकी सड़ाँध झेल पाना कितना मुश्किल...

“ठीक है, कल मैं लिए जाऊँगा। जी.बी. पंत हॉस्पीटल में मेरे एक डॉक्टर परिचित हैं। वहाँ दिखा दूँगा।” मैंने गंभीरता का कवच पहन लिया।

अब मिसेज सोनी कुछ-कुछ लाचार नजर आ रही थीं।

डॉक्टर सो रहा था। उसे उठाना बेकार था। हम लोग चले आए।

*

अगले दिन डॉक्टर को मैं साथ ले गया। मेरे मित्र नीलमणि ठाकुर ने जो मानसिक चिकित्सक हैं, ठीक से देखा और कहा, “कुछ नहीं, थोड़ा नर्वस डिसआर्डर है। ज्यादा तनाव से हो जाता है। कोई चिंता की बात नहीं। दवाएँ लिख दी हैं, देते रहिए। जो मन में खाए, चलें-फिरें। ज्यादा स्ट्रेस न लें, बस।”

नीलमणि ठाकुर ने मुझे अलग बुलाकर एक बात और बताई जो उसने खोद-खोदकर डॉक्टर से पूछ ली थी। वह यह कि पी.एफ. का पैसा निकलवाने के लिए बडे़ लड़के ने डॉक्टर को छड़ों से पीटा था। छोटे लड़के और मिसेज सोनी ने हाथ-पैर कसकर पकड़ रखे थे। डॉक्टर उस वक्त इस कदर भौचक्का रह गया था कि चीख तक नहीं पाया। कई दिनों तक यों ही लानत-मलानत चलती रही और मिसेज सोनी का पत्थर चेहरा हर बार घुड़कता, “चुपचाप, वरना...!” लड़के अलग घूरते रहते। डॉक्टर को भयानक सदमा पहुँचा, जैसे अच्छे-बुरे, स्याह-सफेद सभी चित्रों के एक-दूसरे में गड्डमड्ड होने के बाद शायद होता हो। पर भीतर कहीं कोई चेतावनी दे रहा था, “खबरदार, डॉक्टर! पी.एफ. का पैसा नहीं देना। जो इस समय तेरे साथ जानवर की तरह पेश आ रहे हैं, वे बाद में तो...! तब तो तू भिखारी हो चुका होगा डॉक्टर। और भिखारी को कौन पूछता है, चाहे वह पिता हो, पति हो, कोई भी!”

अब मेरी समझ में कुछ-कुछ आ गया था, डॉक्टर की यह स्थिति कैसे बनी और आगे मेरी भूमिका क्या होगी।

मैंने डॉक्टर को घर छोड़ा। मिसेज सोनी से कहा, “यह बिलकुल ठीक-ठाक हैं। बस, मन बदलाव की जरूरत है। कल से मैं रोजाना सुबह-शाम आ जाया करूँगा।”

मेरे आखिरी शब्दों का धमकी जैसा असर हुआ मिसेज सोनी पर। आसपास के लोग सब जान गए हैं, कहीं यह आशंका भी थी। अब वह पति-भक्ति का नाटक कर रही थी। दवा मैंने डॉक्टर को पकड़ाई और चला आया।

*

दस-पंद्रह दिनों से ऐसा हुआ कि जब भी मौका मिलता, मैं डॉक्टर के घर पहुँच जाता हूँ। डॉक्टर भी जैसे मेरा इंतजार ही कर रहा होता है। खूब बोलता-बतियाता रहता है, विषय चाहे कद्दू की भाजी हो या नए रूस के निर्माण में गोर्बाचौफ की भूमिका। मिसेज सोनी को जाहिरा तौर पर कोई परेशानी नहीं है, लेकिन उसके माथे पर बराबर सलवटें पड़ी रहती हैं। डॉक्टर के बेटे कतराते हुए निकल जाते हैं। अक्सर सामने नहीं पड़ते।

डॉक्टर ने अपनी अलग दुकान जमाने का फैसला कर लिया हैं। एक परिवर्तन उसमें और हुआ है, वह खूब बोलता है और फटकारती हुई भाषा में अपनी बात कहता है, खासकर मिसेज सोनी को। और खीजकर ही सही, मिसेज सोनी और लड़के इस परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं।

मैं सोचता हूँ, अब रोज न भी जाऊँ तो भी चलेगा। रोशनी जब खंजर की तरह तीखी हो जाए, तो डरना तो अँधेरे को चाहिए।

मुझे कल्पना में डॉक्टर फिर छोटे-छोटे स्कूली बच्चों से खेलता नजर आने लगा है, “अले बेटा, तुमाला नाम क्या है...अंकल को विश नहीं करोगे? तुमाला डेट ऑफ बर्थ...?”

**

3

टूटे कपों का कोरस

प्रकाश मनु

*

आज सुबह से ही सुमि के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। खुशी की एक हिलोर-सी उसे उड़ाए लिए जा रही है। कमरा करीने से व्यवस्थित करते हुए अचानक उसके होंठों पर एक अस्फुट मुसकान आ गई है।

आज पहली बार अमित भैया उसके घर आ आ रहे हैं। दो दिन पहले ही उनकी चिट्ठी आई थी, जिसमें उन्होंने अपने दिल्ली के टूर की सूचना दी थी। फैक्टरी के किसी काम से वे कुछ दिनों से दिल्ली में ही रुके हुए हैं। वहीं से गुडग़ाँव आ जाएँगे।...बस थोड़ी देर ही रुकेंगे। सुमि और देवेश से मिलकर लौट जाएँगे।

चिट्ठी के औपचारिक अक्षरों ने उसे कुछ धक्का-सा पहुँचाया।...और एकाएक पुराने दिनों में लौट गई वह।

उसे याद आया, शादी से पहले अमित भैया कितना प्यार करते थे उसे। हर वक्त, उनके होठों पर सुमि का नाम रहता था, ‘सुमि, यह लाओ! सुमि, वह बनाकर लाओ! सुमि, जरा अपनी पेंटिग्स तो दिखाना। भई, पूरी कलाकार हो गई तुम तो, देखना एक दिन...!’

पर शादी के बाद इन सात-साठ महीनों में ही क्या कुछ नहीं बदल गया। भैया ही नहीं, माँ और पिता जी के लिए भी अब वह पहले वाली सुमि नहीं रही। सबकी निगाहें एकाएक बदल गईं। और जहाँ प्यार था, वहाँ संदेह की काली, सर्पिल घटाएँ जैसे फुफकारने लगी थीं। संदेह की एक जाली के नीचे सब धुँधला गया। जैसे अब वह इस घर की बेटी न होकर कोई और हो गई है, जिससे बस एक तटस्थ, औपचारिकता का निर्वाह कर दिया जाता है। जैसे दूर-दराज के रिश्तेदारों से...या अचानक मिल गए परिचितों, अपरिचितों से।...और बस!

2

तो भी...भैया आ रहे हैं, और पहली बार आ रहे हैं। क्या भैया का आना इस बात का गवाह नहीं कि उन्होंने उसे माफ कर दिया है और उसके फैसले को पहली बार मन से स्वीकृति दी है।

भैया के आने पर वह क्या-क्या बनाए, किस तरह उत्साह और उमंगों से उनका स्वागत करे? भले ही उसकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है, भले ही, लेकिन...! हर बार प्रश्न के साथ मन में एक नई उत्फुल्ल लहर। लहर पर लहर। यही सब सोचकर सुबह से वह घर के भीतर और बाहर बीसियों चक्कर लगा चुकी है। उसे लगा कि वह पहले वाली सुमि होती जा रही है।

सुबह देवेश से कहकर उसने कुछ जरूरी सामान मँगवा लिया था, “देव, भैया आ रहे हैं, सो कुछ तो खास बनना ही चाहिए। दो-तीन तरह की सब्जियाँ ले आना। कुछ सेब और केले भी, फ्रूट चाट बना लूँगी। और सुनो, कोई अच्छी सी मिठाई भी ले आना! भैया कलाकंद के शौकीन...!”

देवेश ने एक चुप नजर उसे देखा था, कुछ सोचते हुए। फिर मुसकराते हुए चला गया था।

फल, सब्जियाँ और मीठा...! गुलाबजामुन और कलाकंद ही नहीं, बजाज स्वीट्स से ताजा बनी इमरतियाँ भी। जितना कुछ उसने कहा था, देवेश उससे ज्यादा ही ले आया था। तो भी उस टोकरी को देखकर कहीं न कहीं एक खालीपन सा उसकी आँखों में आ गया था। क्या भैया ये पसंद करेंगे? भैया को मटर-पनीर की सब्जी बहुत पसंद है, पर कैसे वह देवेश को मटर और पनीर खरीदकर लाने को कहती? मटर आजकल सत्तर-अस्सी रुपए किलो से कम नहीं हैं और पनीर खरीदना तो और भी मुश्किल है महीने के इस आखिरी हफ्ते में। आखिर देवेश की तनख्वाह ही कितनी है, कुल आठ हजार रुपए महीना।

कुल आठ हजार...!

खूब फाइव स्टार सुविधाओं और शान-शौकत से रहने के आदी उसके भैया यहाँ ढेर से अभावों और महज आठ हजार रुपए की बँधी-बँधाई तनख्वाह के बीच चल रही किसी आँखमिचौनी जैसे उसकी गृहस्थी को देखकर कैसा महसूस करेंगे? सोचकर अज्ञात संकोच से वह जड़-सी हो गई थी।

हठात इन ख्यालों से पिंड छुड़ाकर उसने कमरे की सफाई कर लेनी चाही। अलमारियों को झाड़-पोंछकर अखबार बिछा दिए। सामने की अलमारी में उसने कपड़े ठीक से तह करके रख दिए, ताकि बेढंगे न लगें। बीच में अपना और देवेश का फोटो रखकर उसने घर की दूसरी चीजें भी अलमारी में ढंग से जमा दीं। अलमारी में ऊपर वाले खाने में देवेश की किताबें और पत्रिकाएँ करीने से लगा दीं।

कमरे के एक कोने में ही बनी रसोई को भी खूब चमकाकर साफ और व्यवस्थित कर लिया। फिर उसकी निगाह कमरे के उस कोने की ओर गई, जहाँ कुछ दवा की शीशियाँ, डब्बे, अखबार और कपड़े की छोटी-छोटी गठरियाँ पड़ी थीं। उनमें घर के रोजमर्रा के इस्तेमाल की कुछ चीजें थीं। इन्हें रखने के लिए कमरे में कोई और अलमारी नहीं थी, इसलिए ये चीजें एक कोने में पड़ी रहती थीं। उसने झटपट वे डब्बे वगैरह उठाकर चारपाई के नीचे सरका दिए। फिर उस जगह को कपड़े से झाड़-पोंछ दिया।

अब उसने कमरे पर एक आलोचनात्मक नजर डाली। कमरा पहले की तुलना में वाकई कुछ अच्छा लगने लगा था। फिर भी कुल मिलाकर कितना साधारण था यह। दरिद्रता की छाया जैसे छिप नहीं रही थी। जगह-जगह से अभाव और गरीबी की मैली, बदरंग रेखाएँ झाँक रही थीं।

सामने मैले, जर्जर स्टूल को देखकर उसका जी खराब हो आया। उसने जल्दी से वह स्टूल कोने में सरकाया और पड़ोस की रमा जी से उनकी सनमाइका वाली महँगी मेज माँग लाई। अभी तक वह स्टूल से ही जैसे-तैसे काम चला रही थी। देवेश ने कहा था कि अगली तनख्वाह मिलते ही वह एक अच्छी सी मेज लेकर आएगा। पर भैया के सामने वह यह हिलता हुआ, खड़खड़िया स्टूल भला कैसे रख सकती थी? कहीं उनकी तीखी, व्यंग्यात्मक नजरें...!

3

अचानक उसके सामने दरिद्रता की इन परतों को फाड़ता हुआ किसी चकाचौंध की तरह उस घर का नक्शा आ गया जिसे शादी से पहले वह गर्वपूर्वक ‘अपना घर’ कहा करती थी, और जहाँ की शानशौकत और सुविधाओं की वह अभ्यस्त हो चुकी थी। उसके पापा ने आगरा के नई राजामंडी इलाके में चार कमरों वाली खूबसूरत कोठी खरीदी थी, तब आसपास कोई मकान उतना आलीशान नहीं था। और फिर महँगा और बड़ा वाला फ्रिज, शानदार टेलीविजन सेट, कंटेसा कार...सभी चीजें एक के बाद एक आती गई थीं। पापा का व्यापार तेजी से बढ़ता जा रहा था, इसलिए घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

उस आलीशान फ्लैट की तुलना में उसका यह घर, बल्कि एक छोटा कमरा जिसे वह घर कहती है, माचिस की अधजली, बेकार तीलियों की तरह लगता था। हालाँकि उसने देव से कभी किसी दुख, किसी अभाव की शिकायत नहीं की थी। पर क्या वह इस घर और इन हालात को कभी पूरे मन से स्वीकार कर सकी थी?

उसे लगा कि वह ऐसे ही सोचती रही तो उसकी आँखों में आँसू छलछला आएँगे। नहीं, आँसू नहीं आने चाहिए। ‘अच्छा बुरा जैसा भी है, आखिर यह घर मेरा है।’ उसने खुद को समझाने की एक और कोशिश की, ‘और फिर यहाँ प्यार है, देवेश का प्यार, जो मेरे लिए सबसे ज्यादा कीमती है। मेरे और देवेश के दिल में जो प्यार की इमारत है, जो सपना है, उसके आगे ये अभाव कुछ नहीं हैं, कुछ भी नहीं! फिर खुद मैंने ही तो देवेश को चुना है। उसकी फक्कड़ मस्ती और अभावों के बीच खिलखिलाते प्यार को...!’

उसे याद आया, जब उसने पहली बार कॉलेज के एनुअल फंक्शन में देवेश को कविता-पाठ करते देखा था, तो वह किस कदर सम्मोहित-सी हो उठी थी। उसके उलझे हुए घुँघराले बालों और गहरी उदास आँखों के समंदर में वह खो गई थी। हालाँकि देवेश की कविता कतई रोमांटिक नहीं थी। उसमें आज के वक्त की कड़वी सच्चाइयाँ थीं जिन्हें कहना खतरनाक था, तकलीफदेह भी।

जितनी देर देवेश कविता पढ़ता रहा था, वह उसके होठों से झरने वाले शब्दों और उन शब्दों के अर्थ से बेपरवाह भावनाओं की नील झील में डूबती-इतराती रही थी। पता नहीं क्यों उसे लगा था, ‘काश, मैं इन आँखों की उदासी दूर कर पाती और इनमें ढेर सारी खुशियाँ भर देती!’

कार्यक्रम के बाद वह अपनी प्यारी सहेली सुहासिनी के साथ देवेश के पास गई थी। पर उसके पास आकर कुछ अचकचा-सी गई थी। तब सुहासिनी ने ही हँसते हुए ‘अब बोल न, क्या कहना चाहती है!’ कहकर उसे उबारा था। हालाँकि थोड़ी देर के लिए शर्म से उसके कानों की लवें तक लाल हो गई थीं। हलके-से संकोच के साथ उसने अटपटे ढंग से देवेश की कविता और कविता पढ़ने के ढंग की तारीफ की थी। फिर कहा, “क्लास में आपको अक्सर शांत, गुमसुम, कुछ सोचते हुए से देखा था। लगता था कि आप जरूर कुछ लिखते होंगे। पर आप इतना अच्छा लिखते हैं और इतना अच्छा पढ़ते हैं कि...”

आगे कुछ कहना उसके के लिए संभव नहीं था। और शायद उसके गालों पर तेजी से फैलती लालिमा ने आगे की बात पूरी की थी।

पर देवेश पर इस तारीफ का शायद कोई खास असर नहीं हुआ था। हाँ, जवाब में उसने एक भरी-भरी-सी, चुप्पा निगाह उस पर डाली थी। कितनी सादा, कितनी अर्थपूर्ण और स्नेहिल थी वह निगाह। कहीं कोई बनावट नहीं, काई दुराव नहीं। और जो शायद कह रही थी, ‘तो क्या तुम मेरा साथ दोगी जिंदगी भर के लिए? मन और संपूर्ण व्यक्तित्व की माँग पूरी करने के लिए, सहयात्री बनकर! तैयार हो? या फिर केवल ऊपर-ऊपर के ही शब्द?...लिप सर्विस!’

और देवेश का यही बेबनाव रूप उसे उसके करीब ले आया था। इतने करीब जहाँ आकर शायद प्यार के साथ-साथ जीवन के नए-नए सूक्ष्मतर अर्थ खुलने, जगमगाने लगते हैं। नई से नई छवियाँ।

एम.ए. करने के बाद दोनों ने एक साथ रिसर्च का काम शुरू कर दिया था। दोनों के शोध-प्रबंध का विषय भी आधुनिक साहित्य और उसके सामने दरपेश चुनौतियों को ही लेकर था। इसलिए दोनों अपने-अपने विषयों पर आपस में खूब विचार-विमर्श करते थे। और हर बार उनकी बात यहाँ आकर खत्म होती कि आज की कविता-कहानियाँ हों या उपन्यास, वे आम आदमी की जिंदगी के कितने पास आ गए हैं। यह इस सदी का शायद सबसे बड़ा आश्चर्य है!

कुछ दिनों बाद देवेश को आर्थिक तंगी के कारण एक स्कूल में नौकरी कर लेनी पड़ी थी। इसके बावजूद वे पहले की तरह मिलते रहे थे। देवेश स्कूल से यूनिवर्सिटी आता और यूनिवर्सिटी के खुले लान में वे साथ-साथ चाय पीते हुए बातें किया करते थे।

कितना कुछ उनके पास कहने के लिए था जिसे कहकर वे एक अजानी तृप्ति से भर उठते थे। पर जितना वे कहते, उससे ज्यादा चाय के प्याले और निगाहों की खामोशी के बीच छूट जाता था। इस बीच हर तरह का फासला खत्म करके उनके मन मिल जाने के लिए कसमसा उठते थे। पर वे विवश थे और इंतजार कर रहे थे कि रिसर्च खत्म होने के बाद कहीं कोई अच्छी नौकरी मिले। फिर वे अपना एक छोटा-सा घर बना लें, अपने सपनों को खूबसूरत आकार दें।

पर एक दिन सुमि आते ही फूट-फूटकर रो पड़ी थी, “देवेश, ऐसे कब तक चलेगा? अब और बर्दाश्त नहीं होता!”

“क्यों, क्या हुआ?” देवेश हक्का-बक्का रह गया था।

“देव, घर वाले मेरी शादी की बात चला रहे हैं। अभी तक मैं इनकार करती रही हूँ, पर अब...! अब करीब-करीब तय हो गया है। परसों वे लोग मुझे देखने आ रहे हैं। लड़का इंजीनियर है। घर वाले कहते हैं कि इससे अच्छा लड़का नहीं मिल पाएगा, शादी इसी से करनी है!’

देवेश यह सुनकर किसी पत्थर की मूर्ति की तरह निर्वाक, जड़-सा रह गया था। वह क्या कहे, क्या नहीं, समझ नहीं पा रहा था।

“तो क्या तुम्हें भी वह...?” उसने पता नहीं क्या कहना चाहा था।

पर सुमि सब समझ गई थी, “क्या बात करते हो, देवेश? मेरा तो विवाह बहुत पहले हो चुका है—तुमसे। जब सिद्धि सरोवर के जल को साक्षी मानकर हमने साथ-साथ शपथ खाई थी, कभी अलग न होने की। उस जगह अब कोई और नहीं आ सकता। मैं मर जाऊँगी, पर यह नहीं होगा—कभी नहीं!” वह देवेश के कंधों पर सिर रखकर सिसकने लगी थी।

आखिर दोनों ने कोर्ट मैरिज का फैसला किया था। यह एक छोटी-मोटी प्रलय थी। भारी विरोध और उथल-पुथल। याद करो तो सिर अब भी चकराने लगता है। दोनों के घर वालों ने भी हारकर स्वीकृति दे दी थी, पर आधे-अधूरे मन से।

यों मुश्किल सुमि के घर वालों की तरफ से ज्यादा थी। खासकर पापा तो बुरी तरह नाराज थे। तब उसने पहली बार पापा और अमित भैया की आँखों में नागफनी के काँटे देखे थे, जिन्होंने जैसे अब तक के सारे स्नेह-सूत्रों को छलनी कर दिया था।

और फिर वह एक छोटे, बहुत छोटे-से किराए के कमरे में देवेश के साथ रहने लगी थी। देवेश स्कूल से आकर कागजों, किताबों में डूब जाता। रिसर्च के साथ-साथ उसका अपना लेखन भी चल रहा था। वह ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में बेरोजगारी के धक्के खा रहे आज के एक पढ़े-लिखे युवक को केंद्र में रखकर उपन्यास लिख रहा था। बहुत कुछ आत्मकथात्मक उपन्यास, पर उसमें पूरी युवा पीढ़ी का दर्द था। सुमि के शोध-कार्य में वह अपनी ओर से भरसक मदद करने की कोशिश करता था। दोनों रात देर-देर तक रिसर्च के अपने-अपने टॉपिक्स को लेकर डिस्कस करते। और इस बातचीत में काफी अच्छी चीजें सूझतीं।

लिहाजा शादी के बाद के ये दिन उनके लिए बेफिक्री या मौज-मस्ती के नहीं, हाड़-तोड़ मेहनत और कठिन संघर्ष के दिन थे। पर्वत की खड़ी चढ़ाई जैसे। देवेश अपनी मेहनत से अपना घर-संसार बनाना, सँवारना चाहता था।...एक छोटे-से साफ-सुथरे घर से बड़ा उसका कोई पारिवारिक सपना नहीं था और बड़ा आदमी हो जाने की कोई महत्वाकांक्षा तो कतई नहीं। इसलिए किसी की सिफारिश से कोई बड़ी नौकरी लेने की बात उसने कभी सोची तक नहीं।

अपने उस छोटे से घर-संसार में वे दोनों खुश थे। पर कहीं न कहीं, किसी न किसी क्षण वह जैसे उससे अलग या तटस्थ होकर सोचने लगती तो एक अनजाना तनाव उसमें भर जाता। और वह झल्लाकर जैसे अपने आपसे पूछती—क्यों इस घर को वह पूरी तरह अपना घर नहीं मान पा रही है?

