जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
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अनुक्रम
१.ग्राम
२.गूदड़ साइर्ं
३.गुदड़ी में लाल
४.शरणागत
५.रसिया बालम
६.मदन-मृणालिनी
७.सिकन्दर की शपथ
८.जहाँनारा
९.खंड़हर की लिपि
१०.पाप की पराजय
११.सहयोग
१२.प्रतिध्वनि
१३.आकाशदीप
१४.आँधी
१५.चूड़ीवाली
१६.बिसाती
१७.घीसू
१८.छोटा जादूगर
१९.अनबोला
२०.अमिट स्मृति
२१.विराम-चिह्न
२२.व्रत-भंग
२३.पुरस्कार
२४.इन्द्रजाल
२५.सलीम
२६.नूरी
२७.गुण्डा
१. ग्राम
टन! टन! टन! स्टेशन पर घण्डी बोली।
श्रावण-मास की संध्या भी कैसी मनोहारिणी होती है। मेघ-माला-विभूषित गगन की छाया सघन रसाल-कानन में पड़ रही है! अँधियारीधीरे-धीरे अपना अधिकार पूर्व-गगन में जमाती हुई सुशासनकारिणीमहारानी के समान, विहंग प्रजागण को सुखनिकेतन में शयन करने कीआज्ञा दे रही है। आकाशरूपी शासन-पत्र पर प्रकृति के हस्ताक्षर के समानबिजली की रेखा दिङाई पड़ती है... ग्राम्य स्टेशन पर कहीं एक-दोदीपालोक दिखाई पड़ता है। पवन हरे-हरे निकुंजों में से भ्रमण करता हुईझिल्ली के झनकार के साथ भरी हुई झीलों में लहरों के साथ खेल रहाहै। बुँदियाँ धीरे-धीरे गिर रही हैं, जो जूही कलियों को आर्द करके पवनको भी शीतल कर रही हैं।
थोड़े समय में वर्षा बन्द हो गई। अँधकार-रूपी अंजन केअग्रभाग-स्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिए हुएचन्द्रदेव प्राची में हरे-हरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभादिखाने लगे। पवन की सनसनाहट के साथ रेलगाड़ी का शब्द सुनाई पड़नेलगा। सिग्न ने अपना कार्य किया। घण्टा का शब्द उस हरेभरे मैदान मेंगूँजने लगा। यात्री लोग अपनी गठरी बाँधते हुए स्टेशन पर पहुँचे।
महादैत्य के लाल-लाल नेत्रों के समान अंजन-गिरिनिभ इंजिन का अग्रस्थितरक्तआलोक दिखाई देने लगा। पागलों के समान बड़बड़ती हुई अपनी धुनकी पक्की रेलगाड़ी स्टेशन पहुँच गई। धड़ाधड़ यात्री लोग उतरने-चढ़नेलगे। एक स्त्री की ओर देखकर फाटक के बाहर खड़ी हुई दो औरतें,जो उसकी सहेली मालूम देती हैं, रो रही हैं, और वह स्त्री एक मनुष्यके साथ रेल में बैठने को उद्यत है। उनकी क्रन्दन-ध्वनि से वह स्त्री दीन-भाव से उनकी ओर देखती हुई, बिना समझे हुए, सेकण्ड क्लास की गाड़ीमें चढ़ने लगी; पर उसमें बैठे हुए बाबू साहब - ‘यह दूसरा दर्जा है,इसमें मत चढ़ो’ कहते हुे उतर पड़े, और अपना हण्टर घुमाते हुए स्टेशनसे बाहर होने का उद्योग करने लगे।
विलायती पिक का वृचिस पहने, बूट चढ़ाए, हण्टिग कोट, धानीरंग का साफा, अंग्रेज़ी-हिन्दुस्तानी का महासम्मेलन बाबू साहब के अंग परदिखाई पड़ रहा है। गौर वर्णन, उन्नत ललाट-उनकी आभा को बढ़ा रहेहैं। स्टेशन मास्टर से सामना होते ही शेकहैंड करने के उपरारन्त बाबू साहबसे बातचीत होने लगी।
स्टेशन मास्टर - आप इस वक्त कहाँ से आ रहे हैं?
मोहनलाल - कारिन्दों ने इलाके में बड़ा गड़बड़ मचा रक्खा है,इसलिए मैं कुसुमपुर - जो हमारा इलाका है - इंस्पेक्शन के लिए जारहा हूँ।
स्टेशन मास्टर - फिर कब पलटियेगा?
मोहनलाल - दो रोज में। अच्छा, गुड ईवनिंग!
स्टेशन मास्टर, जो लाइन-क्लियर दे चुके थे, गुड ईवनिंग करतेहुए अपने ऑफिस में घुस गए।
बाबू मोहनलाल अंग्रेज़ी काठी से सजे हुए घोड़े पर, जो पूर्व हीस्टेशन पर खड़ा था, सवार होकर चलते हुए।
सरल स्वभाव ग्रामवासिनी कुलकामिनीगण का सुमधुर संगीत धीरे-धीरे आम्रकानन में से निकलकर चारों ओर गूँज रहा है। अँधकार गगनमें जुगनू-तारे चमक-चमकर चि्रूद्गा को चंचल कर रहे हैं। ग्रामीण लोगअपना हल कन्धे पर रखे, बिरहा गाते हुए, बैलों की जोड़ी के साथ,घर की ओर प्रत्यावर्तन कर रहे हैं।
एक विशाल तरुवर की शाखा में झूला पड़ा हुआ है, उस पर चारमहिलाएँ बैठी हैं ओर पचासों उनको घेरकर गाती हुई घूम रही हैं। झूलेके पेंग के साथ ‘अबकी सावन सइयाँ घर रहु रे’ की सुरीली पचासोंकोकिल कण्ठ से निकली हुई तान पशुगणोंको भी मोहित कर रही हैं।
बालिकाएँ स्वच्छन्द भाव से क्रीड़ा कर रही हैं। अकस्मात् अश्व के पदशब्द ने उन सरला कामिनियों को चौंका दिया। वे सब देखती हैं, तो हमारेपूर्व-परिचित बाबू मोहनलाल घोड़े को रोककर उस पर से उतर रहे हैं।
वे सब उनका भेष देखकर घबड़ा गइर्ं और आपस में कुछ इंगित करकेचुप रह गइर्ं।
बाबू मोहनलाल ने निस्तब्धता को भंग किया और बोले - भद्रे!यहाँ से कुसुमपुर कितनी दूर है? और किधर से जाना होगा? एक प्रौढ़ाने सोचा कि ‘भद्रे’ कोई परिहास शब्द तो नहीं है, पर वह कुछ कहन सकी, केवल एक ओर दिखाकर बोली - यहाँ से डेढ़ कोस तो बाय,इहै पैंड़वा जाई।
बाबू मोहनलाल उसी पगडण्डी से चले। चलते-चलते उन्हें भ्रम होगया और वह अपनी छावनी का पथ छोड़कर दूसरे मार्ग से आने लगे।
मेघ घिर आए, जल वेग से बरसने लगा, अँधकार और घना हो गया।
भटकते-भटकते वह एक खेत के समीप पहुँचे; वहाँ उस हरे-भरे खेत मेंएक ऊँचा और बड़ा मचान था, जो कि फूस से छाया हुआ था औरसमीप ही में एक छोटा-सा बच्चा मकान था।
उस मचान पर बालक और बालिकाएँ बैठी हुइर्ं कोलाहल मचा रहीथीं। जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनकेआनन्द-कलरव को श्रवण करने लगे।
भ्रान्त होने से उन्हें बहुत समय व्यीत हो गया। रात्रि अधिक बीतगई। कहाँ ठहरें? इसी विचार में खड़े रहे, बूँदें कम हो गइर्ं। इतने मेंएक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिए हुएउसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी।
बालिका की अवस्था १५ वर्ष की थी। आलोक से उसका अंगअँधकार घन में बिद्युल्लेखा की तरह चमक रहा था। यद्यपि दरिद्रता नेउसे मलिन कर रखा है, पर ईश्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपनानिवास किए हुए है। मोहनलाल ने घोड़ा बढ़ाकर उससे कुछ पूछना चाहा,
पर संकुचित होकर ठिठक गए, परन्तु पूछे के अतिरिक्त दूसरा उपाय हीनहीं था। अस्तु, रूखेपन के साथ पूछा - कुसुमपुर का रास्ता किधर है?
बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली- मैं नहीं जानती। ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने ये शब्दकहे कि युवक को क्रोध के साथ पर हँसी आ गई और कहने लगा -तो जो जानता हो, मुझे बतलाओ, मैं उससे पूछ लूँगा।
बालिका - हमारी माता जानती होंगी।
मोहनलाल - इस समय तुम कहाँ जाती हो?
बालिका - (मचान की ओर दिखाकर) वहाँ जो कई लड़के हैं,उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूँ।
मोहनलाल - बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठा है?
बालिका - वह रात-भर और लड़कों के साथ खेत ही में रहताहै।
मोहनलाल - तुम्हारी माँ कहाँ है?
बालिका - चलिए, मैं लिवा चलती हूँ।
इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गई और उसको खिलाकरतथा उसके पास बैठे हुए बालकों को भी कुछ देकर उसी क्षुद्र-कुरीराभिमुखगमन करने लगी। मोहनलाल उस सरला बालिका के पीछे चले।
उस क्षुद्र कुटीर में पहुँचने पर एक स्त्री मोहनलाल को दिखाई पड़ी,जिसकी अंगप्रभा स्वर्ण-तुल्य थी, तेजोमय मुख-मुण्डल तथा ईषत् उन्नतअधर अभिमान से भरे हुए थे, अवस्था उसकी ५० वर्ष से अधिक थी।
मोहनलाल की आन्तरिक अवस्था, जो ग्राम्य जीवन देखने से कुछ बदलचुकी थी, उस सरल-गम्भीर-तेजोमय मूर्ति को देख और भी सरलविनययुक्त हो गई। उसनेन झुककर प्रणाम किया। स्त्री ने आशीर्वाद दियाऔर पूछा - बेटा! कहाँ से आते हो?
मोहनलाल -मैं कुसुमपुर जाता था, किन्तु रास्ता भूल गया...।
‘कुसुमपुर’ का नाम सुनते ही स्त्री का मुख-मण्डल आरक्तिम होगया और उसके नेत्रों से दो बूँद आँसू निकल आए। अश्रु करुणा के नहीं,किन्तु अभिमान के थे।
मोहनलाल आश्चर्यान्वित होकर देख रहे थे। उन्होंने पूछा - आपकोकुसुमपुर के नाम से क्षोभ क्यों हुआ?
स्त्री - बेटा! उसकी बड़ी कथा है, तुतम सुनकर क्या करोगे?
मोहनलाल - नहीं, मैं सुनना चाहता हूँ यदि आप कृपा करकेसुनावें।
स्त्री - अच्छा, कुछ जलपान कर लो, तब सुनाऊँगी।
पुनः बालिका की ओर देखकर स्त्री ने कहा - कुछ जल पीने कोले आओ।
आज्ञा पाते ही बालिका उस क्षुद्र गृह के एक मिट्टी के बर्तन मेंसे कुछ वस्तु निकाल, उसे एक पात्र में घोलकर ले आई और मोहनलालकेसामने रख दिया। मोहनलाल उस शर्बत को पान करके फूस की चटाईपर बैठकर स्त्री की कथा सुने लगे।
स्त्री कहने लगी - हमारे पति इस प्रान्त के गण्य भूमिस्वामी थेऔर वंश भी हम लोगों का बहुत अच्छा था। जिस गाँव का अभी आपनेनाम लिया है, वहीं हमारे पति की प्रधान जमींदारी थी। कार्यवशकुन्दनलाल नामक एक महाजन से कुछ ॠ लिया गया। कुछ भी विचारन करने से उसका बहुत रुपया बढ़ गया और जब ऐसी अवस्था पहुँचीतो अनेक उपाय करके हमारे पति धन जुटाकर उसके पास ले गए, तबउस धूर्त ने कहा - “क्या हर्ज है बाबू साहब! आप आठ रोज में आना,हम रुपया ले लेंगे, और जो घाटा होगा, उसे छोड़ देंगे, आपका इलाकाफिर जाएगा,इस समय रेहननामा भी नहीं मिल रहा है।” उसका विश्वासकरके हमारे पति फिर बैठे रहे और उसने कुछ भी न पूछा। उनकी उदारताके कारण वह संचित धन भी थड़ा हो गया, और उधर उसने दावा करकेइलाका... जो कि वह ले लेना चाहता था, बहुत थोड़े रुपयों मेंनीलाम करालिया। फिर हमारे पति के हृदय में, उस इलाके के इस भाँति निकल जानेके कारण, बहुत चोट पहुँची और इसीसे उनकी मृत्यु हो गई। इस दशाके होने के उपरान्त हम लोग इस दूसरे गाँव में आकर रहने लगीं। यहाँके जमींदार बहुत धर्मात्मा है, उन्होंने कुछ सामान्य ‘कर’ पर यह भूमिदी है, इसी से अब हमारी जीविका है।...
इतना कहते-कहते स्त्री का गला अभिमान से भर आया और कुछकह न सकी।
स्त्री की कथा सुनकर मोहनलाल को बड़ा दुःख हुआ। रात विशेषबीत चुकी थी, अतः रात्रि-यापन करके, प्रभात में मलिन तथा पश्चिमगामीचन्द्र का अनुकरण करके, बताए हुए पथ से वह चले गए।
पर उनके मुख पर विषाद तथा लज्जा ने अधिकार कर लिया था।कारण यह था कि स्त्री की जमींदारी हरण करने वाले तथा उसके प्राणप्रियपति से उसे विच्छेद कराकर इस भाँति दुःख देने वाले कुन्दनलालमोहनलाल के ही पिता थे।
२. गुदड़ साइर्ँ
‘साइर्ँ! ओ साइर्ँ!!’ एक लड़के ने पुकारा। साइर्ँ घूम पड़ा। उसनेदेखा कि ८ वर्ष का बालक उसे पुकार रहा है।
आज कई दिन पर उस मोहल्ले में साइर्ँ दिखलाई पड़ा है। साइर्ँवैरागी था - माया नहीं, मोह नहीं, परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदतपड़ गई थी कि दोपहर को मोहन के घर जाता, अपने दो-तीन गूदड़यत्न से रखकर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभीमोहन उसे गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता कीनजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साइर्ँ के मुख परपवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गूदड़ साइर्ँ उस समयवर्ष के बालक खे समान अभिमामन, सराहना और उलाहना के आदानप्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटीउसकी अक्षय-तृह्रिश्वत का कारण होती।
एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वहथे कट्टर आर्यसमाजी। ढोंगी फकीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविकचिढ़ थी। मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे।
साइर्ँ हँस पड़ा, चला गया।
उसके बाद आज कई दिन पर साइर्ं आया और वह जान-बूझकरउस बालक के मकान की ओर नहीं गया; परन्तु पढ़कर लौटते हुए मोहनने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया।
‘मोहन!’
‘तुम आजकल आते नहीं?’
‘तुम्हारे बाबा बिगड़ते थे।’
‘नहीं, तुम रोटी ले जाया करो।’
‘भूख नहीं लगती।’
‘अच्छा, कल जरूर आना; भूलना मत!’
इतने में एक दूसरा लड़का साइर्ँ का गूदड़ खींचकर भागा। गूदड़लेने के लिए साइर्ं उस लड़के के पीछे दौड़ा। मोहन खड़ा देखता रहा,साइर्ं आँखों से ओझल हो गया।
चौराहे तक दौड़ते-दौड़ते साइर्ं को ठोकर लगी, वह गिर पड़ा। सिरसे खून बहने लगा। खिझाने के लिए जो लड़का उसका गूदड़ लेकर भागाथा, वह डर से ठिठका रहा। दूसरी ओर से मोहन के पिता ने उसे पकड़लिया, दूसरे हाथ से साइर्ं को पकड़कर उठाया। नटखट लड़के के सिरपर चपत पड़ने लगी; साइर्ं उठकर खड़ा हो गया।
‘मत मारो, मत मारो, चोट लगती होगी!’ साइर्ं ने कहा - औरलड़के को छुड़ाने लगा। मोहन के पिता ने साइर्ं से पूछा - ‘तब चीथड़ेके लिए दौड़ते क्यों थे?’
सिर फटने पर भी जिसको रूलाई नहीं आई थी, वह साइर्ं लड़केको रोते देखकर रोने लगा। उसने कहा - ‘बाबा, मेरे पास, दूसरी कौनवस्तु है, जिसे देकर इन ‘रामरूप’ भगवान् को प्रसन्न करता।’
‘तो क्या तुम इसीलिए गूदड़ रखते हो?’
‘इस चीथड़े को लेकर भागते हैं भगवान् और मैं उनसे लड़करछीन लेता हूँ; रखता हूँ फिर उन्हीं से छिनवाने के लिए, उनके मनोविनोदके लिए। सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों परभगवान् ही दया करते हैं!’ इतना कहकर बालक का मुँह पोंछते हुए मित्रके समान गलबाँही डाले हुए साइर्ं चला गया।
मोहन के पिता आश्चर्य से बोले - ‘गूदड़ साइर्ं! तुम निरे गूदड़नहीं; गुदड़ी के लाल हो!!’
३. गुदड़ी में लाल
दीर्घ निश्वासों का क्रीड़ा-स्थल, गर्म-गर्म आँसुओं का फूटा हुआपात्र! कराल काल की सारंगी, एक बुढ़िया का जीर्ण कंकाल, जिसमेंअभिमान की लय में करुणा ही रागिनी बजा करती है।
अभागिनी बुढ़िया, एक भले घर की बहू-बेटी थी। उसे देखकरदयालु वयोवृद्ध, हे भगवान्! कहके चुप हो जाते थे। दुष्ट कहते थे किअमीरी में बड़ा सुख लूटा है। नवयुवक देशभक्त कहते थे, देश दरिद्र है;खोखला है। अभागे देश में जन्म ग्रहण करने का फल भोगती है। आगामीभविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास रखकर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे।
जिस देश का भगवान् ही नहीं; उसे विपि्रूद्गा क्या! सुख क्या!
परन्तु बुढ़िया सबसे यही कहा करती थी - “मैं नौकरी करूँगी।कोई मेरी नौकरी लगा दो।’ देता कौन? जो एक घड़ा जल भी नहीं भरसकती, जो स्वयं उठकर सीधी खड़ी नहीं हो सकती थी, उससे कौन कामकराए? किसी की सहायता लेना पसन्द नहीं, किसी की भिक्षा का अन्नउसके मुख में बैठता ही न था। लाचार होकर बाब रामनाथ ने उसे अपनीदुकान में रख लिया। बुढ़िया की बेटी थी, वह दो पैसे कमाती थी। अपनापेट पालती थी, परन्तु बुढ़िया का विश्वास था कि कन्या का धन खानेसे उस जन्म में बिल्ली, गिरगि और भी क्या-क्या होता है। अपना-अपनाविश्वास ही है, परन्तु धार्मिक विश्वास हो या नहीं, बुढ़िया को अपनेआत्माभिमानका पूर्ण विश्वास था। वह अटल रही। सर्दी के दिनों में अपनेठिठुरे हुए हाथ से वह अपने लिए पानी भरकर रखती। अपनी बेटी सेसम्भवतः उतना ही काम कराती, जितना अमीरी के दिदनों में कभी-कभीउसे अपने घर बुलाने पर कराती।
बाबू रामनाथ उसे मासिक वृि्रूद्गा देते थे और तीन-चार पैसे चबैनीके, जैसे और नौकरों को मिलते थे, मिला करते थे। कई बरस बुढ़ियाके बड़ी प्रसननता से कटे। उसे न तो दुःख था और न सुख। दुकानमें झाडू लगाकर उसकी बिखरी हुई चीजों को बटोरे रहना और बेठेबेठे थोड़ा-घना जो काम हो करना, बुढ़िया का दैनिक कार्य था। उससेकोई नहीं पूछता था कि तुमने कितना काम किया। दुकान के और कोईनौकर यदि दुष्टता-वश उसे छेड़ते भी थे, तो रामनाथ उन्हें डाँट देता था।
बसन्त, वर्षा, शरद और शिशिर की संध्या में जब विश्व की वेदना,जागत् की थकावट, धूसर चादर में मुँह लपेटकर क्षितिज के नीरव प्रान्तमें सोने जाती थी; बुढ़िया अपनी कोठरी में लेटी रहती। अपनी कमाईके पैसे से पेट भरकर, कठोर पृथ्वी की कोमल रोमावली के समान हरीहरीदूब पर भी लेटे रहना। किसी-किसी के सुखों की संख्या है, वहसबको प्राह्रश्वत नहीं। बुढ़िया को बनिए की दुकान में लाल मिर्चे फटकनीपड़ी। बुढ़िया किस-किस कष्ट से उसे सँवारा, परन्तु उसकी तीव्रता वहसहन न कर सकी। उसे मूर्छा आ गई। रामनाथ ने देखा और देखा अपनेकठोर ताँबे के पैसे की ओर। उसके हृदय ने धिक्कारा, परन्तु अन्तरात्माने ललकारा। उस बनिया रामनाथ को साहस हो गया। उसने सोचा, क्याइस बुढ़िया को ‘पेन्शन’ नहीं दे सकता? क्या उसके पास इतना अभावहै? अवश्य दे सकता है। उसने मन में निश्चय किया। ‘तुम बहुत थकगई हो, अब तुमसे काम नहीं हो सकता।’ बुढ़िया के देवता कूच करगए। उसने कहा - ‘ंनहीं-नहीं, भी तो मैं अच्छी तरह काम कर लेतीहूँ।’ ‘नहीं, अब तुम काम करना बन्द कर दो, मैं तुमको घर बैठे दियाकरूँगा।’
‘नहीं बेटा!अभी तुम्हारा काम मैं अच्छा-भला किया करूँगी।’बुढ़िया के गले में काँटे पड़ गए थे। किसी सुख की इच्छा से नहीं, पेन्शनके लोभ से भी नहीं। उसके मन में धक्का लगा। वह सोचने लगी -‘मैं बिना किसी काम किए इसका पैसा कैसे लूँगी? क्या यह भीख नहीं?’
आत्माभिमान झनझना उठा। हृदयतन्त्री के तार कड़े होकर चढ़ गए।रामनाथ ने मधुरता से कहा - ‘तुम घबराओ मत, तुमको कोई कष्ट नहोगा।’
बुढ़िया चली आई। इसकी आँखों में आँसू न थे। आज वह सूखेकाठ-सी हो गई। घर जाकर बैठी, कोठरी में अपना सामान एक ओरसुधारने लगी। बेटी ने कहा - ‘माँ, यह क्या करती हो?’
ंमाँ ने कहा - ‘चलने की तैयारी।’
रामनाथ अपने मन में अपनी प्रशंसा कर रहा था, अपने को धन्यसमझता था। उसने समझ लिया कि हमने आज एक अच्छा काम करनेका संकल्प किया है। भगवान् इससे अवश्य प्रसन्न होंगे।बुढ़िया अपनी कोठरी में बैठी-बैठी विचारती थी, ‘जीवन भर केसंचित इस अभिमान-धन को एक मु ी अन्न की भिक्षा पर बेच देनाहोगा। असह्य! भगवान् क्या मेरा इतना सुख भी नहीं देख सकते! उन्हेंसुनना होगा।’ वह प्रार्थना करने लगी।
‘इस अनन्त ज्वालामयी सृष्टि के कर्ता! क्यातुम्हीं करुणा-निधान हो?क्या इसी डर से तुम्हारा अस्तित्व माना जाता है? अभाव, आशा, असन्तोषऔर आर्तनादों के आचार्य! क्या तुम्हीं दीनानाथ हो? तुम्हीं ने वेदना काविषम जाल फैलाया है? तुम्हीं ने निष्ठुर दुःखों को सहने के लिए मानवहृदय-सा कोमल पदार्थ चुना है और उसे विचारने के लिए, स्मरण करनेके लिए दिया है अनुभवशील मस्तिष्क? कैसी कठोर कल्पना है, निष्ठुर!
तुम्हारी कठोर करुणा की जय हो! मैं चिर पराजित हूँ।’
सहसा बुढ़िया के शीर्ण मुख पर कान्ति आ गई। उसने देखा, एकस्वर्गीय ज्योति बुला रही है। वह हँसी, फिर शिथिल होकर लेटी रही।रामनाथ ने दूसरे ही दिन सुना कि बुढ़यिा चली गई। वेदना-क्लेश-हीन अक्षयलोक में उसे स्थान मिल गया। उस महीने की पेन्शन से उसकादाह-कर्म कराा दिया। फिर एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोला, ‘अमीरी कीबाढ़ में न जाने कितनती वस्तु कहाँ से आकर एकत्र हो जाती हैं, बहुतोंके पास उस बाढ़ के घट जाने पर केवल कुर्सी, कोच और टूटे गहनेरह जाते हैं, परन्तु बुढ़िया के पास रह गया था सच्चा स्वाभिमान-गुदड़ीका लाल।’
४. शरणागत
प्रभात-कालीन सूर्य की किरणें अभी पूर्व के आकाश में नहीं दिखाईपड़ती हैं। तारों का क्षीण प्रकाश अभी अम्बर में विद्यमान है। यमुना केतट पर दो-तीन रमणियाँ खड़ी हैं; और दो - यमुना की उन्हीं क्षीणलहरियों में, जो कि चन्द्र के प्रकाश से रंचित हो रही हैं - स्नान कररही हैं। अकस्मात् पवन बड़े वेग से चलने लगा। इसी समय एक सुन्दरी,जो कि बहुत ही सुकुमारी थी, उन्हीं तरंगों में निमग्न हो गई। दूसरी,जो कि घबड़ाकर निकलना चाहती थी, किसी काठ का सहारा पाकर तटकी ओर खड़ी हुई अपनी सखियों में जा मिली, पर वहाँ सुकुमारी नहीथी। सब रोती हुई यमुना के तट पर घूमकर उसे खोजने लगीं।
अंधकार हट गया। अब सूर्य भी दिखाई देने लगा। कुछ ही देरमें उन्हें, घबड़ाई हुई स्त्रियों को आश्वासन देती हुई, एक छोटी-सी नावदिखाई दी। उन सखियों ने देखा कि वह सुकुमारी उसी नाव पर एकअंग्रेज और एक लेड़ी के साथ बैठी हुई है।
तट पर आने पर मालूम हुआ कि सिपाही-विद्रोह की गड़बड़ सेभागे हुएएक सम्भ्रान्त योरोपियन-दम्पती उस नौका के आरोही हैं। उन्होंनेसुकुमारी को डूबते हुए बचाया है और इसे पहुँचाने के लिए वे लोगयहाँ तक आए हैं।
सुकुमारी को देखते ही सब सखियों ने दौड़कर उसे घेर लिया औरउससे लिपट-लिपटकर रोने लगीं। अंग्रेज ओर लेड़ी दोनों ने जाना चाहा,पर वे स्त्रियाँ कब मानने वाली थीं? लेड़ी साहिबा को रुकना पड़ा। थोड़ीदेर में यह खबर फैल जाने से उस गाँव के जींदार टाकुर किशोर सिंहभी उस स्थान पर आ गए। अब, उनके अनुरोध करने से, विल्फर्ड औरएलिस को उनका आतिथ्य स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा,क्योंकि सुकुमारी, किशोर सिंह की ही स्त्री थी, जिसे उन लोगों ने बचायाथा।
चन्दनपुर के जमींदार के घर में, जो यमुना-तट पर बना हुआ है,पाइर्ँ - बाग के भीतर, एक रविश में चार कुर्सियाँ पड़ी हैं। एक परकिशोर सिंह और दो कुर्सियों पर विल्फर्ड और एलिस बैठे हैं तथा चौथीकुर्सी के सहारे सुकुमारी खड़ी हैहं। किशोर सिंह मुस्करा रहे हैं औरएलिस आश्चर्य की दृष्टि से सुकुमारी को देख रही है। विल्फर्ड उदासहै और सुकुमारी मुख नीचा किए हुए है। सुकुमारीर ने कनिखियों सेकिशोर सिंह की ओर देखकर सिर झुका लिया।
एलिस - (किशोर सिंह से) बाबू साहब, आप इन्हें बैठने कीइजाजत दें।
किशोर सिंह - मैं क्या मना करता हूँ?
एलिस - (सुकुमारी को देखकर) फिर वह क्यों नहीं बैठतीं?
किशोर सिंह - आप कहिए, शायद बैठ जाएँ।
विल्फर्ड - हाँ, आप क्यों खड़ी हैं?
बेचारी सुकुमारी लज्जा से गड़ी जाती थी।
एलिस - (सुकुमारी की ओर देखकर) अगर आप न बैठेंगी, तोमुझे बहुत रंज होगा।
किशोर सिंह - यों न बैठेंगी, हाथ पकड़कर बिठाइए।
एलिस सचमुच उठी, पर सुकुमारी एक बार किशोर सिंह की ओरवक्र दृष्टि से देखकर हँसती हुई पास की बारहदरी में भागकर चली गई,किन्चु एलिस ने पीछा न छोड़ा। वह भी वहाँ पहुँची ओर उसे पकड़ा।
सुकुमारी एलिस को देख गिडगिड़ाकर बोली - क्षमा कीजिए, हम लोगोपति के सामनेन कुर्सी पर नहीं बैठतीं ओर न कुर्सी पर बैठने का अभ्यासही है।
एलिस चुपचाप छड़ी रह गई, वह सोचने लगी कि - क्या सचमुचपति के सामने कुर्सी पर न बैठना चाहिए! फिर उसने सोचा - वह बेचारीजानती ही नहीं कि कुर्सी पर बैठने में क्या सुख है।
चन्दनपुर के जमींदार के यहाँ आश्रय लिए हुए योरोपियन-दम्पतीसब प्रकार सुख से रहने पर भी सिपाहियों का अत्याचार सुनकर शंकितरहते थे। दयालु किशोर सिंह यद्यपि उन्हें बहुत आश्वासन देते, तो भीकोमल प्रकृति की सुन्दरी एलिस सदा भयभीत रहती थी।
दोनों दम्पती कमरे में बैठे हुए यमुना का सुन्दर जल-प्रवाह देखरहे हैं। विचित्रता यह है कि ‘सिगार’ न मिल सकने के कारण विल्फर्डसाहब सटक के सड़ाके लगा रहे हैं। अभ्यास न होने के कारण सटकसे उन्हें बड़ी अड़चन पड़ती थी, तिस पर सिपाहियों के अत्याचार काध्यान उन्हें और भी उद्विग्न किए हुआ था; क्योंकि एलिस का भय सेपीला मुख उनसे देखा न जाता था।
इतने में बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा। एलिस के मुख से ‘ओ माईगॉड’ निकल पड़ा और भय से वह मूर्च्छित हो गई। विल्फर्ड़ और किशोरसिंह ने एलिस को पलंग पर लिटाया और आप ‘बाहर क्या है’ सो देखनेके लिएचले।
विल्फर्ड ने अपनी राइफल हाथ में ली और साथ में जाना चाहा,पर किशोर सिंह ने उन्हें समझाकर बैठाया और आप खूँटी पर लटकतीतलवार लेकर बाहर निकल गए।
किशोर सिंह बाहर आ गए, देखा तो पाँच कोस पर जो उनकासुन्दरपुर ग्राम है, उसे सिपाहियों ने लूट लिया और प्रजा दुःखी होकरअपने जमींदार से अपनी दुःख गाथा सुनाने आई है। किशोर सिंह नेसबको आश्वासन दिया और उनके खाने-पीने का प्रबन्ध करने के लिएकर्मचारियों को आज्ञा देकर आप, विल्फर्ड और एलिस को देखने के लिएभबीतर चले आए।
किशोर सिंह स्वाभाविक दयालु थे और उनकी प्रजा उन्हें पिता केसमान मानती थी और उनका उस प्रान्त में भी बड़ा सम्मान था। वह बहुतबड़े उलाकेदार होने के कारण छोटे-से राजा समझे जाते थे। उनका प्रेमसब पर बराबर था, किन्तु विल्फर्ड़ और सरला एलिस को भी बहुत चाहनेलगे, क्योंकि प्रियतमा सुकुमारी की उन लोगों ने प्राण-रक्षा की थी।
किशोर सिंह भीतर आए। एलिस को देखकर कहा- डरने की कोईबात नहीं है। यह मेरी प्रजा थी, समीप के सुन्दरपुर गाँव में वे सब रहतेहैं। उन्हें सिपाहियों ने लूट लिया है। उनका बन्दोबस्त कर दिया गया है।
अब उन्हें कोई तकलीफ नहीं।
एलिस ने लम्बी साँस लेकर खोल दीं, और कहा - क्या वे सबगए?
सुकुमारी - घरबाओ मत, हम लोगों के रहते तुम्हारा कोई अनिष्टनहीं हो सकता।
विल्फर्ड - क्या सिपाही रियासतों को लूट रहे हैं।
किशोर सिंह - हाँ, पर अब कोई डर नहीं है, वे लूटते हुए इधरसे निकल गए।
विल्फर्ड - अब हमको कुछ डर नहीं है।
किशोर सिंह - आपने क्या सोचा?
विल्फर्ड - अब ये सब अपने भाइयों को लूटते हैं, तो शीघ्र हीअपने अत्याचार का फल पायेंगे और इनका किया कुछ न होगा।
किशोर सिंह ने गम्भीर होकर कहा - ठीक है।
एलिस ने कहा- मैं आज आप लोगों के संग भोजन करूँगी।
किशोर सिंह और सुकुमारी एक-दूसरे का मुख देखने लगे। फिरकिशोर सिंह ने कहा - बहुत अच्छा। साफ दालान में दो कम्बल अलग-अलग दूरी पर बिछा दिए गए हैं, एक पर किशोर सिंह बैठे थे औरदूसरे पर विल्फर्ड और एलिस; पर एलिस की दृष्टि बारृबार सुकुमारी कोखोज रही थी और वह बार-बार यही सोच रही थी कि किशोर सिंहके साथ सुकुमारी अभी नहीं बैठी।
थोड़ी देर में भोजन आया, पर खानसामा नहीं, स्वयं सुकुमारी एकथाल लिए है और तीन-चार औरतों के हाथों में भी खाद्य और पेय वस्तुएँहैं। किशोर सिंह के इशारा करने पर सुकुमारी ने वह थाल एलिस केसामने रखा और इसी तरह विल्फर्ड और किशोर सिंह को परोस दियागया, पर किसी ने भोजन आरम्भ नहीं किया।
एलिस ने सुकुमारी से कहा - आप क्या यहाँ भी न बैठेंगी? क्यायहाँ भी कुर्सी है?
सुकुमारी - परोसेगा कौकन?
एलिस - खानसामा।
सुकुमारी - क्यों, क्या मैं नहीं हूँ?
किशोर सिंह - जिद न कीजिए, यह हमारे भोजन कर लेने परभोजन करती हैं।
एलिस ने आश्चर्य और उदासी-भरी एक दृष्टि सुकुमारी पर डाली।
एलिस को बोजन कैसा लगा, सो नहीं कहा जा सकता।
भारत में शान्ति स्तापित हो गई है। अब विल्फर्ड और एलिसअपनी नील की कोठी पर वापस जाने वाले हैं। चन्दनपुर में उन्हें बहुतदिन रहना पड़ा। नील कोठी वहाँ से दूर है।
दो घोड़े सजे-सजाए खड़े हैं और किशोर सिंह के आठ सशस्त्रसिपाही उनको पहुँचाने के लिए उपस्थित हैं। विल्फर्ड साहब किशोर सिंहसे बातचीत करके छुट्टी पा चुके हैं। केवल लएलिस अभी तक भीतरसे नहीं आई। उन्हीं के आने की देर है।
विल्फर्ड और किशोर सिंह पाइर्ं-बाग में टहल रहे थे। इतने में आठस्त्रियों का झुण्ड मकान से बाहर निकला। हैं! यह क्या? एलिस ने अपनागाउन नहीं पहना, उसके बदल ेफीरोजी रंग के रेशमी कपड़े का कामदानीलहँगा और मखमल की कंचुकी, जिसकेसितारे रेशमी ओढ़नी के ऊपरसे चमक रहे हैं। यह क्या? स्वाभाविक अरुण अधरों मेंपान की लालीभी है, आँखों में काजल की रेखा भी है. चोटी फूलों से गूँथी जा चुकीहै और मस्तक में सुन्दर-सा बालअरूण का बिन्दु भी तो है!
देखते ही किशोर सिंह खिलखिलाकर हँस पड़े और विल्फर्ड तोभौंचक्के-से रह गए।
किशोर सिंह ने एलिस से कहा - आपके लिए भी घोड़ा तैयारहै, पर सुकुमारी ने कहा - नहीं, इनके लिए पालकी मँगा हो।
५. रसिया बालम
संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपनाअधिकार पूर्णतः नहीं प्राह्रश्वत किया है। अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्बको प्रतीची में दिखा रहे हैं। केवल एक मनुष्य अर्बुद-गिरि-सुदृढञ दुर्गके नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध-स्वर्ण पिण्ड की ओरदेखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिड़की की ओरभी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है।
घण्टों उसे वैसे ही बैठे बीत गए। कोई कार्य नहीं, केवल उसे इसखिड़की की ओर देखना। अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीचीपहाड़ी भूमि परपड़ी और साथ ही किसी वस्तु का शब्द भी हुआ, परन्तुउस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था। वह तो उस खिड़की में के सुन्दरमुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा, जिसने केवलएक बार उसे झलक दिखाकर मन्त्रमुग्ध कर दिया था।
इधर उस कागज में लिपटी हुई वस्तु को एक अपरिचित व्यक्ति,जो छिपा खड़ा था, उठाकर चलता हुआ। धीरे-धीरे रजनी की गम्भीरताउस शैल-प्रदेश में और भी गम्भीर हो गई और झाड़ियों में तो अँधकारमूर्तिमान हो बैठा हुआ ज्ञात होता था, परन्तु उस युवक को इसकी कुछभी चिन्ता नहीं। और जब तक उसी खिड़की में प्रकाश था, तब तकवह उसी ओर निर्निमेष देख रहा था और कभी-कभी अस्फुट स्वर सेवह गुनगुनाहट उसके मुख से वनस्पतियों को सुनाई पड़ती थी।
जब वह प्रकाश बिल्कुल न रहा, तब वह युवक उठा और समीपके झरने के तट से होते हुए उसी अँधकार में विलीन हो गया।
दिवाकर की पहली किरण ने जब चमेली ीक कलियों को चटकाया,तब उन डालियों को उतना ही ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीरस्पर्श से उन्हं हिलना पड़ा, जो कि काँटेओर झाड़ियों का कुछ भी ध्यानन करके सीधा अपने मार्ग का अनुसरण कर रहा था। वह युवक फिरउसी खिड़की के सामने पहुँचा और जाकर अपने पूर्वपरिचित शिलाखण्डपर बैठ गया और पुनः वही क्रिया आरम्भ हुई। धीरे-धीरे एक सैनिकपुरुष नेन आकर उस युवक के कन्धे पर अपना हाथ रखा।
युवक चौचंक उठा और क्रोधित होकर बोला - तुम कौन हो?आगन्तुक हँस पड़ा और बोला - यही तो मेरा भी प्रश्न है कितुम कौन हो? और क्यों इस अन्तःपुर की खिड़की के सामने बैठे होऔर तुम्हारा क्या अभिप्राय है?
युवक - मैं यहाँ घूमता हूँ और यहीं मेरा मकान है। मैं जो यहाँबैठा हूँ, मित्र! वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहताहै; मैं कभी-कभी उशका दर्शन पा जाता हूँ और अपने चि्रूद्गा को प्रसन्नकरता हूँ।
सैनिक - पर मित्र! तुम नहीं जाानते कि यह राजकीय अन्तःपुरहै, तुम्हें ऐसे देखकर तुम्हारी क्या दशा हो सकती है? और महाराज तुम्हेंक्या समझेंगे?
युवक- जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तोकेवल सुन्दर रुप का दर्शन ही निरन्तर चाहता हूँ और यदि महाराज भीपूछें तो यही कहूँगा।
सैनिक - तुम जिसे देखते हो, वह स्वयं राजकुमारी है और तुम्हेंकभी नहीं चाहती। अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है।
युवक - क्या वह राजकुमारी है? तो चिन्ता क्या! मुझे तो केवलदेखना है; मैं बैठे-बैठे देखा करूँगा, पर तुम्हें यह कैसे मालूम कि वहमुझे नहीं चाहती?
सैनिक - प्रमाण चाहते हो तो (एक पत्र देकर) यह देखो!
युवक उसे लेकर पढ़ता है। उसमें लिखा था -
“युवक!तुम क्यों अपना समय व्यर्थ व्यतीत करते हो? मैं तुमसे कदापिनहीं मिल सकती। क्यों महीनों से यहाँ बैठे-बैठे अपना शरीर नष्ट कररहे हो, मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर दया आती है। अतः तुमको सचेतकरती हूँ, फिर कभी यहाँ मत बैठना।
वहीजिसे तुम देखा करते हो!’’
युवक कुछ देर के लिए स्तम्भित हो गया। सैनिक सामने खड़ा था।कस्मात् युवक उठकर खड़ा हो गया और सैनक का हाथ पकड़कर बोला- मित्र ‘ तुम हमारा कुछ उपकार कर सकते हो? यहि करो, तो कुछविशेष परिश्रम न होगा।
सौनिक - कहो, क्या है? यदि हो सकेगा, तो अवश्य करूँगा।
तत्काल उस युवक ने अपनी उँगली एक पत्थर से कुचल दी औरअपने फटे वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर तिनका लेकर उसी रक्त मेंचुकड़े पर कुछ लिखा, और उस सैनिक के हाथ में देकर कहा - यदिहम न रहें, तो इसको उस निष्ठुर के हाथ में दे देना। बस और कुछ नहीं।
इतना कहकर युवक ने पहाड़ी पर से कूदना चाहा; पर सैनिक नेउसे पकड़ लिया, और कहा - रसिया! ठहरो!
युवक अवाक् हो गया; क्योंकि अब पाँच प्रहरी सैनिक के सामनेसिर झुकाए खड़े थे और पूर्व सैनिक स्वयं अर्बुदगिरि के महाराज थे।
महाराज आगे हुए और सैनिकों के बीच में रसिया। सब सिंहद्वारकीओर चले। किले के भीतर पहुँचकर रसिया को साथ में लिए हुए महाराजएक प्रकोष्ठ में पहुँचे। महाराज ने प्रहरी को ज्ञा दी कि महारानी और
राजकुमारी को बुला लाओ। वह प्रणाम कर चला गया।
महाराज - क्यों बलवन्त सिंह! तुमने अपनी यह क्या दशा बनारखी है?
रसिया - (चौंककर) महाराज को मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?
महाराज - बलवन्त! मैं बचपन से तुम्हें जानता हूँ और तुम्हारे पूर्वपुरुषों को भी जानता हूँ।
रसिया चुप हो गया। इतने में महारानी भी राजकुमारी को साथलिए हुए आ गई।
महारानी ने प्रणाम कर पूछा - क्या आज्ञा है?
महाराज - बैठो, कुछ विशेष बात है। सुनो और ध्यान से उ्रूद्गारदो। यह युवक को तुम्हारे सामने बैठा है, एक उ्रूद्गाम क्षत्रिय कुल का हैऔर मैं इसे जानता हूँ। यह हमारी राजकुमारी के प्रणय का भिखारी है।
मेरी इच्छा है कि इससे उसका ब्याह गो जाए।
राजकुमारी, जिसने कि आते ही युवक को देख लिया था और जोसंकुचित होकर इस समय महारानी के पीछे खड़ी थी, यह सुनकर औरभी संकुचित हुई, पर महारानी का मुख क्रोध से लाल हो गया। वह कड़ेस्वर में बोली - क्या आपको खोजते-खोजते मेरी कुसुसम-कुमारी कन्याके लिए यही वर मिला है? वाह! अच्छचा जोड़ मिलाया। कंगाल औरउसके लिए निधि; बन्दर और उसके गले में हार; भला यह भी कहींसम्भव है ग् आप शीघ्र ही अपने भ्रान्तिरोग की औषधि कर डालिए। यहभी कैसा परिहास है! (कन्या से) चलो बेटी यहाँ से चलो।
महाराज - नहीं, ठहरो और सुनो। यह स्थिर हो चुका है किराजकुमारी का ब्याह बलवन्त से होगा, तुम इसे परिहास मत जानो।
अब जो महारानी ने महाराज के मुख की ओर देखा, तो वहदृढ़प्रतिज्ञ दिखाई पड़े। निदान विचलिक होकर महारानी ने कहा - अच्छा,मैं भी प्रस्तुत हो जाऊँगी, पर इस शर्त पर कि जब यह पुरुष अपनेबाहुबल से उस झरने के समीप से नीचे तक एक पहाड़ी रास्ता काटकरबना ले, उसके लिए समय अभी से केवल प्रातःकाल तक का देती हूँ- जब तक कि कुक्कुट का स्वर सुनाई न पड़े। तब अवश्य मैं भीराजकुमारी का ब्याह इसी से कर दूँगी।
महाराज ने युवक की ओर देखा, जो कि निस्तब्ध बैठा हुआ सुनरहा था। वह उसी क्षण उठा और बोला - मैं प्रस्तुत हूँ, पर कुछ औजारऔर मसाले के लिए थोड़े विष की आवस्यकता है।
उसकी आज्ञानुसार सब वस्तुएँ उसे मिल गइर्ं और वह शीघ्रता सेउसी झरने की ओर दोड़ा और एक विशाल शिलाखण्ड पर जाकर बैठगया और उसे तोड़ने का उद्योग करने लगा; क्योंकि इसी के नीचे एकगुह्रश्वत पहाड़ी पथ था।
निशा का अँधकार कानन प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाए हुएहै। प्रायः आधी रात बीत चुकी है, पर केवल उन अग्नि-स्फुर्लिंगों सेकभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू का प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया केशस्त्र-प्रवार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं। दनादन चोट चली जा रहीहै - विराम नहीहं है क्षण भर भी - न तो उस शैल को और न उसशस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाए ही जारहा है। एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता। देखता है, तोकेवल अपना हाथ और पत्थर; उँघली एक तो पहले ही कुचली जा चुकीथी, दूसरे अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा थ, पर विश्राम कहाँ?
उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाए हीजाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकीएक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढ़कतेहैं, जो सोए हुए जंगहगली पशुओं को घबड़ा देते हैं। यह क्या है? केवलउसकी तन्मयता, केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है।
फिर ही दनादन-बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है! इधर उसखिड़की में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ाउस खिड़की से झाँककर देख रहा है, पर युवक को कुछ ध्यान नहीं,वह अपना कार्य करता जा रहा है।
अभी रात्रि के जाने के लिए पहर-भरहै। शीतल वायु उस काननको शीतल कर रही है। अकस्मात् ‘तरुण-कक्कुट-कंठनाद’ सुनाई पड़ा, फिरकुछ नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है औरन तो पत्थरों से अग्निस्फुर्लिंग निकलते हैं।
अकस्मात् उस खिड़की में से एक सुन्दर मुख निकला। उसनेआलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिए है और कुछकह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देरमें वह उसी शिलाखण्ड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एकहल्ता चीत्कार निकल गया। खिड़की बन्द हो गई। फिर केवल अँधकाररह गया।
प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुदगिरि के कानन में वैसी क्रीड़ानहीं कर रहा है, जैसी पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछप्रभात के मिस से मंद और मलिन हो रही है। एक शव के समीप एकपुरुष खड़ा है और उसकी आँखों में अश्रुधारा बह रही है और वह कहरहा है - बलवन्त! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया? यहअर्बुदगिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता और तुमइसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते। फिर, ऐसे क्यों पड़ेहो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा यह तुमने क्या किया?
इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला, जो स्वयं राजकुमारी थी, दौड़ीहुई आई और शव को देखकर ठिठक गई, नतजानु होकर उस पुरुष का,जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकीथी - चरण धरकर बोली - महात्मन्! क्या व्यक्ति ने; जो यहाँ पड़ाहै, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ कहा है?
महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ानिकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था। उस सुन्दरीने उसे देखा और देखकर कहा - कृपया आप ही पढ़ दीजिए।
महाराज ने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था - “मैं नहीं जानता था कितुम इतनी निठुर हो। अस्तु; अब मैं नहीं रहूँगा; पर याद रखना; मैं तुमसेअवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थानसे देखूँगा, जहाँ कभी पलक गिरती ही नहीं।
- तुम्हारा दर्शनाभिलाषी
रसिया’’
इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गई, और फिर चरण धरकरबोली- पिताजी, क्षमा करना और शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्रको लेकर अवशेष पी गई और गिर पड़ी। केवल उसके मुख से इतनानिकला - “पिताजी, क्षमा करना।” महाराज देख रहे थे!
६. मदन-मृणालिनी
विजयादशमी का त्योहार समीप है, बालक लोग नित्य रामलीला होनेसे आनन्द में मग्न हैं।
हाथ में धनुष और तीर लिए एक छोटा-सा बालक रामचन्द्र बननेकी तैयारी में लगा हुआ है। चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल औरसुन्दर है।
खेलते-खेलते बालक को भोजन की याद आई। फिर कहाँ रामबनना और कहाँ रामलीला। चट धनुष फेंककर दौड़ता हुआ माता के पासजा पहुँचा ौर उस ममता-मोहमयी माता के गले से लिपटकर - माँ! खानेको दे, माँ! खाने को दे - कहता हुआ जननी के चि्रूद्गा को आनन्दितकरने लगा।
जननी बालक का मचलना देखकर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देरतक बैठी रहकर और भी मचलना देखना चाहती थी। उसके यहाँ एक पड़ोसनबैठी थी, एतएव वह एकाएक उठकर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी।
सहज ही असन्तुष्ट हो जानेवाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभावकिसी से छिपा न होगा। यदि वह तत्काल उठकर चली जाती, तो पड़ोसिनक्रुद्ध होती। अतः वह उठकर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी।
बालक का मचलाना और भी बढ़ चला। धीरे-धीरे वह क्रोधित हो गया,दौड़कर अपनी कमाना उठा लाया; तीर चढ़ाकर पड़ोसिन को लक्ष्य किया औरकहा - तू यहाँ से जा, नहीं तो मैं मारता हूँ।
दोनों स्त्रियाँ केवल हँसकर उसको मना करती रहीं। अकस्मात् वहतीर बालक के हाथ से छूट पड़ा और पड़ोसिन की गर्दन में धँस गया!अब क्या था, वह अर्जुन और अश्वत्थामा का पाशुपतास्त्र हो गया। बालककी माँ बहुत घबरा गई, उसने अपने हाथ से तीर निकाला, उसके रक्तको धोया, बहुत ढाँढस दिया, किन्तु घायल स्त्री का चिल्लाना-कराहनासहज में थममने वाला नहीं था।
बालक की माँ विधवा थी, कोई उसका रक्षक न था। जब उसकापति जीता था, तब तक उसका संसार अच्छी तरह चलता था, अब जोकुछ पूँजी बच रही थी, उसी में वह अपना समय बिताती थी। ज्योंत्यों करके उसने चिर-संरक्षित धन में से पचीस रुपये उस घायल स्त्रीको दिए।
वह स्त्री किसी से यह बात कहने का वादा करके अपने घरगई,परन्तु बालक का पता नहीं, वह डर के मारे घर से निकल किसी ओरभाग गया।
माता ने समझा कि पुत्र कहीं डर से छिपा होगा, शाम तक आजाएगा। धीरे-धीरे संध्या-पर-संध्या, सह्रश्वताह-पर-सह्रश्वताह, मास-पर-मासबीतने लगे; परन्तु बालक का कहीं पता नहीं। शोक से माता का हृदयजर्जर हो गया, वह चारपाई पर लग गई। चारपाई ने भी उसका ऐसाअनुराग देखकर उसे अपना लिया और फिर वह उस पर से न उठ सकी।
बालक को अब कौन पूछने वाला है।
कलक्रूद्गाा-महानगरी के विशाव भवनों तथा राजमार्गों को श्चर्य सेदेखता हुआ एक बालक एक सुसज्जित भवन के सामने खड़ा है। महीनोंकष्ट झोलता, राह चलता, थकता हुआ बालक यहाँ पहुँचा है।बालक थोड़ी देर तक यही सोचताथा कि अब मैं क्या करूँ, किससेअपने कष्ट की कथा कहूँ। इतने में वहाँ धोती-कमीज पहने हुए एक सभ्यबंगाली महाशय का आगमन हुआ।
उस बालक की चौड़ी हड्डी, सुडौल बदन और सुन्दर चेहरादेखकर बंगाली महाशय रूप गए और उसे एक विदेशी समझकर पूछनेलगे -
- तुम्हारा मकान कहाँ है?
- ब...में।
- तुम यहाँकैसे आए?
- भागकर।
- नौकरी करोगे?
- हाँ।
- अच्छा, हमारे साथ चलो।
बालक ने सोचा कि सिवा काम के और क्या करना है, तो फिरइनके साथ ही उचित है। कहा - अच्छा, चलिए।
बंगाली महाशय उस बालक को घुमाते-फिराते एक मकान के द्वारपर रपहुँचे। दरबान ने उठकर सलाम किया। वह बालक सहित एक कमरेमें पहुँचे, जहाँ एक नवयुवक बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, सामने बहुतसे कागज इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
युवक ने बालक को देखकर पूछा - बाबूजी, यह बालक कौन है?- यह नौकरी करेगा, तुमको एक आदमी की जरूरत थी ही, सोइसको हम लिवा लाए हैं, अपने साथ रखो - बाबूजी यह कहकर घरके दूसरे भाग में चले गए थे।
युवक के कहने पर बालक भी अचकचाता हुआ बैठ गया। उनमेंइस तरह बातें होने लगीं -
युवक - क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है?
बालक - (कुछ सोचकर) मदन।
युवक - नाम तो बड़ा अच्छा है। अच्छा, कहो, तुम क्या खाओगे?
रसोई बनाना जानते हो?
बालक - रसोई बनाना तो नहीं जानते। हाँ, कच्ची-पक्की जैसीहो, बनाकर खा लेते हैं, किन्तु...
- अच्छा संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है - इतना कहकरयुवक ने पुकारा - कोई है?
एक नौकर दोड़कर आया - हुजूर, क्या हुक्म है?
युवक ने कहा - इनको भोजन कराने को ले जाओ।
भोजन के उपरान्त बालक युवक के पास आया। युवक ने एक घरदिखाकर कहा कि उस सामने की कोठरी में सोओ और उसे अपने रहनेका स्थान समझो।
युवक की आज्ञा के अनुसार बालक उस कोठरी में गया, देखा तोएक साधारणसी चौकी पड़ी है; एक घड़े में जल, लोटा और गिलास भीरखा हुआ है। वह चुपचाप चौकी पर लेट गया।
लेटने पर उसे बहुत-सी बातें याद आने लगीं, एक-एक करके उसेभावना के जाल में फँसाने लगीं। बाल्यावस्था के साथी, उनके साथखेलकूद, राम-रावण की लड़ा़ई, फिर उस विजयादशमी के दिन की घटना,पड़ोसिन के अंग में तीर का धँस जाना, माता की व्याकुलता और मार्गकष्ट को सोचते-सोचते उस भयातुर बालक की विचित्र दशा हो गई।
मनुष्य की मिमियाई निकालने वाली द्वीप-निवासिनी जातियों कीभयानक कहानियाँ, जिन्हें इसने बचपन में माता की गोद में पड़े-पड़े सुनाथा, उसे और भी डराने लगीं। अकस्मात्, उसके मस्तिष्क को उद्वेग सेभर देने वाली यह बात भी समा गई कि ये लोग तो मुझे नौकर बनानेके लिए अपने यहाँ लाए थे, फिर इतने आराम से क्यों रखा है? होन-हो वही टापू वाली बात है। बस, फिर कहाँ की नींद और कहाँ कासुख, करवटें बदलने लगा। मन में यही सोचता था कि यहाँ से किसीतरह भाग चलो।
परन्तु निद्रा भी कैसी ह्रश्वयारीर वस्तु है। घोर दुःख के समय भीमनुष्य को यही सुख देती है। सब बातों से व्याकुल होने पर भी वहकुछ देर के लिए सो गया। मदन उसी घर में लगा। अब उसे उतनीघबराहट नहीं मालूम होती। अब वह निर्भय-सा हो गया है, किन्तु अभीतक यह बात कभी-कभी उसे उधेड़ बुन में लगा देती है कि ये लोगमुझसे इतना अच्छा बर्ताव क्यों करते हैं और क्यों इतना सुख देते हैं, परइन बातों को वह उस समय भूल जाता है, जब ‘मृणालिनी’ उसकी रसोईबनवाने लगती है - देखो, रोटी जलती है, उसे उलट दो, दाल भी चलादो - इत्यादि बातें जब मृणामलिनी के कोमल कंठ से वीणा की झंकारके समान सुनाई देती हैं, तब वह अपना दुःख - माता की सोच - सबभूल जाता है।
मदन है तो अबोध, किन्तु संयुक्त प्रान्तवासी होने के कारणस्पृश्यास्पृश्य का उसे बहुत ध्यान रहता है। वह दूसरे का बनाया भोजननहीं करता है। अतएव मृणालिनी आकर उसे बताती है और भोजन केसमय हवा भी करती है।
मृणालिनी गृहस्वामी की कन्या है। वह देवबाला-सी जान पड़ती है।
बड़ी-बड़ी आँखें, उज्ज्वल कपोल, मनोहर अंगभंगी, गुल्फविलम्बित केश-कलाप उसे और भी सुन्दरी बनने में सहायता दे रहे हैं। अवस्था तेरहवर्ष की है; किन्तु वह बहुत गम्भीर है।
नित्य साथ होने से दोनों में अपूर्व भाव का उदय हुआ है। बालकका मुख जब आग की आँच से लाल तथा आँखें धुएँ के कारण आँसुओंसे भर जाती हैं, तब बालिका आँखों में आँसू भरकर, रोषपूर्वक पंखीफेंककर कहती है - लो जी, इससे काम लो, क्यों व्यर्थ परिश्रम करतेहो? इतने दिन तुम्हें रसोई बनाते हुए, मगर बनाना न आया!
तब मदन आँच लगने के सारे दुःख भूल जाता है, तब उसकी तृष्णा औरबढ़ जाती है; भोजन रहने पर भी भूख सताती है और सताया जाकर भी वहहँसने लगता है। मन-ही-मन सोचता, मृणालिनी! तुम बंग-महिला क्यों हुई।
मदन के मन में यह बात उत्पन्न क्यों हुई? दोनों सुन्दर थे, दोनोंही किशोर थे, दोनों संसार से अनभिज्ञ थे, दोनों के हृदय में रक्त था- उच्छ्वास था - आवेग था - विकास था, दोनों के हृदय-सिन्धु में किसीअपूर्व चन्द्र का मधुर-उज्ज्वल प्रकाश पड़ता था, दोनों के हृदय-कानन मेंनन्दन-पारिजात खिला था।
जिस परिवार में बालक मदन पलता था, उसके मालिक हैं अमरनाथबनर्जी, आपके नवयुवक पुत्र का नाम है किशोरनाथ बनर्जी, कन्या का नाममृणालिनी और गृहिणी का नाम हीरामणि है। बम्बई और कलक्रूद्गाा, दोनोंस्थानों में, आपकीदुकानें थीं, जिनमें बाहरी चीजों का क्रय-विक्रय होताथा; विशेष काम मोती के बनिज का था। आपका ऒफिस सीलोन में था;वहाँ से मोती की खरीद होती थी। आपकी कुछ जमीन भी वहाँ थी।
उससे आपकी बड़ी आय थी। आप प्रायः अपनी बम्बई की दुकान मेंऔर परिवार कलक्रूद्गो में रहता था। धन अपार था, किसी चीज की कमीन थी। तो भी आप एक प्रकार से चिन्तिति थे!
संसार में कौन चिन्ताग्रस्त नहीं है? पशु-पक्षी, कीट-पतंग, चेतनऔर अचेतन, सभी को किसी-न-किसी प्रकार की चिन्ता है। जो योगीहैं, जिन्होंने सबकुछ त्याग दिया है, संसार जिनके वास्ते असार है, उन्होंनेभी स्वीकार किया है। यदि वे आत्मचिन्तन न करें, तो उन्हें योगी कौनकहेगा?
किन्तु वनर्जी महाशय की चिन्ता का कारण क्या है? सो पति-पत्नीकी इस बातचीत से ही विदित हो जाएगा -अमरनाथ - किशोर कँवारा ही रहना चाहता है। अभी तक उसकीशादी कहीं पक्की नहीं हुई।
हीरामणि - सीलोन में आपके व्यापार करने तथा रहने से समाजआप को दूसरी ही दृष्टि से देख रहा है।
अमरनाथ - ऐसे समाज की मुझे कुछ परवाह नहीं है। मैं तो केवललड़की और लड़के का ब्याह अपनी जाति में करना चाहता था। क्याटापुओं में जाकर लोग पहले बनिज नहीं करते थे? मैंने कोई अन्य धर्मतोग्रहण नहीं किया, फिर यह व्यर्थ का आडम्बर क्यों है? और यदि, कोईखान-पापन का दोष दे, तो क्या यहाँ पर तिलक कर पूजा करनेवाले लोगोंसे होटल बचा हुआ है?
हीरामणि - फिर क्या कीजिएगा? समाज तो इस समय केवल उन्हींबगलाभगतों को परम धार्मिक समझता है।
अमरनाथ - तो फिर अब मैं ऐसे समाज को दूर ही से हाथ जोड़ताहूँ।
हीरामणि - तो ये लड़के-लड़की कँवारे ही रहेंगे?
अमरनाथ - नहीं, अब हमारी यह इच्छा है कि तुम सबको लेकरउसी जगह चलें। यहाँ कई वर्ष रहते भी हुए, किन्तु कार्य सिद्ध होने कीकुछ भी आशा नहीं है, तो फिरअपना व्यापार क्यों नष्ट होने दें? इसलिे,अब तुम सबको वहीं चलना होगा। न होगा तो ब्राह्म हो जाएँगे, किन्तुयह उपेक्षा अब सही नहीं जाती।
मदन, मृणालिनी के संगम से बहुत ही प्रसन्न है। सरला मृणालिनीभी प्रफुल्लित है। किशोरनाथ भी उसे बहुत ह्रश्वयार करता है, प्रायः उसीको साथ लेकर हवा खाने के लिए जाता है। दोनों में बहुत ही सौहार्दहै। मदन भी बाहर किशोरनाथ के साथ और घर आने पर मृणालिनी कीप्रेममयी वाणी से आह्रश्वयायित रहता है।
मदन का समय सुख से बीतने लगा, किन्तु बनर्जी महाशय केसपरिवार बाहर जाने की बातों ने एक बार उसके हृदय को उद्वेगपूर्ण बनादिया। वह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा, क्या मझे भी चलनेके लिए आज्ञा देंगे? और यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्याकरूँगा? इनके साथ जाना ठीक होगा या नहीं?
इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ नेअकस्मात् आकर उसे चौंका दिया। उसने खड़े होकर पूछा - कहिए, आपलोग किस सोच-विचार में पड़े हुए हैं? कहाँ जाने का विचार है?
- क्यों, क्या तुम न चलोगे?
- कहाँ?
- जहाँ हम लोग जाएँ।
- वही तो पूछा हूँ कि आप लोग कहाँ जाएँगे?
- सीलोन!
- तो मुझसे भी आप वहाँ चलने के लिए कहते हैं?
- इसमें तुम्हारी हानि ही क्या है?
- (यज्ञोपवीत दिखाकर) इसकी ओर भी तो ध्यान कीजिए।
- तो क्या समुद्र-यात्रा तुम नहीं कर सकते?
- सुना है कि वहाँ जाजने से धर्म नष्ट हो जाता है!
- क्यों? जिस तरह तुम यहाँ भोजन बनाते हो, उसी तरह वहाँभी बनाना।
- जहाज पर भी चढ़ना होगा!
- उसमें हर्ज ही क्या है? लोग गंगासागर और जगन्नाथजी जातेसमय जहाज पर नहीं चढ़ते?
मदन अब निरु्रूद्गार हुआ; किन्तु उ्रूद्गार सोचने लगा। उतने ही में उधरसे मृणालिनी आती हुई दिखाई पड़ी। मृणालिनी को देखते ही उसके विचाररूपी मोतियों को प्रेमहंस ने चुग लिया और उसे उसकी बुद्धि और भीभ्रमपूर्ण जान पड़ने लगी।
मृणालिनी ने पूछा - क्यों मदन, तुम बाबा के साथ न चलोगे?जिस तरह वीणा की झंकार से मस्त होकर मृग स्थिर हो जाताहै अथवा मनोहर वंशी की तान से झूमने लगता है, वैसे ही मृणालिनीके मधुर स्वर में मुग्ध मदन ने कह दिया - क्यों न चलूँगा।
सारा संसार घड़ी-घड़ी-भर पर, पल-पल-भर पर, नवीन-सा प्रतीतहोता है और इससे उस विश्वयन्त्र को बनाने वाले स्वतन्त्र की बड़ी भारीनिपुणता का पता लगता है; क्योंकि नवीनता की यदि रचना न होती, तोमानव-समाज को यह संसार और ही तरह का भाषित होता। फिर उसेकिसी वस्तु की चाह न होती, इतनी तरह के व्यावहारिक पदार्थों की कुछभी आवश्यकता न होती। समाज, राज्य और धर्म के विशेष परिवर्तन-रूपी पट में इसकी मनोहर मूर्ति और भी सलोनी दीख पड़ती है। मनुष्यबहुप्रेमी क्यं हो जाता है? मानवों की प्रवृि्रूद्गा क्यों दिन-रात बदला करतीहै! नगर-निवासियों को पहाड़ी घाटियाँ क्यों सौन्दर्यमयी प्रतीत होती हैं?
विदेश-पर्यटन में क्यों मनोरंजन होता है? मनुष्य क्यों उत्साहित होता है?
इत्यादि प्रश्नों के उ्रूद्गार में केवल यही कहा जा सकता है कि नवीनता कीप्रेरणा!
नवीनता वास्तव में ऐसी ही वस्तु है कि जिससे मदन को भारतसे सीलोन तक पहुँच जाना कुछ कष्टकर न हुआ।
विशाल सागर के वक्षस्थल पर दानव-राज की तरह वह जहाजअपनी चाल और उसकी शक्ति दिखा रहा है। उसे देखकर मदन कोद्रौपदी और पांडवों को लादे हुए घटोत्कच का ध्यान आता था।उ्रूद्गााल तरंगों की कल्लोल-माला अपना अनुपम दृश्य दिखा रही है।चारों ओर जल-ही-जल है, चन्द्रमा अपने पिता की गोद में क्रीड़ा करताहुआ आनन्द दे रहा है। अनन्त सागर में अनन्त आकाश-मण्डल के असंख्यनक्षत्र अपने प्रतिबिम्ब दिखा रहे हैं।
मदन तीन-चार बरस में युवक हो गया है। उसकी भावुकता बढ़गई थी। वह समुद्र का सुन्दर दृश्य देख रहा था। अकस्मात् एक प्रकाशदिखाई देने लगा। वह उसी को देखने लगा।
उस मनोहर अरुण का प्रकाश नील जल को भी आरक्तिम बनानेकी चेष्टा करने लगा। चंचल तरंगों की लहरियाँ सूर्य की किरणमों सेक्रीड़ा करने लगीं। मदन उस अनन्त समुद्र को देखकर डरा नहीं, किन्तुअपने प्रेममय हृदय का एक जोड़ा देखकर और भी प्रसन्न हो वह निर्भीकहृदय से उन लोगों के साथ सीलोन पहुँचा।
अमरनानथ के विशाल भवन में रहने से मदन भी बड़ा ही प्रसन्नहै। मृणालिनी और मदन उसी प्रकार से मिलते-जुलते हैं, जैसे कलक्रूद्गोमें मिलते-जुलते थे। लवणमहासमुद्र की महिमा दोनों ही को मनोहर जानपड़ती है। प्रशान्त महासागर के तट की संध्या दोनों के नेत्रों को ध्यानमें लगा देती है। डूबते हुए सूर्यदेव देव-तुल्य हृदयों को संसार की गतिदिखलाते हैं, अपने राग की आभा उन प्रभातमय हृदयों पर डालते हैं, दोनोंही सागर-तट पर खड़े सिंधु की तरंग-भंगियों को देखते हैं; फिर भी दोनोंही दोनों की मनोहर अंग-भंगियों में भूले हुए हैं।
महासमुद्र के तट पर बहुत समय तक खड़े होकर मृणालिनी औरमदन उस अनन्त का सौंदर्य देखते थे। अकस्मात बैंड का सुरीला राग सुनाईदिया, जो कि सिंधुगर्जन को भी भेदकर निकलता था।
मदन, मृणालिनी-दोनों एकाग्रचित हो उसे ओजस्विनी कविवाणी कोजातीय संगीत में सुनने लगे, किन्तु वहाँ कुछ दिखाई न दिया। चकितहोकर वे सुन रहे थे। प्रबल वायु भी उ्रूद्गााल तरंगो को हिलाकर उनकोडराता हुआ उसी की प्रतिध्वनि करता था। मन्त्र-मुग्ध के समान सिंधु भीअपनी तरंगों के घात-प्रतिघात पर चिढ़कर उन्हीं शब्दों को दुहराता है।
समुद्र को स्वीकार करते देखकर अनन्त आकाश भी उसी की प्रतिध्वनिकरता है।
धीरे-धीरे विशाल सागर के हृदय को फाड़ता हुआ एक जंगी जहाजदिखाई पड़ा। मदन और मृणालिनी, दोनों ही, स्थिर दृष्टि से उसकी ओरदेखते रहे। जहाज अपनी जगह पर ठहरा और इधर पोर्ट-संरक्षक ने उसपर सैनिकों के उतरने के लिए यथोचित प्रबन्ध किया।
समुद्र की गम्भीरता, संध्या की निस्तब्धता और बैंड के सुरीले रागने दोनों के हृदयों को सम्मोहित कर लिया और वे इन्हीं बातों की चर्चाकरने लग गए।
मदन ने कहा - मृणालिनी, यह बाजा कैसा सुरीला है?
मृणालिनी का ध्यान टूटा। सहसा उसके मुख से निकला - तुम्हारेकल-कंठ से अधिक नहीं है।
इसी तरह दिन बीतने लगे। मदन को कुछ काम नहीं करना पड़ताथा। जब कभी उसका जी चाहता, तब वह महासागर के तट पर जाकरप्रकृति की सुषमा को निरखता और उसी में आनन्दित होता था। वह प्रायःगोता लगाकर मोती निकालने वालों की ओर देखा करता और मन-ही-म उनकी प्रशंसा किया करता था।
मदन का मालिक भी उसको कभी कोई काम करने के लिए आज्ञानहीं देता था। वह उसे बैठा देखकर मृणालिनी के साथ घूमने के लिएजाने की आज्ञा देता था। उसका स्वभाव ही ऐसा सरल था कि सभीसहवासी उससे प्रसन्न रहते थे, वह भी उनसे खूब हिल-मिलकर रहताथा।
संसार भी बड़ा प्रपंचमय यन्त्र है। वह अपनी मनोहरता पर आपही मुग्ध रहता है।
एक एकान्त कमरे में बैठे हुए मृणालिन और मदन ताश खेल रहेहैं, दोनों जी-जान से अपने-अपने जीतने की कोशिश कर रहे हैं।
इतने ही में सहसा अमरनाथ बाबू उस कोठरी में आए। उनके मुख-मण्डल पर क्रोध झलकता था। वह ाते ही बोले - क्यों रे दुष्ट! तू बालिकाको फुसला रहा है।
मदन तो सुनकर सन्नाटे में आ गया। उसने नम्रता के साथ होकरपूछा - क्यों पिता, मैंने क्या किया है?
अमरनथ - अभी पछता ही है! तू इस लड़की को बहकाकर अपनेसाथ लेकर दूसरी जगह भागना चाहता है?
मदन - बाबूजी, यह आप क्या कह रहे हैं? मुझ पर आप इतनाअविश्वास कर रहे हैं? किसी दुष्ट ने आपके झूठी बात कही है।अमरनाथ - अच्छा, तुम यहाँ से चलो और अब से तुम दूसरी
कोठरी में रहा करो। मृणालिनी को ओर तुतमको अगर हम एक जगहदेख पाएँगे तो समझ रखो - समुद्र के गर्ब में ही तुमको स्थान मिलेगा।मदन अमरनाथ बाबू के पीछे चला। मृणालिनी मुरझा गई, मदनके ऊपर अपवाद लगाना उसके सुकुमार हृदय से सहा नहीं गया। वह नव-कुसुमित पददलित आश्रयविहीन माधवी-लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ीऔर लोट-लोटकर रोने लगी।
मृणालिनी ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और वहीं लोटतीहुई आँसुओं से हृदय की जलन को बुझाने लगी।
कई घण्टे के बाद जब उसकी माँ ने जाकर किवाड़ खुलवाए, उससमय उसकी रेशमी साड़ी का आँचल भीगा हुआ, उसका मुख सूखा हुआऔर आँखें लाल-लाल हो गई थीं। वास्तव में वह मदन के लिए रोई थीइसी से उसकी यह दशा हो गई। सचमुच संसार बड़ा प्रपंचमय है।
दूसरे घर में रहने से मदन बहुत घबड़ाने लगा। वह अपना मनबहलाने के लिए कभी-कभी समुद्र-तट पर बैठकर गद्गद् हो सूर्य-भगवानका पश्चिम दिशा से मिलना देखा करता था; और जब तक वह अस्तन हो जाते थे, तब तक बराबर टकटकी लगए देखता था। वह अपनेचि्रूद्गा में अनेक कल्पना की लहरें उठाकर समुद्र और अपने हृदय की तुलनाभी किया करता था।
मदन का अब इस संसार में कोई नहीं ंहै। माता भारत में जीतीहै या मर गई - यह भी बेचारे को नहीं मालूम! संसार की मनोहरता,आशा की भूमि, दन के जीवनस्रोत का जल, मदन के हृदय-कानन काअपूर्व पारिजात, मदन के हृदय-सरोवर की मनोहर मृणालिनी भी अब उससेअलग कर दी गई है। जननी, जन्मभूमि, प्रिय, कोई भी तो मदन के पासनहीं है! इसी से उसका हृदय आलोड़ित होने लगा और वह अनाथ बालकईर्ष्या से भरकर अपने अपमान की ओर ध्यान देने लगा . उसको भलीभाँतिविश्वास हो गया कि इस परिवार के साथ रहना ठीक नहीं है। जब इन्होंनेमेरा तिरस्कार किया, तो अब इन्हीं के आश्रित होकर क्यो रहूँ?यह सोचकर उसने अपने चि्रूद्गा में कुछ निश्चय किया और कपड़ेपहनकर समुद्र की ओर घूमने के लिए चल पड़ा। राह में वह अपनीउधेड़-बुन में चला जाता था कि किसी ने पीठ पर हाथ रखा। मदन नेपीछे देखकर कहा - ओह, आप हैं, किशोर बाबू?
किशोरनाथ ने हँसकर कहा - कहाँ बगदादी - ऊँट की तरह भागेजाते हो?
- कहीं तो नहीं, यहीं समुद्र की ओर जा रहा हूँ।
- समुद्र की ओर क्यों?
- शरण माँगने के लिए।
यह बात मदन ने डबडबाई हुई आँखों से किशोर की ओर देखकरकही।
किशोर ने रूमाल से मदनद के आँसू पोंछते-पोंछते कहा - मदन,हम जानते हैं कि उस दिन बाबूजी ने जो तिरस्कार किया था, उससे तुमकोबहुत दुःख है, मगर सोचो तो, उसमें दोष किसका है? यदि तुम उस रोजमृणालिनी को बहकाने का उद्योग न करते, तो बाबूजी तुम पर क्यों अप्रसन्नहोते।
अब तो मदन से नहीं रहा गया। उसने क्रोध से कहा - कौन दुष्टउस देवबाला पर झूठा अपवाद लगाता है? और मैंने उसे बहकाया है,इस बात का कौन साक्षी है? किशोर बाबू! आप लोग मालिक हैं, जोचाहें, सो कहिए। ापने पालन किया है, इसलिए, यदि आप आज्ञा दें तोमदन समुद्र में भी कूद पड़ने के लिए तैयार है, मगर अपवाद औरअपमान से बचाए रहिए।
कहते-कहते मदन का मुख क्रोध से लाल हो आया, आँखों में आँसूभर आए, उसके ाकार से उस समय दृढ़ प्रतिज्ञा झलकती थी।
किशोर ने कहा - इस बारे में विशेष हम कुछ नहीं जानते, केवलमाँ के मुख से सुना था कि जमादार ने बाबूजी से तुम्हारी निंदा की हैऔर इसी से वह तुम पर बिगड़े हैं।
मदन ने कहा - आप लोग अपनी बाबूगीरी में भूले रहते हैं औरये बेईमान आपका सब माल खाते हैं। मैंने उस जमादार को मोती निकालनेवालों के हाथ मोती बेचते देखा; मैंने पूछा - क्यों, तुमने मोती कहाँ पाया?
तब उसने गिड़गिड़ाकर, पैर पकड़कर, मुझसे कहा - बाबूजी से नकहिएगा। मैंने उसे डाँटकर फिर ऐसा काम न करने के लिए कहकर छोड़दिया, आप लोगों से नहीं कहा। इसी कारण वह ऐसी चाल चलता हैऔर आप लोगों ने भी बिना सोचे-समझे उसकी बात पर विश्वास करलिया है।
यों कहते-कहते मदन उठ खड़ा हो गया। किशोर ने उसका हाथपकड़कर बैठाया और आप भी बैठकर कहने लगा - मदन, घबड़ाओ मत,थोड़ी देर बैठकर हमारी बात सुनो। हम उसको दण्ड देंगे और तुम्हाराअपवाद भी मिटावेंगे, मगर एक बात जो कहते हैं, उसे ध्यान देकरसुनो।
मृणालिनी अब बालिका नहीं है और तुम भी बालक नहीं हो। तुम्हारे-उसके जैसे भाव हैं, सो भी हमसे छिपे नहीं हैं। फिर ऐसी जगह परतो यही चाहते हैं कि तुम्हारा और मृणालिनी का ब्याह हो जाए।
मदन ब्याह का नाम सुनकर चौंक पड़ा और मन में सोचने लगाकि यह कैसी बात? कहाँ हम युक्तप्रान्त-निवासी अन्य जातीय और कहाँये बंगाली-ब्राह्मण, फिर ब्याह किस तरह हो सकता है! हो-न-हो, ये मुझेभुलावा देते हैं। क्या मैं इनके साथ अपना धर्म नष्ट करूँगा? क्या इसीकारण ये लोग मुझे इतना सुख देते हैं और खूब खुलकर मृणालिनी केसाथ घूमने-फिरने और रहने देते थे? मृणालिनी को मैं जी से चाहता हूँऔर जहाँ तक देखता हूँ, मृणालिनी भी मुझसे कपट-प्रेम नहीं करती, किन्तुयह ब्याह नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें धर्म और अधर्म दोनों का डरहै। धर्म का निर्णय करने की मुझमें शक्ति नहीं है। मैंने ऐसा ब्याह होतेन देखा है और न सुना है, फिर कैसे यह ब्याह करूँ?
