भारत की रचना - 2 Sharovan द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भारत की रचना - 2


भारत की रचना - धारावाहिक -

दूसरा भाग


और इस तरह समय की दीवारें बढ़ती रहीं। अतीत की हरेक याद समय की नई-नवेली पत्तों के बीच स्वतः ही बंद होती गई। कितने ही मौसम बदल गए। पलक झपकते ही तारीखें हफ्तों में, फिर महीनों में, और महीनों से वर्षों में परिणत होती चली गईं। इस समय संसार में न जाने कितने ही नए कमसिन पुष्पों ने जन्म ले लिया और न जाने कितने ही लोग समय-असमय उठकर इस संसार से सदा को चले भी गए। लगता था कि जैसे एक पूरा युग समाप्त हो चुका था। दीनानाथ चर्च की पास्टरी से बूढ़े होने के कारण अब सेवानिवृत्त हो चुके थे। मुक्तेश्वर के चर्च में किसी दूसरे पास्टर ने अपना कार्यभार संभाल लिया था। श्रीमती राय की कब्र पक्की कर दी गई थी। जब से वे इस दुनिया से गई थीं, तब से अब तक न जाने कितने ही लोग, बच्चे, बूढ़े, स्त्री, युवा आदि उनकी कब्र के आस-पास आकर सदा को सो चुके थे। कितनी ही सारी नई अधपक्की, संगमरमरी और कच्ची कब्रें उनके चारों ओर अपने जिए हुए दिनों की यादों को दोहरा रही थीं, ये इस बात का ठोस प्रमाण थीं कि मानव जीवन का परिवर्तन, उसके जन्म के पश्चात् कितनी ही शीघ्रता से हो जाता है, किसी को कुछ पता भी नहीं होता है। जब भी अतीत की स्मृतियों को दोहराओ, तो लगता है कि जैसे ये तो कल की बात है; परंतु जब बीते दिनों के सारे पृष्ठों को एक क्रम से जोड़ना आरम्भ करो, तब ख़्याल आता है कि जैसे मनुष्य-जीवन का एक युग बीत चुका है-हम कहां से चले थे और कहां पर आकर ठहर गए हैं? मनुष्य का जीवन जो इस संसार में मात्र एक भौतिक कण से ही आरंभ होता है और जिसमें परमेश्वर की आत्मा को विराजमान करके उसे ज़िंदगी की सांसें दी जाती हैं, इस संसार के जीवन-पथ के चक्र पर चलते एक दिन फिर धूल के कण में परिणत होकर समाप्त हो जाता है; परंतु परमेश्वर के द्वारा दी जाने वाली आत्मिक आत्मा मानव-जीवन के शरीर की समाप्ति के पश्चात् पुनः परमेश्वर के पास वापस लौट जाती है, अब इस आत्मिक जीवन को मनुष्य हमेशा के लिए सुरक्षित रखे, अथवा नहीं, ये उसके अपने व्यक्तिगत निर्णय की बात है।

जीवन के इन्हीं दैनिक कार्यनामों के हर समय बदलते हुए रंगों के सहारे रचना भी नन्हीं कली से पनपकर फूल बनकर मुस्कुराने लगी। सत्रह वर्षीय रचना अब एक अबोध और मासूम कली न रहकर वयोसंधि के स्थान पर ठहरकर अपने भावी जीवन के सुनहरे सपने देखने लगी। अनाथालय की ओर से उसकी शिक्षा अभी तक जारी रखी गई थी। अब वह बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी और मुक्तेश्वर के राजकीय काॅलेज में पढ़ रही थी। बूढ़े सेवानिवृत्त पास्टर दीनानाथ अभी भी उसका ख्याल रखते थे और प्रायः उसका हालचाल पूछते रहते थे। ये और बात थी कि परिवार की आर्थिक समस्याओं के कारण वह रचना को अपने पास तो नहीं रख सके, पर अपनी तरफ से उन्होंने कभी भी रचना को पिता के प्यार से वंचित नहीं होने दिया था। खुद रचना भी उनको अपना पिता जानकर ही उनके घर आती-जाती रहती थी। वैसे भी दीनानाथ के अतिरिक्त उसका था ही कौन, इस भरे संसार में? रचना की दृष्टि में वे अकेले ही ऐसे थे जो उसका दर्द समझ सकते थे। वे उसकी हरेक दुःखभरी परिस्थिति से भली-भांति परिचित थे। उनके इस पिता के प्यार को रचना भी समझती और दिल से महसूस भी करती थी, वह भी इसलिए कि वास्तविक प्रेम की कोई व्यक्तिगत परिभाषा नहीं होती है, इसे तो केवल हृदय से महसूस किया और अंतरात्मा की दृष्टि से पढ़ा जाता है-क्योंकि प्रेम का माप इसमें नहीं है कि कोई हमें कितना प्यार करता है, बल्कि इसमें है कि हम किसी को कितना प्यार देते हैं?

मुक्तेश्वर के राजकीय काॅलेज में रचना का व्यक्तित्व और रूप स्वयं ही वहां पर पढ़ने वाले अन्य युवा छात्रों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बन गया। जिंदगी की बेरहम वास्तविकता के तमाचों की मार से क्षुब्ध रचना की खामोशी ने काॅलेज की हरेक दीवारों पर जैसे एक प्रश्नचिन्ह अंकित कर दिया था। उसकी मूक मुद्रा में छुपा हुआ उसका रूप ही उसका गौरव था। अपने जीवन की बेमुरव्वत यादों के कफन को अपनी छाती में दबाये हुए रचना काॅलेज की जिस गैलेरी में भी निकल जाती, तो न जाने कितने छात्र क्यों स्वतः ही उसके लिए रास्ता छोड़ देते थे? न जाने कितने युवा विद्यार्थी अपने दिल में सम्मान और प्यार के फूल सजाये हुए एसकी झोली में भरने को हर समय आतुर रहते थे। अपने जीवन के भुगते हुए झमेलों से खेली हुई रचना की खामोश मुद्रा ही उसका ऐसा आकर्षण बिंदु थी कि जो भी उसको एक बार देख लेता, तो ठिठक अवश्य ही जाता था। ये एक अलग बात थी कि कोई भी उसके अतीत की कड़वी-कसैली हकीकतों को नहीं जानता था। सब ही उसे पास्टर दीनानाथ की दत्तक संतान समझते थे। उसके ईश्वर ने जहां एक ओर उसको रूप-सौंदर्य के साथ अनूठा, असाधारण व्यक्तित्व दिल खोलकर दिया था, वहीं उसके साथ एक अत्याचार का फलसफा भी जोड़ दिया था। उसके कटु अतीत का विषभरा ज़िक्र किसी भी क्षण उसके समूचे पवित्र व्यक्तित्व को धिक्कारने के लिए काफी था।

कालेज में रचना का कोई ऐसा नहीं था कि जिसको वह अपना कह सकती। उसकी कक्षा में पढ़ने वाली उसके साथ की दो सहेलियां ही थीं, जिनसे उसकी मित्रता हो गई थी। इन सहेलियों के अतिरिक्त उसे अन्य किसी से कोई सरोकार भी नहीं था। होस्टल से काॅलेज और काॅलेज से होस्टल या फिर कभी-कभार पिता-तुल्य पास्टर दीनानाथ के घर, यही उसकी दिचर्या थी। जब कभी भी उसकी छुट्टी इत्यादि होती थी, तो वह दीनानाथ के यहां चली जाती थी। यही उसकी छोटी-सी, अकेली, अनाथ, भटकी हुई-सी ज़िंदगी थी कि जिसके तहत् वह अपने आने वाले सुंदर भविष्य के दिनों के लिए संघर्ष कर रही थी। एक ऐसी चमन की बेल थी, जो उसकी चारदीवारी के बाहर उगी हुई किसी सहारे की तलाश में भूमि के गर्भ पर धीरे-धीरे रेंग रही थी-केवल एक इसी आस में कि शायद कोई आकाश की बुलंदियों को छूने वाला चिनार का लम्बा वृक्ष उसके आंचल के तले उगकर, उसको अपनी बांहों में समेटता हुआ, इस संसार के समक्ष एक सम्मान के साथ सिर उठाने का गौरव प्रदान करेगा।

मुक्तेश्वर के राजकीय कॉलेज में जहां रचना की खामोशी उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का एक विशेष आकर्षण बनी हुई थी, वहीं उसकी चुप्पी काॅलेज के कुछेक युवा विद्यार्थियों के लिए परेशानी का कारण भी बन गई थी। फिर भी रचना ने अपनी ओर से किसी को कोई भी ऐसा अवसर नहीं दिया था कि जिसके कारण कोई भी उसके कोमल होठों के दो मधुर बोल सुनकर अपने को धन्य समझ पाता। वह काॅलेज की लम्बी गैलरी से जब भी गुज़र जाती तो छात्रों की तरसती हुई आंखें एकटक उसे घूरती रह जातीं। उन सबके दिल तब अपने हाथ मलकर ही रह जाते। मुख से मौन रहते हुए भी वे दिल-ही-दिल उसकी तारीफ किये बगैर नहीं रह पाते थे। रचना का रूप आकर्षण-उसके चलने का ढंग और हवाओं के सहारे उसके लहराते हुए लम्बे बाल शायद उसको विधाता की ओर से दिया सुंदरता का एक ऐसा वरदान था कि जिसको जो भी निहारता, तो फिर नज़रें हटा नहीं पाता था। कुल मिलाकर रचना, अपनी उम्र के उस दौर से गुज़र रही थी कि जहां आकर देखने वालों के लिए उनके विचारों में एक प्रश्नचिन्ह अवश्य ही लग जाता था।

यूं तो कॉलेज की चारदीवारी में रचना के पग पड़ते ही उसे देखने वालों की दृष्टि थम जाती थी, जिनसे रचना की आंखें अनजान तो नहीं थीं, पर उसे व्यक्तिगत तौर पर किसी से कोई सरोकार भी नहीं था-और वैसे भी किसी आंखों के समक्ष पहरा तो लगा नहीं सकती थी-ऐसा होना कोई विशेष कारण तो नहीं कहा जा सकता था। उसके साथ और भी छात्राएं थीं, जो वे भी यही सब सहन करती आ रही थीं, हां, ये अलग बात थी कि अपनी-अपनी सुंदरता और आकर्षण के हिसाब से यह चुभन किसी के हिस्से में कम और किसी के हिस्से में अधिक आती थी।

जुलाई का माह आया।


कॉलेज खुले हुए दो ही दिन हुए थे। वहां के वातावरण में किसी नए खुले हुए बाजार के पहले दिन जैसी रौनक छाई हुई थी। चारों तरफ चुहलबाजि़यां और मदमस्तक बहारों की झलक नज़र आती थी। कहीं नए और पुराने छात्रों को मिलन, अनजान नज़रों की मूक भेंट, आकर्षण और अपनत्व के समावेश का उत्साह, जोश और उमंगों से भरे माहौल में हरेक चेहरे पर मुस्कान की बहार छाई हुई थी। विद्यार्थियों के चेहरों पर उनके आने वाले भावी भविष्य को संवारने की ललक विराजमान थी।

इन्हीं छात्रों और छात्राओं की भीड़ में दुबली-पतली, छरहरे बदन की, भोली-भाली रचना, हाथों में अपनी पुस्तकें सम्भाले हुए अपनी ही गति से काॅलेज की लम्बी गैलरी में चली जा रही थी-चुपचाप-खमोश, अपनी कक्षा की ओर-मानो किसी पर्वत के शिखर से गिरे हुए झरने से, किसी लहर ने अपना अलग, खामोशी का मार्ग पकड़ लिया हो।

तभी अचानक उसके कानों में एक जाना-पहचाना, कड़वा स्वर सुनाई पड़ा-

“हैलो डार्लिंग! क्या लिबास है तुम्हारा? इक्कीसवीं सदी के इस दौर में जहां सलवार और कमीज़ का स्थान जीन्स और शर्ट ने ले रखा है, वहां आज भी तुम्हारी छींटदार साड़ी का पल्लू मायूसी से इस ज़मीन का मुंह चाट रहा है।“

“?” ये सुनकर रचना ने आश्चर्य से कहने वाले की ओर देखा, तो राबर्ट जार्ज हाथ में अधजली सिगरेट को धुआं उड़ाता हुआ अभद्रता के साथ, अपने तम्बाकू - पान से सने गन्दे पीले दांतों को दिखा रहा था।

उसे देखते ही रचना के जी में आया कि इस बेहुदे, गंवार और बेशर्म इंसान के गालों पर एक चांटा रसीद कर दे। जब देखो तब ये उसे ही छेड़ता रहता है। इसकी मां मिशन की जिला सचिव क्या है कि ये दूसरों को तो कुछ समझता ही नहीं है; परंतु इस समय काॅलेज का वातावरण था। विद्यार्थियों और छात्राओं का आवागमन था। इसलिए कहीं बात का तमाशा न बन जाए उसने चुपचाप राॅबर्ट की बात को अनदेखा करके निकल जाना ही चाहा था तब तक वह उसके सामने ही आ गया और बड़ी ही धूर्तता के साथ उसकी पतली गोरी-सी कलाई को पकड़ते हुए बोला कि-

“अब ऐसी भी क्या बेरुखी है हमसे? सारे दिन तो तुम वैसे भी हॉस्टल में बंद रहती हो। यही तो एक समय होता है, दो टूक बात करने का....।“

“वुड यू शट अप दियर, अदर-वाइस....।“ रचना ने अपने हाथ की कलाई को छुड़ाते हुए क्रोधित होकर राॅबर्ट से कहा।

“अरे! तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे कि बड़े तूफान की बेटी हो?” राॅबर्ट ने विस्मय से कहा।

“तूफान की तो नहीं, मगर उसी धरती की बेटी ज़रूर हूं, जिसके सीने पर खड़े होकर तुम बड़े शान से इतने अभद्र शब्द कहते हुए तुमको शर्म तक नहीं आती है?”

“धरती की बेटी.....? यानी की भारत मां की सुपुत्री। क्या सम्बोधन दिया है अपने आपको?” राॅबर्ट ने आश्चर्य से अट्टहास करते हुए रचना के ही कहे हुए शब्द दोहराये फिर तनिक खीझ-भरे स्वरों में वह आगे बोला कि-

“कल से इंटर काॅलेज की दीवार फलांग कर डिग्री काॅलेज का द्वार क्या पकड़ लिया है कि अब हवा में उड़ते देर नहीं लगी तुमको। मगर ये मत भूलना कि तुम अगर पढ़-लिखकर भारत मां की पुत्री बन सकती हो तो मैं भी उसी की संतान हूं और यहां मुक्तेश्वर के हरेक काॅलेज की दीवारों पर मेरा ही नाम लिखा हुआ है।“

“?” रॉबर्ट की तीखी और असमाजिक बातों को सुनकर रचना जैसे तिलमिला-सी गई। उसे क्रोध तो बहुत आया, पर उसने उससे अधिक बहस करना उचित नहीं समझा, इसलिए बात शीघ्र ही समाप्त हो जाए, वह उससे बोला कि-

“देखो रॉबर्ट! मैं कोई हवा में नहीं उड़ने लगी हूं। तुम खुद ही सीमा के बाहर आने की चेष्टा करते रहते हो। तुम क्या हो और आगे चलकर चाहे कुछ भी हो जाओ, तुम्हारा नाम चाहे इस संसार की हरेक दीवारों पर अंकित हो, या फिर आसमानी किताबों में लिखा हो, मुझे इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। यदि मेरी बातें तुम्हें इतनी ही कड़वी लगती हैं, तो जिस भारत मां के इस कदर लाड़ले लाल हो, तो उसकी पुत्रियों और अपनी बहनों का मान करना भी सीखो। ऐसी मां का अपमान नहीं, बल्कि भारतवासी पैर पूजा करते हैं।“

“हां-हां ठीक है! मुझे भाषण मत दो। अभी तो मैं जाता हूं। फिर बात करूंगा मैं फुरसत से कभी।“

ये कहकर रॉबर्ट खीझता हुआ चला गया, तो रचना वहीं कुछेक क्षणों तक ऐसे ही खड़ी रही-गुमसुम, सुन्न सी। क्षण-भर में ही जैसे-तैसे उसने अपने-आपको सामान्य किया और कक्षा की ओर आगे बढ़ने को ही थी कि तभी अचानक एक अन्य छात्र और उसके सामने आ गया-लम्बा, इकहरे बदन का, बेफिक्री से उसके चेहरे पर फैले हुए लम्बे कंधों तक झूलते हुए बाल उसके विशेष आकर्षण का प्रदर्शन कर रहे थे। उसकी आंखों में एक अजीब ही आकर्षण था।

“एक्सक्यूज मी, मैं भी कुछ कह सकता हूं आपसे?” वह रचना से बड़े ही सभ्य स्वर में बोला।

“?” इस पर रचना ने पहले तो उसको ध्यान से देखा, पहचानने की कोशिश की, फिर एक संशय के साथ, उसके चेहरे को आश्चर्य से देखते हुए बोली कि-

“जी कहिए?“

“कौन था वह लड़का, जो थोड़ी देर पहले आपके मुंह लगा हुआ था?” उसने सीधा-साधा रॉबर्ट के बारे में पूछा।

“है कोई-यहीं हाई स्कूल सेक्शन में पढ़ता है।“ रचना ने बहुत संक्षिप्त उत्तर दिया।

“?”

रचना के इस कथन से वह छात्र अचानक ही चैंक गया। फिर चेहरे पर बल डालते हुए उसने पहले तो रचना को ध्यान से देखा, फिर आगे बोला कि-

“पढ़ता हाई स्कूल में है, तो फिर यहां डिग्री कॉलेज में क्यों आया था?”

“शायद ये जताने के लिए कि एक असहाय लड़की से जबरन बात करने में उसकी कितनी बड़ी शान है।“ रचना गंभीर होकर बोली तो कुछेक क्षणों को वह छात्र स्वयं भी गंभीर हो गया-खामोश-सा। फिर कुछ सोचकर वह आगे बोला कि,

“आप उसको जानती हैं क्या?”

“मुक्तेश्वर की हर गली की दीवारों पर इसका नाम लिखा हुआ है। मेरे व्यक्तिगत जानने या न जानने से क्या फर्क पड़ता है?” रचना ने उत्तर दिया।

“ठीक ही तो है, जिन लोगों का नाम कॉलेज की पुस्तकों से कट जाता है, वे प्रायः शहर की ऐसी ही बदनाम गलियों में जगह ढूंढ़ लेते हैं।“ उस छात्र ने कहा, तो रचना एकदम से बोली कि-

“आपको कतई आश्चर्य नहीं हुआ ये सब सुन और जानकर?”

“आश्चर्य किस बात का। आपने बताया और मैंने सुन लिया। फिर मैंने तो इस कॉलेज में इस वर्ष ही प्रवेश लिया है, इसलिए अधिक कुछ नहीं जानता हूं, मैं यहां के बारे में। लेकिन फिर भी वह लड़का मुझे पहली दृष्टि में ज्यादा ठीक मालूम नहीं पड़ा। आप ऐसे लोगों के मुंह न लगा करें।“
इतना कहकर वह छात्र आगे बढ़ गया। एक संवेदनशील मुस्कान बिखेरता हुआ-सा और रचना उसको देखती रही-काफी देर तक और कुछ निर्णय नहीं ले पाई, अपने आपसे-बल्कि उस छात्र के चले जाने के पश्चात् उसके मस्तिष्क में कई-प्रश्न स्वतः ही उत्पन्न हो चुके थे-जैसे कि कौन था? अचानक ही भेंट हो गई! ढेरों ढेर बातें भी कर लीं। कितने अपनत्व और मानवता से वह मिला था, दिल में शायद उसके हमदर्दी के सिवा और कुछ भी नहीं था-आया और चला भी गया, देखो, कैसी भूल कर बैठी मैं। हम दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे का नाम तक नहीं पूछा-पूछ लेती तो शायद; शायद ठीक ही होता?


सोचते हुए वह कक्षा में आई, लेकिन पढ़ाई में उसका मन नहीं लग सका-और फिर लगता भी कैसे? उस अनजान सभ्य छात्र ने उसके ज़ख्मों पर मरहम अवश्य रखा था, परंतु फिर भी राॅबर्ट के मूर्ख और बदतमीज़ रवैये ने उसका सारा मूड तो खराब कर ही दिया था। रचना अब भी इसी प्रकार की सोचों और विचारों में उलझी हुई थी-चुपचाप, शांत, गंभीर और बहुत उदास-सी। उसकी मनोदशा को भांपकर उसके पास बैठी हुई सहेली ने जब उसको इस प्रकार देखा, तो फिर उसे भी समझते देर नहीं लगी। वह समझ गई कि आज फिर किसी ने रचना का दिल दुखाने की चेष्टा की होगी। तब वह उसको कोहनी मारते हुए धीरे-से बोली-

“रचना! ऐ-रचना!”

“हूं!” रचना ने कनखियों से उसको चुपचाप देखा।

“क्या हुआ है तेरे को! कहां चली गई है?”

“कहीं नहीं।“

“कहीं तो....?”

“कहा न कुछ भी नहीं।“

“कुछ तो है, वरना..... “

“वरना क्या?”

“देख, मुझसे मत छुपाने की कोशिश मत कर। मैं तेरी रग-रग जानती हूं।“ ज्योति बोली।

“क्या जानती है?” रचना ने पूछा।

“यही कि, तू जितनी सीधी बाहर से नज़र आती है, अंदर से तू उतनी भोली है नहीं।“ ज्योति ने चुटकी ली।

“?” इस पर रचना ने उसे घूरकर देखा। सोचा, फिर एक संशय से बोली-

“तू कहना क्या चाहती है?”

“कौन है वह, जिससे तू बातें कर रही थी?”

“क्या....?” रचना का आश्चर्य ओर विस्मय से मुंह खुला-का-खुला रह गया।

“क्यों, चोंक क्यों गई?” ज्योति मुस्कराई।

“तुझे कैसे पता चल गया?” रचना ने फिर आश्चर्य किया।

“तेरा चेहरा देखकर।“ ज्योति ने बताया, तो रचना ने पुनः आश्चर्य से पूछा कि- “तेरा मतलब?”

“यही कि तू इस प्रकार किसके ख्यालों में खोई हुई आज और हर समय मन-ही-मन चुपचाप उससे बातें करती रहती है?” ज्योति ने स्पष्ट किया, तो रचना बोली कि, “ओह! तो ये बात है। मैं तो समझी थी कि....।“

“क्या समझी थी?”

“समझी थी कि....।“ कहते-कहते रचना अचानक ही थम गई। इस प्रकार कि, जैसे उसने अचानक ही किसी को दीवार में से निकलते हुए देख लिया हो। तब ज्योति ने उसकी इस परिवर्तित मुखमुद्रा को देखा तो फिर उसे भी समझते देर नहीं लगी-रचना, उस नए छात्र को देखकर अचानक ही ठिठक सी गई थी, जिसने अभी-अभी कक्षा में प्रवेश किया था। फिर भी ज्योति को नहीं मालूम था कि यह तो वही छात्र था, जो कुछ देर पूर्व रचना से काॅलेज की गैलरी में राबर्ट जाॅर्ज के बारे में उससे बातें कर रहा था और जिसके कारण रचना के मनमस्तिष्क के सारे सोये हुए तार अचानक ही उसके भविष्य के किसी अनजान और मनपसंद संदेश के बारे में सुनकर झनझना उठे थे।

तब बड़ी देर की गंभीरता और खामोशी के पश्चात् ज्योति ने रचना से कहा कि,

‘‘अच्छा अब समझी! कौन है री ये छबीला युवक?’’

‘‘ ना मालूम कौन है, आज ही तो आया है?’’ रचना ने गहरी सांस लेते हुए कहा, तो पुनः किसी चिड़िया की भांति फुदकी और उससे बोली कि-

‘‘अरी! अभी से गहरी सांस लेने लगी। आज तो उसका पहला दिन है?’’

‘‘?’’ (खामोशी)

इस पर रचना ने ज्योति को घूरा, फिर तनिक हलकी-सी खिन्न होकर उससे बोली-

‘‘बस तुझे तो अवसर मिलना चाहिए कुछ-न-कुछ मुझे छेड़ने का?’’

