अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 37 रितेश एम. भटनागर... शब्दकार द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 37

जतिन और मैत्री की शादी वाला बहुप्रतीक्षित दिन आखिरकार आ ही गया था, बारात जतिन के निवास स्थान साकेत नगर कानपुर से निकल चुकी थी... जहां एक तरफ जतिन अपनी कार मे अपनी गर्भवती बहन ज्योति, सागर, अपनी मम्मी बबिता और मौसी के साथ था वहीं दूसरी तरफ उसके सारे रिश्तेदार जिनमें जतिन के पापा, मामा, मामी, बुआ, फूफा, मौसा, मौसी और इन सबके बच्चे ... मेरठ मे रहने वाले उसके चाचा चाची और लोकल मे रहने वाले उसकी और उसके परिवार की जान पहचान वाले संबंधी सारे लोग एक लग्जरी एसी बस मे बैठकर लखनऊ के लिये रवाना हो चुके थे...

जहां एक तरफ बस मे सारे लोग मस्ती मजाक और हंसी ठिठोली करते हुये लखनऊ की तरफ बढ़ रहे थे वहीं दूसरी तरफ जतिन के फूफा जी मुंह फुलाये हाथ मे हाथ बांधे सबसे आगे वाली सीट पर बैठे बस खिड़की के बाहर की तरफ झांके जा रहे थे, वो पता नही बस के अंदर के खुशनुमा माहौल को छोड़कर सड़क पर क्या खोजने की कोशिश कर रहे थे और वो नाराज इस बात को लेकर थे कि जतिन की सगाई मे उन्हे नही बुलाया गया था, उन्हे जतिन ने उसकी मम्मी बबिता ने और पापा विजय ने बहुत समझाया कि "भाईसाहब सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मौका ही नही मिला" पर वो मान ही नही रहे थे.... उनका कहना था कि "अरे कितना भी कम समय था, हमे बुलाना चाहिये था, हम आते चाहे कैसे भी आते"

असल मे जतिन और उसके परिवार ने किसी से भी मैत्री के पिछले जीवन के बारे मे कुछ नही बताया था और जतिन की मम्मी बबिता ने मैत्री के घर पर भी फोन करके बोल दिया था कि अब वो लोग भी मैत्री के पिछले जीवन को पूरी तरह से भूल जायें और उन बातो का जिक्र भी ना करें.. जिससे मैत्री को भी आत्मबल मिलेगा और वो भी अपनी जिंदगी को नये सिरे से शुरू कर पायेगी इसलिये जतिन और उसके मम्मी पापा के पास जतिन के फूफा जी से माफी मांगने के अलावा और कोई चारा नही था... जतिन के पापा विजय ने असली वजह छुपाते हुये बेवजह सारी गलती अपने ऊपर ले ली और जतिन के फूफा जी से माफी मांग ली थी पर फूफा जी का मूड ठीक ही नही हो रहा था... हो भी कैसे हमारे भारतीय समाज मे शादी जैसा महोत्सव हो और लड़के के फूफा जी नाराज ना हों ऐसा कैसे हो सकता है, फूफा जी नाराज होकर जरूर बैठे थे पर उनकी नाराजगी से किसी को कोई खास फर्क नही पड़ रहा था बाकि के लोग शादी की मस्ती मे डूबे गाना बजाना करते हुये अपने हंसी खेल मे मस्त थे...

उधर दूसरी तरफ इन सब बातो से दूर मैत्री के घर मे जादा रिश्तेदारों को नही बुलाया गया था सिर्फ खास खास लोगो को ही आमंत्रण भेजा गया था... वजह साफ थी...!!

जहां एक तरफ मैत्री के मामा, मौसी वगैरह की बेटियां मैत्री के साथ थीं वहीं दूसरी तरफ रिश्तेदारों के बेटे राजेश और सुनील के साथ जनवासे मे जतिन और उसके परिवार समेत सारे बारातियो के स्वागत की तैयारियां कर रहे थे....