इन्हीं बातों को सोचते-सोचते बहुत देर हो गई। जब मदन को यहसुनाई पड़ा कि ‘अच्छा, सोचकर हमसे कहना’ तब वह चौंक पड़ा औरदेखा तो किशोरनाथ जा रहा है।
मदनने किशोरनाथ के जाने पर कुछ विशेष ध्यान नहीं ंदिया औरफिर अपने विचारों के सागर में मग्न हो गया।
फिर मृणालिनी का ध्यान आया, हृदय धड़कने लगा। मदन कीचिन्ता शक्ति का वेग रुक गया और उसके मन में यही समााया कि ऐसेधर्म को मैं दूर से ही हाथ जोड़ता हूँ। मृणालिनी- प्रेम प्रतिमा मृणालिनीको मैं नहीं छोड़ सकता।
मदन इसी मन्तव्य को स्थिर कर, समुद्र की ओर मुख कर, उसकीगम्भीरता निहारने लगा।
वहा पर कुछ धनी लोग पैसा फेंककर उसे समुद्र में से ले आनेका तमाशा देख रहे थे। मदन ने सोचा कि प्रेमियों का जीवन ‘प्रेम’ हैऔर सज्जनों का अमोघ धन ‘धर्म’ है। ये लोग अपने प्रेम-जीवन कीपरवाह न कर धर्म-धन को बटोरते हैं और फिर इनके पास जीवन औरधन, दोनों चीजें दिखाई पड़ती हैं। तो क्या मनुष्य इनका अनुकरण नहींकर सकता? अवश्य कर सकता है। प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नहीं है किधर्म को हटाकर उस स्थान पर आप बैठे। प्रेम महान् है, प्रेम उदार है।
प्रेमियों को भी वह उदार और महान् बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है‘आत्मत्याग’। तो क्या मृणालिनी से ब्याह कर लेना ही प्रेम में गिनाजाएगा? नहीं-नहीं, वह घोर स्वार्थ है। मृणालिनी को मैं जन्म-भर प्रेमसे अपने हृदय-मन्दिर में बिठाकर पूजूँगा, उसकी सरल प्रतिमा को पंकमें न लपेटूँगा, परन्तु ये लोग जैसा बर्ताव करते हैं, उससे सम्भव है किमेरे विचार पलट जाएँ। इसलिए अब इन लोगों से दूर रहना उचित है।
मदन इन्हीं बातों को सोचता हुआ लौट आया और जो अपनामासिक वेतन जमा किया था वह तथा कुछ कपड़े आदि आवश्यक सामानलेकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने एक पत्र भी लिखकर वहींछोड़ दिया।
जब बहुत देर तक लोगों ने मदन को नहीं देखा, तब चिन्तित हुए।खोज करने से उनको मदन का पत्र मिला, जिसे किशोरनाथ ने बढ़करउसका मर्म पिता को समझा दिया।
पत्र का भाव समझते ही उनकी सब आशाएँ निर्मूल हो गइर्ं। उन्होंनेकहा - किशोर, देखो, हमने सोचा था कि मृणालिनी किसी कुलीन हिन्दूको समर्पित हो, परन्तु वह नहीं हुआ। इतना व्यय और परिश्रम, जो मदनके लिए किया गया, सब व्यर्थ हुआ। अब वह कभी मृणालिनी से ब्याहनहीं करेगा, जैसा कि उसके पत्र से विदित होता है।
- आपके उस व्यवहार ने उसे और भी भड़का दिया। अब वहकभी ब्याह न करेगा।
- मृणालिनी का क्या होगा?
- जो उसके भाग्य में है!
- क्या जाते समय मदन ने मृणालिनी से भी भेंट नहीं की?
- पूछने से मालूम होगा।
इतना कहकर किशोर मृणालिनी के पास गया। मदन उससे भी नहींमिला था। किशोर ने आकर पिता से सब हाल कह दिया।
अमरनाथ बहुत ही शोकग्रस्त हुए। बस, उसी दिन से उनकी चिन्ताबढ़ने लगी। क्रमशः वह नित्य ही मद्य-सेवन करने लगे। वह तो प्रायःअपनी चिन्ता दूर करने के लिए मद्य-पान करते थे, किन्तु उसका फलउलटा हुआ। उनकी दशा और भी बुरी हो चली, यहाँ तक कि वह सबसमय पान करने लगे, काम-काज देखना-भालना छोड़ दिया।
नवयुवक ‘किशोर’ बहुत चिन्तित हुआ, किन्तु वह धैर्य के साथ-साथ सांसारिक कष्ट सहने लगा।
मदन के चले जाने से मृणालिनी को बड़ा कष्ट हुआ। उसे यह बातऔर भी खटकती थी कि मदन जाते समय उससे क्यों नहीं मिला? वहयह नहीं समझती थी कि मदन यदि जाते समय उससे मिलता, तो जानहीं सकताथा।
मृणालिनी बहुत विरक्त हो गई। संसार उसे सूना दिखाई देने लगा,किन्तु वह क्या करे? उसे अपने मानसिक व्यथा सहनी ही पड़ी।
मदन ने अपने एक मित्र के यहाँ जाकर डेरा डाला। वह भी मोतीका व्यापाकर करता था। बहुत सोचने-विचारने के उपरान्त उसने भी मोतीका ही व्यवसाय करना निश्चित किया।
मदन नित्य, संध्या के समय, मोती के बाजार में जा, मछुए लोग,जो अपने महेनताने में मिली हुई मोतियों की सीपियाँ बेचते थे, उनकोखरीदने लगा; क्योंकि इसमं थोड़ी पूँजी से अच्छी तरह काम चलसकताथा। ईश्वर की कृपा से उसका नित्य विशेष लाभ होने लगा।
संसार में मनुष्य की अवस्था सदा बदलती रहती है। वही मदन,जो तिरस्कार पा दासत्व छोड़ने पर लक्ष्य भ्रष्ट हो गया था, अब एकप्रसिद्ध व्यापारी बन गया।
मदन इस समय सम्पन्न हो गया। उसके यहाँ अच्छे-अच्छे लोगमिलने-जुलने आने लगे। उसने नदी के किनारे एक बहुत सुन्दर बंगलाबनवा लिया है; उसके चारों ओर सुन्दर बगीचा भी है। व्यापारी लोगउत्सव के अवसरों पर उसको निमन्त्रण देते हैं; वह भी अपने यहाँ कभीकभी उन लोगों को निमन्त्रित करता है। संसार की दृष्टि में वह बहुत सुखीथा, यहाँ तक कि बहुत लोग उससे डाह करने लगे। सचमुच संसार बड़ाआडम्बर-प्रियि है।
मदन सब प्रकार से शारीरिक सुख भोगा करता था; पर उसकेचि्रूद्गा-पट पर किसी रमणी की मलीन छाया निरन्तर अंकित रहती थी;जो उसे कभी-कभी बहुत कष्ट पहुँचाती थी। प्रायः वह उसे विस्मृति केजल में धो डालना चाहता था। यद्यपि वह चित्र किसी साधारण कारीगरका अंकित किया हुआ नहीं था कि एकदम ही लुह्रश्वत हो जाए, तथापिवह बराबर उसे मिटाने की चेष्टा करता था।
अकस्मात् एक दिन, जब सूर्य की किरणें सुवर्ण-सी-सुवर्ण आभाधारण किए हुए थीं, नदी का जल मौज से बह रहा था, उस समय मदनकिनारे खड़ा हुआ स्थिर भाव से नदी की शोभा निहार रहा था। उसकोवहाँ कई सुसज्जित जलयान दीख पड़े। उसका चि्रूद्गा, न जाने क्यों उत्कंठितहुआ। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि वहाँ वार्षिक जल-विहार काउत्सव होता है, उसी में लोग जा रहे हैं।
मदन के चि्रूद्गा में भी उत्सव देखने की आकांक्षा हुई। वह भी अपनीनाव पर चढ़कर उसी ओर चला। कल्लोलिनी की कल्लोलों में हिलती हुईवह छोटी-सी सुसज्जित तरी चल दी।
मदन उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ नावों का जमाव था। सैंकड़ों बजरेऔर नौकाएँ अपने नीले-पीले, हरे-लाल निशान उड़ाती हुई इधर-उधर घूमरही हैं। उन पर बैठे हुए मित्र लोग आपस में आमोद-प्रमोद कर रहेहैं। कामिनियाँ अपने मणिमय अलंकारों की प्रभा से उस उत्सव कोआलोकमय किए हुए हैं।
मदन भी अपनी नाव पर बैठा हुआ एकटक इस उत्सव को देखरहा है। उसकी आँखें जैसे किसी को खोज रही हैं। धीरे-धीरे संध्या होगई। क्रमशः एक, दो, तीन तारे दिखाई दिए। साथ ही पूर्व की तरफ,ऊपर को उठते हुए गुब्बारे की तरह चन्द्रबिम्ब दिखाई पड़ा। लोगों केनेत्रों में आनन्द का उल्लास छा गया। इधर दीपक जल गए। मधुर संगीर,शून्य की निस्तब्धता में और भी गूँजने लगा। रात के साथ ही आमोदप्रमोद की मात्रा बढ़ी।
परन्तु मदन के हृदय में सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव के बाहरवह अपनी नौका को धीरे-धीरे चला रहा है। अकस्मात् कोलाहल सुनाईपड़ा, वह चौंककर उधर देखने लगा। उसी समय कोई चार-पाँच हाथदूर काली-सी चीज दिखाई दी। अस्त हो रहे चन्द्रमा का प्रकाश पड़नेसे कुछ वस्त्र भी दिखाई देने लगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे ही जलमें कूद पड़ा और उसी वस्तु के साथ बह चला।
उषा की आभा पूर्व में दिखाई पड़ रही है। चन्द्रमा की मलिनज्योति तारागण को भी मलिन कर रही है।
तरंगों से शीतल दक्षिण-पवन धीरे-धीरे संसार को निद्रा से जगारहा है। पक्षी भी कभी-कभी बोल उठते हैं।
निर्जन नदी-तट में एक नाव बँधी है और बाहर एक सुकुमारीसुन्दरी का शरीर अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है। एक युवक सामने बैठाहुआ उसे होश में लाने का उद्योग कर रहा है। दक्षिण-पवन भी उसे इसशुभ काम में सहायता दे रहा है।
सर्य की पहली किरण का स्पर्श पाते ही सुन्दरी के नेत्र-कमलधीरे-धीरे विकसित होने लगे। युवक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया औरझुककर उस कामिनी से पूछा - मृणालिनी, अब कैसी हो?
मृणालिनी ने नेत्र खोलकर देखा। उसके मुख-मण्डल पर हर्ष केचिह्न दिखाई पड़े। उसने कहा - ह्रश्वयारे मदन, अब अच्छी हूँ!
प्रणय का भी वेग कैसा प्रबल है! यह किसी महासागर की प्रचण्डआँधी से कम प्रबलता नहीं रखता। इसके झोंके से मनुष्य की जीवननौका असीम तरंगों से घिरकर प्रायः फूल को नहीं पाती। अलौकिकआलोकमय अन्धकार में प्रणयी अपनी प्रणय-तरी पर आरोहण कर उसीआनन्द के महासागर में घूमना पसन्द करता है, कूल की ओर जाने कीइच्छा भी नहीं करता।
इस समय मदन और मृणालिनी दोनों की आँखों में आँसुओं कीधारा धीरे-धीरे बह रही है। चंचलता का नाम भी नहीं है। कुछ बलआने पर दोनों उस नाव में जा बैठे।
मदन ने मल्लाहों को पास के गाँव में दूध और कुछ खाने कीवस्तु लाने के लिए भेजा। फिर दोनों ने बिछुड़ने के उपरान्त की सब कथापरम्परा कह सुनाई।
मृणालिनी कहने लगी - भैया किशोरनाथ से मैं तुम्हारा सब हाल सुनाकरती थी, पर वह कहा करते थे कि तुमसे मिलने में उनको संकोच होताहै। इसका कारण उन्होंने कुछ नहीं बतलाया। मैं भी हृदय पर पत्थर रखकरतुम्हारे प्रणय को आज तक स्मरण कर रही हूँ।मदन ने बात टालकर पूछा - मृणालिनी, तुम जल में कैसे गिरीं?
मृणालिनी ने कहा - मुझे बहुत उदास देख भैया ने कहा, चलोतुम्हें एक तमाशा दिखलावें, सो मैं भी आज यहाँ मेला देखने आई। कुछकोलाहल सुनकर मैं नाव पर खड़ी हो देखने लगी। दो नाववालों में झगड़ाहो रहा था। उन्हीं के झगड़े में हाथापाई में नाव हिल गई और मैं गिरपड़ी। फिर क्या हुआ, मैं कुछ नहीं जानती।
इतने में दूर से एक नाव आती हुई दिखाई पड़ी, उस पर किशोरनाथथा। उसने मृणालिनी को देखकर बहुत हर्ष प्रकट किया, और सब लोगमिलकर बहुत आनन्दित हुए।
बहुत कुछ बातचीत होने के उपरान्त मृणालिनी और किशोर दोनोंने मदन के घर चलना स्वीकार किया। नावें नदी तट पर स्थित मदन केघर की ओर बढ़ीं। उस समय मदन को एक दूसरी ही चिन्ता थी।
भोजन के उपरान्त किशोरनाथ ने कहा - मदन, हम अब भी तुमकोछोटा भाई ही समझते हैं; पर तुम शायद हमसे कुछ रुष्ट हो गए हो।मदन ने कहा - भैया, कुछ नहीं। इस दास से जो कुछ ढिठाईहुई हो, उसे क्षमा करना, मैं तो आपका वही मदन हूँ।
इसी तरह बहुत-सी बातें होती रहीं, फिर दूसरे दिन किशोरनाथमृणालिनी को साथ लेकर अपने घर गया।
अमरनाथ बाबू की अवस्था बड़ी शोचनीनय है। वह एक प्रकारके मद्य के नशे में चूर रहते हैं, कामकाज देखना सब छोड़ दिया है।
अकेला किशोरनाथ कामकाज सँभालने के लिए तत्पर हुआ, पर उसकेव्यापार की दशा अत्यन्त शोचनीय होती गई, और उसके पिता का स्वास्थ्यभी बिगड़ता चला। क्रमशः उसको चारों ओर अन्धकार दिखाई देने लगा।
संसार की कैसी विलक्षण गति है! जो बाबू अमरनाथ एक समयसारे सीलोन में प्रसिद्ध व्यापारी गिने जाते थे और व्यापारी लोग जिनसेसलाह लेने के लिए तरसते थे, वही अमरनाथ इस समय कैसी अवस्थामें हैं! कोई उनसे मिलने भी नहीं आता!
किशोरनाथ एकदिन अपने ऑफिस में बैठा कार्य देख रहा था।अकस्मात् मृणालिनी भी वहीं आ गई और एक कुर्सी खींचकर बैठ गई।उसने किशोर से कहा - क्यों भैया, पिताजी की कैसी अवस्था है?
कामकाज की भी दशा अच्छी नहीं है, तुम भी चिन्ता में व्याकुल रहतेहो, यह क्या है?
किशोरनाथ - बहन, कुछ न पूछो, पिताजी की अवस्था तो तुमदेख ही रही हो। कामकाज की अवस्था भी अत्यन्त शोचनीय हो रही है।पचास लाख रुपये के लगभग बाजार का देनाहै और ऑफिस का रुपयासब बाजार में फँस गया है, जो कि काम देखे-भाले बिना पिताजी कीअस्वस्थता के कारण दब-सा गया है। इसी सोच में बैठा हुआ हूँ किईश्वर क्या करेंगे!
मृणालिनी भयातुर हो गई। उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहनेलगी। किशोर उससे समझाने लगा; फिर बोला - केवल एक ईमनदारकर्मचारी अगर कामकाज की देखभाल करता, तो यह अवस्था न होती।
आज यदि मदन होता, तो हम लोगों की यह दशा न होती।मदन का नाम सुनते ही मृणालिनी कुछ विवर्ण हो गई और उसकीआँखों में आँसू भर आए। इतने में दरबान ने आकर कहा - सरकार,एक रजिस्ट्रीट चिठ्ठी मृणालिनी देवी के नाम से आई है, डाकिया बाहरखड़ा है।
किशोर ने कहा - बुला लाओ।
किशोर ने कहा रजिस्ट्री लेकर खोली। उसमें एक पत्र और एकस्टाम्प का कागज था। देखकर किशोर ने मृणालिनी के आगे फेंक दिया।
मृणालिनी ने वह पत्र किशोर के हाथ में देकर पढ़ने के लिए कहा। किशोरपढ़ने लगा -
“मृणालिनी!
आज मैं तुमको पत्र लिख रहा हूँ। आशा है कि तुम इसे ध्यानदेकर पढ़ोगी। मैं एक अनजाने स्थान का रहनेवाला कंगाल के भेष मेंमें तुमसे मिला और तुम्हारे परिवार में पालित हुआ। तुम्हारे पिता ने मुझेआश्रय दिया, और मैं सुख से तुम्हारा मुख देखकर दिन बिताने लगा, परदैव को वह ठीक न जँचा! अच्छा, जैसी उसकी इच्छा! पर मैं तुमहारेपरिवार को सदा स्नेह की दृष्टि से देखता हूँ। बाबू अमरनाथ के कहने-सुनने का मुझे कुछ ध्यान भी नहीं है, मैं उसे आशीर्वाद समझता हूँ। मेरेचि्रूद्गा में उसका तनिक भी ध्यान नहीं है, पर केवल पश्चा्रूद्गााप यह हैकि मैं उनसे बिना कहे-सुने चला आया। अच्छा, इसके लिए उनसे क्षमामाँग लेना और भाई किशोरनाथ से भी मेरा यथोचित अभिवादन कह देना।
अब कुछ आवश्यक बातें मैं लिखता हूँ, उन्हें ध्यान से पढ़ो। जहाँतक सम्भव है, उनके करने में तुम आगा-पीछा न करोगी - यह मुझेविश्वास है। तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है, मैं उसेलिखकर तुम्हारा दुःख नहीं बढ़ाना चाहता। सुनो, यह एक ‘विल’ है,जिसमें मैंने अपनी सब सीलोन की सम्मपि्रूद्गा तुम्हारे नाम लिख दी है।
वह तुहारी ही है, उसे लेने में तुमको संकोच न करना चाहिए। वह सबतुम्हारे ही रुपये का लाभ है। जो धन मैं वेतन में पाताथा, वही मूलकारण है। अस्तु, यह मूलधन, लाभ और ब्याज सहित, तुमको लौटा दियाजाता है। इसे अवश्य स्वीकार करना और स्वीकार करो या न करो, अबसिवा तुम्हारे इसका स्वामी कौन है? क्योंकि मैं भारतवर्ष से जिस रूपमें ाया था, उसी रूप में लौटा जा रहा हूँ। मैंने इस पत्र को लिखकरतब भेजा है, जब घर से निकलकर रवाना हो चुका हूँ। अब तुमसे भेंटकभी नहीं हो सकती। तुम यदि आओ भी तो उस समय मैं जहाज परहोऊँगा। तुमसे केवल यही प्रार्थना है कि ‘तुम मुझे भूल जाना’।
मदन’’
यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की और किशोरनाथ की अवस्था दूसरीही हो गई। मृणालिनी ने कातर स्वर में कहा-भैया, क्या समुद्र-तट तकचल सकते हो?
किशोरनाथ ने खड़े होकर कहा - अवश्य!
बस, तुरन्त ही एक गाड़ी पर सवार होकर दोनों समुद्र-तट की ओरचले। ज्योंही वे पहुँचे, त्योंही जहाज तट छोड़ चुका था। उस समयव्याकुल होकर मृणालिनी की आँखें किसी को खोज रही थीं, किन्तु अधिकखोज नहीं करनी पड़ी।
किशोर और मृणालिनी दोनों ने देखा कि गेरूए रंग का कपड़ा पहनेहुए एक व्यक्ति दोनों को हाथ जोड़े हुए जहाज पर खड़ा है और जहाजशीघ्रता के साथ समुद्र के बीच में चला जा रहा है!
मृणालिनी ने देखा कि बीच में अगाध समुद्र है!
७. सिकन्दर की शपथ
सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमकसे ‘मिंगलौर दुर्ग’ घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़ने वाले यन्त्र दुर्गकी दीवालों से लगा दिए गए हैं और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता केसाथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियं कीसेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी, पर वह उसी समयपहाड़ से टकराए हुए समुद्र की तरह फिरा दी गई और भारतीय युवकवीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकन्दर उनकेप्रचण्ड अस्त्रघात को रोकता पीछे हटने लगा।
अफगानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीर कहाँ से आगए? यह आशंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वे निमन्त्रित होकरउनकी रक्षा के लिए सुदूर से आए हैं, जो कि संख्या में केवल सात हजारहोने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं।
सिकन्दर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिन व्यतीत होगए। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकन्दर उदास होकर कैम्प में लोटगया और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। गाजा और परसिपोलिसआदि के विजेता को अफगानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतनापरिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उल्टे कई बार उसेअपमानित होना पड़ा।
बैठे-बैठे सिकन्दर को बहुत देर हो गई। अँधकार फैलकर संसारको चिपाने लगा, जैसे कोई कपचाटारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो।
केवल कभी-कभी दो-एक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावहशब्द को सुना देते हैं। सिकन्दर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एकवीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकन्दर ने उससे कुछ गुह्रश्वत बातें कीं औरवह चला गया। अंधकार घनीभूत हो जाने पर सिकन्दर भी उसी ओरउठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था। दुर्ग के उस भागमें, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुतशीघ्र कल की लड़ाई के लिए प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्रामकरने के लिए चले गए। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकरकुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनाप्रकाश फैलाने वाली मशाल को लिए हुए दूसरी ओर चला जाता है। उससमय उस घोर अँधकार में वह उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया औरभी स्पष्ट हो जाती है। उसी छाया में छिपा हुआ सिकन्दर खड़ा है। उसकेहाथ में धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुखयदि कोई इस समय प्रकाश में देखता तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ीभयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समयविचित्र भावों से भरा है। अकस्मात् उसके मुख से एक प्रसन्ता का चीत्कारनिकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।
समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा, जिसने आकरसिकन्दर से कहा - देर न कीजिए, क्योंकि यह वही है।
सिकन्दर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ाऔर उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा। लक्ष्यठीक था, वह मनुष्य लुढ़ककर नीचे आ रहा। सिकन्दर और उसके साथीने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु उसके चीत्कार से दुर्ग पर का एकप्रहरी झुककर देखने लगा। उसने प्रकाश डालकर पूछा - कौन है?
उ्रूद्गार मिला - मैं दुर्ग से नीचे गिर पड़ा हूँ।
प्रहरी ने कहा - घबड़ाइए मत, मैं डोरी लटकाता हूँ।
डोरी बहुत जल्द लटका दी गई, अफगान वेशधारी सिकन्दर उसकेसहारे ऊपर चढ़ गया। ऊपर जाकर सिकन्दर ने उस प्रहरी को भी नचेगिरा दिया, जिसे उसके साथी ने मार डाला और उसका वेश आप लेकरउस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाने के पहले उसने अपनी छोटी-सी सेनाको भी उसी जगह बुला लिया और धीरे-धीरे उसी रस्सी की सीढ़ी सेवे सब ऊपर पहुँचा दिए गए।
दुर्ग के प्रकोष्ठ में सरदार की सुन्दर पत्नी बैठी थी। मदिरा-विलोलदृष्टि से कभी दर्पण में अपना सुन्दर मुख और कभी अपने नवीन नीलवसन को देख रही है। उसका मुख लालसा की मदिरा से चमक-चमककरउसकी ही आँखों में चकाचौंध पैदा कर रहा है। अकस्मात् ‘ह्रश्वयारे सरदार’कहकर वह चौंक पड़ी, पर उसकी प्रसन्नता उसी क्षण बदल गई, जबउसने सरदार के वेश में दूसरे को देखा। सिकन्दर का मानुषिक सौन्दर्यकुछ कम नहीं था, अबला-हृदय को और भी दुर्बल बना देने के लिएवह पर्याह्रश्वत था। वे एक-दूसरे को निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे, परअफगानरमणी की शिथिलता देर तक न रही, उसने हृदय के सारे बलको एकत्र करके पूछा - तुम कौन हो?
उ्रूद्गार मिला - शहंशाह सिकन्दर।
रमणी ने पूछा - यह वस्त्र किस तरह मिला?
सिकन्दर ने कहा - सरदार को मार डालने से।
रमणी के मुख से चीत्कार के साथ ही निकल पड़ा - क्या सरदारमारा गया?
सिकन्दर - हाँ, अब वह उस लोक में नहीं है।
रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढँक लिया, पर उसी क्षण उसकेहाथ में एक चमचमाता हुआ छुरा दिखाई देने लगा।
सिकन्दर घुटने के बल बैठ गया और बोला - सुन्दरी! एक जीव केलिए तुम्हारी दो तलवारें बहुत थतीं, फिर तीसरी की क्या आवश्यकता है?
रमणी की दृढ़ता हट गई और न जाने क्यों उसके हाथ का छुराछिटककर गिर पड़ा, वह भी घुटनों के बल बैठ गई।
सिकन्दर ने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाया। अब उसने देखा किसिकन्दर अकेला नहीं है, उसके बहुत-से सैनिक दुर्ग पर दिखाई दे रहेहैं। रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और सन्दूक खोलकर एक जवाहरातका डिब्बा ले आकर सिकन्दर के आगे रखा। सिकन्दर ने उसे देखकरकहा - मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है,दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया,इतना ही बहुत है।
दुर्ग के सिपाही यह देखकर कि शत्रु भीतर आ गया है, अस्त्र लेकरमारपीट करने पर तैयार हो गए, पर सरदार-पत्नी ने उन्हें मना किया,क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकन्दर की विजयवाहिनी दुर्ग केद्वार पर खड़ी है।
सिकन्दर ने कहा - तुम घबराओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छाहोगी, उसी प्रकार सन्धि के नियम बनाए जाएँगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।
अब सिकन्दर को थोड़ी दूर तक सरदार-पत्नी पहुँचा गई। सिकन्दरथोड़ी सेना छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया।
सन्धि हो गई। सरदार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग सिकन्दरके अधीन होगा। सिकन्दर ने भी उसी को यहाँ की रानी बनाया औरकहा—भारतीय योद्धा, जो तुम्हारे यहाँ आए हैं, वे अपने देश को लौटकरचले जाएँ। मैं उनके जाने में किसी प्रकार की बाधा न डालूँगा। सबबातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली गइर्ं।
राजपूत वीर अपने परिवार के साथ उस दुर्ग से निकल पड़े, स्वदेशकी ओर चलने के लिए तैयार हुए। दुर्ग के समीप ही एक पहाड़ी परउन्होंने अपना डेरा जमाया और बोजन करने का प्रबन्ध करने लगे।भारतीय रमणियाँ जब अपने ह्रश्वयारे पुत्रों और पतियों के लिए भोजनप्रस्तु कर रही थीं, तो उनमें उस अफगान-रमणी के बारे में बहुत हो रहीथीं और वे सब उसे बहुत घृणा की दृष्टि से देखने लगीं, क्योंकि उसनेएक पति-हत्यारे को आत्मसमर्पण कर दिया था। भोजन के उपरान्त जबसब सैनिक विश्राम करने लगे, तब युद्ध की बातें कहकर अपने चि्रूद्गा कोप्रसन्न करने लगे। थोड़ी देर नहीं बीती थी कि एक ग्रीक अश्वारोही उनकेसमीप आता दिखाई पड़ा, जिसे देखकर एक राजपूत युवक उठ खड़ा हुआऔर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
ग्रीक सैनिक उसके समीप आकर बोला - शहंशाह सिकन्दर ने तुमलोगों को दया करके अपनी सेना में भरती करने का विचार किया है।
आशा है कि इस संवाद से तुम लोग बहुत प्रसन्न होगे।
युवक बोल पड़ा - इस दया के लिए हम लोग बहुत कृतज्ञ हैं,पर अपने भाइयों पर अत्याचार करने में ग्रीकों का साथ देने के लिएहम लोगो कभी प्रस्तुत नहीं हैं।
ग्रीक - तुम्हें प्रस्तु होना चाहिए, क्योंकि यह शहंशाह सिकन्दर कीआज्ञा है।
युवक - नहीं महाशय, क्षमा कीजिए। हम लोग आशा करते हैं किसन्धि के अनुसार हम लोग अपने देश को शान्तिपूर्वक लौट जाएँगे, इसमेंबाधा न डाली जाएगी।
ग्रीक - क्या तुम लोग इस बात पर दृढ़ हो? एक बार औरविचारकर उ्रूद्गार दो, क्योंकि उसी उ्रूद्गार पर तुम लोगों का जीवन-मरणनिर्भर होगा।
इस पर कुछ राजपूतों ने समवेत स्वर से कहा - हाँ-हाँ, हम अपनीबात पर दृढ़ हैं, किन्तु सरदार, जिसने देवताओं के नाम से शपथ लीहै, अपनी शपथ को न भूलेगा।
ग्रीक - सिकन्दर ऐसा मूर्ख नङइर्ँ ङऐ खइ आए हुए शत्रुओं कोऔर दृढ़ होने का अवकाश दे। अस्तु, अब तुम लोग मरने के लिए तैयारहो।
इतना कहकर वह ग्रीक अपने घोड़े को घुमाकर सीटी मारने लगा,जिसे सुनकर अगणित ग्रीक-सेना उन थोड़े से हिन्दुओं पर टूट पड़ी।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्होंने प्राण-पण से युद्ध कियाऔर जब तक कि उनमें एक भी बचा, बराबर लड़ता गया। क्यों न हो,जब उनकी ह्रश्वयारी स्त्रियाँ उन्हें अस्त्रहीन देखखर तलवार देती थीं औरहँसती हुई अपने ह्रश्वयारे पतियों की युद्धक्रिया देखती थीं। रणचण्डियाँ भीअकरमण्य न रहीं, जीवन देकर अपना धर्म रखा। ग्रीकों की तलवारों नेउनके बच्चों को भी रोने न दिया, क्योंकि पिशाच सैनिकों के हाथों सभीमारे गए।
अज्ञात स्थान में निराश्रय होकर उन सब वीरों ने प्राण दिए। भारतीलोग उनका नाम नहीं जानते!
८. जहाँनारा
यमुना के किनारे वाले शाही महलमें एक भयानक सन्नाटा छायाहुआ है, केवल बार-बार तोपों की गड़गड़ाहट और अस्त्रों की झनकारसुनाई दे रही है। वृद्ध शाहजहाँ मसनद के सहारे लेटा हुआ है और एकदासी कुछ दवा का पात्र लिए हुए खड़ी है। शाहजहाँ अन्यमनस्क होकरकुछ सोच रहा है, तोपों की आवाज से कभी-कभी चौंक पड़ता है।
अकस्मात् उसके मुख से निकल पड़ा - नहीं-नहीं, क्या वह ऐसा करेगा,क्या हमको तख्त-ताऊस से निराश हो जाना चाहिए?
- हाँ, अवश्य निराश हो जाना चाहिए।
शाहजहाँ ने सिर उठाकर कहा - कौन? जहाँनारा? क्या यह तुमसच कहती हो?
जहाँनारा - (समीप आकर) हाँ, जहाँपनाह! यह ठीक है; क्योंकिआपका अकर्मण्य पुत्र ‘द्वारा’ भाग गया, और नमक-हराम ‘दिलेर खाँ’क्रूर औरंगजेब से मिल गया और किला उसके अधिकार में हो गया।
शाहजहाँ - लेकिन जहाँनारा! क्या औरंगजेब क्रूर है। क्या वहअपने बूढ़े बाप की कुछ इज्जत न करेगा। क्या वह मेरे जीते ही तख्त-ताऊस पर बैठेगा?
जहाँनारा - (जिसकी आँखों में अभिमान का अश्रुजल भरा था)जहाँपनाह! आपके इसी पुत्रवातस्ल्य ने आपकी यह अवस्था की। औरंगजेबएक नारकीय पिशाच है; उसका किया हुआ क्या नहीं हो सकता, एक भलेकार्य को छोड़कर।
शाहजहाँ - नहीं, जहाँनारा! ऐसा मत कहो।
जहाँनारा - हाँ, जहाँपनाह! मैं ऐसा ही कहती हूँ।
शाहजहाँ - ऐसा? तो क्या जहाँनारा! इस बदन में मुगल-रक्त नहींहै? क्या तू मेरी कुछ मदद कर सकती है?
जहाँनारा - जहाँपनाह की जो आज्ञा हो।
शाहजहाँ - तो मेरी तलवार मेरे हाथ में दे। जब तक वह मेरे
हाथ में रहेगी, कोई भी तख्त-ताऊस मुझसे न छुड़ा सकेगा।
जहाँनारा आवेश के साथ - ‘हाँ, जहाँपनाह! ऐसा ही होगा’ -
कहती हुई वृद्ध शाहजहाँ की तलवार उसके हाथ में देकर खड़ी हो गई।
शाहजहाँ और लड़खड़ाकर गिरने लगा, शाहजादी जहाँनारा ने बादशाह कोपकड़ लिया और तख्त-ताऊस के कमरे की ओर चली।
तख्त-ताऊस पर वृद्ध शाहजहाँ बैठा है और नकाब डाले जहाँनारा
पास ही बैठी है और कुछ सरदार, जो उस समय वहाँ थे, खड़े हैं; नकीबभी खड़ी है। शाहजहाँ के इशारा करते ही उसने अपने चिरभ्यस्त शब्दकहने के लिए मुँह खोला। अभी पहला ही शब्द उसके मुँह से निकलाथा कि उसका सिर छिटककर दूर जा गिरा! सब चकित होकर देखने लगे।जिरहबाँतर से लदा हुआ औरंगजेब अपनी तलवार को रूमाल सेपोंछता हुआ सामने खड़ा हो गया और सलाम करके बोला- हुजूर कीतबीयत नासाज सुनकर मुझसे न रहा गया; इसलिए हाजिर हुआ।
शाहजहाँ - (काँपकर) लेकिन बेटा! इतनी खूँरेजी की क्या जरूरतथी? अभी-अभी वह देखो, बूड्ढे नकीब की लाश लोट रही है। उफ!मुझसे यह नहीं देखा जाता! (काँपकर) क्या बेटा, मुझे भी... (इतनाकहते-कहते बेहोश होकर तख्त से झुक गया)।
औरंगजेब - (कड़ककर अपने साथियों से) हटाओ उस नापाकलाश को!
जहाँनारा से अब न रहा गया और दौड़कर सुगन्धित जल लेकरवृद्ध पिता के मुख पर छिड़कने लगी।
औरंगजेब - (उधर देखकर) हैं! यह कौन है, जो मेरे बूढ़े बापको पकड़े हुए है? (शाहजहाँ के मुसाहिबों से) तुम सब बड़े नामाकूलहो; देखते नहीं, हमारे ह्रश्वयारे बाप की क्या हालत है और उन्हें अब भीपलँग पर नहीं लिटाया। (औरंगजेब के साथ-साथ सब तख्त की ओरबढ़े)जहाँनारा उन्हें यों बढ़ते देखकर फुरती से कटार निकालकर औरहाथ में शाही मुहर किया हुआ कागज निकालकर खड़ी हो गई और बोली- देखो, इस परवाने के मुताबिक मैं तुम लोगों को हुक्म देती हूँ किअपनी-अपनी जगह पर खड़े रहो, तब तक मैं दूसरा हुक्म न दूँ।
सब उसी कागज की ओर देखने लगे। उसमें लिखा था - इसशख्त का सब लोग हुक्म मानो और मेरी तरह इज्जत करो।
सब उसकी अभ्यर्थना के लिए झुक गए, स्वयं औरंगजेब भी झुकगया और कई क्षण तक सब निस्तब्ध थे।
अकस्मात् औरंगजेब तनकर खड़ा हो गया और कड़ककर बोला -गिरफ्तार कर लो इस जादूगरनी को। यह सब झूठा फिसाद है, हम सिवाशहंशाह के और किसी को नहीं मानेंगे।
सब लोग उस औरत की ओर बढ़े। जब उसने यह देखा, तब फौरनअपना नकाब उलट दिया। सब लोगों ने सिर झुका दिया और पीछे हटगए, औरंगजेब ने एक बार फिर सिर नीचे कर लिया और कुछबड़बड़ाकर जोर से बोला-कौन, जहाँनारा, तुम यहाँ कैसे?
जहाँनारा - औरंगजेब! तुम यहाँ कैसे?
औरंगजेब - (पलटकर अपने लड़के की तरफ देखकर) बेटा!मालूम होता है कि बादशाह-बेगम का कुछ दिमाग बिगड़ गया है, नहींतो इस बेशर्मी के साथ इस जगह पर न आतीं। तुम्हें इनकी हिफाजतकरनी चाहिए।
जहाँनारा - और औरंगजेब के दिमाग को क्या हुआ है, जो वहअपने बाप के साथ बेअदबी से पेश आया...
अभी इतना उसके मुँह से निकला ही था कि शहजादे ने फुरतीसे उसके हाथ से कटार निकाल ली और कहा - मैं अदब के साथ कहताहूँ कि आप महल में चलें, नहीं तो...
जहाँनारा से यह देखकर न रहा गया। रमणी-सुलभ वीर्य औरअस्त्र-क्रन्दन और अश्रु का प्रयोग उसने किया और गिड़गिड़ाकर औरंगजेबसे बोली-क्यों औरंगजेब! तुमको कुछ भी दया नहीं है?
औरंगजेब ने कहा - दया क्यों नहीं है बादशाह-बेगम! द्वारा जैसेतुम्हारा भाई था, वैसे ही मैं भी तो भाई ही हूँ, फिर तरफदारी क्यों?
जहाँनारा - वह तो बाप का तख्त नहीं लेना चाहता था, उसके हुक्मसे सल्तनत का काम चलाता था।
औरंगजेब - तो क्या मैं यह काम नहीं कर सकता? अच्छा, बहसकी जरूरत नहीं है। बेगम को चाहिए कि वह महल में जाएँ।
जहाँनारा कातर दृष्टि से वृद्ध मूर्च्छित पिता को देखती हुई शाहजादेकी बताई राह से जाने लगी।
यमुना के किनारे एक महल में शाहजहाँ पलँग पर पड़ा है औरजहाँनारा उसके सिरहाने बैठी हुई है।
जहाँनारा से औरंगजेब ने पूछा कि वह कहाँ रहना चाहती है, तबउसने केवल अपने वृद्ध और हतभागे पिता के साथ रहना स्वीकार कियाऔर अब वह साधारण दासी के वेश में अपना जीवन अपने अभागे पिताकी सेवा में व्यतीत करती है।
वह भड़कदार शाही पेशवाज अब उसके बदन पर नहीं दिखाईपड़ते, केवल सादे वस्त्र ही उसके प्रशान्त मुख की शोभा बढ़ाते हैं। चारोंओर उस शाही महल में एक शान्ति दिखलाई पड़ती है। जहाँनारा ने, जोकुछ उसके पास थे, सब सामान गरीबों को बाँट दिया और अपने निजके बहुमूल्य अलंकार भी उसने पहनने छोड़ दिए। अब वह एक तपस्विनीऋषिकन्या-सी हो गई। बात-बात पर दासियों पर वह झिड़की उसमें नहींरही। केवल आवश्यक वस्तुओं से अधिक उसके रहने के स्थान में औरकुछ नहीं है।
वृद्ध शाहजहाँ ने लेटे-लेटे आँख खोलकर कहा - बेटी, अब दवाकी कोई जरूरत नहीं है, यादे-खुदा ही दवा है। अब तुम इसके लिएमत कोशिश करना।
जहाँनारा ने रोकर कहा - पिता, जब तक शरीर है, तब तक उसकीरक्षा करनी ही चाहिए।
शाहजहाँ कुछ न बोलकर चुपाप पड़े रहे। थोड़ी देर तक जहाँनाराबैठी रही; फिर उठी और दवा की शीशियाँ यमुना के जल में फेंक दी।
थोड़ी देर तक वहीं बैठी-बैठी वह यमुना का मंद प्रवाह देखतीरही। सोचती थी कि यमुना का प्रवाह वैसा ही है, मुगल साम्राज्य भीतो वैसा ही है; वह शाहजहाँ भी जो जीवित है, लेकिन तख्त-ताउस परतो वह नहीं बैठते।
इसी सोच-विचार में वह तब तक बैठी रही थी, जब तक चन्द्रमाकी किरणें उसके मुख पर नहीं पड़ी।
शाहजादी जहाँनारा तपस्विनी हो गई है। उसके हृदय में वहस्वाभाविक तेज अब नहीं है, किन्तु एक स्वर्गीय तेज से वह कान्तिमयीथी। उसकी उदारता पहले से भी बढ़ गई। दीन और दुःखी के साथउसकी ऐसी सहानुभूति थी कि लोग उसे ‘मूर्तिमतीकरुणा’ मानते थेउसकी इस चाल से पाषाण-हृदय औरंगजेब भी विचलित हुआ। उसकीस्वतन्त्रता जो छीन ली गई थी, उसे फिर मिली, पर अब स्वतन्त्रता काउपभोग करने के लिए अवकाश ही कहाँ था? पिता की सेवा औरदुःखियों के प्रति सहानुभूति करने से उसे समय ही नहीं था। जिसकी सेवाके लिए सैकड़ों दासियाँ हाथत बाँधकर खड़ी रहती थीं, वह स्वयं दासीकी तरह अपने पिता की सेवा करती हुई अपना जीवन व्यतीत करने लगी।
वृद्ध शाहजहाँ के इंगित करने पर उसे उठाकर बैठाती और सहारा देकरकभी-कभी यमुना के तट तक उसे ले जाती और उसका मनोरंजन करतीहुई छाया-सी बनी रहती।
वृद्ध शाहजहाँ ने इहलोक की लीला पूरी की। अब जहाँनारा कासंसार में कोई काम नहीं है। केवल इधर-उधर उसी महल में घूमना भीअच्छा नहीं मालूम होता। उसकी पूर्व स्मृति और भी उसे सताने लगी।
धीरे-धीरे वह बहुत क्षीण हो गई। बीमार पड़ी, पर दवा कभी न पी।
धीरे-धीरे उसकी बीमारी बहुत बढ़ी और उसकी दशा बहुत खराब हो गई।जब औरंगजेब ने सुना, तब उससे भी सहन न हो सका। वह जहाँनाराको देखने के लिए गया।
एक पुराने पलँग पर, जीर्ण बिछौने पर, जहाँनारा पड़ी थी औरकेवल एक धीमी साँस चल रही थी। औरंगजेब ने देखा कि वह जहाँनारा,जिसके लिए भारतवर्ष की कोई वस्तु अलभ्य नहीं थी, जिसके बीमारपड़ने पर शाहजहाँ व्यग्र हो जाता था और सैंकड़ों हकीम उसे आरोग्यकरने के लिए प्रस्तुत रहते थे, वह इस तरह एक कोने में पड़ी है!
पाषाण भी पिघला, औरंगजेब की आँखें आँसुओं से भर आई औरवह घुटनों के बल बैठ गया। जहाँनारा के समीप मुँह ले जाकर बोला
- वहन, कुछ हमारे लिए हुक्म है?
जहाँनारा ने अपनी आँखें खोल दीं और एक पुरजा उसके हाथ मेंदिया, जिसे झुककर औरंगजेब ने लिया। फिर पूछा-बहन, क्या तुम हमेंमाफ करोगी?
जहाँनारा ने खुली हुई आँखों को आकश की ओर उठा दिया। उससमय उनमें से एक स्वर्गीय ज्योति निकल रही थी और वह वैसे ही देखतीकी देखती रह गई। औरंगजेब उठा और उसने आँसू पोंछते हुए पुरजेको पढ़ा। उसमें लिखा था -
बगैर सब्ज़ः न पोशद कसे मजार मरा।
कि क़ब्रबोशः ग़रीबाँ हमीं ग्याह बस्त।।
भावार्थः मुझ गरीब की कब्र को हरियाली की चादर (क़ब्रपोश)ही नसीब होनी है।
९. खंड़हर की लिपि
जब वसन्त की पहली लहर अपना पीला रंग सीमा के खेतों परचढ़ा लाई, काली कोयल ने उसे बरजना आरम्भ किया और भौंरेगुनगुनाकर काना-फूँसी करने लगे, उसी समय एक समाधि के पास लगेहुए गुलाब ने मुँह खोलने का उपक्रम किया, किन्तु किसी युवक के चंचलहाथ ने उसका हौसला भी तोड़ दिया। दक्षिण पवन ने उससे कुछ झटकलेना चाहा, बिचारे की पंखुड़ियाँ झड़ गई। युवक ने इधर-उधर देखा।
एक उदासी और अभिलाषामयी शून्यता ने उनकी प्रत्याशी दृष्टि को कुछउ्रूद्गार न दिया। वसन्त पवन का एक भारी झोंका ‘हा-हा’ करता उसकीहँसी उड़ाता चला गया।
सटी हुई टेकरी की टूटी-फूटी सीढ़ी पर युवक चढ़ने लगा। पचाससीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह बगल के बहुत पुरानी दालान में विश्राम लेनेके लिए ढहर गया। ऊपर जो जीर्ण मन्दिर था, उसका ध्वंसावशेष देखनेको वह बार-बार जाता था। उस भग्न-स्तूप के युवक को आमन्त्रित करतीहुई ‘आओ-आओ’ की अपरिस्फुट पुकार बुलाया करती। जाने कब केअतीत ने उसे स्मरम कर रखा है। मण्डप के भग्न कोण में एक पत्थरके ऊपर न जाने कौन-सी लिपि थी,जो किसी कोरदार पत्थर से लिखीगई थी। वह नागरी तो कदापि नहीं थी। युवक ने आज फिर उसी ओरदेखते-देखते उसे चढ़ना चाहा। बहुत देर तक घूमता-घूमता वह थक गयाथा, इससे उसे निद्रा आने लगी। वह स्वह्रश्वन देखने लगा।
कमलों का कमनीय विकास झील की शोभा को द्विगुणित कर रहाहै। उसके आमोद के साथ वीणाकी झनकार, झील के स्पर्श के शीतलऔर सुरक्ष,ति पवन में भर रही थी। सुदूरर प्रतीचि में एक सहस्रदलस्वर्ण-कमल अपनी शेष स्वर्ण-किरण की भी मृणाल पर व्योम-निधि मेंखिल रहा है। वह लज्जित होना चाहता है। वीणा के तारों पर उसकीअन्तिम आभा की चमक पड़ रही है। एक आनन्दपूर्ण विषाद से युवकअपनी चंचल अँगुलियों को नचा रहा है। एक दासी स्वर्णपात्र में केसर,अगरु, चन्दन-मिश्रित अंगराग और नवमल्लिका की माला, कई ताम्बूललिए हुए, प्रणाम करके उसने कहा - ‘महाश्रेष्ठि धनमित्र की कन्या नेश्रीमान् के लिए उपहार भेजकर प्रार्थना की है कि आज के उद्यान गोष्ठमें आप अवश्य पधारने की कृपा करें। आनन्द विहार के समीप उपवनमें आपकी प्रतीक्षा करती हुई कामिनी देवी बहुत देर तक रहेंगी।’
युवक ने विरक्त होकर कहा - ‘अभी कई दिन हुए हैं, मैं सिंहलसे आ रहा हूँ, मेरा पोत समुद्र में डूब गया है। मैं ही किसी तरह बचाहूँ। अपनी स्वामिनी से कह देना कि मेरी अभी ऐसी अवस्था नहीं हैकि मैं उपवन के आनन्द का भोग कर सकूँ।’ं
‘तो प्रभु, क्या मैं यही उ्रूद्गार दे दूँ?’ दासी ने कहा।
‘हाँ और यह भी कह देना कि - तुम सरीखी अविश्वासिनी स्त्रियोंसे मैं और भी दूर भागना चाहता हूँ, जो प्रलय के समुद्र की प्रचण्डआँधी में एक जर्जर पोत से भी दुर्लबल और उस डुबा देने वाली लहरसे भी भयानक है।’ युवक ने अपनी वीणा सँवारते हुए कहा।
‘वे उस उपवन में कभी जा चुकी हैं, और हमसे यह भी कहाहै कि यदि वे गोष्ठ में न जाना चाहें, तो स्तूप की सीढ़ी के विश्राम-
मण्डप में मुझसे एक बार अवश्य मिल लें, मैं निर्दोष हूँ।’ दासी नेसविनय कहा।
युवा ने रोष-भरी दृष्टि से देखा। दासी प्रणाम करके चली गई।सामनेन का एक कलम सन्ध्या के प्रभाव से कुम्हला रहा था। युवक कोप्रतीत हुआ कि वह धनमित्र की कन्या का मुख है। उससे मकरन्द नहीं,अश्रु गिर रहे हैं। ‘मैं निर्दोष हूँ’ यही भौरे भी गूँजकर कह रहे हैं।
युवक ने स्वह्रश्वन में चौंककर कहा - ‘मैं आऊँगा।’ आँख न खोलनेपर भी उसने उस जीरण दालान की लिपि पढ़ ली - ‘निष्ठुर! अन्त कोतुम नहीं आए।’ युवक सचेत होकर उठने को था कि वह कई सौ बरसकी पुरानी छत घम से गिरी।
बायुमण्डल में - ‘आओ-आओ’ काक शब्द गूँजने लगा।
१०. पाप की पराजय
घने हरे कानन के हृदय में पहाड़ी नदी झिर-झिर करती बह रहीहै। गाँव से दूर, बन्दूक लिए हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठाहै। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्ता से पतली-पतली लकडियों में उसकाजलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वह बड़ा अन्याय कररहा है, किन्तु उसे दायित्व-विहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है।
जंगली जीवन का आज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आपही मुग्ध होकर मानवसमाज की शैशवावस्थाकी पुनरावृि्रूद्गा करता हुआ निर्दयघनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरने लगा। तृह्रश्वत होने पर वन कीसुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ीदेर में तन्द्रा ने उसे दबा लिया। वह कोमल वृि्रूद्गा विलीन हो गई। स्वह्रश्वनने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जल-धारा से धुले हुए प्रूद्गाों का घनाकानन, स्थान-स्थान पर कुसुमित कुन्ज, आनतरिक और स्वाभाविक आलोकमें उन कुन्जों की कोमल छाया, हृदय-स्प्रशकारी शीतल पवन का संचार,अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे।
घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार-सी सुनाई पड़ने लगी। उसनेअपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्भुत दृश्य! इन्द्रनील की पुतलीफूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतरकर बैठी है। उसकेसहज-कुंचित केश से वन्य कुरुवक कलियाँ कूद-कूदकर जल-लहरियों सेक्रीड़ा कर रही है। घनश्याम को वह वनदेवी-सी प्रतीत हुई। यद्यपि उसकारंग कंचन के समान नहीं, फिर भी साँचे में ढला हुआ है। आकर्षणविस्तृत नेत्र नहीं, तो भी उनमें एक स्वाभाविक राग है। यह कवि कीकल्पना-सी कोई स्वर्गीय आकृति नहीं, प्रत्युत एक भिल्लनी है। तब भीइसमें सौन्दर्य नहीं है, यह कोई साहसके साथ नहीं कह सकता। घनश्यामने तन्द्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को देखा और विषम समस्या मेंपड़कर यह सोचने लगा - ‘क्या सौन्दर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोगकी नहीं?’ इस प्रश्न को हल करने के लिए उसने हंटिंग कोट के पाकेटका सहारा लिया। क्लान्तिहारिणी का पान करने पर उसकी आँखों पररंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरे-धीरेविलास मन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अद्भुत रुप,यौवन की चरम-सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकरपाप ही सामने आया है।
पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँसकर अपनी ओर मिलाचुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पापका मुख कितना सुन्दर होता है! सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भीकितना प्रलोभन-पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आसकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपनी एक मृदु मुस्कानसे सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया औरक्षण भर में वह सरल सुषमा विलुह्रश्वत होकर उद्दीपन का अभिनय करनेलगी। यौवनने भी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेनाऔर उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम कोपराजित होना पड़ा। वह आवेश में बाँहें फैलाकर झरने को पार करनेलगा।
नील की पुतली ने उस ओर देखा भी नहीं। युवक की माँसल पीनभुजाएँ उसे आलिंगन करना ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्दसुनाई पड़ा - ‘क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रहीहै। चल, घर चलें।’
घनश्याम ने सिर उठाकर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणीसुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कलाकी दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई, किन्तु आत्म-गौरव का दुर्ग किसी की सहजपाप-वासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तोहुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्य-प्रतिमा के सामने पाप कीपराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा - ‘रानी जी, आती हूँ। जरा मैंथक गई थी।’ रानी और नीला दोनों चली गइर्ं। अबकी बार घनश्यामने फिर सोचने का प्रयास किया - ‘क्या, सौन्दर्य उपभोग के लिए नहीं,केवल उपासना के लिए है?’ खिन्न होकर वह घर लौटा, किन्तु बारबार वह घटना याद आती रही। घनश्याम कई बार उस झरने पर क्षमामाँगने गया, किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।
जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिसकी प्रचण्ड लपट अभी नदीमें प्रतिभासित हो रही है, जिसकी गर्मी इस शामील रात्रि में भी अंकमें अनुभूत हो रही है, उसे असत्य या उसे कल्पना कहकर उड़ा देने केलिए घनश्याम का मन हठट कर रहा है।
थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एक टुकड़ाबादल का उठ आया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने कोउपस्थित ता। उसकी स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी। निठुरहिन्दू-शात्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समयघनश्याम को सान्त्वना हुई, उसने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी। उसेध्यान हुआ कि निर्दय बादल बरसकर चिता को बुझा देंगे, उसे जलने नदेंगे, किन्तु व्यर्थ? चिता ठण्डी होकर और भी ठहर-ठहर कर सुलगनेलगी, क्षणभर में जलकर राख न होने पाई।
घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान या ईसाई होतेतो? आह! फूलों में मिली हुई मुलायम मिट्टी में इसे सुला देते, सुन्दरसमाधि बनाते, आजीवन प्रति सन्ध्या को दीप जलाते, फूल चढ़ाते, कवितापढ़ते, रोते, आँसू बहाते, किसी तरह दिन बीत जाते, किन्तु यहाँ कुछ भीनहीं। हत्यारा समाज! कठोर धर्म! कुत्सित व्यवस्था! इनसे क्या आशा?
चिता जलने लगी।
श्मशान से लौटते समय घनश्याम ने साथियों को छोड़कर जंगल कीओर पैर बढ़ायाय। जहाँ प्रायः शिकार खेलने जाया करता, वहीं जाकरबैठ गया। आज वह बहुत दिनों में इधर आया है। कुछ ही दूरी पर देखाकि साखू के वृक्ष की छाया में एक सुकुमार शरीर पड़ा है।सिरहाने तकियाका काम हाथ दे रहा है। घनश्याम ने अभी कड़ी चोट खाई है। करुण-कमल का उसके आद्र मानस में विकास हो गया था। उसने समीप जाकरदेखा कि वह रमणी और कोई नहीं है, वह रानी नहै, जिसे उसने बहुतदिन हुए एक अनोखे ढंग में देखा था। घनश्याम की आहट पाते ही रानीउठ बैठी। घनश्याम ने पूछा - ‘आप कौन हैं? क्यों यहाँ पड़ी हैं?’
रानी - ‘मैं केतकी-बन की रानी हूँ।’
‘तब ऐसे क्यों?’
‘समय की प्रतीक्षा में पड़ी हूँ।’
‘कैसा समय?’
‘आपसे क्या काम? क्या शिकार खेलने आए हैं?’
‘नहीं देवी! आज स्वयं शिकार हो गया हूँ।’
‘तब तो आप शीघ्र ही शहर की ओर पलटेंगे। क्या किसीभबिल्लनी के नयनबाण लगे हैं? किन्तु नहीं, मैं भूल कर रही हूँ। उनबेचारियों को क्षुधा-ज्वाला ने जला रखा है। ओह, वह गढ़े में धँसी हुईआँखें अब किसी को आकर्षित करने की सामर्थ्य नहीं रखतीं! हे भगवान्,मैं किसलिए पहाड़ी से उतरकर आई हूँ।’
‘देवी! आपका अभिप्राय क्या है, मैं समझ न सका। क्या ऊपरअकाल है, दुर्भिक्ष है?’
‘नहीं-नहीं, ईश्वर का प्रकोप है, पवित्रता का अभिशाप है, करुणाकी वीभत्स मूर्ति का दर्शन है।’
‘तब आपकी क्या इच्छा है?’
‘मैं वहाँ की रानी हूँ। मेरे वस्त्र-आभूषण-भण्डार में जो कुछ था,सब बेचकर तीन महीने किसी प्रकार उन्हें खिला सकी, अब मेरे पासकेवल इस वस्त्र को छोड़कर और कुछ नहीं रहा कि विक्रय करके एकभी क्षुधित पेट की ज्वाला बुझाती, इसलिए...।’
‘क्या?’
‘शहर चलूँगी। सुना है कि वहाँ रूप का भी ीदाम मिलता है। यदिकुछ मिल सके...’
‘तब?’
‘तो इसे भी बेच दूँगी। अनाथ बालकों को इससे कुछ तो सहायतापहुँच सकेगी। क्यों, क्या मेरा रुप बिकने योग्य नहीं है?’
युवक घनश्याम इसका उ्रूद्गार देने में असमर्थ था। कुछ दिन पहलेवह अपना सर्वस्व देकर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता।
आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवंपरोपकारी हो गया था। आर्त मुमुक्षु की तरह उसे न जाने किस वस्तुकी खोज थी।
घनश्याम ने कहा - ‘मैं क्या उ्रूद्गार दूँ?’
‘क्यों? क्या दाम न लगेगा? हाँ तुम आज किस वेश में हो? क्यासोचते हो? बोलते क्यों नहीं?’
‘मेरी स्त्री का शरीरान्त हो गया।’
‘तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो। तुम्हें तो रूप कीआवश्यकता होती होगी। क्या इसे क्रय करोगे?’
घनश्याम ने हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। तब उस रानी नेकहा - ‘उस दिन तो एक भिल्लनी के रूप पर मरते थे। क्यों, आजक्या हुआ?’
‘देवी, मेरा साहस नहीं है - वह पाप का वेग था।’
‘छिः, पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?’
घनश्याम रो पड़ा और बोला - ‘क्षमा कीजिएगा। पुण्य किस प्रकारसम्पादित होता है, मुझे नहीं मालूम। किन्तु इसे पुण्य कहने में...।’
‘संकोच होता है। क्यों?’
इसी समय दो-तीन बालक, चार-पाँच स्त्रियाँ और छः-सात भीलअनाहार-क्लिष्ट, शीर्ण कलेवर पवन के बल से हिलते-डुलतेरानी के सामनेआकर खड़े हो गए।
रानी ने कहा - ‘क्यों, अब पाप की परिभाषा करोगे?’
घनश्याम ने काँपकर कहा - ‘नहीं, प्रायश्चित करूँगा, उस दिन केपाप का प्रायश्चित।’
युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला - ‘बहन, तुमने मेरेजीवन को अवलम्ब दिया है। मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्तव्य नहीं सूझपड़ता था। आपको रूपविक्रय न करना पड़ेगा। देवी! मैं सन्ध्या तक आजाऊँगा।
११. सहयोग
मनोरमा, एक भूल से सचेत होकर जब तक उसे सुधारने में लगतीहै, तब तक उसकी दूसरी भूल उसे अपनी मनुष्यता पर ही सन्देह दिलानेलगती है। प्रतिदिन प्रतिक्षण भूल की अविच्छिन्न श्रृंखला मानव-जीवन कोजकड़े हुए है, यह उसने कभी हृदयंगम नहीं किया। भ्रम को उसने शत्रुके रूप में देखा। वह उससे प्रति-पल शंकित और संदिग्ध रहने लगी।
उसकी स्वाभाविक सरलता, जो बनावटी भ्रम उत्पन्न कर दिया करती थीऔर उसके अस्तित्व में सुन्दरता पालिश कर दिया करती थी, अब उससेबिछुड़ने लगी। वह एक बनावटी रूप और आवभगत को अपना आभरणसमझने लगी।
मोहन, एक हृदय-हीन युवक उसे दिल्ली से ब्याह लाया था। उसकीस्वाभाविकता ने अपने आतंक से क्रूर शासन करके उसे आत्मचिन्ता शून्यपतिगत-प्राणा बनाने की उत्कट अभिलाषा से हृदय-हीन कल से चलतीफिरती हुई पुतली बना डाला और वह इसी में अपनी विजय और पौरुषकी पराकाष्ठा समझने लगा था।
धीरे-धीरे अब मनोरमा में अपना निज का कुछ नहीं रहा। वह उसेएक प्रकार से भूल-सी गई थी। दिल्ली के समीप का यमुना तट कागाँव, जिसमें वह पली थी, बढ़ी थी, अब उसे कुछ विस्मृत-सा हो चलाथा। वह ब्याह करने के बाद द्विरागमन के अवसर पर जबसे अपनीससुराल आई थी, वह एक अद्भुत दृश्य था। मनुष्य-समाज में पुरुषों केलिए वह कोई बड़ी बात न थी, किन्तु जब उन्हें घर छोड़कर कभी किसीकाम से परदेश जाना पड़ता है, तभी उनकी उस कथा के अधम अंशका आभास सूचित होता है। वह सेवा और स्नेहवृि्रूद्गावाली स्त्रियाँ ही करसकती हैं। जहाँ अपना कोई नहीं है, जिससे कभी की जान-पहचान नहीं,जिस स्थान पर केवल वधू-दर्शन का कुतूहल मात्र उसकी अभ्यर्थना करनेवाला है, वहाँ वह रोते और सिसकते किसी साहस से आई और किसीकोअपने रूप से, किसी को विनय से, किसी को स्नेह से उसने वश करनाआरम्भ किया। उसे सफलता भी मिली। जिस तरह एक महाउद्योगी किसीभारी अनुसन्धान के लिए अपने घर से अलग होकर अपने सहारे अपनासाधन बनाता है, या कथा-सरित्सागर के साहसिक लोग बैतालयाविद्याधर्रूद्गव सिद्धि के असम्भवनीय साहस का परिचय देते हैं, वह इनप्रतिदिन साहसकारिणी मनुष्य-जाति की किशोरियों के सामने क्या है,जिनकी बुद्धि और अवस्था कुछ भी इसके अनुकूल नहीं है।
हिन्दू शास्त्रानुसार शूद्रा स्त्री मनोरमा ने आश्चर्यपूर्वक ससुराल मेंद्वितीय जन्म ग्रहण कर लिया। उसे द्विजन्म कहने में कोई बाधा नहीं है।
मेला देखकर मोहन लौटा। उसकी अनुराग-लता, उसकी प्रगल्भाप्रेयसी ने उसका साथ नहीं दिया। सम्भवतः वह किसी विशेष आकर्षकपुरुष के साथ सहयोग करके चली गई। मेला फीका हो गया, नदी केपुल पर एक पत्थर पर वह बैठ गया। अँधेरी रात धीरे-धीरे गम्भीर होतीजा रही थी। कोलाहल, जनरव और रसीली तानें विरल हो चलीं। ज्योंज्यों एकान्त होने लगा, मोहन की आतुरता बढ़ने लगी। नदी-तट की शरदरजनी में एकान्त, किसी की अपेक्षा करने लगा। उसका हृदय चंचल होचला। मोहन ने सोचा, इस समय क्या करें? विनोदी हृदय उत्सुक हुआ।
वह चाहे जोहो, किसी की संगति को इस समय आवश्यक समझने लगा।
ह्रश्वयार न करने पर भी मनोरमा का ही ध्यान आया। समस्या हल होतेदेखकर वह घर की ओर चल पड़ा।
मनोरमा का त्योहार अभी बाकी था। नगर भर में एक नीरवअवसाद हो गया था किन्तु मनोरमा के हृदय में कोलाहल हो रहा था।
ऐसे त्योहार के दिन भी वह मोहन को न खिला सकी थी। लैम्प के मन्दरप्रकाश में खिड़की के जंगले के पास वह बैठी रही। विचारने को कुछभी उसके पास न था। केवल स्वामी की आशा में दास के समान वहउत्कंठित बैठी थी। दरवाजा खटका, वह उठी, चतुर दासी से भी अच्छीतरह उसने स्वामी की अभ्यर्थना, सेवा, आदर और सत्कार करने में अपनेको लगा दिया। मोहन चुपचाप अपने ग्रासों के साथ वाग्युद्ध और दन्तघर्षणकरने लगा। मनोरमा ने भूलकरभी यह न पूछा कि तुम इतनी देर कहाँथे? क्यों नहीं आए? न वह रूठी, न वह ऐंठी, गुरुमान की कौन कहे,लघुमान का छींटा नहीं। मोहन को यह और असह्य हो गया। उसने समझाकि हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हमसे यह पूछे - ‘तुम कहाँ इतनीदेर मरते थे?’ पत्नी का अपमान उसे और यन्त्रणा देने लगा। वह भोजनकरते-करते अकस्मात् रुक गया। मनोरमा ने पूछा - ‘क्या दूध ले आऊँ,अब और कुछ नहीं लीजिएगा?’
साधारण प्रश्न था, किन्तु मोहन को प्रतीत हुआ कि यह तो अतिथिकी-सी अभ्यर्थना है, गृहस्थ की अपने घर की-सी नहीं। वह चट बोलउठा - ‘नहीं, आज दूध नहीं लूँगा।’ किन्तु मनोरमा तो तब तक दूधकाकटोरा लेकर सामने आ गई, बोली - ‘थोड़ा-सा लीजिए, अभी गरम है।’
मोहन बार-बार सोचता था कि कोई ऐसी बात निकले, जिसमें मुझेकुछकरना पड़े और मनोरमा मानिनी बने, मैं उसे मनाऊँ; किन्तु मनोरमामें वह मिट्टी ही नहीं रही। मनोरमा तो कल की पुतली हो गई थी। मोहनने - ‘दूध अभी गरम है,’ इसी में से देर होने का व्यंग्य निकाल लियाऔर कहा - ‘हाँ, आज मेला देखने चला गया था, इसी में देर हुई।’
किन्तु वहाँ कैफियत तो कोई लेता न था, देने के लिए प्रस्तुतअवश्य था। मनोरमा ने कहा - ‘नहीं, अभी देर तो नहीं हुई। आधा घण्टाहुआ होगा कि दूध उतारा गया है।’
मोहन हताश हो गया। चुपचाप पलंग पर जा लेटा। मनोरमा नेउधर ध्यान भी नहीं दिया। वह चतुरतासे गृहस्थी की सारी वस्तुओं कोसमेटने लगी। थोड़ी देर में इससे निबटकर वह अपनी भूल समझ गई।
चट पान लगाने बैठ गई। मोहन ने यह देखकर कहा - ‘नहीं, मैं पानइस समय न खाऊँगा।’
मनोरमा ने भयभीत स्वर से कहा - ‘बिखरी हुई चीजें इकट्ठी नकर लेती तो बिल्ली-चूहे उसे खराब कर देते। थोड़ी देर हुईहै, क्षमाकीजिए। दो पान तो अवश्य खा लीजिए।’
बाध्य होकर मोहन को दो पान खाने पड़े। अब मनोरमा पैर दबानेबैठी। वेश्या तिरस्कृत मोहन घबरा उठा। वह इस सेवा से कब छुट्टी पाए?
इस सहयोग से क्या बस चले। उसने विचारा कि मनोरमा को मैंने हीतो ऐसा बनाना चाहा था। अब वह ऐसी हुई, तो मुझे अब विरक्ति क्योंहै? इसके चरित्र का यह अंश क्यों नहीं रुचता - किसी ने उसके कानमें धीरे-से कहा - ‘तुम तो अपनी स्त्री दो दासी बनाना चाहते थे, जोवास्तव में तुम्हारी अन्तरात्मा का ईह्रिश्वसत नहीं था। तुम्हारी कुप्रवृि्रूद्गायों कीवह उ्रूद्गोजना थी कि वह तुम्हारी चिर-संगिनी न होकर दासी के समानआज्ञाकिरणी मात्र रहे। वही हुआ। अब क्यों झँखते हो!’ अकस्मात् मोहनउठ बैठा। मोहन और मनोरमा एक-दूसरे के पैर पकड़े हुए थे।
१२. प्रतिध्वनि
मनुष्य की चिता जल जाती है और बुझ भी जाती है, परन्तु उसकीछाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्-धक्करती हुई जला करे।
तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे,उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ व्यंग्य स्वर में कहा- “अरे मैया रे, किसका पाप किसे खा गया रे!” - अभी आसन्नवैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग्यरोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था।
तारा सम्पन्न थी, इसलिए वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चलाजाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ, ननद रामा अपनीदरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी।
दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिए प्रस्तुत न होता।
श्यामा चौदह बरस की हो चली। बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याहन कर सकी। वह चल बसी।
श्यामा निस्सहाय अकेली हो गई, पर जीवन के जितने दिन हैं, वेकारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगा-तट पर अपनीबारी से सटे हुए कच्चे झोंपड़े में रहने लगी।
मन्नी नाम की एक बुढ़िया, जिसे ‘दादी’ कहती थी, रात को उसकेपास सो रहती और न जाने कहाँ से, कैसे उसके खाने-पीने का कुछ प्रबन्धकर ही देती। धीरे-धीरे दरिद्रता के सब अवशिष्ट चिह्न बिककर श्यामाके पेट में चले गए।
पर, उसकी आम की बारी अभी नीलाम होने के लिए हरी-भरी थी!कोमल आतप गंगा के शीतल शरीर में अभी उष्मा उत्पन्न करनेमें असमर्थ था। नवीन किसलय उससे चमक उठे थे। वसन्त की किरणोंकी चोट से कोयल कुहुक उठी। आमकी कैरियों के गुच्छे हिलने लगे।उस आम की बारी में माधवऋतु का डेरा था और श्यामा के कमनीयकवेलर में यौवन था।
श्यामा अपने कच्चे घर के द्वार पर खड़ी हुई मेघ-संक्रांति का पर्व-स्नान करने वालों को कगार के नीचे देख रही थी। समीप होने पर भीवह मनुष्यों की भीड़ उसे चींटियाँ रेंगती हुई जैसी दिखाई पड़ती थी।
मन्नी ने आते ही उसका हाथ पकड़कर कहा - “चलो बेटी, हम लोगभी स्नान कर आवें।”
उसने कहा - “नहीं दादी, आज अंग-अंग टूट रहा है, जैसे ज्वरआने का है।”
मन्नी चली गई।
तारा स्ना करके दासी के साथ कगारे के ऊपर चढ़ने लगी। श्यामाकी बारी के पास से ही पथ था। किसी को वहाँ न देखकर तारा नेसन्तुष्ट होकर सांस ली। कैरियों से गरदाई हुई डाली से उसका सिर लगगया। डाली राह में झुकी पड़ती थी। तारा ने देखा, कोई नहीं है; हाथबढ़ाकर कुछ कैरियाँ तोड़ लीं।
सहसा किसी ने कहा - “और तोड़ लो मामी, कल तो यह नीलामही होगा!”
तारा की अग्नि-बाण-सी आंखें किसी को जला देने के लिए खोजनेलगीं। फिर उसके हृदय में वही बहुत दिन की बात प्रतिध्वनित होने लगी- “किसका पाप किसको खा गया, रे!” - तारा चौंक उठी। उसने सोचा,रामा की कन्या व्यंग्य कर रही है - भीख लेने के लिए कह रही है।
तारा होंठ चबाती हुई चली गई।
एक सौ पांच-एक,
एक सौ पांच-दो,
एक सौ पांच रुपये-तीन!
बोली हो गई। अमीन ने पूछा - “नीलामी का चौथाई रुपया कौनजमा करता है?”
एक गठीले युवक ने कहा - “चौथाई नहीं, कुल रुपये लीजिए।”
तारा के नाम की रसीद बना रुपया सामने रख दिया गया।
श्यामा एक आम के वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठी थी। उसे औरकुछ नहीं सुनाई पड़ता था, केवल डुग्गियों के साथ एक-दो-तीन कीप्रतिध्वनि कानों में गूंज रही थी। एक समझदार मनुष्य ने कहा - “चलो,अच्छा ही हुआ, तारा ने अनाथ लड़की के बैठने का ठिकाना तो बना रहनेदिया; हींतो गंगा किनारे का घर और तीन बीघे की बारी, एक हजारपांच रुपये में! तारा ने बहुत अच्छा किया।”
बुढ़िया मन्नी ने कहा - “भगवान् जाने, ठिकाना कहाँ होगा।”श्यामा चुपचाप सुनती रही। संध्या हो गई। जिनका उसी अमराईमें नीड़ था, उन पक्षियों का झुंड कलरव करता हुआ घर लौटने लगापर श्यामा न हिली; उसे भूल गया कि उसके भी घर हैं।
बुढ़िया के साथ अमीन साहब आकर खड़े हो गए। अमीन एकसुन्दर कहे जाने योग्य युवक थे और उनका यह सहज विश्वास था किकोई भी स्त्री हो, मुझे एक बार अवश्य देघेगी, श्यामा के सौन्दर्य कोतो दारिद्र्य ने ढक लिया था; पर उसका यौवन छिपाने के योग्य न था।
कुमार यौवन अपनी क्रीड़ा में विह्वल था। अमीन ने कहा - “मन्नी! पूछो,मैं रुपया दे दूं - अभी एक महीने की अवधि है, रुपया दे देने से नीलामरुक जाएगा!”
श्यामा ने एक बार तीखी आँखों से अमीनकी ओर देखा। वह पुष्टकलेवर अमीन, उस अनाथ बालिका की दृष्टि न सह सका, धीरे से चलागया। मन्नी ने देखा, बरसात की-सी गीली चिता श्यामा की आँखों मेंजल रही है। मन्नी का साहस न हुआऔ कि उससे घर चलने के लिएकहे। उसने सोचा, ठहरकर आऊँगी तो इसे घर लिवा जाऊँगी, परन्तु जबवह लौटकर आई, तो रजनी के अंधकार में बहुत खोजने पर भी श्यामाको न पा सकी।
तारा का उ्रूद्गाराधिकारी हुआ - उसके भाई का पुत्र प्रकाश।
अकस्मात् सम्पि्रूद्गा मिल जाने से जैसा प्रायः हुआ करता है, वही हुआ- प्रकाश अपने-आप में न रह सका। वह उस देहात में प्रथम श्रेमी काविलासी बन बैठा। उसने तारा के पहले घर से कोस-भर दूर श्यामा कीबारी को भली-भांति सजाया; उसका कच्चा घर तोड़कर बंगला बन गया।
अमराई में सड़कें और क्यारियाँ दौड़ने लगीं। यहीं प्रकाश बाबू की बैठकजमी। अब इसे उसके नौकर ‘छावनी’ कहते थे।
आषाढ़ का महीना था। सबेरे ही बड़ी उमस थी। पुरवाई सेघनमंडल स्थिर हो रहा था। वर्षा होने की पूरी सम्भावना थी। पक्षियोंके झुंड ाकाश में अस्तव्यस्त घूम रहे थे। एक पगली गंगा के तट केऊपर की ओर चढ़ रही थी। वह अपने प्रत्येक पाद-विक्षेप पर एकदो-तीन अस्फुट स्वर में कह देती, फिर आकाश की ओर देखने लगतीथी। अमराई के खुले फाटक से वह घुस आई और पास के वृक्षों केनीचे घूमती हुई “एक-दो-तीन” करते गिनने लगी।
लहरीले पवन का एक झोंका आया; तिरछी बूँदों की एक बाढ़ पड़गई। दो-चार आम भी चू पड़े। पगली घबरा गई। तीन से अधिक वहगिनना ही नहीं जानतीथी। इधर बूँदों को गिने कि आमों को! बड़ीगड़बड़ी हुई, पर वह मेघ का टुकड़ा बरसता हुआ निकल गया। पगलीएक बार स्वस्थ हो गई। ममहोखका एक डाल से बोलने लगा। डुग्गीके समान उसका “डूप-डूप-डूप” शब्द पगली को पहचाना हुआ-सामालूम पड़ा। वह फिर गिनने लगी-ेक-दो-तीन? उसके चुप हो जाने परपगली नेन डालों की ओर देखा और प्रसनन होकर बोली-एक-दो-तीन!
इस बार उसकी गिनती में बड़ा उल्लास था, विस्मय था और हर्ष भी।
उसने एक ही डाल में पके हुए तीन आमों को वृं्रूद्गाों-सहित तोड़ लियाऔर उन्हें झुकाते हुए गिनने लगी। पगली इस बार सचमुच बालिका बनगई, जैसे खिलौने के साथ खेलने लगी।
माली आ गया। उसने गाली दी, मारने के लिए हाथ उठाया।
पगली अपना खेल छोड़कर चुपचाप उसकी ओर एकटक देखने लगी।वह उसका हात पकड़कर प्रकाश बाबू के पास ले चला।प्रकाश यक्ष्मा से पीड़ित होकर इन दिनों यहाँ निरन्तर रहने लगाथा। वह खांसता जाता था और तकिए के सहारे बैठा हुआ पीकदान मेंरक्त और कफ थूकता जाता था। कंकाल-सा शरीर पीला पड़ गया था।मुख में केवल नाक और बड़ी-बड़ी आँखें अपना अस्तित्व चिल्लाकर कहरही थीं। पगली को पकड़कर माली उसके सामने ले आया।
विलासी प्रकाश ने देखा पागल यौवन अभी उस पगली के पीछेलगा था। कामुक प्रकाश को आज अपने रोग पर क्रोध हुआ और पूर्णमात्रा में हुआ, पर क्रोध धक्का खाकर पगली की ओर चला आया।
प्रकाश ने आम देखकर ही समझ लिया और फूहड़ गालियों की बौछारसे उसकी अभ्यर्थना की।
पगली नेन कहा - “यह किस पाप का फल है? तू जानता है,इसे कैन खाएगा? बोल! कौन मरेगा? बोल! एक-दो-तीन।”
“चोरी को पागलपन में छिपापना चाहती है! अभी तो तुझे बीसोंचाहने वाले मिलेंगे! चोरी क्यों करती है?” - प्रकाश ने कहा।
एक बार पगली का पागलपन, लाल वस्त्र पहनकर उसकी आँखोंमें नाच उठा। उसने आम तोड़-तोड़ कर प्रकाश के क्षय-जर्जज हृदय परखींचकर मारते हुए गिना - एक-दो-तीन! प्रकाश तकिए पर चि्रूद्गा लेटकरहिचकियाँ लेने लगा और पगली हँसते हुए गिनने लगी - एक-दो-तीन।
उनकी प्रतिध्वनि अमराई में गूँज उठी।
१३. आकाशदीप
“बन्दी!”