उसने कई बार सोचा कि देवेश जिस तरह अभावों को हँसकर झेल जाता है, वह नहीं कर पाती। शायद उसके मन में अब भी उस पुराने आलीशान और नौकरों-चाकरों वाले घर के संस्कार बाकी हैं, जो आड़े आ जाते हैं। देवेश हर पल एक दूसरी ही दुनिया में खोया रहता था। यह नए सपनों और विचारों की दुनिया थी। यह नहीं कि वह इस दुनिया से अपरिचित हो, पर वह उसमें इस कदर खो नहीं पाती थी। सच तो यह है कि बचपन से लेकर बड़े होने तक उसने अभावों को कभी जाना ही नहीं। और इसलिए जब उसने देवेश से ‘साथ निभाने’ का वादा किया था, तो शादी के बाद अचानक आने वाले इन अभावों की उसने ठीक से कल्पना ही नहीं की थी।

यहाँ तक कि घर में एक छोटा-सा कलर टीवी भी नहीं था और उसका मन कई बार मसोसता। पर देवेश अपने छोटे-से ट्रांजिस्टर के साथ खुश था। कभी सुमि को उदास देखता तो कह उठता, “जरा देखो तो, हमारा छोटा-सा ट्रांजिस्टर कहीं ज्यादा खुशी दे सकता है। कम से कम उलटे-सीधे और भौंडे धारावाहिक देखने से तो बचे।”

उसके घर में हर काम के लिए अलग-अलग नौकर थे। कार, टेलीविजन, फ्रिज, कूलर, आधुनिकता की किसी भी सुविधा से वह कभी वंचित नहीं रही। यहाँ तक कि खुद सब्जी लाने की बात भी कभी उसके घर में सोची ही नहीं जा सकती थी। पर यहाँ तो सब्जी-दाल ही नहीं, आटा तक खुद पिसवाकर लाना पड़ता था।

यहाँ तक कि एक बार खाना बनाते-बनाते कुकिंग गैस खत्म हो जाने पर वह खुद उसे लेने गई। और कोई तीन-चार मील दूर गैस एजेंसी ‘आनंद फ्लेप्स’ से रिक्शे पर सिलेंडर को लाने-ले जाने के झंझट और शर्म से वह पानी-पानी-सी हो गई। फिर महँगाई इतनी अधिक थी कि देवेश की थोड़ी-सी तनख्वाह घर की जरूरतों के सामने मजाक जैसी लगती थी। अभाव मुँह खोले खड़े थे और उनका मुँह चौड़ा होता जा रहा था। और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे में वह करे क्या?

यों उसे देवेश से कोई शिकायत नहीं थी। देवेश ने कभी उसे सुख-सुविधाओं का सब्जबाग नहीं दिखाया, बल्कि वह हर बार उसे समझाता रहा था कि अपने आपको अच्छी तरह तोलकर, परखकर देख लो। मेरे साथ रहने से अभाव और संघर्ष ही साथी होंगे, दुनियावी सुख-सुविधाएँ नहीं।...शायद कभी नहीं।

और देवेश के प्यार में उसने एक क्षण के लिए भी कहीं कोई विचलन या कमी महसूस नहीं की थी। वह आज भी वैसा है, वैसा ही स्नेहिल और स्फूर्तिमय। उसी तरह उसकी ठहाका लगाने और हर मुश्किल को बातों-बातों में हवा में उड़ा देने की आदत है।

तो भी यह क्या है जो उसे असंतोष और तनाव से भर देता है? क्यों उसे अपने घर की दीवारें हिलती हुई नजर आती हैं?...भला क्यों?

*

‘पिऊँ...पिऊँ...पिऊँ...!’

जरूर भैया की कार का म्यूजिकल हॉर्न है। बिलकुल कोयल का सा सुर। वह जल्दी से पैरों में चप्पलें डालकर भागी-भागी बाहर आती है—भैया ही हैं। वह ‘भैया...भैया...’ कहकर उनसे लिपट जाती है। अमित भैया प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हैं, “भई, बड़ा चक्कर काटना पड़ा गलियों में। तुमने भी कहाँ कमरा ले रखा है?”

“बस, भैया, जहाँ मिल गया आसानी से। यह तो इन बातों के बारे में ज्यादा कभी सोचते नहीं हैं।” उसने अटकते हुए कहा था।

“और कोई कमी तो नहीं है? तुम लोग ठीक से हो न!” भैया दुलार से पूछते हैं।

“जी।” कहते हुए न चाहे भी उसकी आँखें डबडबा आईं। भैया से उन्हें छिपाने के लिए वह दूसरी ओर देखने लगी थी। उसे लगा था कि वह भैया से आँख नहीं मिला पा रही है।

एक अँधियारे गलियारे को पार करने के बाद कोने के इस छोटे-से कमरे को देखकर भैया चौंककर खड़े हो गए थे। जैसे हँफनी चढ़ गई!

“बस, यही एक छोटा-सा कमरा है तुम्हारे पास?...बड़ा अँधेरा-सा है। कमरे में कोई ढंग का वेंटिलेटर तक नहीं!” भैया को जैसे वहाँ बैठने में असुविधा हो रही थी। उसने चुपचाप ‘हाँ’ में सिर हिला दिया था।

“कोई ज्यादा सामान भी नहीं दिखाई पड़ रहा।” भैया कमरे में हर ओर अपनी आलोचनात्मक निगाहें दौड़ाते हुए बोल रहे थे।

वह क्या कहती? चुप रही। थोड़ी देर बाद जैसे बोलने की कुछ तैयारी करके उसने कहा, “भैया, इनके जीवन के कुछ अपने उसूल हैं। ये कहते हैं कि जितनी कम से कम चीजों में गुजारा हो सकता है, करना चाहिए। हम एक गरीब मुल्क के रहने वाले हैं, जहाँ लोग...”

“जहाँ लोग भूखे और नंगे रहते हैं, यही न? तो फिर सभी भूखे-नंगे रहने लगें क्या? कैसी वाहियात बातें हैं! मैं कहता हूँ कि मुझे ऐसे आदमी कभी अच्छे नहीं लगते, कोरे हवाई! क्या मिला तुम्हें इससे शादी करके? क्या मिला, बोलो, क्या मिला...?” अचानक भैया गरज पड़े थे।

जैसे बहुत समय का उनका जबरन रोका हुआ गुस्सा अब एक साथ सौ बमों की लडिय़ों की तरह फट पड़ा हो और...

उसे लगा था कि भैया के क्रोध का विस्फोट इतना ज्यादा है कि उसके छोटे-से घर की दीवारें, खिड़की, दरवाजे थरथरा उठे हैं। जैसे यह घर अभी टूटकर बिखरने ही वाला है।

प्रलय...! फिर एक और प्रलय! उफ, पहली प्रलय तो शादी के तुरंत बाद ही झेलनी पड़ी थी।

तभी अचानक—जादू! किसी जादू-मंतर की तरह उसकी निगाह सामने अपने और देवेश के उस फोटो की ओर गई जिसमें देवेश आँखों में बेहिसाब प्यार लिए उसकी ओर देख रहा है। वह अनथक, उद्दाम प्यार जैसे उसकी दुर्बलता को दूर करके उसे बड़ा बनाता जा रहा है।

उसके चेहरे पर एक क्षण के लिए आहत स्वाभिमान और क्रोध की हलकी-सी लाली आई। फिर वह एक अलग किस्म की दृढ़ता में बदल गई। उसने भैया की ओर सीधे देखते हुए एकदम शांत, निष्कंप आवाज में कहा, “पर भैया, मैं यहाँ खुश हूँ, बहुत खुश। मुझे तो कोई शिकायत नहीं है। फिर मैंने तो आपके बड़े, आलीशान घर से अपने लिए कभी किसी चीज की अपेक्षा नहीं की न! आपसे कभी कुछ माँगा तो नहीं? तो फिर...आपको मेरी इंसल्ट करने का हक क्या है?”

भैया को जैसे अचानक अपनी गलती महसूस हुई थी। वे उससे आँख नहीं मिला पा रहे थे। इसलिए अखबार उठाकर वे उस पर नजर दौड़ाने लगे थे। इस बीच वह चाय बनाकर ले आई। साथ ही अलग-अलग प्लेटों में बिसकुट, नमकीन, कलाकंद...भैया की पसंदीदा मिठाई!

भैया ने अनमने ढंग से चाय का कप उठा लिया है।

*

इसी बीच मानो आपातकाल में बड़ी राहत की तरह देवेश आ गया। भैया को देखते ही वह बड़े जोश और उत्साह से मिला।

“अरे वाह भैया, आपका आना बड़ा अच्छा लगा। सुमि तो सुबह से इस घर में नाच रही है, जैसे छोटी बच्ची बन गई हो!” उसने हँसते हुए कहा।

उसके खुले और बेबनाव व्यक्तित्व को देखकर भैया का संकोच कुछ कम हो गया। अब वे भी खूब खुलकर हँसते हुए बातें कर रहे थे।

देवेश के लिए वह एक कप चाय बनाकर दे गई है। मेज पर रखे तीनों कप अलग-अलग तरह के हैं। देवेश यह देखकर मजाक कर उठता है, “देखो भैया, हमारा घर बिलकुल हमारे देश की तरह है। यानी अनेकता में एकता...! कोई दो कप एक जैसे नहीं मिलेंगे।”

सुनते ही भैया के साथ-साथ अचानक उसकी भी हँसी छूट जाती है। देवेश के इस प्रफुल्ल और अभावों में भी खिलखिला सकने वाले स्वाभिमानी चेहरे की एक छवि वह चुपके से आँखों में बंद कर लेती है।

*

कुछ देर बाद भैया उठे हैं। उसे और देवेश को आशीर्वाद देकर जाने लगे, तो सुमि ने धीरे से हाथ जोड़ दिए।

तभी भैया को अचानक कुछ याद आया। वे बैग खोलकर माँ-पिता जी का भेजा हुआ सोने का हार और चूडिय़ाँ निकलते हैं। गुलाबी काँच की पारदर्शी डिबिया में दूर से ही उनकी चमक ध्यान खींचती है। भैया वह डिबिया उसकी ओर धीरे से सरकाते हैं, “लो सुमि, मम्मी ने भेजा है तुम्हारे लिए।”

पर सुमि का साफ इनकार, “नहीं भैया, इन्हें पसंद नहीं।...और इस बार तो मैं ले ही नहीं सकती। जब आप बगैर दया दिखाए मेरे घर आएँगे, तब देखूँगी।”

उसने देखा, भैया के चेहरे का रंग उतर गया है। वे कुछ कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पा रहे।

फिर वह और देवेश उन्हें कार तक छोड़ने जाते हैं। कार स्टार्ट कर अब भैया पीछे देख रहे हैं। सुमि ने देखा, उनकी आँखें कुछ गीली हैं या...या शायद...!

पर सुमि कुछ समझ पाती, उससे पहले ही भैया का चेहरा तेजी से घूम गया है।

चलने से पहले उन्होंने सुमि के सिर पर हाथ फेरा था। और शायद कहना चाहा, “सुमि, किसी चीज की जरूरत हो तो बताना...!” पर जाने क्या था सुमि के चेहरे पर कि ये शब्द उनके मुँह से निकल ही नहीं पाए।

पर हाँ, उनके जाते ही सुमि को लगा, अलग-अलग रंग-आकार वाले उसके कप एक साथ मिलकर खिल-खिल हँसे हैं। उस मीठी खिल-खिल में उसे सुनाई दी अपनी ही आवाज, “मैं बहुत सुखी हूँ भैया, मेरी चिंता न करना। और आगे कभी आओ तो मुझ पर दया दिखाने के लिए नहीं, इस घर को घर समझकर आना!”

*

रात का अँधेरा फिर आया था। काफी काली, स्याह रात। पर उसमें बीच-बीच में कौंध उठते थे अलग-अलग रंग-आकार के कप, एकदम तुकबंदी विहीन। एक अभावों भरी गृहस्थी का सुख।

अचानक उसे लगा, धोने के बाद फर्श पर कोने में रखे गए उन कपों के कान एकाएक किसी जादू से गायब हो गए हैं। और टूटे कानों वाले वे कप जलतरंग के प्यालों में बदल गए हैं। अभी-अभी उनमें से एक जल-तरंग सी फूटी है। मीठी, बहुत ही मीठी—निनादमय!