कानपुर से निकलने के करीब दो घंटे बाद जतिन अपनी कार से और बाकी बाराती बस से जनवासे के बाहर पंहुच गये... जैसे ही उन लोगो की गाड़ियां जनवासे के बाहर आकर रुकीं वैसे ही राजेश और सुनील जो काफी देर से सबके स्वागत की तैयारियो मे लगे थे... बाहर दरवाजे पर जाकर खड़े हो गये और बड़े ही हर्षित तरीके से दोनो भाइयो ने जतिन और उसके परिवार समेत सारे बारातियो का स्वागत फूलों की माला पहना कर किया.... जतिन ने राजेश को बहुत ही खुश होते हुये गले से लगाया और हाथ मिलाते हुये उससे कहा- राजेश भाई इस पूरे हर्षित आयोजन के कर्ताधर्ता तुम ही हो...

राजेश ने भी हंसते हुये जवाब दिया- अरे नही भाई सब ऊपर वाले की मर्जी से हो रहा है...

जतिन ने कहा- हां ये तो है बिना उनकी मर्जी के तो पत्ता भी नही हिल सकता है...

जतिन से बातचीत करने के बाद राजेश और सुनील ने जतिन के पापा मम्मी समेत बाकि के रिश्तेदारों का पैर छुकर बड़े ही अच्छे तरीके से जनवासे मे स्वागत किया.... इसके बाद सारे बारातियो ने जनवासे मे लगे नाश्ते के स्टॉल मे नाश्ता करना शुरू कर दिया...

इधर दूसरी तरफ इन सभी बातो से दूर मन मे भारी पन लिये मैत्री ब्यूटीपार्लर मे फिर से एक दुल्हन की तरह से सजने जा रही थी, मैत्री के मन मे भारीपन अब इस बात का नही रह गया था कि उसकी दूसरी शादी होने जा रही है... इतनी सारी रस्मो और कार्यक्रमों ने मैत्री के दिल मे दूसरी शादी के प्रति उसकी अस्वीकार्यता को कहीं ना कहीं दफ्न कर दिया था, मैत्री के मन मे भारीपन इस बात को लेकर था कि जिस साज सिंगार से, जिस लाल रंग से उसे नियति ने कुछ समय पहले ही अलग करके सफेद रंग पहना दिया था... वो साज सिंगार और वो लाल रंग आज उसे फिर से पहनाया जा रहा था, जैसे जैसे उसका सिंगार एक एक करके किया जा रहा था वैसे वैसे उसे वो दिन याद आ रहा था जब उसका सारा सिंगार उसके जिस्म से अलग किया जा रहा था.... अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब रवि के ना रहने पर उसके दोनो हाथ पकड़ के जोर से एक दूसरे से टकरा कर उसके हाथो मे पड़ी उसके सुहाग की चूड़ियों को तोड़कर उसकी कलाइयों को सूना कर दिया गया था और आज दुबारा से उसे वैसी ही लाल रंग की सुहाग की चूड़ियां पहनायी जा रही थीं, उसके सूने हाथों मे मेहंदी रचायी गयी थी... एक मासूम लड़की जिसे विधवा नाम दे दिया गया था आज फिर से उसे सुहागन बनाया जा रहा था..... मैत्री का मन बहुत व्यथित था... वो समझती थी कि आज जैसे शुभ अवसर पर इस तरह की बाते सोचना अच्छी बात नही है पर कुछ यादें, कुछ बातें जो दिल मे गहरे जख्म की तरह घर करके बैठ गयी हों उन्हे भूलना भी तो आसान नही होता ना!!

उसके साथ जो कुछ भी हुआ उसके बाद वो सब बाते भूल जाना मैत्री के लिये तो क्या किसी के लिये भी आसान नही हो सकता लेकिन मैत्री फिर भी सबकी खुशी के लिये बेमन से ही सही अपने आप को उस माहौल मे ढालने की पूरी कोशिश कर रही थी और चुपचाप अपने आंसुओ को अपनी आंखो मे दबाये परिस्थितियों के बहाव मे बस बहे जा रही थी....

क्रमशः