“क्या है? सोने दो।”
“मुक्त होना चाहते हो?”
“अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।”
“फिर अवसर न मिलेगा।”
“बडा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोई शीत से मुक्तकरता।”
“आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बन्धनशिथिल है।”
“तो क्या तुम भी बन्दी हो?”
“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है।”
“शस्त्र मिलेगा?”
“मिल जाएगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?”
“हाँ।”
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे।पहले बन्दी ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। दूसरे का बन्धन खोलने काप्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कररहे थे। मुक्ति की आशा - स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों हीअँधकार में मुक्त हो गए। दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले सेलगा लिया। सहसा उस बन्दी ने कहा - “यह क्या? तुम स्त्री हो?”
“क्या स्त्री होना कोई पाप है?” - अपने को अलग करते हुएस्त्री ने कहा।
“शस्त्र कहाँ है - तुम्हारा नाम?”
“चंपा।”
तारक-खचित नील अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधममचा रहा था। अँधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र मेंआन्दोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढकने लगी।
एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाणनिकालकर, फिर लुढकते हुए, बन्दी के समीप पहुँच गई। सहसा पोत सेपथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा - “आँधी!”
आपि्रूद्गा-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बन्दीयुवक उसी तरह पडा रहा। किसी ने रस्सी पकडी, कोई पाल खोल रहाथा, पर युवक बन्दी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत सेसंलग्न थी। तारे ढँक गए। तरंगे उद्विलत हुई, समुद्र गरजने लगा। भीषणआँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कन्दुक-क्रीडाऔर अट्टहास करने लगी।
एक झटके के साथ ही नाव स्वतन्त्र थी। उस संकट में भी दोनोंबन्दी खिलखिलाकर हँस पडे। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न सुनसका।
अनन्त जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहलीकिरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शान्त था।
नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बन्दी मुक्त हैं।
नायक ने कहा - “बुधगुह्रश्वत! तुमको मुक्त किसने किया?”
कृपाण दिखाकर बुधगुह्रश्वत ने कहा - “इसने।”
नायक ने कहा - “तो तुम्बें फिर बन्दी बनाऊँगा।”
“किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा - नायक!
अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।”
“तुम? जलदस्यु बुधगुह्रश्वत? कदापि नहीं।” - चौंककर नायक नेकहा और वह अपनी कृपाळ टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस परअधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पडा।
“तो तुम द्वन्द्वयुद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी गोका, वहस्वामी होगा।” - इतना कहकर बुधगुह्रश्वत ने कृपाण देने का संकेत किया।
चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दी।
भीषण घात-प्रतिघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरितगतिवाले थे। बडी निपुणता से बुधगुह्रश्वत ने अपनी कृपाण दाँतों से पकडकरअपने दोनों हाथ स्वतन्त्र कर लिए। चंपा भय और विस्मय से देखने लगी।
नाविक प्रसन्न हो गए, परन्तु बुधगुह्रश्वत ने लाघव से नायक का कृपाणवालाहाथ पकड लिया और विकट हुँकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसेगिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुह्रश्वत की विजयीकृपाण उसके हाथों में चमक उठी। नायक की कातर आंखें प्राण-भिक्षामाँगने लगीं।
बुधगुह्रश्वत ने कहा - “बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?”
“मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।”
बुधगुह्रश्वत ने उसे छोड दिया।
चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनीस्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना-विहीन कर दिया। बुधगुह्रश्वत केसुगठित शरीर पर रक्त-बिन्दु विजय-तिलक कर रहे थे।
विश्राम लेकर बुधगुह्रश्वत ने पूछा “हम लोग कहाँ होंगे?”
“बालीद्वीप से बहुत दूर सम्भवतः एक नवीन द्वीप के पास, जिसमेंअभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकोंका वहाँ प्राधान्य है।”
“कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?”
“अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिए खाद्यका अभाव न होगा।”
सहसा नायक ने नाविकों को डांट लगाने की आज्ञा दी और स्वयंपतवार पकडकर बैठ गया। बुधगुह्रश्वत के पूछने पर उसने कहा - “यहाँतक जलमग्न शिलाखंड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है।”
“तुम्हें इन लोगों ने बन्दी क्यों बनाया?”
“वणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने।”
“तुम्हारा घर कहाँ है?”
“जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिताइसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान होजाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस सेसमुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सातदस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभके नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनन्तता में निस्सहायहूँ - अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंनेउसे गालियाँ सुनाई। उसी दिन से बन्दी बना दी गई।” - चंपा रोष सेजल रही थी।
“मैं भी ताम्रलिह्रिश्वत का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा। परन्तु दुर्भाग्य सेजलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?”
“मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूंगी। वह जहाँ ले जाए।”
- चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थी। किसी आकांक्षा केलाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर कांप गया। उसके मन में सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धायौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्रवक्ष पर विलम्बमयी राग-रंजित संध्या थिरकने लगी। चंपा के असंयत कुन्तल उसकी पीठ परबिखरे थे। दुर्दान्त दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुणबालिका। वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तुका पता चला। वह थी - कोमलता।
उसी समय नायक ने कहा - “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।”
बेला से नाव टकराई। चंपा निर्भीकता से कूद पडी। मांझी भीउतरे। बुधगुह्रश्वत ने कहा - “जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोगइसे चंपा-द्वीप कहेंगे।”
चंपा हँस पडी।
पांच बरस बाद -
शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झिलमिला रहे थे। चंद्र कीउज्ज्वल विजय पर अन्तरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों औरखीलों को बिखेर दिया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रहीथी। बडे यत्न से अभ्रक की मंजूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमारउँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढने लगा। भोली-भालीआँखें उसे ऊपर चढते बडे हर्ष से देख रही थी। डोरी धीरे-धीरे खींचीगई। चंपा की कामना थी कि उसका आकाशदीप नक्षत्रों से हिलमिल जाए;किन्तु वैसा होना असम्भव था। उसने आशाभरी आँखें फिरा ली।
सामने जल-राशि का रजत श्रृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिएलहरों से हीरे और नीलम की क्रीडा शैल-मालाएँ बन रही थी और वेमायाविनी छलनाएँ अपनी हँसी का कलनाद छोडकर छिप जाती थी। दूरदूरसे धीवरों का वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चंपाने देखा कि तरल संकुल जल-राशि में उसके कंडील का प्रतिबिम्ब अस्त-व्यस्त था। यह अपनी पूर्णता के लिए सैकडौ चक्कर काटता था। वहअनमनी होकर उठ खडी हुई। किसी को पास न देखकर पुकारा -“जया!”
एक श्यामा युवती सामने आकर खडी हुई। वह जंगली थी। नीलनभोमंडल से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसतेही रहते। वह चंपा को रानी कहती; बुधगुह्रश्वत की आज्ञा थी।
“महानाविक कब तक आवेंगे, बाहर पूछो तो।” चंपा ने कहा। जयाचली गई।
दूरागत पवन चंपा के अंचल में विश्राम लेना चाहता था। उसकेहृदय में गुदगुदी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी। एकदीर्घकाय दृढ पुरुष ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर चमत्कृत कर दिया।
उसने फिर कर कहा - “बुधगुह्रश्वत।”
“बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो,तुम्हें यह काम करना है?”
“शारामाधशाया अनन्त की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों सेआकाश-दीप जलवाऊँ?”
“हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहतीहो? उसको, जिसको तुमने भगवान मान लिया है?”
“हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं; नहीं तो, बुधगुह्रश्वत कोइतना ऐश्वर्य क्यों देते?”
“तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपा रानी।”
“मुझे इस बन्दीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा औरसुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार मे है महानाविक। परन्तुमुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनि लगती है, जब तुम्हारे पास एक हीनाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लादकर हम लोग सुखी जीवनबिताते थे - इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी अलोकमयप्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में थिरकती थी। बुधगुह्रश्वत! उस विजनअनन्त में जब मांझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रमसे थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे?
वह नक्षत्रों की मधुर छाया...”
“तो चंपा। अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकतेहैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।”
“नहीं-नहीं, तुमने दस्युवृि्रूद्गा छोड दी, परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण,सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान के नाम पर हँसी उडाते हो। मेरेआकाश-दीप पर व्यंग्य कर रहे हो। नाविक! उस प्रचंड आँधी में प्रकाशकी एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे। मुझे स्मरणहै, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे - मेरीमाता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भगीरथी के तट पर बाँस केसाथ ऊँचे टांग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती - ‘भगवान! मेरेपथ-भ्रष्ट नाविक को अँधकार में ठीक पथ पर ले चलना।’ और जबमेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते - ‘साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवानने संकटों में मेरी रक्षा की है।’ वह गद्गद हो जाती। मेरी मां? आहनाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु केनिष्ठुर कारण, जल-दस्यु! हट जाओ।” - सहसा चंपा का मुख क्रोध सेभीषण होकर रंग बदलने लगा। महानाविक ने कभी यह रुप न देखा था।
वह ठठा कर हँस पडा।
“यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।” - कहताहुआ चला गया। चंपा मु ी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।
निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकराकर लहरें बिखर जातीथी। पश्चिम का पथिक थक गया था। उसका मुख पीला पड गया।
अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था। वह जैसेप्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।
चंपा और जंया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खडी हो गई। तरंगसे उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया केसंकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों के उस पर बैठते ही नाविकउतर गया। जया नाव खेने लगी। चंपा मुग्ध-सी समुद्र के उदास वातावरणमें अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।
“इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की ह्रश्वयास न बुझी। पीसकूंगी? नहीं। तो जैसे वेला में चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसीके समान रोदन करूँ? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल मेंडूबकर बुझ जाऊँ?” - चंपा के देखते-देखते पीडा और ज्वलन सेआरक्त बिम्ब धीरे-धीरे सिन्धु में चौथाई, आधा, फिर सम्पूर्ण विलीन होगया। एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुँह फेर लिया। देखा, तोमहानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुह्रश्वत ने झुककर हाथ बढाया।
चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ गई। दोनों पास-पास बैठ गए।“इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्नशैलखंड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ जाती, चंपा तो?”
“अच्छा होता, बुधगुह्रश्वत! जल में बन्दी होना कठोर प्राचीरों से तोअच्छा है।”
“आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो। बुधगुह्रश्वत को आज्ञा देकर देखोतो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे नए द्वीप की सृष्टि कर सकताहै, नई प्रजा खोज सकता है, नये राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षालेकर देखो तो...। कहो, चंपा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिंड निकालअपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे।” - महानाविक - जिसकेनाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश गूंजता था, पवन थर्राता था- घुटनों के बल चंपा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था।
सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में,नील पिंगल सन्ध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया,स्वह्रश्वनलोक का सृजन करने लगी। उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल काकुहक स्फुट हो उछा। जैसे मदिरा से सारा अन्तरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टिनील कमलों में भर उठी। जैसे मदिरा से सारा अन्तरिक्ष सिक्त हो गया।
सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल चंपा ने बुधगुह्रश्वतके दोनों हाथ पकड लिए। वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे क्षितिज मेंआकाश और सिन्धु का, किन्तु परिरम्भ में सहसा चैतन्य होकर चंपा नेअपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल ली।
“बुधगुह्रश्वत! आज मैं अपने प्रतिशोध की कृपाण अतल जल में डुबोदेती हूँ। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया।” - चमककर वहकृपाण समुद्र का हृदय बेधती हुई विलीन हो गई।
“तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?” -
आश्चर्य-कम्पित कंठ से महानाविक ने पूछा।
“विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुह्रश्वत। जब मैं अपने हृदय पर विश्वासनहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणाकरती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अँधेर है जलदस्यु! तुम्हेंह्रश्वयार करती हूँ।” - चंपा रो पडी।
वह स्वह्रश्वनों की रंगीन सन्ध्या, तुमसे अपनी आँखें बन्द करने लगीथी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा - “इस जीवन की पुण्यतमघडी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चंपा! यहीं उस पहाडी पर।
सम्भव है कि मेरे जीवन की धुँधली सन्ध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाए।”
चंपा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूरतक सिंधुजल में निमग्न थी। सागर का चंचल जल उस पर उछलता हुआउसे छिपाए था। आज उसी शैलमाला पर चंपा के आदि-निवासियों कासमारोह था। उन सबों ने चंपा को वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रलिह्रिश्वतके बहुत से सैनिक नाविकों की श्रेणी में वन-कुसुम-विभूषिता चंपाशिविकारुढ होकर जा रही थी।
शैल के एक ऊँचे शिखर पर चंपा के नाविकों को सावधान करनेके लिए सुदृढ द्वीप-स्तम्भ बनवाया गया था। आज उसी का महोत्सव है।
बुधगुह्रश्वत स्तम्भ के द्वार पर खडा था। शिविका से सहायता देकर चंपा कोउसने उतारा। दोनों ने भीतर पदार्पण किया था कि बांसुरी और ढोल बजनेलगे। पक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुईनाचने लगी।
दीप-स्तम्भ की ऊपरी खिडकी से यह देखती हुई चंपा ने जयासे पूछा - “यह क्या है जया? इतनी बालाएँ कहाँ से बटोर लाई?”
“आज राजकुमारी का ब्याह है न?” - कहकर जया हँस दी।
बुधगुह्रश्वत विस्तृत जलनिधि का और देख रहा था। उसने झकझोरकरचंपा से पूछा - “क्या यह सच है?”
“यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चंपा! कितनेवर्षो से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाए हूँ।”
“चुप रहो, महानाविका, क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकरतुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?”
“मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दूसरे दस्युके शस्त्र से मरे।”
“यदि मैं इसका विश्वास कर सकती। बुधगुह्रश्वत, वह दिन कितनासुन्दर होता, वह क्षण कितना स्पृहणीय! आह। तुम इस निष्ठुरता में भीकितने महान होते।”
जया नीचे चली गई थी। स्तम्भ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुह्रश्वत औरचंपा एकान्त में एक-दूसरे सामने बैठे थे।
बुधगुह्रश्वत ने चाप के पैर पकड लिए। उच्छ्वसित शब्दों में वह कहनेलगा - चंपा, हम लोग जन्मभूमि - भारतवर्ष से कितनी दूर ईन निरीहप्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित है, पर न जाने कौन अभिशापहम लोगों को अभी तक अलग किए है। स्मरण होता है वह दार्शनिकोंका देश। वह महिमा की प्रतिमा। मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करतीहै; परन्तु मैं क्यों नही जाता? जानती हो, इतना मह्रूद्गव प्राह्रश्वत करने परभी मैं कंगाल हूँ। मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श सेचंद्रकांतमणि की तरह द्रवित हुआ।
“चंपा। मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दयाको नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता, पर मुझे अपनेहृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एकबहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक कीएक कोमल रेखा इस निविडतम में मुस्कराने लगी। पशु-बल और धनके उपासक के मन में किसी शान्त और एकान्त कामना की हँसीखिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका।”
“चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लादकर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोगभारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुह्रश्वत की आज्ञा सिन्धु की लहरेंमानती है। वे स्वयं उस पोत-पुंज को दक्षिण पवन के समान भारत मेंपहुँचा देंगी। आह चंपा। चलो।”
चंपा ने उसके हाथ पकड लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एकपलभर के लिए हमारे दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्यहोकर चंपा ने कहा - “बुधगुह्रश्वत! मेरे लिए सब मिट्टी है; सब जल तरलहै; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समानप्रज्ज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुमस्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए और मुझे छोड दोइन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुःख की सहानुभूति और सेवा केलिए।”
“तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा। यहाँ रहकर मैं अपने हृदयपर अधिकार रख सकूँ, इसमें संदेह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाशहो जाए।” महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा -“तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?”
“पहले विचार था कि कभी दस दीप-स्तम्भ पर से आलोकजलाकर अपने पिता की समाधि का इश जल में अन्वेषण करूँगी, किन्तुदेखती हीँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।”
एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तम्भ परसे देखा - सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोडकरपश्चिम-उ्रूद्गार की ओर महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही है।
उसकी आँखों में आँसू बहने लगे।
यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उसदीप-स्तम्भ में आलोक जलाती रही, किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन,दीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी को समाधि-सदृशपूजा करते थे।
एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरादिया।
१४. आँधी
चन्दा के तट पर बहुत-से छतनारे वृक्षों की छाया है, किन्तु मैं प्रायःमुचकुंद के नीचे ही जाकर टहलता, बैठता और कभी-कभी चाँदनी मेंऊँघने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी,किन्तु वह कुछ बोलती न थी. वह टहट्ठों की बनी हुई मूसदानी-सी एकझोपडी थी, जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा-सा कालालडका पेट के बल पडा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुएभगवान की अनन्त करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों केसामने आ जाता। मैं सथिया को कभी-कभी कुछ दे देता था, पर वहनहीं के बराबर। उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था। अन्य मुसहरोंकी तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्तीसे दूर रहने में सुविधा थी, वह मुचकुंद के फूल इकट्ठे करके बेचती, सेमरकी रुई बीन लेती, लकडी के गट्ठे बटोरकर बेचती, पर उसके इन सबव्यापारों में कोई और सहायक न था। एक दिन वह मर ही तो गई।
तब भी कलाई पर से सिर उठाकर, करवट बदलकर अँगडाई लेते हुएकलुआ ने केवल एक जम्भाई ली थी। मैने सोचा - स्नेह, माया, ममताइन सबों की भी एक घरेलू पाठशाळा है, जिसमें उत्पन्न होकर शिशु धीरे-धीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार औरविशेषता से वह आकर्षक होता है सही, किन्तु, माया-ममता किस प्राणीके हृदय में न होगी। मुसहरों को पता लगा - वे कल्लू को ले गए।
तब से इस स्थान को निर्जनता पर गरिमा का एक और रंग चढ गया।मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूम-फिरकर भी जैसेमुचकुंद की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ अधिकसरसता थी। मेरा हृदय हल्का-हल्का-सा हो रहा था। पवन मे मादकसुगन्ध और शीतलता थी। ताल पर नाचती हुई लाल-लाल किरणें वृक्षोके अन्तराल से बडी सुहावनी लगती थीं। मैं परजाते के सौरभ में अपनेसिर को धीरे-धीरे हिलाता हुआ कुछ गुनगुनात चला जा रहा था। सहसामुचकुन्द के नीचे मुझे धुआँ और कुछ मनुष्यों की चहल-पहल का अनुमानहुआ। मैं कुतूहल से उसी ओर बढने लगा।
वहाँ कभी एक सराय भी थी, अब उसका ध्वंस बच रहा था।दो-एक कोठरियाँ थी, किन्तु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं परपथिक ठहरते।
मैंने देखा कि मुचकुन्द के आस-बास दूर तक एक विचित्र जमावडाहै। अद्भुत शिविरों की पांति में यहाँ पर कानन-चरों, बिना घरवालों कीबस्ती बसी हुई है।
सृष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया, किन्तु इन अभागोंको कोई पहाड की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत नहुई और न इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भीअपने चलते-फिरते घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते है। मैंसोचने लगा - ये सभ्य मानव-समाज के विद्रोही हैं, तो भी इनका एकसमाज है। सभ्य संसार के नियमों को कभी न मानकर भी इन लोगों नेअपने लिए नियम बनाए हैं। किसी भी तरह, जिनके पास कुछ है, उनसेले लेना और स्वतन्त्र होकर रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार केलिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय रहता है। ये अच्छे घुडसवार और भयानकव्यापारी है। अच्छा, ये लोग कठोर परिश्रमी और संसार यात्रा के उपयुक्तप्राणी है, फिर इन लोगों ने कहीं बसना, घर बनाना, क्यों नहीं पसन्दकिया? - मैं मन ही मन सोचता हुआ धीरे-धीरे उनके पास होने लगा।
कुतूहल ही तो था। आज तक इन लोगों के सम्बन्ध में कितनी ही बातेंसुनता आया था। जब निर्जन चन्दा का ताल मेरे मनोविनोद की सामग्रीहो सकता है, तब आज उसका बसा हुआ तट मुझे क्यों न आकर्षितकरता? मैं धीरे-धीरे मुचकुंद के पास पहुँच गया। उसीक एक डाल सेबँधा हुआ एक सुन्दर बछेडा हरी-हरी दूब खा रहा था और लहँगा-कुरतापहने, रूमाल सिर से बाँधे हुए एक लडकी उसकी पीठ सूखे घास केमट्ठे से मल रही थी। मैं रुककर देखने लगा। उसने पूछा - घोडा लोगे,बाबू?
नहीं - कहते हुए मैं आगे बढा था कि एक तरुणी ने झोपडे सेसिर निकाल कर देखा। वह बाहर निकल आई। उसने कहा - आप पढनाजानते हैं?
हाँ, जानता ता हूँ।
हिन्दुओं की चिट्ठी आप पढ लेंगे?
मैं उसके सुन्दर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था। कलाकी दृष्टि; ठीक तो बौद्ध-कला, गान्धार-कला, द्रविडों की कला इत्यादि नामसे भारतीय मूर्ति-सौन्दर्य के अनेक विभाग जो हैं; जिससे गढन का अनुमानहोता है। मेरे एकान्त जीवन को बिताने की सामग्री में इस तरह का जडसौन्दर्य-बोध भी एक स्थान रखता है। मेरा हृदय सजीव प्रेम से कभीआह्रश्वलुत नहीं हुआ था। मैं इस मूक सौन्दर्य से ही कभी-कभी अपनामनोविनोद कर लिया करता। चिट्ठी पढने की बात पूछने पर भी मैं अपनेमन में निश्चय कर रहा था कि वास्तविक गान्धार प्रतिमा है या ग्रीसऔर भारत का इस सौन्दर्य में समन्वय है।
वह झुंझलाकर बोली - क्या नहीं पढ सकोगे?
चश्मा नहीं है, मैंने सहसा कह दिया। यद्यपि मैं चश्मा नहीं लगाता,तो भी स्त्रियों से बोलने में न जाने क्यों मेरे मन में हिचक होती है।मैं उनसे डरता भी था, क्योंकि सुना था वे किसी वस्तु को बेचने के लिएप्रायः इस तरह तंग करती हैं कि उनसे दाम पूछनेवाले को लेकर ही छूटनापडता है। इसमें उनके पुरुष लोग भी सहायक हो जाते हैं, तब वह बेचाराग्राहक और भी झँझट में फँस जाता। मेरी सौन्दर्य की अनुभूति विलिनहो गई। मैं अपने दैनिक जीवन के अनुसार टहलने का उपक्रम करने लगा;किन्तु वह सामने अचल प्रतिमा की तरह खडी हो गई। मैंने कहा - क्याहै?
चश्मा चाहिए? मैं ले आती हूँ।
ठहरो, ठहरो, मुझे चश्मा न चाहिए।
कहकर मैं सोच रहा था कि कहीं मुझे खरीदना न पडे। उसने पूछा- तब तुम पढ सकोगे कैसे?
मैंने देखा कि बिना पढे मुझे छुट्टी न मिलेगी। मैंने कहा - लेआओ, देखूँ, सम्भव है कि पढ सकूँ। उसने अपनी जेब से एक बुरीतरह मुडा हुआ पत्र निकाला। मैं उसे लेकर मन-ही-मन पढने लगा।
लैला...,तुमने जो मुझे पत्र लिखा था, उसे पढकर मैं हँसा भी और दुःखतो हुआ ही। हँसा इसलिए कि तुमने दूसरे से अपने मन का ऐसा खुलाहुआ हाल क्यों कह दिया। तुम कितनी भोली हो। क्या तुमको ऐसा पत्रदूसरे से लिखवाते हुए हिचक न हुई। तुम्हारा घूमनेवाला परिवार ऐसी बातोंको सहन करेगा? क्या इन प्रेम की बातों में तुम गम्भीरता का तनिक भीअनुभव नहीं करती हो? और दुखी इसलिए हुआ कि तुम मुझसे प्रेमकरती हो। यह कितनी भयानक बात है। मेरे लिए भी और तुम्हारे लिएभी। तुमने मुझे निमंत्रित किया है प्रेम के स्वतन्त्र साम्राज्य में घूमने केलिए, किन्तु तुम जानती हो, मुझे जीवन के ठोस झँझटों से छुट्टी नहीं।
घर में मेरी स्त्री है, तीन-तीन बच्चे है, उन सबों के लिए मुझे खटनापडता है, काम करना पडता है। यदि वैसा न भी होता, तो भी क्या मैंतुम्हारे जीवन को अपने साथ घसीटने में समर्थ होता? तुम स्वतन्त्र वनविहंगिनी और मैं एक हिन्दू गृहस्थ; अनेकों रुकावटें, बीसों बन्धन। यहसब असम्भव है। तुम भूल जाओ। जो स्वह्रश्वन तुम देख रही हो - उसमेंकेवल हम और तुम हैं। संसार का आभास नहीं। मैं एक दिन और जीर्णसुख लेते हुए जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का समन्वय करने का प्रयत्नकर रहा हूँ। न मालूम कब से मनुष्य इस भयानक सुख का अनुभव कररहा है। मैं उन मनुष्यों में अपवाद नहीं हूँ, क्योंकि यह सुख भी तुम्हारेस्वतन्त्र सुख की सन्तति है। वह आरम्भ है, यह परिणाम है। फिर भीघर बसाना पडेगा। फिर वही समस्याएँ सामने आवेंगी। तब तुम्हारा यहस्वह्रश्वन भंग हो जाएगा। पृथ्वी ठोस और कंकरीली रह जाएगी। फूल हवामें बिखर जाएँगे। आकाश का विराट् मुख समस्त आलोक को पी जाएगा।
अँधकार केवल अँधकार में झुँझलाहट-भरा पश्चा्रूद्गााप, जीवन को अपनेडंकों से क्षत-विक्षत कर देगा। इसलिए लैला! भूल जाओ। तुम चारयारीबेचती हो। उससे सुना है, चोर पकडे जाते हैं, किन्तु अपने मन का चोरपकडना कहीं अच्छा है। तुम्हारे भीतर जो तमको चुरा रहा है, उसे निकालबाहर करो। मैंने तुमसे कहा था कि बहुत-से पुराने सिक्के खरीदूँगा, तुमअबकी बार पश्चिम जाओ तो खोजकर ले आना। मैं उन्हें अच्छे दामोंपर ले लूँगा। किन्तु तुमको खरीदना है अपने को बेचना नहीं, इसलिएमुझसे प्रेम करने की भूल तुम न करो।
हाँ, अब कभी इस तरह पत्र न भेजना, क्योंकि वह सब व्यर्थ है।- रामेश्वर
मैं एक साँस में पत्र पढ गया, तब तक लैला मेरा मुँह देख रहीथी। मेरा पढना कुछ ऐसा ही हुआ, जैसे लोग अपने में बर्राते हैं। मैंनेउसकी ओर देखते हुए वह कागज उसे लौटा दिया। उसने पूछा - इसकामतलब?
अधरों में कुंचित हँसी, आँखों में प्रकाश भरे प्रज्ञासारथि ने मुझेदेखते हुए कहा - आज मेरी इच्छा थी कि आपसे भेंट हो।
मैंने हँसते हुए कहा - अच्छा हुआ कि मैं प्रत्यक्ष ही आ गया।नहीं तो ध्यान में बाधा पडती।
श्रीनाथजी! मेरे ध्यान में आपके आने की सम्भावना न थी। तोभी आज एक विषय पर आपकी सम्मति की आवश्यकता है।
मैं भी कुछ कहने के लिए ही यहाँ आया हूँ। पहले मैं कहूँ किआप ही आरम्भ करेंगे?
मेरी इच्छा होती थी कि वे किसी तरह भी यहाँ से चले जाते; तो भीमुझे उन्हें उ्रूद्गार देने के लिए इतना तो कहना ही पडा कि - आप कच्चेअदृष्टवादी हैं। आपके जैसा विचार रखने पर मैं तो इसे इस तरहसुलझाऊँगा कि अपराध करने में और दंड देने में मनुष्य एक-दूसरे कासहायक होता है। हम आज जो किसी को हानि पहुँचाते हैं, या कष्ट देतेहैं, वह इतने ही के लिए नहीं कि उसने मेरी कोई बुराई की है। होसकता है कि मैं उसके किसी अपराध का यह दण्ड समाज-व्यवस्था केकिसी मौलिक नियम के अनुसार दे रहा हूँ। फिर चाहे मेरा यह दण्डदेना भी अपराध बन जाए और उसका फल भी मुझे भोगना पडे। मेरेइस कहने पर प्रज्ञासारथि हँस दिया और कहा - श्रीनाथजी, मैं आपकीदण्ड-व्यवस्था ही तो करने आया हूँ। आप अपने बेकार जीवन को मेरीबेगार में लगा दीजिए। मैंने पिण्ड छुडाने के लिए कहा - अच्छा, तीनदिन सोचने का अवसर दीजिए।
प्रज्ञासारथि चले गए और मैं चुपचाप सोचने लगा। मेरे स्वतन्त्रजीवन में माँ के मर जाने के बाद यह दूसरी उलझन थी। निश्चित जीवनकी कल्पना का अनुभव मैंने इतने दिनों तक कर लिया था। मैंने देखाकि मेरे निराश जीवन में उल्लास का छींटा भी नहीं। यह ज्ञान मेरे हृदयको और भी स्पर्श करने लगा। मैं जितना ही विचारता था, उतना ही मुझेनिश्चिंतता और निराशा का अभेद दिखलाई पडता था। मेरे आलसी जीवनमें सक्रियता की प्रतिध्वनि होने लगी। तो भी काम न करने का स्वभावमेरे विचारों के बीच में जैसे व्यंग्य से मुस्करा देता था।
तीन दिनों तक मैंने सोचा और विचार किया। अन्त में प्रज्ञसारथिकी विजय हुई, क्योंकि मेरी दृष्टि में प्रज्ञासारथि का काम नाम के लिएतो अवश्य था, किन्तु करने में कुछ भी नहीं के बराबर।
मैंने अपना हृदय दृढ किया और प्रज्ञसारिथ से जाकर कह दियाकि - मैं पाठशाला का निरीक्षण करूँगा, किन्तु मेरे मित्र आनेवाले हैं औरजब तक यहाँ रहेंगे, तब तक तो मैं अपना बँगला न छोडूंगा, क्योंकि यहाँउन लोगों के आने से आपको असुविधा होगी। फिर जब वे लोग चलेजाएँगे, तब मैं यहीं आकर रहने लगूँगा।
मेरे सिंहली मित्र ने हँसकर कहा - अबी तो एक महीने यहाँ मैंअवश्य रहूँगा। यदि आप अभी से यहाँ चले आवें तो, बडा अच्छा हो,क्योंकि मेरे चहते यहाँ का सब प्रबन्ध आपकी समझ में आ जायगा। रहगई मेरी असुविधा की बात, सो तो केवल आपकी कल्पना है। मैं आपकेमित्रों को यहाँ देखकर प्रसन्न ही होऊँगा। जगह की कमी भी नहीं।
मैं ‘अच्छा’ कहकर उनसे छुट्टी लेने के लिए उठ खडा हुआ; किन्तुप्रज्ञसारथि ने मुझे फिर से बैठाते हुए कहा - देखिए श्रीनाथजी, यहपाठशाला का भवन पूर्णतः आपके अधिकार में रहेगा। भिक्षुओं के रहनेके लिए तो संघाराम का भाग अलग है ही और उसमें जो कमरे अभीअधूरे हैं, उन्हें शीघ्र ही पूरा कराकर तब मैं जाऊँगा और अपने संघ सेमैं इसकी पक्की लिखा-पढी कर रहा हूँ कि आप पाठशाला के आजीवनअवैतनिक प्रधानाध्यक्ष रहेंगे और उसमें किसी को हस्तक्षेप करने काअधिकार न होगा।
मैं उस युवक बौद्ध मिशनरी की युक्तिपूर्ण व्यावहारिकता देखकरमन-ही-मन चकित हो रहा था। एक क्षण भर के लिए उस सिंहली कीव्यवहार-कुशल बुद्धि से मैं भीतर-ही-भीतर ऊब उठा। मेरी इच्छा हुई किमैं स्पष्ट अस्वीकार कर दूँ; किन्तु न जाने क्यों मैं वैसा न कर सका।
मैंने कहा-तो आपको मुझमें इतना विश्वास है कि मैं आजीवन आपकीपाठशाला चलाता रहूँगा!
प्रज्ञसारथि ने कहा - शक्ति की परीक्षा दूसरों ही पर होती है; यदिमुझे आपकी शक्ति का अनुभव हो, तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। औरआप तो जानते ही है कि धार्मिक मनुष्य विश्वासी होता है। सूक्ष्म रूपसे जो कल्याण-ज्योति मानवता में अन्तर्निहित है, मैं तो उसमें अधिक-से-अधिक श्रद्धा करता हूँ। विपथगामी होने पर वही सन्त हो करके मनुष्यका अनुशासन करती है, यदि उसकी पशुता ही प्रबल न हो गई हो, तो।
मैं काँप उठा - अपने प्राणों के भय से नहीं किन्तु लैला के साथ अदृष्टके खिलवाड पर और अपनी मूर्खता पर। मैंने प्रार्थना के ढंग से कहा- लैला, मैंने तुम्हारे मन को ठेस लगा दी है, इसका मुझे बडा दुःखहै। अब तुम उसको भूल जाओ।
तुम भूल सकते हो, मैं नहीं! मैं खून करूँगी। - उसकी आँखों
में ज्वाला निकल रही थी।
किसका, लैला! मेरा?
ओह नहीं, तुम्हारा नहीं, तुमने एक दिन मुझे सबसे बडा आरामदिया है। हो, वह झूठा। तुमने अच्छा नहीं किया था, तो भी मैं तुमकोअपना दोस्त समझती हूँ।
तब किसका खून करोगी?
उसने गहरी साँस लेकर कहा - अपना या किसी... फिर चुप होगई। मैंने कहा - तुम ऐसा न करोगी, लैला! मेरा और कुछ कहने कासाहस नहीं होता था। उसी ने फिर पूछा - वह जो तेज हवा चलती है,जिसमें बिजली चमकती है, बरफ गिरती है, जो बडे-बडे पेडो को तोडडालती है।... हम लोगों के घरों को उडा ले जाती है।
आँधी! - मैंने बीच ही में कहा।
हाँ, वही मेरे यहाँ चल रही है! - कहकर लैला ने अपनी छातीपर हाथ रख दिया।
लैला! - मैंने अधीर होकर कहा।
मैं उसको एक बार देखना चाहती हूँ। - उसने भी व्याकुलता सेमेरी ओर देखते हुए कहा।
मैं उसे दिखा दूँगा; पर तुम उसकी कोई बुराई तो न करोगी? -मैंने कहा।
हुश! - कहकर लैला ने अपनी काली आँखें उठाकर मेरी ओरदेखा।
मैंने कहा - अच्छा लैला! मैं दिखा दूँगा।
कल मुझसे यहीं मिलना। - कहती हुई वह अपने घोडे पर सवारहो गई। उदास लैला के बोझ से वह घोडा भी धीरे-दीरे चलने लगा औरलैला झुकी हुई-सी उस पर मानो किसी तरह बैठी थी।मैं वहीं देर तक खडा रहा और फिर धीरे-दीरे अनिच्छापूर्वकपाठशाला की ओर लौटा। प्रज्ञासारथि पीपल के नीचे शिलाखंड पर बैठेथे। मिन्ना उसके पास खडा उनका मुँह देख रहा था। प्रज्ञासारथि कीरहस्यपूर्ण हँसी आज अधिक उदार थी। मैंने देखा कि वह उदासीन विदेशीअपनी समस्या हल कर चुका है। बच्चों की चहल-पहल ने उसके जीवनमें वांछित परिवर्तन ला दिया है। और मैं?
मैं कह चुका था, इसलिए दूसरे दिन लैला से भेंट करने पहुँचा।देखता हूँ कि वह पहले ही से वहाँ बैठी है। निराशा से उदास उसकामुँह आज पीला हो रहा था। उसने हँसने की चेष्टा नहीं की और न मैंनेही। उसने पूछा - तो कब, कहाँ चलना होगा? मैं तो सूरत में उससेमिली थी! वहीं उसने मेरी चिट्ठी का जवाब दिया था। अब कहाँ चलनाहोगा?
मैं भौंचक-सा हो गया। लैला को विश्वास था कि सूरत, बम्बई,काश्मीर वह चाहे कहीं हो, मैं उसे लिवाकर चलूँगा ही और रामेश्वर सेभेंट करा दूँगा। सम्भवतः उसने परिहास का यह दण्ड निर्धारित कर लियाथा। मैं सोचने लगा - क्या कहूँ।
लैला ने फिर कहा - मैं उसकी बुराई न करूँगी, तुम डरो मत।
मैंने कहा - वह यहीं आ गया है। उसके बाल-बच्चे सब साथहैं! लैला, तुम चलोगी?
वह एक बार सिर से पैर तक काँप उठी! और मैं भी घबरा गया।मेरे मन में नई आशंका हुई। आज मैं क्या दूसरी भूल करने जा रहाहूँ? उसने सँभलकर कहा - हाँ चलूँगी, बाबू! मैंने गहरी दृष्टि से उसकेमुँह की ओर देखा, तो अंधड नहीं किन्तु एक शीतल मलय का व्याकुलझोंका उसकी घुंघराली लटों के साथ खेल रहा था। मैंने कहा - अच्छा,मेरे पीछे-पीछे चली आओ!
मैं चला और वह मेरे पीछे थी। जब पाठशाला के पास पहुँचा,तो मुझे हारमोनियम का स्वर और मधुर आलाप सुनाई पडा। मैं ठिठककरसुनने लगा - रमणी-कण्ठ की मधुर ध्वनि! मैंने देखा कि लैला की आँखेंउस संगीत के नशे में मतवाली हो चली हैं। उधर देखता हूँ तो कमलोको गोद में लिये प्रज्ञासारथि भी झूम रहे हैं। अपने कमरे में मालती छोटे-से सफारी बाजे पर पीलू गा रही है और अच्छी तरह गा रही है। रामेश्वरलेटा हुआ उसके मुँह की ओर देख रहा है। पूर्ण तृह्रिश्वत! प्रसन्नता कीमाधुरी दोनों के मुँह पर खेल रही है! पास ही रंजन और मिन्ना बैठेहुए अपने माता और पिता को देख रहे हैं! हम लोगों के आने की बातकौन जानता है। मैंने एक क्षण के लिए अपने को कोसा; इतने सुन्दर संसारमें कलह की ज्वाला जलाकर मैं तमाशा देखने चला था। हाय रे-मेराकुतूहल! और लैला स्तब्ध अपनी बडी-बडी आँखों से एकटक न जानेक्या देख रही थी। मैं देखता था कि कमलो प्रज्ञासारथि की गोद से धीरे-से खिसक पडी और बिल्ली की तरह पैर दबाती हुई अपनी मां की पीठपर हँसती हुई गिर पडी, और बोली - मा! और गाना रुक गया। कमलोके साथ मिन्ना और रंजन भी हँस पडे। रामेश्वर ने कहा - कमलो, तूबली पाजी है ले! बा-पाजी-लाल कहकर कमलो ने अपनी नन्हीं-सीउंगली उठाकर हम लोगों की ओर संकेत किया। रामेश्वर तो उठकर बैठगए। मालती ने मुझे देखते ही सिर का कपडा तनिक आगे की ओर खींचलिया और लैला ने रामेश्वर को देखकर सलाम किया। दोनों की आँखेंमिली। रामेश्वर के मुँह पर पल भर के लिए एक घबराहट दिखाई पडी।
फिर उसने सँभलकर पूछा - अरे लैला! तुम यहाँ कहाँ?
चारयारी न लोगे, बाबू? - कहती हुई लैला निर्भीक भाव सेमालती के पास जाकर बैठ गई।
मालती लैला पर एक सलज्ज मुस्कान छोडती हुई, उठ खडी हुई।लैला उसका मुँह देख रही थी, किन्तु उस ओर ध्यान न देकर मालतीने मुझसे कहा - भाई जी, आपने जलपान नहीं किया। आज तो आपही के लिए मैंने सूरन के लड्डू बनाए हैं।
तो देती क्यों नहीं पगली, मैं सवेरे ही से भूखा भटक रहा हूँ -मैंने कहा। मालती जलपान ले आने गई। रामेश्वर ने कहा - चारयारीले आई हो? लैला ने हाँ कहते हुए अपना बैग खोला। फिर रुककर उसनेअपने गले से एक ताबीज निकाला। रेशम से लिपटा हुआ चौकोर ताबीजकी सीवन खोलकर उसने वह चिट्ठी निकाली। मैं स्थिर भाव से देख रहाथा। लैला ने कहा - पहले बाबूजी, इस चिट्ठी को पढ दीजिए। रामेश्वरने कम्पित हाथों से उसको खोला, वह उसी का लिखा हुआ पत्र था। उसनेघबराकर लैला की ओर देखा। लैला ने शान्त स्वरों में कहा - पढिएबाबू! आप ही के मुँह से सुनना चाहती हूँ।
रामेश्वर ने दृढता से पढना आरम्भ किया। जैसे उसने अपने हृदयका समस्त बल आने वाली घटनाओं का सामना करने के लिए एकत्र करलिया हो; क्योंकि मालती जलपान लिए आ ही रही थी। रामेश्वर ने पूरापत्र पढ लिया। केवल नीचे अपना नाम नहीं पढा। मालती खडी सुनतीरही और मैं सूरन के लड्डू खाता रहा। बीच-बीच में मालती का मुँह देखलिया करता था। उसने बडी गम्भीरता से पूछा - भाईजी, लड्डू कैसे हैं?
यह तो आपने बताया नहीं, धीरे-से खा गए।
जो वस्तु अच्छी होती है, वही गले में धीरे-से उतार ली जातीहै। नहीं तो कडवी वस्तु के लिए थू-थू करना पडता। मैं कह ही रहाथा कि लैला ने रामेश्वर से कहा है - ठीक तो! मैंने सुन लिया। अबआप उसको फाड डालिए। तब आपको चारयारी दिखाऊँ।
रामेश्वर सचमुच पत्र फाडने लगा। चिन्दी-चिन्दी उस कागज केटुकडे की उड गई और लैला ने एक छिपी हुई गहरी साँस ली, किन्तुमेरे कानों ने उसे सुन ही लिया। वह तो एक भयानक आँधी से कमन थी। लैला ने सचमुच एक सोने की चारयारी निकाली। उसके साथएक सुन्दर मूंगे की माला। रामेश्वर ने चारयारी लेकर देखा। उसने मालतीसे पचास के नोट देने के लिए कहा। मालती अपने पति के व्यवसायको जानती थी, उसने तुरन्त नोट दे दिए। रामेश्वर ने जब नोट लैला कीओर बढाए, तभी कमलो सामने आकर खडी हो गई - बा...लाल...रामेश्वर ने पूछा, क्या है रे कमलो?
पुतली-सी सुन्दर बालिका ने रामेश्वर के गालों का अपने छोटे-से हाथों से पकडकर कहा - लाल-लाल...लैला ने नोट ले लिए थे। पूछा-बाबूजी! मूंगे की माला नलीजिएगा?
नहीं।
लैला ने माला उठाकर कलमो को पहना दी। रामेश्वर नहीं-नहीं कररहा था, किन्तु उसने सुना नहीं! कमलो ने अपनी मां को देखकर कहा- मां... लाल... वह हँस पडी और कुछ नोट रामेश्वर को देते हुए बोली- तो ले लो न, इसका भी दाम दे दो।
लैला ने तीव्र दृष्टि से मालती को देखा; मैं तो सहम गया था।
मालती हँस पडी। उसने कहा - क्या दाम न लोगी?
लैला कमलो का मुँह चूमती हुई उठ खडी हुई। मालती अवाक्,रामेश्वर स्तब्ध, किन्तु मैं प्रकृतिस्थ था।
लैला चली गई।
मैं विचारता रहा, सोचता रहा। कोई अन्त न था - ओर-छोर कापता नहीं। लैला, प्रज्ञासारथि-रामेश्वर और मालती सभी मेरे सामने बिजलीके पुतलों से चक्कर काट रहे थे। सन्ध्या हो चली थी, किन्तु मैं पीपलके नीचे से न उठ सका। प्रज्ञासारथि अपना ध्यान समाह्रश्वत करके उठे।
उन्होंने मुझे पुकारा - श्रीनाथजी! मैंने हँसने की चेष्टा करते हुए कहा -कहिए!
आज तो आप भी समाधिस्थ रहे।
तब भी इसी पृथ्वी पर, था। जहाँ लालसा क्रन्दन करती है,दुःखानुभूति हँसती है और नियति अपने मिट्टी के पुतलों के साथ अपनाक्रूर मनोविनोद करती है; किन्तु आप तो बहुत ऊँचे किसी स्वर्गिक भावनामें...ठहरिए श्रीनाथजी! सुख और दुःख, आकाश और पृथ्वी, स्वर्ग औरनरक के बीच में है वह सत्य, जिसे मनुष्य प्राह्रश्वत कर सकता है।
मुझे क्षमा कीजिए! अन्तरिक्ष में उडने की मुझमें शक्ति नहीं है।मैंने परिहासपूर्वक कहा।
साधारण मन की स्थिति को छोडकर जब मनुष्य कुछ दूसरी बातसोचने के लिए प्रयास करता है, तब क्या वह उडने का प्रयास नहीं?
हम लोग कहने के लिए द्विपद हैं, किन्तु देखिए तो जीवन में हम लोगकितनी बार उचकते हैं, उडान भरते हैं। वही तो उन्नति की चेष्टा, जीवनके लिए संग्राम और भी क्या-क्या नाम से प्रशंसित नहीं होती? तो मैंभी इसकी निन्दा नहीं करता; उठने की चेष्टा करनी चाहिए, किन्तु...आप यही न कहेंगे के समझ-बूझकर एक बार उचकना चाहिए;किन्तु उस एक बार को - उस अचूक अवसर को जानना सहज नहीं।
इसीलिए तो मनुष्यों को, जो सबसे बुद्धिमान प्राणी है, बार-बार धोखाखाना पडता है। उन्नति को उसने विभिन्न रुपों में अपनी आवश्यकताओंके साथ इतना मिलाया है कि उसे सिद्धान्त बना लेना पडा है कि उन्नतिका द्वन्द्व पतन ही है।
मैं लडकों को पढाने लगा। कितना आश्चर्यजनक भयानक परिवर्तनमुझमें हो गया। उसे देखकर मैं ही विस्मित होता था। कलुआ इन्हीं कईमहीनो से मेरा एकान्त साथी बन गया। मैंने उसे बार-बार समझाया, किन्तुवह बीच-बीच में मुझसे घर चलने के लिए कह बैठता ही था। मैं हताशहो गया। अब वह जब घर चलने की बात कहता, तो मैं सिर हिलाकरकह देता - अच्छा, अभी चलूंगा।
दिन इसी तरह बीतने लगे। वसन्त के आगमन से प्रकृति सिहरउठी। वनस्पतियों की रोमावली पुलकित थी। मैं पीपल के नीचे उदासबैठा हुआ ईषत् शीतल पवन से अपने शरीर में फुरहरी आ अनुभव कररहा था। आकाश की आलोक-माला चंदा की वीथियों में डुबकियाँ लगारही थी। निस्तब्ध रात्रि का आगमन बडा गम्भीर था।
दूर से एक संगीत की - नन्हीं-नन्हीं करुण वेदना की तान सुनाईपड रही थी . उस भाषा को मैं नहीं समझता था। मैंने समझा, यह भीकोई छलना होगी। फिर सहसा मैं विचारने लगा कि नियति भयानक वेगसे चल रही है। आँधी की तरह उसमें असंख्य प्राणी तृण-तूलिका केसमान इधर-उधर बिखर रहे हैं। कहीं से लाकर किसी को वह मिला हीदेती है और ऊपर से कोई बोझे की वस्तु भी लाद देती है कि वे चिरकालतक एक-दूसरे से सम्बद्ध रहें। सचमुच! कल्पना प्रत्यक्ष हो चली। दक्षिणका आकाश धूसर हो चला- एक दानव ताराओं को निगलने लगा। पक्षियोंका कोलाहल बढा। अन्तरिक्ष व्याकुल हो उठा! कडवाहट में सभी आश्रयखोजने लगे; किन्तु मैं कैसे उठता! वह संगीत की ध्वनि समीप आ रहीथी। वज्रनिघोष को भेदकर कोई कलेजे से गा रहा था। अँधकार में,साम्राज्य में तृण, लता, वृक्ष सचराचर कम्पित हो रहे थे।
कलुआ की चीत्कार सुनकर भीतर चला गया। उस भीषण कोलाहलमें भी वही संगीत-ध्वनि पवन के हिंडोले पर झूल रही थी, मानोपाठशाला के चारों ओर लिपट रही थी। सहसा एक भीषण अर्राहट हुई।
अब मैं टार्च लिये बाहर आ गया।
आँधी रुक गई थी। मैंने देखा कि पीपल की बडी-सी डाल फटीपडी है और लैला नीचे दबी हुई अपनी भावनाओं की सीमा पार करचुकी है।
मैं अब भी चंदा-तट की बौद्ध पाठशाला का अवैतनिक अध्यक्ष हूँ।प्रज्ञासारथि के नाम को कोसता हुआ दिन बिताता हूँ। कोई उपाय नहीं।
वही जैसे मेरे जीवन का केन्द्र है।
आज भी मेरे हृदय में आँधी चला करती है और उसमें लैला कामुख बिजली की तरह कौंधा करता है।
१५. चूडीवाली
“अबी तो पहना गई हो।”
“बहूजी, बडी अच्छी चूडियाँ हैं। सीधे बम्बई से पारसल मँगायाहै। सरकार का हुक्म है; इसलिए नई चूडियाँ आते ही चली आती हूँ।”
“तो जाओ, सरकार को ही पहनाओ, मैं नहीं पहनती।”
“बहूजी! जरा देख तो लीजिए।” कहती मुस्कराती हुई ढीठचूडीवाली अपना बक्स खोलने लगी। वह पचीस वर्ष की एक गोरीछरहरीस्त्री थी। उसकी कलाई सचमुच चूडी पहनाने के लिए ढली थी।
पान से लाल पतले-पतले होठ दो-तीन वक्रताओं में अपना रहस्य छिपाएहुए थे। उन्हें देखने का मन करता, देखने पर उन सलोने अधरों से कुछबोलवाने का जी चाहता है। बोलने पर हँसाने की इच्छा होती और उसीहँसी में शैशव का अल्हडपन, यौवन की तरावट और प्रौढ की-सीगम्भीरता बिजली के समान लड जाती।
बहूजी को उसकी हँसी बहुत बुरी लगती; पर जब पंजों में अच्छीचूडी चढाकर, संकट में फँसाकर वह हँसते हुए कहती - “एक पान मिलेबिना यह चूडी नहीं चढती।” तब बहूजी को क्रोध के साथ हँसी आजाती और उसकी तरल हँसी की तरी लेने में तन्मय हो जाती।
कुछ ही दिनों से यह चूडीवाली आने लगी है। कभी-कभी बिनाबुलाए ही चली आती और ऐसे ढंग फैलाती कि बिना सरकार के आएनिबटारा न होता। यह बहूजी को असह्य हो जाता। आज उसको चूडीफँसाते देख बहूजी झल्लाकर बोली - “आजकल दुकान पर ग्राहक कमआते हैं क्या?”
“बहूजी, आजकल खरीदने की धुन में हूँ, बेचती हूँ कम।” इतनाकहकर कई दर्जन चूडियाँ बाहर सजा दीं। स्लीपरों के शब्द सुनाई पडे।
बहूजी ने कपडे सम्हाले, पर वह ढीठ चूडीवाली बालिकाओं के समानसिर टेढा करके “यह जर्मनी की है, यह फरांसीसी है, यह जापानी है”
कहती जाती थी। सरकार पीछे खडे मुस्करा रहे थे।
“क्या रोज नई चूडियाँ पहनाने के लिए इन्हें हुक्म मिला है?”
बहूजी ने गर्व से पूछा।
सरकार ने कहा - “पहनो, तो बुरा क्या है?”
“बुरा तो कुछ नहीं, चूडी चढाते हुए कलाई दुखती होगी।”
चूडीवाली ने सिर नीचे किए कनखियों से देखते हुए कहा। एक लहर-सी लाली आँखों की ओर से कपोलों को तर करती हुई दौड जाती थी।
सरकार ने देखा-एक लालसा-भरी युवती व्यंग्य कर रही है। हृदय मेंहलचल मच गई, घबराकर बोले - “ऐसा है, तो न पहनें।”
“भगवान करे, रोज पहनें”, चूडीवाली आशीर्वाद देने के गम्भीरस्वर में प्रौढा के समान बोली।
“अच्छा, तुम अबी जाओ।” सरकार और चूडीवाली दोनों की ओरदेखते हुए बहूजी ने झुँझलाकर कहा।
“तो क्या मैं लौट जाऊँ? आप तो कहती थीं न, कि सरकार कोही पहनाओ, तो जरा उनसे पहनने के लिए कह दीजिए।”
“निकल मेरे यहाँ से।” कहते हुए बहूजी की आँखें तिलमिलाउठी। सरकार धीरे से निकल गए। अपराधी के समान सिर नीचा किएचूडीवाली अपनी चूडियाँ बटोरकर उठी। हृदय की धडकन में अपनीरहस्यपूर्ण निश्वास छोडती हुई चली गई।
चूडीवाली का नाम था विलासिनी। वह नगर की एक प्रसिद्ध नर्तकीकी कन्या थी। उसके रूप और संगीत-कला की सुख्याति थी, वैभव भीकम न था! विलास और प्रमोद का पर्याह्रश्वत सम्भार मिलने पर भी उसेसन्तोष न था। हृदय में कोई अभाव खटकता था, वास्तव में उसकीमनोवृि्रूद्गा उसके व्यवसाय के प्रतिकूल थी।
कुलवधू बनने की अभिलाषा हृदय में और दाम्पत्य-सुख का स्वर्गीयस्वह्रश्वन उसीक आँखों में समाया था। स्वच्छन्द प्रणय का व्यापार अरुचिकरहो गया, परन्तु समाज उससे हिंस्र पशु के समान सशंक था। उससे आश्रयमिलना असम्भव जानकर विलासिनी ने छल के द्वारा वही सुख लेना चाहा।
यह उसकी सरल आवश्यकता थी, क्योंकि अपने व्यवसाय में उसका प्रेमक्रय करने के लिए बहुत-से लोग आते थे, पर विलासिनी अपना हृदयखोलकर किसी से प्रेम न कर सकती थी।
उन्हीं दिनों सरकार के रूप, यौवन और चारित्र्य ने उसे प्रलोभनदिया। नगर के समीप बाबू विजयकृष्ण की अपनी जमींदारी में बडी सुन्दरअट्टालिका थी। वहीं रहते थे। उनके अनुचर और प्रजा उन्हें सरकारकहकर पुकारती थी। विलासिनी की आँखें विजयकृष्ण पर गड गई।
अपना चिर-संचित मनोरथ पूर्ण करने के लिए वह कुछ दिनों के लिएचूडीवाली बन गई थी।
सरकार चूडीवाली को जानते हुए भी अनजान बने रहे। अमीरी काएक कौतुक था, एक खिलवाड समझकर उसके आने-जाने में बाधा न देते।
विलासिनी के कलापूर्ण सौन्दर्य ने जो कुछ प्रभाव उनके मन पर डालाथा, उसके लिए उनके सुरुचिपूर्ण मन ने अच्छा बहाना खोज लिया था,वे सोचते, ‘बहूजी का कुल-वधू-जनोचित सौन्दर्य और वैभव की मर्यादादेखकर चूडीवाली स्वयं पराजय स्वीकार कर लेगी और अपना निष्फलप्रयत्न छोड देगी, तब तक यह एक अच्छा मनोविनोद चल रहा है!’
चूडीवाली अपने कौतूहलपूर्ण कौशल में सफल न हो सकी थी,परन्तु बहूजी के आज के दुर्व्यवहार ने प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी और चोटखाकर उसने सरकार को घायल कर दिया।
अब सरकार प्रकाश्य रूप से उसके यहाँ जाने लगे। विलास-रजनीका प्रभात भी चूडीवाली के उपवन में कटता। कुल-मर्यादा, लोकलाज औरजमींदारी सब एक ओर और चूडीवाली अकेले। दालान में कुर्सियों परसरकार और चूडीवाली बैठकर रात्रिजागरण का खेद मिटा रहे थे, पासही अनार का वृक्ष था, उसमें फूल खिले थे। एक बहुत ही छोटी कालीचिडिया उन फूलों में चोंच डालकर मकरन्द पान करती और कुछ केसरखाती, फिर हृदयविमोहक कलनाद करती हुई उड जाती।
सरकार बडी देर से कौतुक देख रहे थे, बोले - “इसे पकडकरपालतू बनाया जाए, तो कैसा?”
“उहूँ, यह फूलसुंघी है। पींजरे में जी नहीं सकती। उसे फूलों काप्रदेश ही जिला सकता है, स्वर्ण-पिंजर नहीं, उसे खाने के लिए फूलोंकी केसर का चारा और पीने के लिए नकरन्द-मदिरा कौन जुटावेगा?”
“पर इसकी सुन्दर-बोली संगीत-कला की चरम सीमा है; वीणामें भी कोई-कोई मीड ऐसी निकलती होगी। इसे अवश्य पकडनाचाहिए।”
“जिसमें बाधा नहीं, बंधन नहीं, जिसका सौन्दर्य स्वच्छन्द है, उसअसाधारण प्राकृतिक कला का मूल्य क्या बन्धन है? कुरुचि के द्वारा वहकलंकित भले भी हो जाए, परन्तु पुरस्कृत नहीं हो सकती। उसे आपपिंजरे में बन्द करके पुरस्कार देंगे या दंड?” कहते हुए उसने विजयकी एक व्यंग-भरी मुस्कान छोडी। सरकार की उस वन-विंहंगम कोपकडने की लालसा बलवती हो उठी। उन्होंने कहा - “जाने भी दो, वहअच्छी कला नहीं जानती।” प्रसंग बदल गया। नित्य का साधारणविनोदपूर्ण क्रम चला। चूडीवाली अपने अभ्यास के अनुसार समझती कियदि बहूजी की अपार-प्रमयसम्पि्रूद्गा में से कुछ अंश मैं भी लेती हूँ, तोहानि क्या, परन्तु बहूजी को अपने प्रणय के एकाधिपत्य पर पूर्ण विश्वासथा। वह निष्क्रिय प्रतिरोध करने लगी। राजयक्ष्मा के भयानक आक्रमण सेवह धुलने लगी और सरकार वन-विहंगिनी विलासिनी को स्वाय्रूद्गा करनेमें द्रूद्गाचि्रूद्गा हुए। रोगी की शुश्रूषा और सेवा में कोई कमी न थी, परन्तुएक बडे मुकदमे में सरकार का उधर सर्वस्वान्त हुआ, इधर बहूजी चलबसी।
चूडीवाली ने समझा कि उसकी पूर्ण विजय हुईष पर बात कुछदूसरी थी। विजयकृष्ण का वह एक विनोद था। जब सब कुछ चला गया,तब विनोद लेकर क्या होगा। एक दिन चूडीवाली से छुट्टी मांगी। उसनेकहा - “कमी किस बात की है, मैं तुम्हारी ही हूँ और सब विभव भीतुम्हारा है।” विजयकृष्ण ने कहा - “मैं वेश्या की दी हुई जीविका सेपेट पालने में असमर्थ हूँ।” चूडीवाली बिलखने लगी, विनय किया, रोई,गिडगिडाई, पर विजयकृष्ण चले ही गए! वह सोचने लगी कि - “अपनाव्यवसाय और विजय की गृहस्थी बिगाडकर जो सुख खरीदा था, उसकाकोई मूल्य नहीं। मैं कुलवधू होने के उपयुक्त नहीं। क्या समाज के पासइसका कोई प्रतिकार नहीं? इतनी तपस्या और इतना स्वार्थ-त्याग व्यर्थहै?”
परन्तु विलासिनी यह न जानती थी कि स्त्री और पुरुष-सम्बन्धीसमस्त अंतिम निर्णय करने में समाज कितना ही उदास क्यों न हो; दोनोंपक्षों को सर्वथा सन्तुष्ट नहीं कर सका और न कर सकने की आशा है।
यह रहस्य सृष्टि को उलझा रखने की कुंजी है।
विलासिनी ने बहुत सोच-समझकर अपनी जीवनचर्या बदल डाली।सरकार से मिली हुई जो कुछ सम्पि्रूद्गा थी, उसे बेचकर पास ही के एकगाँव में खेती करने के लिए भूमि लेकर आदर्श हिन्दू गृहस्थ की-सीतपस्या करने में अपना बिखरा हुआ मन उसने लगा दिया। उसके कच्चेमकान के पास एक विशाल वट-वृक्ष और निर्मल जल का सरोवर था।
वहीं बैठकर चूडीवाली ने पथिकों की सेवा करने का संकल्प किया। थोडेही दिनों में अच्छी खेती होने लगी और अन्न से उसका घर भरा रहनेलगा। भिखारियों को अन्न देकर खिला देने में उसे अकथमीय सुखमिलता। धीरे-धीरे दिन ढलने लगा, चूडीवाली को सहेली बनाने के लिएयौवन का तीसरा पहर करुणा और शान्ति को पकड लाया। उस पथ सेचलने वाले पथिकों को दूर से किसी कला कुशल कंठ की तान सुनाईपडती -अब लौं नसानी अब न नसैहों।
वट-वृक्ष के नीचे, एक अनाथ बालक नंदू को चना और गुड कीदुकान चूडीवाली ने करा दी है। जिन पथिकों के पास पैसे न होते, उनकामूल्य वह स्वयं देकर नंदू की दुकान में घाटा न होने देती और पथिकभी विश्राम किए बिना उस तालाब से न जाता। कुछ ही दिनों में चूडीवालीका तालाब विख्यात हो गया।
सन्ध्या हो चली थी। पखेरुओं का बसेरे की ओर लौटने काकोलाहल मचा और वटवृक्ष में चहल-पहल हो गई। चूडीवाली चरनी केपास खडी बैलों को देख रही थी। दालान में दीपक जल रहा था, अंधकारउसके घर और मन में बलजोरी घुस रहा था। कोलाहल-शून्य जीवन मेंभी चूडीवाली को शान्ति मिली, ऐसा विश्वास नहीं होता था। पास हीउसकी पिंडलियों से सिर रगडता हुआ कलुआ दुम हिला रहा था। सुखियाउसके लिए घर में से कुछ खाने को ले आई थी; पर कलुआ उधर नदेखकर अपनी स्वामिनी से स्नेह जता रहा था। चूडावाली ने हँसते हुएकहा - “चल, तेरा दुलार हो चुका। जा, खा ले।” चूडीवाली ने मनमें सोचा, कंगाल मनुष्य स्नेह के लिए क्यों भीख माँगता है? वह स्वयंनहीं करता, नहीं तो तृण-वीरुध तथा पशु-पक्षी भी तो स्नेह करने के लिएप्रस्तुत है। इतने में नंदू ने आकर कहा - “मां, एक बटोही बहुत थकाहुआ अभी आया है। भूख के मारे वह जैसे शिथिल हो गया है।”
“तूने क्यों नहीं दे दिया?”
“लेता भी नहीं, कहता है, तू बडा गरीब लडका है, तुझसे नलूँगा।”
चूडीवाली वट-वृक्ष की ओर चल पडी। अँधेरा हो गया था।
पथिक जड का सहारा लेकर लेटा था। चूडीवाली ने हाथ जोडकर कहा- “महाराज, आप कुछ भोजन कीजिए।”
“तुम कौन हो?”
“पहेले की एक वेश्या।”
“छिः, मुझे पडे रहने दो, मैं नहीं चाहता कि तुम मुझसे बोलो भी,क्योंकि तुम्हारा व्यवसाय कितने ही सुखी घरों को उजाडकर श्मशान बनादेता है।”
“महाराज, हम लोग तो कला के व्यवसायी है। यह अपराध कलाका मूल्य लगाने वालों की कुरुचि और कुत्सित इच्छा का है। संसार मेंबहुत-से निर्लज्ज स्वार्थपूर्ण व्यवसाय चलते हैं। फिर इसी पर इतना क्रोधक्यों?”
“क्योंकि वह उन सबों में अधम और निकृष्ट है।”
“परन्तु वेश्या का व्यवसाय करके भी मैंने एक ही व्यक्ति से प्रेमकिया था। मैं और धर्म नहीं जानती, पर अपने सरकार से जो कुछ मुझेमिला, उसे मैं लोकसेवा में लगाती हूँ। मेरे तालाब पर कोई भूखा नहींरहने पाता। मेरी जीविका चाहे जो रही हो, मेरे अतिथि-धर्म में बाधान दीजिए।”
पथिक एक बार ही उठकर बैठ गया और आँख गडाकर अँधेरेमें देखने लगा। सहसा बोल उठा - “चूडीवाली?”
“कौन सरकार?”
“हाँ, तुमने शोक हर लिया। मेरे अपराधजनक तमाम त्याग में पुण्यका भी भाग था, यह मैं नहीं जानता।”
“सरकार! मैने गृहस्थ-कुलवधू होने के लिए कठोर तपस्या की है।इन चार वर्षो में मुझे विश्वास हो गया है कि कुलवधू होने में जो मह्रूद्गवहै, वह सेवा का है, न कि विलास का।”
“सेवा ही नहीं, चूडीवाली! उसमें विलास का अनन्त यौवन है,क्योंकि केवल स्त्री-पुरुष के शारीरिक बन्धन में वह पर्यवसित नहीं है,बाह्य साधनों के विकृत हो जाने तक ही, उसकी सीमा नहीं, गार्हस्थ्य जीवनउसके लिए प्रचुर उपकरण प्रस्तुत करता है, इसलिए वह प्रेय भी है औरश्रेय भी है। मुझे विश्वास है कि तुम अब सफल हो जाओगी।”
“मेरी सफलता आपकी कृपा पर है। विश्वास है कि अब इतनेनिर्दय न होंगे” - कहते-कहते चूडीवाली ने सरकार के पैर पकड लिए।
सरकार ने उसके हाथ पकड लिए।
१६. बिसाती
उधान की शैल-माला के नीचे एक हरा-भरा छोटा-सा गाँव है।वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उनकेझोपडों को भर देता है। तलहटी के हिम-शीतल झरने उसको अपनेबाहुपाश में जकडे हुए है। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्ध-संगीतनिरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प औरलहर उत्पन्न करता है।
दाडिम के लाल फूलों की रंगीली छाया सन्ध्या की अरुण किरणोंसे चमकीली हो रही थी। शीरीं उसी के नीचे शिलाखंड पर बैठी हुईसामने गुलाबों का झुरमुट देख रही थीष जिसमें बहुत से बुलबुल चहचहारहे थे, वे समीरण के साथ छूल-छुलैया खेलते हुए आकाश को अपनेकलरव से गुंजित कर रहे थे।
शीरीं ने सहसा अपना अवगुंठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँसपडी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था।
मकरन्द मुँह में भरे दो नील-भ्रमर उस गुलाब से उडने में असमर्थ थे,भौंरों के पद निस्पन्द थे। कँटीली झाडियों की कुछ परवाह न करते हुएबुलबुलों का उसमें घुसना और उड भागना शीरीं तन्मय होकर देख रहीथी।
उसकी सखी जुलेखा के आने से उसकी एकान्त भावना भंग हो गई।अपना अवगुंठन उलटते हुए जुलेखा ने कहा - “शीरीं! वह तुम्हारे हाथोंपर आकर बैठ जानेवाला बुलबुल, आज-कल नहीं दिखलाई देता?”
आह खींचकर शीरीं ने कहा - “कडे शीत में अपने दल के साथमैदान की ओर निकल गया। वसन्त तो आ गया, पर वह नहीं लौटआया।”
“सुना है कि ये सब हिन्दुस्तान में बहुत दूर तक चले जाते हैं।क्या यह सच है, शीरीं?”
“हाँ ह्रश्वयारी! उन्हें स्वाधीन विचरना अच्छा लगता है। इनकी जातिबडी स्वतन्त्रता-प्रिय है।”
“तूने अपनी घुंघराली अलकों के पाश में उसे क्यों न बाँधलिया?”
“मेरे पाश उस पक्षी के लिए ढीले पड जाते थे।”
“अच्छा लौट आवेगा - चिन्ता न कर। मैं घर जाती हूँ।” शीरींने सिर हिला दिया।
जुलेखा चली गई।
जब पहाडी आकाश में सन्ध्या अपने रंगीले पट फैला देती, जबविहंग केवल कलरव करते पंक्ति बाँधकर उडते हुए गुंजान झाडियों कीओर लौटते और अनिल में उनके कोमल परों से लहर उठती, जब समीरअपनी झोंकेदार तरंगों में बार-बार अँधकार को खींच लाता, जब गुलाबअधिकाधिक सौरभ लुटाकर हरी चादर में मुँह छिपा लेना चाहते थे; तबशीरीं की आशा-भरी दृष्टि कालिमा से अभिभूत होकर पलकों में छिपनेलगी। वह जागते हुए भी एक स्वह्रश्वन की कल्पना करने लगी।
हिन्दुस्तान के समृद्धिशाली नगर की गली में एक युवक पीठ परगट्ठर लादे घूम रहा है। परिश्रम और अनाहार से उसका मुख विवर्ण है।
थककर वह किसी के द्वार पर बैठ गया है। कुछ बेचकर उस दिन कीजीविका प्राह्रश्वत करने की उत्कंठा उसकी दयनीय बातों से टपक रही है,परन्तु वह गृहस्थ कहता है - “तुम्हें उधार देना हो तो दो, नहीं तो अपनीगठरी उठाओ। समझे आगा?”
युवक कहता है - “मुझे उधार देने की सामर्थ्य नहीं।”
“तो मुझे भी कुछ नहीं चाहिए।”
शीरीं अपनी इस कल्पना से चौंक उठी। काफिले के साथ अपनीसम्पि्रूद्गा लादकर खैबर के गिरि-संकट को वह अपनी भावना से पदाक्रान्तकरने लगी।
उसकी इच्छा हुई कि हिन्दुस्तान के प्रत्येक गृहस्थ के पास हम इतनाधन रख दें कि वे अनावश्यक होने पर भी उस युवक की सब वस्तुओंका मूल्य देकर उसका बोझ उतार दें, परन्तु सरला शीरीं निस्सहाय थी।
उसके पिता एक क्रूर पहाडी सरदार थे। उसने अपना सिर झुका लिया।कुछ सोचने लगी।
सन्ध्या का अधिकार हो गया। कलरव बन्द हुआ। शीरीं की साँसोंके समान समीर की गति अवरुद्ध हो उठी। उसकी पीठ शिला से टिकगई।
दासी ने आकर उसको प्रकृतिस्थ किया। उसने कहा - “बेगम बुलारही है। चलिए मेंहदी आ गई है।”
महीनों हो गए। शीरीं का ब्याह एक धनी सरदार से हो गया। झरनेके किनारे शीरीं के बाग में शवरी खींची है। पवन अपने एक-एक थपेडेमें सैंकडों फूलो को रुला देता है। मधु-धारा बहने लगती है। बुलबुलउसकी निर्दयता पर क्रन्दन करने लगते हैं। शीरीं सब सहन करती रही।
सरदार का मुख उत्साहपूर्ण था। सब होने पर भी वह एक सुन्दर प्रभातथा।
एक दुर्बल और लम्बा युवक पीठ पर एक गट्ठर लादे सामने आकरबैठ गया। शीरीं ने उसे देखा, पर वह किसी ओर देखता नहीं। अपनासामान खोलकर सजाने लगा।
सरदार अपनी प्रेयसी को उपहार देने के लिए काँच की ह्रश्वयाली औरकश्मीरी सामान छाँटने लगा।
शीरीं चुपचाप थी, उसके हृदय-कानन में कलरवों का क्रन्दन होरहा था। सरदार ने दाम पूछा। युवक ने कहा - “मैं उपहार देता हूँ,बेचता नहीं। ये विलायती और कश्मीरी सामान मैंने चुनकर लिए हैं। इसमेंमूल्य हीं नहीं, हृदय भी लगा है। ये दाम पर नहीं बिकते।”
सरदार ने तीक्ष्ण स्वर में कहा - “तब मुझे न चाहिए। ले जाओ,उठाओ।”
“अच्छा, उठा ले जाऊँगा। मैं थका हुआ आ रहा हूँ, थोडा अवसरदीजिए, मैं हाथ-मुँह धो लूँ।” कहकर युवक भरभराई हुई आँखों कोछिपाते, उठ गया।
सरदान ने समझा, झरने की ओर गया होगा। विलम्ब हुआ, परवह न आया। गहरी चोट और निर्मम व्यथा को वहन करते कलेजा हाथसे पकडे हुए, शीरीं गुलाब की झाडियों की ओर देखने लगी, परन्तुउसकी आँसू-भरी आँखों को कुछ न सूझता था। सरदार ने प्रमे से उसकीपीठ पर हाथ रखकर पूछा - “क्या देख रही हो?”
“एक मेरा पालतू बुलबुल शीत में हिन्दुस्तान की ओर चला गयाथा। वह लौटकर आज सवेरे दिखलाई पडा, पर जब वह पास आ गयाऔर मैंने उसे पकडना चाहा, तो वह उधर कोहकाफ की जोर भाग गया।”
- शीरीं के स्वर में कम्पन था, फिर भी वे शब्द बहुत सम्हलकर निकलेथे। सरदार ने हँसकर कहा - “फूल को बुलबुल की खोज? आश्चर्यहै!”
बिसाती अपना सामान छोड गया। फिर लौटकर नहीं आया। शीरींने बोझ तो उतार लिया, पर दाम नहीं दिया।
१८. घीसू
सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बाहरबडी ह्रश्वयारी स्वर-लहरी गूँजने लगती। घीसू को गाने का चस्का था। परन्तुजब कोई न सुने, वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता।
जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप होजाता। अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोईनया कुआँ खोजता, कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता।
सब करने पर भी वह नौ बजे नंदू बाबू के कमरे में पहुँच हीजाता। नंदू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू कोदेखते ही वह कह देते - आ गए, घीसू!
तो, यह तुम्हारा यार आ गया।
बिंदो ने घूमकर देखा - घीसू! वह रो पडी।
अधेड ने कहा - ले, चली जा, मौज कर! आज से मुझे अपनामुँह मत दिखाना!
घीसू ने कहा - भाई, तुम विचित्र मनुष्य हो। लो, चला जाता हूँ।
मैंने तो छुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना, इधर चलाआया। मुझे तुम्हारे झगडे से क्या सम्बन्ध!
मैं कहाँ ले जाऊँगा! तुम जानो, तुम्हारा कम जाने। लो, मैं जाताहूँ कहकर घीसू जाने लगा।
बिंदो ने कहा - ठहरो!
घीसू रुक गया।
बिंदो ने फिर कहा - तो जाती हूँ - अब इसी के संग...।
हाँ-हाँ, यह भी क्या पूछने की बात है!
बिंदो चली, घीसू भी पीछे-पीछे बगीचे के बाहर निकल आया।सडक सुनसान थी। दोनों चुपचाप चले। गोदौलिया चौमुहानी पर आकरघीसू ने पूछा - अब तो तुम अपने घर चली जाओगी!
कहाँ जाऊँगी! अब तुम्हारे घर चलूंगी।
घीसू बडे असमंजस में पडा। उसने कहा - मेरे घर कहाँ? नंदूबाबू की एक कोठरी है, वहीं पडा रहता हूँ, तुम्हारे वहाँ रहने की जगहकहाँ!
बिंदो ने रो दिया। चादर के छोर से आँसू पोंछती हुई, उसने कहा- तो फिर तुमको इस समय वहाँ पहुँचने की क्या पडी थी। मैं जैसाहोता, भुगत लेती! तुमने वहाँ पहुँचकर मेरा सब चौपट कर दिया - मैंकही की न रही।
सडक पर बिजली के उजाले में रोती हुई बिंदो से बात करने मेंघीसू का दम घुटने लगा। उसने कहा - तो चलो।
दूसरे दिन, दोपहर को थैली गोविंदराम के घाट पर रखकर घीसूचुपचाप बैठा रहा। गोविंदराम की बूटी बन रही थई। उन्होने कहा - घीसू,आज बूटी लोगे?
घीसू कुछ न बोला।
गोविंदराम ने उसका उतरा हुआ मुँह देखकर कहा - क्या कहें घीसू!आज तुम उदास क्यों हो?
क्या कहूँ भाई! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूँ - कोई छोटी-सी कोठरी मिल जाती, जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता।
गोविंदराम ने पूछा - जहाँ रहते थे?
वहाँ अब जगह नहीं है।
इसी मढी में क्यों नहीं रहते! ताला लगा दिया करो, मैं तो चौबीसघंटे रहता नहीं।
घीसू की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए।
गोविंद ने कहा - तो उठो, आज तो बूटी छान लो।
घीसू पैसे की दुकान लगाकर अब भी बैठता है और बिंदो नित्यगंगा नहाने आती है। वह घीसू की दुकान पर खडी होती है, उसे वहचार आने पैसे देता है। अब दोनों हँसते नहीं, मुस्कराते नहीं।
घीसू का बाहरी ओर जाना छूट गया है। गोविंदराम की डोंगी परउस पार हो आता है, लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तानसुनाई पडती है; किन्तु घाट पर आते-आते चुप।
बिंदो नित्य पैसा लेने आती। न तो कुछ बोलती और न घीसू कुछकहता। घीसू की बडी-बडी आँखों के चारों ओर हल्के गड्ढो पड गएथे। बिंदो उसे स्थिर दृष्टि से देखती और चली जाती। दिन-पर-दिन वहयह भी देखती कि पैसों की ढेरी कम होती जाती है। घीसू का शरीरभी गिरता जा रहा है। फिर भी एक शब्द नहीं, एक बार पूछने का कामनहीं।
गोविंदराम ने एक दिन पूछा - घीसू, तुम्हारी तान इधर सुनाई नहींपडी।
उसने कहा - तबीयत अच्छी नहीं है।
गोविंद ने उसका हाथ पकडकर कहा - क्या तुम्हें ज्वर आता है?
नहीं तो, यों ही आजकल भोजन बनाने में आलस करता हूँ, अण्डबण्ड खा लेता हूँ।
गोविंदराम ने पूछा - बूटी छोड दी है, इसी से तुम्हारी यह दशाहै।
उस समय घीसू सोच रहा था - नंदू बाबू की बीन सुने बहुत दिनहुए, वे क्या सोचते होंगे।
गोविंदराम के चले जाने पर घीसू अपनी कोठरी में लेट रहा। उसेसचनुच ज्वर आ गया।
भीषण ज्वर था, रात-भर वह छटपटाता रहा। बिंदो समय पर आई,मढी के चबूतरे पर उस दिन घीसू की दुकान न थी। वह खडी रही।फिर सहसा उसने दरवाजा धकेलकर भीतर देखा - घीसू छटपटा रहा था!
उसने जल पिलाया।
घीसू ने कहा - बिंदो। क्षमा करना; मैंने तुम्बे बडा दुःख दिया।अब मैं चला। लो, यह बचा हुआ पैसा! तुम जानो भगवान... कहतेकहते उसकी आँखें टंग गई। बिंदो की आँखों से आँसू बहने लगे। वहगोविंदराम को बुला लाई।
बिंदो अब भी बची हुई पूँजी से पैसे की दुकान करती है। उसकायौवन, रुपरंग कुछ नहीं रहा। बचा रहा-थोडा-सा पैसा और बडा-सा पेटऔर पहाड-से आनेवाले दिन!
१८. छोटा जादूगर
कर्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोदका कलनाद गूँज रहा था। मैं खडा था। उस छोटे फुहारे के पास, एकलडका चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटेकुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पडी थी और जेब मेंकुछ ताश के प्रूद्गो थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य कीरेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव मेंभी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा - ‘क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?’
‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूडी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशानालगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगानाअच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तोताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’ - उसने बडी प्रगल्भता से कहा।
उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।
मैंने पूछा - ‘और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।’
‘नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका टिकट लगता है।’
मैंने कहा - ‘तो चलो, मैं वहीं पर तुमको लिवा चलूँ।’ मैंने मनही-मन कहा - ‘भाई! आज के तुम्ही मित्र रहे।’
उसने कहा - ‘वहाँ जाकर क्या कीजियेगा? चलिये, निशाना लगायाजाए।’
मैंने उससे सहमत होकर कहा - ‘तो फिर चलो, पहिले शरबत पीलिया जाए।’ उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।
मनुष्यों की भीड से जाडे की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी।हम दोनों सरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा -‘तुम्हारे और कौन है?’
‘माँ और बाबूजी।’
‘उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?’
‘बाबूजी जेल में है।’
‘क्यों?’
‘देश के लिए।’ - वह गर्व से बोला।
‘और तुम्हारी माँ?’
‘वह बीमार हैं।’
‘और तुम तमाशा देख रहे हो?’
उसके मुँह से तिरस्कार की हँसी फूट पडी। उसने कहा - ‘तमाशादेखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्यदूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दियाहोता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती!’
मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लडके को देखने लगा।
‘हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहींगया।’
‘कहाँ?’
‘जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्योंन दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।’
मैंने दीर्घ निःश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे।मन व्यग्र हो उठा। उसने कहा - ‘अच्छा चलो, निशाना लगाया जाए।’हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिरायाजाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लडके को दिये।
वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया।देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनें को बटोर लिया; लेकिनउठाता कैसे? कुछ मेरे रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिये गये।
लडके ने कहा - ‘बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइये,मैं चलता हूँ।’ वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा - ‘इतनीजल्दी आँख बदल गयी।’
मैं घूमकर पान की दूकान पर गया। पान खाकर बडी देर तकइधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आनादेखने लगा। अकस्मात् किसी ने हिंडोले से पुकारा - ‘बाबूजी!’
मैंने पूछा - ‘कौन?’
‘मैं हूँ छोटा जादूगर।’
कलक्रूद्गो के सुरम्य बोटैनिकल-उधान में लाल कमलिनी से भरी हुईएक छोटी-सी झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली केसाथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वहीछोटा जादूगर दिखाई पडा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफजाँधिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरा रुमाल सूत की रस्सीसे बँधा हुआ था। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा -‘बाबूजी, नमस्ते! आज कहिये, तो खेल दिखाऊँ।’
‘नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।’
‘फिर इसके बाद क्या गाना-बजानाा होगा, बाबूजी?’
‘नहीं जी - तुमको...’, क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था।श्रीमती ने कहा - ‘दिखलाओजी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मनतो बहले।’ मैं चुप हो गया; क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लडके को रोका नहीं जा सकता।
उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनयकरने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुडकने लगा।गुडिया का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लडके कीवाचालता से ही अभिनय हो रहा था। वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुरबना दिया। यही तो संसार है।
ताश के सब प्रूद्गो ला हो गये। फिर सब काले हो गये। गले कीसूत की डोरी टुकडे-टुकडे होकर जुड गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे।
मैंने कहा - ‘अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अबजाएँगे।’
श्रीमतीजी ने धीरे से रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा - ‘लडके!’
‘छोटा जडादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविकाहै।’
मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमतीजी ने कहा - ‘अच्छा,तुम इस रुपये से क्या करोगे?’
‘पहले भर पेट पकौडी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।’मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचनेलगा - ‘ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपया पाने पर मैं ईर्ष्याकरने लगा था न!’
वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिएचले।
उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय-साँय करने लगी थी।
अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पि्रूद्गायों से विदाई ले रहीथी। एक शान्त वातावरण था। हम धीरे-धीरे मोटर से हावडा की ओरआ रहे थे।
रह-रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोंपडीके पास कम्बल कन्धे पर डाले खडा था! मैंने मोटर रोककर उससे पूछा- ‘तुम यहाँ कहाँ?’
‘मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दियाहै।’ मैं उतर गया। उस झोंपडी में देखा, तो एक स्त्री चिथडों से लदीहुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटतेहुए कहा - ‘माँ।’
मेरी आँखों से आँसू निकल पडे।
बडे दिन की छुट्टी बीत चली थीं। मुझे अपने ऒफिस में समयसे पहुँचना था। कलक्रूद्गो से मन ऊब गया। फिर भी चलते-चलते एकबार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाईपड जाता, तो और भी... मैं उस दिन अकेले ही चल पडा। जल्द लौटआना था।
दस बज चुके थे। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सडक केकिनारे एक कपडे पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककरउतर पडा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। बालू मनाने चला था। ब्याह कीतैयारी थी; यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता कीतरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसेस्वयं काँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देखरहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड में मुझे देखा। वहजैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुएपूछा - ‘आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?’
‘माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घडी समीप है।’
- अविचल भाव से उसने कहा।
‘तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये।’ मैंने कुछ क्रोध से कहा।
मनुष्य के सुख-दुःख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपातसे वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पडी।
उसने कहा - ‘क्यों न आता!’
और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहाथा।
क्षण-भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाडीमें फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा - ‘जल्द चलो।’ मोटरवाला मेरेबताये हुए पथ पर चल पडा।
कुछ ही मिनटों में मैं झोंपडी के पास पहुँचा। जादूगर दौडकरझोंपडे में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था; किन्तु स्त्री के मुँहसे, ‘बे...’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये।
जादूगर उससे लिपटा रो रहा था; मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप मेंसमग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
१९. अनबोला
उसके जाल में सीपियाँ उलझ गयी थी . जग्गैया से उसने कहा- ‘इसे फैलाती हूँ, तू सुलझा दे।’
जग्गैया ने कहा - ‘मैं क्या तेरा नौकर हूँ?’
कामैया ने तिनककर अपने खेलने का छोटा-सा जाल और भी बटोरलिया। समुद्र-तट के छोटे-से होटल के पास की गली से अपनी झोंपडी
की ओर चली गयी।
जग्गैया उस अनखाने का सुख लेता-सा गुनगुनाकर गाता हुआ,अपनी खजूर की टोपी और भी तिरछी करके, सन्ध्या की शीतल बालुकाको पैरों से उछालने लगा।
दूसरे दिन, जब समुद्र में स्नान करने के लिए यात्री लोग आ गयेथे; सिन्दूर-पिण्ड-सा सूर्य समुद्र के नील जल में स्नान कर प्राची केआकाश के ऊपर उठ रहा था; तब कामैया अपने पिता के साथ धीवरोंके झुण्ड में खडी थी; उसके पिता की नावें समुद्र की लहरों पर उछलरही थी। महाजाल पडा था, उसे बहुत-से धीवर मिलकर खींच रहे थे।
जग्गैया ने आकर कामैया की पीठ में उँगली गोद दी। कामैया कुछखिसककर दूर जा खडी हुई। उसने जग्गैया की ओर देखा भी नहीं।
जग्गैया की केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगीलिपटीरहती, अपना पेट पालती थी। वह बैंत की दौरी लिए वहीं खडीथी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाजार में बेचना उसी का काम था।
जग्गैया नटखट था। वह अपनी माँ को वहीं देखकर और भी हटगया; किन्तु कामैया की ओर देखकर उसने मन-ही-मन कहा - अच्छा।
महाजाल खींचकर लाया गया। कुछ तो मछलियाँ थी हीं; पर उसमें एकभीषण समुद्री बाघ भी था। दर्शकों के झुण्ड जुट पडे। कामैया के पितासे कहा गया उसे जाल में से निकालने के लिए, जिससे प्रकृति की उसभीषण कारीगरी को लोग भलीभाँति देख सकें।
लोभ संवरण न करके उसने समुद्री बाघ को जाल से निकाला। एखखूँटे से उसकी पूँछ बाँध दी गयी। जग्गैया की माँ अपना काम करनेकी धुन में जाल में मछलियाँ पकडकर दौरी में रख रही थी। समुद्रीबाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैया की माता काहाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी काहाथ वह चबा गया।
दर्शक लोग चले गये। जग्गैया अपनी मूर्छित माता को उठाकरझोंपडी में जब ले चला, तब उसके मन में कामैया के पिता पर असीमक्रोध और दर्शकों के लिए प्रतिहिंसा उद्वेलित हो रही थी। कामैया कीआँखों से आँसू बह रहे थे। तब भी वह बोली नहीं।
कई सह्रश्वताह से महाजाल में मछलियाँ नहीं के बराबर फँस रही थी।
चावलों की बोझाई तो बन्द थी ही, नावें बेकार पडी रहती थी। मछलियोंका व्यवसाय चल रहा था; वह भी डावाँडोल हो रहा था। किसी देवताकी अकृपा है क्या?
कामैया के पिता ने रात को पूजा की। बालू की वेदियों के पासखजूर की डालियाँ गडी थी। समुद्री बाघ के दाँत भी बिखरे थे। बोतलोंमें मदिरा भी पुजारियों के समीप प्रस्तुत थी। रात में समुद्र-देवता कीपूजा आरम्भ हुई।
जग्गैया दूर, जहाँ तक समुद्र की लहरें आकर लौट जाती है, वहींबैठा हुआ चुपचाप अनन्त जलराशि की ओर देख रहा था और मन मेंसोच रहा था - क्यों मेरे पास एक नाव न रही? मैं कितनी मछलियाँपकडता; आह! फिर मेरी माता को इतना कष्ट क्यों होता। अरे! वह तोमर रही है; मेरे लिए इसी अँधकार-सा दारिद्र्य छोडकर! तब भी देखें,भाग्य-देवता क्या करते हैं। इसी रग्गैया की मजदूरी करने से तो वह मररही है।
उसके क्रोध का उद्वेग समुद्र-सा गर्जन करने लगा।
पूजा समाह्रश्वत करके मदिरारुण नेत्रों से घूरते हुए पुजारी ने कहा -‘रग्गैया! तुम अपना भला चाहते हो, तो जग्गैया के कुटुम्ब से कोई सम्बन्धन रखना। समझा न?’
उधर जग्गैया का क्रोध अपनी सीमा पार कर रहा था। उसकी इच्छाहोती थी कि रग्गैया का गला घोंट दे, किन्तु वह निर्बल बालक। उसकेसामने से जैसे लहरें लौट जाती थी, उसी तरह उसका क्रोध मूर्छित होकरगिरता-सा प्रत्यावर्तन करने लगा। वह दूर-ही-दूर अँधकार में झोंपडी कीओल लौट रहा था।
सहसा किसी का कठोर हाथ उसके कन्धे पर पडा। उसने चौंककरकहा ‘कौन?’
मदिरा-विह्वल कण्ठ से रग्गैया ने कहा - ‘तुम मेरे घर कल सेन आना।’
जग्गैया वहीं बैठ गया। वह फूट-फूटकर रोना चाहता था; परन्तुअँधकार उसका गला घोंट रहा था। दारुण क्षोभ और निराशा उसके क्रोधको उ्रूद्गोजित करती रही। उसे अपनी माता के तत्काल न मर जाने परझुँझलाहट-सी हो रही थी। समीर अधिक हो चला। प्राची का आकाशस्पष्ट होने लगा; पर जग्गैया का अदृष्ट तमसाच्छन था।
कामैया ने धीरे-धीरे आकर जग्गैया की पीठ पर हाथ रख दिया।उसने घूमकर देखा। कामैया की आँखों में आँसू भरे थे। दोनों चुप थे।
कामैया की माता ने पुकारकर कहा - ‘जग्गैया! तेरी माँ मर गयी।इसको अब ले जा।’
जग्गैया धीरे-धीरे उठा और अपनी माता के शव के पास खडाहो गया। अब उसके मुख पर हर्ष-विषाद, सुख-दुःख कुछ भी नहीं था।उससे कोई बोलता न था और वह भी किसी से बोलना नहीं चाहता था;किन्तु कामैया भीतर-ही-भीतर फूट-फूटकर रो रही थी; पर वह बोलेकैसे? उससे तो अनबोला था न!
२०. अमिट स्मृति
फाल्गुनी पूर्णिमा का चंद्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक-धारा कासृजन कर रहा था। एक छोटा-सा बजरा वसन्त-पवन में आन्दोलित होताहुआ धीरे-धीरे बह रहा था। नगर का आनन्द-कोलाहल सैंकडो गलियोंको पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड रहा था। मनोहरदासहाथ-मुँह धोकर तकिए के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करकेउठते हुए पूछा -
बाबूजी, सितार ले आऊँ?
आज और कल, दो दिन नहीं। - मनोहरदास ने कहा।
वाह बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही।
नहीं गोपाल, मैं होली के इन दोनों दिनों में न तो सितार ही बजाताहूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ।
तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे,यह तो बडी बुरी बात है।
यद्यपि गोपाल बरस-बरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणतःयुवकों की तरह उत्कंठित था; परन्तु स्रूद्गार बरस के बूढे मनोहरदास कोस्वयं बूढा कहने का साहस नहीं रखता। मनोहरदास का भरा हुआ मुँह,दृढ अवयव और बलिष्ठ अंगविन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था।
मनोहरदास ने कहा - गोपाल! मैं गन्दी गालियों या रंग से भागता हूँ।इतनी ही बात नहीं, इसमें और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझेपचास बरस हो गए।
गोपाल ने नगर में जाकर उत्सव देखने का कुतूहल दबाते हुए पूछा- ऐसा क्यों बाबूजी?
ऊँचे तकिए पर चि्रूद्गा लेटकर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास नेकहना आरम्भ किया -
हम और तुम्हारे बडे भाई गिरधरदास साथ-ही-साथ जवाहरात काव्यवसाय करते थे। इस साझे का हाल तुम जानते ही हो। हाँ, तब बम्बईकी दुकान न थी और न तो आज-जैसी रेलगाडियों का जाल भारत मेंबिछा हुआ था; इसलिए रथों और इक्कों पर भी लोग लम्बी-लम्बी यात्राएँकरते। विशाल सफेद अजगर-सी पडी हुई उ्रूद्गारी भारत की वह सडक,जो बंगाल से काबुल तक पहुँचती है, सदैव पथिकों से भरी रहती थी।कहीं-कहीं बीच में दो-चार कोस की निर्जनता मिलती, अन्यथा ह्रश्वयाऊ,बनियों की दुकानें, पडाव और सरायों से भरी हुई इस सडक पर बडीचहल-पहल रहती। यात्रा के लिए प्रत्येक स्थान में घंटे में दस कोसजानेवाले इक्के तो बहुतायत से मिलते। बनारस इसमें विख्यात था।
हम और गिरधरदास होलिकादाह का उत्सव देखकर दस बजे लौटेथे कि प्रयाग के एक व्यापारी का पत्र मिला। इसमें लाखों के माल बिकजाने की आशा थी और कल तक ही वह व्यापारी प्रयाग में ठहरेगा।उसी समय इक्केवान को बुलाकर सहेज दिया और हम लोग ग्यारह बजेसो गए। सूर्य की किरणें अभी न निकली थी; दक्षिण पवन से पि्रूद्गायाँअभी जैसे झूम रही थीं, परन्तु हम लोग इक्के पर बैठकर नगर को कईकोस पीछे छोड चुके थे। इक्का बडे वेग से जा रहा था। सडक केदोनों और लगे हुए आम की मंजरियों की सुगन्ध तीव्रता से नाक मेंघुसकर मादकता उत्पन्न कर रही थी। इक्केवान की बगल में बैठे हुएरघुनाथ महाराज ने कहा - सरकार बडी ठंड है।
कहना न होगा कि रघुनाथ महाराज बनारस के एक मानी लठैतथे। उन दिनों ऐसी यात्राओं में ऐसे मनुष्यों को रखना आवश्यक समझाजाता था।
सूर्य बहुत ऊपर आ चुके थे, मुझे ह्रश्वयास लगी थी। तुम तो जानतेही हो, मैं दोनों बेला बूटी छानता हूँ। आमों की छाया में एक छोटा-सा कुआँ दिखाई पडा, जिसके ऊपर मुरेरेदार पक्की छत थी और नीचेचारों ओर दालानें थी। मैंने इक्का रोक देने को कहा। पूरब वाले दालानमें एक बनिए की दुकान थी, जिस पर गुड, चना, नमक, स्रूद्गाू आदिबिकते थे। मेरे झोले में अब आवश्यक सामान थे। सीढियों से चढकरहम लोग ऊपर पहुँचे। सराय यहाँ से दो कोस और गाँव कोस-भर परथा। इस रमणीय स्थान को देखकर विस्राम करने की इच्छा ोती थी। अनेकपक्षियों की मधुर बोलियों से मिलकर पवन जैसे सुरीला हो उठा। ठंडईबनने लगी। पास ही एक नींबू का वृक्ष खूब फूला हुआ था। रघुनाथने बनिए से हाँडी लेकर कुछ फूलों को भिगो दिया। ठंडई तैयार होतेहोते उसकी महक से मन मस्त हो गया। चाँदी के गिलास झोली से बाहरनिकाले गए; पर रघुनाथ ने कहा - सरकार, इसकी बहार तो पुरवे मेंहै। बनिये को पुकारा। वह तो था नहीं, एक धीमा स्वर सुनाई पडा -क्या चाहिए?
पुरवे दे जाओ!
थोडी ही देर में एक चौदह वर्ष की लडकी सीढियों से ऊपर आतीहुई नजर पडी। सचमुच वह सालू की छींट पहने एक देहाती लडकी थी,कल उसकी भाभी ने उसके साथ खूब गुलाल खेला था, वह जगी भीमालूम पडती थी - मदिरा-मन्दिर के द्वार-सी खुली हुई आँखो में गुलाबकी गरद उढ रही थी। पलकों के छज्जे और बरौनियों की चिकों परभी गुलाल की बहार थई। सरके हुए घूँघट से जितनी अलकें दिखलाईपडतीं, वे सब रँगी थी। भीतर से भी उस सरला को कोई रंगीन बनानेलगा था। न जाने क्यों, क्या इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से ओत-प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसेसचेष्ट बनाए रहता, तब भी उसकी आँखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठती।
पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपडों के दो-तीन बार ठीक किया,फिर पूछा - और कुछ चाहिए? मैं मुस्कराकर रह गया। उसे वसंत केप्रभाव में सब लोग वह सुस्वादु और सुगंधित ठंडई धीरे-धीरे पी रहेथे और मैं साथ-ही-साथ अपनी आँखों से उस बालिका के यौनोन्माद कीमाधुरी भी पी रहा था। चारों ओर से नींबू के फूल और आमों कीमंजरियों की सुगन्ध आ रही थी। नगरों से दूर देहातों से अलग कुएँकी वह छत संसार में जैसे सबसे ऊँचा स्थान था। क्षण-भर के लिएजैसे उस स्वह्रश्वन-लोक में एक अह्रश्वसरा आ गई हो। सडक पर एकबैलगाडी-वाला बंडलों से टिका हुआ आँखें बन्द किए हुए बिरहा गाताथा। बैलों को हाँकने की जरूरत नही थी। वह अपनी राह पहचानते थे।
उसके गाने में उपालम्भ था, आवेदन था। बालिका कमर पर हाथ रखेहुए बडे ध्यान से उसे सुन रही थी। गिरधरदास और रघुनाथ महाराजहाथ-मुँह धो आए; पर मैं वैसे ही बैठा रहा। रघुनाथ महाराज उजड्ड तोथे ही; उन्होंने हँसते हुए पूछा - क्या दाम नहीं मिला?
गिरधरदास भी हँस पडे। गुलाब से रँगी हुई उस बालिका कीकनपटी और भी लाल हो गई। वह जैसे सचेत-सी होकर धीरे-धीरे सीढीसे उतरने लगी। मैं भी जैसे तन्द्रा से चौंक उठा और सावधान होकर पानकी गिलौरी मुँह में रखता हुआ इक्के पर आ बैठा। घोडा अपनी चालसे चला। घंटे-डेढ घंटे में हम लोग प्रयाग पहुँच गए। दूसरे दिन जबहम लोग लौटे, तो देखा कि उस कुएँ के दालान में बनिए की दुकाननहीं है। एक मनुष्य पानी पी रहा था, उससे पूछने पर मालूम हुआ किगाँव में एक भारी दुर्घटना हो गई है। दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समयनशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दंगा हो गया। वह बनिया भी उन्हींमें था। रात को उसी के मकान पर डाका पडा। वह तो मार ही डालागया, पर उसकी लडकी का भी पता नहीं।
रघुनाथ ने अक्खडपन से कहा - अरे, वह महालक्ष्मी ऐसी ही रहीं।उनके लिए जो कुछ न हो जाय, थोडा है।
रघुनाथ की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। मेरी आँखों के सामनेचारों ओर जैसे होली जलने लगी। ठीक साल-भर बाद वही व्यापारीप्रयाग आया और मुझे फिर उसी प्रकार जाना पडा। होली बीत चुकीथी, जब मैं प्रयाग से लौट रहा था, उसी कुएँ पर ठहरना पडा। देखातो एक विकलांग दरिद्र युवती उसी दालान में पडी थी। उसका चलना-फिरना असम्भव था। जब मैं कुएँ पर चढने लगा तो उसने दाँत निकालकरहाथ फैला दिया। मैं पहचान गया - साल-भर की घटना सामने आ गई।न जाने उस दिन मैं प्रतिज्ञा कर बैठा कि आज से होली न खेलूंगा।वह पचास बरस की बीती हुई घटना आज भी प्रत्येक होली मेंनई होकर सामने आती है। तुम्हारे बडे भाई गिरधर ने मुझे कई बार होलीमनाने का अनुरोध किया, पर मैं उनसे सहमत न हो सका और मैं अपनेहृदय के इस निर्बल पक्ष पर अभी तक दृढ हूँ। समझा न, गोपाल।इसलिए मैं ये दो दिन बनारस के कोलाहल से अलग नाव पर ही बिताताहूँ।
२१. विराम-चिह्न
देव-मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हटकर वह छोटी-सी दुकान थी।
सुपारी के घने कुंज के नीचे एक मैले कपडे के टुकडे पर सूखी हुईधार में तीन-चार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छः अण्डेथे। मन्दिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुईहरी-भरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता हीनहीं समझते थे।
अर्ध-नग्न वृद्धा दुकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु के लिए नहींबुलाती थी। वह चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्नबीत चला। उसकी कोई वस्तु न बिकी। मुँङ की ही नहीं, उसके शरीरपर की भी झुरियाँ रूखी होकर ऐंठी जा रही थी। मूल्य देकर भात-दाल की हाँडियाँ लिये लोग चले जा रहे थे। मन्दिर में भगवान के विश्रामका समय हो गया था। उन हाँडियों को देखकर उसकी भूखी आँखों मेंलालच की चमक बढी, किन्तु पैसे कहाँ थे? आज तीसरा दिन था, उसेदो-एक केले खाकर बिताते हुए। उसने एक बार भूख से भगवान कीभेंट कराकर क्षणभर के लिए विश्राम पाया; किन्तु भूख की वह पतलीलहर अबी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो सकी थी कि राधे आकरउसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताडी पी ली थी। आँखें लाल, मुँह सेबात करने में झाग निकल रहा था। हाथ नचाकर वह कहने लगा -‘सब लोग जाकर खा-पीकर सो रहे हैं। तू यहाँ बैठी हुई देवता
का दर्शन कर रही है। अच्छा, तो आज भी कुछ खाने को नहीं?’
‘बेटा! एक पैसे का भी नहीं बिका, क्या करूँ? अरे, तो भी तूकितनी ताडी पी आया है।’
‘वह सामने तेरे ठाकुर दिखाई पड रहे हैं। तू भी पीकर देख न!’
उस समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी।केवल जलती हुई धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाजार बन्द था।राधे ने देखा, दो-चार कौए काँव-काँव करते हुए सामने नारियल-कुज कीहरियाली में घुस रहे थे। उसे अपना ताडीखाना स्मरण हो आया। उसनेअण्डों को बटोर लिया।
बुढिया ‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवालीने अँगूठे और तर्जनी से दोनों आँखों का कीचड साफ किया और फिरमिट्टी के पात्र से जल लेकर मुँह धाया।
बहुत सोच-विचारकर अधिक उतरा हुआ एक केला उसने छीलकरअपनी अंजलि में रख उसे मन्दिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढाकरआँखें बन्द कर लीं। भगवान ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं,कौन जाने; किन्तु बुढिया ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।
अपनी दुकान झोली में समेटे हुए, जिस कुंज में कौए घुसे थे,उसी में वह भी घुसी। पुआल से छायी हुई टट्टरों की झोंपडी मं विश्रामकिया।
उसकी स्थावर सम्पि्रूद्गा में वही नारियल का कुंज, चार पेड पपीतेऔर छोटी-सी पोखरी के किनारे पर के कुछ केले के वृक्ष थे। उसकीपोखरी में छोटा-सा झुण्ड ब्रूद्गाखों का भी था, जो अण्डे देकर बुढिया कीआय में वृद्धि करता। राधे अत्यन्त मद्यप था। उसकी स्त्री ने उसे बहुतदिन हुए छोड दिया था।
बुढिया को भगवान का भरोसा था, उसी देव-मन्दिर के भगवान का,जिसमें वह कभी नहीं जाने पायी थी।
अभी वह विश्राम की झपकी ही लेती थी कि महन्त के जमादारकुंज ने कडे स्वर में पुकारा - ‘राधे, अरे रधवा, बोलता क्यों नहीं रे!’बुढिया ने आकर हाथ जोडते हुए कहा - ‘क्या है महाराज?’
‘सुना हे कि कल तेरा लडका कुछ अछूतों के साथ मन्दिर मेंघुसकर दर्शन करने जाएगा?’
‘नहीं, नहीं, कौन कहता है महाराज! वह शराबी, भला मन्दिर मेंउसे कब से भक्ति हुई है?’
‘नहीं, मैं तुझसे कहे देता हूँ, अपनी खोपडी सँभालकर रखने केलिए उसे समझा देना। नहीं तो तेरी और उसकी; दोनों की दुर्दशा होजाएगी।’
राधे ने पीछे से आते हुए क्रूर स्वर में कहा - ‘जाऊँगा, वह क्यातेरे बाप के भगवान हैं। तू होता कौन है रे!’
‘अरे, चुप रे राधे! ऐसा भी कोई कहता है रे! अरे, तू जायेगा, मन्दिरमें? भगवान का कोप कैसे रोकेगा रे?’ बुढिया गिडगिडाकर कहने लगी।कुंजबिहारी जमादार ने राधे की लाठी देखते ही ढीली बोल दी। उसने कहा- ‘जाना राधे कल, देखा जायेगा।’ - जमादार धीरे-धीरे खिसकने लगा।
‘अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-काते बच्चू लोगों कोचरबी चढ गई है। दरशन नहीं रे - तेरा भात छीनकर खाऊँगा। देखूँगा,कौन रोकता है।’ - राधे गुर्राने लगा। कुंज तो चला गया, बुढिया ने कहा- ‘राधे बेटा, आज तक तूने कौन-से अच्छे काम किये हैं, जिनके बलपर मन्दिर में जाने का साहस करता है? ना बेटा, यह काम कभी मतकरना। अरे ऐसा भी कोई करता है!’
‘तूने भात बनाया है आज?’
‘नहीं बेटा! आज तीन दिन से पैसे नहीं मिले। चावल है नहीं।’
‘इन मन्दिरवालों ने अपनी जूठन भी तुझे दी?’
‘मैं क्यों लेती, उन्होंने दी भी नहीं।’
‘तब भी तू कहती है कि मन्दिर में हम लोग न जाएँ! जाएँगे;सब अछूत जाएँगे।’
‘न बेटा! किसी ने तुमको बहका दिया है। भगवान के पवित्र मन्दिरमें हम लोग आज तक कभी नहीं गये। वहाँ जाने के लिए तपस्या करनीचाहिए।’
‘हम लोग तो जाएँगे।’
‘ना, ऐसा कभी न होगा।’
‘होगा, फिर होगा। जाता हूँ ताडीखाने, वहीं पर सबकी राय से कल क्या होगा; यह देखना।’ - राधे ऐंठता हुआ चला गया। बुढियाएकटक मन्दिर की ओर विचारने लगी - ‘भगवान, क्या होनेवाला है!’
दूसरे दिन मन्दिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तोंका झुण्ड अपवित्रता से भगवान की रक्षा करने के लिए दृढ होकर खडाथा। उधर सैकडों अछूतों के साथ राधे मन्दिर में प्रवेश करने के लिएतत्पर था।
लट्ठ चले, सिर फूटे। राधे आगे बढ ही रहा था कि कुंजबिहारीने बगल से घूमकर राधे के सिर पर करारी चोट दी। वह लहू से लथपथवहीं बोटने लगा। प्रवेशार्थी भागे। उनका सरदार गिर गया था। पुलिसभी पहुँच गयी थी। राधे के अन्तरंग मित्र गिनती में १०-१२ थे। वेही रह गये।
क्षणभर के लिए वहाँ शिथिलता छा गयी थी। सहसा बुढिया भीडचीरकर वहीं पहुँच गई। उसने राधे को रक्त में सना हुआ देखा। उसकीआँखें लहू से भर गयीं। उसने कहा - ‘राधे की लोथ मन्दिर में जाएगी।’
वह अपने निर्बल हाथों से राधे को उठाने लगी।
उसके साथी बढे। मन्दिर का दल भी हुँकार ने लगा; किन्तु बुढियाकी आँखों के सामने ठहरने का किसी को साहस न रहा। वह आगे बढी;पर सिंहद्वार की दहलीज पर जाकर सहसा रुक गई। उसकी आँखों कीपुतली में जो मूर्तिभंजक छाया-चित्र था, वही गलकर बहने लगा।
राधे का शव दहलीज के समीप रख दिया। बुढिया ने दहलीज परसिर झुकाया, पर वह सिर उठा न सकी। मन्दिर में घुसनेवाले अछूतों केआगे बुढिया विराम-चिह्न सी पडी थी।
२२. व्रत-भंग
तो तुम न मानोगे?
नहीं, अब हम लोगों के बीच इतनी बडी खाई है, जो कदापि नहींपट सकती!
इतने दिनों का स्नेह?
उँह! कुच भी नहीं। उस दिन की बात आजीवन भुलाई नहीं जासकती, नंदन! अब मेरे लिए तुम्हारा और तुम्हारे लिए मेरा कोई अस्तित्वनहीं। वह अतीत के स्मरण, स्वह्रश्वन हैं, समझे?
यदि न्याय नहीं कर सकते, तो दया करो, मित्र! हम लोग गुरुकुलमें...
हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ, तुम मुझे दरिद्र युवक समझकर मेरे ऊपर कृपारखते थे, किन्तु उसमें कितना तीक्ष्ण अपमान था, उसका मुझे अब अनुभवहुआ।
उस ब्रह्म-बेला में जब उषा का अरुण आलोक भागीरथी की लहरोंके साथ तरल होता रहता, हम लोग कितने अनुराग से जाते थे। सचकहना, क्या वैसी मधुरिमा हम लोगों के स्वच्छ हृदयों में न थी?
रही होगी, पर अब, उस मर्मघाती अपमान के बाद! मैं खडा रहगया, तुम स्वर्ण-रथ पर चढकर चले गए; एक बार भी नहीं पूछा। तुमकदाचित् जानते होगे नंदन कि कंगाल के मन में प्रलोभनों के प्रति कितनाविद्वेष है? क्योंकि वह उससे सदैव छल करता है, ठुकराता है। मैं अपनीउस बात को दुहराता हूँ कि हम लोगों का अब उस रूप में कोई अस्तित्वनहीं।
वही सही कपिज्जल! हम लोगों का पूर्व अस्तित्व कुछ नहीं, तोक्या हम लोग वैसे ही निर्मल होकर एक नवीन मैत्री के लिए हाथ नहींबढा सकते? मैं आज प्रार्थी हूँ।
मैं उस प्रार्थना की उपेक्षा करता हूँ। तुम्हारे पास ऐश्वर्य का दर्पहै, तो अकिञ्चनता उससे कही अधिक गर्व रखती है।
तुम बहुत कटु हो गए हो इस समय। अच्छा, फिर कभी...न अभी, न फिर कभी। मैं दरिद्रता को भी दिखला दूँगा कि मैंक्या हूँ। इस पाखण्ड-संसार में भूखा रहूँगा, परन्तु किसी के सामने सिर
न झुकाऊँगा। हो सकेगा तो संसार को बाध्य करूँगा झुकने के लिए।कपिञ्जल चला गया। नंदन हतबुद्धि होकर लौट आया। उस रातको उसे नींद न आई।
उक्त घटना को बरसों बीत गए। पाटलीपुत्र के धनकुबेर कलश काकुमार नंदन धीरे-धीरे उस घटना को भूल चला। ऐश्वर्य का मदिरा-विलासकिसे स्थिर रहने देता है! उसने यौवन के संसार में बड़ी-बड़ी आशाएँलेकर पदार्पण किया था। नंदन तब भी मित्र से वञ्जित होकर जीवन कोअधिक चतुर न बना सका।
राधा, तू भी कैसी पगली है? तूने कलश की पुत्र-वधू बनने कानिश्चय किया है, आश्चर्य!
हाँ महादेवी, जब गुरुजनों की आज्ञा है, तब उसे तो मानना हीपड़ेगा।
मैं रोक सकती हूँ। मूर्ख नंदन! कितना असंगत चुनाव है! राधा,मुझे दया आती है।
किसी अन्य प्रकार से गुरुजनों की इच्छा को टाल देना, यह मेरीधारणा के प्रतिकूल है महादेवी! नंदन की मूर्खता सरलता का सत्यरूप है।मुझे वह अरुचिकर नहीं। मैं उस निर्मल-हृदय की देख-रेख कर सकूं,तो यह मेरे मनोरंजन का ही विषय होगा।
मगध की महादेवी ने हँसी से कुमारी के इस साहस का अभिनन्दनकरते हुए कहा - तेरी जैसी इच्छा, तू स्वयं भोगेगी।
माधवी-कुंज से वह विरक्त होकर उठ गई। उन्हें राधा पर कन्याके समान ही स्नेह था।
दिन स्थिर हो चुका था। स्वयं मगध-नरेश की उपस्थिति मेंमहाश्रेष्ठि धनञ्जय की कन्या का ब्याह कलश के पुत्र से हो गया, अद्भुतवह समारोह था। रत्नों के आभूषण तथा स्वर्ण-पात्रों के अतिरिक्त मगध-सम्राट ने राधा की प्रिय वस्तु अमूल्य-मणि-निर्मित दीपाधार भी दहेज मेंदे दिया। उस उत्सव की बड़ाई,पान-भोजन आमोद का विभवशाली चारुचयन कुसुमपुर के नागरिकों को बहुत दिन तक गल्प करने का एख प्रधानउपकरण था।
राधा कलश की पुत्र-वधू हुई।
राधा के नवीन उपवन के सौध-मन्दिर में अगरु, कस्तूरी और केशरकी चहल-पहल, पुष्प-मालाओं का दोनों सन्ध्या में नवीन आयोजन औरदीपावली में वीणा, वंशी और मृदंग की स्निग्ध गम्भीर ध्वनि बिखरतीरहती। नंदन अपने सुकोमल आसन पर लेटा हुआ राधा का अनिंद्य सौन्दर्यएकटक चुपचाप देखा करता। उस सुसज्जित कोष्ठ में मणि-निर्मित दीपाधारकी यन्त्रमयी नर्तकी अपने नूपुरों की झंकार से नंदन और राधा के लिएएक क्रीड़ा का कुतूहल का सृजन करती रहती। नंदन कभी राधा केखिसकते हुए उ्रूद्गारीय को सँभाल देता। राधा हँसकर कहती- बड़ा कष्टहुआ।
गृह के नीचे के अंश में जल भर गयाथा। थोड़ा-सा अन्न औरइर्ंधन ऊपर के भाग में बचा था। राधा उस जल में घिरी हुई अचलथी। छत की मुँडेर पर बैठी वह जलमयी प्रकृति में डूबती हुई सूर्य कीअंतिम किरणों को ध्यान से देख रही थी। दासी ने कहा - स्वामिनी!वह दीपाधार भी गया, अब तो हम लोगों के लिए बहुत थोड़ा अन्न घरमें बच रहा है।
देखती नहीं यह प्रलय-सी बाढ़! कितने मर मिटे होंगे। तुम तोपक्की छत पर बैठी अभी यह दृश्य देख रही हो! आज से मैंने अपनाअंश छोड़ दिया। तुम लोग जब तक जी सको, जीना।
सहसा नीचे झाँककर राधा ने देखा, एक नाव उसके वातायन सेटकरा रही है, और एक युवक उसे वातायन के साथ दृढ़ता से बाँध रहाहै।
राधा ने पूछा - कौन है?
नीचे सिर किए नंदन ने कहा - बाढ़-पीड़ित कुछ प्राणियों को क्याआश्रय मिलेगा? अब जल का क्रोध उतर चला है। केवल दो दिन केलिए इतने मरने वालों को आश्रय चाहिए।
छत पर आकर उसने कहा - एक वस्त्र दो, राधा! राधा ने एकउ्रूद्गारीय दिया। वह मुमूर्षु व्यक्ति नग्न था। उसे ढककर नंदन ने थोड़ासेंक दिया; गर्मी भीतर पहुँचते ही वह हिलने-डुलने लगा। नीचे से माँझीने कहा - जल बड़े वेग से हट रहा है, नाव ढीली न करूँगा, तो लटकजाएगी।
नंदन ने कहा - तुम्हारे लिए भोजन लटकाता हूँ, ले लो। कालरात्रि बीत गई। नंदन ने प्रभात में आँखें खोलकर देखा कि सब सो रहेहैं और राधा उसके पास बैठी सिर सहला रही है।
इतने में पीछे से लाया हुआ मनुष्य उठा। अपने को अपरिचितस्थान में देखकर वह चिल्ला उठा - मुझे वस्त्र किसने पहानाया, मेरा व्रतकिसने भंग किया?
नंदन ने हँसकर कहा - कपिंजल! यह राधा का गृह है, तुम्हें उसकेआज्ञानुसार यहाँ रहना होगा। छोड़ो पागलपन! चलो, बहुत से प्राणी हमलोगों की सहायता के अधिकारी हैं। कपिंजल ने कहा - सो कैसे होसकता है? तुम्हारा-हमारा संग असम्भव है।
मुझे दण्ड देने के लिए ही तो तुमने यह स्वांग रचा था। राधातो उसी दिन से निर्वासित थी और कल से मुझे भी अपने घर में प्रवेशकरने की आज्ञा नहीं। कपिंजल! आजतो हम और तुम दोनों बराबर हैंऔर इतने अधमरों के प्राणों का दायित्व भी हमीं लोगों पर है। यह व्रत-भंग नहीं, व्रत का आरम्भ है। चलो, इस दरिद्र कुटुम्ब के लिए अन्नजुटाना होगा।
कपिंजल आज्ञाकारी बालक की भाँति सिर झुकाए उठ खड़ा हुआ।
२३. पुरस्कार
आर्द्रा नक्षत्र; आकाश के काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकनेलगा था। देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अंचल में समतलउर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ,भीड़ में गजराज का चामरधारी शुंड उन्नत दिखाई पड़ा। वह हर्ष औरउत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा -प्रभात की हेम-किरणों से अनुरंजित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंकास्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनिकी।
रथों, हाथियों और अश्वरोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों कीभीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे।सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभितमंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गानरते हुए आगे बढ़े।
महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययनकिया। स्वर्ण-रंजित हल की मूठ पकड़कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्टबैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियोंने खीलों और फूलों की वर्षा की।
प्रतिहारी ने आकर कहा - जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थनाकरने आई है।
आँख खोलते हुए महाराज ने कहा - स्त्री! प्रार्थना करने आई है?आने दो।
प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज नेस्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा - तुम्हें कहीं देखा है?तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।
ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य मांगनेआई हो, क्यों? अच्छा-अच्छातुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी!
नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।
मूर्ख! फिर क्या चाहिए?
उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि,वहां मैं अपनी खेती करूँगी। मुझे सहायक मिल गया। वह मनुष्यों सेमेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।
महाराज ने कहा - कृषक-बालिके! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमिहै। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।तो फिर निराश लौट जाऊँ?
सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना...देव! जैसी आज्ञा हो!
जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्रदेने का आदेश करता हूँ।
सेनापति ने मधूलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपनेपीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी नेसेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख-निद्राके लिए प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका कोदेखते ही चंचल हो उठे। सेनापति ने उन्हें कहा - जय हो देव! इसस्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।
महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा - सिंहमित्र की कन्या! फिरयहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति!मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी सम्बन्धमें तुम कहना चाहते हो?
देव! किसी गुह्रश्वत शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग परअधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ मेंयह सन्देश दिया है।
राजा ने मधूलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जासे वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा - मधूलिका, यह सत्य है?
हाँ, देव!
राजा ने सेनापति से कहा - सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो।मैं अभी आता हूँ। सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा - सिंहमित्रकी कन्या! तुमने एक बार फिर कौशल का उपकार किया। यह सूचनादेकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहेलउन आततायियों का प्रबन्ध कर लूँ।
अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का केआलोक में अतिरंजित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन मेंउल्लास था। श्रावस्ती दुर्ग आज दस्यु के हाथ में जाने से बचा। आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्म्रूद्गा हो उठे।
उषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुणको देखते ही जनता ने रोष से हुँकार करते हुए कहा - ‘वध करो!’
राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी - ‘प्राण-दण्ड!’ मधूलिका बुलाईगई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कौशल-नरेश ने पूछा -मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, मांग। वह चुप रही।
राजा ने कहा - मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुम्हें देताहूँ। मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा -मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा - नहीं, मैं तुझेअवश्य दूँगा। माँग ले।
तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पासजा खड़ी हुई।
२४. इन्द्रजाल
गाँव के बाहर, एक छोटे-से बंजर में कंजरों का दल पड़ा था।उस परिवार में टट्टू, भैंसे और कु्रूद्गाों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे।उसका सरदार मैकू, लम्बी-चौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दया-माया उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछोंके भीतर प्रसन्नता की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव में भीख माँगनेकेलिए जब कंजरों की स्त्रियाँ जातीं, तो उनके लिए मैकू की आज्ञा थीकि कुछ न मिलने पर अपने बच्चों को निर्दयता से गृहस्थ के द्वार परजो स्त्री न पटक देगी, उसको भयानक दण्ड मिलेगा।
उस निर्दय झुण्ड में गानेवाली एक लड़की थी और एक बाँसुरीबजानेवाला युवक। ये दोनों भी गा-बजाकर जो पाते, वह मैकू के चरणोंमें लाकर रखत देते। फिर भी गोली और बेला की प्रसन्नता की सीमान थी। उन दोनों का नित्य सम्पर्क ही उनके लिए स्वर्गीय सुख था। इनघुमक्कड़ों के दल में ये दोनों विभिन्न रुचि के प्राणी थे। बेला बेड़िनथी। माँ के मर जाने पर अपने शराबी और अकर्मण्य पिता के साथ वहकंजरों के हाथ लगी। अपनी माता के गाने-बजाने का संस्कार उसकी नस-नस में भरा था। वह बचपन से ही अपनी माता का अनुकरण करती हुई अलापती रहती थी।
उसका वास्तविक पति गोली ही है। बेला में यह उच्छृंखल भावना विकटताण्डव करने लगी। उसके हृदय में वसन्त का विकास था। उमंग मेंमलयानिल की गति थी। कण्ठ में वनस्थली की काकली थी। आँखों मेंकुसुमोत्सव था और प्रत्येक आन्दोलन में परिमल का उद्गार था। उसकीमादकता बरसाती नदी की तरह वेगवती थी।
लोगों ने कहा - ‘खोजता क्यों नहीं? कहाँ है तेरी सुन्दरी स्त्री?’
‘तो जाऊँ न सरकार?’
‘हाँ, हाँ, जाता क्यों नहीं?’ ठाकुर ने भी हँसकर कहा।
गोली नयी हवेली की ओर चला। वह निःशंक भीतर चला गया।बेला बैठी हुई तन्मय भाव से बाहर की भीड़ झरोखे से देख रही थी।जब उसने गोली को समीप आते देखा, तो वह काँप उठी। कोई दासीवहाँ न थी। सब खेल देखने में लगी थीं। गोली ने पोटली फेंककर कहा- ‘बेला! जल्द चलो।’
बेला के हृदय में तीव्र अनुभूति जाग उठी थी। एक क्षण में उसदीन भिखारी की तरह, जो एक मुठ्ठी भीख के बदले अपना समस्त संचितआशीर्वाद दे देना चाहता है, वह वरदान देने के लिए प्रस्तुत हो गयी।मन्त्र-मुग्ध की तरह बेला ने उस ओढ़नी का घूँघट बनाया। वह धीरे-धीरे उस भीड़ में आ गयी। तालियाँ पिटीं। हँसी का ठहाका लगा। वहीघूँघट, न खुलनेवाला घूँघट सायंकालीन समीर से हिलकर रह जाता था।
ठाकुर साहब हँस रहे थे। गोली दोनों हाथों से सलाम कर रहा था।रात हो चली थी। भीड़ के बीच में गोली बेला को लिए जब
फाटक के बाहर पहुँचा, तब एक लड़के ने आकर कहा - ‘एक्का ठीकहै।’
तीनों सीधे उस पर जाकर बैठ गये। एक्का वेग से चल पड़ा।अभी ठाकुर साहब का दरबार जम रहा था और नट के खेलों कीप्रशंसा हो रही थी।
२५. सलीम
पश्चिमो्रूद्गार सीमाप्रान्त में एक छोटी-सी नदी के किनारे, पहाड़ियोंसे घिरे हुए उस छोटे-से गाँव पर, सन्ध्या अपनी धुँधली चादर डाल चुकीथी। प्रेमकुमारी वासुदेव के निमि्रूद्गा पीपल के नीचे दीपदान करने पहुँची।
आर्य-संस्कृति में अश्वत्थ की वह मर्यादा अनार्य-धर्म के प्रचार के बादभी उस प्रान्त में बची थी, जिसमें अश्वत्थ चैत्य-वृक्ष या वासुदेव काआवास समझकर पूजित होता था। मन्दिरों के अभाव में तो बोधिवृक्ष हीदेवता की उपासना का स्थान था। उसीके पास लेखराम की बहुत पुरानीपरचून की दुकान और उसी से सटा हुआ छोटा-सा घर था। बूढ़ा लेखरामएकदिन जब ‘रामा रामा जै जै रामा’ कहता हुआ इस संसार से चलागया, तब से वह दुकान बन्द थी। उसका पुत्र नन्दराम सरदार सन्तसिंहके साथ घोड़ों के व्यापार के लिए यारकन्द गया था। अभी उसके आनेमें विलम्ब था। गाँव में दस घरों की वस्ती थी, जिसमें दो-चार खत्रियोंके और एक घर पण्डित लेखराम मिसर का था। वहाँ के पठान भीशान्तीपूर्ण व्यवसायी थे। इसीलिए वजीरियों के आक्रमण से वह गाँव सदासशंक रहता था। गुलमुहम्मद खाँ - स्रूद्गार वर्ष का बूढ़ा - उस गाँव कामुखिया - प्रायः अपनी चारपाई पर अपनी चौपाल में पड़ा हुआ कालेनीलेपत्थरों की चिकनी मनियों की माला अपनी लम्बी-लम्बी ऊँगलियोंमें फिराता हुआ दिखाई देता। कुछ लोग अपने-अपने ऊँट लेकर बनिज-व्यापार के लिए पास की मण्डियों में गये थे। लड़के बन्दूकें लिएपहाड़ियों के भीतर शिकार के लिए चले गये थे।
प्रेमकुमारी दीप-दान और खीर की थाली वासुदेव को चढ़ाकर अभीनमस्कार कर रही थी कि नदी के उतार में अपनी पतली-दुबली कायामें लड़खड़ाता हुआ, एक थका हुआ मनुष्य उसी पीपल के पास आकरबैठ गया। उसने आश्चर्य से प्रेमकुमारी को देखा। उसके मुँह से निकलपड़ा - ‘काफिर...!’
बन्दूक कन्धे पर रखे और हाथ में एक मरा हुआ पक्षी लटकायेवह दौड़ता चला आ रहा था। पत्थरों की नुकीली चट्टानें उसके पैर कोछूती ही न थीं। मुँह से सीटी बज रही थी। वह था गुलमुहम्मद कासोलह बरस का लड़का अमीर खाँ! उसने आते ही कहा - ‘प्रेमकुमारी,तू थाली उठाकर भागी क्यों जा रही है? मुझे तो आज खीर खिलाने केलिए तूने कह रखा था।’
‘हाँ भाई अमीर! मैं अभी और ठहरती; पर क्या करूँ, यह देखन, कौन आ गया है! इसलिए मैं घर जा रही थी।’
अमीर ने आगन्तुक को देखा। उसे न जाने क्यों क्रोद आ गया।उसने कड़े स्वर से पूछा - ‘तू कौन है?’
‘एक मुसलमान’ - उ्रूद्गार मिला।
प्रेमा ने कहा - ‘बाबा! तुमने कुछ और भी कहा था। वह तोनहीं आया!’
बूढ़ा त्यौरी बदलकर नन्दराम को देखने लगा। नन्दराम ने कहा -‘मुझे घर में अस्तबल के लिए एक दालान बनाना है। इसलिए बालियाँनहीं ला सका।’
‘नहीं नन्दराम! तुझको पेशावर फिर जाना होगा। प्रेमा के लिएबालियाँ बनवा ला! तू अपनी बात रखता है।’
‘अच्छा बाबा! अबकी बार जाऊँगा, तो ले ही आऊँगा।’
हिजरती सलीम आश्चर्य से उनकी बातें सुन रहा था। सलीम जैसेपागल होने लगा था। मनुष्यता का एक पक्ष वह भी है, जहाँ वर्ण, धर्मऔर देश को भूलकर मनुष्य मनुष्य के लिए ह्रश्वयार करता है। उसके भीतरकी कोमल भावना, शायरों की प्रेम-कल्पना, चुटकी लेने लगी। वह प्रेमाको ‘काफिर’ कहता था। आज उसने चपाती खाते हुए मन-ही-मन कहा- ‘बुते-काफिर!’
सलीम घुमक्कड़ी-जीवन की लालसाओं से सन्तह्रश्वत, व्यक्तिगतआवश्यकताओं से असन्तुष्ट युक्तप्रान्त का मुसलमान था। कुछ-न-कुछ करतेरहने का उसका स्वभाव था। तब वह चारों ओर से असफल हो रहा था,तभी तुर्की की सहानुभूति में हिजरत का आन्दोलन खड़ा हुआ था। सलीमबी उसी में जुट पड़ा। मुसलमानी देशों का आतिथ्य कड़वा होने काअनुभव उसे अफगानिस्तान में हुआ। वह भटकता हुआ नन्दराम के घरपहुँचा था।
मुस्लिम उत्कर्ष का उबाल जब ठण्डा हो चला, तब उसके मन मेंएक स्वार्थपूर्ण कोमल कल्पना का उदय हुआ। वह सूफी कवियों-सासौन्दर्योपासक बन गया। नन्दराम के घर का काम करता हुआ वह जीवनबिताने लगा। उसमें भी ‘बुते-काफिर’ को उसने अपनी संसार-यात्रा काचरम लक्ष्य बना लिया।
प्रेमा उससे साधारणतः हँसती-बोलती और काम के लिए कहती।
सलीम उसके लिए खिलौना था। दो मन दो विरुद्ध दिशाओं में चलकरभी नियति से बाध्य थे, एकत्र रहने के लिए।
अमीर ने एक दिन नन्दराम से कहा - ‘उस पाजी सलीम क े अपनेयहाँ से भगा दो, क्योंकि उसके ऊपर सन्देह करने का पूरा कारण है।’नन्दराम ने हँसकर कहा - ‘भाई अमीर! वह परदेश में बिना सहारेआया है। उसके ऊपर सबको दया करनी चाहिए।’
अमीर के निष्कपट हृदय में यह बात न जँची। वह रूठ गया।तब भी नन्दराम ने सलीम को अपने यहाँ रहने दिया।
सलीम अब कभी-कभी दूर-दूर घूमने के लिए भी चला जाता।
उसके हृदय में सौन्दर्य के कारण जो स्निग्धता आ गयी थी, वह लालसामें परिणत होने लगी। प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। एक दिन उसे लँगड़ा वजीरीमिला। सलीम की उससे कुछ बातें हुइर्ं। वह पिर से कट्टर मुसलमान होउठा। धर्म की प्रेरणा से नहीं, लालसा की ज्वाला से!
वह रात बड़ी भयानक थी। कुछ बूँदें पड़ रही थीं। सलीम अभीसशंक होकर जाग रहा था। उसकी आँखें भविष्य का दृश्य देख रही थीं।घोड़ों के पद-शब्द धीरे-धीरे उस निर्जनता को भेदकर समीप आ रहे थे।
सलीम ने किवाड़ खोलकर बाहर झाँका। अँधेरी उसके कलुष-सी फैलरही थी। वह ठठाकर हँस पड़ा।
भीतर नन्दराम और प्रेमा का स्नेहालाप बन्द हो चुका था। दोनोंचन्द्रालस हो रहे थे। सहसा गोलियों की कड़कड़ाहट सुन पड़ी। सारे गाँवमें आतंक फैल गया।
उन दस घरों में से जो भी कोई अस्त्र चला सकता था, बाहरनिकल पड़ा। अस्सी वजीरियों का दल चारों ओर से गाँव को घेरे मेंकरके भीषण गोलियों की बौछार कर रहा था।
अमीर और नन्दराम बगल में खड़े होकर गोली चला रहे थे।कारतूसों की परतल्ली उनके कन्धों पर थी। नन्दराम और अमीर दोनों केनिशाने अचूक थे। अमीर ने देखा कि सलीम पागलों-सा घर में घुसाजा रहा है। वह भी भरी गोली चलाकर उसके पीछे नन्दराम के घर मेंघुसा। बीसों वजीरी मारे जा चुके थे। गाँववाले भी घायल और मृतकहो रहे थे। उधर नन्दराम की मार से वजीरियों ने मोर्चा छोड़ दिया था।
सब भागने की धुन में थे। सहसा घर में से चिल्लाहट सुनाई पड़ी।
नन्दराम भीतर चला गया। उसने देखा; प्रेमा के बाल खुले हैं।उसके हाथ में रक्त से रंजित एक छुरा है। एक वजीरी वहीं घायल पड़ाहै। और अमीर सलीम की छाती पर चढ़ा हुआ कमर से छुरा निकालरहा है। नन्दराम ने कहा - ‘यह क्या है, अमीर?’
‘चुप रहो भाई! इस पाजी को पहले...’
‘ठहर अमीर! यह हम लोगों का शरणागत है।’ कहते हुए नन्दरामने उसका छुरा छीन लिया; किन्तु दुर्दान्त युवक पटान कटकटाकर बोला-‘इस सूअर के हाथ! नहीं नन्दराम! तुम हट जाओ, नहीं तो मैंतुमको ही गोली मार दूँगा। मेरी बहन, पड़ोसिन का हाथ पकड़कर खींचरहा था। इसके हाथ...’
नन्दराम आश्चर्य से देख रहा था। अमीर ने सलीम की कलाईककड़ी की तरह तोड़ ही दी। सलीम चिल्लाकर मूर्च्छित हो गया था।प्रेमा ने अमीर को पकड़कर खींच लिया। उसका रणचण्डी-वेश शिथिलहो गया था। सहज नारी-सुलभ दया का आविर्भाव हो रहा था। नन्दरामऔर अमीर बाहर आये।
वजीली चले गये।
एक दिन टूटे हाथ को सिर से लगाकर जब प्रेमा को सलाम करतेहुए सलीम उस गाँव से विदा हो रहा था, तब प्रेमा को न जाने क्योंउस अभागे पर ममता हो आयी। उसने कहा - ‘सलीम, तुम्हारे घर परकोई और नहीं है, तो वहाँ जाकर क्या करोगे? यहीं पड़े रहो।’
सलीम रो रहा था। वह अब भी हिन्दुस्तान जाने के लिए इच्छुकनहीं था; परन्तु अमीर ने अकड़कर कहा - ‘प्रेमा! इसे जाने दे। इसगाँव में ऐसे पाजियों का काम नहीं।’
सलीम पेशावर में बहुत दिनों तक भीख माँगकर खाता और जीतारहा। उसके ‘बुते-काफिर’ वाले गीत को लोग बड़े चाव से सुनते थे।
२६. नूरी
‘ऐ; तुम कौन?’
‘................’
‘बोलते नहीं?’
‘................’
‘तो मैं बुलाऊँ किसी को -’ कहते हुए उसने छोटा-सा मुँह कोलाही था कि युवक ने एक हाथ उसके मुँह पर रखकर उसे दूसरे हाथ सेदबा लिया। वह विवश होकर चुप हो गयी। और भी, आज पहला हीअवसर था, जब उसने केसर, कस्तूरी और अम्बर से बसा हुआ यौवनपूर्णउद्वेलित आलिंगन पाया था। उधर किरणें भी पवन के एक जोंके केसाथकिसलयों को हटाकर घुस पड़ीं। दूसरे ही क्षण उस कुंज के भीतरछनकर आती हुई चाँदनी में जौहर से भरी कटार चमचमा उठी। भयभीतमृग-शावक-सी काली आँखें अपनी निरीहता में दया की, प्राणों की भीखमाँग रही थीं। युवक का हाथ रुक गया। उसने मुँह पर ऊँगली रखकरचुप रहने का संकेत किया। नूरी काश्मीर की कली थी। सिकरी के महलोंमें उसके कोमल चरणों की नृत्य-कला प्रसिद्ध थी। उस कलिका काआमोद-मकरन्द अपनी सीमा में मचल रहा था। उसने समझा, कोई मेरासाहसी प्रेमी है, जो महाबली अकबर की आँख-मिचौली-क्रीड़ा के समयपतंगे-सा प्राण देने आ गया है। नूरी ने इस कल्पना के सुख में अपनेको धन्य समझा और चुप रहने का संकेत पाकर युवक के मधुर अधरोंपर अपने अधर रख दिये। युवक भी आत्म-विस्मृत-सा उस सुख में पल-भर के लिए तल्लीन हो गया। नूरी ने धीरे से कहा - ‘यहाँ से जल्दचले जाओ। कल बाँध पर पहले पहर की नौबत बजने के समय मौलसिरीके नीचे मिलूँगी।’
युवक धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया। नूरी शिथिल चरण सेलड़खड़ाती हुई दूसरे कुंज की ओर चली; जैसे कई ह्रश्वयाले अंगूरी चढ़ाली हो! उसकी जैसी कितनी ही सुन्दरियाँ अकबर को खोज रही थीं।
आकाश का सम्पूर्ण चन्द्र इस खेल को देखकर हँस रहा था। नूरी अबकिसी कुंज में घुसने का साहस नहीं रखती थी। नरगिस दूसरे कुंज सेनिकलकर आ रही थी। उसने नूरी से पूछा -‘क्यों, उधर देख आयी?’
‘नहीं, मुझे तो नहीं मिले।’
‘तो फिर चल, इधर कामिनी के झाड़ों में देखूँ।’
‘तू ही जा, मैं थक गयी हूँ।’
नरगिस चली गयी। मालती की झुकी हुई डाल की अँधेरी छायामें धड़कते हुए हृदय को हाथों में दबाये नूरी खड़ी थी! पीछे से किसीने उसकी आँखों को बन्द कर लिया। नूरी की धड़कन और बढ़ गयी।
उसने साहस से पूछा -
‘मैं पहचान गयी!’
‘..............’
‘जहाँपनाह’ उसके मुँह से निकला ही था कि अकबर ने उसका मुँहबन्दकर लिया और धीरे से उसके कानों में कहा -‘मरियम को बता देना, सुलताना को नहीं; समझी न! मैं उस कुंजमें जाता हूँ।’
अकबर के जाने के बाद ही सुलताना वहाँ आयी। नूरी उसी कीछत्रछाया में रहती थी; पर अकबर की आज्ञा! उसने दूसरी ओर सुलतानाको बहका दिया। मरियम धीरे-धीरे वहाँ आयी। वह ईसाई बेगम उसआमोद-प्रमोद से परिचित न थी। तो भी यह मनोरंजन उसे अच्छा लगा।
नूरी ने अकबरवाला कुंज उसे बता दिया।
घण्टों के बाद जब सब सुन्दरियाँ थक गयीं थीं, तब मरियम काहाथ पकड़े अकबर बाहर आये। उस समय नौबतखाने से मीठी-मीठीसोहनी बज रही थी। अकबर ने एक बार नूरी को अच्छी तरह देखा।
उसके कपोलों को थपथपाकर उसको पुरस्कार दिया। आँख-मिचौनी होगयी!
सिकरी की झील जैसे लहरा रही है, वैसा ही आन्दोलन नूरी केहृदय में हो रहा है। वसन्त की चाँदनी में भ्रम हुआ कि उसका प्रेमी युवकआया है। उसने चौंककर देखा; किन्तु कोई नहीं ता। मौलसिरी के नीचेबैठे हुए उसे एक घड़ी से अधिक हो गया। जीवन में आज पहले हीअभिसार का वह साहस कर सकी है। भय से उसका मन काँप रहा है;पर लौट जाने को मन नहीं चाहता। उत्कण्ठा और प्रतीक्षा कितनी पागलसहेलियाँ हैं! दोनों उसे उछालने लगीं।
किसी ने पीछे से आकर कहा - ‘मैं आ गया।’
नूरी ने घूमकर देखा, लम्बा-सा, गौर वर्ण का युवक उसकी बगलमें खड़ा है। वह चाँदनी रात में उसे पहचान गयी। उसने कहा
-‘शाहजादा याकूब खाँ!’
‘हाँ, मैं ही हूँ! कहो, तुमने क्यों बुलाया है?’
नूरी सन्नाटे में आ गयी। इस प्रश्न में प्रेम की गन्ध भी नहीं थी।
नूरी सिसककर रोने लगी। याकूब का कन्धा उसके आँसुओं कीधारा से भीगने लगा। अपनी कठोर बावनाओं से उन्म्रूद्गा और विद्रोही युवकशाहजादा ने बलपूर्वक अभी अपने को रमणी के बाहुपाश से छुड़ाया हीथा कि चार तातारी दासियों ने अमराई के अँधकार से निकलकर दोनोंको पकड़ लिया।
अकबर की बिसात अभी बिछी थी। पासे अकबर के हाथ में थे।
दोनों अपराधी सामने लाये गये। अकबर ने आश्चर्य से पूछा - ‘याकूबखाँ?’
याकूब के नतमस्तक की रेखाएँ ऐंठी जा रही थीं। वह चुप था।फिर नूरी की ओर देखकर शहंशाह ने कहा - ‘तो इसीलिए तू काश्मीरजाने की छुट्टी माँग रही थी?’
वह भी चुप।
‘याकूब! तुम्हारा यह लड़कपन युसूफ खाँ भी न सहते; लेकिन मैंतुम्हें छोड़ देता हूँ। जाने की तैयारी करो। मैं काबुल से लौटकर काश्मीरआऊँगा।’
संकेत पाते ही तातारियाँ याकूब को ले चलीं। नूरी खड़ी रही।अकबर ने उसकी ओर देखकर कहा - ‘इसे बुर्ज में ले जाओ।’नूरी बुर्ज के तहखाने में बन्दिनी हुई।
अट्ठारह बरस बाद!
जब अकबर की नवर्तन-सभा उजड़ चुकी थी, उसके प्रताप कीज्योत आनेवाले अन्तिम दिन की उदास और धुँधली छाया में विलीन होरही थी, हिन्दू और मुस्लिम एकताका उत्साह शीतल हो रहा था, तबअकबर को अपने पुत्र सलीम से भी भय उत्पन्न हुआ। सलीम ने अपनीस्वतन्त्रता की घोषणा की थी, इसीलिए पिता-पुत्र में मेल होने पर भीआगरा में रहने के लिए सलीम को जगह नहीं थी। उसने दुखी होकरअपनी जन्मभूमि में रहने की आज्ञा माँगी।
सलीम फतहपुर-सिकरी आया। मुगल साम्राज्य का वह अलौकिकइन्द्रजाल! अकबर की यौवन-निशा का सुनहरा स्वह्रश्वन - सीकरी का महल- पथरीली चट्टानों पर बिखरा पड़ा था। इतना आकस्मिक उत्थान औरपतन! जहाँ एक विश्वजनीन धर्म की उत्पि्रूद्गा की सूचना हुई, जहाँ उसधर्मान्धता के युग में एक छत के नीचे ईसाई, पारसी, जैन, इस्लाम औरहिन्दू आदि धर्मों पर वाद-विवाद हो रहा था, जहाँ सन्त सलीम की समाधिथी, जहाँ शाह सलीम का जन्म हुआ था, वहीं अपनी अपूर्णता औरखँड़हरों से अस्त-व्यस्त सीकरी का महल अकबर के जीवनकाल में ही,निर्वासिता सुन्दरी की तरह दया का पात्र, श्रृंगारविहीन और उजाड़ पड़ाथा। अभी तक अकबर के शून्य शयन-मन्दिर में विक्रमादित्य के नवरत्नोंका छाया-पूर्ण अभिनय चल रहा था। अभी तक सराय में कोई यात्री सन्तकी समाधि का दर्शन करने को आता ही रहता! अभी तक बुर्जों केतहखानों में कैदियों का अभाव न था!
सीकरी की दशा देखकर सलीम का हृदय व्यथित हो उठा। अपूर्वशिल्प बिलख रहे थे। गिरे हुए कँगूरे चरणों में लौट रहे थे। अपनीमाता के महल में जाकर भरपेट रोया। वहाँ जो इने-गिने दास और दासियाँऔर उनके दारोगे बच रहे थे, भिखमंगों की-सी दशा में फटे चीथड़ोंमें उसके सामने आये। सब समाधि के लंगर-खाने से भोजन पाते थे।
सलीम ने समाधि का दर्शन करके पहली आज्ञा दी कि तहखानों में जितनेबन्दी हैं, सब छोड़ दिये जाएँ। सलीम को मालूम था कि यहाँ कोईराजनैतिक बन्दी नहीं है। दुर्गन्ध से सने हुए कितने ही नर-कंकाल सन्तसलीम की समाधि पर आकर प्रसन्नता से हिचकी लेने लगे और युवराजसलीम के चरणों को चूमने लगे।
उन्हीं में एक नूरी भी थी। उसका यौवन कारागार की कठिनाइयोंसे कुचल गया था। सौन्दर्य अपने दो-चार रेखा-चिह्न छोड़कर समय केसाथ पंखों पर बैठकर उड़ गया था।
आज न जाने क्यों, इस संगीत ने उसकी सोई हुई मनोवृि्रूद्गा कोजगा दिया। वही मलसिरी का वृक्ष था। संगीत का वह अर्थ चाहे किसीअज्ञात लोक की परम सीमा तक पहुँचता हो; किन्तु आज तो नूरी अपनेसंकेतस्थल की वही घटना स्मरण कर रही थी, जिसमें एक सुन्दर ुयवकसे अपने हृदय की बातों को खोल देने का रहस्य था।
वह काश्मीर का शाहजादा आज कहाँ होगा? नूरी ने चंचल होकरवहीं थालों को रखवा दिया और स्वयं धीरे-धीरे अपने उ्रूद्गोजित हृदय कोदबाये हुए सन्त की समाधि की ओर चल पड़ी।
‘मिले तो कह देना कि एक अभागे ने तुम्हारे ह्रश्वयार को ठुकरा दियाथा। वह काश्मीर का शाहजादा था, पर अब तो भिखमंगे से भी...’ कहतेकहते उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
नूरी ने उसके आँसू पोंछकर पूछा - ‘क्या अब भी उससे मिलनेको मन करता है?’
वह सिसककर कहने लगा - ‘मेरा नाम याकूब खाँ है। मैंने अकबरके सामने तलवार उठाई और लड़ा भी। जो कुछ मुझसे हो सकता था,वह काश्मीर के लिए मैंने किया। इसके बाद बिहार के भयानक तहखानेमें बेड़ियों से जकड़ा हुआ कितने दिनों तक पड़ा रहा। सुना है कि सुलतानसलीम ने वहाँ के अभागों को फिर से धूप देखने के लिए छोड़ दियाहै। मैं वहीं से ठोकरें खाता हुआ चला आ रहा हूँ। हथकड़ियों से छूटनेपर किसी अपने ह्रश्वयार करनेवाले को देखना चाहता था। इसी से सीकरीचला आया। देखता हूँ कि मुझे वह भी न मिलेगा।’
याकूब अपनी उखड़ी हुई साँसों को सँभालने लगा था और नूरीके मन में विगत काल की घटना, अपने प्रेम-समर्पण का उत्साह, फिरउस मनस्वी युवक की अवहेलना सजीव हो उठी।
आज जीवन का क्या रूप होता? आशा से भरी संसार-यात्रा किससुन्दर विश्रामभवन में पहुँचाती? अब तक संसार के कितने सुन्दर रहस्यफूलों की तरह अपनी पंखुड़ियाँ खोल चुके होते? अब प्रेम करने का दिनतो नहीं रहा। हृदय में इतना ह्रश्वयार कहाँ रहा, जो दूँगी, जिससे यह ठूँठहरा हो जाएगा। नहीं। नूरी ने मोह का जाल छिन्न कर दिया है। वहअब उसमें न पड़ेगी। तो भी इस दयनीय मनुष्य की सेवा; किन्तु यहक्या? याकूब हिचकियाँ ले रहा था। उसकी पुकार का सन्तोषजनक उ्रूद्गारनहीं मिला। निर्मम-हृदय नूरी ने विलम्ब कर दिया। वह विचार करने लगीथी और याकूब को इतना अवसर नहीं था।
नूरी उसका सिर हाथों पर लेकर उसे लिपटाने लगी। साथ हीअभागे याकूब के खुले हुए ह्रश्वयासे मुँह में नूरी के आँसू टपाटप गिरने लगे।
२७. गुण्डा
वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठऔर दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूसकी रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमनेमें वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह,देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरहचिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारादूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमेंसीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहलेपल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धेपर टिका हुआ चौड़ी धार का गँडासा, यह थी उसकी धज! पंजों केबल जब वह चलता, तो नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुण्डा था।
ईसा का अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रहगयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखनेके लिए विद्वान् ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्मदर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मन्दिरों और मठों केध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण प्रायः बन्द-से हो गये थे, यहाँतक कि पवित्रता और छूआछूत में कट्टर वैष्णव धर्म भी उस विश्रृंखलतामें, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूपधारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिकजीवन ने एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था।
अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृि्रूद्गा से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षामाँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना,सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली परलिए घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुण्डा कहते थे।
उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ।’ मलूकी वहाँ मजीराबजा रहा था। दौड़कर इक्के पर जा बैठा। आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ाथा। बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घंटे में दुलारी सामनेआ गयी। उसने मुस्कराकर कहा - ‘क्या हुक्म है बाबू साहब?’
‘दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है।’
‘इस जंगल में क्यों? उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा।‘तुम किसी तरह का खटका न करो।’ नन्हकूसिंह ने हँसकर कहा।‘यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आयी हूँ।’
‘क्या, किससे?’
‘राजमाता पन्नादेवी से’ - फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारीने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की आँखें तर हो जाती हैं। गाना-बजाना समाह्रश्वत हो गया था। वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उसझुरमुट में गूँज रहा था। मन्दिर के समीप ही छोटे-से कमरे में नन्हकूसिंहचिन्ता-निमग्न बैठा था। आँखों में नींद नहीं। और सब लोग तो सेने लगेथे, दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। आज उसे, अपनेको रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल होकरवह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली आयी। कुछ आहट पातेही चौंककर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली। तब तकहँसकर दुलारी ने कहा - ‘बाबू साहब, यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवारचलाई जाती है!’
छोटे-से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकरनन्हकू हँस पड़ा। उसने कहा - ‘क्यों बाईजी! क्या इसी समय जाने कीपड़ी है। मौलवी ने फिर बुलाया है क्या?’ दुलारी नन्हकू के पास बैठगयी। नन्हकू ने कहा - ‘क्या तुमको डर लग रहा है?’
‘नहीं, मैं कुछ पूछने आयी हूँ।’
‘क्या?’
‘क्या... यही कि... कभी तुम्हारे हृदय में...’
‘उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझकर तो उसे हाथमें लिये फिर रहा हूँ। कोई कुछ कर देता - कुचलता - चीरता -उछालता! मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं पाता।’‘मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशीका हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाए। क्या उलटपलटहोनेवाला है, बनारस की गलियाँ जैसे काटने दौड़ती हैं।’
‘कोई नयी बात इधर हुई है क्या?’
‘कोई हेस्टिंग्ज आया है। सुना है उसने शिवालय-घाट पर तिलंगोंकी कम्पनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्नावहीं हैं। कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर कलक्रूद्गाा भेजने...’
‘क्या पन्ना भी... रनिवास भी वहीं है’ नन्हकू अधीर हो उठा था।‘क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखोंमें आँसू क्यों आ गये?’
सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा। उसने कहा - ‘चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?’ वह उठ खड़ा हुआ। उद्विग्न की तरहन जाने क्या खोजने लगा। फिर स्थिर होकर उसने कहा - ‘दुलारी! जीवनमें आज यह पहला ही दिन है कि एकान्त रात में एक स्त्री मेरे पलँगपर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार! अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाहकरने के लिए सैंकड़ों असत्य, अपराध करता फिर रहा हूँ। क्यों? तुमजानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना...! किन्तु उसका क्याअपराध? अत्याचारी बलवन्तसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका।
जब तक राजा भी नाव पर बैठ न जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकरभी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।’
पन्ना ने नन्हकू को देखा। एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं,जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था। फाटकबलपूर्वक खोला जा रहा था। नन्हकू ने उन्म्रूद्गा होकर कहा - ‘मालिक!जल्दी कीजिए।’
दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकूसिंह फाटक पर इस्टाकरके साथ। चेतराम ने आकर एक चिट्टी मनियारसिंह को हाथ में दी।लेफ्टिनेण्ट ने कहा - ‘आपके आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मैं अपनेसिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।’
‘मेरे सिपाही यहाँ हैं, साहब?’ मनियारसिंह ने हँसकर कहा। बाहरकोलाहल बढने लगा।
चेतराम ने कहा - ‘पहले चेतसिंह को कैद कीजिए।’
‘कौन ऐसी हिम्मत करता है?’ कड़ककर कहते हुए बाबूमनियारसिंह ने तलवार खींच ली। अभी बात पूरी न हो सकी थी किकुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा। यहाँ मौलवी साहब की कलम नहीं चल सकतीथी, और न ये बाहर ही जा सकते थे। उन्होंने कहा - ‘देखते क्या होचेतराम!’
चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि नन्हकू के सधेहुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी। इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहबचिल्लाने लगे। नन्हकूसिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई साथियोंको धराशायी किया। फिर मौलवी साहब कैसे बचते!
नन्हकूसिंह ने कहा - ‘क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको समझायानहीं? पाजी!’ कहकर ऐसा साफ जनेवा मारा कि कुबरा ढेर हो गया।
कुछ ही क्षणों में वह भीषण घटना हो गयी, जिसके लिए अभी कोई प्रस्तुतन था।
नन्हकूसिंह ने ललकारकर चेतसिंह से कहा - ‘आप क्या देखते हैं?उतरिए डोंगी पर!’ उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे। उधरफाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिड़की से उतरते हुएदेखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचलित होकर तलवार चलारहा है। नन्हकू के चट्टासदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारावह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा। वह काशीका गुण्डा था!