मेरे सखा, मेरे राम Dev Srivastava Divyam द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरे सखा, मेरे राम

बैठा था मैं आंखें मूंद,
भजन करता अपने राम लला का ।
विश्वास न हुआ इन आंखों पर,
जब साक्षात चेहरा दिखा उनका ।

बैठे थे वो आकर सामने,
सिर पर मेरे हाथ था उनका ।
मैं बस ताक रहा था उनको,
होकर के बिलकुल अवाक सा ।

देख मुझको ऐसे तब,
सखा मेरा मुस्करा उठा ।
लेकर हाथों को मेरे हाथों में अपने,
वो मुझसे यूं बोल पड़ा ।

क्या मित्र, नाराज हो क्या,
क्या नहीं हुई, तुमको प्रसन्नता !
भूल गए क्या उस दिन को जब,
तुमने की थी मुझसे मित्रता !

जब मेरे इन कानों को,
मधुर वाणी ने उनकी छुआ ।
तब जाकर मैं पगला था,
वापस अपने होश में लौटा ।

मर्यादा का पालन करते मैंने,
झुक कर उन्हें प्रणाम किया ।
किंतु उनके रूप के पाश में,
मैं था बिल्कुल बंध सा गया ।

कमल समान आंखें उनकी,
जिनमें प्रेम अपार है दिखता ।
बल बाजुओं में इतना है कि,
भार समस्त संसार का ले सकता ।

आकर्षित सभी हो जाएं,
शरीर उनका इतना गठीला ।
कोई भी मोहित हो जाए,
चेहरा है इतना भोला ।

सखा, मेरा उद्धार करो,
खोए हुए ही मैं ये बोला ।
एक बार अपने मुख से ही,
सुना दो मुझको अपनी कथा ।

देख कर ऐसी भयावह घटनाएं,
मन है मेरा ये अशांत हुआ ।
सुना अपनी वाणी मुझको,
दे दो संतोष थोड़ा सा ।

मंद मुस्कान के साथ ही बोले,
मेरे सिर पर वो हाथ फिरा ।
सुनाता हूं मैं कथा अपनी,
तुम्हारी अगर यही है इच्छा ।

पिता मेरे थे वृद्ध हो चले,
जो थे अयोध्या के राजा ।
रघुवंशी थे वो जिनको,
दशरथ का था नाम मिला ।

पुत्री उनकी ऐसी थी,
कि थर थर कांपे सारे योद्धा ।
उनके कौशल के आगे,
हर वीर होता नतमस्तक था ।

इससे पहले कि सखा मेरा,
बात अपनी पूरी करता ।
मैं बड़बोला रोकता उनको,
बीच में ही बोल पड़ा ।

बहन भी है एक तुम्हारी,
ये बात तो हूं मैं जानता ।
पर इस बात का मुझे भान नहीं,
कि क्या है पूरी उनकी कथा ।

शब्दों को अपने रोक तब,
सखा ने मेरी ओर देखा ।
सिर पर मेरे हाथ फेर,
मुस्करा कर उन्होंने कहा ।

कभी भी न खोना इसको,
प्रिय मुझे तुम्हारी यही चंचलता ।
सुन कर उनके ऐसे वचन,
मुझे हुई अत्यंत प्रसन्नता ।

आगे फिर बोले वो,
चलो तुम्हें हूं सुनाता ।
कि मेरी बहन ने आखिर कैसे,
इस संसार में जन्म लिया था । 

रघुकुल था वंश हमारा,
धर्म था क्षत्रिय का ।
और क्षत्रिय में एक रीत,
सबके लिए सर्वोपरि था ।

प्राण हमारे भले ही जाएं,
किंतु वचन है निभाना सदा ।
ऐसा ही एक वचन,
शिकार के संबंध में भी था ।

यदि शिकार खेलने को,
वन में जाए कोई राजा ।
बिना शिकार के खाली हाथ,
वो वापस नहीं आ सकता ।

महाराज दशरथ के साथ भी,
ऐसा ही था कुछ हुआ ।
कई दिन थे बीत गए किंतु,
शिकार था उनको नहीं मिला ।