और अनजाने ही वह मुसकरा दी है।

**

4

सुकरात मेरे शहर में

प्रकाश मनु

*

पहली बार उसे गुलमोहर के लाल फूले पेड़ के नीचे बैठे देखा था। एक स्वस्थ, अधेड़ आदमी जिसकी गोदी में गुलमोहर के चार-छै फूल थे। लाल, दहकते हुए। उसने खुद ही उठाकर रखे थे या ऊपर से गिर पड़े थे, कह पाना मुश्किल था। फिर भी बात हैरानी की तो थी ही। आज के वक्त में कोई अधेड़ इतना सौम्य, इतना सुगठित और इतना फूल-प्रेमी तो रह नहीं जाता।

मेरे भीतर एक चक्कर-सा ही चल पड़ा था। मुझको काटता हुआ एक चक्कर, ‘तो क्या यह आदमी काल की वर्तमान परिधि में नहीं? क्या यह यहाँ होकर भी यहाँ नहीं है? कहीं और, कहीं दूर इतिहास या काल-चक्र के भीतर ठहर गया है, किसी सांस्कृतिक युग की ऐश्वर्य-छाया में, जहाँ धूप भी धूप नहीं और शब्दों के ठीक-ठीक अर्थ और नाम भी वह नहीं जो आज हैं—हमारे आसपास? या कि यह सचमुच कहीं शून्य में है और यहाँ जो भी है, वह महज एक आभास, इसका छाया-रूप?’ ठीक से कुछ भी सोच नहीं पाया था।

फिर मैंने जैसे खुद से कहा, ‘चलूँ, एक बार मिल ही लूँ। दो बातें ही सही! शहर में बहुत दिनों बाद तो कोई अपना-अपना-सा नजर आया!’ और मेरी हँसी छूट गई।

मगर तभी उसकी निगाहें उठीं, तेज जलती हुई लपट की-सी निगाहें। और आगे बढ़ने के ख्याल के साथ ही मेरे पैर जमीन में चिपके तो चिपके ही रह गए। यह शायद उसकी भव्यता का आतंक था।

*

असाधारण रूप से पुष्ट, ऊर्जित और महाकाय, महाबलिष्ठ लगता था वह। खूब लंबा, तगड़ा। अपनी सुगठित देह-यष्टि और चेहरे की अभिजात सौम्यता के बावजूद असाधारण रूप से उत्तेजित। उसका चौड़ा, विशाल माथा धूप में चमक रहा था। नाक सीधी और नुकीली, होंठ सख्त, लेकिन फड़कते हुए। धूप के बावजूद कंबल ओढ़े था वह। उस फटे हुए कंबल से भी उसका आभिजात्य, उसकी सांस्कृतिक गरिमा छलक आती थी।

वह लगातार अस्फुट स्वर में गालियाँ बक रहा था और यह अजीब बात थी कि गालियों के वे अस्पष्ट स्वर संस्कृत मंत्रों जैसे गंभीर नादमय लग रहे थे। मुझे कुल मिलाकर उसका व्यक्तित्व पहाड़ जैसा लगा। गहन, ऊबड़-खाबड़, विशाल और उदात्त। लगा कि उसकी धमनियों में शायद रक्त नहीं, पिघली हुई विद्युत दौड़ती है और अपनी इस असाधारण उत्तेजना में ही पूर्ण है यह।

उससे बात करने की तेज इच्छा, नहीं-नहीं, तड़प महसूस की थी। लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी। मैं पूरी ताकत लगाकर सिर्फ इतना ही कर सका, सहमे हुए कदमों से धीरे-धीरे जाकर पाश्र्व में खड़ा हो गया था।

खड़ा रहा था, खड़ा रहा था, खड़ा रहा था और फिर सिर झुकाए चला आया था।

*

उसके बाद वह ‘वह’ नहीं रहा और तमाम किस्सों जैसा ही एक किस्सा हो गया। बल्कि असाधारण किस्सों का पुंज। हर किस्सा अद्भुत-अद्भुत-सा।

निराला...? महाप्राण!

मुझे जाने क्यों उसे देखकर महाप्राण निराला की कविताएँ याद आतीं। राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास, सरोज-स्मृति और...और...

उसके बाद वह कई जगह दिखाई दिया, अलग-अलग रूप-भंगिमाओं में। बहुत बार वह ब्रह्म सरोवर पर पालथी मारे ध्यानमग्न दिखा। हालाँकि वह कोई मंत्र नहीं पढ़ता था, फिर भी उसके भीतर के निरंतर गतिमान और उग्र विचार-चक्र और क्षुब्ध संवेदनाएँ उसके निरंतर किसी चरम की ओर बढ़ने का आभास देतीं। उसके चेहरे पर भावों की छायाएँ एक के बाद एक दौड़ती हुई आतीं और भिड़ जातीं। एक खौफनाक संघट्ट! फिर कसक, व्यथा और टूटन। सब साफ दिख जाता था। और जाने क्यों, अपनी अचल पर्वत समाधि के बावजूद वह लगातार टूटता हुआ लगता।

बाद में वह सड़क पर अक्सर दौड़ता हुआ दिखाई पड़ने लगा।

भीड़ उसे रास्ता देती। कुछ क्षण परेशान-सी पीछे-पीछे उसी की ओर देखती रहती, कुछ क्षण आपस में स्तब्ध-सी बतियाती। फिर सब अपने-अपने काम से चले जाते। किसी को नौकरी करनी होती, किसी को व्यापार। किसी को चमचागीरी, किसी को साहित्यगीरी। किसी को सब्जी लानी होती, किसी को दवाई, किसी को बीवी के लिए लिपस्टिक-पाउडर। किसी को बिजली-पानी का बिल भरना होता। इसलिए सब सिर झटककर अपनी-अपनी राह पकड़ते। और वह आगे-आगे सबकी राह रौंदता हुआ दौड़ता जाता।

पिछले कुछ महीनों से वह शहर के मुख्य रेलवे प्लेटफार्म पर दिखाई देने लगा था। अब वह दुबला पड़ गया था। आँखें धँस गई थीं, हालाँकि उनकी तेज चमक और गहराई नहीं गई थी। चेहरे, कंधों और छाती की हड्डियाँ जैसे बाहर आना चाहती थीं, भाग्य की क्रूर हँसी को मूर्त करने के लिए। जनवरी की रक्त जमा देने वाली ठंड के बावजूद उसके शरीर पर वही एक फटा, काला कंबल था। उसका एकमात्र वस्त्र, उसकी निधि।

अब लोग शहर पर मँडराती इस मनहूस विडंबना के बारे में ज्यादा सतर्क हो गए थे। और इसी हिसाब से उसके बारे में तमाम तरह की बातें चल पड़ी थीं। तरह-तरह से उसके ‘भूत’ को व्याख्यायित करने की कोशिशें हो रही थीं। कुछ लोग बताते कि यह कभी बड़ा जज था। इसके भी बीवी थी, बच्चे थे, अच्छा सुखी परिवार था शायद। फिर इसने किसी मुकदमे में अपने ही अपराधी बेटे को मौत की सजा दी। फाँसी!...खुद अपने हाथों से! मोह और कर्तव्य के संघर्ष में जीत कर्तव्य की हुई। लेकिन ‘कर्तव्य’ का गुरुतर भार, दुख का महा भीषण आघात यह बर्दाश्त नहीं कर सका। पहले अर्धविक्षिप्त हुआ और अब पागल!

मेरे एक प्राध्यापक मित्र की भी यही राय थी। वे चकित थे, “देखो-देखो, खुद में...मेरा मतलब है, खुद के साथ कितना तल्लीन लगता है यह। देखो इसका चेहरा! शायद अब यह अपने अंतर्मन में आज की युग स्थितियों के संदर्भ में नैतिकता की तलाश और उसे फिर से परिभाषित करने की जोड़-तोड़ में लगा है।”

लेकिन बहुतों को यह कहानी बोदी लगती, सत्य से कोसों दूर। खास तौर से साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वालों की तो पक्की राय थी कि यह एक ध्वस्त प्रतिभा है, रूइंड जीनियस। उनकी थीसिस थी कि कभी यह बहुत बड़ा लेखक था। प्रखर, उग्र और आत्मचेतस्, लेकिन आत्मप्रचार से दूर। वर्तमान में नहीं, भविष्य में जीता था। इसलिए जो चीजें यह लिखता था, किसी की समझ में में नहीं आती थीं। इसीलिए यह दूसरों से बचता और अपने एकांत में खिसकता चला गया, और-और भीतर। शायद असल में यह ‘आने वाले सुदूर कल का लेखक’ है जो अपने वक्त से सौ साल पहले पैदा हो गया है, और इसी की सजा भुगत रहा है। इसलिए ठोकरें खा रहा है, क्योंकि यह सामान्य होकर नहीं जी सकता, हर शर्त पर विशिष्ट ही बने रहना चाहता है।

एक दिलजले साहित्यिक ने तो एक शिगूफा और छोड़ा, “देखते हो, शरीर पर धूल-राख मले घूमता है सारे-सारे दिन। तो भैया, यह शिव ही है, साहित्य का शिव! गरल-पान कर लिया भैया, इसने तो...जहर पी लिया!”

उसे ज्यादा भावुक होते देखा, तो दूसरे ने कोंचा, “अब यार, असल बात पर भी आओगे कि...कहना क्या चाहते हो तुम?”

“यही कि जहर पी लिया भैया इसने तो!” उसकी वही लटपटाती लय फिर चालू हो गई। मगर आगे का बिंब खौफनाक था, “मेरी तो पक्की राय है, जीवन भर लिख-लिखकर करीने से पांडुलिपियाँ तैयार कीं इस आदमी ने...और फिर एक दिन जाने कैसा दौरा चढ़ा कि गुस्से में उन्हें आग के हवाले किया। गरम-गरम राख अपने शरीर पर मली और निकल पड़ा बाहर—कहीं भी, जहाँ पैर ले जाएँ!”

“मगर यार, गजब है। इसे कुरुक्षेत्र ही इतना पसंद आया कि...”

मैं दरअसल बात मोड़ना चाहता था। कुछ और नहीं सूझा, तो यही निकल गया मुँह से। मगर दोस्तों ने बुरी तरह धर पकड़ा और लगभग शीर्षासन करा दिया, “तो तुम ही क्यों चले आए यूपी से दौड़े-दौड़े? भैया, ये शहर ही ऐसा है जहाँ सारे पागल इकट्ठे होंगे—ऐसा राम जी, आह सॉरी, मेरा मतलब है कृष्ण जी कह गए हैं महाभारत में। तभी तो जूनावस्टी (यूनिवर्सिटी को रिक्शा-ताँगे वाले जूनावस्टी बोलते थे। हम चार-छै यथार्थवादी दोस्तों ने वहीं से उधार ले लिया था!) खुलवा दी सरकार ने। लो, अब शुरुआत तो हो गई...आ गया शिकोहाबाद (शिकोहाबाद) से पागले-आजम!”

दोस्त मेरी ओर देखकर हो-हो-हो करके हँसे। झेंप मिटाने के लिए मैं भी फीकी हँसी हँसते उनमें शामिल हो गया।

लेकिन मेरी मुसीबत यह थी कि मैं किसी भी एक बात से संतुष्ट न था। मुझे वह आदमी हर कहानी से बड़ा लगता। मेरी खोज चलती रही। हर जगह मैं किसी न किसी रूप में उसका जिक्र छेड़ देता। और फिर कोई न कोई नई बात, नया किस्सा हाथ आ ही जाता।

उसके ‘भूतपूर्व क्रांतिकारी’ होने की बात भी कभी-कभी दबी जबान से सुनाई पड़ती। यानी एक सच्चा साधक जो अपने आदर्शों की तस्वीर से देश की इस बिगड़ी हुई हालत का कोई मेल न देखकर दिल के विक्षोभी धक्के से मानसिक संतुलन खो बैठा हो। या एकदम हतप्रभ होकर विराट शून्य के भीतर समाधिस्थ हो गया हो।

और कुछ लोग तो दावे से कहते, यह सुभाषचंद्र बोस का साथी है और आजाद हिंद फौज की टूटन के साथ ही टूट गया। देश आजाद है, मगर इसे गुलाम नजर आता है। इसकी आजादी के मायने ही कुछ और हैं! एक-दो पत्रकार साथी इसके चेहरे में सुभाषचंद्र बोस का चेहरा ढूँढ़ने की कोशिश बड़ी शिद्दत से कर रहे थे। हालाँकि अभी तक कोई खास सफलता उन्हें मिली नहीं थी। दूसरी ओर ‘चंबल का बागी’ और डाकू मानसिंह का करीबी रिश्तेदार टाइप धाराएँ-उपधाराएँ भी अपनी जगह अपनी-अपनी गंभीर निष्पत्तियाँ तलाशने में जुटी थीं।

सबके अपने-अपने सत्य, अपने-अपने ‘भूत’ थे।

कई बार तो मुझे लगता, लोग उसके बहाने अपने-अपने भूतों को व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं।

इसके अलावा एक रहस्यवादी अंतर्धारा और थी, पौराणिक परिवेश के भीतर जीने वालों की। उन्हें तो यह साफ तौर से कोई भटका हुआ यूनानी देवता लगता, जो केवल शून्य से वार्तालाप करता है और आँखों के दिव्य रेडिएशंस से सब कुछ बदलना चाहता है। (इसी सिलसिले में मेरे एक पुराने दोस्त गुड्डन भाई को मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ भी याद आई!)

लेकिन ज्यादातर इंटेलेक्चुअल लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं था। वे इसे एक अव्यावहारिक और असफल जीनियस ही मानते थे, जो अपनी समझौता न करने की जिद की वजह से टूटा, बल्कि बर्बाद हो गया।

“लेकिन फिर भी—फिर भी इसे क्या जरूरत थी यहाँ आकर जमने की? क्या कोई और जगह नहीं हो सकती थी? आफ्टर ऑल जो लोग जी रहे हैं, उन्हें जीने देना चाहिए!” कुछ लोग उदासीनता से और कुछ नाक-भौं सिकोड़कर कहते। सबको यह आदमी शहर पर एक अनिच्छित भार-सा लगता और उस बोझ का एक हिस्सा अपने सिर पर भी महसूस होता।

इस तरह शहर उससे परेशान था। समूचे शहर की नाक पर वह बड़ा-सा प्रश्नवाचक चिह्न बनकर लटक गया था।

*

उन्हीं दिनों—ठीक उन्हीं दिनों मैं उससे मिलने के लिए बेकाबू हुआ था। लगा, इससे दो-चार बातें नहीं कीं तो माथे की नसें तड़क जाएँगी, मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा। उसके बारे में सुनी हुई बातों, किस्से-कहानियों का बोझ अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था। और फिर उसे इतने रूपों, इतनी मुद्राओं में देखा था—कभी शांत, कभी उद्विग्न, कभी यूनिवर्सिटी के प्राध्यापकों के बीच धाराप्रवाह अंग्रेजी झाड़ते हुए, कभी सड़क पर कहीं भी खड़े होकर भाषण देते हुए—कि मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, सिवाय इसके कि यह एक पढ़ा-लिखा आदमी है। मैं सच नहीं, तो सच का एक अंश ही पा लेना चाहता था। लेकिन...रास्ता?

क्या यह मुझसे बात करेगा? मुझे यकीन नहीं था। क्योंकि उसे कभी किसी से बात करते नहीं देखा था, सिवाय खुद के। यह शायद उसकी भीष्म प्रतिज्ञा का कोई जरूरी हिस्सा था।

“तो भी मैं पास जाऊँगा इसके। देखूँगा—देखकर रहूँगा महाभारत, जो इसके भीतर चल रहा है।” मैंने तय किया था।

एक पूरे दिन उसे देखता रहा। कब यह शांत होता है, एक बहुत बेचैन। कब सड़कों, गलियों के चक्कर लगाता है और कब ब्रह्म सरोवर के पिछले वाले हिस्से में गुलमोहर के पेड़ के नीचे समाधिलीन! अगले दिन फिर देखा—और यह बात हैरानी की थी कि लगभग सारे दिन किसी शापित प्रेतात्मा की तरह बेचैनी से तेज-तेज चलने, भागने, कोड़े फटकारने के बाद शाम को वह टूटकर गुलमोहर के इसी पेड़ के नीचे आता था। तब इसका तनाव कुछ शिथिल पड़ता था। सिर्फ इन्हीं क्षणों में यह बौखलाया हुआ नहीं होता था, सिर्फ बुदबुदा रहा होता था—एक शांत बुदबुदाहट!

बहुत-बहुत शांत।

*

और फिर एक दिन शाम को, जब वह ब्रह्म सरोवर के पिछवाड़े अपने शांति कवच में था, मैं जा पहुँचा। सामने जाकर खड़ा हो गया।

ब्रह्म सरोवर पर इक्के-दुक्के घूमने वाले थे, लेकिन यहाँ आसपास कोई नहीं था। यह एक हलके सुकून की बात थी, नहीं तो न जाने क्या-क्या नाटक होता और लोग-बाग...!

कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा। चुप, गुमसुम। और जब उसका ध्यान नहीं गया, तो कुछ और नहीं सूझा। दोनों हाथ जोड़कर बोला, “नमस्कार...! नमस्कार करता हूँ मैं—प्रकाश मनु!”

उसने उचाट नजरों से मुझे देखा—जैसे नहीं देखा और फिर खुद के साथ संलिप्त हो गया। होंठों पर वही बुदबुदाहट। मैंने गौर किया, कुछ शब्द वह बार-बार दोहरा रहा था, किसी शोकगीत की-सी लय में, ‘मर गया, मर गया, मर गया, मर गया...मार गया, मर गया, मर...!’ चेहरे की मटमैली रेखाएँ एक-दूसरे से बुरी तरह उलझ गई थीं।

लगा, मेरे आने से यह खीज उठा है। और फिर मेरा शहराती मन मुझे लगा कोसने, ‘तुमने बेकार ही खलल डाला उसके एकांत में। तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था। आखिर हर आदमी की अपनी प्राइवेसी होती है। फिर चाहे वह घोषित रूप से पागल ही क्यों न हो। आखिर हर बंदा हर वक्त बात करने के मूड में नहीं होता। आखिर...’

जाने क्या-क्या ऊटपटाँग मैं सोच रहा था। डर भी रहा था, कहीं अभी गालियों का स्रोत न फूट पड़े। या पत्थर ही उठाकर मेरे पीछे...!

थोड़ी देर बाद उसने फिर देखा मुझे, शेर जैसी हिंस्र निगाहों से, “क्यों आए हो?”

“जी, वैसे ही।” मैंने महसूस किया, उस गरजती आवाज के सामने मेरी आवाज मिमियाती-सी लग रही थी।

“पत्रकार हो?”

(शायद मेरा ‘लटकंतू’ थैला देखकर सोचा हो। तो इसके सेंसेज चुस्त-चौकस हैं—मैंने नोट किया। )

“जी नहीं।”

“लेखक हो, कवि...?”

“जी कविताएँ, कहानियाँ लिखता हूँ। खासकर कविताओं में जीवन होम कर दिया!”

“क्यों कर दिया, मूर्ख? क्यों कर दिया! कोई और गड्ढा नहीं मिला डूब मरने को? यहाँ क्या लेने आया है...?”

“जी, इंटरव्यू! आपका अतीत...यानी...कि...!” मैं बुरी तरह हकला गया।

“अरे, तू अपने अतीत की सोच, मेरी छोड़। तेरा अतीत तेरे वर्तमान से कट गया...कट गया, अब नहीं जुड़ेगा कभी। और देखिओ, भविष्य भी कट जाएगा वर्तमान से। बस, तभी बर्बाद होगा तू। न इधर न उधर, न ऊपर न नीचे...कहीं नहीं! न जिंदा न मुर्दा...!”

“आह, नहीं-नहीं! क्या कह रहे हो तुम?” मेरी निगाहों में गुस्सा और हिकारत उभर आई उसके लिए।

पर उसे क्या परवाह थी? वह वैसा ही तना हुआ था। बेपरवाह, कड़ियल जैसे हिमालय की कोई चट्टान इधर खिसक आई हो। कुछ देर आँखों में तोलता रहा, तोलता रहा मुझे, फिर गरजा, “सुना, अपनी कोई कविता सुना!”

जाने कैसा आवेश था कि जेब से निकाला कागज और सुनाने बैठ गया। अभी कल-परसों ही पूरी की थी यह कविता, ‘भीतर का आदमी’—

“खुद को

खोद-खोदकर खाने में

कितना मजा है—

मुझसे पूछो,

मैंने इन पच्चीस सालों में

अपनी जिंदगी के पहाड़ को

कुरेद-कुरेदकर

आधा कर लिया है...!”

खासी लंबी कविता थी। करीब पाँच-सात मिनट तक मैं बोलता रहा, चीखता रहा कविता में। वह सुनता रहा। चेहरे पर एक के बाद एक बदलते भाव। और वे सब जैसे आपस में उलझ पड़े हों, झगड़ रहे हों! जैसे चेहरा नहीं, कुरुक्षेत्र का मैदान हो, एक पूरा महाभारत!

कविता पूरी हुई, तो उसने देखा जलती आँखों से, जिससे कहीं दो-चार बूँदें स्निग्धता की भी टपक रही थीं। या शायद मुझे ही ऐसा लगा।

फिर हँसा। हँसा ताबड़तोड़—हो हो हो हो हो हो हा हा हा! फिर बोला, “तू पागल है, मुझसे भी बड़ा पागल! जा भाग जा, जा जा जा...”

मेरे लिए अब खड़ा रहना कठिन था। मैं चला तो देखा, एक रूखा, वीरान अट्टहास मेरा पीछा कर रहा है जैसे कई सूखे बादल आपस में भिड़ गए हों।

*

इसके कुछ ही दिनों बाद एक पार्ट टाइम नौकरी के सिलसिले में मुझे दिल्ली आ जाना पड़ा। दिल्ली शहर की अपनी मुश्किलें तो हैं ही और पैसा पास न हो तो फिर देखो, कितनी क्रूर, हिंस्र हो जाती है दिल्ली। मैं इसी खेल में उलझा था। हर दिन और थोड़ा-थोड़ा मांस काटकर देता रहा। सिर्फ अस्तित्व-रक्षा में ही खत्म हो जाता था दिन। दो रोटी खा सकूँ, इतना पैसा हाथ आ जाता। बाकी वक्त कागज काले करता रहता, कुछ दफ्तर में, कुछ घर...! दोस्तों की चिट्ठियाँ आनी कम हुईं और फिर यह सिलसिला खत्म ही हो गया। (होना ही था!)

साल, डेढ़ साल मैं खुद को और नौकरी को किसी तरह घसीटता रहा। फिर लगा, हालत यह है, अब मुँह से खून उगल दूँगा। नहीं, नहीं निभेगा मुझसे अब। होगा सो देखा जाएगा! अपने ही शहर में जिऊँगा, मरूँगा। कुछ और नहीं तो दो-चार ट्यूशन पकड़कर गुजर-बसर कर लूँगा। सो एक दिन इस्तीफा देकर, बगैर हिसाब-किताब किए ही कुरुक्षेत्र आ गया।

*

मैंने आते ही दोस्तों से सबसे पहले ‘उसके’ बारे में पूछा। और जो पता लगा, उससे मैं हिल गया।

पिछले चार-छै महीनों में उसमें एक नए किस्म का विकार आया था। चलती गाडिय़ों के साथ-साथ और कभी-कभी तो पीछे भी वह दूर तक घूँसा तानकर दौड़ता। हाँफता हुआ, गालियाँ बकता हुआ और पसीने से तरबतर। जहाँ तक सामर्थ्य होती, दौड़ता चला जाता। और जब इस तरह लगातार घिसटना मुश्किल हो जाता तो लड़खड़ाकर गिर जाता। अक्सर बुरी तरह चोटिल और खून से लथपथ हो जाता। उन्माद और उत्तेजना के दीर्घ कवच में किसी तरह खुद को समेटता और पिछले जख्मों के भरने से पहले ही अगले दिन सूर्य की पहली किरण के साथ फिर यही क्रम।

दिनोंदिन उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। लगता था, एक-एक बेचैन कदम उठाकर यह तेजी से एक-एक युद्ध से गुजरता हुआ इतिहास के अँधेरे में जा रहा है। एक निश्चित रास्ते से—खुद से और सबसे बेपरवाह।

गुफा के भीतर एक आदमी! और आप कल्पना कीजिए कि गुफा किसी क्रूर बाघिन की तरह उसे खा रही है दो हाथों से, चार हाथों से, आठ हाथों से...सोलह...!

