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आशी को अब सारी बातें ऐसे याद आती जा रही थीं मानो वह इन पलों में भी उन दिनों के साथ यात्रा कर रही है| वह कोई लेखिका नहीं थी लेकिन संवेदना इंसान को न जाने क्या-क्या बना देती है| अपनी शिक्षा में, अपने काम में वह सदा अव्वल रही थी लेकिन कभी यह कल्पना में भी नहीं था कि वह आपबीती इस प्रकार कागज़ पर उतारेगी----उसका मन धडक रहा था|
आशिमा और अनिकेत का नव-विवाहित जोड़ा इस प्रकार सबके मन में उतर गया था कि सब प्रफुल्लित हो, उत्साह में भरे प्रतीक्षा करते हुए बस उनके बारे में ही बातें करते रहते----अक्सर आशी के मन में इस बात को लेकर भी ईर्ष्या उभरने लगती---सबको प्यार मिलता है लेकिन वह---? उसे कहाँ मिला था सबका प्यार या मिल रहा था लेकिन खुद भी तो उसे अपने भीतर झाँकने की ज़रूरत थी---अहं की इंतिहा ने उसे भीतर से कुछ और ही बना दिया था| वह कहती या थोड़ा सा प्रयास तो करती---!!
आज आशिमा घूमफिरकर पति के साथ स्वदेश वापिस आने वाली थी| उनके स्वागत की तैयारी में दोनों परिवार पूरे उत्साह से लगे हुए थे| अभी उनकी उड़ान आने में काफ़ी समय था लेकिन रेशमा बहुत बेचैन हो रही थी| उसने आशी से कहा;
“चलिए न दीदी, एयरपोर्ट चलते हैं| ”
“अभी तो बहुत देर है| ”आशी ने अपनी रिस्टवॉच पर नज़र डाली| कैसे होंगे दोनों? मज़े में ही होंगे और क्या---? उसे क्यों यह अहसास हो रहा था कि आशिमा का जीवन कितना आनंदपूर्ण होगा| जीवन का लुत्फ़ ले रहे होंगे दोनों---उसकी ज़िंदगी में यह सब है ही नहीं | उसने एक आह सी भरी, क्या उसने अपने साथ गलत किया था? ’हुँह’उसने जाने क्यों मन ही मन उस बात को नकारने का प्रयत्न किया| ठीक है न, उसे क्या? सबकी अपनी-अपनी ज़िंदगी होती है| उसकी अपनी है---
“यहाँ पर भी तो कुछ नहीं कर रहे दीदी, चलिए न प्लीज़---”रेशमा की आवाज़ ने उसका मन भटकाया|
आशी उसकी बेचैनी देखकर अपने ख्यालों से निकली, अपने आपको उन विचारों से निकालने की कोशिश की जो उसे उद्विग्न कर रहे थे| कुछ सोचते हुए उसने पिता से कहा कि वह रेशमा को लेकर जा रही है, उसे बहुत उत्सुकता हो रही है| अभी फ़्लाइट आने में टाईम तो बहुत है पर वह बार-बार चलने के लिए कह रही है|
“ठीक है बेटा, रेशमा पहली बार अपनी बहन से इतने दिनों बाद मिलेगी| पहले कभी इतने दिनों के लिए अलग नहीं हुई न, बच्ची है| चली जाओ, थोड़ी देर कहीं घूम लेना, उसका मन बहल जाएगा| हम लोग भी टाइम पर पहुँच जाएंगे| तब तक मनु भी मीटिंग खत्म करके आ जाएगा| हम दोनों साथ आएंगे| ”उन्होंने आशी से कहा|
दीनानाथ को अच्छा लगा कि आशी अपने अंदर बदलाव लाने की कोशिश कर रही है, वह रेशमा से बहुत लाड़ से बात करने लगी थी और अब भी उसे लेकर इतनी जल्दी चली गई थी| एक रेशमा ही थी जिसको वह अपने करीब समझती थी, बाकी सब तो---लेकिन यह भी काफ़ी था कि वह उसके प्रति नरम थी शायद ऐसे ही और सबके साथ भी वह सहज हो सके| खैर, बाकी बातें बाद में----अभी दोनों साथ में घूमेंगी तो बात भी अधिक होगी और बात होगी तो दोनों में स्नेह और बढ़ेगा, जो बहुत ज़रूरी था|
कुछ देर बाद मनु आ गया तो बह और दीना अंकल भी आशिमा व अनिकेत का स्वागत करने के लिए रवाना होने लगे| माधो को कहाँ चैन था?
“मैं भी चल रहा हूँ मालिक---”
“कल तो आएगी आशिमा घर पर, कल मिल लेना| ”दीनानाथ ने कहा|
“पर, मुझे तो आपके साथ जाना है---”बच्चों सी हरकतें करता था माधो|
“है न मेरे साथ मनु---तो तू क्या करेगा? ”उन्होंने फिर से उसे समझाने की कोशिश की|
“मैं आप दोनों का ध्यान रखूँगा----”वह गाड़ी खोलकर ड्राइवर के पास वाली सीट पर जबरन बैठ गया| उसके हाथ में एक थैला भी था| जिसे उसने अपने पास ही रख लिया|
“अब इसमें क्या भर लाया? ”दीनानाथ ने पूछा|
“जब इसकी ज़रूरत होगी आपको पता चल जाएगा| ”उसने बड़े आराम से जवाब दिया|
गाड़ी में बैठे हुए मनु और दीना दोनों ने एक दूसरे को देखा और हौले से मुस्कुरा दिए| माधो से पार पाना भी कहीं किसी के बस में था !!
सच में कैसे रिश्ते होते हैँ जो ऊपर से बनकर आते हैं बल्कि छनकर आते हैं जिनमें न कोई स्वार्थ होता है और न कोई लालच!यहाँ ऐसे रिश्तों की कमी नहीं थी जबकि आज के समय में स्वार्थ के बिना कौन रहता है? यदि दीना जी के बेटा होता, वह इस प्रकार से शायद ही ध्यान रख पाता जैसे माधो रखता था, इस बात को कौन नहीं जानता था इसीलिए उसके अधिकार भी सबसे अधिक थे| पहले सहगल भी और अब दीना और मनु दोनों उसकी किसी भी ज़िद करने की बात पर हँस पड़ते थे|
“इससे कोई नहीं जीत सकता---”उन्होंने मनु से कहा और सबके मुँह पर फिर से हल्की सी मुस्कान थिरक गई|