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भारत की रचना - 6

भारत की रचना / धारावाहिक / छटवां भाग

दूसरा दिन रविवार था।

छुट्टी का दिन-काॅलेज बंद- मुक्तेश्वर के मुख्यतः सब ही बाजार बंद थे। अभी सुबह की मधुर उषा में प्रातः की चिड़ियों ने चहकना और बोलना आरम्भ ही किया था, अस्पताल के अधिकांशतः मरीज अभी भी उनींदा हालत में थे, परंतु फिर भी अन्य कर्मचारियों और बाहर के आने वाले लोगों की हल्की चहलकदमी आरंभ हो चुकी थी। रचना भी अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। वह जाग तो रही थी, परंतु फिर भी जैसे सोई-साई-सी अवस्था में ही थी।

तभी राॅबर्ट जार्ज ने उसके वार्ड में प्रवेश किया। प्रवेश करने से पूर्व उसने जली हुई सिगरेट को वहीं वार्ड के दरवाजे से मसलकर बुझाया, फिर एक बार अपने आस-पास निहारा, तब वह दूर से ही रचना के बिस्तर को पहचानकर उसकी तरफ बढ़ गया। रचना ने उसको अपनी ओर आते देखा, तो देखकर वह उसे पहचान तो गई, लेकिन फिर भी उसकी ओर से वह अनदेखा करके दूसरी ओर देखने लगी।

'अरे! रचना, क्या हुआ तुमको? मैं तो घबरा ही गया था, अचानक ये सुनकर कि तुम अस्पताल में हो?' वह अस्पताल के वार्ड में अपने बिस्तर पर बेबस पड़ी हुई रचना को देखते हुए बोला, तो रचना ने भी उसकी ओर एक क्षण देखकर अपना मुंह घुमा लिया।

रचना का इस प्रकार का व्यवहार देखकर राॅबर्ट थोड़ा चौंका तो अवश्य, पर उसने कोई विशेष आश्चर्य भी नहीं किया। शायद वह रचना के इस प्रकार के व्यवहार से, जो मुख्यतः उसके लिए होता था, पूर्व परिचित था। वह वहीं पास में पड़ी हुई कुर्सी को घसीटता हुआ, फिर उस पर बैठता हुआ रचना से बोला कि,

'अब ऐसी भी बेरुखी क्या? मैं तो इंसानियत और दोस्ती के नाते तुम्हारा हाल-चाल पूछने आया हूं और तुम हो कि जो मुझसे हरदम खफा ही रहा करती हो?’

राॅबर्ट के स्वरों में शिकायत पाकर तब रचना ने उससे बड़े ही विक्षिप्त भाव से कहा कि-

'मैं भला तुमसे नाराज हाने वाली होती भी कौन हूं?’

'क्यों! तुम्हें तो पूरा-पूरा अधिकार है। अब ये सामान्य-सी बात है कि कोई अपना ही तो अपनों का दर्द समझ सकेगा।’

राॅबर्ट बोला तो, रचना पहले तो चुप ही रही, फिर कुछ सोचकर वह उससे बोली कि,

'ये दुनिया इस कदर संगदिल है कि यहां पर कोई भी मेरा अपना नहीं होता है। मैं तो नितांत अकेली हूं- बिल्कुल अकेली, न कोई मेरा है, और न ही मैं किसी की हूं। मैं तो अकेली आई थी और अकेली ही किसी दिन चली भी जाऊंगी।’

'कैसी उखड़ी-उखड़ी दिल तोड़ने वाली बातें करती हो? अब यदि बीमार हो, तो क्या मस्तिष्क भी बदलने लगा है तुम्हारा?’

राॅबर्ट ने रचना की बात सुनकर उत्तर दिया, तो रचना जैसे और भी अधिक बिफर पड़ी। वह उससे बोली कि,

'मैं बीमार क्या हो गई कि लोगों ने तो तमाशा ही बना डाला। इससे अच्छा तो मर ही जाती।’

' ?'- रचना के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात को सुनकर राॅबर्ट और भी अधिक चौंक गया। वह उससे और भी सहानुभूति दर्शाता हुआ तुरंत ही बोला,

'मरें तुम्हारे शत्रु। अपने को क्यों इतना अकेला, बेबस और बेसहारा-सा समझती हो? मैं जो हूं तुम्हारे साथ। भला सोचो कि मैं तुमको यूँ आसानी से मरने दूंगा क्या?’

'जब बुलावा आएगा, तो फिर मेरे पास भी फटकने तक नहीं पाओगे तुम।’

रचना के इस कथन पर, राॅबर्ट पहले से संभलकर बैठा, फिर उससे बड़ी ही गंभीरता से बोला कि,

'अब, देखो रचना, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि मैं तुम्हारी खातिर क्या-क्या कर सकता हूं, वरना करना तो मैं बहुत कुछ चाहता हूं, तुम्हारे लिए। मगर क्या करूं मैं, तुम्हारी इजाज़त मिले तब न?'

'?'-

राॅबर्ट की इस प्रकार की बात को सुनकर, रचना बीमार होते हुए भी अपने बिस्तर पर तुरन्त ही उठकर बैठ गई। फिर जैसे उससे चिढ़कर बोली कि-

'मेरी इजाज़त से क्या मतलब है तुम्हारा? बगैर किसी भी कारण के वैरागिन बनकर तुम्हारा नाम जपने लगूं क्या?’

'देखो, तुम फिर से नाराज़ होने लगीं। मैं तो तुम्हें बीमार समझकर केवल देखने आया था?’

'नाराज़गी की क्या बात है? हाॅस्टल में इतनी ढेर सारी और भी लड़कियां रहती हैं, उनमें से केवल एक मैं ही मिली थी तुमको, इस तरह से सताने के लिए?’

रचना के इस प्रकार से कहने पर राॅबर्ट भी गम्भीर हो गया। वह जैसे क्षुब्ध होकर उससे बोला,

'तो क्या मैं तुम्हें सताता हूं?’

'और नहीं तो क्या? हाॅस्टल में, काॅलेज में, चर्च में, सण्डे स्कूल में, और तो और यहां भी अस्पताल में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। जब देखो तब ही चुम्बक के समान ही मेरे पीछे ही चिपके रहते हो।’

उसकी इस बात पर राॅबर्ट का मूड जैसे और भी खराब हो गया। फिर कुछेक क्षणों के पश्चात् वह अपने स्थान से उठते हुए रचना से बोला-

'अच्छा, अब और नाराज़ मत हो। मैं चलता हूं। बस तुम जल्दी से ठीक हो जाना।’

ये कहकर वह वहां से जैसे ही निकला, तब ही रचना की सहेली ज्योति भी आ गई। रचना ज्योति को देखकर, जैसे तुरंत ही पुलकित हो गई। उसके चेहरे पर कोई मुस्कान तो नहीं आई, पर हां एक तसल्ली के भाव अवश्य ही आ गए थे। चूंकि, ज्योति ने राॅबर्ट को रचना के पास से बाहर जाते हुए देख लिया था, सो रचना के पास आते ही वह उससे पूछ बैठी,

'ये क्यों आया था यहां?’

ज्योति के कथन पर रचना गंभीर हो गई। उसने तुरंत तो कुछ नहीं कहा, लेकिन थोड़ी देर गंभीर रहने के पश्चात् उसने खुद ही ज्योति से प्रश्न कर दिया। बोली,

'तुझे नहीं मालूम क्या? मेरा दिमाग खाने के लिए।’

रचना के स्वरों में कड़वापन महसूस करके, ज्योति उससे तनिक मुस्कराकर जैसे व्यंग्य में बोली,

'अच्छा! कितना खा गया वह। कुछ बचा भी है तेरे पास?’

'कुछ नहीं बचा है। सारा खा गया है वह।’ रचना ने खीझभरे स्वर में उत्तर दिया, तो ज्योति ने पुनः व्यंग्य किया। वह बोली,

'चल मत चिंता कर। खा गया है तो खा जाने दे। वह तो फिर से भर जाएगा। ये बता कि तू अब कैसी है?’

'देख तो रही है कि, मैं कैसी हूं?’ रचना बोली।

'वह तो ठीक है। मैं देख तो रही हूं। मेरा मतलब है कि अस्पताल से आजाद होने के कोई चान्स हैं क्या?’ ज्योति ने पूछा तो रचना ने जैसे सूखा-सा उत्तर दिया-

'पता नहीं।’

रचना के इस उत्तर पर, ज्योति ने आश्चर्य से उसके ही शब्द दोहरा दिए-

'पता नहीं, क्या मतलब?’

तब रचना खामोश हो गई। इस पर ज्योति ने बात आगे बढ़ाई। वह बोली कि-

'तुझे मालूम क्या है?’

'कुछ भी नहीं। तू बता मुझे?’ रचना ने कहा।

'क्या बताऊं ?' ज्योति बोली।

'भारत कहां है ?’

'?'- खामोशी.

रचना की इस बात पर ज्योति की जैसी पुतलियां फैल गईं। उसने रचना को एक बार गंभीरता से निहारा, उसे परखना चाहा, फिर थोड़ा सोचने के पश्चात् वह हल्की मुस्कान के साथ उससे व्यंग्य में बोली कि,

'क्या दवाओं का असर कुछ अधिक हो गया है तुझ पर? भारत में तो है, मगर फिर भी पूछती है कि 'भारत’ कहां है ?’

ज्योति के इस कथन पर रचना पलभर को गंभीर हो गई। फिर कुछेक पलों की खामोशी के पश्चात् वह ज्योति से बोली-

’अब तू भी बहुत मजाक करने लगी है मुझसे क्या ?’

'चल नहीं करती।’

'तो बताती क्यों नहीं है, कि ’वह’ कहां है ?' रचना बोली, तब ज्योति ने उसे बताया। वह बोली कि,

'वह, अभी तक वापस नहीं आया है। सुनने में आया है कि उसने अपनी छुट्टियां बढ़ा ली हैं- शायद उसके घर में किसी की मृत्यु हो गई है?’

’ऐसा मत बोल।’ रचना ने उसको अचानक ही टोक दिया, तो ज्योति उससे बोली कि

'ले जब बताती हूं, तो तुझे परेशानी, और यदि न बताऊं तो मेरी आफत किए रहती है।’

'उसे इतनी देर क्यों लग रही है ?’ रचना ने बात का उत्तर न देकर, अगला प्रश्न किया, तो ज्योति ने उसको तुरंत ही उत्तर दे दिया। उसने कहा कि-

'उसे देर नहीं लग रही है। वह तो समय पर आ ही जाएगा, लेकिन परेशानी तो तुझको है, इस कारण तेरी परेशानी में उसकी देर का कारण शामिल है।’

ज्योति के इस संशय से भरे उत्तर को सुनकर रचना बोली कि-

'जब किसी दिन तुझ पर बीतेगी, तब तू समझेगी, तब तू समझेगी कि देर और प्रतीक्षा क्या होती है?’

'अरे, ऐसा मत बोल। मुझ जैसे चिकने घड़े पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। यहां तो कोई मिलता है, तो अच्छी बात है, वरना अपना काम करे- मैं ठहरी अपने मन की रानी।’

तब रचना कुछ नहीं बोली। वह चुप ही रही। उसको चुप देखकर ज्योति ने उसे जैसे फिर से छेड़ा। वह मुस्कराते हुए बोली,

'चल एक बात बताएगी तू मुझे ?’

'वह क्या ?’

' यदि कल को भारत वापस आ गया और उसे पता चला कि, तू यहां अस्पताल में है, तब क्या मैं उसे यहां ला सकती हूं ?’

’?’-

इस पर रचना कुछ भी नहीं कह सकी। वह केवल शर्माकर एक हल्की मुस्कान के साथ अपना सिर ही झुकाकर रह गई। ज्योति ने जैसे उसकी चोरी पकड़ी। वह उसकी मनोदशा को भांपकर, उसे छेड़ते हुए बोली-

’अरे! इतना गहरा असर हो चुका है, तुझ पर। अब शर्माने भी लगी है तू ?’

रचना तब भी कुछ नहीं कह सकी, तो ज्योति उसके पास आकर बैठ गई। उसके बिस्तर पर ही फिर उसके कंधों पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बहुत ही गंभीरता से बोली-

'देख रचना, मैं तेरे मन की दशा और तेरे हालात सब ही को खूब अच्छी तरह से समझती ही नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों से महसूस भी करती हूं। तेरा तो कोई भी नहीं है, मैं वायदा करती हूं कि कम-से-कम मैं इस बारे में तेरी पूरी-पूरी सहायता करूंगी।’

ज्योति ने ऐसा कहा तो रचना एक पंख कटे हुए पक्षी के समान उसके कंधे पर अपना सिर रखकर सिसक पड़ी। सिसक पड़ी तो आंखों में आंसू भी आ गए- प्यार और विश्वास के आंसू, जो कि किस्मतवालों को बड़ी ही मुद्दतों के बाद प्राप्त हो पाते हैं। रचना के इन आंसुओं में उसके जीवन का वह दर्द था, जिसे वह न किसी से कह सकती थी, और न ही किसी के साथ बांट सकती थी। उसके बदन पर लगा हुआ ये वह दाग था, कि जिसे देख तो सब सकते थे, परंतु मिटाने का हल किसी के भी पास नहीं था। अपने देश, भारत की मातृभूमि पर ऐसी कितनी ही ’रचनाएं’ आज भी मिल जाएंगी, जो अभी तक ममता से दूर, पैतृत्व की प्यासी और अपने तथा अपने घर-बार को तरसतीं, किसी सहारे की आस में, अपने जीवन का मार्मिक चित्र प्रतिदिन ही प्रस्तुत किया करती हैं।

'हिम्मत से काम ले। साहसी और वीर बन। आज का युग ’चांद बीवी’ और ’झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ बनने का है, सती सावित्री बनने का नहीं।’

ज्योति ने रचना को सांत्वना दी, तो वह कुछ सामान्य हो गई। उसने धीरे से अपने आंसू पोंछे, फिर वह ज्योति की आंखों में देखती हुई, भरे गले से बोली-

'एक तू ही तो है मेरे लिए, जिससे मैं अपना दुःख-सुख कह लेती हूं।’

'तभी तो कहती हूं कि अपने को हताश मत किया कर, अकेला मत समझ, मैं जो हूं तेरे साथ। ये ठीक है कि मैं तेरे मां-बाप का स्थान तो नहीं भर सकती हूं, पर मित्र बनकर तेरे जीवन के साथ-साथ चल तो सकती हूं। मैं हमसफर न सही, पर हमकदम तो हूं।’

ज्योति ने उसे समझाया, तो रचना थोड़ा-सा सामान्य हो गई। तभी हाॅस्टल की आया, उसके लिए सुबह का नाश्ता आदि लेकर आई, तो ज्योति ने रचना से कहा कि,

'अच्छा अब थोड़ा खा-पी ले। वैसे तू अब पहले से बहुत ठीक दिख रही है। मैंने डाॅक्टर से बात की थी, वे कह रहे थे कि, दिन-रात खाली पेट रहने के कारण तुझे इन्फैक्शन लग गया था। इसी सबब से तुझे बुखार और कमजोरी आ गई थी। अब अपना ध्यान रखना और खाना-पीना समय से खाना। मुझे आशा है कि आज तुझको अवश्य ही छुट्टी मिल जाएगी।’

तब बाद में ज्योति ने रचना को नाश्ता इत्यादि कराया, उसका बिस्तर ठीक किया। बच्चों के समान उसके कपड़े बदले, सुबह की दवा खिलाई, फिर समझा-बुझाकर शाम के समय पुनः आने की बात कहकर चली आई।

कुछेक दिन और व्यतीत हो गए।

लगभग एक सप्ताह से अधिक दिन यूं ही गुजरते चले गए। रचना स्वस्थ हो गई। अस्पताल से उसे छुट्टी मिल गई। वह अपने हाॅस्टल में वापस आ गई। इतने दिनों तक शरीर और मन दोनों ही से बीमार रहने के कारण, वह कुछ दुबली अवश्य हो गई थी, लेकिन डाॅक्टर ने उसको पूरी तरह से स्वस्थ बना दिया था।

उधर काॅलेज में भारत अभी तक घर से वापस नहीं आया था। उसकी अनुपस्थिति के कारण रचना का दिल और भी टूट गया था। टूट गया था, इसलिए कि इतने दिनों की घोर प्रतीक्षा के उपरांत भी भारत का वापस आने का कोई भी संकेत नहीं मिला था। मन से दुखी थी, इस कारण कि अस्पताल से आजाद होने के बाद भी काॅलेज जाने की कोई भी उमंग और लालसा उसके पास नहीं थी। एक भारत की आस थी, तो वह भी अभी तक काॅलेज नहीं आया था। भारत के द्वारा इतने दिनों अनुपस्थिति, जैसे बगैर किसी भी बात के उसकी पलायनता का संकेत देने लगी थी। इस कारण से रचना और भी अधिक चिंतित हो गई थी। उसे मालूम था कि जब काॅलेज में भारत ही नहीं होगा, तो वहां उसका मन भी नहीं लगेगा। रचना की चिंता का एक कारण ये भी था कि भारत आरम्भ के दिनों में काॅलेज आकर वापस चला गया था, ये भी संभावना थी कि अब वह शायद कभी भी वापस ही न आए। हो सकता है कि उसको यहां का काॅलेज अच्छा ही न लग सका हो। वह सोचती थी कि न मालूम क्या बात हो? कहीं उसने काॅलेज में अपनी पढाई छोड़ न दी हो? यदि वह वापस नहीं आया तो फिर वह क्या करेगी? यदि नहीं आया तो फिर उसकी कभी भेंट नहीं हो सकेगी। भेंट ही नहीं होगी, तो फिर वह क्या करेगी? उसका क्या होगा? क्या वह इसी प्रकार से प्रतिदिन उसके वापस आने की आस लगाकर सारी जिंदगी बेबसी और मायूसी के आंसू बहाती रहेगी? उसका प्यार अधूरा रह जाएगा-उसके प्यार की कहानी, जो कभी समाप्त न होकर केवल अधूरी ही रह जाएगी। उसके दिल के सारे अरमान टूटकर केवल खाक में ही मिलते रहेंगे। मिन्नतों के सहारे, न जाने कब तक वह अपनी आरजुओं को तलाश करती रहेगी? ’भारत’ के बिना तो उसकी ’रचना’ का कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसकी गैर-मौजूदगी में उसका अपना कोई भी निजी महत्व तक नहीं है। बिन मांझी की नाव, बसेरे से दूर भटके हुए पंछी, बिना साथी के यात्रा और स्वर के बिना जिस तरह संगीत का कोई महत्व नहीं है; ठीक इसी प्रकार से ’भारत’ के बगैर उसकी ’रचना’ का कोई महत्व नहीं हो सकता है। प्रेम के बिना प्रेमी का क्या कोई अस्तित्व भी हो सकता है? शायद कुछ भी नहीं-नहीं; तो फिर भारत के बिना रचना भी कुछ नहीं है।

क्रमश:

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