थके हारे वो लौट रहे थे,
आने को वापस अयोध्या ।
किंतु भूख प्यास ने भी,
उनको था व्याकुल किया ।

भाग्य से उनको अपने इस,
समस्या का था समाधान मिला ।
पास ही में एक सरोवर,
था उनको दिख रहा ।

पहुंचे वो निकट उसके,
थी उन्हें अत्यंत शीघ्रता ।
किंतु जल को पीते ही,
उनका रूप बदल गया ।

अयोध्या का राजा अब,
एक स्त्री था बन गया ।
क्योंकि वो सरोवर खास,
इंद्र की अप्सराओं का था ।

थी उसमें माया ऐसी कि, 
जो भी पुरुष जल उसका पीता ।
उसी क्षण वो बिना विलंब,
एक सुंदर कन्या बन जाता ।

वही हाल उस समय तब,
महाराज का भी था हुआ ।
चेतना उनकी साथ थी उनके,
किंतु मन में एक प्रश्न था ।

अब राज्य को अपने लौटूं कैसे,
कोई मुझे न पहचान पाएगा ।
मार दिया है मैंने उनके राजा को,
विचार प्रजा का यही होगा ।

सोच विचार वो थे कर रहे,
तभी वहां एक युवा आया ।
अंग देश का राजा था वो,
महाराज रोमपाल नाम था ।

कन्या रूपी दशरथ को देख,
वो उन पर मोहित हो गया था ।
वापस न लौट सकने के कारण,
दशरथ ने चुना उनके साथ जाना ।

रानी बन कर उनकी रहे वो,
बिता दिया एक साल पूरा ।
और इतने समय में उनकी,
एक कन्या का था जन्म हुआ ।

दूजी ओर अयोध्या में राज सिंहासन,
विधवा जैसे उजड़ा था ।
अब उस राज्य को संभालने वाला,
वहां पर कोई भी नहीं था ।

रानियों ने वहां की, अपने प्रश्न तब,
गुरु वशिष्ठ से पूछे थे ।
जो कि अपनी दिव्य दृष्टि से,
बातें सारी जानते थे ।

आर्य सुमंत को उन्होंने तब,
महाराज को ढूंढने भेजा था ।
और उन्हें श्रृंगी ऋषि से,
हर घटना का भान हुआ था ।

पहुंचे आर्य सुमंत तब अंग देश,
लेने अपने राजा को ।
जान करके सारी बातें,
रोमपाल ने भी न रोका उनको ।

श्रृंगी ऋषि की कृपा से फिर,
पुरुषत्व उनको था वापस मिला ।
और इस तरह अयोध्या का राजा,
अपने राज्य में वापस लौटा ।

पुत्री को भी उनके,
साथ ही अयोध्या लाया गया ।
क्योंकि इस समय अयोध्या में,
कोई भी वारिस नहीं था ।

थी वो कन्या बड़ी हो रही,
करते हुए बाल लीला ।
किंतु साथ में वो कर रही था,
हासिल हर कला में महारथता ।

देख कर उसको महाराज का,
सीना गर्व से था फूलता ।
किंतु ये पुत्री है, पुत्र क्यों नही,
इस बात का सदा ही दुख था रहता ।

तब गुरु वशिष्ठ ने उनको,
कामाक्षी यज्ञ का था सुझाव दिया ।
जिसके लिए शांति दीदी ने,
ऋषि श्रृंगी से था विवाह किया ।

फल था उस यज्ञ का जो,
हम सभी भाइयों का जन्म हुआ ।
किंतु इसके लिए दीदी ने,
अपना सुख भी छोड़ दिया ।

अपना घर छोड़ गईं वो,
नाम भी अपना छोड़ दिया ।
तब से संसार ये उनको,
शांता था कहने लगा ।

इसके बाद वो फिर कभी,
हमसे मिलने भी नहीं आईं ।
बोलते हुए ये बातें उनके,
नेत्रों में अश्रु की बूंदें आईं ।

आंसू पोंछ तब उनके मैं,
सखा के अपने गले लग गया ।
मेरे पीठ पर हाथ फिरा तब,
उन्होंने शुरू की अपनी कथा ।

