भारत की रचना - 13 Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

भारत की रचना - 13

भारत की रचना / धारावाहिक

तेरहवां भाग 

उसे देखकर तो रचना के तो तन-बदन में एक सिहरन-सी उठकर रह गई. परन्तु रॉबर्ट भारत को निर्भीक अपने सामने खड़ा देखकर, जैसे खीझकर उससे बोला,

'आपकी तारीफ़?'

'भारत !.'

'भारत. . .? यानी अभिनेता मनोजकुमार?' रॉबर्ट ने व्यंग से पूछा.

'जी नहीं. साहित्य कुमार 'भारत' हूँ मैं. धानपुरा का धान और चावल बेचनेवाला भारत.'

'हमारे बीच में यूँ कूदने की मूर्खता?'

'मेरी नहीं, तुम्हारी है.'

भारत ने उत्तर दिया तो रॉबर्ट और भी अधिक झुंझला गया. वह तैश में आकर बोला,

'तुम्हारा कहने का मतलब?'

'यही कि, जब रचना को तुम्हारा यहाँ आना पसंद नहीं है, तो फिर मत आया करो. वैसे भी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत पढ़नेवाले एक हाई स्कूल की कक्षा के बिगड़े हुए छात्र को, यूँ डिग्री कॉलेज में आना कोई शोभा नहीं देता है.'

भारत ने थोड़ा व्यंग से कहा तो, रॉबर्ट और भी अधिक खीज पड़ा. वह क्रोध में आँखें निकालकर बोला,

'लेकिन, तुम्हें क्या परेशानी है?'

'मेरे सामने एक सीधी-सादी अबला को तंग करते हो, और मैं देखता रहूँ. . ., ये तो मुझसे सहन नहीं हो सकता है.'

 भारत ने कहा तो रॉबर्ट ने उसे धमकी दी. बोला,

'कुछ जानते हो कि, मैं कौन हूँ?'

'मैं इसकी आवश्यकता नहीं समझता हूँ.'

'इसीलिये तुम्हें सीख देता हूँ कि, मेरे रास्ते में न आओ तो तुम्हारे लिए बेहतर है.' रोबर्ट ने कहा.

तब भारत भी गम्भीर हो गया. वह भी कड़ककर बोला,

'तुम मुझे क्या सीख दोगे? जो खुद उससे नहीं सीख सका, जो तुम जैसे पापियों की खातिर सूली पर मर मिटा. जिसने एक गाल पर थप्पड़ खाने के पश्चात भी नम्रता दिखाई और जिसने अपनी सारी ज़िन्दगी में किसी स्त्री को छुआ भी नहीं, उसी यीशु नासरी के अनुयायी होकर, तुम सीधी-सादी लड़कियों पर ज़ोर आजमाइश करके, अपने आपको सूरमा समझने लगे हो?'

'?'- तब रॉबर्ट और भी अधिक भभक गया. क्रोध में उसने भारत को आदेश दिया,

'मुझे भाषण मत दो. बस इतना याद रखो कि यदि मुझसे टकराओगे, तो मुक्तेश्वर में तुम्हारी परछाईं भी नज़र नहीं आ पायेगी.'

'ज्यादा अपने आपको भगवान मत समझ बैठना. मैं अगर अपनी पर आ गया तो, इस मिशन कॉलेज तो क्या, तुम्हारी आंटी लिल्लिम्मा जॉर्ज के हॉस्टल में घुसने भी नहीं दूंगा.'

'तो ठीक है, तेरा भी हिसाब-किताब जल्दी ही करना पड़ेगा.'

रोबर्ट ने चेतावनी दी, तो रचना तुरंत ही बीच में आ गई. वह भयभीत होते हुए बोली,

'भारत, प्लीज उसके मुंह मत लगो.'

'मुंह न लगूं ? सरेआम कॉलेज में भोली-भाली लड़कियों के इर्द-गिर्द मंडलाता रहेगा- जाने क्या समझता है, अपने आपको?'

भारत ने रचना से कहा तो, रोबर्ट बोला,

'जल्दी ही पता चल जाएगा तुझको कि, मैं अपने आपको क्या समझता हूँ ?'

'अरे हां, जब पता चलना होगा, तब देखा जाएगा. अभी तो जा यहाँ से.'

'हां, जाता हूँ. मैं देख लूंगा तुझे?' यह कहकर रोबर्ट जाने लगा तो भारत खिसियाकर बोला,

'जा. . .जा, बहुत आया देखनेवाला.'

       तब रोबर्ट के जाने के पश्चात रचना और भारत खामोश खड़े रहे. गम्भीर, मौन और बहुत ही स्थिर-से. फिर थोड़ी देर की खामोशी के पश्चात रचना ने ही बात आरम्भ की. वह भारत के पास आकर बोली,

'आपने क्यों उससे तकरार कर ली? वह अच्छा व्यक्ति नहीं है?'

'वह आये दिन, जब देखो तब आपको हैरान करता रहता है?'

तो करने देते. मैं तो वैसे भी ऐसी बातों की आदी हो चुकी हूँ. इस बार भी अपने आपको असहाय समझकर सहन कर लेती.'

'आप सहन करती रहतीं और मैं चुपचाप देखता रहता? यही कहना चाहती हैं आप?' भारत ने कहा तो रचना एकदम ही खामोश हो गई. वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सकी. तब भारत ने बात आगे बढ़ाई. वह बोला,

'देखिये, रचना जी, ऐसा कब तक चल सकता था? आखिरकार किसी-न-किसी को तो आगे आना ही था?'

'फिर भी आप. . .? 'मैं. . .?'

'आप क्यों बीच में आ गये?' सहसा ही रचना के मुख से निकल पड़ा तो भारत कुछ देर सोचकर बोला,

'चलिए, यदि मैं नहीं बीच में आता, तो कोई और भी आ सकता था?'

'वह कैसे?'

'आप अपने ईश्वर अर्थात ईसा मसीह पर विश्वास रखती हैं?'

'जी हां.' रचना बोली.

'तो वह मेरी जगह किसी अन्य को उस जंगली की बदतमीजियों से बचाने के लिए भेज देते.'

'?'- खामोशी.

भारत के इस कथन पर रचना फिर कोई उत्तर नहीं दे सकी. केवल गुमसुम, चुपचाप नीचे धरती की ओर निहारती रही. उसकी मनोदशा को भांपकर भारत ने उसे टोका. वह बोला,

'क्या सोचने लगी हैं आप?'

'जी. . ., कुछ भी तो नहीं.'

'कुछ तो. . .आप तो अचानक ही गम्भीर हो गई?' भारत ने कहा तो रचना बोली,

'इस प्रकार से आपको क्या प्राप्त हो सकेगा- सिवा इसके कि मेरी बदनामी के छींटे आपके दामन को भी दागदार बना दें.'

'लेकिन, मैं इसकी परवा नहीं करता.'

'वह क्यों?'

'वह इसलिए कि, आप जैसी देवी-स्वरूप लड़की की इस सत्य और न्याय की लड़ाई में, यदि मेरे सारे जीवन पर भी बदनामी और कलंक का टीका लगता है, तौभी यह सौदा मंहगा नहीं होगा. मैं जो कुछ भी करता हूँ, वह सदा सोच-समझकर ही करता हूँ.'

'?'- इस पर रचना सोचे बगैर नहीं रह सकी. उधर भारत भी खामोश हो चुका था और दोनों के मध्य बड़ी देर तक खामोशी एक तीसरे अनदेखे, बजूद के समान, अपना अस्तित्व बनाये रही. तब काफी देर की खामोशी के पश्चात रचना की ओर देखते हुए भारत ने कहा,

'आप बड़ी जल्दी ही खामोश हो जाया करती हैं?'

'खामोशी, मेरे जीवन की साथी है. फिर, इस समय तो मैं कुछ सोच रही थी.'

'सोच रही थी, वह क्या?' भारत ने पूछा.

'सोच रही थी, कि आप कितने दिनों से गायब रहे, फिर अचानक ही आ गये. फिर भेंट भी हुई तो ऐसे समय पर, जबकि रॉबर्ट मुझको तंग कर रहा था.'

रचना ने कहा, तो भारत गम्भीर होकर बोला,

'हां, यह तो है. मैं आज ही आया हूँ. आपको शायद मालुम न हो, कि मेरे पिता का अचानक ही निधन हो गया है. मां, पहले किनारा कर चुकी थीं. कोई अतिरिक्त भाई-बहन भी नहीं हैं. घर पर सब ही खेती-बाड़ी यूँ ही पड़ी हुई है. अब तो मुझे ही सब देखना होगा. सारा-कुछ नौकरों पर छोड़कर आया हूँ. एक इच्छा थी, 'थीसिस' लिखने की, इसीलिये कॉलेज में प्रवेश लिया था, पर अब लगता है कि वह भी पूरी न हो सके. गाँव में, इतनी सारी खेती-चौपाये और घर इत्यादि को संभालने वाला कोई भी नहीं है. अब तो लगता है कि, मैं जैसे अनाथ हो चुका हूँ.'

भारत ने कहा तो रचना भी गम्भीर हो गई. वह बोली,

'आप अपने-आपको अनाथ क्यों कहने लगे? कम-से-कम आपके नाम के आगे आपके जन्म देनेवाले का कोई नाम तो चलता है. मैं तो इस लायक भी नहीं हूँ. कौन हूँ? कहाँ से आई? किसने जन्म दिया? ये सारे प्रश्न दुनियां वालों की आँखों में और मेरे साथ हमेशा चिपके रहते हैं.'

रचना की इस दर्द और दुःख भरी बात पर भारत ने उससे हमदर्दी दिखाई. वह बोला,

'चलिए, अब तो हम दोनों एक ही पथ के राही हो गये. आपके पास मां-बाप नहीं हैं, तो मैं भी बिना मां-बाप का हूँ. आप अकेली तो अब मैं भी अकेला, हो सकता है कि, हम लोग एक-दूसरे का दुःख बाँट सकें.'

       तब रचना खामोश हो गई.

साथ ही, भारत भी चुप हो गया. तभी थोड़ी देर में कॉलेज के घंटे ने वहां के वातावरण की खामोशी भंग कर दी. तो दोनों ही चेत भी गये. कॉलेज का अंतिम पीरियड आरम्भ होने की सूचना थी. इस पर रचना कक्षा में जाने के लिए मुड़ी, परन्तु भारत अपने ही स्थान पर खड़ा रहा. तब रचना ने उसको एक संशय से निहारते हुए, आश्चर्य से पूछा,

'आप कक्षा में नहीं चलेंगे क्या?'

'जी. . .नहीं.' भारत ने मना किया तो रचना बोली,

'क्या मैं जान सकती हूँ, कि इसका कारण क्या है?'

'वह इसलिए कि मुझे आज ही वापस जाना है. मैं तो केवल अपनी छुट्टियों के सिलसिले में ही आया था. घर पर सबकुछ अस्त-व्यस्त-सा पड़ा हुआ है. मुझे जाकर सब ठीक करना होगा. फिर बाद में, मैं वापस आऊँगा. यदि ये पीरियड ले लिया तो मेरी आख़िरी बस भी छूट जायेगी.'

'?'- तब रचना जैसे उदास होकर बोली,

'कितने दिनों के बाद तो आप आये हैं और आज ही वापस भी जा रहे हैं? आप क्या जानें कि, मैं आपकी प्रतीक्षा किसकदर रोज़ ही करती थी?'

'मेरी प्रतीक्षा. . .?' भारत ने कहा, तो सहसा ही रचना को ख्याल आया कि, वह भावावेश में जाने क्या-क्या कह गई है? इसलिए भारत के उत्तर में वह केवल अपना सिर झुकाकर ही रह गई.

तब भारत रचना से बोला,

'रचना जी, सचमुच मुझे यह आभास नहीं था कि, यहाँ कोई मेरे वापस आने की प्रतीक्षा करता होगा? यदि जानता होता तो, शायद इतने दिन कभी-भी नहीं लगाता. पर क्या करूं? सचमुच मुझे आज ही वापस जाना है. वैसे कोशिश करूंगा कि शीघ्र ही सारे कार्यों को पूरा करके वापस आ जाऊं.'

इस पर रचना जैसे और भी गम्भीर हो गई. वह उदास होकर फिर आगे बोली,

'ठीक है, आप आराम से जाइए. मैं अपने परमेश्वर से प्रार्थना करूंगी कि, वह आपको जीवन की हरेक राहों में सभी खतरों से महफूज़ रखे. मैं समझती हूँ कि, इंसान की ज़िन्दगी की चाहतों का शायद यही हश्र होता है कि आरजू से पहले कुछ नहीं और हजार मिन्नतों के बाद भी जब तक मिलता है, तब तक झोली में सैकड़ों छेद भी हो चुके होते हैं.'

कहते-कहते रचना की आँखें नम हो गईं, तो भारत ने आश्चर्य से कहा कि,

'रचना. . .जी, आपकी आँखें?'

'हां, अक्सर ही भर आती हैं. न मालुम क्यों?'

'आप बहुत भावुक हो रही हैं?' भारत ने कहा.

'शायद जीवन को बहुत ही करीब से, आहिस्ता से देखती रहती हूँ मैं? इसलिए जल्दी ही भावुक हो जाया करती हूँ.' रचना ने कहा तो भारत बोला,

'मेरा ख्याल है कि, दर्द और दुःख का दूसरा नाम मानव-जीवन है. मैं आपके इस दुःख को जानता ही नहीं, बल्कि महसूस भी करने लगा हूँ. मैं, आपसे कोई वायदा तो नहीं करता, बल्कि विश्वास जरुर दिलाता हूँ, कि आपकी बातों और व्यक्तित्व ने मुझे बहुत ही अधिक प्रभावित किया है, इसलिए जीवन में कभी-भी आपको मेरी कोई भी आवश्यकता पड़ जाए, तो मुझे आवाज़ दे देना. केवल आवाज़. यदि मैं आपके कोई काम आ सका, तो अपने-आपको धन्य समझूंगा.'

       भारत की ऐसी विश्वासभरी बातों को सुनकर रचना मन-ही-मन गद्गद हो गई. तब वह स्वत: ही होठों में बुदबुदा गई,

'तुम क्या जानो भारत? मैं तो तुम्हें अब हर पल ही आवाज़ देती रहती हूँ. अंतर केवल इतना है कि, मेरी इस सदा को तुम न जाने कब समझोगे? शीघ्र ही समझ जाओ, तो कितना अच्छा होगा- कितना भला?'

'?'

रचना की इस खामोश मुद्रा को भारत ने देखा तो चौंक गया. वह आश्चर्य से उसके चेहरे के भाव पढ़ते हुए रचना से बोला,

'आपने कुछ कहा है?'

'अभी तो नहीं, पर कहनेवाली थी.'

'वह क्या?'

'यही कि, आप आराम से अपने गाँव जाइये. सब कुछ व्यवस्थित करिये और शीघ्र ही कॉलेज वापस आइये. वैसे भी आपकी पढ़ाई का कितना हर्ज़ा हो चुका है?'

       रचना ने कहा तो भारत उसकी झील-सी गहरी उन आँखों में देखता ही रह गया, जहां पर उसकी तस्वीरों के बिम्ब रचना ने जैसे सदा के लिए कैद कर लिए थे. तुरंत ही उसे महसूस होने लगा कि रचना की इन आँखों में सचमुच ही, उसके अपने चित्रों के अतिरिक्त और भी कई तरह के चित्र विद्दमान थे- और ये चित्र थे प्रतीक्षा, आस और प्यार की अनकही आरजुओं के- लेकिन, दोनों में शायद ये किसी को भी नहीं मालुम था कि, प्रतीक्षा के ये दीप कभी जलेंगे भी? मुहब्बतों की दुनियां में छटपटाती हुई ढेरों-ढेर आशाएं, कभी वास्तविकता के धरातल पर आकर स्थिर भी हो सकेंगी, या फिर उम्मीदों की डोरी में पिरोई हुई, प्यार की आसभरी कड़ियाँ एक-एक करके बिखरती हुई सदा के लिए कहीं गुम हो जायेंगी?

       इसके पश्चात भारत, रचना के पास अधिक देर नहीं रुक सका. यूँ, भी उसकी बस का समय हो रहा था; सो वह रचना को दोबारा शीघ्र ही कॉलेज वापस आने की बात कहकर वहां से चला आया और रचना उसको तब तक जाते हुए देखती रही, जब तक कि, वह कॉलेज की सरहदों से निकलकर सड़क पर चलती हुई भीड़ में कहीं छुप नहीं गया.

-क्रमश: