शून्य से शून्य तक - भाग 58 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शून्य से शून्य तक - भाग 58

58===

आशिमा के सामने ही शादी का दिन तय हो गया| आशिमा को यहाँ कई दिन हो चुके थे| मि.भट्टाचार्य ने दीनानाथ जी से बात करके अनिकेत को भेजकर आशिमा को बुलाने की बात की| उन्होंने प्रसन्नता से हाँ कर दी| आशी की शादी में भी तो आएगी वह| अब कुछ दिन अपनी ससुराल रह आए| रेशमा दीदी के जाने की बात सुनकर ही उदास हो गई लेकिन उसे जाना तो था ही| वह अनिकेत के साथ चली गई| एक बार फिर रेशमा बहन के गले लगकर ज़ोर से रो पड़ी| आशिमा का दिल भी उसे छोड़ते हुए टूट रहा था लेकिन अनिकेत की आँखों का प्यार भरा निमंत्रण वह कैसे अस्वीकार कर पाती? अभी कुछ ही दिन तो हुए थे शादी के, उसने छोटी बहन को प्यार से समझाने की कोशिश की| 

एक बात अवश्य थी कि जब आशिमा न होती तब आशी उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार करती, उसका ध्यान भी रखती, उसे कभी जुहू बीच पर कभी किसी रेस्तरां में कभी लॉंग ड्राइव पर ले जाती| रेशमा को प्रसन्न करने का पूरा ध्यान रखती वह!

वहाँ कुछ सोचने का समय ही नहीं मिलता था यहाँ ‘पर, लेकिन, परंतु’ जैसे शब्द बहुत थे जो हर बात में चिपके ही रहते| इसलिए हर बात में व्यवधान पड़ता ही रहता| ये शब्द जैसे जीवन के अभिन्न अंग बन गए थे| ये शब्द सबकी ही ज़िंदगी का हिस्सा बन गए थे| सबसे अधिक घुटन मनु को होती| कभी-कभी वह अपने भाग्य पर हँसता, क्या था और क्या हो गया है? कभी-कभी वह सोचता कि यहाँ से भाग जाए लेकिन न जाने कौनसी बेड़ियाँ उसको जकड़ लेतीं| उसके माता-पिता का चेहरा उसके सामने आकर खड़ा हो जाता| वह एक कठपुतली की भाँति इधर से उधर डोलता रहता| पता नहीं वो ‘सो कॉल्ड’विधाता उससे न जाने क्या खेल खिलवाना चाहता है? ठीक है, जैसे उसकी मर्ज़ी! वह एक लंबी साँस खींचकर खुद को कहीं दूसरी ओर ले जाने की कोशिश करता| 

घर से तो ऑफ़िस ही अच्छा था वहाँ इतनी व्यस्तता रहती कि कुछ सोचने का समय ही नहीं मिलता| दीना जी का एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट मनु व अनिकेत के श्रम से बुलंदियों को छू रहा था| आशी भी अपने प्रोजेक्ट पर मन लगाकर काम कर रही थी| आज तक वह अपने किसी भी काम में असफ़ल नहीं हुई थी| न जाने अपने स्टाफ़ के साथ कैसे मैनेज करती थी| जो लड़की घर में किसी के साथ भी सहज नहीं थी वह भला कैसे इतने अच्छे प्रोजेक्टस लाती और उन्हें सफलतापूर्वक पूरे करती| इस बात से उन्हें संतुष्टि होती और एक और बात थी कि सारे में अकेली भटकती लेकिन कभी उसके चरित्र के बारे में कोई बात खड़ी नहीं हुई थी| आज के जमाने में अपने बच्चे की चारित्रिक प्रशंसा सुनने से पिता को कितनी संतुष्टि और गर्व होता है!मनु भी आशी के गुणों से परिचित था लेकिन उसकी और सब बातें, उसका व्यवहार, शर्तें---उनका क्या? वह सोचने में भी थक जाता कि कैसे चलेगा उसका जीवन? आशी की सारी बातें, उसका व्यवहार, उसकी शर्तें उसे भीतर से ऐसे काटतीं जैसे कोई धारदार छुरी चला रहा हो| 

मनु को एक पी.ए की आवश्यकता थी| दीनानाथ जी के द्वारा कुछ नई नियुक्तियाँ कर ली गईं थीं| उन्होंने मनु के लिए भी पी.का चुनाव कर लिया था| मनु के चैंबर का दरवाज़ा नॉक हुआ;

“कम इन---”

“सर—”दरवाज़े के बाहर से आवाज़ थी| 

“कम इन प्लीज़---”

दरवाज़े से झाँकती दो मासूम आँखों को देखकर मनु चौंक गया| 

“अनन्या भारद्वाज ? अनु---तुम ? ”उसके मुँह से निकला और एक प्रसन्नता सी उसके चेहरे पर पसर गई| 

“तुम? ” उस अंदर आने वाली लड़की के मुँह से भी निकला, वह पशोपेश में थी| 

“आप यहाँ कैसे? आप तो लंदन चले गए थे? ”उसने हैरानी से पूछा| 

“अब अचानक ही तुम से आप पर क्यों आ गईं? रही लंदन जाने की बात, वह तो पुरानी हो गई है| अब तो कई वर्षों से यहीं पर हूँ| तुम कैसे यहाँ? ”मनु के चेहरे पर उसे देखकर अचानक कैसी चमक आ गई थी!

“मैं आपका डिवीज़न जॉयन कर रही हूँ----शायद---”

“ये शायद क्यों? ”

“मेरा चुनाव तो हो गया है लेकिन अभी यह तय नहीं हुआ कि मैं किस विभाग में काम करूँगी| ”

“हाँ, यहाँ पर तीन विभागों में जगह खाली है| ”

“हाँ, मुझे सर ने बताया और आपके पास भेजा है---दो और लोगों का सिलेक्शन हुआ है, वे भी आपके पास आएंगे| अब यह आप पर है कि आप किसके साथ काम करना चाहेंगे ? ”

इंटरकॉम बजा—ट्रिन—ट्रिन

“जी---”मनु ने फ़ोन लिया| 

“जी, उनमें से एक कैंडीडेट तो मेरे सामने ही बैठी हैं, जी---जी, ठीक है| ”मनु ने बात करके फ़ोन रख दिया| 

“तुम बैठो, बताओ कहाँ रहीं ? ”

“पहले आप काम की बात कर लें, अब सिलेक्शन हो गया है तो मैं यहीं रहने वाली हूँ, आराम से बात करेंगे| ”

“अभी तो काम शुरू कर नहीं रहे हम लोग, रही तुम्हारी बात---”मनु ने एक नं डायल कर दिया| 

“अंकल ! मैंने अनन्या भारद्वाज को सिलेक्ट कर लिया है| जी---ओके। थैंक यू--”

“बस---? कितना अच्छा लग रहा है तुम्हें यहाँ देखकर---”ऐसा लग रहा था मानो मनु का मन बड़ा शांत सा हो गया हो | 

अनन्या मुस्कुराई, वह जब यहाँ आई थी तब बहुत घबराई हुई थी | जीवन के थपेड़ों ने उसे कितना हिला डाला था| उसके मन और तन में अस्वस्थता भरी हुई थी, न जाने यहाँ सिलेक्शन होगा या नहीं? 

सिलेक्शन हो गया था और एक पुरानी दोस्ती के अहसास ने मनु के मन को एक आशा की किरण से भर दिया था जैसे---बरसों पहले एक ही कॉलेज में पढ़ने वाले मनु और अनन्या एक दूसरे की ओर आकर्षित रहे थे| दूसरे मित्रों के माध्यम से उन्हें एक-दूसरे की भावनाओं के बारे में पता चला था| दोनों की दोस्ती भी हुई लेकिन रिश्ता कुछ आगे बढ़ पाता कि दिल का दौरा पड़ने से अनन्या के पिता की मृत्यु हो गई| माँ पहले ही सौतेली थी जिसकी एक बेटी थी जिसका व्यवहार अनन्या के प्रति बहुत रूखा था, वह उसको पिता के सामने से ही बहुत मानसिक त्रास देती थी|