अपने तीन भाइयों के संग,
नवमी को मैं जन्मा था ।
एक साथ हम बड़े हुए और,
एक साथ मन रमता था ।

मां कौशल्या का पुत्र था मैं,
राम का था नाम मिला ।
किंतु उनसे अधिक प्रेम मुझे,
माता कैकेई से था मिला ।

लक्ष्मण भी न हुआ था जैसे,
इतना प्रिय मुझको भरत था ।
पल में बीत जाएं युग जैसे,
गुरुकुल में जीवन ऐसे बीता था ।

वापस लौटे महल में हम,
पूरी कर अपनी जब शिक्षा ।
ऋषि विश्वामित्र आए हमारे लिए,
जो कर रहे थे हमारी प्रतीक्षा ।

साथ उनके चल पड़ें हम,
शुरू की आश्रम की यात्रा ।
और इस यात्रा में ही मैंने,
ताड़का का था वध किया ।

वध हुआ इस धरती पर,
कर था उसका उद्धार हुआ ।
माता अहिल्या को मुक्त कर मैंने,
था उनका भी कल्याण किया ।

पंख लगा अपनी गति से,
समय था अब उड़ रहा ।
और इसी तरह हम सभी भाइयों की,
हो गई थी आयु पूरे चौदह ।

इस पूरे समय में मैंने जाने,
कितने असुरों का वध किया ।
लक्ष्मण के साथ मिल कर मैंने,
उनका था उद्धार किया ।

भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में,
कर रहे थे माता पिता की सेवा ।
और लक्ष्मण मेरे संग अभी भी, 
था गुरू आश्रम में रह रहा ।

ऋषि विश्वामित्र को मिथिला से,
इसी समय था निमंत्रण आया ।
वो चल दिए थे आश्रम से और,
मन में जाने उनके क्या विचार था ।

लखन को अपने साथ लिये,
उनके साथ मैं मिथिला पहुंचा ।
जहां वर चुनने को जानकी का,
स्वंवर का आयोजन होना था ।

किंतु उससे पहले ही मैंने,
सीते को जब देखा था ।
मन मेरा अशांत हो रहा,
उस पर मैं अब मोहित था ।

अगले दिन फिर शुरू,
सीता का स्वंवर हुआ ।
संसार का हर वीर,
था वहां एकत्रित हुआ ।

पूरे विश्व के वीर वहां पर,
आए थे दिखाने पौरुष अपना ।
किंतु शिव धनुष था ऐसा कि,
रावण भी इसमें असफल था ।

तब अपने प्रण के कारण,
निराश हुआ था मिथिला का राजा ।
और उनके वचनों को सुन,
लक्ष्मण का था बांध टूटा ।

उस धनुष को उठाने को फिर,
उसने था नाम लिया मेरा ।
गुरुवर की आज्ञा से मैं तब,
सिया को पाने आगे बढ़ा ।

उठाया धनुष को मैंने ऐसे,
जैसे हो कोई खिलौना मेरा ।
प्रत्यंचा तब चढ़ाई मैंने और,
डंकार कर उसको तोड़ा ।

इसके साथ की कांपी धरती,
अंबर भी था डोल गया ।
साधना टूटी परशुराम की,
रक्त क्रोध में खौल गया ।

पहुंचे वो मिथिला सीधे जहां,
हो रही थी हमारी वरमाला ।
किंतु वो तो आए थे उसे मारने,
जिसने शिव धनुष था तोड़ डाला ।

सुन कर उनके क्रोध के बोल,
लक्ष्मण भी था उबल पड़ा ।
मेरे प्रेम में उसने ये भी न देखा,
कि उसके सामने था कौन खड़ा ।

शांत किया उसको मैंने फिर,
परशुराम को अपना दर्शन दिया ।
विष्णु का ही रूप हूं मैं,
इस बात का उनको भान दिया ।

लौट गए वो शांत होकर,
फिर मेरा विवाह सीता से हुआ ।
बहुपत्नियों के इस चलन में मैंने केवल,
सीता-व्रती होने का वचन दिया ।

उसी समय एक विचार,
सबके मन में आ गया ।
और साथ में सारे भाइयों को,
उनकी पत्नियों से जोड़ा गया ।

वापस आए अयोध्या हम,
मेरा था राज्याभिषेक होना ।
किंतु मंथरा काकी ने तब,
जाल था कुछ ऐसा बुना ।

अपने पुत्र से अधिक प्रेम मुझे,
थी करती जो कैकई माता ।
उन्होंने ही अब मेरे लिए,
14 वर्षों का था वनवास चाहा ।

वचन से बंधे थे पिता मेरे,
किंतु ये निर्णय न लो पाए वो ।
खुद को कोस रहे थे वर्षों पहले,
माता कैकई को दिया था वचन जो ।

किंतु ये था अधिकार,
उस समय माता कैकई का ।
आखिर युद्ध भूमि में उन्होंने,
महाराज को बचाया था ।

प्रसन्न हो तब महाराज ने,
स्वयं उन्हें एक वचन दिया था ।
जो माता कैकई ने,
उस समय नहीं लिया था ।

अब जाकर उन्होंने अपना,
वचन ये उनसे मांगा था ।
पिता का वचन पूरा करना,
अब मेरा कर्तव्य था ।

इसलिए मैंने शीश झुका कर उनकी,
इच्छा का था मान किया ।
साथ में मेरे चली सिया,
और लक्ष्मण ने भी साथ दिया ।

अपनी पत्नी को छोड़ कर उसने,
भ्रातृ धर्म का चुनाव किया ।
उसकी पत्नी ने भी उसके,
निर्णय को सहर्ष स्वीकार किया ।

चले गए फिर वन को हम,
सबको अपने पीछे छोड़ ।
नहीं बर्दाश्त हुआ पिता से,
अपने पुत्रों का विक्षोभ ।

ये भी था परिणाम उनके 
भूतकाल में किए गए कर्मों का ।
क्योंकि शब्दभेदी बाण से उन्होंने,
श्रवण कुमार का वध किया था ।

गलती उनकी भी नहीं थी,
भान न उन्हें इस बात का था ।
किंतु इसी कारण किसी का,
पुत्र उनसे दूर हुआ था ।

प्राण अपने त्यागे उन्होंने,
सीता ने था पिंडदान किया ।
वो समय था जब मैं अपने,
पुत्र धर्म का पालन ना कर सका ।

धीरे धीरे फिर समय ये बीता और,
वनवास था लगभग पूर्ण हुआ ।
लेकिन कहते हैं न कि सुबह से पहले,
अंधकार है सदा चरम पर होता ।

ले रूप ऐसे ही अंधकार का,
सूर्पनखा आई हमारे जीवन में ।
जब उसकी दृष्टि पड़ी थी मुझ पर,
पंचवटी के उस वन में ।

ले रूप एक सुंदर स्त्री का,
आई वो मुझे मोहित करने । 
किंतु नाक काट दी उसकी,
क्रोध में आकर लक्ष्मण ने ।

स्वयं को अपमानित जान,
वो पहुंची अपने भाई के पास ।
और वो आया सीधा लेने,
मुझसे अपनी बहन का प्रतिकार ।

किंतु देख मेरी सिया को,
उसकी नियत डोल गई ।
बहन के प्रतिकार को भूल,
रूप मोह में वो फंसा वहीं ।

मारीच को भेज उसने,
मेरे साथ था छल किया ।
स्वर्ण मृग का रूप ले उसने,
सीता को था मोहित किया ।

भागा जब मैं लाने उसको,
उसने अपना दांव चला ।
मेरी ध्वनि में सीता को पुकार,
उसके मन को विचलित किया ।

लक्ष्मण रेखा खींच कर तब,
लखन मुझे बचाने आया ।
छल कर सिया से फिर रावण ने,
उसका था अपहरण किया ।

रोकने को उसको जब,
जटायु ने उसको ललकारा ।
पंख काट कर उसके तब,
रावण ने उसको मृत्यु तक पहुंचाया ।

लेकर उसे वो लंका गया,
अशोक वाटिका में बंदी बनाया ।
साम दाम दण्ड भेद सब,
उसने सीता पर था चलाया। 

किंतु मेरी सिया भी एक,
स्त्री थी पति व्रता ।
अपने स्वामी की भक्ति थी उसे,
प्रिय अपने प्राणों से भी ज्यादा ।

पागल होकर मैं अपनी,
सीता को था खोज रहा ।
भूखा प्यासा जैसा भी था,
लखन संग था मैं भटक रहा ।

इसी बीच मैं मेरी माता, 
शबरी से भी मिला था ।
जिन्होंने न जाने कब से,
मेरे लिए ही बांट जोहा था ।

मीठे बेर चुनने को उन्होंने,
हर फल को खुद चखा था ।
जूठे बेर खाकर उनके,
मन मेरा अब तृप्त हुआ था ।

फिर मैं आगे बढ़ा वैसे ही,
सीता को अपनी ढूंढता हुआ ।
ऐसे समय पर मुझको अपना,
सबसे प्रिय हनुमान मिला ।

सिया को ढूंढने के लिए,
वो सबसे आगे था ।
और समुद्र के किनारे ही वो,
जटायु के भाई, संपाती से मिला ।

बताया उसने ही तब ये कि,
सीता अब है कहां ।
और सुन कर उस स्थान के बारे में,
हनुमान अब परेशान था ।

तब जाकर जामवंत ने उसकी,
शक्तियों का उसे भान कराया ।
क्या है वो और क्यों है,
इस बात से उसको अवगत कराया ।

इस सबके बाद हनुमान,
समुद्र भी था लांघ गया ।
और वापस आने से पहले,
लंका को भी जला दिया ।

अब मुझे पता था सीता कहां हैं,
किंतु विडंबना थी सामने एक ।
रास्ते में था समुद्र विशाल,
जिसमें थे रहते जीव अनेक ।

तब सहायता मेरी वानरों ने की,
मिल कर पुल बनाया हम सबने ।
किंतु इस बीच एक पाप,
मैंने भी किया था इस जन्म में ।

बाली को मैंने छल से मार कर,
सुग्रीव को उसका था राज्य दिया ।
राज्य उसका स्थापित हुआ तब जाकर,
मुझे वानरों का था साथ मिला ।

मन में लिए हौसले की आग,
बढ़ चले हम सिया को लाने ।
रावण के राज्य को खत्म करके,
संसार को उससे मुक्ति दिलाने ।

किंतु मेरा मन न माना,
रावण की हत्या करने को ।
अंगद को मैंने उसके पास भेजा,
संधि वार्ता करने को ।

किंतु रावण था मद में चूर,
मेरी उसने एक न मानी ।
धीरे धीरे अपने सभी पुत्र खोए,
फिर भी की अपनी मनमानी ।

किंतु मेघनाद भी कम न था,
किया शक्ति से अपने प्रहार ।
लक्ष्मण उससे मूर्छित हुआ,
जाने वाले थे उसके प्राण ।

तब हनुमान ने मेरे, 
लक्ष्मण के प्राण बचाए थे ।
एक रात में वो पूरे द्रोणगिरी,
पर्वत को लेकर आए थे ।

देख कर अपने भाई के कृत्य,
विभीषण का मन था खिन्न हुआ ।
और उसी दिन वो अपने, 
भाई से था भिन्न हुआ ।

रावण मृत्यु का रहस्य खोला उसने,
सहायक मेरा था बन गया ।
भेद रावण की नाभी को तब,
मैंने था उसका वध किया ।

सह कर ये सारी पीड़ा,
ये समय था हमने काट लिया ।
इस सबके उपरांत मैं जाकर,
अपनी प्यारी सीता से मिला ।

प्रेम परीक्षा थी वो हमारी,
जो हमने थी पार कर ली ।
और अग्नि परीक्षा के नाम पर,
मैंने अपनी सीता वापस पा ली ।

इस सबके साथ ही हमने,
उनको अंतिम प्रणाम किया ।
अशोक वाटिका में सीता का साथ,
जिन माता त्रिजटा ने था दिया ।

सौंप कर विभीषण को,
अब पूरे लंका का राज ।
हम सभी लौटे अयोध्या,
पूर्ण कर अपना वनवास ।

14 वर्ष के बाद मैं अपने,
प्रिय भ्राता भरत से मिला ।
जो राज्य में अपने होकर भी था,
संन्यासी का जीवन जी रहा ।

महल लौटे हम सब तो,
मेरा अब राज्याभिषेक हुआ ।
सीता भी थी रानी अब,
राजसिंहासन उससे शोभित हुआ ।

किंतु ये बात आम जनता में,
कुछ लोगों को थी चुभ गई ।
और उन्होंने सीता के चरित्र पर,
आपस मे लांछन लगाया वहीं ।

इस सबसे अंजान मैं,
अपने राज्य कार्यों में था ।
किंतु सीता को कहीं से,
इस सबका हो गया भान था ।

मुझको जब इसका भान हुआ तो,
मैंने अपना पद छोड़ना चाहा ।
किंतु सीता ने रोक कर मुझको,
स्वयं के लिए था वनवास मांगा ।

हृदय मेरा था भरा हुआ,
सिया विरह की वेदना से ।
जाते हुए देख रहा था उसे महल से,
मैं आंखों में अपने अश्रु लिये ।

भान मुझे न था इस बात का,
कि सीता मेरी गर्भवती थी ।
इसके बाद मैं महल में रहा,
और वो वन में जी रही थी ।

समय का चक्र था घूम रहा,
और मैंने था अध्वमेध यज्ञ किया ।
घोड़ा मेरे यज्ञ का था,
घूमते हुए वन में पहुँचा ।

पकड़ा था उसे दो मुनि कुमारों ने,
मेरे सारे भाइयों को हरा दिया ।
जब स्वयं हनुमान पहुँचे लाने उसे,
बंदी था उसे भी बना लिया ।

अचंभित हो मैं भी पहुंचा वहीं,
तब उनसे था पहली बार मिला ।
किंतु उस मिलन में भी,
मैं उनको ना पहचान सका ।

जान कर ये सब कुछ सीता ने,
लव कुश को था सत्य बताया ।
और तब जाकर था मैं,
अपने पुत्रों से मिल पाया ।

किंतु प्रजा तब भी थी वैसी ही,
सीता से पुनः प्रमाण था मांगा ।
अपने पुत्रों के साथ भी वही होता देख,
उस मां का क्रोध था जागा ।

क्रोधित होकर इस बार उसने,
अपना निर्णय स्वयं लिया ।
जिस धरती से जन्मी थी वो,
उसी में खुद को समाहित किया ।

अब वो थी संसार से चली गई,
मैं सीते सीते पुकारता रह गया ।
क्रोध मेरा फूटा था तब,
संसार को नष्ट था करने चला ।

तब वरिष्ठ लोगों ने मुझको,
समझा कर था शांत किया ।
किंतु दोष क्या था मेरा
सिर्फ इतना, कि मैं उनका राजा था ।

पत्नी जिससे मुझे प्रेम था अत्यंत,
उसके सुख से भी वंचित रहा ।
और पुत्रों का बचपन भी मैं,
कभी नहीं था देख सका ।

इस सबके बाद भी मैंने,
अयोध्या को संभाला था ।
पुत्रों को अपने पाल रहा था,
राज्य धर्म को माना था ।

सुन कर मेरे प्रभु की गाथा,
अश्रु हैं मेरे आंखों में ।
प्रभु तुम हो मर्यादा पुरुषोत्तम,
आदर्श समाज के हो इस कलियुग में ।

यदि हर पुरुष इस कलियुग का,
मार्ग तुम्हारा अपना ले ।
जैसे तुमने किया वैसे ही,
हर नारी का सम्मान करे ।

ये धरा ही स्वर्ग हो जाएगी,
हर कोई सुखी हो जाएगा ।
कोई भी पुरुष किसी महिला पर,
फिर उंगली नहीं उठा पाएगा ।

सुन कर मेरे ये वचन वो,
आंखों में नमी के साथ बोले ।
पाप का युग है कलियुग ये,
इस युग में बस पाप ही बोले । 

सुन लो ऐ सखा मेरे,
न्याय पाने के लिए अब ।
तुम्हें करने होंगे बलिदान कई,
विरोधी होंगे तुम्हारे सब ।

