उजाले की ओर –संस्मरण Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर –संस्मरण

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सभी पाठक मित्रों को

सस्नेह नमस्कार

कभी कभी हम व्यर्थ की बहस में पड़कर अपनी मानसिक व शारीरिक ऊर्जा का ह्रास करने लगते हैं | कभी-कभी नहीं, अक्सर हम ऐसा ही कर बैठते हैं, हम यही करते रहते हैं और जब क्षीण होने लगते हैं तब महसूस होता है कि हमने अपने बहुमूल्य जीवन का कितना समय इस सबमें नष्ट कर डाला है !

अच्छी -खासी पोस्ट से निवृत्त श्रीकांत एक बेहतर वक्ता, लेखक व सकारात्मक दृष्टिकोण वाले व्यक्तित्व हैं, जब तक वे अपनी कंपनी में कार्यरत रहे, सदा सबको सकारात्मक ऊर्जा देते रहे | उनके स्टाफ़ के कर्मचारी छोटी-बड़ी परेशानी आने पर सीधा उनके पास चले आते और न जाने वे उन्हें कैसे समझाते कि अपनी परेशानी लेकर आने वाला प्रत्येक जिज्ञासु अपने चेहरे पर मुस्कान लेकर ही लौटता |

यूँ तो हम सब इस दुनिया में आए हैं अथवा भेजे गए हैं तो हमें अपना जीवन अपने अनुसार, अपनी परिस्थितियों में रहकर जीना ही है लेकिन जीवन तब ही सार्थक है जब वह किसी के काम आ सके | इसके लिए हमें किसी को गा-गाकर समझाने की आवश्यकता नहीं है कि हम बेहतर हैं इसीलिए दूसरों की परेशानियों को अपना समझकर उन्हें समस्या का समाधान फटाफट ही दे देते हैं | नहीं, मित्रों, यह गुण भी हम सबको अपने जन्म से ही अन्य गुणों के साथ प्राप्त है, हम केवल अपने उस गुण को पहचानकर उसका सार्थक उपयोग करते हैं और हमारे पास अपनी समस्या लेकर आने वाला न केवल संतुष्ट वरन् सुकून पाकर लौटता है |

श्रीकांत अपने जीवन में सबके लिए बहुत उपयोगी बने रहे |अपने कार्यकाल में वे सबके लिए एक अलाउद्दीन का चिराग बने रहे। उनके सेवा निवृत्त हो जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में सबको उनका न होना अखरने लगा और अब वे अपनी समस्याओं के बारे में समाधान खोजने के लिए उनके घर तक पहुँचने लगे |शुरू-शुरू में श्रीकांत की पत्नी उनसे नाराज़ रहती थीं कि वे व्यर्थ में ही अपना समय व ऊर्जा दूसरों पर खर्च करते रहते हैं लेकिन शनै:शनै: वे भी समझ गईं कि उनके पति बिना किसी अपेक्षा अथवा उपेक्षा के समाज के लिए इतने उपयोगी बन चुके हैं जो वास्तव में गर्व करने की बात है और उन्हें सचमुच ही उन पर गर्व होने लगा |

किसी भी चीज़ में ना ही अपना राग अलापने की ज़रूरत होती है और न ही दूसरों के स्तर तक नीचे जाने की जरूरत होती है। मुस्काते हुए अपनी ऊर्जा को सकारात्मक प्रयासों में लगाना जीवन में उपलब्धि प्रदान करता ही है । हम यदि वह करें जो सम्यक रूप से हमारे मनोनुकूल हो तब हमें बेहतर परिणाम स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ।

ज़रूरी नहीं कि हम बरगद ओर पीपल के वृक्ष ही बनें, छोटे से गमले में लगाई गई तुलसी भी कम मूल्यवान नहीं होती है।

जरूरी केवल इतना है कि हम जीवन के किसी भी क्षेत्र से जुड़े क्यों न हों विवेकपूर्ण बने रहें और मुस्काते हुए गंभीरता से दूसरों की बात सुनें, अपनी बात अथवा विचार उन तक सहज रूप से पहुंचाने की चेष्टा करें जिससे प्रश्नकर्ता और उत्तर प्रदान करने वाला दोनों महत्वपूर्ण भूमिका अदा करें | स्थिर हाथों में दीपक भी सूर्य बन जाता है।

भारतीय लोक परम्परा में इस बात पर बल दिया गया है कि सेहत सबसे बड़ा सुख है। एक कहावत भी है पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया।* परन्तु आज जब हम सेहतमंद होते हैं तो अपने आप को जिसके लिए जोखिम में डाल रहे हैं उसके लिए मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रहना आवश्यक है । यहां प्रश्न स्त्री या पुरुष, कामकाजी या हाउस मेकर का नहीं है। अगर कोई हाउस मेकर है तो वह इस बात के लिए परेशान है कि घर का खाना, सफाई और न जाने क्या क्या करने में वह बेहद थक जाती है । बाहर काम करने वाली कामकाजी महिलाओं को घर-बाहर दोनों संभालने होते हैं। ये सब जरूरी है परंतु क्या इस सब के लिए अपनी सेहत को नजरअंदाज करना ठीक है? अगर हम वर्किंग हैं तो एक रेस लगी है पैसा कमाने की, प्रमोशन की, पहले एक फिर दूसरा फिर तीसरा ये गिनती कभी खत्म ही नही होती है। इससे हमारी व परिवार की, दोनों की मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की स्थिति पर ग़लत प्रभाव ही पड़ता है।

सेहत वो पूंजी है जो हमारा जीवन चलाने और कामयाबी पाने के लिए सबसे अहम है। मेहनत करने में कोई बुराई नहीं है, न ही कामयाबी पाने में। परन्तु ऐसी सफलता का हम क्या करेंगे जिसे खुशी खुशी सेहतमंद रहते हुए हम न भोग पाएं। मित्रों! यह एक चिंतनीय प्रश्न है। चलिए, इस पर विचार विमर्श करते हैं।

 

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती