हमारा दृष्टिकोण
अर्जुन था बैठा शीश झुका कर,
गाण्डीव को फेंक इस कुरुक्षेत्र में ।
नहीं लड़ना था उसको अपने,
सगे संबंधियों के विरोध में ।
कृष्ण ने तब आकर के तुमको,
गीता का था ज्ञान दिया ।
कौन हो तुम और कौन हूं मैं,
इस बात का था भान दिया ।
कृष्ण दृष्टिकोण
उठो पार्थ अब आंखें खोलो,
चारों तरफ इस रण को देखो ।
चाहो तो तुम हट जाओ पीछे,
किंतु पहले मुझसे मिल लो ।
अर्जुन ने अपनी नम आंखें खोली और मस्तक उठा कर हैरानी के साथ कृष्ण को देखने लगे । वहीं कृष्ण ने आगे कहा,
देख पार्थ मैं माधव तेरा,
मित्र भी मैं और शत्रु तेरा ।
मुझ में ही हो तुम भी बसे,
और मुझ में ही परिवार भी तेरा ।
कौरव मुझ में, पांडव मुझ में,
मुझ में सारा ब्रह्मांड है ।
मुझ में है संसार समाया,
मुझ में ही सारा ज्ञान है ।
अर्थ कृष्ण का जान गए जो,
मुझको तुम पहचान गए तो
ये दुख तुम्हें ना अनुभव होंगे,
ना मन में प्रतिकार रहेगा ।
राग द्वेष हर भाव से ऊपर,
तुम्हारे मन का भाव रहेगा ।
कृष्ण भी मैं और राम भी मैं,
जो बसता तुम भीतर वो प्राण भी मैं ।
ब्रह्म रूप में रचता संसार और,
शिव स्वरूप वैराग्य भी मैं ।
जड़ चेतन हर अवस्था मैं हूं,
मैं ही ब्रह्मांड का सार भी ।
धरती भी मैं, आकाश भी मैं,
और मैं ही हूं पाताल भी ।
पृथ्वी बसती है मेरे भीतर,
मुझ में समुद्र का तूफान भी ।
अग्नि भी है धधकती मुझ में,
वायु देते प्राण भी ।
मन में जो भी भाव है तेरे,
उनसे मैं अनजान नहीं ।
बुद्धि में जो भी है तेरे,
मत सोच मुझे उनका भान नहीं ।
अहंकार भी मैं हूं और,
माया भी है मैंने रची ।
सृजन भी मैं हूं, प्रलय भी मैं हूं,
सामर्थ्य भी है मुझ में रमी ।
वेदों में ओमकार हूं मैं
अग्नि में हूं तेज भी ।
आकाश में, शब्दों में मैं हूँ,
पुरुषों में पुरुषार्थ भी ।
बुद्धिमान की बुद्धि मुझसे,
तपस्वियों का तप भी मैं हूं ।
सूर्य चंद्र का प्रकाश भी मुझसे,
तुम्हारे जीवन का रथ भी मैं हूँ ।
सोच तुम्हारी कहती है कि,
जो तुम यह युद्ध नहीं करोगे ।
बच जाएंगे संबंधी तुम्हारे,
तुम किसी की दृष्टि में, बुरे नहीं बनोगे ।
किंतु तुम्हारा भ्रम है ये,
क्योंकि ये मृत हैं सारे ।
तुम अगर हट भी गए पीछे,
तो भी इनकी मृत्यु खड़ी है, अपनी भुजाएं खोले ।
सुन कर कृष्ण की सारी बातें,
अर्जुन को ज्ञान हो गया ।
फिर अर्जुन नेत्रों में,
अश्रुओं के साथ बोल गया ।
ज्ञान दे दिया तुमने धर्म का,
मुक्ति का मार्ग भी बता दिया ।
मोक्ष का मार्ग भी खोल दो माधव,
विराट रूप के दर्शन नहीं दोगे क्या ।
तब कृष्ण ने दिए अर्जुन को दिव्य नेत्र खुद को दिखाने को,
और दर्शन कर कृष्ण के विराट स्वरूप के अर्जुन के वही नेत्र बह उठे । कुछ यूं वर्णन करते हैं वह कृष्ण के स्वरूप का,
अर्जुन का दृष्टिकोण
था मैं अज्ञानी जो अब तक,
तुमको था मनुष्य माना ।
तुम तो थे इस संसार के पालनहार,
आज यह जाना, जब तुम्हें पहचाना ।
तुमको देख भी सकूं,
इतना मुझ में सामर्थ्य नहीं ।
तुम्हारा ना ही आदि दिखा,
और ना दिखा अंत ही ।
मुख हैं अनेक तुम्हारे,
और अनेक हैं नेत्र भी ।
भुजाएं हैं सहस्त्र तुम्हारी
और सहस्त्र हैं शास्त्र भी ।
मुझ में ऐसा सामर्थ्य नहीं,
जो तुम्हें इन नेत्रों में भर सकूं ।
और ना ही मेरे शब्द हैं इतने,
जो वर्णन तुम्हारा कर सकूं ।
हे कमलनयन आदेश दो मुझको,
सेवक तुम्हारा सज्ज है ।
आज न कोई शत्रु मेरा,
और ना ही कोई मित्र है ।
~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम "✍️