भारत की रचना / धारावाहिक / सातवाँ भाग
हॉस्टल में आ जाने के पश्चात्, जब वातावरण और माहौल फिर से परिवर्तित हुआ तो रचना का स्वास्थ पुनः अपने पहले जैसे रूप और रंग पर आ गया। शीघ्र ही वह पूर्ण स्वस्थ होकर कॉलेज जाने लगी; टूटे-टूटे मन से इच्छा न होते हुए भी उसको अपने कदम कक्षाओं की ओर धकेलने पड़ते थे। कॉलेज में उसकी अरुचि का कारण भी विशेष ही था। वह शरीर से तो स्वस्थ हो चुकी थी, परंतु मन से अभी तक बीमार ही थी- उसकी अस्वस्थता का जो मुख्य कारण था, वह केवल यही, कि इतने दिनों की लगातार आस और प्रतीक्षा के पश्चात् भी अभी तक भारत कॉलेज नहीं लौटा था। सो इस प्रकार फिर एक बार रचना का दिल उदासियों का साथ पकड़कर निराश और मायूस रहने लगा। भारत की अनुपस्थिति के कारण वह थकी-थकी, उदास और अनमनी-सी रहने लगी। सारा कॉलेज उसको यातनाओं का भण्डार बनकर, जैसे प्रतिदिन ही निराशाओं के उपहार भेंट में देने लगा था। सारा माहौल ही उसको डसने लगा था। कक्षाओं के द्वार उसको काट खाने को दौड़ उठे थे। विद्यार्थियों के ठहाके, कॉलेज का शोर-शराबा, उसके कानों को फाड़ने लगे। उसकी आंखें फिर से सूनी और खुश्क होकर उसके दिल के दर्द का बखान करने के लिए आतुर हो गई। सूखे-सूखे होठ उसके चेहरे की भरपूर उदासी का दामन थामे हुए, मानो अपने दिल की आरजू को छुपाए हुए तरस उठे थे। हर समय उसके भोले मुखड़े पर उदासी की प्रतिमाएं अपना साम्राज्य स्थापित करके, मौसमी हवाओं के साथ, उसके दर्द-भरे, अधूरे प्यार का अफसाना कहने लगीं।
सो इस प्रकार रचना, अब कॉलेज की कक्षाओं से ऊबकर कहीं भी बैठ जाती थी। खेल के मैदान में अथवा गार्डन के किसी भी एकांत में बैठी-बैठी वह अपने फूटे भाग्य की विडम्बना पर आंसू बहाती रहती। पढ़ाई में उसका मन अब वैसे भी नहीं लगता था। एक बीमारी की कमजोरी और दूसरी अनजाने में ही लगी हुई उसके अनकहे प्यार की धुन- दोनों ही का प्रभाव इस कदर हुआ कि वह अब अपने को सामान्य भी नहीं कर पा रही थी। अपनी कक्षा में वह कैसे भी मन मारकर बैठ तो जाती थी, परंतु वहां भारत का ख्याल उसका पीछा नहीं छोड़ता था। भारत की उसको रह-रहकर याद आ जाती थी।
ऐसा था उसका भारत। उसके भारत का ख्याल- उसके सपनों का संसार- इस संसार में बसा हुआ उसके जीवन का पहला और अंतिम प्यार, कि आंखें एक बार अपने साजन की छवि को देखने के लिए तरसकर ही रह गईं थीं। दिल उसकी स्मृतियों में लगातार धड़क-धड़ककर जैसे फटा जाता था। दोनों हाथ गले का हार बनने के लिए न जाने कब से मचल रहे थे। रचना जब भी सुबह को कॉलेज आती, तो प्रायः तबियत ठीक न होने का कारण बताकर सारे दिन, जब तक कॉलेज समाप्त नहीं हो जाता, कॉलेज के किसी भी एकांत में बैठी रहती. बैठकर कॉलेज का सारा समय यूं ही व्यतीत कर देती। भारत की अनुपस्थिति में उसको कॉलेज का सुंदर वातावरण भी दिल को मसलने वाली भावनाओं का अत्याचारी अड्डा प्रतीत होने लगा था। अशोक और यूक्लिप्टस के गगनचुम्बी वृक्ष भी उसको लम्बे-लम्बे मनहूस सायों के समान दिखने लगे थे। तब ऐसे में वह अपने को असहाय और बेबस जानकर फूट-फूटकर रो पड़ती थी। रो पड़ती थी- अपनी किस्मत की काली रेखाओं को देखकर, जो एक नागिन बनकर उसके सारे सुखों को डस गई थीं। अपनी प्रसन्नताओं को जकड़ने वाली परतंत्रता की जंजीरों को देखकर, जो ममता का दूध पीने से पूर्व ही उसके पैरों में डाल दी गई थीं। वह इस तरह से विवश थी। मजबूरी की दास्ताओं में उलझी हुई वह, ’वह’ नहीं कर सकती थी, जो कि उसका दिल चाहता था- या जो वह स्वयं करना चाहती थी। किस्मत की बिगड़ी या फिर छिनी हुई लकीरों के कारण एक अनाथ लड़की का जन्म लेने के पश्चात् जो कुछ भी उसे मिला था, वह उसे स्वीकार तो करना ही था; लेकिन कब तक? यही एक ऐसा प्रश्न था, जो प्रायः ही रचना के दिल-दिमाग के सारे सोचे हुए तारों को जब भी झकझोरता था, तो वह परेशान होकर ही रह जाती थी। यह उसकी विवशता थी, या फिर विडम्बना; या फिर मानव-जीवन का वह अनोखा और अनूठा आयाम कि जिसकी मिसालों से विश्व का कोई भी देश और समाज आज तक रिक्त नहीं है।
रचना दिन-दिनभर कॉलेज के किसी भी एकांत में बैठी रहती, बैठी-बैठी सोचती रहती, कुछ अपने बारे में, तो कुछ अपने भावी भविष्य और भारत के विषय में भी। उसके साथ पढ़ने वाली अन्य लड़कियां उसके नित-प्रतिदिन के बदलते भावों और प्रतिक्रियाओं को देखतीं। वे कुछ समझती थीं, तो कुछ नहीं भी। जो उसकी मनोदशा को भांपती थीं, परंतु कोई भी ठोस प्रमाण न होने के कारण चुप रहकर ही टाल भी जाती थीं। अधिकतर वे उसके विषय में जानती थीं. विशेषकर उसके अतीत के काले पृष्ठों के एक-एक अक्षर से परिचित थीं। फिर रचना इतना तो समझती ही थी कि उसके व्यक्तिगत परिचय के लिए केवल एक ही शब्द काफी था - अनाथ।
रचना के वास्तविक जीवन की कहानी से तो लगभग उसके साथ पढ़ने वाली हरेक लड़की और छात्र परिचित थे, परंतु उसके दिल में पनप रही रोज भारत की मधुर स्मृतियों का राज शायद उसकी रूम-मेट ज्योति के अलावा किसी को भी नहीं था। ज्योति ही एक ऐसी थी, जो रचना के दिल की परेशानी, परेशानी का कारण और भारत के प्रति हर पल बढ़ते हुए उसके प्यार के अंकुर को न केवल जानती थी, बल्कि दिल की गहराईयों से महसूस भी करती थी।
क्रमशः दिन बीत जाता।
संध्या फिर सिमटने भी लगती। कॉलेज का अंतिम पीरियड भी घन-घनाकर शांत पड़ जाता। विद्यार्थी अपने निवासों को वापस चल देते- दिन-भर के थके-थकाये पक्षियों के समान, जो चुपचाप एक लय में अपने नीड़ों को उड़े चले जाते हैं. लेकिन रचना- वह कहीं नहीं जाती। वह अपने स्थान पर ही बैठी रहती- उसी स्थान पर जहां पर ज्योति अक्सर ही उसको छोड़ जाती. वही आकर उसको याद दिलाती। कॉलेज समाप्त होने का संदेश देती, तब रचना भी उठ जाती। मन से या फिर बेमन से- वह कोई भी निर्णय नहीं कर पाती। ज्योति के कहने पर वह भी चल देती, थके-थके पांवों से- अपने हॉस्टल की चारदीवारी की ओर; परंतु दिल की भावनाओं की पूर्ति न होने के कारण, थके-थके निराश कदम चलते तो थे, कभी रुकते भी थे- परंतु फिर चलते थे. इस प्रकार कि जैसे उन्हें धकेला जा रहा है।
ज्योति के बलपूर्वक आग्रह के कारण रचना हॉस्टल ही चारदीवारी में आकर सुस्त पड़ जाती थी। ओस में भीगी हुई कवि की शिथिल, निराश ’रचना’ के समान ही, वह भी मानो वहां के वातावरण को देखते ही मायूस हो जाती थी।
फिर एक दिन।
रचना इसी प्रकार बॉटनी गार्डन के एक एकांत में बैठी हुई थी। अपनी कक्षा से वह सिर-दर्द का बहाना कहकर आ गई थी। उसके इस प्रकार आने पर कक्षा में किसी और ने तो शायद कुछ नहीं समझा होगा, परंतु ज्योति की अनुभवी आंखों ने सब-कुछ भांप लिया था। रचना के उठकर आने का कारण, भारत की अनुपस्थिति ही थी, उसका वह सारा उत्साह भारत की अनुपस्थिति देखकर तुरंत ही समाप्त हो जाता था। उस दिन भी भारत नहीं आया था. ज्योति ने जब देखा तो उसकी दशा को भांपकर मन में बड़बड़ाती हुई कि ’ये दीवानी, कहीं पागल न हो जाए- सारा ’विश्व’ ही पड़ा हुआ है, अपना सिर पटकने के लिए, परंतु ये ’भारत’ के पीछे ही पड़ी हुई है.' थोड़ी देर के पश्चात् वह भी बाहर आ गई थी। ज्योति को रचना की चिंता तो थी, परंतु रचना की समस्या का हल केवल ’भारत’ के पास ही था- जब तक वह वापस नहीं आता, तब तक
कुछ भी नहीं किया जा सकता था. ज्योति इस बात को समझती थी, परन्तु रचना को वह किस प्रकार प्रकार समझाए, यही समस्या उसके पास थी।
तब ज्योति कक्षा के बाहर आकर सीधे ही बॉटनी गार्डन में पहुंची। रचना और दिनों के समान अपने निश्चित स्थान पर जाकर बैठ चुकी थी। ज्योति सीधे ही उसके पास पहुंची, तो रचना ने उसको आश्चर्य से निहारा- तब ज्योति उससे बोली-
'कक्षा छोड़कर क्यों आ गई तू?'
'सिर दुखने लगा था...।’ रचना ने कहा।
'?’
रचना की इस बात पर ज्योति ने पहले तो उसको देखा-सोचा, फिर गंभीर होकर जैसे नाराजगी-भरे स्वर में उससे बोली-
’सिर दुख रहा था, या फिर...?'
'?'-
रचना तब खामोश हो गई।
'लगता है कि तू फिर बीमार पड़ेगी। अस्पताल जाएगी फिर से तू...?' रचना की चुप्पी देखकर ज्योति जैसे झुंझला कर बोली।
'?'- खामोशी.
उसकी इस बात पर रचना फिर भी चुप रही। परंतु ज्योति का गुस्सा और झुंझलाहट शायद अभी तक कम नहीं हो सकी थी। वह फिर से बोली-
'हर दिन सूखती जा रही है तू। आने दे, उस भारत के बच्चे को- अच्छी तरह से पेश आऊंगी मैं उससे। कम्बख्त प्यार की सुरसुरिया लगाकर चलता बना?'
'क्यों बुरा-भला कहती है उसे? रचना ने भारत की तरफदारी की, तो ज्योति ने कहा कि,
'तुझे तो उसकी हर पल चिंता रहती है। जरा सोच कि उसे भी तेरी परवाह है कि नहीं?’
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'उसकी कोई मजबूरी भी तो हो सकती है?' रचना ने कहा.
'यदि मजबूरी है, तो फिर तू क्यों नहीं सब्र करती? संतोष कर कि, जब भी वह आयेगा तो चिपटकर ही रह जाना. फिर तुझे अलग होने की जरूरत नहीं उससे. ज्योति बोली तो रचना ने कहा कि,
'करती तो हूँ?'
'क्या करती है? अपनी पढ़ाई, स्वास्थ्य और भविष्य, हर किसी का तो तू नुक्सान कर रही है. खुद तो परेशान है ही, साथ में एरा भी जीना हराम करे दे रही है. ज़रा शक्ल देख ले अपनी, अच्छी-खासी, फूल-सी गुड़िया दिखती थी तू, और अब . . .?'
अब क्या?' रचना ने हल्का-सा मुस्कराकर पूछा.
'अब तो, वह बुढ़िया, हॉस्टल की सुपरिंटेंडेंट लिल्लम्मा जॉर्ज तुझसे ज्यादा सुंदर दिखने लगी है.'
ज्योति ने कहा तो रचना जैसे खिल-खिलाकर हंस पड़ी. फिर थोड़ी देर के पश्चात बोली,
'क्या मिसाल दी है. चल, कोई तो तुझको मुझसे अधिक सुंदर दिखाई दिया?'
रचना की इस बात पर ज्योति ने बात का विषय बदल दिया. वह बोली कि,
'आज कितने दिनों के पश्चात हंसी, तो देख कितनी अच्छी दिखाई दे रही है, वरना कुढ़-कुढ़ कर अपनी आभा ही बदले दे रही है.'
'हां, ये हंसी तो पल-दो-पल की है.' रचना पुन: गम्भीर हुई तो ज्योति बोली,
'अच्छा, अब सीरियस मत हो जाना फिर से. चल क्लास में चलकर बैठते हैं. लगता है, कि तेरा सिर-दर्द भी समाप्त हो चुका है.'
तब रचना अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखते हुए बोली,
'अभी तो लगभग आठ मिनट बचे हैं. ये पीरियड तो समाप्त होने दे. दूसरे पीरियड में चलेंगे.'
'हां, लेकिन अभी से धीरे-धीरे चलेंगे, तभी पहुंच पायेंगे. जब तक कक्षा में पहुंचेंगे, तब तक पीरियड भी समाप्त हो जाएगा.' ज्योति ने कहा तो रचना अपने स्थान से उठते हुए बोली,
'अरे, चल. नहीं मानती है तो चल.'
ये कहकर वे दोनों जैसे ही चलने के लिए पीछे की ओर घूमीं तो उनकी कक्षा में पढ़ने वाला एक छात्र रामकुमार वर्मा अपने किसी अन्य मित्र के साथ आता हुआ दिखाई दिया. वे दोनों उसे देखकर एक बार ठिठकीं तो, पर अधिक ध्यान न देकर आगे बढ़ गईं. फिर वे थोड़ा आगे की ओर चली होंगी कि, तभी रचना ने एक संशय से रामकुमार वर्मा की ओर देखा. फिर वह थोड़ा हंसकर ज्योति से बोली,
'भुत धीरे-से, ऐ?'
'?'- ज्योति ने रचना को एक आश्चर्य से देखा.
'ज़रा, देख तो. लगता है कि वह जैसे अपनी ही तरफ आ रहा है.'
ये सुनकर ज्योति ने रामकुमार वर्मा की ओर देखा- फिर उसकी बात का समर्थन करते हुए बोली,
'ठीक कहती है तू. वह इसी तरफ आ रहा है.' कहकर वह अपने ही स्थान पर रुककर रामकुमार वर्मा की ओर देखने लगी. तभी वह उन दोनों की ओर आते हुए बोला,
'आप लोग तो जल्दी-जल्दी जा रही हैं और मुझे आप से काम है. थोड़ा रुकेंगी?'
तब वे दोनों अपने ही स्थान पर रुककर उसके पास आने की प्रतीक्षा करने लगीं. फिर कुछेक पलों के अंतर के बाद रामकुमार जल्दी-से उनके पास आया, और अपने हाथों में पकड़े हुए ढेर सारे कागजों में एक-एक कागज़ उनकी ओर बढ़ाते हुए बोला कि,
'जैसा कि, आपको मालुम ही होगा कि, यहाँ सदर में मेरा अपना कपड़ों का व्यापार है. दुकान तो आप लोगों ने देखी ही होगी. बड़ा अच्छा, नया माल कल ही उतरा है. इसलिए पुराने स्टॉक पर चालीस प्रतिशत डिस्काऊंट दुकान की तरफ से और दस प्रतिशत एक ही कॉलेज और कक्षा के छात्र होने के कारण मेरी ओर से. इस प्रकार कुल मिलाकर पचास प्रतिशत की छूट. तड़ी कोई साड़ी सौ रूपये की होगी तो छूट के पश्चात वह केवल पचास रूपये की ही होगी. यदि आप लोग चाहें तो मुझे इस सेवा का अवसर दीजिये.'
'जरुर आयेंगे, जरुर आयेंगे.' ज्योति ने कागज़ हाथ में लेकर कहा तो रामकुमार बोला,
'बहुत ही अच्छा स्टॉक है. पिछले वर्ष ही दीवाली पर मंगवाया था. एक बार जरुर ही आकर देखिएगा.'
'श्योर!' ज्योति ने कहा तो रामकुमार फिर उनके पास से चला गया. रचना ने तो कुछ नहीं कहा था, केवल रामकुमार के हाथ से कागज़ चुपचाप ले लिया था.
इसके पश्चात वे जैसे ही आगे बढ़ीं तो तुरंत कॉलेज का घंटा बज गया. नया पीरियड आरम्भ हो चुका था, सो वे दोनों जल्दी-जल्दी कक्षा की ओर अपने कदम बढ़ाने लगीं.
- क्रमश: