अपने जीवन में अनगिनत लोगों का साथ मिलता - बिछड़ता रहा। कुछ दो चार कदम चले, फिर सायास या अनायास उनका साथ छूट गया या यह भी कह सकते हैं कि वे साथ छोड़कर चले गए । कुछ दो चार साल संग साथ चले , उनका भी साथ छूट गया। कुछ प्रत्यक्षत: आस पास नहीं हैं, स्मृतियों के अंतहीन गलियारे में लगभग भटक से गए थे किंतु यकायक सोशल मीडिया या संचार माध्यम से वे उसी संलग्नता से अब फिर से जुड़ गए हैं जैसा पहले जुड़े थे।सोशल मीडिया की भूमिका भी बहु आयामी है |वह न केवल साथियों की खैर खबर दे देता है ,परदेश में बैठे लोग अपनी जड़ भी उसके माध्यम से तलाशने लगे हैं |लेकिन कभी कभी सोशल मीडिया आपसी भाई चारा और संबंधों को भी संकट में डाल दे रहा है |इसीलिए उस पर सरकार को बैन भी लगाना पड़ जाता है |
मैंने यह महसूस किया है (शायद आप भी करते हों ) कि हर व्यक्ति अपने साथ एक ऊर्जा लेकर चलता है जिसे हम आभामंडल कहते हैं। ये आभामंडल हमारी सोच, भावना, हर एक शब्द, व्यवहार, हमारे संस्कारों से मिलकर बनता है।असल में ये हमारी वास्तविक ऊर्जा की परिचायक है। आप किसी से प्यार से कितनी भी बात करें या कितना भी अच्छा व्यवहार करें, लेकिन आपकी आभा में जो होगा वह उन्हें स्वत: ही मिल जाएगा। हमारी आत्मा के अंदर सामंजस्य बैठाने की ताकत नहीं है। मैं छोटी-छोटी बातों में प्रतिक्रिया दे दूं, परेशान हो जाऊं, बिजनेस में उलटफेर कर दूं तो फिर मेरे आभामंडल में क्या होगा?
उदाहरण के लिए जब हम देवी-देवताओं के चित्र ध्यान से देखते हैं तो पाते हैं कि उनके पीछे सफेद रंग का चक्र होता है। हमारे पास भी चक्र के रूप में आभा है लेकिन उसका रंग क्या है ? देवी-देवताओं का आभामंडल सफेद होता है । मतलब एक भी दाग नहीं। इसीलिए जो पूरी तरह से साफ है वह पूज्यनीय बन जाता है। उनके आगे आकर कोई भी, कैसे भी संस्कार दर्शाए वह सिर्फ आशीर्वाद ही देते हैं। जब हम मंदिर में जाते हैं तो देवी-देवताओं के आगे जाकर यही तो कहते हैं -" मैं नीच हूं, पापी हूं, कपटी हूं। क्षमा करिए प्रभु !" कुछ भक्त तो बाकायदा कान पकड़ते हुए माफ़ी मांगते दिखते हैं। लेकिन बाहर हम न तो कभी ऐसा कहते हैं या करते हैं बल्कि गलत आचरण या काम करते हुए संकोच भी नहीं करते हैं । फिर भी देवी-देवता या उन जैसे व्यक्तित्व के धनी लोग हमें सिर्फ आशीर्वाद ही देते हैं। क्योंकि उनके चक्र में उसके अलावा कुछ और है ही नहीं।
इसका मतलब है यह है कि उन विशेष लोगों के संस्कार में चिड़चिड़ा होना, गुस्सा होना, नाराज होना, उदास होना, चिंता करना, परेशान करना आदि ये सब कुछ नहीं है। हम दूर-दूर के मंदिरों में जाते हैं| वहां हमें कितना समय मिलता है देवी-देवता की मूर्ति के सामने खड़ा होने के लिए? कल्पना करें कि लोग कितने घंटे लाइन में खड़े होते हैं और उसमें भी कुछ अस्थिर चित्ती लोग ऐसे होते हैं जो जल्दी-जल्दी करते हैं, मानो भगवान उनको कुछ ज्यादा दे देंगे ! मूर्ति को 10-20 सेकंड ही देखते हैं लेकिन बाहर आकर कहते हैं बहुत अच्छे दर्शन हुए क्योंकि उनका यह सोचना है कि शक्ति मिलने में 5 सेकंड भी बहुत होते हैं। यह कितना वास्तविक है समझ से परे है। सुपात्रता और कुपात्रता भी मायने रखती है।लेकिन यह तो सच है ही कि इन जगहों या लोगों से एक पॉजिटिव एनर्जी हमें मिलती है |
आजकल जब हम ये सोचते हैं कि अपने बच्चों के साथ ज्यादा समय रह नहीं पा रहे हैं, तो हमें ग्लानि होती है। अगर किसी घर में पति-पत्नी दोनों जॉब में हैं तो ये सामान्य सोच है कि वे ज्यादा समय अपने बच्चों को नहीं दे सकेंगे । लेकिन ये समझना होगा कि आपके 5 सेकंड काफी है उनको ताकत देने के लिए। हम 5 घंटे उनके साथ बैठे हैं लेकिन हमारे अंदर कोई शक्ति ही नहीं है तो उसका प्रभाव भी नहीं पड़ता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कितने घंटे अपने परिवार के साथ रहे। यदि आपका औरा साफ है तो आप ऑफिस में बैठकर भी उनको शक्ति भेज सकते हैं। अगर हमारा आभामंडल सही नहीं है तो हम साथ में बैठकर भी उनको कुछ भी नहीं दे पा रहे हैं |
इसी तरह जब दो लोग आपस में मिलते हैं बातचीत कर रहे होते हैं तो उनका आभामंडल भी एक - दूसरे से बातें करता है, इसीलिए कुछ लोगों से मिलकर हम कहते हैं कि इनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। वहीं कुछ लोगों के लिए कहते हैं कि उनसे मिलकर तो हमारा सिर और भारी हो गया। भले सामने वाले ने हमसे बिल्कुल सही बात की हो और अच्छा व्यवहार भी लेकिन उनका आभामंडल उनकी आंतरिक शक्ति... संस्कार का प्रतिबिंब था जिससे हमें उनसे मिलकर अच्छा नहीं लगता है ।
आज जब हम अपनी ज़िंदगी का बही खाता लिख रहा हूं तो इस श्रेणी में आने वाले अपने किन किन स्वजनों को याद करूं? यदि याद नहीं करूंगा तो अशिष्टता होगी ही |इसलिए उनको अपने पवित्रतम मन से स्मरण कर रहा हूँ जिसके साक्षी आप बन रहे हैं | गवाही देंगे न ?
सूक्ष्म रूप में अब भी उपस्थित अपने आदरणीय गुरुदेव श्री आनंद मूर्ति जी, पिता श्री आचार्य प्रतापादित्य, नाना जी जस्टिस एच. सी. पी.त्रिपाठी, डा.हरिवंश राय बच्चन, डा.उदयभान मिश्र, आचार्य रघुनाथ प्रसाद, पंडित विद्यानिवास मिश्र, शिवानी जी, मुक्ता शुक्ला, डा.एस. के. एस. मार्या (जिन्होंने वर्ष 2010 में मेरे जानलेवा और जटिल इंफेक्टेड हिप ज्वाइंट को रिप्लेस किया और अपना अनुभव बताया कि आपरेशन की नीम बेहोशी के दौरान उन्होंने मुझसे क्या क्या बातें कीँ और उनको मुझमें क्या - कुछ ख़ास दिखा था जो अन्य पेशेंट से मुझे अलग कर दिया था ) , बड़े भाई और अब भी मार्गदर्शक आत्मीय आदरणीय श्री संत शरण, शिक्षक गोपाल पति त्रिपाठी, मोती बी. ए. भोला प्रसाद आग्नेय, उस्ताद राहत अली, ऊषा टंडन, मालिनी अवस्थी,अग्निहोत्री बंधु (राकेश देवेश), जनाब इक़बाल अहमद सिद्दीकी, कर्नल एल. पी. सिंह, कर्नल राहुल सिंह राठौर, कर्नल राज्यवर्धन सिंह (जो सेना की 7 मैकेनिकल इन्फैंट्री 1 डोगरा में मेरे बेटे के साथ थे और जिन्होंने अपने दो पुत्रों का नाम करण मेरे शहीद युवा पुत्र यश आदित्य के नाम पर क्रमशः यश और आदित्य कर दिया है), नरेंद्र शुक्ल, नवनीत मिश्र, सर्वेश दुबे, के.सी.गुप्त, डा.एस. के .ग्रोवर, छोटे बड़े के. के. श्रीवास्तव, पद्मश्री डा योगेश प्रवीण, भाई के.सरन, वरिष्ठ एडवोकेट, उत्तम चैटर्जी, एच. वसंत, विनोद चैटर्जी, निर्मला कुमारी,प्रकाश चंद्र त्रिपाठी ( मेरे मामा जी) , यज्ञदत्त बनकटा ,साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रोफेसर अनंत मिश्र, प्रोफेसर रामदेव शुक्ल, प्रोफेसर कृष्ण चंद्र लाल श्रीवास्तव , धीरा (जोशी) शर्मा, इंजीनियर आर.आर.एन.प्रसाद, जस्टिस ओमप्रकाश श्रीवास्तव, आचार्य चंद्र भूषण त्रिपाठी, डा गुलाब चंद, डा पूनम सिंह, प्रदीप गुप्ता, दिनेश शुक्ला, डा पवन और डॉ शांभवी सिंह पाटिल , प्रोफेसर आर.जी. गुप्ता, उ. प्र.के पूर्व डी.जी.पी.के.एल.गुप्ता, एस. सी. कंबोज, जंगी सिंह, देव व्रत तिवारी, प्रदीप गुप्ता ,आचार्य शुद्धानंद ,कपिलदेव जी( जो आगे चल कर अवधूत बन गए और उनका नाम दिनेश्वरानन्द हो गया),अशोक मानव (संपादक ‘प्रकृति मेल’ पत्रिका),प्रदीप श्रीवास्तव (संपादक ‘प्रणाम पर्यटन’ पत्रिका) ,मुक्ता शुक्ल ,डा. गुलाब चंद (सेवानिवृत्त अपर महानिदेशक आकाशवाणी)नित्यानंद मैठानी,मेरे साढ़ू ओम प्रकाश मणि त्रिपाठी ,मेरे मित्र ओम प्रकाश पांडे,ज्ञान प्रकाश पांडे,अपनी कालोनी की सोसायटी जिसका मैं सचिव हूँ उसके अध्यक्ष डा. प्रकाश चंद्र गुप्ता आदि महानुभाव याद आते हैं।
भाग्यशाली हूं कि इन कुछ विशेष महानुभावों के आभामंडल ने मेरे जीवन को दीप्तिमान कर दिया। उनका स्नेह और साहचर्य मेरा संबल बना रहा। वे शरीर में हैं तो मेरे प्रेरक हैं और यदि शरीर में नहीं हैं तो वे आज भी मेरे पास सूक्ष्म रूप से बने हुए हैं और मैं इन सभी के लिए नत मस्तक हूं।
अब अपनी छूटी कहानी की ओर चलते हैं |लखनऊ की आबो हवा में अब अपना जीवन ऐडजेस्टमेंट की राह पर निकल चुका था |दोनों बेटे अपने कैरियर के सिलसिले में 10 +2 करने के बाद भारतीय सेना को चुन चुके थे | बड़े बेटे दिव्य आदित्य ने टेक्निकल इंट्री स्कीम के माध्यम से इंट्री ली थी तो छोटे बेटे यश आदित्य ने एन.डी.ए. की अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली प्रवेश परीक्षा में प्रथम प्रयास में सफलता पाकर | हम सभी विशेषकर मेरे पिता आचार्य प्रतापादित्य के लिए यह गौरव का विषय था |
सैन्य प्रशिक्षण के दिन बहुत ही कठिन होते हैं |यह समझा जाए कि शरीर और मन को लोहा बना दिया जाता है |सैनिकों में देश की आन-बान-शान के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देने की भावना कूट कूट कर भर दी जाती है|बेटों से मिलना जुलना भी अब कम होता जा रहा था |हम लोग कभी बडे बेटे से मिलने सिकंदराबाद तो कभी छोटे से मिलने पुणे जाया करते थे और बेटों से मिलकर आते समय मन भारी- भारी हो जाया करता था |बच्चे जब छुट्टियों में घर आते तो घर जगमगा उठता था |लेकिन वे आते ही वापस जाने का जब रिजर्वेशन कराते थे तो मन दुखी हो जाता था |मीना मेरी पत्नी बच्चों के मनपसंद व्यंजन बनाया करती थीं |आज जब उन दिनों को हम याद करते हैं तो रोमांचित हो उठते हैं |मैं दावे के साथ कहना चाहूँगा कि मेरे दोनों बच्चों ने कभी भी यह नहीं कहा कि सैन्य प्रशिक्षण से उनको कोई दिक्कत है अथवा वे आर्मी छोड़ना चाहते हैं |मानो वे जन्मजात योद्धा थे और उनका जन्म ही देश की सेवा के लिए हुआ था |ऐसा मैं इसलिए भी कहना चाहता हूँ कि उसी दौरान समवयस्क मेरे भांजे कलरव (आत्मज राकेश-प्रतिमा मिश्रा) ने भी एन.डी. ए. क्वालीफाई किया | उसने भी आर्मी की ट्रेनिंग लेनी शुरू की लेकिन जितनी कठोर ट्रेनिंग से उसे गुजरना पड़ा उसने हिम्मत हार दी और उसके पैरेंट्स लाखों रूपये का हरजाना अदा करके उसे एन. डी.ए. की ट्रेनिंग से वापस ले गए |
आज इन स्मृतियों से गुजरते हुए मन भावुक हो उठा है| कारण ,मेरे छोटे योद्धा पुत्र लेफ्टिनेंट यश आदित्य के सैन्य प्रशिक्षण कुशलता पूर्वक पूर्ण कर लेने, पासिन्ग आउट परेड में कमीशण्ड होने के गौरवपूर्ण क्षण के बाद उसकी पहली नियुक्ति लेह में पूर्ण होने के बाद वर्ष 2007 में लेह से वापसी के दौरान हुई उस हृदय विदारक दुर्घटना की याद है जिसमें उसे अपनी शहादत देनी पड़ी |जवान बेटे को कंधा देते हुए जीवन के सबसे विदारक दुख से होकर मुझे गुजरना पड़ा है |प्रकृति और परमात्मा को यही मंजूर था इसलिए मैंने इस दुख का वरण किया और मुझे गीता के इस श्लोक ने संबल प्रदान किया-
“जातस्य हि ध्रुवो मृतयुरध्रुवम जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहारये अर्थ न त्वं शोचितुमर्हसि ||”
अर्थात जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है|इसलिए जो अटल है , अपरिहार्य है उसके विषय में शोक नहीं करना चाहिए |