बड़ी माँ - भाग 6 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 6

6

गाड़ी के खाली डिब्बे सरकारी एजेन्सियों द्वारा खरीदे गए गेहूँ को उठाने के लिए चण्डीगढ़ रेलवे स्टेशन के लिए रवाना किए गए थे। जब गाड़ी चण्डीगढ़ रेलवे स्टेशन पर पहुँची तो उस समय सुबह के लगभग साढे़ चार बजे थे। गाड़ी द्वारा जरक से रुकने के कारण राम- आसरी की अर्ध निंद्रा टूटी तो वह अपनी गोद में सोए हुए बच्चे  को अपनी बाहों और कंधे का सहारा देकर उठी और थोड़ा दरवाजा खोलकर बाहर के परिदृष्य का जायजा लेने लगी। बाहर हलका अंधेरा था। जब वह आश्वस्त हो गई कि उसे कोई नहीं देख रहा है, तो उसने धीरे से दरवाजा खोला और एक बांह से दरवाजे का हैण्डल पकड़़कर सम्भलते हुए नीचे डतर गई। प्लेटफार्म पर जगी रोशनी में उसने कुछ लोगों को वहाँ गाड़ी के इंतजार में देखा। उसे इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि कोई उसे इस हालत में चैक भी कर सकता है। वह बच्चे को उठाए हुए प्लेटफार्म की ओर चलने लगी। भूख और प्यास के मारे उसका शरीर बेहाल हुआ जा रहा था। प्लेटफार्म के नजदीक पहुँची तो सामने पानी का नल देखकर उसे कुछ राहत का आभास हुआ। उसने टूँटी खोलकर अपने दाएं हाथ से अपने मुँह पर पानी के छींटे मारे और थोड़ा चेहरा धोकर दो घूँट पानी पीने की कोशिश की, परन्तु खाली पेट पानी की घूँट गले के नीचे नहीं उतर पा रहीं थी। बच्चे को दाएं हाथ से थोड़ा हिलाकर उसने उसे उठाया और और फिर पानी से उसका चेहरा साफ किया। अपने दाएं हाथ के चुलु से उसने बच्चे को भी पानी पिलाने की कोशिश की, परन्तु खाली पेट पानी पीते हुए उसे भी कठिनाई अनुभव होने लगी और पानी न पीने के बहाने के तौर पर उसने अपना मुँह इधर-उधर घुमाया और बोला:

       ‘बड़ी माँ, मुझे बड़ी जोर से भूख लगी है, कुछ खाने को दे दो न।’

       ‘देती हूँ बेटा, थोड़ा धीरज रख।’ कहती हुई वह प्लेटफार्म पर बने खाने-पीने की वस्तुओं के स्टाल की ओर उसे लेकर चल पड़ी। स्टाल पर जाकर उसने खाने के लिए एक पैकेट माँगा तो दूकान पर खड़े व्यक्ति ने उसे बिस्किट का एक पैकेट थमा दिया। बिस्किट का पैकेट लेकर बच्चा बहुत खुश हुआ और उस में से बिस्किट निकालकर खाने लगा। राम आसरी ने पैकेट के पैसे दिए और फिर दोनों गेट से बाहर निकल गए। उस समय स्टेशन पर किसी भी गाड़ी के न आने-जाने की वजह से गेट खाली था, इसलिए उन्हें बाहर निकलते हुए किसी ने भी चैक नही किया। अब राम आसरी के लिए सबसे बड़ी समस्या थी कि वह जाए तो कहाँ जाए। जेब में पैसे जरूर थे, परन्तु जगह तो एकदम नई थी। न जान न पहचान, न किसी ठिकाने का पता। पैदल चलती तो लूट जाने का भय। किसी से बात करती तो उस पर एतबार नहीं था। कोई भी मीठी बातों में उसे लगाकर उससे सब कुछ छीन सकता था। सोच विचार कर वह बच्चे को लेकर एक ओर बैठ गई और सूरज निकलने का इंतजार करने लगी।

       राम आसरी को बच्चे के साथ अकेली बैठी देखकर एक रिक्शा वाला उसके पास आकर पूछने लगा:

‘कहाँ चलना है? रिक्शा पर बैठ जाओ, सस्ते में ले चलूँगा।’

       राम आसरी मुँह से तो कुछ नहीं बोली, केवल गर्दन हिलाकर उसे इंकार कर दिया।

       रिक्शा वाला चला गया। परन्तु थोड़ी देर बाद एक बड़ी-बड़ी जुल्फों वाला लड़का उसके पास आकर पूछने लगा:

       ‘ताई! कहाँ चलना है?’

       राम आसरी को उस लड़के की नीयत कुछ ठीक नहीं लगी। उसने न सुनने का बहाना बनाया और चुप रही। लड़का घूमकर उसके सामने खड़ा हो गया और जोर से बोला:

       ‘ताई! ऊँचा सुनाई देता है क्या?’ और यह कहते हुए उसने अपने दाएं हाथ की तर्जनी अपने कान के चारों ओर घुमाकर इशारे से भी उसे समझाने की कोशिश की। अब राम आसरी के पास चुप रहने का कोई बहाना नहीं था। उसके साथ ज्यादा बातों में पड़कर वह कोई खतरा भी मोल लेना नहीं चाहती थी। उसने थोड़ा इधर-उधर देखा और बोली:

       ‘मुन्ना के बापू काम से अंदर गए हैं। अभी कहीं नहीं जाना है।’

       लड़का यह बात सुनकर वहाँ से खिसक गया। पाँच बजकर बीस मिनट पर एक गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर रुकी। लोग उतरकर गेट से बाहर निकलने लगे। चण्डीगढ़ के विभिन्न सैक्टरों के लिए रिक्शा और ऑटो वाले सवारियों को बैठाकर वहाँ से निकलने लगे। राम आसरी सब की ओर एकटक निगाह लगाए हुए देखने लगी। वह वहाँ से निकलना चाहती थी, परन्तु सभी अनजान थे। किसी के साथ बैठने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। और बैठकर जाती भी कहाँ? चण्डीगढ़ का नाम सुनकर उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने पचास किलो ग्राम का वज़न उठाकर उसके सिर पर रख दिया हो। यह शब्द उसे बहुत भारी लग रहा था। तभी एक दम्पति जोड़ा उसके पास आकर खड़ा हो गया। देखने में दोनों भले लग रहे थे। उम्र होगी कोई साठ-सत्तर के बीच की। एक ऑटो में बैठे चालक की ओर इशारा करके वह सज्जन पुरुष पूछने लगा:

‘मनीमाजरा चलोगे?’

       ‘किस जगह चलना है?’ उसने प्रश्न किया।

‘टाउन में, कितना लोगे वहाँ तक का?’

       ‘आप जो ठीक समझो वो दे देना।’

       ‘नहीं भैया, ये बात ठीक नहीं है। आप बताइये कितने पैसे लोगे?’

       ‘चलो बैठो, पंद्रह दे देना।’ वो बोला।

       ‘नहीं भैया, हम तो दस ही देंगे।’ वह आदमी बोला।

       ‘चलो ठीक है, बैठो।’ कहकर वह राम आसरी की ओर हाथ का इशारा करके पूछने लगा:

       ‘कहाँ जाना है?’

राम आसरी उसकी सारी बातें सुन चुकी थी। मनीमाजरा उसे कुछ पुराना सा नाम लगा। अतः उसके मुंह से बरबस ही निकल गया- ‘मनीमाजरा’।

       ‘बैठ जाओ, पाँच दे देना।’ वह ऑटो को स्टार्ट करने के लिए किक मारता हुआ बोला।

       राम आसरी बिना कुछ सोचे समझे और बिना किसी गंतब्य  की जानकारी के चुपचाप उन लोगों के साथ ऑटो में बैठ गई। रेलवे स्टेशन से चण्डीगढ़-कालका रोड़ तक सभी चुपचाप बैठे रहे। परन्तु ज्योंही वह मुख्य सड़क पर पहुँचे साथ बैठी महिला राम आसरी से पूछने लगी:

       ‘किस के यहाँ जाना है?’

       अब राम आसरी बेचारी क्या बता पाती, वह चुप रही। उस महिला ने समझा कि शायद इसने मेरी बात को सुना नहीं। वह फिर पूछने लगी:

       ‘आपने किस के यहाँ जाना है?’

       ‘न मालूम।’ राम आसरी ने सच्चाई बता दी।

       वह महिला सोचने लगी कि शायद इससे पता गुम हो गया है। बेचारी कहीं दूर से आई होगी और अब जाने का पता ठिकाना भी मालूम नहीं। अब ऐसे में कहाँ जाएगी। थोड़ा रुक कर बोली:

       ‘तुम मेरे यहाँ चलो। जब पता मालूम पड़ जाएगा तो चले जाना। बच्चे को लेकर सुबह-सुबह गलियों में कहाँ भटकोगी।’

       ‘ठीक है।’ राम आसरी बोली। सच्चाई बताने में राम आसरी अभी झीझक रही थी।

       ‘कहाँ के रहने वाले हो?’

       ‘अभी तो कहीं के भी नहीं।’ राम आसरी ने जवाब दिया।

       ‘ओह! तुम्हारा घर वाला क्या काम करता हैं?’ महिला ने पुनः प्रश्न किया।

       ‘घर वाला नहीं है।’ राम आसरी दबी आवाज से बोली।

       ‘माफ करना बहिन, मुझे ऐसा नहीं पूछना चाहिए था।’ अब वह समझ चुकी थी कि यह महिला कोई वक्त की मारी है और शायद किसी काम की तलाश में इधर आई है। इतने में ऑटो वाला बाजार की मेन सड़क पर पहुँच चुका था। ऑटो की गति धीमी करके वह पीछे की ओर गर्दन घुमाकर पूछने लगा:

       ‘किधर चलना है?’

       ‘वो सामने दस कदम पर गली है, बस वहीं पर रोक देना। हम आगे पैदल निकल जाएंगे।’ साथ बैठा आदमी बोला।

       ऑटो वाला वहाँ जाकर रुक गया। वह महिला उतरते हुए अपने पति से बोली:

       ‘आप इन वाले पैसे भी दे देना।’

       पैसे देने के बाद वे गली में अंदर की ओर चलने लगे। पीछे-पीछे राम आसरी बच्चे को साथ लिए चलने लगी। वे थोड़ी दूर जाकर एक बडे़ से मकान के पास जाकर रुक गए। गेट बंद था। उस आदमी ने अपने हाथ में पकड़े ब्रीफ केस में से चाबियों का एक गुच्छा निकाला और फिर गेट खोलकर, सभी के अंदर जाने के पश्चात्, उसे फिर अंदर से कुण्डी लगाकर बंद कर दिया। बरामदे में कुछ कुर्सियाँ और बैंत से बना हुआ एक छोटा टेबल पड़ा था। उन्होंने राम आसरी को वहाँ बैठने का इशारा किया और मुख्य दरवाजे का ताला खोलकर वह दोनों अंदर चले गए। सामान रखकर वह आदमी बाहर गली में से दूध लेकर आया। उसकी पत्नी ने चाय बनाकर एक प्लेट में कुछ खाने का सामान रखकर राम आसरी और बच्चे को चाय के साथ लाकर दिया और वहीं कुर्सी पर बैठकर पूछने लगी:

       ‘क्या नाम है तुम्हारा?’

       ‘राम आसरी।’ राम आसरी बोली।

       ‘काम की तलाश में आई हो।’ वह फिर पूछने लगी।

       राम आसरी मुंह से तो कुछ नहीं बोली, केवल गर्दन हिलाकर बता दिया। उसकी सहमति पाकर वह महिला बोली:

       ‘देखो, हम घर पर दो ही, पति-पत्नी हैं। ये कुछ समय पहले ही रिटायर हुए हैं। हमारे दोनों बेटे बाहर सर्विस में हैं और कभी कभार  ही यहाँ आते हैं। काम सिर्फ घर की सफाई और हम दोनों का खाना बनाने का है। अगर तुम्हें यह अच्छा लगे और तुम्हारा मन यह काम करना मानता है तो तुम यहाँ खुशी से रह सकती हो। तुम दोनों के कपड़े और खाने के साथ हम तुम्हें दो सौ रुपया महीना दे देंगे। हमें काम करने वालों की कमी नहीं है। मैं तो इसलिए कह रहीं हूँ कि तुम मुझे भली महिला लग रही हो और साथ में तुम्हारे पास बच्चा है। वरना आजकल बाहर के आदमी को घर पर रखते हुए डर ही लगता है। अगर तुम्हें यह मंजूर है तो अपनी हाँ-ना मुझे बता दो।’

       ‘मैं कर लूँगी।’ राम आसरी चाय का कप नीचे रखती हुई बोली।

       ‘तो ठीक है। ऊपर छत पर एक कमरा बना है। नहाने और टॉयलेट का भी साथ में ही इंतजाम है। चारपाई और बिस्तर मैं तुम्हें दे दूँगीं। तुम्हें और किसी चीज की जरूरत होगी तो वो भी मुझे बता देना। और हाँ मैं तुम्हें साफ धोती लाकर देती हूँ, नहाकर ये पुराने कपड़े बदल लेना। हूँ, ठीक है न?’ वह महिला उठकर अंदर जाती हुई बोली।

       राम आसरी ने फिर गर्दन हिलाकर अपनी सहमति दी। अंदर जाकर उस महिला ने अपने पति के साथ थोड़ा सलाह मशविरा किया और फिर राम आसरी को ऊपर उसका कमरा दिखाने के लिए ले गई। कमरा छोटा जरूर था, परन्तु एकदम साफ सुथरा लग रहा था। आगे की ओर पूरी छत खाली पड़ी थी, परन्तु छत के चारों ओर चार फुट की दीवार बनी थी। राम आसरी ने अपनी पूरी जिंदगी कभी ऐसी अच्छी जगह रहकर नहीं देखा था। उसे यह जगह बहुत अच्छी लगी। उसके मन में इस से भी बड़ी खुशी यह थी कि यहाँ रहकर वह बच्चे को स्कूल भेज सकती थी। उसने मन में ही ठान लिया था कि वह इन लोगों की खूब सेवा करेगी, ताकि वे उसे अपने पास ही रखें। राम- आसरी को कुछ समझाने और जरूरी हिदायतें देने के बाद जब वह महिला नीचे उतरने के लिए बाहर निकली तो राम आसरी दबी आवाज में पूछने लगी:

       ‘बीबी जी!’

