अपनी ज़िंदगी इन दिनों पारिवारिक और सामाजिक कोलाहल से दूर होती जा रही है और शांत समुद्री लहरों के समान बहती जा रही है | न रुके और ना ही थके |समुद्र की बात आई तो याद आ गई अभी कुछ दिनों पहले 13 से18 नवंबर 2024 तक सम्पन्न हुई अपनी बाली (इंडोनेशिया)की रोमांचक यात्रा | आई.आर.सी.टी.सी. द्वारा आयोजित इस यात्रा में मेरी पत्नी मीना और बड़ी बहन विजया उपाध्याय के साथ एक पारिवारिक मित्र मंजू जैन भी थीं ।हालांकि इस यात्रा की थकान अभी उतरी नहीं है फिर भी ‘कमिटमेंट’ तो पूरा करना ही है इसलिए लैपटॉप पर बैठ कर दूसरे भाग के छपने वाले इस आत्मकथा के अगले अंश को लिखने लगा हूँ | हाँ,यह बात आपको बताना चाहूँगा कि हमेशा की तरह इस बार भी अपनी इस विदेशी यात्रा के जीवंत यात्रा संस्मरण लिखता रहा हूँ और देर रात में ही सही सोशल मीडिया पर पोस्ट भी करता रहा हूँ|ऐसे में मैं अपने पाठकों की सकारात्मक और प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाओं से अभिभूत होता रहता हूँ | सच्चा लेखक अपनी लेखनी, अपने पुस्तक सृजन पर पाठकों की प्रतिक्रिया के लिए भूखा होता है |एक ऐसी ही प्रतिक्रिया मेरे एक वरिष्ठ साहित्यिक मित्र श्री सुधेन्दु ओझा ने मेरी आत्मकथा के पहले खंड “आमी से गोमती तक “ के बारे में लिख भेजी है जिसे मैं शब्दश: यहाँ उद्धृत करने जा रहा हूँ |
"आमी से गोमती तक" अर्थात श्री प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी की जीवन -यात्रा | त्रिपाठी जी लगभग72 वर्ष के हो रहे हैं और निरंतर सक्रिय रहते हैं।वे अपनी रेजिडेंट्स सोसाइटी के काम को भी मुस्तैदी से देखते हैं। मुलाक़ात से थोड़ीदेर बाद ही उनका अनुरोध मिला ...
“प्रिय ओझा जी,
अच्छा लगा आपसे मिलकर। मिल बैठ कर बातें करके। यदि मेरेगरीबखाने भी आए होते तो निकटता और गहरी हो जाती क्योंकि उधर भी केंद्रीय हैं , इधर भी केंद्रीय (विद्यालय) !बहरहाल मैने जो अपनी पुस्तकें दी हैं ख़ासतौर से "आमी से गोमती तक" आत्मकथा और "उजड़ा हुआ दयार" (उपन्यास) इन पर अपनी निष्पक्ष समीक्षा अवश्य भेजिएगा। आप अनुभवी हैं, सक्रिय हैं, वाचाल हैं इसलिए आपकी समीक्षा मेरे लिए मायने रखती है। मैं शौकिया लेखक हूं, प्रोफेशनल नहीं। मुझे मान्यता मिले, न मिले, पुरस्कार मिले, न मिले मैं स्वात: सुखाय लिखता रहा और आगे भी लिखता रहूंगा। शुभकामनाएं। प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी”
मैंने उनकी पुस्तक “आमी से गोमती तक” को पूरा पढ़ा। इस पुस्तक को उनके जीवन वृत्त पर केन्द्रित पुस्तक “साँप सीढ़ी ज़िंदगी” की पूर्व पीठिका माना जा सकता है जिसमें उन्होंने अपने गोरखपुर से लखनऊ तक की यात्रा को संक्षिप्त रूप में लिखा है। इस पुस्तक को उन्हों ने 22 अध्यायों में विस्तृत किया है। मेरा बचपन, मेरी वंशावली से लेकर पथरीली राहों तक।
अपने बचपनका वर्णन करते हुए प्रफुल्ल त्रिपाठी लिखते हैं “मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से लगभग 20 कि.मी. दूर खजनी के एक गाँव विश्वनाथपुर में पहली सितंबर 1953 को हुआ था। यह गाँव सरयूपारीण ब्राम्हणों के सुप्रसिद्ध गाँव सरया तिवारी का ही एक हिस्सा। है ।पंडित भानु प्रताप राम त्रिपाठी मेरे पितामह और अरविन्द बाबू उर्फ़ श्री प्रतापादित्य राम त्रिपाठी मेरे पिताजी। मेरी दादी जी पार्वती देवी मूलतः नेपाल की थीं। उनका जन्म क्वार सुदी एक सम्वत 1966 को बनगाईं (नेपाल) में हुआ था । आषाढ़ सुदी एकादशी संवत 2033 में उनका काशी लाभ हुआ था । मेरे बाबा पंडित भानुप्रताप राम त्रिपाठी का जन्म गोरखपुर के दक्षिणांन्चल के ब्राम्हणों के प्रतिष्ठित एक गाँव सरया तिवारी में हुआ था। वे जमींदार थे । उनका देहांत 21 मई 1987 को अपने गाँव के सीवान पर ही एक दुर्घटना में चोटिल होने के बाद काशी ले जाते समय रास्ते में हुआ था। मेरी मां श्रीमती सरोजिनी त्रिपाठी का जन्म गोरखपुर के भिटहां (डवरपार) में 15 अगस्त 1933 को हुआ था । उनकी शादी मात्र 15 वर्ष की उम्र में 26 फरवरी 1948 को पिताजी आचार्य प्रतापादित्य के साथ हो गई थी ।उन्होंने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया था। मेरे गाँव से लगभग एककि.मी. की दूरी पर आमी नदी बहा करती थी जो अब लुप्तप्राय हो चली है। उस आमी नदी औरउसके ठीक किनारे स्थित कपूरी (मलदहिया) आम के बहुत बड़े बागीचे, जिसे हमलोग बडकी बगिया कहा करते थे, को मैं अब भी भूल नहीं पा रहा हूँ क्योंकि उससे जुड़ी ढेर सारी स्मृतियाँ हैं। आप कल्पना। कीजिए कि बचपन में आप किसी ऐसे ही बागीचे में पहुंचे हों, उन्मुक्त रूप से नदी में नहा रहे हों, डाल पर चढ़ कर आम तोड़ चुके हों और अब आम खाए जा रहे हों ...”
अपने जीवनकी सच्चाई बयान करते हुए वे यहाँ तक आ जाते हैं “.....जब मैं अठारह साल का हो चुका था। स्कूली सहपाठियों से कुछ गंदी आदतें सीख चुका था। सभी की तरह मेरा भी “ किसपेप्टिन हार्मोन" मुझे विपरीत लिंग अब आकर्षित करने लगा था। हस्तमैथुन जैसी गन्दी आदत भी लग गई थी। आगे चलकर समझ आने पर छूट तो गई लेकिन सेक्स के और भी अध्याय चल गये। अब ये बातें स्वीकार करने से मुझे कोई गुरेज नहीं है क्योंकि जीवन समापन पर है और कुछ लेकर ऊपर जाना नहीं चाहूँगा!"
"बड़ा होने पर मुझे गाँव की खेती- बारी कीज़िम्मेदारी भी आंशिक रूप से निभाने का दायित्व मिला। असल में मेरे पितामह गाँव का सारा दायित्व छोड़कर दादी के साथ काशीवास करने (काशी) चले गए थे और मेरे पिताजी को गाँव सम्भालन पड़ता था। गाँव जाना, वहां रहना और मजदूर- मजदूरनियों के साथ काम कराना कुछ दिन तो मुझे बड़ा अटपटा लगा। लेकिन धीरे -धीरे गाँव की छोरियों ने मुझे अपने आकर्षण में खींचना शुरू कर दिया । उनकी उन्मुक्त हँसी, उनकी सेक्स के प्रति उदारता, अपनी आतुरता.. सब कुछ तो कारण बनता गया था !तथाकथित सभ्य समाज में उन दिनों सेक्स के प्रति जो "टैबू" बनाकर रखा जाता उससे एकदम अलग का माहौल मिला और मेरे युवा मन पर एक फिल्मी गीत मचलनेलगा.....
"गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा, आ के यहाँरे......”
हालांकि प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी जी ने एक स्थान पर लिखा है कि वे प्रोफेशनल नहीं शौकिया लेखक हैं किन्तु उनका लेखन किसी भी मायने में कमतर नहीं आँका जा सकता। यह विद्या। लिखते-लिखते ही सधती है, और वे किशोरावस्था से लिख रहे हैं। हाँ, उनके लेखन से इतर, पुस्तक के प्रकाशन में कुछ सुधार की आवश्यकता अवश्य है। जितना ही महत्वपूर्ण लेखन होता है, उससे कुछ अधिक महत्वपूर्ण उसका प्रकाशन होता है। पुस्तक 136 पृष्ठों तक विस्तारित हुई है किन्तु ऐसा लगता है उसके पृष्ठों को पंक्तियों के बीच स्पेस बढ़ाकर कुछ खींचा गया है। पुस्तक 90 पृष्ठ के इर्द गिर्द में सिमट सकती थी। कई पृष्ठों पर पंक्तियाँ टूट कर, आधे वाक्य के साथ नीचे चली गई हैं जो जाहिर करती हैं कि इनके प्रूफ पठन में एकाग्रता की आवश्यकता थी। इसी प्रकार पुस्तक में पृष्ठ संख्या 39 और 40 दो बार आ गया है।यह प्रकाशक की भूल और प्रूफ शोधन में सुधार की आवश्यकता की तरफ इशारा करता है।तथापि, वर्तनी संबंधी इन त्रुटियों को नज़रअंदाज़ करके पुस्तक के कथ्य का आनंद उठाया जा सकता है। “
श्री सुधेन्दु ओझा आगे लिखते हैं - “आमी से गोमती तक” पठनीय वृत्तान्त है जिसमें गोरखपुर के पूर्वाञ्चल में ‘बैड लैंड’ बनने का हल्का ज़िक्र आया है। लेखक इसे यदि बढ़ा देते तो और अच्छा रहता। उन्होंने गोरखपुर में जातीय गुटबंदियों, शिक्षण संस्थानों पर उसके प्रभाव का भी हल्का सा इशारा भर किया है, इस पर एक-दो अध्याय बढ़ा कर पाठकों की जिज्ञासा को शांत किया जा सकता था।हरि शंकर तिवारी और वीरेंद्र साही की भी हिलती हुई परछाईं सदृश्य चर्चा हुई है किन्तु लगता है लेखक की रुचि उसे विस्तार देने में नहीं रही। कुल मिला कर पुस्तक पठनीय है।“
आज अपनी आत्मकथा के दूसरे खंड को लिखते हुए मुझे स्थापित साहित्यकार-पत्रकार श्री सुधेन्दु ओझा की इस टिप्पणी पर आत्मसंतोष का अनुभव हो रहा है कि मेरे लेखन को समाज ने किसी भी मायने मे कमतर नहीं माना है |मैंने निर्मल वर्मा की कही गई उस बात से उलट अपनी सोच रखते हुए अपना समूचा लेखन किया है जिसमें उन्होंने यह कहा है कि ” हमें उन चीजों के बारे में लिखने से अपने को रोकना चाहिए जो हमें बहुत उद्वेलित करती हैं | ”अपनी सोच तो यह है कि हम लेखकों को उन चीजों को अवश्य ही लिखना चाहिए जो किसी मनुष्य को बहुत उद्वेलित कर रही हों क्योंकि हो सकता है कि उसका पाठक भी उस दौर से गुजरे और तब अपना लेखन उसके लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है |ओझा जी की ही तरह गोरखपुर में मेरी भाभी वीणा त्रिपाठी ने भी मेरी आत्मकथा खंड एक के उन तथ्यों के बारे में (खासतौर से बचपन की कुछ गंदी आदतों को उल्लेख करने के संदर्भों पर ) अपनी बेबाक प्रतिक्रिया देकर मुझे खुशी प्रदान की थी कि बचपन या जवानी में तो ये सब होता ही रहता है !