गुफा के भीतर कैसे बचेगा आदमी?

दिनोंदिन मैं उसकी ओर...और दूसरी नजर में अपनी ओर देखता और कराहकर रह जाता। मैं कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं था। यहाँ तक कि नौकरी और साहित्यिक क्षेत्र में एक के बाद एक धक्के खाकर उतनी मानसिक सजगता तक नहीं रह गई थी। हर दिन निराशा के गट्ठर में थोड़ा बोझ और बढ़ जाता और उसको उठाए गरदन और पीठ और अकड़ जाती। मुट्ठियाँ तन जातीं और मुझे अचानक लगने लगता कि मेरा चेहरा भी ‘इसी’ जैसा हो रहा है। मेरे अस्तित्व में यह तेजी से प्रविष्ट होता जा रहा है!

फिर एक दिन पता चला कि अब वह नहीं रहा, रेल के नीचे आकर खत्म हो गया। खत्म हो गया खेल उसका, खत्म उसकी बोरियत भरी कहानी।

मेरे हाथ-पैर सुन्न। सारे शरीर पर जैसे किसी ने कीलें ठोंक दी हों। मन हुआ, चिल्ला पड़ूँ, “खुश हो जाओ लोगो, खुश...कि वो चला गया। जो तुम्हारी नाक पर उगी भौंडी कील-सा था—पागल, एक अद्भुत पागल। अब वह गाडिय़ों के पीछे घँूसा तानकर दौड़ता हुआ, या गरमियों में कंबल ओढ़े गुलमोहर के नीचे बैठा, या तालाब पर एकांत उत्तेजना के भीतर साधनारत, या सड़क पर फटेहाल बेचैनी से इधर-उधर चलता हुआ कभी नहीं दिखाई देगा। खत्म हो गया एक दुर्गंधभरा इतिहास, जिससे शहर के संभ्रात लोगों की नाकें बेचैन हो जाती थीं और रूमाल अपर्याप्त साबित होते थे।”

बेकार था लेकिन, कुछ भी कहना बेकार। जब लोग देखकर भी न देखने का नाटक कर रहे हों, तो किसका कंधा पकड़ेंगे आप?

मौत नंगी नाचकर चली गई और किसी ने उसे नहीं देखा, किसी ने नहीं सुना। सब अपने बीवी-बच्चों के साथ रोज के झगड़ों और नपे-तुले प्यार में व्यस्त रहे। बल्कि (यकीन करेंगे आप?) लगा कि उसके जाने से शहर कुछ खिल-सा गया है। आखिरकार वह दुर्भाग्य-छाया हट गई जो सबसे जीने का मतलब पूछती थी, हर किसी को टोकती थी—तू कौन है? कहाँ से आया? सबकी नाक पर जो एक अनपेक्षित लेकिन जलता हुआ प्रश्नवाचक चिह्न थी। दुर्भाग्य की यह छाया हटी, तो शहर अपनी असली खुमारी और मध्यवर्गीय तड़क-भड़क के साथ मुक्त हुआ और सुख के इस आवेश में एकाएक भक्क से हँस पड़ा।

किसी ने क्षणांश के लिए भी नहीं सोचा, कि यदि उसने चाहा होता, तो एक भला आदमी बच सकता था। जी सकता था। मगर...मगर वह जीता भी तो उससे फायदा? क्या बचा था उसमें? काहे के लिए जीता, बल्कि घिसटता ही रहता।

अपने मरे हुए पैरों पर मैं लटक गया, और पैर...? फिर बड़ी देर बाद यह पता चला कि पैर मुझे घसीटते हुए ब्रह्म सरोवर के पिछवाड़े ले जा रहे थे। बहुत-बहुत याद आ रहा था लाल लपटों में घिरा वह गुलमोहर का पेड़। जैसे पेड़ नहीं, आदमी हो।

एकाएक सिर में घुमेरी-सी उठी। आसपास के पेड़, पौधे, मंदिर, दीवारें सब गोल-गोल घूम रहे थे। लगा, गिरा—अब गिरा!

और सचमुच गिरा। गिरकर एक पत्थर से टकराया, माथा लहूलुहान! मुझे अपना शरीर काला और निर्जीव पड़ता दिखाई दे रहा था।

कुछ देर बाद होश आया। हाथ से माथे का रक्त पोंछ रहा था कि देखा, धूल में कुछ फूल थे, लाल-लाल दहकते हुए। ऊपर देखा तो जैसे मैं चिल्ला पड़ा होऊँ, “अरे गुलमोहर!”

तभी, बस तभी गुलमोहर के फूल लगे हँसने। लाल-लाल नुकीली हँसी। “पागल पागल पागल...तू भी पागल! वो नहीं तू पागल—पागल पागल पागल!”

लगा, यही तो दे गया है मुझे। गुस्से, गालियाँ, बुदबुदाहट की चिथड़ों भरी गठरी—उत्तराधिकार में!

होंठों में फुसफसाहट के साथ अजीब-से शब्द, अजीब-सी स्वर-धमनियों में निकलने लगते हैं। चीख की शक्ल में पैदा होती है कविता, “आह सुकरात! क्या तुम्हें मरना था, मेरे ही शहर, मेरी गली में...!”

**

5

यात्रा कहीं खत्म नहीं होती

प्रकाश मनु

*

गाड़ी चल पड़ी है, और गाड़ी के साथ वह भी। शायद वह नहीं, उसकी देह-मात्र। थकी, खंडित, बोझिल और भीतर की ओर मार करती हुई। लड़ाई से पहले ही पराजित और टूटी हुई देह। पर मन नहीं और मन के भीतर गहरे धँसीं, जोरदार ढंग से अपने होने का एहसास कराती दो आँखें नहीं। वे अभी वहीं हैं, स्टेशन पर।

वे जिन दो और आँखों को देख रही हैं, वे झुकी और उदास हैं। भीतर ही कुछ खोजती, पलटती हुई। कुछ कहना चाहती हैं, पर विवश हैं। शायद वे अपनी बात अपने, बिलकुल अपने ढंग से कहना चाहती हैं। पर इतने लोगों की भीड़ देखकर असमंजस में हैं, हताश और चुप हैं।

गाड़ी चली जा रही है और स्टेशन अब लगभग छूटने को है। वह दरवाजे पर खड़ा होकर बाहर देखने लगता है।...

शुभा अभी भी बेंच पर उसी तरह बैठी है। थकी और उदास। उसका मन बुझने, नहीं—अजीब तरह से सनसनाने लगता है। रक्त के भीतर कुछ जलता हुआ-सा, फट पड़ता-सा!

उसे लगता है, पाँवों के पास अभी कोई काँच का गुलदस्ता टूटा है जिसकी अशुभ, निर्मम आवाज और किरचें शरीर के भीतर रेंगने लगी हैं। काले, डरावने और लहरीले साँपों की तरह।...उसे अपने हाथ, पाँव, सारा शरीर चोटिल महसूस होता है, थरथराता हुआ। उसे लगा कि वह गाड़ी से कूद जाए और शुभा से कह दे कि नहीं, उसे कहीं नहीं जाना। नहीं जाएगा वह घर और न घर वालों की मरजी से इंटरव्यू देने। अब उससे नहीं होता। नहीं देखी जाती रोज-रोज की हार। वह कुछ भी कर लेगा। कोई भी छोटी से छोटी नौकरी करके गुजारा कर लेगा, पर...

पर...स्टेशन छूटता चला जा रहा है और अब शुभा दिखाई नहीं दे रही है। भीतर विवशता, दीनता और प्रतिहिंसा बुरी तरह कोंचती है और वह तिलमिलाने लगता है।

2

गाड़ी चली जा रही है और गाड़ी के साथ वह। वह रास्ते के तजी से भागते हुए पेड़ों, खेतों, झाड़-झंखाड़, ऊबड़-खाबड़ टीलों और अपनी मस्ती में सही मायनों में आजाद चिडिय़ों और गिद्धों पर कसके निगाहें जमाए खड़ा है। पूरी ताकत के साथ, कि जैसे इनमें कुछ मिलेगा जो खो गया है, हँसकर अचानक बिखर गया है। उसका सुख-चैन, उसकी शक्ति, उसकी शांति...सब कुछ। कितनी कड़वाहट भर गई है उसके भीतर, कितनी बेचैन छटपटाहट? और उसका आक्रोश जो कहीं और टकरा नहीं पाता, लौटकर उसी के टुकड़े-टुकड़े करके बिखेर देना चाहता है, धूल में, हवा में...!

पेड़ों की पत्तियाँ अचानक हिलती हैं और वह बुरी तरह चौंक जाता है। “शुभ...शुभ...!” उसके मुँह से निकलते-निकलते रह जाता है। पेड़ों की हिलती पत्तियों में उसे अभी शुभा दिखाई दी थी। हँसती हुई। हाथ हिलाती हुई। पास आती हुई। और यहाँ—माथे पर, जहाँ उसने छुआ था, उसे अपने बाल उड़ते-सरसराते हुए लगे।

...तो क्या शुभा आई थी यहाँ? यहाँ कैसे!

नहीं, वह तो स्टेशन पर थी। वहाँ भीड़ की नजरों से अपनी उदासी और बेचैनी को बचाती हुई वह उठी होगी और उस लाल शर्ट पहने चालू-से दिखने वाले लड़के से—जो देर से उसे अकेला पाकर घूर रहा था, बचती-बचाती हुई घर गई होगी। घर वालों की नजरों से बचकर बिस्तर तक चली गई होगी। अँधेरे के खिलाफ जलती हुई आँखों से एक अजीब विडंबना को समझने-परखने की कोशिश कर रही होगी।

काश! वह शुभा को अपने साथ घर ले जा सकता। अपना, बिलकुल अपना बनाकर। कहता माँ से कि माँ देखो, देखो इसे, इसमें कोई खोट नहीं है, कोई बनावट नहीं। कोई चालाकी, कोई स्वार्थ नहीं। बिलकुल वैसी है जैसी तुम्हारी दूसरी बहुएँ हैं, दीदी हैं, बल्कि जैसी तुम हो...तुम खुद! और जैसा तुम्हारा यह बेटा है जिसे तुम लाड़ला कहती हो। काश, यह सब स्वप्न न रहता, यह सब हो सकता होता। पर...

पर क्या गलत है इसमें? क्यों नहीं हो सकता यह? कौन इसके लिए जिम्मेदार है? वह सोच नहीं पाता। बस, मनहूसियत के खोल के भीतर लटक जाता है और खुद को उधेड़ने लगता है...

3

जीवन में कितना लुटा-पिटा, अपमानित हुआ और हारा है वह। कितना कुछ खोया है उसने। कहाँ-कहाँ भटका है, अँधेरी और अँधेरी घाटियों में। विकृतियों के रक्त-मुख प्रेतों के बीच। चारों ओर स्वार्थों की भयानक सड़ाँध महसूस करता हुआ लगातार खत्म होता गया है वह। एक अजीब पथरायापन व्याप्त हो गया है उसके संपूर्ण अस्तित्व में। अक्सर वह अपने भीतर एक जहरीला धुआँ महसूस करता है, लगातार फैलता हुआ, जिसने उससे उसके बोध को, ‘स्व’ को छीन लिया है।

हालाँकि यह ठीक है कि आज वह पहले की तरह अकेला नहीं है। शुभा, उसकी शुभा है उसके साथ। एक-एक क्षण उसके साथ है वह, उसकी असफलताओं और मनोव्यथाओं में सांत्वना देती, धीरज बँधाती हुई। उसकी अंतर्वेदना को जीकर उसे जिंदगी का अर्थ देती हुई। उसने वह सब महसूस किया है, जाना है पहली बार—पूरी कृतज्ञता के साथ। पर अब उसके साथ ऐसी जिम्मेदारी भी तो है जिसे उसने जीवन में पहली बार महसूस किया है—कॅरियर! नहीं तो कॅरियर के बारे में, जीविका के बारे में, अपने निजी घर के बारे में कब सोचा था उसने। सोचता था, मुझे क्या करना है कुछ कमाकर, या...पैसा क्या चीज है मेरे लिए? बस, पढ़ने-लिखने, लोगों को पढ़ाने-समझाने में ही सारी उम्र निकाल दूँगा और दो रोटी का इंतजाम तो कहीं न कहीं हो ही जाएगा। इसलिए दुनियादारी का कुछ पता ही नहीं था उसे।

पर अब? अब वह अपने और शुभा के लिए एक छोटा-सा घर चाहता है। अब वह अपने भविष्य को नजदीक से देख रहा है। उलझनों के बीच से निकलने और जीने का उसे एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा है। ठीक-ठीक महसूस होने लगा कि इस बार टूटा तो टूट जाएगा। फिर कभी सँभल नहीं सकेगा और हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।

...और आज स्टेशन पर शुभा का उदास चेहरा याद करके उसका मन बुरी तरह टूटने लगा है। वह अपनी विवशता और दीनता के बारे में और अधिक कांशस हो गया है। उसने कहाँ लाकर पटक दिया है शुभा को? क्या इसी रोज-रोज की मानसिक तकलीफ के लिए वह उसे अपनी जिंदगी में लाना चाहता है।

4

यों आज सुबह तो काफी उत्साहित लग रही थी शुभा। बल्कि वही कुछ ढीला पड़ रहा था, “मुझसे परफार्मेंस कुछ ठीक नहीं बनेगा, शुभ। मैं पहले रिसर्च का काम पूरा कर लूँ। फिर इंटरव्यू को ठीक से फेस कर सकूँगा। वैसे भी कुछ भरोसा तो है नहीं। जाने किस-किस की सिफारिशें आई होंगी। कुछ नहीं होगा—बस वही चालाक मुद्राएँ, बोले सवाल। जाना और आना ही है, कोई फायदा नहीं।” उसने तर्क दिया था।

पर शुभा ने उसकी किसी बात को नहीं सुना था। एक ही बात वह बार-बार बदल-बदलकर कहती रही थी, “लेकिन...सोचो तो! हर्ज आखिर क्या है? तुम्हें सिर्फ वहाँ हो आना है। तुम यह सोचो ही नहीं कि तुम्हारा वहाँ सेलेक्शन हो सकता है। उम्मीद लेकर जाओ ही नहीं। तब निराशा नहीं होगी। फिर घर वालों ने कितने आग्रह से लिखा है पत्र। अविनाश, उनका ख्याल तो तुम्हें करना चाहिए, अगर मेरा नहीं...”

“तुम्हारा क्यों नहीं? क्या कहती हो शुभ?” वह बेहद संजीदा हो आया था। स्वर काँपने लगा था उसका।

“अरे, मैं तो वैसे ही कह रही थी और तुम...? वाह जी, प्रतिभा-पुरुष!” शुभा अचानक हँस दी थी।

प्रतिभा-पुरुष!...

शुभा के पास उसका मजाक उड़ाने का और प्रशंसा का भी, बस यही एक सटीक संबोधन था।

फिर उसने भी सोचा था कि शायद उसी की बात ठीक हो। शायद वह अपने इंटरव्यू से लोगों को प्रभावित कर सके। शायद बिना सिफारिश के ही सेलेक्शन हो। शायद भाग्य जैसी कोई चीज उसके जीवन में भी हो, शायद कुछ हो ही जाए। और अगर हो जाता है तो...? तो कितना कुछ बदल जाएगा एक क्षण में। मात्र एक क्षण में वह उखड़े हुए पत्थर की जगह आदमी हो जाएगा। जीता-जागता, महसूसता हुआ...और कभी-कभी हँसता हुआ भी। आज की तरह नहीं कि उसका हँसना रोने से भी अधिक दीन और बदतर है।...फिर वह शुभा को साथ लेकर जाएगा। वे विवाह कर लेंगे। उनका एक छोटा-सा घर होगा, उनके अपने सुख और तृप्ति से छलछलाता हुआ।...

और उसने तय किया कि वह जाएगा। इसलिए नहीं कि अब उसे उम्मीद हो आई थी, बल्कि इसलिए कि बाद में अवसर खो देने की ग्लानि और पश्चात्ताप न हो। वह आगरा जाएगा, इंटरव्यू देगा और इसी बहाने घर वालों से और माँ से मिलकर लौट आएगा।

उसने हाँ कर दी थी। और इस ‘हाँ’ में स्वप्न सँजोने का एक और अवसर हाथ में आता देख, शुभा खुश हो गई थी।

फिर वे पैदल घूमते हुए ब्रह्म सरोवर पर आए थे। वही ब्रह्म सरोवर जिसे खुशनुमा पलों में वहाँ टहलते हुए वे ‘शहर का दिल’ कहा करते थे।

उसने हौले से शुभा का हाथ पकड़ लिया था। दूर तक वे हाथ पकड़े हुए साथ-साथ चलते जा रहे थे। विचित्र-सी तृप्ति और आत्मगौरव से भरे हुए। सामने सरोवर के पानी पर एक लय में तैरते हुए जलविहगों की क्रीड़ा और गर्व जैसे उनमें सिमट आया हो। फिर उसने अचानक शुभा को पास सटा लिया था। उसका माथा चूम लिया था और...और खड़ा रहा था। फिर जैसे कुछ नहीं रहा था, एक अपार्थिव अस्तित्व-तरंग के सिवा। जैसे जीवन की सारी पहचानें और छवियाँ उसके भीतर व्याप गई हों।

“हम विवाह करेंगे। जरूर करेंगे।...कर लेंगे न?” शुभा ने आवेश में उसके कंधे पकड़कर हिला दिए और जलती हुई आशा से आँखों में झाँका था।

“हाँ!” अंदर की घनीभूत उत्तेजना की वजह से उससे कुछ भी नहीं बोला गया था।

“कोई नहीं रोक सकता हमें, कोई नहीं। कोई बीच में नहीं आ सकता, कोई हमें दूर नहीं कर सकता।”

“तुम्हें भी लगता है न अविनाश...मेरा मतलब है, पूरी तरह से!” शुभा लगभग चिल्ला पड़ी थी।

“हाँ शुभा, हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। मैं बहुत भावुक होकर नहीं कह रहा। मैं सोच नहीं पा रहा, लेकिन मैं देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ कि...हम दो नहीं, एक हैं। हम एक-दूसरे की संपूर्णता हैं, किसी बड़े निमित्त के लिए। सृष्टि का कोई गहरा अर्थ थाहने के लिए हमारा साथ है।” अपनी उत्तेजना पर काबू पाने के लिए उसे बेहद शक्ति लगानी पड़ रही थी।

“यह तुम कह रहे हो, अविनाश तुम—यह ठीक है न? यह सच है न! साक्षी है सूरज, साक्षी है आकाश, साक्षी है जल!” उसने कहा तो लगा जैसे ऋग्वेद की कोई ऋचा दोहराई हो।

फिर शुभा उसे सरोवर के मध्य बने मंदिर में ले गई थी। वहाँ उसने अविनाश से हाथ जोड़ने के लिए कहा था और खुद आँखें बंद करके थरथराते होंठों से पूजा के कुछ श्लोक पढ़े थे। वह अधमुँदी पलकों से अचानक रहस्यमय हो आए उस वातावरण को देखता रहा।

“कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेंद्रहारं, सदावसंतं हृदयारविंदे भवम् भवानीसहितं नमामि...!” लहरों की तरह हिलोरें लेता हुआ एक-एक शब्द उसे कहीं और...कहीं और ले जा रहा था। उसकी आँखें मुँदती चली गई थीं। अचानक वह चौंका था। शुभा उसके पैरों पर झुक आई थी, हाथों से उसके पैरों को छूकर वह अब उन्हें माथे से लगा रही थी। कि...त...ना...छोटा महसूस किया था उसने। इतना बड़ा सम्मान! क्या वह इसके योग्य है?

अचानक दिल में बहुत तेजी से कुछ उमड़ने लगा था, बाहर फूट निकलने के लिए। उसने बहुत रोका, पर आँखें छलछला आईं।

5

छक्-छक् छक्छक्...छक्छक्छक्...! गाड़ी चल रही है, चलती जा रही है। ऊपर से देखने पर सीधी-सपाट, लेकिन भीतर बेतरतीब अनियंत्रित आवेश दबाए। फौलादी पहियों से वक्त की रीढ़ पर गहरी अग्नि-रेखाएँ खींचती हुई। और इसके साथ तरह-तरह की शक्ल और आकारों के पेड़। खेत। झाड़-झंखाड़। अपनी संवेदना की धुकधुकी छिपाए सपाट टीले और उनके दुख-दर्द की कथाएँ बाँचती चिडिय़ाँ। सब जैसे मिलकर जीवन की अक्षुण्ण कहानी, अनजानी संवेदना को आकार देना चाहते हैं। जैसे किसी एक की वेदना किसी सीमा पर आकर किसी एक की नहीं रह जाती। मनुष्य मात्र की पिघलती हुई संवेदना, कोंचता हुआ सवाल बन जाती है।

—उफ, कितनी मुश्किल से काटे हैं ये दिन उन्होंने? यूनिवर्सिटी के चुस्त, भड़कीले ‘लिबासों’ की शोख फे्रंडशिप और फैशनेबल मुसकराहटों के बीच एक जोड़ा उनका भी था। बेहद सादा, सीधा और निरीह। शुभा अक्सर किसी साधारण, बदरंग सलवार-कमीज में होती और वह ढीली-ढाली पैंट पर मैला, लंबा-सा कुरता लटकाए साथ-साथ चल रहा होता। अक्सर ही सबकी निगाहों में, सबके मजाक भरे स्वर में वे उभरते। कितने अजीब हैं ये? लोगों की निगाहों में एक अजीब-सा व्यंग्य मुसकराता—नागफनी के नुकीले काँटों की तरह। और वे चप्पलें फटकारतेे हुए परेशान से गुजर जाते।

शुभा के घर कुछ रुक-रुककर शादी की बातचीत चल पड़ती। विरोध करते-करते वह उद्विग्न और उन्मत्त तक हो जाती। “मुझे नहीं करनी शादी। अभी नहीं करनी!” वह जोरों से प्रतिवाद करती। लेकिन कुछ भी घर पर बता नहीं सकती थी और न उन्हें उसके लिए पति तलाश करने की निरंतर कोशिशों से विरत कर सकती थी। अगले दिन डिपार्टमेंट में आते ही वह फूट-फूटकर रोने लगती। उसे सहारा देते-देते वह खुद बेचैन हो जाता।

वह समझ नहीं पा रहा था, क्या करे, किससे कहे! किस सहारे पर शुरू करे जीवन? एक छोटी और मामूली शुरुआत तक नहीं कर सकता वह। कहीं पैर रखने को भी जगह नहीं। अभावों के प्रचंड आकाश के नीचे सख्त दोपहर में, इतने अंगारे हैं पैरों के नीचे...कि इस झुलसते हुए दाह को अब और बर्दाश्त कर पाना नामुकिन है।

लेकिन...रास्ता?

6

कैंट...! आगरा...आगरा कैंट!!

आगरा कैंट स्टेशन आ गया है। वह खुद को और कंधों पर लटके थैले के बोझ को अनचाहे खींचता हुआ, रिक्शा पर बैठ जाता है। सर्दी की ठिठुरन हड्डियों तक को कँपा रही है। फिर भी थैले से स्वेटर निकालकर पहनने का मन नहीं होता।

घर पहुँचने पर वह अपराधी जैसे भाव से उतरता है रिक्शे से। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। पर आज वह चाहकर भी एक अबूझे द्वंद्व से निकल नहीं पा रहा है। अपने घर आकर भी उसे लग रहा है कि किसी बेगाने घर आया है, दो-तीन दिन रुकने के लिए और यहाँ उसका कोई हक नहीं है। कोई उसे समझने वाला नहीं है। वह अपनी भाषा बाहर भूल आया है और गूँगा होकर घर में दाखिल हो रहा है। उसकी संवेदनशीलता, स्नेह, समझदारी सभी उसे छोड़कर जड़ बना गए हैं।

उसने दरवाजा खटखटाया। एक बार, फिर दूसरी बार। भीतर वाले कमरे की बत्ती जली है। फिर कदमों की आवाज। जरूर पिता जी ही हैं। दरवाजे के पास आकर वे पूछते हैं, “कौन...?”

“मैं, अविनाश...!” उसे लगा, शब्द उसके गले में फँस गए हैं।

पिता जी दरवाजा खोलते हैं तो वह हड़बड़ाकर पैर छू लेता है। पिता जी हमेशा की तरह प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। किस गाड़ी से आए हो? कोई तकलीफ तो नहीं हुई? हर बार की तरह पूछते हैं। हर बार की तरह ये सवाल ताजे और जीवंत लगते हैं जिनमें ऊपरी सपाटता के भीतर दिल की गहन ऊष्मा छलछलाती है।...पर इस बार न जाने क्यों उसे कोई जवाब नहीं मिल पा रहा।

माँ पहले की तरह उसे छाती से चिपका लेती हैं, उसका सिर चूमती हैं और देर तक ‘हे शुकरे, हे शुकरे’ (ईश्वर का शुक्र है!) कहकर उसकी पीठ पर हाथ फेरती हैं। उसे अपने साथ ही भीतर रजाई में लेकर माथा थपथपाने लगती हैं। वह भीतर से पिघलने लगता है—आह! वह माँ तक से कितना कुछ छिपा रहा है, नहीं बता सकता कि...!

वह जोर लगाकर अपने भीतर उमड़ते हुए इस तूफान को तोड़ देना चाहता है। इसलिए आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगता है। माँ खाना बनाने के लिए उठती हैं, तो वह औपचारिक ढंग से रोकता है, “भूख नहीं है माँ, मथुरा स्टेशन पर पूडिय़ाँ खा ली थीं।”

“क्यों?...ए वी कोई गल्ल ए!” माँ डाँटती सी हैं।

फिर रसोईघर में स्टोव जलता है, बरतन खड़कते हैं। पहले की तरह। माँ खाना बनाकर ले आती हैं। खाना खाते-खाते साथ में चाय भी—पहले की ही तरह।

माँ उसकी यह आदत भूली नहीं हैं।

खाने के बीच माँ के ढेरों सवाल। वहाँ किस तरह रहता है, खुश और स्वस्थ रहता है कि नहीं। कपड़े कभी-कभी धो लेता है या नहीं। बाल तब से क्या एक बार भी नहीं बनवाए? नहाता तो रोज है न और आरती भी करता है क्या? चेहरा कैसा पीला पड़ गया है। नाश्ते में क्या लेता है, रोज रात को दूध लेने की उनकी आज्ञा में कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई...और इसी तरह की दूसरी चीजें। वह हाँ-हूँ में किसी तरह जवाब देता है।

“के गल्ले ऐ...बिमार रियाँ एँ?” माँ उसकी उदासीनता ताड़ लेती हैं और अंदर तक पहुँचना चाहती हैं—पहले की तरह।

“न...न, बिलकुल ठीक।” वह हँसने की कोशिश करता है। हँस नहीं पाता।

“वाह, बीमार ताँ हैं ईं, मुँह वेख नाँ किवें हो गया है, पीला परत। हुण मैं पूरे महीने जाण नईं देणा। खवा-खवा के तगड़ा बणा के भेजाँगी।” माँ उमड़ते हुए स्नेह से कहती हैं और पास बैठकर माथा दबाने लगती हैं।

वह न जाने कब सो जाता है।

7

अगले दिन वह इंटरव्यू के लिए गया तो वहाँ पहले से एक लंबी कतार थी। लगभग बीस लोग थे। वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाता है और सबके चेहरे पढ़ने की कोशिश करने लगता है। सबके चेहरे जिस ढंग से उड़े हुए और बदरंग हैं, उससे उसे अजीब-सी दहशत, करुणा, दया, पता नहीं क्या-क्या महसूस होता है। कभी वह एकदम नर्वस हो जाता, कभी प्रतियोगिता के भाव से उद्धत और उत्साहित और कभी-कभी हिंसक भी।

कभी लगता, इतने लोग निराश और खाली हाथ लौटेंगे। उनमें वह हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है? इनमें हर किसी का एक अपना संपूर्ण संसार है, एक व्यथा, एक निजी दुख है, जैसा उसका है। पर एक का दुख दूसरे के लिए निरर्थक, उपेक्षणीय! और दुनिया ऐसे ही चलती है।

“अविनाश अरोड़ा...!” उसका नाम बुलाया जाता है और वह खुद को चार-छह चिढ़े हुए, चालाक चेहरों के सामने कुर्सी पर बैठा हुआ पाता है।

“अपने जगूड़ी को तो पढ़ा होगा?” उसके रिसर्च का टॉपिक जानकर एक चेहरा इंटरव्यू की टोन में पूछता है।

“बहुत अच्छी तरह।”

“आपने जगूड़ी की ये लाइनें पढ़ी हैं, आमाशय, यौनाशय, गर्भाशय...!”

“महाशय, ये जगूड़ी की नहीं, कुँवरनारायण की पंक्तियाँ हैं।” वह सुधार देता है, एक चुनौतीभरे आक्रामक लहजे में। फिर किसी की पूछने की हिम्मत नहीं होती। हेड झिझकते हुए ‘छायावाद का अर्थ’ एक्सप्लेन करने के लिए कहता है। बता चुकने के बाद एक मिनट का मौन। अब प्रिंसिपल का नंबर है।

“यह आप दाढ़ी क्यों रखे हैं जी? अनौपचारिक-सा सवाल है। बुरा नहीं मानिएगा।” वह मुसकराते हुए कहता है।

“बस, यों ही। अच्छा लगता है, यही समझिए।”

“आप क्या कम्युनिस्ट है?”

“जी, नहीं।”

“तो...?”

“तो क्या?”

“कुछ नहीं। मैं तो यों ही जरा बस पूछ रहा था।”

वह गुस्से और उत्तेजना में उठकर बाहर आता है। फिर बिना रुके घर चला

आता है।

8

अब सारा दिन उसके पास खाली है। पर वह किसी दोस्त के पास नहीं जाता। दो-चार किताबें लेकर ऊपर वाले कमरे में बंद हो जाता है। कुछ देर बाद उठकर बिना बात कमरे में घूमने लगता है वह। उसे अपने साथ-साथ कमरा घूमता हुआ लग रहा है। लगता है, माथे की नसें फट पड़ेंगी और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ेगा।

थककर वह कुर्सी खींच लेता है। बार-बार शुभा सामने आ जाती है, कभी उदास, बुझी हुई, झुकी हुई आँखें। कभी हँसती, उत्सुकता से देखती और जल्दी-जल्दी आगे बढ़ती हुई। क्या कहेगा वह उससे? कैसे आगे जाने के लिए उत्साह जुटा पाएगा? दोनों कैसे एक-दूसरे को फेस करेंगे? थरथराते हुए पास आएँगे, एक मजबूरी से बँधे, न रोने को मजबूर। कौन किसको सांत्वना देगा? कैसे कहेंगे, किस भरोसे पर कि नहीं, नहीं, हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। कोई हमें दूर नहीं कर सकता! वह नहीं छीन सकता कि जो मणि है, अर्थ है, जिजीविषा!

शुभा का उदास चेहरा। चेहरा पर बिखरे हुए बाल। वह खुद में डूबती जा रही है, जैसे दूर जा रही है—घुल रही है हवा में! नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता।

इच्छा हुई, बहुत तेज इच्छा—कि माँ से कह दे सारी बातें साफ-साफ। रो-रोकर, पैरों पर पड़कर मनवा ले, कह दे कि माँ मुझमें और इसमें अब कोई फर्क नहीं है। मुझे मानती हो तो इसे भी स्वीकार कर लो माँ!

पर फिर माँ का चेहरा...?

पिछली बार उसके मुँह से निकल ही गया था, “माँ, शुभा वहाँ मेरा ख्याल रखती है, साथ ही रिसर्च कर रही है।” माँ ने उत्सुकता से सुना था, पर वह ब्राह्मण है, सुनते ही उनके चेहरे का रंग बदल गया था। कोई बेहद सख्त भाव आँखों में आ गया था और...और...

9

खिड़की के पीछे से फिर झाँकती है शुभा, आँखें उठाकर देखती है। वे आँखें गीली हैं। फिर भी वे उसे सांत्वना देती हैं, “जिंदगी बहुत बड़ी है अविनाश, कुछ न कुछ जरूर होगा।”

और फिर—“साक्षी है सूरज, साक्षी है आकाश, साक्षी है जल...! तुम बस आ जाओ, प्रसन्न और स्वस्थ। मैं तुम्हें अंक में ले लूँगी, पूरी सामर्थ्य दूँगी, शक्ति दूँगी! तुम अगली बार और अच्छी तरह खुद को एक्सप्रेस कर सकोगे। अभी तुम आकर आराम से रिसर्च का काम करो।”

वह किताबें समेटता है और अटैची में मुड़े-तुड़े कपड़े और किताबें भर लेता है। पाँवों में चप्पल पहनकर अटैची लिए नीचे आ जाता है।

“माँ, आज ही जाना है, वहाँ जाकर काम करना है।” वह काँपती हुई आवाज में कहता है। इससे पहले कि माँ कुछ कहें, वह जल्दी से बात आगे बढ़ाता है, “अगली बार जल्दी आऊँगा और काफी दिनों के लिए। तुम चिंता न करो माँ। मैं वहाँ अच्छी तरह हूँ। थोड़ा सा पढ़ना-लिखना और खूब खाना-पीना, सोना। कोई किसी किस्म का दुख तो है नहीं।” वह फीकी हँसी के साथ बात खत्म करता है और आँखों को दूसरी तरफ फेर लेता है।

“वहाँ भी मेरी एक संरक्षिका है माँ, तुम्हारी प्रतिनिधि। तुम्हारी करुणा है उसमें। मुझे वह टूटने नहीं देगी!” यह बात वह कह नहीं सकता था, नहीं कह पाया।

10

छुटकू रिक्शा ले आया है। वह एक बार मुड़कर आद्र्र नजरों से घर को देखता है। फिर माँ की गहरी स्नेहिल, पनीली आँखों से बचता हुआ चोरी से उनका चेहरा देखता है और प्रणाम करके चलने लगता है।...

अचानक उसे याद आता है कि शुभा ने कहा था, मेरी तरफ से माँ के पाँव जरूर छू लेना। वह लौटता है और दुबारा माँ के पाँव छू लेता है। माँ कुछ नहीं समझतीं, कुछ नहीं कहतीं सिवाय इसके कि सेहत का ख्याल रखूँ, इस बार दुबला होकर आया हूँ इसलिए दूध जरूर पीता रहूँ। माँ डबडबाई आँखों से विदा करती हैं, रिक्शे पर बैठाकर पीठ पर हाथ फेरती हैं।

उसने अपने होंठों को भींच लिया है, दोनों हाथों को कस लिया है—पूरी ताकत से। जैसे भीतर का अवसाद जो तेज दबाव के साथ फट पड़ना चाहता है, इससे रुक जाएगा। दोनों हाथ आपस में उलझ गए हैं और उँगलियाँ चरमरा पड़ना चाहती हैं। रिक्शा रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा है।

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