       ‘हूँ।’ वह राम आसरी की ओर गर्दन घुमाकर बोली।

       ‘बीबी जी, यहाँ छोटे बच्चों का कोई स्कूल है?’

       ‘क्यों? इसे स्कूल में डालना है क्या?’ वह लड़के की ओर इशारा करते हुए पूछने लगी।

       ‘जी, बीबी जी।’

       ‘हाँ, है। यहाँ पास ही में है।’ यह कहकर वह नीचे उतर गई।

       राम आसरी ने पहले बच्चे को नहलाया और फिर स्वयं नहाकर अपने कपड़े बदले। बच्चे के गंदे कपडे़ देखकर उसे बहुत बुरा महसूस हुआ। वह उसे कमरे में ही खेलता हुआ छोड़कर नीचे आई और उस महिला से बोली:

       ‘बीबी जी, हमें कोई काम बताओ।’

       ‘उसने राम आसरी की ओर सिर से पाँव तक देखा। साफ कपड़ों में उसकी शक्ल और सूरत ही बदल चुकी थी। वह एकदम भोली-भाली और शरीफ लग रही थी। उसे थोड़ी देर निहारने के पश्चात् वह बोली:

       ‘क्या-क्या काम कर लेती हो?’

       ‘बीबी जी, जो भी आपके घर का काम होगा मैं सब कर लूँगी।’ राम आसरी बोली।

       ‘पहले भी कहीं काम किया है?’ उसने फिर प्रश्न किया।

       ‘नहीं बीबी जी, आप तनिक भी चिंता न करेंI मैं शिकायत का मौका नहीं दूँगी। आप हमें थोड़ा खाना बनाना समझा दियो और जो भी काम हैं उनके बारे में भी बता दियो। फिर मैं अपने आप कर लूँगी।’ राम आसरी हाथ जोड़ती हुई बोली।

       ‘देखो, राम आसरी हम लोग सीधी-साधी दाल-रोटी और सब्जी खाने वाले लोग हैं। सुबह हलका-फुलका नाश्ता बना दिया करो और फिर दोपहर और शाम का खाना है। दिन में एक बार घर में झाड़ू-पोंछा लगा दिया करो। बस इतना काम है। हमें भगवान ने सब कुछ दे रखा है। हमें किसी को परेशान करने का कोई शौक नहीं है। आओ मैं तुम्हें नाश्ता बनाना सिखाती हूँ।’ यह कहते हुए वह उसे रसोई में ले गई।

       नाश्ता लेने के बाद जब वह लोग फारीग हुए तो रसोई में अपना काम निपटाकर राम आसरी मकान मालकिन के पास आकर कहने लगी:

       ‘बीबी जी, हमारे मुन्ना के पास कपड़े नहीं हैं। मेरे पास पैसे हैं। आप हमें मुन्ना के लिए कपड़े दिलवा दो।’

       ‘ठीक है, चलो घर के लिए कुछ सब्जी वगैरह भी ले आते हैं और तुम्हारे मुन्ना के लिए कपड़े भी। कहाँ है बेटा? उसे साथ ले चलो।’ वह बोली। 

       बच्चे को साथ लेकर दोनों महिलाएं मार्किट की ओर चल पड़ी। मार्किट में जाकर मकान मालकिन ने बच्चे के लिए दो जोड़ी कपड़े लिए। राम आसरी के कहने पर उसे एक स्कूल बैग, कॉपी, पैंसिल और पहली कक्षा की एक किताब भी खरीदी गई। बच्चे के कहने पर उसे कुछ खिलौनें भी खरीदे गए। सब्जी लेने के बाद जब वापस घर की ओर मुड़े तो सामने वाली दूकान पर रखे ट्रंकों पर राम आसरी की नज़र पड़ी। वह रुक कर बोली:

       ‘बीबी जी, हमें एक संदूकड़ी भी दिलवा दो। हम उसमें अपना सामान रखेंगे। मेरे पास पैसे हैं।’ वह कुछ पैसे निकालकर उसे पकड़ाने लगी।

       ‘इसे रहने दो राम आसरी, ये तुम्हारे काम आएंगे। मैं हर महीने तुम्हारी पगार में से थोड़े-थोडे़ पैसे काट लूँगी।’ वह बोली।