‘‘अब तू क्या जाने कि, यही तो दिन हैं, मौज-मस्तियों के; वरना कालेज समाप्त होते ही विवाह हो जाएगा, और फिर कौन जानता है कि कैसा घर, कैसी ससुराल-क्या पता कि होने वाला पति भी ‘दूजा मिला या फिर आरिजिनल‘?’’ उसकी इस बात पर रचना को भी जैसे अवसर मिल गया कुछ कहने का। वह ज्योति से बोली कि- ‘‘तो फिर यहां क्यों बैठी है? जाकर उड़ती क्यों नहीं है प्रतिदिन किसी-न-किसी नए पंछी के साथ। अभी से पता करती फिर कि कौन ‘आरिजिनल है, और कौन चला हु? “घूमती भी खूब और मनचाहा उड़ भी लेती; पर इस निगोड़ी कक्षा से फुरसत मिले तब न।“ ज्योति ने अपनी विवशता बतलाई।

“इसकी क्यों परवाह करती है, तेरे लिए तो कक्षा होस्टल और बाहर-सब एक समान ही तो है।“ रचना बोली।

“मैं कभी चिंता नहीं करती किसी बात की। मैं तो केवल तेरे कारण ही कालेज आती हूं।“ ज्योति ने कहा तो रचना चोक गई। वह विस्मय से बोली,

“मेरे कारण!”

“हां, तेरी वजह से। तू कैसी है, ये तो मैं ही जानती हूं। अगर मैं न रहूं तेरे साथ तो अब तक तुझे कोई-न-कोई उड़ाकर ले ही जाता।“ ज्योति ने कहा तो रचना फिर गंभीर हो गई। फिर जैसे वह मायूस होकर बोली,

“ले जाता तो भला ही था। कम-से-कम इन कटाक्षों और तानों से भरी दुनिया से तो छुटकारा मिल ही जाता।“

“लो, फिर से उदास हो गई। मेरा ये आशय तो नहीं था।“ ज्योति बोली।

इस पर रचना ने आगे कहा, वह बोली कि- “क्यों न होऊं? ये भी कोई जीवन है, होस्टल से कालेज ओर कालेज से होस्टल। प्रतिदिन की वही घिसी-पिटी-सी दिनचर्या-वार्डन के आदेश-होस्टल के नियम और कानून-सदैव एक बंधे और कसे हुए-से वातावरण में ये कैद जीवन-अकेला-असहाय-तनहा-सा हारा हुआ-सा, अपनी मजबूरियों के कारण सदैव हाथ मलता हुआ-सा। छुट्टियां होती हैं तो तू चहकती हुई अपने घर जाने की तैयारियां करने लगती है, पर यहां तो न कालेज खुलने का उत्साह और न ही कोई भी छुट्टी होने की तरंग।“

रचना की इस बात पर ज्योति भी पलभर गंभीर हो गई। वह रचना का दुःख, परेशानी, विवशता और उसकी मनोदशा को अच्छी तरह से समझती आई थी। उसके मन के अंदर हर समय उठते हुए झंझावात से वह परिचित थी।

रचना का पालन-पोषण और उसका जीवन जिस प्रकार के हालात से गुज़रकर अपने भावी भविष्य का कोई अंतिम पड़ाव ढूंढ़ लेना चाहता था। उसकी राहों पर एक पग रखने के लिए रचना को कैसी-कैसी कठिनाइयों से वास्ता करना होता है, ज्योति ये सब-कुछ न केवल समझती ही थी, बल्कि उन्हें मन-ही-मन अपना दर्द जानकर महसूस भी करती थी। वह चाहती थी कि किसी भी प्रकार से रचना के चेहरे से दर्द और क्षोभ के बादलों का डेरा हटाकर, वहां पर नए दिन के प्रकाश की ज्योति भर दी जाए-परंतु जैसा कि सदा से होता आया है कि मनुष्य कोशिश तो बहुत करता है, अपने जीवन को खुशियों से भरने के लिए, परंतु फिर भी वह समय हाथों की कठपुतली भी होता है-चाहकर भी वह, वह नहीं हासिल कर पाता है, जिसकी वह तमन्ना करता है। इन सारी बातों और वास्तविकता को जानते और समझते हुए, ज्योति ने रचना को तसल्ली देनी चाही और कहा कि,

“देख रचना, बहुत सारी बातें इंसान के हाथ में नहीं होती हैं। अगर होती, तो आकाश से कोई भी तारा मायूसी के साथ टूटकर यूं विलीन नहीं हुआ करता। जैसा भी चल रहा है, चलने दे। मनुष्य अपने दोनों हाथों से बटोरना तो खूब चाहता है, परंतु उसका उपयोग वह केवल एक हाथ से ही कर पाता है। जो कुछ भी तुझको तेरी किस्मत में तुझे मिला है, उसी को स्वीकार कर, दुनिया का हंसने वाला प्रत्येक इंसान अंदर से प्रसन्न नहीं होता है। मैं बार-बार तुमसे कहा करती हूं कि ये दुनिया इतनी सीधी नहीं है, जितना कि तू समझती है। मैं तो यही कहूंगी कि प्यार-मुहब्बत के किसी मार्ग पर अपने पग रखने से पहले, खूब अच्छी तरह देख और सोच-समझ लेना, बहुत कुछ पाने की ललक में, अपना सब-कुछ खोकर किसी भी प्यार के दर्द-भरे अफसाने को जन्म मत देना।''

“क्या देख और सोच-समझ लेना। मैं तो मिशन वालों की धरोहर हूं। जिधर भी बांधेंगे, बंध जाना होगा।“ रचना ने निराश होकर कहा तो ज्योति को जैसे विद्युत का करैंट लग गया। वह थोड़े से कठोर स्वर में रचना से बोली, “तभी तो कहती हूं कि अब इतनी अभागिन मत बन जाओ कि जो तेरे मिशन वाले चाहें वही तू करे। माना कि वे तेरे मां-बाप के स्थान पर हैं, परंतु तू भी तो इंसान है-डिग्री कालेज की छात्रा है। तेरे भी तो कुछ अधिकार हैं, उनका उपयोग करने से तू क्यों इस कदर घबराया करती है?”

“घबराती नहीं हूं लेकिन हिचकती अवश्य ही हूं।“

“तो छोड़ती क्यों नहीं है ये सब हिचकना, सहमना और सदैव डरे-डरे-से घबराते-सा रहना।“

इसपर रचना ने कुछ कहना चाहा, लेकिन तभी कक्षा में समाज-शास्त्र के प्रोफेसर ने प्रवेश किया, तो कक्षा में खामोशी छा गई-और फिर इसके साथ ही ज्योति और रचना की बातों का सिलसिला स्वतः ही टूट गया।

कितने ही दिन यूं ही व्यतीत हो गए।

दिन उगता, शाम आती और फिर शाम के जलते ही सारा आलम रात्रि की खामोशी में सो जाता था। आज इस मशीनी और तकनीकी युग में हरेक मनुष्य आवश्यकता से अधिक व्यस्त और सदैव अपने कार्यों को अतिशीघ्र समाप्त करने की ललक में भागा-भागा प्रतीत होता था।

रचना की दिनचर्या इसी प्रकार चल रही थी। वह अपने कालेज की पढ़ाई में व्यस्त हो चुकी थी। उसका भी जैसे एक दैनिक कार्यक्रम-सा बन गया था। होस्टल से कालेज और कालेज से होस्टल, अपनी पढ़ाई, अपना कार्य, होस्टल के नियमों की पाबंदी में गिरफ्त, सूनी आंखों में भविष्य के स्वतंत्र और रंग-बिरंगे सपनों के चित्र और उसकी पूर्ति की आशा और निराशा में हिचकोले खाती हुई उसकी किस्मत की लकीरें-जिंदगी के तमाम आयामों पर बिखरती हुई। उसकी हसरतों की कड़ियों और कड़ियों के मध्य कभी बढ़ते और कभी कम होते हुए फासले और हर समय अपने मन में पंक्षी के समान एक पिंजड़े से स्वतंत्र होने की अभिलाषा रखे हुए वह अपनी बिन मांझी के और बगैर किसी पतवार के अपनी जीवन-नैया को खेने का प्रयास कर रही थी।

फिर एक दिन वह कालेज की लाइब्रेरी में, एक अलग केबिन में बैठी हुई किसी पुस्तक का अध्ययन कर रही थी। सारी लाइब्रेरी के खामोश वातावरण में शून्यता जैसे किसी एक अतिरिक्त अजनबी के समान धीरे-धीरे टहल रही थी-रचना के अतिरिक्त कुछेक अन्य विद्यार्थी और छात्राएं भी थीं, जो अपने-अपने केबिन में बैठी हुई कुछ-न-कुछ पढ़ने में लीन थी। विद्युत के पंखे लगातार चक्कर काट रहे थे, परंतु फिर भी वे लाइब्रेरी में छाई गर्मी की उमस को समाप्त नहीं कर पा रहे थे।