अब राम से ज्यादा रावण होंगे,
सीता का हर दिन अपहरण होगा ।
अब कोई हनुमान उसे ढूंढने,
कहीं से भी नहीं आएगा ।

किंतु ये सदा रखना याद,
तुम्हारा सखा है तुम्हारे साथ ।
हिम्मत करके बस लड़ना तुम,
करना बस मुझ पर विश्वास ।

इसी के साथ हाथ फिराया,
उन्होंने मेरे मस्तक पर ।
आंखें हो गईं बंद मेरी,
खुशी से भाव विभोर होकर ।

माता श्री ने अचानक मेरे,
कंधे पर जब हाथ रखा ।
अचंभित होकर देखा उनको तो,
प्रभु के सामने था मैं सोया हुआ ।

बांवरा हुआ मैं ढूंढने लगा अब,
राम को अपने हर दिशा में ।
मुझको ऐसे देख कर बोली,
माता श्री मुझसे चिंता में ।

क्या हुआ है देव तुम्हें,
क्या तबियत तुम्हारी ठीक नहीं ।
अब कैसे कहूं मैं उनसे कि, 
मेरे पास इस बात का जवाब नहीं ।

कैसे कहूं मैं उनसे कि,
मेरे प्रभु ने मुझको दर्शन दिए हैं ।
किंतु दिए हैं यदि तो अब,
वो यहां पर क्यों नहीं हैं ।

क्या ये सब केवल भ्रम था मेरा,
जो झटके से था टूट गया ।
तभी माता श्री ने देख मुझको,
सवाल मुझसे पूछ लिया ।

अपने मस्तक पर तुमने ये,
चंदन का तिलक कहां से किया ।
जबकि मंदिर में तो चंदन,
कबका था खत्म हो गया ।

तुरंत जाकर देखा मैंने,
शीशा लेकर चेहरा अपना ।
तब मैंने भी देखा कि मेरे माथे पर,
चंदन का तिलक था दमक रहा ।

मैं अपने ख्यालों में अब,
फिर से था डूब गया ।
तो क्या वो सत्य था जो, 
मैंने अभी सब देखा था !

तभी आवाज कानों में पड़ी, 
मेरे राम लला की वहां ।
मैं तुझमें ही हूं सखा मेरे, 
फिर क्यों तू इतना सोच रहा !

फिर से मैं ढूंढने लगा उनको,
मन था ये अब बेचैन हुआ ।
तभी नजर शीशे पर पड़ी,
जहां उनका अक्स था दिख रहा ।

बैठ गया मैं घुटनों पर अपने,
नेत्रों में जल था भरा हुआ ।
किंतु साथ में प्रभु का अक्स भी,
घुटनों पर था बैठ गया ।

नासमझी से बोला मैं,
ये क्या कर रहे हो सखा !
कोई भगवान भी भला,
भक्त के सामने है झुकता !

बोलें वो तब मुस्करा कर,
मैं भगवान नहीं, मित्र हूं तुम्हारा ।
उसी दिन से जिस दिन तुमने,
मुझे अपना सखा था माना ।

मतलब वो सब सच था जो,
मेरे साथ अभी है हुआ ।
मैं पगला अभी भी अचंभित,
उनसे था ये पूछ रहा ।

सखा मेरा बोला तब मुझसे,
नहीं, ये कोई स्वप्न नहीं ।
मैं दिखूं या नहीं पर,
रहता हूं तुम्हारे साथ में ही ।

तुम में ही रहता हूं मैं,
इसलिए मुझे अब ढूंढना नहीं ।
जहां भी तुम्हें जरूरत होगी,
हमेशा मुझे पाओगे वहीं ।

मैं बोला सुन सखा की बातें,
मैं ये सब हूं जानता ।
तुम पर ही विश्वास कर,
मैं हूं सदा आगे बढ़ता ।

राह पर चलूंगा तुम्हारे ही,
मैं तुम्हें ही हूं आदर्श मानता ।
चरित्र तुम्हारा अपनाकर मैं,
पालन करूंगा मर्यादा का ।

सुन कर मेरी बातों को,
मुस्कान थी उनके अधरों पर ।
और बड़े समय के बाद मैं भी,
हंस रहा था आज खुल कर ।

~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम "✍️