       ‘ठीक है बीबी जी।’ राम आसरी पैसे सम्भालती हुई बोली।

       ट्रंक लेने के बाद वह तीनों घर की ओर चल पड़े। शाम को खाना वगैरह खाने के पश्चात्, काम निपटाकर, जब राम आसरी सोने के लिए अपने कमरें में पहुँची तो बच्चा सुबक-सुबक कर रोने लगा। इतने दिन परेशानियों की वजह से उसका मन कहीं और ही खोया रहा था, परन्तु आज यहाँ अपने घर जैसा माहौल पाकर उसे अपनी माँ और घर की याद आने लगी। राम आसरी ने उठकर चुपके से दरवाजा बंद किया और बच्चे को प्यार करते हुए पूछने लगी:

       ‘क्या बात है बेटा? क्यों रो रहा हैं? क्या कहीं दर्द हो रहा है? मुझे बता बेटा मैं सब ठीक कर दूंगी।’

       ‘बड़ी माँ, मैं माँ के पास चलूँगा। मुझे माँ के पास ले चलो। मुझे बहुत याद आ रही है माँ की। मुझे नेहा और रश्मि की भी बहुत याद आ रही है। मुझे मेरे घर ले चलो। मैं टींकू के साथ खेलूँगा। आपको पता है वो एक दिन मेरी बॉल चुरा कर ले गया था। मैं उससे अपनी बॉल वापस लूँगा। आप दिलवाओगी न मेरी बॉल? ऊँ.......ऊँ.........ऊँ............ऊँ........।’ वह अपने दोनों हाथों की उलटी तरफ से अपनी आँखों को मसलता हुआ रोने लगा।

       ‘बेटा मत रो, मैं दिलवाऊँगी तुम्हारी बॉल।’ राम आसरी उसके सिर पर अपना दाहिना हाथ घुमाती हुई पुचकारने लगी। 

       ‘और माँ के पास भी चलोगी?’

       ‘हाँ... हाँ,  हम दोनों चलेंगे माँ के पास।’ राम आसरी बोली। 

       ‘तो चलो न माँ के पास।’ वह राम आसरी का हाथ पकड़कर उसे उठाने की कोशिश करने लगा।

       ‘बेटा, अब कैसे जा सकते हैं? अभी तो अंधेरा है। अंधेरे में हम खो जाएंगे। अब तुम सो जाओ, जब सुबह होगी तो पहले माँ को ढूँढना पड़ेगा। जब वो मिल जाएगी, तभी तो चलेंगे न माँ के पास।’

       ‘माँ कहाँ रहती है? हम कहाँ ढूँढेंगे माँ को? आप जानती हो मेरी माँ को?’ वह रोना भूलकर बातों में पड़ गया।

       ‘हाँ, मैं जानती हूँ माँ को, वह बहुत अच्छी है। तुझे बहुत प्यार करती है।’ वह उसे बहलाने लगी।

       ‘वो मुझे गाना भी सुनाती है।’

       ‘कौन सा गाना? मुझे भी तो बताओ।’ राम आसरी उसे बातों में लगाकर माँ की याद को भूलाना चाहती थी।

       ‘बताता हूँ। आपको पता है न बड़ी माँ जब मैं सोता नहीं था तो माँ मुझे गाना सुनाती थी और फिर मैं सो जाता था। आप भी सुनाओगी मुझे माँ वाला गाना?’

       ‘बेटा, पहले मुझे गाना तो बताओ, क्या गाना सुनाती थी माँ।’ वह बोली।

‘ऊँ........ऊँ..........मैं सुनाऊँ?  वह कुछ याद करता हुआ बोला।

       ‘हाँ सुनाओ।’ वह उसके मुँह की ओर देखकर मुस्कुराकर बोली।

       ‘माँ कहती थी ऊँ........ऊँ..........ऊँ.........चुपके-चुपके चंदा मामा आएंगे। मेरे मुन्ना राजा को सुलाएंगे .........और आगे माँ कहती थी, माँ कहती थी, ........भूल गया।’ यह कह कर वह जोर से हँसने लगा।

       उसे देखकर राम आसरी भी जोर से हँस पड़ी। बच्चा उसे हँसता देखकर और जोर से खिल-खिलाकर हँसने लगा। कुछ देर तक वह दोनों इसी प्रकार हँसते रहे। जब हँसी रुकी तो वह खड़ा होकर राम आसरी के कान में धीरे से बोला:

       ‘बड़ी माँ, मुझे माँ वाला गाना सुनाओ न।’

       ‘बेटा, मैं गाना कैसे सुनाऊँ? मुझे तो गाना आता ही नहीं।’ उसने अपनी मजबूरी बताई।

       ‘आपको गाना नहीं आता?’ उसने प्रश्न किया।

       ‘नहीं बेटा मैंने कभी गाना नहीं गाया।’ वह बोली।

       ‘फिर आप अपने मुन्ना को कैसे सुलाती थी?’ उसने बड़े भोलेपन में प्रश्न किया।

       ‘बच्चे के यह शब्द सुनकर राम आसरी का मन भर आया। उसे ऐसा महसूस होने लगा मानो उसके मन की वेदना चींख बनकर अभी-अभी उसके कंठ से बाहर निकल जाएगी। आँखों में आँसू भर आए थे, जो छलक कर कभी भी उसके सुखे गालों पर गिर सकते थे। उसका अंग-अंग अंतरीय दुःख की पीड़ा से तड़पने लगा। उसने अपनी जिंदगी में कभी भी बच्चे का लाड़ प्यार नहीं देखा था और आज उसे एक ऐसे बच्चे का प्यार नसीब हुआ है जो स्वयं अपनी माँ की याद में तड़प रहा है। यह कैसा मिलन है? एक ओर वह बिन बच्चे के माँ का सुख भोग रही है और दूसरी ओर एक माँ अपने बच्चे के वियोग में तड़फ रही है। राम आसरी एक ऐसे भंवर में हिंडोले ले रही थी जिसकी अथाह गहराई मापना उसकी संकुचित बुद्धि से दूर की बात थी। वह सोच नहीं पा रही थी कि इस नन्हें से बालक के अबोध प्रश्न का वह क्या उत्तर दे। वह सोचती रही और बच्चे का ध्यान केन्द्रित करने के लिए अपनी तर्जनी अपने चेहरे के सामने करके घुमाने लगी। थोड़ा सोचकर बोली:

       ‘मेरा मुन्ना तो तुम हो।’

       ‘आपका और कोई मुन्ना नहीं हैं? उसने फिर प्रश्न किया।

       ‘नहीं मेरा और कोई मुन्ना नहीं है।’ राम आसरी बोली।

       ‘झूठ....झूठ.......आप झूठ बोल रही हो। मुझे मालूम पड़ गया है, आप गाना न सुनाने का बहाना बना रही हो। बड़ी माँ, सुनाओ न गाना। माँ वाला वो चंदा मामा वाला गाना सुनाओ।’ वह राम आसरी का हाथ उठाकर आग्रह करने लगा।

       ‘अच्छा बाबा, तुम बिस्तर पर लेट जाओ मैं तुम्हें गाना सुनाती हूँ।’ यह कहकर राम आसरी गाने की पंक्तियाँ सोचने लगी। थोड़ी देर सोचने के बाद वह बच्चे को अपने दाएं हाथ से सहलाते हुए गाने लगी:

       ‘ऊँ.... ऊँ..... ऊँ...... ऊँ......

चुपके-चुपके चँदा मामा आएंगे,

       मेरे मुन्ना राजा को सुलाएंगे....।

       मुन्ना राजा जब चँदा मामा को देखेगा,

       तो चँदा मामा मुस्कुराकर बोलेंगे ............

       सो जा मुन्ना राज दुलारे,

बड़ी माँ की आँखों के तारेI

       ऊँ...... ऊँ....... ऊँ........ ऊँ......’

       राम आसरी मीठे-मीठे शब्दों में गुनगुनाती रही और बच्चा गहरी नींद सो गया। उसके सोने के बाद राम आसरी ने हवा के लिए खिड़की खोली और स्वयं भी सो गई।

       सुबह जल्दी उठकर राम आसरी घर के काम में लग गई।  बच्चा देर तक सोता रहा। बच्चा शक्ल सूरत से किसी अच्छे घर का मालूम होता था। इसलिए राम आसरी को हर समय यह चिंता सताती रहती थी कि कहीं सारी बात का राज उजागर न हो जाए। इस तरह बच्चा तो उसके पास से जाता ही और साथ में पुलिस द्वारा पकड़े जाने का भय भी मुरली ने उसके मन में बैठा रखा था। यह बात भी नहीं थी कि बच्चे को नजायज तौर पर रखने में उसका कोई स्वार्थ था। उसे तो इतना भी पता नहीं था कि किसी के गुम होने की रिपोर्ट भी लिखवाई जाती है। उसे तो इतना संतोष था कि उसके पास रह कर बच्चा सुरक्षित है और बुरे लोगों की पहुँच से दूर है। वैसे भी दुनिया में अब उसका कोई नहीं था और इस बच्चे के सहारे ही वह अपना बाकी का जीवन जीना चहाती थी। शहर में जब वह बड़े अमीर लोगों को देखती तो उसका मन भी करता कि उसका मुन्ना भी पढ़ लिखकर एक दिन इन लोगों की तरह बड़ा बने और उसके सहारे वह एक भय मुक्त जिंदगी जी सके। उसकी हर समय यह कोशिश रहती कि यह बच्चा उन दंपति से दूर ही रहे, ताकि वे उसके अतीत के बारे में न जान सकें। वह ज्यादातर उसे अपने कमरे में ही रखती थी और उसके लिए उसने कुछ खिलौने लाकर भी दे रखे थें। परन्तु इस तरह वह कब तक उसे छुपा कर रखती। इसलिए वह चाहती थी कि उसे किसी स्कूल में पढ़़ने के लिए डाल दिया जाए। ऐसे में वह घर से दूर भी रहेगा और पढ़-लिखकर एक दिन बड़ा आदमी भी बन जाएगा। सभी बातों का लेखा-जोखा अपने मस्तिष्क में बैठाकर एक दिन वह मालकिन से कहने लगी:

       ‘बीबी जी, हमने उस दिन आपसे मुन्ना के लिए स्कूल के बारे में बात की थी। हमारे मुन्ना को स्कूल में लगवादो।’

       राम आसरी, इसमें हाथ जोड़ने वाली कौन सी बात है? तुम चिंता मत करो। मैं मास्टर जी को बोल दूँगी फिर तुम अपने बेटे को वहाँ छोड़ आना। हूँ, ठीक है न?’ वह राम आसरी की ओर मुँह करके बोली।

       राम आसरी ने गर्दन हिलाकर अपनी सहमति दी। दूसरे दिन नाश्ते के बाद मालकिन ने राम आसरी को कहा कि वह अपने बेटे को स्कूल में छोड़ आए, उसने इस बारे में मास्टर जी को बोल दिया है।  सुनकर राम आसरी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने बच्चे को नहलाकर नए कपड़े पहनाए। कपड़े के बूटों की एक जोड़ी वह खरीद कर पहले ही ले आई थी। जुराबें डालकर उसने कपड़े के बूट पहनाए और फिर स्कूल बैग में किताब, कापी और पैंन्सिल डालकर उसे स्कूल की तरफ लेकर चल पड़ी। स्कूल में पहुँच कर उसने मास्टर जी को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर बोली:

       ‘मास्टर जी! हमारे मुन्ना को अपने स्कूल में रख लो, मालकिन ने बोला है।’

       उसकी बात सुनकर मास्टर जी हँस पड़े। उन्होंने अपने मेज की दराज में से एक फार्म निकाला और उसे भरने के लिए राम आसरी से पूछने लगे:

       ‘बच्चे का नाम क्या है?’

       ‘मुन्ना।’ वह बोली। 

       ‘अरे नहीं! मुन्ना तो घर का नाम है। इसका असली नाम क्या है?’ मास्टर जी बोले।

       ‘असली क्या होता है?’ वह बोली।

अब मास्टर जी उसे क्या समझाते कि असली और नकली में क्या फर्क होता है। कुछ सोचकर बोले:

       ‘तुम्हारा क्या नाम है?’

       ‘राम आसरी।’ वह बोली।

       ‘हाँ, इसी तरह इसका भी असली नाम बताओ।’ मास्टर जी उसे समझाते हुए बोले।

       ‘अब असली का तो हमें पता नहींI हम तो मुन्ना ही बुलाते हैं। साहिब, हम तो अनपढ़ गंवार हैं, हमें असली का पता नहीं। आप किताब पढ़ना जानते हो, तुम्हीं पता कर लो असली नाम का।’ वह हाथ जोड़कर बोली।

       मास्टर जी समझ गए कि वह बेचारी सीधी-साधी अनपढ़ महिला है और शायद अब तक इसने बच्चे का नाम नहीं रखा होगा। वह राम आसरी की ओर देखते हुए पूछने लगे:

       ‘मैं रख दूँ इसका नाम?’

       हाँ साहिब।’ उसने सहमति स्वरूप अपनी गर्दन हिलाई।  मास्टर जी ने थोड़ा सोचा और फिर बच्चे की ओर देखा। बच्चे के चेहरे को देखकर उन्हें एक विलक्षण बुद्धि का सा आभास हुआ, मानो वह कोई देव शक्ति का पुंज हो। उनके मुँह से बरबस ही निकला- ‘देव’ और वह बोले:

       ‘मैं इसका नाम देव कुमार रख दूँ?’

       ‘रख दो साहिब।’ राम आसरी ने फिर अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।

       नाम लिखने के बाद मास्टर जी फिर पूछने लगे:

       ‘इसके पिता जी का क्या नाम है?’

       अब राम आसरी क्या नाम बतलाती? वह चुप रही। मास्टर जी ने सोचा कि शायद यह नाम बताने में शर्म महसूस कर रही है। वह उसकी ओर मुँह करके बोले:

       ‘अरे भाई! इसमें शर्माने की क्या बात है। जब बच्चा दाखिल  करवाना है तो पिता का नाम तो लिखवाना ही पड़ेगा। बोलो क्या नाम है?’

       राम आसरी बच्चे के पिता का नाम तो जानती नहीं थी। उसने मन ही मन सोचा कि यह तो भगवान ही जानता है कि उनका नाम क्या है। उसने मास्टर जी की ओर देखा और उसके मुँह से बरबस ही निकल पड़ा:

       ‘राम जाने।’

       ‘अच्छा, ठीक है। तुम्हारी तरफ हर आदमी के नाम के साथ राम शब्द जरूर जोड़ते हैं। और उन्होंने पिताजी के कॉलम में 'राम जाने' लिख दिया। फिर बोले:

       ‘बच्चे की जन्म तिथि क्या है?’

       ‘अब हमें तो मालूम नहीं। अब नाम की तरह उसे भी अपने आप असली लिखलो।’ वह भोलेपन मे बोली। 

       उसकी नादनी पर मास्टर जी जोर से खिलखिला कर हँस पड़े। परन्तु राम आसरी यह समझ नहीं पा रही थी कि मास्टर जी उसकी बात पर क्यों हँस रहे हैं। वह मूक दर्शक बनकर उनकी ओर देखती रही। मास्टर जी को इस प्रकार हँसते हुए देखकर दूसरे बच्चे भी अपना मुंह खोलकर विस्मित आँखों से मास्टर जी की ओर देखने लगे। मास्टर जी अपनी हँसी बड़ी मुश्किल से रोक पाए। जब थोड़ा सम्भले तो राम आसरी से कहने लगे:

       ‘कोई बात नहीं, मैं खाना खाली छोड़ देता हूँ। जब याद आएगी तो बता देना। घर जाकर आराम से सोचना, कोई घबराने की बात नहीं है। इसे बाद में लिख लूँगा। अब तुम बच्चे को यहाँ छोड़ जाओ, जब छुट्टी होगी तो ले जाना। और हाँ, दाखिले के पैसे तुम्हारी मालकिन दे गई है। ठीक है, अब तुम जा सकती हो। यह कहकर मास्टर जी ने फार्म को रजिस्टर के अंदर डाल दिया और उसे एक तरफ रखकर बच्चों को पढा़ने लगे।

       राम आसरी बच्चे की ओर मुड़-मुड़कर देखती हुई स्कूल से बाहर निकल गई। बच्चा भी उसकी ओर एकटक निगाह लगाए  देखता रहा। उसके चेहरे पर रह-रह कर रोने के भाव आ रहे थे, परन्तु अन्य बच्चों को बैठा देखकर वह चुप कर गया। स्कूल आने जाने का यह सिलसिला रोज चलता रहा। प्रत्येक सुबह राम आसरी उसे स्कूल छोड़ आती और छुट्टी होने के पश्चात् वह उसे वापस ले जाती। देव- कुमार भी अब इस दिनचर्या में अभ्यस्त हो चुका था। परन्तु कभी-कभी सोते वक्त उसे अपनी माँ की याद आ जाती तो वह जिद करने लगता। ऐसे में राम आसरी उसे बड़ी सूझ-बूझ से दूसरी बातों की ओर ले जाती। वक्त के साथ-साथ वह पिछली बातों को भूलने लगा और राम आसरी को ही अपना सब कुछ मानने लगा था। राम आसरी भी अब पहले से काफी चुस्त-दुरूस्त हो गई थी तथा शहरी रहन-सहन, खान-पान व पहनावे का उसे काफी ज्ञान हो चुका था। देव कुमार सुन्दर तो था ही, परन्तु राम आसरी के लालन-पालन और प्रेम ने उसे और भी निखार दिया था। हर देखने वाला यही समझता था कि वह किसी अच्छे माता-पिता की संतान है। बुजुर्ग दंपति कईं बार मजाक में राम आसरी को पूछते कि सच बता तू  इसे कहाँ से लेकर आई है? यह तेरा बेटा तो लगता नहीं। शुरू-शुरू में तो राम आसरी सुनकर स्तब्ध रह गई थी, परन्तु बाद में वह बात को हँस कर टालने लग गई थी। देव कुमार भी उन के साथ काफी हिल-मिल चुका था। वह रोज शाम को बुजुर्ग के साथ खेलता और उन्हें भी अपना सूना वक्त गुजारने का यह एक अच्छा अवसर मिल जाता था। वह जब घर पर होते तो शाम को बाहर बरामदे में बैठकर उसे पढ़ाते भी थे। उनमें एक प्रकार का दादा और पोते का रिश्ता कायम हो चुका था। इस प्रकार दो वर्ष बीतते हुए पता ही नहीं चला कि कब और कैसे इतना समय निकल गया।