तभी अचानक बिजली चली गई, तो शांत और बैठे हुए विद्यार्थियों के चेहरों पर थोड़ी देर को खिन्नता के चिन्ह दिखाई दिए, फिर स्वतः ही समाप्त भी हो गए। बिजली का कभी भी समय-असमय आना और जाना कोई नई बात नहीं थी; लोग इसके अभयस्त तो थे ही, परंतु फिर भी उसके यूं अचानक चले जाने पर कोई भी प्रसन्न होता था। बिजली के चले जाने पर पंखे थम गए तो गर्मी का प्रकोप और भी अधिक बढ़ गया। इसके साथ ही वहां पर बैठे हुए सभी छात्र और छात्राओं ने खिड़कियों के पट भी खोलने आरंभ कर दिए थे, इसी आस में कि बाहर से आने वाली ठंडी वायु की लहरों से शायद उनको गर्मी के पसीने से कुछ राहत मिल सके। जब सबने अपनी-अपनी खिड़कियां खोल लीं, तो रचना भी अपने केबिन की खिड़की को खोलने लगी पर सिटकनी इतनी अधिक कठोर निकली कि वह उसे खोल नहीं पाई। रचना ने दो-तीन बार और प्रयास किया, एक बार उसने आस-पास निहारा, परंतु जब वह उसे नहीं खोल पाई तो निराश होकर अपने स्थान पर पुनः बैठ गई और अपनी पुस्तक को फिर से पढ़ने जा ही रही थी कि, तभी अचानक उसकी कक्षा को वही छात्र, जिसने उससे कुछ दिन पूर्व एक औपचारिक बात की थी, आया और उससे ये कहते हुए कि-

“लाइए, मैं खोल देता हूं।“

कहकर एक ही झटके से खिड़की खोल दी। खिड़की खुलने पर जब ठंडी हवा की लहर ने उसके कोमल गालों को स्पर्श किया, तो रचना ने उस छात्र की ओर कृतज्ञता से देखा-फिर अपने चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान बिखेरती हुई उससे बोली-

“थैंक यू वैरी मच।“

“कोई बात नहीं, जरा-सी देर को बिजली थम जाती है, तो कितनी गर्मी पड़ने लगती है'' ये कहकर वह छात्र रचना के ऊपर एक सरसरी दृष्टि डालता हुआ जाने लगा तो रचना ने उसे रोका। उससे बोली कि-

“सुनिये।“

“?” - तब वह छात्र अचानक ही थम गया और एक प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा। तब रचना ने जैसे अपने आपको संभालते हुए और साहस बांधकर उससे कहा कि-

“एक बात पूछ सकती हूं मैं क्या आपसे?”

“क्यों नहीं।''

“आपका नाम क्या है?” रचना ने कहा।

“नाम" उस छात्र ने आश्चर्य से कहा, फिर वह रचना से संबोधित हुआ और कहा कि- “कितनी अजीब बात है कि मैं और आप एक ही कक्षा के छात्र हैं- एक ही साथ पढ़ते हैं और लगभग प्रत्येक दिन एक-दूसरे को देख भी लेते हैं, परंतु फिर भी आप मेरा नाम नहीं जानती हैं?”

इस पर रचना ने उसको कनखियों से देखा- कुछ देर सोचा, तब आगे कहा,

“यदि कभी ऐसा हो जाए, तो क्या एक-दूसरे को दोष देना आवश्यक हो जाता है?”

“नहीं, ऐसी बात तो नहीं है- फिर भी दूसरे को कहने का अवसर तो मिल ही जाता है।''

“लगता है कि आप बातें ही करते रहेंगे और जो मैंने पूछा है, वह नहीं बताएंगे।''

रचना ने उसकी बात का उत्तर देने के बजाए अपनी बात आगे बढ़ाई। तब उस छात्र ने अपना नाम बताया और रचना से बोला कि-

“माई नेम इज साहित्यकुमार भारत।''

रचना ने उसका नाम सुना, तो तुरंत ही एक संशय के चिन्ह उसके चेहरे पर बिखरे, फिर वह एक चंचल मुस्कान के साथ उससे बोली कि-

“भारत! कौन-सा भारत? उपकार का, पूरब और पश्चिम का या फिर रोटी-कपड़ा और ....।''

“जी धानपुरा का।'' इस छात्र ने उसकी बात बीच में ही काटकर पूरी की, तो रचना स्वतः ही हंस पड़ी; इस प्रकार कि उसके सफेद दांत चमक उठे जैसे मानो भूमि पर मोतियों की माला के बिखरे मोती चमक रहे हों।

“अच्छा, अब मैं चलता हूं। आपको तो मनोरंजन का अवसर मिल ही गया है। वैसे इतना अवश्य ही कहूंगा कि मेरे गांव धानपुरा का चावल इस शहर में बहुत ही मशहूर है।''

यह कहकर भारत चला गया, तो रचना बड़ी देर तक उसको जाते हुए देखती रही। उसको यूं जाते हुए देख शोख-मिजाज़ रचना अपनी चंचलता पर नियंत्रण स्वतः ही खो बैठी। वह मन-ही-मन मुस्करा उठी। हृदय में उसके चुपके से न जाने कौन-सी आने वाली खुशियों की कलियां चटक गई थीं, ये तो वह ही जानती थी-स्वयं ही समझ भी सकती थी। वैसे भी ये रचना का, उसकी अपनी तनहाईयों का कोई व्यक्तित्व ही था कि वह खामोशियों के मध्य किसी का भी पल भर का साथ पाकर, अपनी सारी नीरसता को एक ओर उतारकर रख देती थी- वरना, चार लोगों की भीड़ में उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल पाता था।

-क्रमश: