भारत की रचना / धारावाहिक
ग्यारहवां भाग
फिर जैसे ही कॉलेज के घंटे ने वहां की खामोशी को भंग कर दिया, तो रचना ने शीघ्र ही अपनी पुस्तकें समेटीं और उन्हें बगल में दबाए हुए, वह शीघ्र ही कक्षा से बाहर निकलने को हुई, तो अचानक ही उसकी सहेली ज्योति ने उसे टोक दिया. ज्योति रचना को आश्चर्य से निहारते हुए बोली कि,
'अरी ! कहाँ चल दी, इतनी जल्दी? सब कुशल तो है?'
हां, ठीक है. मैं अभी आती हूँ.' रचना बगैर रुके हुए ही बोली, तो ज्योति को आश्चर्य हुआ. वह एक संशय के साथ, उससे भेद भरे ढंग से पूछ बैठी,
'फिर भी, जाती कहाँ है, मुझे बगैर बताये हुए?'
'ज़रा, बॉटनी गार्डन में.'
'मैं भी चलूं, तेरे साथ?' ज्योति ने पूछा.
'नहीं.'रचना ने सीधा-सीधा कहा तो ज्योति जैसे तुनक गई. वह तुरंत ही बोली,
'देखो ! कैसा लट्ठमार उत्तर दिया है, बेशर्म ने? फिर वह भी रचना के करीब आई और उसे एक तरफ ले जाते हुए, उससे बोली कि,
'इतना आतुर मत बन. बता, किससे मिलने जा रही है?'
'कोई विशेष नहीं है.'रचना ने कहा.
'मुझे नहीं बताना चाहती है क्या?' ज्योति ने कहा तो रचना गम्भीर हो गई. वह बोली,
'तुझसे, मैंने कभी कोई बात छिपाई है क्या?'
'तो फिर किसके पास जा रही है तू?'
'है, वही लफंगा और कौन? 'रचना बोली.
'कौन रॉबर्ट?'
'हां, वही.'
'क्यों? उसने तुझे बुलाया है, या तूने उसे आमंत्रित किया है?'
'नहीं, उसको ही मुझसे कोई विशेष बात करनी है.'
'तो, ठीक है, मैं भी चलती हूँ, तेरे साथ.' ज्योति बोली.
'लेकिन?' रचना सकुचाई.
'लेकिन-वेकिन, कुछ नहीं. उसे सीधा मत समझना. मैं, बॉटनी गार्डन में एक तरफ रहूंगी. तुम दोनों के मध्य नहीं.'
तब रचना निरुत्तर हो गई, तो ज्योति भी उसके साथ-साथ चलने लगी.
बॉटनी गार्डन के गेट के अंदर घुसते ही, रचना ने दूर से ही रॉबर्ट को देख लिया. वह एक अशोक के वृक्ष के नीचे, उसकी छाया में खड़ा हुआ उसी की प्रतीक्षा कर रहा था. इस समय आकाश स्वच्छ था. दो दिन की लगातार वर्षा के कारण गार्डन की हरेक वस्तु धुली हुई, साफ़ दिख रही थी. खुलकर धूप निकली थी और गार्डन की हरी-हरी घास पर गर्मी की उमस भरी हुई थी. स्थान-स्थान पर छात्र और छात्राओं के समूह और जोड़े, अपने-अपने विषय पर वार्ता करने में व्यस्त थे. कुछेक छात्र-छात्राएं अपनी पुस्तकें खोले हुए अध्ययन करने में लीन थीं.
रॉबर्ट को देखते ही ज्योति ने रचना को अकेला छोड़ दिया और स्वयं दूसरी ओर मुड़ गई. इसके साथ रॉबर्ट ने जैसे ही रचना को अपनी ओर आते हुए देखा, तो वह भी उसी की ओर देखने लगा. रचना जैसे ही उसके पास आई, वह उसकी ओर मुस्कराकर देखता हुआ बोला,
'अकेली ही आई हो, ज्योति नहीं आई?'
'आ रही थी, लेकिन मैंने मना कर दिया है.'
'अच्छा किया. वह भी तुम्हारे पीछे, एक साए के समान, हर समय चिपकी रहती है.' रॉबर्ट ने कहा.
उसके उत्तर में रचना ने मतलब की बात की. वह बोली,
'हां, अब बोलो कि, क्या जरूरी बात करनी है?'
'तुम्हें, मेरी आंटी ने, अपने कार्यालय में बुलाया था?' रॉबर्ट ने पूछा.
'हां, बुलाया तो था.'
'तो, उन्होंने क्या बात की थी?'
'?'- खामोशी.
रॉबर्ट के इस प्रश्न के उत्तर में, रचना अपनी बड़ी-बड़ी आँखों की पुतलियों को चारों ओर घुमाकर ही रह गई. वह कुछेक पलों तक रॉबर्ट को देखती रही. फिर गम्भीर होकर बोली,
'क्या इसी आवश्यक बात को जानने के लिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया है?'
'ऐसा ही समझ लो. रॉबर्ट ने उसके प्रश्न का समर्थन किया.
'तो फिर जब जानते ही हो, तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो?' रचना ने पूछा, तो रॉबर्ट बोला,
'तुम्हारा निर्णय सुनने के लिए.'
'मैं, इस बारे में कोई फैसला नहीं कर सकती अभी.'रचना ने तुरंत ही उत्तर दिया तो रॉबर्ट भी छूटते ही बोला,
'क्यों?'
'भारतीय लड़की का शादी-ब्याह का प्रश्न कोई बालू का घरोंदा बनाने वाली बात नहीं है कि, जिसे जब चाहा बनाया और तोड़ दिया. सारी ज़िन्दगी का ठिकाना बनाने वाली बात है. इसलिए इसका निर्णय इतनी आसानी से नहीं किया जा सकता है.' रचना ने गम्भीर होकर कहा तो रॉबर्ट जैसे पिघल गया. वह थोड़ी देर बाद, फिर से मायूस होकर बोला,
'इंसानी ज़िन्दगी के घोंसले तो खुदा के घर से बनकर आते हैं?'
'मैं, मानती हूँ, तुम्हारी बात को. मगर मेरे लिए इसका समय अभी नहीं आया है.'
'समय तो अपने हाथ में होता है.'
'तुम्हारे लिए होगा. मेरे लिए नहीं.' रचना बोली.
'इसका मतलब कि, तुम्हारी तरफ से परोक्ष रूप में ये तुम्हारा इनकार ही है?' रॉबर्ट ने कहा तो रचना बोली,
'मालुम नही.'
तब रॉबर्ट उसको जैसे समझाता हुआ बोला कि,
'देखो रचना, मैंने अपने आपको बदल लिया है. अब तो मैं अपनी पढ़ाई में भी मन लगाता हूँ. इस वर्ष निश्चित ही पास होकर दिखाऊंगा. इसके साथ ही, मैं अपने मित्र रामकुमार वर्मा, जो तुम्हारी ही कक्षा में पढ़ता है, के साथ कपड़े का व्यापार करने जा रहा हूँ. तुम अगर कहोगी तो, पान, बीडी, सिगरेट और तम्बाकू इत्यादि, सभी कुछ नाशक वस्तुएं छोड़ दूंगा. चर्च और सन्डे स्कूल भी जाया करूंगा. जैसा तुम चाहोगी, और कहोगी, अब वैसा ही . . .'
'इन बातों से फायदा?' रचना ने उसकी बात को बीच में काटकर पूछा.
'लेकिन, तुमको परेशानी क्या है? आखिरकार, कभी-न-कभी, तुम्हें किसी-न-किसी का हाथ तो पकड़ना ही होगा? फिर, हम दोनों एक-दूसरे को बचपन से जानते भी हैं. साथ खेले, पढ़े, साथ ही बड़े हुए, लड़े-झगड़े भी, परन्तु फिर भी. . .?'
'बस, यही तो सबसे बड़ी परेशानी है कि, हम दोनों बचपन में साथ-साथ खेले और बड़े हुए हैं.' रचना ने कहा तो रॉबर्ट ने भी विस्मय से पूछा कि,
'ये कौन-सी परेशानी है?'
'यही कि, मैंने तुमको उस दृष्टि से कभी भी नहीं देखा, जिस नियति से तुम अब मुझको देखने लगे हो?
'?'- खामोशी.
रचना के इस कथन पर रॉबर्ट जैसे मायूस हो गया. तुरंत ही ऐसा लगा कि जैसे उसके सारे शरीर का रक्त अचानक ही जम गया हो. वह कुछेक पलों तक तो कुछ कह ही नहीं सका. केवल खामोश ही बना रहा. तब बाद में जैसे निराश होकर वह रचना से बोला कि,
'तो फिर अब मैं क्या करूं? दिल तो एक ही होता है?'
'इंसान बनो. पढ़ो और लिखो, किसी लायक बन जाओ. अभी से शादी-ब्याह के चक्कर में पड़कर, अतिरिक्त इंसानों को जन्म देकर, मेरे समान और बच्चों का इस धरती पर बोझ मत बढ़ाओ.'
'/'- रॉबर्ट रचना की इस बात को सुनकर जैसे क्षुब्ध हो गया. वह बोला,
'मुझे, लैक्चर दे रही हो?'
'नही, सच्चाई बता रही हूँ.'
'अब और भी कुछ कहना है क्या?' रॉबर्ट ने पूछा.
'जिन बातों को जानने के लिए तुमने इतना सारा समय खराब किया, उसका समय अभी नहीं आया है. साथ ही इतना और याद रखना कि, जिन चीजों से मनुष्य की आत्मा और हृदय एंव भावनाएं सदा जुड़ी रहती हैं, वे न तो धन से खरीदी जा सकती हैं और न ही हाथ बढ़ाकर, छीनकर हासिल की जा सकती हैं.'
'?'- रॉबर्ट चुप.
उत्तर में रॉबर्ट ने तब आगे कुछ भी नहीं कहा. वह केवल मूक ही बना रहा. इस पर रचना ने उससे आगे कहा,
'अब मैं चलूं?'
'?'- रॉबर्ट उससे कुछ कहता, इसी बीच किसी ने उसका नाम पुकारा तो वेह सहसा ही चौंक गया. उसने घूमकर देखा तो,
'अरे, रॉबर्ट तुम यहाँ?'
रॉबर्ट का मित्र और रचना की कक्षा के छात्र रामकुमार वर्मा ने उसे आवाज़ दी थी.
उसकी ओर देखकर रॉबर्ट ने रचना से कहा कि,
'देखो, वर्मा आ गया. मैं, इसी के साथ कपड़े का बिजनिस करने जा रहा हूँ.'
'मैं जानती हूँ. कल ही तो मैं और ज्योति, इनकी दुकान पर गये थे. रचना बोली.
तब रॉबर्ट ने कुछ नहीं कहा. वह वर्मा की ओर देखने लगा. तभी रचना ने आगे कहा कि,
'ठीक है तो मैं अब चलती हूँ.' यह कहकर उसने जाना चाहा तो रॉबर्ट उससे बोला कि,
'अब जब वह आ ही गया है तो, उससे भी मिलती जाओ?'
'इनसे तो मैं, रोज़ ही मिलती हूँ. मेरे क्लास में ही तो हैं. फिर कल भी मैं, इनकी दुकान पर गई थी'.
रचना ने वर्मा की ओर देखकर कहा, लेकिन तब तक वह उन दोनों के मध्य आकर खड़ा हो चुका था.
'जानती तो हैं, लेकिन सेवा का अवसर तो इन्होंने कल ही दिया था?' वर्मा ने हंसकर कहा तो रचना बोली,
'अब, आप चाहें जो कहें, लेकिन मैं कल ही गई थी, आपकी दुकान पर- कितनी ढेर सारी शॉपिंग की थी., ज्योति के साथ.'
'जी, आपकी दया है.' वर्मा ने कहा.
'दया?' रचना ने आश्चर्य किया.
'अब ये दया और मेहरबानी ही तो है. देखो, कितनी वर्षों से, मेरी दुकान मुक्तेश्वर में है और आपने कल पहली बार, वहां दर्शन दिए? आपको तो रोज़ क्या, अक्सर ही आना चाहिए. आपकी ही तो दुकान है.'
'रोज़-रोज़ आने के लिए इजाज़त लेनी पड़ती है.'
'इजाज़त ! वह कैसी?' वर्मा बोला.
'पॉकेट की और हॉस्टल की.'
'पॉकेट की छोड़िये, आप केवल हॉस्टल की आज्ञा लीजिये.' वर्मा ने कहा तो रचना ने आश्चर्य किया. वह बोली,
'ये मेहरबानी, किस प्रकार की?'
'वह इसलिए कि, रॉबर्ट अब मेरे साथ अपना 'शेअर' डालने जा रहे हैं, सो पैसों का हिसाब मैं उनसे कर लिया करूंगा. क्योंकि, वैसे भी आप दोनों एक-दूसरे को जानते ही हैं. . .मेरा आशय, एक ही समुदाय के हैं.'
'जी, बहुत-बहुत धन्यवाद. कभी अवसर आया तो फिर से सेवा का मौका दूंगी.'
फिर वह रॉबर्ट से सम्बोधित हुई. बोली,
'अब मैं चलती हूँ.' ये कहती हुई वह वहां से चली आई.
फिर रचना के चले जाने के पश्चात वर्मा ने रॉबर्ट से पूछा,
'तुम, इसी लड़की से विवाह करना चाहते हो'
'हां.'
'वह क्यों?'
'बचपन से मेरे साथ की है. फिर मामा और मेरी आंटी भी यही चाहती हैं कि, मैं रचना से विवाह करूं.' रॉबर्ट ने बताया तो वर्मा उससे बोला कि,
'मैं, एक बात कहूँ?'
'बोलो?'
'मेरी सलाह तो यही है कि, तुम इससे विवाह मत करना.'
वर्मा की इस अप्रत्याशित बात को सुनकर रॉबर्ट चौंका तो पर, अधिक आश्चर्य नहीं कर सका. वह तुरंत ही बोला,
'तुम्हारा मतलब?'
'वह जितनी अच्छी लड़की है, उससे कहीं अधिक बेचारी भी है. तुम इसको क्या सुख दे पाओगे?'
'कम-से-कम भूखा तो नहीं रखूंगा उसे.'
'अरे, ऐसे तो जानवर भी अपना पेट भर लेते हैं. मैं तो तुम्हारे आगे की सोच रहा था.' वर्मा ने कहा.
'वह क्या?'
'रचना, ठहरी पढ़ी-लिखी, सभ्य, शालीन और सुशील लड़की, और तुम. . .? खुद ही जानते हो कि, एक-न-एक दिन जेल के सींखचों के पीछे होगे ही, या फिर हो सकता है कि, किसी की गोली का निशाना बन जाओ. ज़रा सोचो कि, अगर किसी दिन ऐसा हो गया तो इस बेचारी का क्या बनेगा?'
'ऐसे तो तुम्हारे भी 'फ्यूचर' का भी कोई भरोसा नहीं है.' रॉबर्ट ने तर्क किया.
'मैं जानता हूँ. इसीलिये किसी को विधवा या बेसहारा बनाने के ख्वाब नहीं देखा करता हूँ.' वर्मा बोला.
इस पर रॉबर्ट ने वर्मा को एक बार घूरा. फिर एक संशय के साथ उससे बोला कि,
'कहीं तुम्हारी भावनाएं तो नहीं बदलने लगीं, रचना की शालीनता और सुन्दरता देखकर?'
तब वर्मा जैसे अपने स्थान पर उछल-सा पड़ा. वह अपनी कड़कती हुई आवाज़ में रॉबर्ट से बोला कि,
'अबे ! ये रामकुमार वर्मा, चोर, बदमाश, आवारा और स्मगलर, सभी कुछ हो सकता है, लेकिन कमींन नहीं. फिर कभी ऐसा मत बोलना, नहीं तो . . .?'
'नहीं तो क्या?'
'हमारे-तुम्हारे सम्बन्धों के बीच में जो यह साफ़, स्वच्छ, चमकीला शीशा नज़र आता है, उस पर धुंध जमते देर नहीं लगेगी.'
'अच्छा, ठीक है. अब गर्म मत हो. चल कहीं चलकर कॉफ़ी आदि पीते हैं.' रॉबर्ट ने कहा.
तब वर्मा चुपचाप उसके साथ हो लिया.
दूसरी तरफ जब रचना, जैसे ही रॉबर्ट और वर्मा से बात समाप्त करके वापस आई, तो उसके दिल-ओ-दिमाग में ढेरों विचार थे. परन्तु, फिर भी उसकी दृष्टि अपनी सहेली को ढूंढ लेना चाहती थी. इसका कारण यह भी था कि, रचना को जब रॉबर्ट ने से बात करने में अधिक देर लगी और वर्मा भी वहां आ गया था, तो फिर ज्योति निश्चिन्त होकर वहां से चली आई थी और रचना की नज़रें किसी चुपचोर की भांति उसको चारों तरफ देख रहीं थीं. लेकिन, रचना ज्योति को ढूंढ नहीं सकी. वह भी न जाने कहाँ जाकर गायब हो चुकी थी. फिर वैसे भी रॉबर्ट की बातों से उसका मूँड तो खराब हो ही चुका था. वह अपने-आपको सहज नहीं ले पा रही थी. कक्षा का अगला पीरियड आरम्भ होने वाला था. केवल कुछेक मिनट ही बाक़ी थे. बाहर गर्मी इतनी अधिक थी कि, धूप की उमस औरसूर्य की तपन के कारण रचना के सिर में भी दर्द होने लगा था.
क्रमश: