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भारत की रचना - 5

भारत की रचना /धारावाहिक /
पांचवां भाग

सुबह हो गई।
दिन निकल आया- नया दिन। हाॅस्टल के घने वृक्षों पर चिड़ियां बोलने लगीं। लड़कियां उठकर अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गईं। परंतु रचना अपने बिस्तर से उठ भी नहीं सकी। उठने का उसका म नही नहीं हुआ। सारे बदन में उसके दर्द हो रहा था। इस दर्द के कारण उसकी रग-रग तक दुखने लगी थी। पिछली कई रातों तक जागने के कारण आज उसकी तबियत पहले से और अधिक खराब हो गई थी। उसका ज्वर भी बढ़ गा था। सारा शरीर आग के समान तप रहा था। तब शीघ्र ही रूम-मेट ने हाॅस्टल की वार्डन लिल्लिम्मा जाॅर्ज को इस बारे में सूचित कर दिया। जब वार्डन ने भी रचना को बुखार में तपते देखा, तो डाॅक्टर को बुला लिया। जब डाॅक्टर आया तो फिर रचना की तबियत बिगड़ने की बात जंगल में लगी आग के समान सारे हाॅस्टल में फैल गई। हाॅस्टल की तमाम लडकियों ने उसके कमरे के बाहर आकर अपना जमघट भी लगा लिया। सारी लड़कियां खामोश थीं-शांत, बिल्कुल चुप-सीं। रचना की बढ़ती हुई बीमार दशा ने मानो आज सबको ही चिंतित कर दिया था।
फिर डाॅक्टर ने प्राथमिक जांच करते ही उसको तुरंत ही एक इंजेक्शन लगा दिया, साथ में अन्य दवाइयां भी दीं। कुछेक दवाएं बाजार से लाने को भी लिख दीं। इसके साथ ही, यदि फिर भी बुखार नहीं उतरता है, तो उसको फौरन ही अस्पताल में भरती करने की हिदायत दी। इतना सब-कुछ कहकर वह चला गया। परंतु रचना का बुखार जब बीच में उतरा और बाद में फिर आ गया, तो शाम को उसे अस्पताल में भरती कर दिया गया। इस प्रकार रचना हाॅस्टल की कैद से कुछ समय के लिए मुक्त होकर अस्पताल की शरण में पहूँच गई। रचना की अतिरिक्त देखभाल के लिए वार्डन ने हाॅस्टल की एक नौकरानी को भी अस्पताल में रहने को कहा था।
फिर इस प्रकार रचना अस्पताल में सारे दिन अपने पलंग पर पड़ी रहती, पड़ी-पड़ी केवल सोचती रहती। सोचती रहती अपने बारे में-अपने भविष्य के प्रति-भारत के लिए भी। फिर यूँ भी, बीमार दशा में मनुष्य कुछ वैसे भी आवश्यकता से अधिक सोचने पर विवश हो जाता है। यही हाल रचना का भी था। रचना भी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने वार्ड की सूनी और खामोश छत को ही ताकती रहती। हाॅस्टल की नौकरानी अपने नियमित समय पर आती, और उसको आवश्यकता की वस्तुएं देकर चली जाती। वह भी दिन भर में केवल दो ही बार रचना के पास आती थी, वरना कभी-कभी वह भी नहीं आ पाती थी। खाना रचना का हाॅस्टल से ही आता था। रचना के वार्ड में सब ही रोगी स्त्रियां ही थीं और उन सबका कोई-न-कोई परिवारीजन घर से मिलने को आता ही रहता था। कुछेक के सम्बन्धी वहीं सो भी जाया करते थे। रचना जब भी उन सबके मिलने वालों को देखती तो फिर अपना मन मसोसकर, केवल तरसकर ही रह जाती थी। तरस जाती, तो फिर अपने बारे में खूब ही सोचने लगती। सोचने लगती तो फिर अपने अतीत की अनसुलझी हुई गुत्थियों में उलझ जाती, जनिका हल न तो कभी पहले था, और न ही शायद कभी आगे हो सकेगा। उसका वह अतीत, जिसमें उसके अभागे जीवन के अतिरिक्त उसका अन्य कोई दूसरा संगी था भी नहीं। ऐसी स्थिति में उससे कौन और कहां से मिलने आ भी कैसे सकता था? बचपन में कोई फूल भी खिलते, उससे पहले ही उसका चमन उजड़ गया था। न तो उसके पास मां थी, और न ही पिता का प्यार। अपने भाई-बहनों के प्यार औा अपनत्व को तरसती हुई उसकी झील-सी आंखों में हर समय किसी खामोश दर्द का पानी ही भरा रहता। वह अपने एक सुन्दर सुव्यवस्थित परिवार का केवल सपना ही देख पाती, पर जब भी उसका सपना हकीकत का स्पर्श पाकर अचानक से चटकता, तो फिर उसके पास कुछ भी नहीं रहता था। किस्मत से उसको जीवन मिला था, पर ईश्वर ने भी उसको खाली हाथ संसार में भेज दिया था। वह तो अनाथालय में पली हुई एक बेबस लड़की थी- असहाय-सी-किस आशा पर वह अपने इन सपनों को साकार करने का ख्याल भी कर सकती थी? शायद कभी भी नहीं। ऐसा कोई आधार भी नहीं था उसके पास कि जिसके सहारे पर वह कोई विचार भी कर सकती। कोई झूठी शांति भी तो वह अपने-आपको पलभर के लिए नहीं दे सकती थी। न तो आस थी उसके पास और न ही आस दिलाने वाला ही।
रचना जब भी अपने संबंन्धित इन सारी बातों को सोचती, तो सोचने ही मात्र से उसका दिल दुखने लगता था। अपने काले अतीत के कड़वे स्वाद का प्याला देखते ही उसके सम्पूर्ण चेहरे का रंग बदल जाता, सारी आशा ही समाप्त होने लगती। फिर होंठ सूखने लगते। अकेले और बिन सहारे के खाली हाथ किसी सहारे की कल्पना में उठते, पर स्वयं को बेसहारा पाकर वापस अपने स्थान पर आ जाते। तब ऐसे में स्वतः ही उसकी आंखों से आंसू बेबसी में जलती हुई किसी शमा के मोम के टुकड़ों के समान टूट-टूटकर गिरने लगते। दिल का दर्द उसकी पलकों का बंध तोड़कर बाहर आ जाता। आंसू बहते हुए कोमल गालों के उभारों पर आकर टिक जाते। सुबह की वनस्पति पर अटकी हुई ओस की बूंदों के समान ऐसे आंसू कि जिनका अस्तित्व मात्र एक हरकत से ही समाप्त हो सकता था।
फिर रविवार का दिन आया, तो रचना की रूम-मेट ज्योति सांझ ढले ही अस्पताल में उससे मिलने आ गई। ज्योति के साथ उसकी अन्य सहेलियां और भी थीं, जो रचना को देखने आई थीं। जब रचना ने यूं अचनाक ज्योति को अस्पताल में देखा, तो वह पलक झपकते ही जैसे फूल समान खिल उठी। उसे देखते ही वह अपना सारा दर्द भूलकर मुस्करा उठी थी। तब रचना ने ज्योति से काफी बातें कीं-ढेरों-ढेर-काॅलेज का सारा दर्द भूलकर मुस्करा उठी थी। तब रचना ने ज्योति से काफी बातें कीं-ढेरों-ढेर-काॅलेज का सारा हाल पूछा। तमाम तरह के प्रश्न पूछ डाले; जैसे- पढ़ाई कैसी चल रही है? सब-कुछ ठीक है या नहीं? कोई बात तो नहीं हुई आदि। ज्योति उसके लिए ढेर सारी खाने की वस्तुएं, फल इत्यादि भी लेकर आई थी, विशेषकर कैडबरी के चाॅकलेट, जिन्हें रचना बेहद पसंद करती थी। से रचना उससे काफी देर तक बातें करती रही और साथ ही चाॅकलेट भी खाती रही।
बातों-ही-बातों में रचना ने ज्योति से भारत के विषय में भी जानकारी ले ली थी। तब रचना का दिल फिर एक बार भारत के विषय में सूचना पाकर मायूस कामनाओं की मजबूरी बनकर रह गया। उसका दिल फिर से टूट गया। वह अचानक ही खामोश हो गई। बिल्कुल चुप होकर वह वार्ड की छत को निहारने लगी। ज्योति ने रचना की इस उदासी को देखा, तो वह भी क्षणभर को मलिन पड़ गई। रचना का दुखड़ा वह समझती थी, उसके दर्द से भली-भांति वाकिफ थी। अनजाने में ही भोली-भाली रचना इस भारत जैसे अनजान युवक से किस कदर प्यार करने लगी थी- एक ऐसा भारत कि जिसके विषय में वह अच्छी तरह से कुछ जानती भी नहीं थी। तब ज्योति ने सोचा कि क्या सचमुच में ’भारत’ में कोई ऐसा आकर्षण है कि जिसकी वजह से कोई अनजान उसको चाहने लगता है। रचना, जो प्यार जैसे शब्द का पहला अक्षर भी नहीं पढ़़ पाई थी, अपने चेहरे पर प्यार का सम्पूर्ण विषय लिख बैठी थी। ऐसी दशा में ज्योति क्यों नहीं रचना का दर्द समझकर मलिन होती? रचना भी आखिर उसकी हमसहेली थी- एक हमसखी, जो उसके साथ दिन-रात रहती थी। वह उसकी रूम-मेट ही नहीं, बल्कि उसकी सहपाठिनी भी थी।
तब अंत में ज्योति ने रचना को पुनः तसल्ली दी, उसे दिलासा दी कि एक दिन भारत अवश्य ही काॅलेज वापस आ जाएगा, क्योंकि ज्योति की सूचनानुसार भारत अभी तक अपने घर से वापस नहीं आया था। यही दर्द भरा, निराशा से युक्त एक ऐसा संदेश था कि जिसने पल भर में ही रचना के चेहरे को जैसे झुलसाकर रख दिया था। भारत का प्यार-प्यार का अहसास-उसकी मधुर लालसाएं और हसरतें-वे सुंदर सपने-प्यारे-प्यारे साथ भरे क्षणों की कल्पनाएं; इस कदर रचना के दिल का प्यार और हक समझने वाली रचना का दिल भारत को इस कदर प्यार कर उठा था कि वह अब उसके बगैर जीने की कोई कल्पना बेकार समझती थी। इतना अधिक उसको चाहने लगी थी कि जिसकी शायद उसके दिल में कोई सीमा भी नहीं थी। भारत का प्यार और उसके सपनों में वह किस कदर डूब चुकी थी, शायद यही उसके जीवन का हश्र भी था कि आरम्भ से ही वह बेसहारा बनकर, दूसरे के कंधों का बोझ बनकर पलती आई थी और वयोसंधि की इस दहलीज पर कदम रखते ही वह भारत के प्यार में उसके सहारे की मोहताज बन चुकी थी।
ज्योति मिलकर चली गई, तो रचना को अस्पताल की बेबसी फिर काटने लगी। हालांकि, उसके वार्ड में और भी कई एक मरीज स्त्रियां थीं, परंतु रचना उन सबके बीच भी स्वयं को अकेली महसूस करती थी। अब तक संध्या सिमटकर रात्रि में परिणत हो चुकी थी। शहर और सड़कों की सभी विद्युत बत्तियां मुस्करा उठी थीं। शहर की सड़कों पर शाम की चहल-पहल का रंग फीका पड़ गया था, और दैनिक जीवन की इन्हीं गतिविधियों के साथ-साथ रचना के सुंदर फूल से चेहरे का रंग भी फीका पड़ चुका था। वह फिर से अपने जीवन की घोर उदासियों में डूब चुकी थी। ज्योति के द्वारा भारत के काॅलेज न आने की बात सुनकर फिर से उसका मन मलिन हो गया था। दिल का कोना-कोना तक दुख गया था। इरादे, हसरतें सबकी सब जहां-की-तहां ठिठककर कुंठित हो गईं थीं-फिर होती भी क्यों नहीं। उसके प्यार की पहली-पहली मिन्नतें लगातार एक के बाद एक कुठाराघाती जो हो रहीं थीं। दुःख तो होना ही था। उसका दिल टूटना और मायूस पड़ना बहुत स्वाभाविक ही था। कितनी आरजुओं से वह अपने प्यार के मिलन की आस लगाए बैठी थी- भारत को जी भरकर देख लेना चाहती थी वह कम-से-कम एक बार-बहुत करीब से-परंतु ये उसके दुर्भाग्य की वे काली रेखाएं थीं, जो उसके इरादों की मनहूस दीवारें बनकर उसके अरमानों की राहों में ढहते कगार बनकर ढुह पड़ी थीं- रचना के दिल में भारत के प्यार का कितना अधिक दर्द था, कितनी अधिक चाहते थीं- किस कदर वह हर रोज कसक रही थी, इसका अनुमान तो केवल वही लगा सकती थी. उसके सिवा शायद और भी नहीं।
रात्रि पड़ी उठी थी। अस्पताल में खामोशियों के पुलंदे एकत्रित होते जा रहे थे। वार्डों के मरीज उनींदा हालत में पड़े अपनी-अपनी बेबसी का परिचय दे रहे थे। रचना के पास के ही वार्ड से कभी-कभार किसी मरीज के खांसने की या कराहने की आवाज समस्त अस्पताल की चुप्पी को अचानक ही भंग कर जाती थी, लेकिन फिर भी स्त्रियों के वार्ड में लगभग पूर्णतः खामोशी एक अनजाने वजूद के समान अपना अधिकार जमाए बैठी थी। सारी मरीज़ स्त्रियां चुपचाप पड़ी हुई शायद सो भी गई थीं। परंतु रचना, वह रचना, वह अभी तक जाग ही रही थी। वह जाग रही थी और सोच रही थी। उसके सोचने का विषय भी केवल एक ही था। दिल और मस्तिष्क दोनों में एक ही नाम था, होठों पर एक ही शब्द-अंखियों में एक ही चित्र-और हृदय के नाजुक पर्दे पर कमसिन हसरतों के द्वार बनी हुई, उसके पहले-पहले प्यार की एक ही ध्वनि-एक ही आवाज-भारत! ज्योति के जाने के पश्चात् वह अभी तक भारत के लिए ही सोचे जा रही थी- सोच रही थी कि भारत! क्या हुआ उसको? क्यों नहीं आया? क्यों नहीं नहीं आ पा रहा है? कहीं कुछ हो न गया हो उसे? अब तो उसे वापस लौट आना चाहिए था। हर हाल में, हर कीमत पर उसे काॅलेज आना चाहिए था। उसकी पढ़ाई का भी तो कितना अधिक नुकसान हो रहा है। परमेश्वर कभी न करे कि उसको कोई हानि कभी भी हो। न मालूम क्यों नहीं आ सका है वह अब तक। जहां भी हो, वह वहां सुरक्षित ही रहे- सुखी और चैन से। जैसे ही लौटकर आएगा, वह उससे खूब बातें कर लेगी। कैसे भी- कहीं भी-एकांत या भीड़ में ही क्यों न-काॅलेज अथवा काॅलेज के बाहर- उससे बात तो करनी ही है- नहीं करेगी, तो वह तो अपनी ओर से कभी भी बोलने वाला है नहीं- वह भी अनोखा ही है- अजीब और एक अलग ही असाधारण व्यक्तित्व का- कितना शर्मीला है वह! कितना अधिक गंभीर भी- हर समय चुपचाप रहना भी तो अच्छा नहीं मालूम होता है। मनुष्य को कभी तो मुस्कराना और बोलना तो चाहिए ही।
सोचते-सोचते रचना ने स्वयं से ही ये निर्णय भी कर लिया कि भारत के काॅलेज आते ही वह उससे बात अवश्य ही करेगी। अब तो हर दशा में उसको भारत से मिलना ही होगा। नहीं मिलेगी तो ऐसे तो वह कुछ भी नहीं पा सकेगी। भारत कुछ अपनी ओर से तो कहने से रहा और यदि वह भी चुप ही रही, तो एक दिन सब-कुछ हाथों से निकल जाएगा। फिर वह केवल अपने हाथ ही मलते रह जाएगी। इसलिए स्वयं उसको ही भारत से पहल करनी होगी। धीरे-धीरे उससे बात करके, वह अपना मेल-जोल उससे बढ़ाएगी। जब मेल बढ़ेगी तो घनिष्ठता भी बढे़गी। फिर इस प्रकार वह उसके करीब आ सकेगी, स्वयं उसको भी वह अपने करीब ला सकेगी। तब एक दिन वह उससे अपने प्यार तथा अपने दिल के अरमानों का जिक्र उससे कर देगी। कर देगी तो इस प्रकार उसको भी भारत के मन की बात ज्ञात हो सकेगी। स्वयं भारत का भी उसके प्रति क्या ख्याल और भावनाएं हैं, इसका भी अनुमान तब उसको हो सकेगा। फिर सब-कुछ स्पष्ट हो जाने के पश्चात्, यदि भारत ने उसके प्रेम को स्वीकार कर लिया, तो फिर वह उसको अपना बनाने और सदा को पाने के लिए, अपनी जी-जान तक लगा देगी, चाहे इसके लिए उसे जमाने के किसी भी स्तर से क्यों न संघर्ष करना पड़े। चाहे इस अनाथालय के सारे बंदिश-भरे नियमों को ही क्यों न तोड़ना पड़े। यदि ’भारत’ उसको चाहता है, उसे प्यार करता है, उसके दिल में भी अपनी ’रचना’ के लिए कोई स्थान सुरक्षित है, तो फिर उसके दिल के इस स्थान की सुरक्षा करने लिए वह कभी पीछे नहीं हटेगी। भारत के दिल का ये रिक्त स्थान तो उसका ही है, केवल उसका-उसी के लिए सुरक्षित भी है। किसी अन्य का उस पर कोई भी अधिकार नहीं है। कोई भी गैर सरहदों के उस पार से, उसकी तरफ देख भी नहीं सकता है, देखने का उसका साहस हो ही नहीं सकेगा।
सोचते हुए रचना ने भारत के दूसरे पक्ष की ओर भी सोचा। उसने गंभीरता से विचार किया कि यदि ’भारत’ उसको नहीं चाहता होगा, उसके दिल में अपनी ’रचना’ को कोई भी स्थान यदि नहीं होगा- ये भी संभावना है कि भारत के मन में कोई अन्य ’रचना’ अपना स्थान सुरक्षित कर चुकी हो तब क्या होगा? तब क्या वह इस सच्चाई को सहन कर सकेगी? यदि स्वयं भारत ने उसके प्यार को अस्वीकार कर दिया-उसकी सारी चाहतों को तिरस्कृत कर दिया- उसकी आरजुओं, दिल के संजोये हुए समस्त अरमानों तथा हसरतों पर अपनी नापंसदी का पैबंद लगा दिया तब फिर क्या होगा? क्या होगा जब, वह अपना सूना आंचल फैलाकर, भारत से अपने दिल के अरमानों की भीख मांगेगी और भारत ने उसकी झोली में अपनी मजबूरियों और नापसंदी के कांटे भर दिए-विवशतावश ही उसके ’भारत’ को अपनी ’रचना’ से दूर होना पड़ा- उसकी सारी आरजुओं, भिन्नतों और गुजारिशों को मजबूर होकर वापस खाली हाथ लौटना पड़ा तब क्या होगा? तब वह क्या करेगी। तब क्या वह ऐसी विषम, कठिन परिस्थिति का भारत की एक बहादुर नारी होकर कर सकेगी? क्या इस सच्चाई का कड़वा घूंट वह अपने हलक से नीचे उतार सकेगी? अपने दिल पर क्या तब वह किसी संतोष और तसल्ली का फाया रख सकेगी? शायद कभी भी नहीं। ’भारत’ के बगैर तो उसकी ’रचना’ को कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता है। उसके बिना तो वह अपना जीवन ही निरर्थक समझती है। अपने भारत के बिना वह बीमार हो गई- उसे अस्पताल आना पड़ा, अपने प्यार के लुटते हुए अरमानों की लाश देखकर तो वह मर ही जाएगी।...सोचते-सोचते, रचना की बड़ी-बड़ी झील-सी गहरी आंखों में स्वतः ही आंसू थे- एक बेबस नारी के- उसके दिल के कतरन किये टुकड़ों के समान-मगर प्यार की सम्पूर्ण विवशताओं से भरे हुए बेजान और निढाल होकर बहने लगे थे। ऐसे थे, ’भारत की रचना’ के आंसू-इन आंसुओं की एक-एक बूंद में उसके निश्छल और निःस्वार्थ प्यार की खुशबू बसी हुई थी। ऐसा था उसका प्यार-प्यार का अहसास-चाहतों की दीवानगी-उसका अपनापन-मन की लगन-दिल की इतनी ढेर सारी ख्वाहिशों के तहत वह अपने साजन की पलायनता का अहसास कर भी कैसे सकती थी। मानव-जीवन की सारी वास्तविकता और सच्चाई के पर्ताें के बीच दबी हुई, जो किसी दुखियों के प्यार के ऐसे हश्र को देखकर मुस्करा सकेगी? प्यार! इस नाम के लिए तो लोग क्या से क्या कर बैठते हैं। कोई मजनू बनता है, तो कोई फरहाद, कोई महिवाल है तो कोई रोमियो, कोई लेखक बनता है, तो कोई दीवाना बनकर अफसानों की इस कदर मोटी किताब बना देता है कि जिसे पढ़ते-पढ़ते सारा जीवन ही बीत जाता है। ’प्यार’ जैसे इन तीन अक्षरों के इस शब्द में प्रेम, नफरत, घृणा, दुराचार, वासना, हत्या, व्यभिचार और निःस्वार्थ आदि न जाने कितने ही शब्दों का समावेश छुपा हुआ है। मनुष्य की जिंदगी में यदि उसका प्यार सफल हो जाता है, तो किसी हद तक उसका जीवन भी सफल हो जाया करता है, वरना असफल प्रेम की कहानियों के ग्रंथों की इस संसार में आज भी कोई कमी नहीं है।
- क्रमश:


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