बड़ी माँ - भाग 10 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 10

10

मुन्ना द्वारा चैथी कक्षा पास करते ही राम आसरी वह मकान खाली करके किसी दूसरी जगह चले जाना चाहती थी। इसलिए उसने, जिस लाला से राशन का सामान लेती थी, उससे मकान मालिक को चिट्ठी लिखवाकर अपनी मंशा से अवगत करवा दिया था। टेलीफोन पर काफी समझाने-बुझाने के पश्चात् भी जब राम आसरी टॅस से मस नहीं हुई तो उन्होंने कहा कि जब वह मकान छोड़कर जाए तो चाबी पड़ोसियों के यहाँ सौंप जाए। काफी मशकत करने के बाद उसने चण्डीगढ़ के सैक्टर सात में एक कोठी की अनैक्सी में एक कमरा किराये पर लिया और मनीमाजरा का कमरा छोड़कर वहाँ पर रहने लगी। सैक्टर छब्बीस की आनाज मण्डी में आने-जाने के कारण पहले ही दूकान वालों से उसकी जान पहचान हो चुकी थी। इसलिए उसने आग्रह करके एक दूकान के आगे सब्जी की फड़ी लगानी शुरू कर दी। आमदन इतनी थी कि गुजर-बसर करने के लिए पर्याप्त थी। उसने अपनी संचित निधि में से मुन्ना के लिए अच्छे कपड़े, बूट और जुराबें खरीदे और एक दिन उसे उसी स्कूल में प्रवेश दिलवा आई जिसमें आचार्य जी पढ़ाते थे। परन्तु राम आसरी को थोड़ा झटका तो तब लगा जब उसे मुन्ना के लिए स्कूल की वर्दी के कपड़े पुनः सिलवाने पड़े। परन्तु इसमें भी उसे एक आनन्द का अनुभव हुआ। जिस मुन्ना की बेहतरी के लिए वह मुफ्त का मकान तक छोड़ आई थी, भला उसके सामने चंद रुपयों का खर्च क्या मायने रखता था। तभी तो उसके स्कूल आने-जाने का रिक्शा का खर्च भी वह उठा रही थी।

       राम आसरी के सभी काम लगभग पूरे हो चुके थे। रहने के लिए मकान मिल चुका था। पैसे कमाने के लिए रोजगार का प्रबन्ध हो चुका था और मुन्ना को स्कूल में दाखिला भी मिल चुका था। केवल समस्या रह गई थी कि स्कूल से छुट्टी के बाद मुन्ना घर अकेला कैसे रहेगा? कुछ दिन तो राम आसरी अपना काम बीच में ही छोड़कर घर आ जाती थी। परन्तु इस से उसकी आमदनी पर बहुत कुप्रभाव पड़ता था, क्योंकि ज्यादातर बिक्री तो शाम के समय ही होती थी। जबकि उसे उस समय मजबूरन घर वापस आना पड़ता था। उसे अपनी इस समस्या का कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा था। शाम तक काम पर बैठी रहे तो पीछे घर पर मुन्ना को कौन सम्भाले? और अगर मुन्ना को अपने साथ लेकर आए तो फिर वही समस्या जिसके कारण वह मनीमाजरा छोड़कर आई थी। वह किसी भी सूरत में यह नहीं चाहती थी कि उसके काम की वजह से बच्चे पर कोई मानसिक कुप्रभाव पडे़ और उसे अपने सहपाठियों के सामने शर्मिन्दा होना पड़े, जिसका एक ज्वलंत उदाहरण वह पहले स्कूल में देख चुकी थी। इतवार के दिन मुन्ना की छुट्टी होती थी, इसलिए उस दिन राम- आसरी भी घर पर रहती, जबकि इतवार को छुट्टी की वजह से सब से ज्यादा ग्राहक मण्डी में आते थे। राम आसरी का यों जल्दी घर आना और छुट्टी के दिन घर पर रहना मुन्ना के लिए कोई विशेष बात नहीं थी। वह तो बल्कि उसका साथ पाकर और अधिक खुश होता था। छुट्टी के दिन दोनों बैठकर खूब बातें करते। कभी-कभी तो वह राम- आसरी से कोई कहानी सुनाने की जिद भी करता और राम आसरी अपने बीते हुए वक्त की बात को ही कहानी का रूप देकर उसे बहलाने की कोशिश करती। इस प्रकार बातों में ही पूरा दिन निकल जाता। राम आसरी घर से मण्डी और फिर घर वापस और मुन्ना का घर से स्कूल तक का ही दायरा था। दोनों शहर से अनभिज्ञ थे। उनके सपनों का संसार तो माँ-बेटे के इस छोटे से दायरे में ही सिमट कर रह गया था। एक-दूसरे का साथ ही उन्हें इस पूरे शहर के आनन्द का अनुभव करा रहा था। अब मुन्ना के लिए राम आसरी यशोदा मैया से कम नहीं थी और राम आसरी की नज़रों में मुन्ना सचमुच में उसका कान्हा था। दोनों संसार की चिंताओं से मुक्त, अनभिज्ञ और अछूते थे। छुट्टी का दिन था। दोपहर का खाना खाने के बाद मुन्ना स्कूल का होम-वर्क करने के लिए बैठ गया। मास्टर जी ने छत्रपति शिवाजी की कहानी याद करने के लिए कहा था। मुन्ना हिंदी की किताब खोलकर कहानी पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते मुन्ना एक पंक्ति पर आकर अटक गया। लिखा था कि शिवाजी को महान योद्धा बनाने में उनकी माता जी जीजाबाई का बहुत बड़ा योगदान था। शिवाजी को बचपन में दी गई शिक्षा का प्रभाव उन पर जिंदगी भर रहा। माता जीजाबाई ने रामायण तथा महाभारत के उपदेशों द्वारा तथा हिन्दू योद्धाओं की उत्साहपूर्ण कहानियों के द्वारा उसके मन में वीरता तथा देश भक्ति की भावनायें पैदा कीं। कहते हैं कि महापुरुषों को महान बनाने में उनकी माताओं का भी बहुत योगदान रहा है। इसी प्रकार शिवाजी के जीवन को महान बनाने में जीजाबाई का प्रभाव एक सर्वोतम कारण था। बच्चे के हाथ में किताब देखकर उसकी और निहारते हुए राम- आसरी बोली:

       ‘बेटा, क्या बात है? तू पढ़ते हुए चुप होकर क्या देखने लग गया है?’

       ‘बड़ी माँ, किताब में लिखा है कि शिवाजी को महान बनाने में उनकी माता जी जीजाबाई का बहुत योगदान था। बड़ी माँ, आप शिवाजी के बारे में जानती हो?’ वह बोला।

       ‘अब बेटा, मैं तुझे क्या बताऊँ? मैं तेरी तरह पढ़ी लिखी थोड़े न हूँ। जब तू पढ़कर मुझे सुनाएगा तभी तो मुझे पता चलेगा।’ राम- आसरी ने अपनी मजबूरी बताई।

       ‘अच्छा ठीक है। अगर शिवाजी के बारे में पता नहीं है तो जीजाबाई के बारे में बताओ, वह पढ़ना लिखना जानती थी कि नहीं?  वह बड़े भोलेपन से बोला।

       ‘हिं......हिं.....हिं.....बेटा, तू भी कमाल करता हैं। बेटा तो माँ से छोटा ही हुआ न। जब उसके बारे में कुछ मालूम नहीं है तो माँ के बारे में क्या पता होगा मुझे।’ राम आसरी जोर से हँसती हुई बोली।

       ‘ठीक है बड़ी माँ, मैं आपकी बात मान लेता हूँ। पर आप यह तो जानती होंगी कि माताएं अपने बच्चों को महान कैसे बनाती हैं? क्या सभी माताएं ऐसा करती हैं?’ वह किताब को नीचे रखकर राम- आसरी का हाथ पकड़ता हुआ बोला।

       उसकी यह बात सुनकर राम आसरी ने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली और भरे गले से बोली:

       ‘हाँ बेटा, माताएं होती ही ऐसी हैं। माँ को दुनिया में अगर कोई सब से सुन्दर और प्यारा लगता है तो वह है उसका बच्चा। इंसान तो समझदार है, परन्तु पशु-पक्षी भी अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। उनकी सलामती के लिए अपनी जान तक भी दे देते हैं।’

       ‘फिर तो बड़ी माँ, आप भी मुझे महान बनाओगी। है न?’

       यह शब्द सुनकर राम आसरी की जुबान थरथराने लगी। वह जुबान से कुछ कहना चाहती थी, परन्तु उसकी आवाज बाहर नहीं  निकली। अगर कुछ बाहर निकला तो वे थे आँसू जो उसकी दोनों आँखों से टपक कर नीचे गिरने लगे। उसने अपनी आँखें धोती के पल्लू से ढाँप ली और दूसरी ओर मुंह फेरकर आँसूओं को पोंछ लिया। उसे इस प्रकार रोता हुआ देखकर मुन्ना के चेहरे से भी हँसी गायब हो गई। बड़े मायूस चेहरे से वह राम आसरी की ओर देखता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ, आप क्यों रो रही हो?’

       ‘नहीं तो, कौन कहता है मैं रो रही हूँ?’ राम आसरी अपने चेहरे पर आए भाव को छुपाते हुए बोली।

       ‘मैं देख तो रहा हूँ, आप अपने आँसू पोंछ रही थी।’ वह बड़ी मासूमियत से बोला।

       ‘नहीं बेटा, मैं क्यों रोऊँगी?’ मैं बच्चा थोड़े न हूँ। वो तो आँख  में धूल का कण आ गया था। तू अभी कह रहा था न कि माताएं अपने बच्चों को महान बनाती हैं। अगर वे बच्चों के सामने रोने लग जाएं तो बच्चे महान कैसे बनेंगे?’ राम आसरी बात को पलटती हुई बोली।

       ‘हाँ बड़ी माँ, ये बात तो ठीक है। मैं समझा आप रो रही थी। हिं......हिं.....हि।’ वह अपनी नादानी पर हँसने लगा। उसकी अबोध बातें सुनकर राम आसरी भी उसके साथ हँसने लगी। बड़ी माँ को अपने साथ हँसते हुए देखकर वह और जोर से खिलखिलाकर हँसने लगा। फिर दोनों एक दूसरे की ओर देखते हुए काफी देर तक हँसते रहे। बड़ी मुश्किल से जब हँसी रुकी तो मुन्ना पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, आपको भी इतवार की छुट्टी होती है, हमारे स्कूल की तरह?’

       ‘नहीं बेटा, मुझे किस बात की छुटटी होनी है? मैं तो अपना काम करती हूँ। मैं तुम्हारी तरह स्कूल थोड़े न जाती हूँ।, वह बोली।

       ‘तो फिर आप इतवार के दिन हमेशा घर पर ही क्यों रहती हो? अपने काम पर क्यों नही जाती?’ उसने प्रश्न किया। उसकी बात सुनकर राम आसरी थोड़ी देर के लिए चुप कर गई। फिर थोड़ा सोच कर बोलीः

       ‘क्योंकि बेटा, मैंने तुझे बड़ा आदमी बनाना है। मैं अगर काम पर चली जाऊँगी तो पीछे से तेरी देखभाल कौन करेगा? क्या तू अकेला घर पर रह पाएगा? मैं तो बेटा इसलिए रोज दिन में ही घर चली आती हूँ। हालांकि इस वजह से काम में काफी नुकसान होता है। पर बेटा मेरे लिए तेरे से बड़ी कोई चीज़ नहीं है। पैसे तो हाथ की मैल होते हैं, कभी आते हैं और कभी चले जाते हैं। तू अगर पढ़ लिखकर बड़ा बन गया तो पैसे ही पैसे हैं। इसके सिवाय और मुझे क्या चाहिए?’

       ‘पर बड़ी माँ पढ़ाई के लिए तो पैसे चाहिएं। हमारे मास्टर जी स्कूल में कह रहे थे कि अच्छी शिक्षा प्राप्त करने में बहुत पैसे खर्च होते हैं। हम यह पैसे कहाँ से लाएंगे?’ वह जिज्ञासा भरे शब्दों में पूछने लगा।

       ‘तू बेटा इसकी चिंता क्यों करता हैं? यह देखना मेरा काम है।  तेरा काम तो केवल पढ़ना है। इससे आगे सोचना अभी तेरा काम नहीं है। मैं ठीक कह रही हूँ न?’ राम आसरी उसे समझाती हुई बोली।

       ‘नहीं बड़ी माँ, मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। आपको अपना काम बीच में छोड़कर नहीं आना चाहिए। मास्टर जी कह रहे थे कि जो लोग अपना काम पूरा नहीं करते वे जिंदगी में कभी कामयाब नहीं होते। इस तरह तो आप मुझे महान कभी भी नहीं बना पाओगी।’

       ‘क्यों बेटा?’ राम आसरी ने प्रश्न किया।

       ‘क्योंकि आप अपना काम पूरा नहीं करती।’ वह बड़ों के अंदाज में बोला।

       ‘अच्छा! मेरे मास्टर जी, तो मैं अपना काम कैसे पूरा करूँ?’ वह मुस्कुराती हुई बोली।

       ‘आप मेरी वजह से घर पर न आया करो। मैं अब बड़ा हो गया हूँ। घर पर अकेला रह सकता हूँ। बस मेरे लिए खाना बनाकर रख दिया करो। मेरी बात ठीक है न बड़ी माँ?’ वह राम आसरी का दायाँ हाथ पकड़कर उसे ऊपर उठाते हुए बोला।

       ‘अच्छा बेटा, अब तुझ में इतनी हिम्मत है कि तू घर पर अकेला रह जाएगा? हूँ.......बोल।’ राम आसरी उसके चेहरे पर नज़रें टिकाकर पूछने लगी

       ‘क्यों....क्यों नहीं बड़ी माँ? जब आप इतनी मेहनत करती हो तो मेरा भी तो फर्ज बनता है कि मैं आपकी मद्द करूँ।’ वह बड़े इत्मीनान से बोला।

       ‘अच्छा तो ठीक है, मैं कुछ दिन तेरी बात मानकर देखती हूँ। पर बेटा मेरा मन नहीं मानता कि मैं तेरे को इस तरह घर अकेला रखूँ। अभी तू बच्चा है, इस तरह अकेले रहना तेरे बस की बात नहीं है।’

       ‘बिल्कुल झूठ, बड़ी माँ बिल्कुल कोरा झूठ। आप भी झूठ बोलने लगी हो?’ वह एकदम खड़ा होकर बोला।

       ‘वो कैसे बेटा?’ राम आसरी विस्मित आँखों से उसकी ओर देखती हुई बोली।

       ‘हमारे मास्टर जी कल ही तो पढ़ाते हुए क्लास में कह रहे थे कि देव कुमार बड़ा मेहनती और हिम्मत वाला लड़का है। और......और दूसरे बच्चों को समझा रहे थे कि तुम्हें भी इस से सीख लेनी चाहिए।’ वह राम आसरी के सामने थोड़ा तन कर बोला।

       ‘सच बेटा! मास्टर जी ने ऐसा कहा था?’

       ‘हाँ बड़ी माँ, मास्टर जी अक्सर ऐसा कहते रहते हैं।’

       ‘बेटा, मेरा दिल कहता है तू सचमुच में एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।’ यह कहते हुए राम आसरी ने खड़े होकर उसे अपनी छाती से लगा लिया। माँ की ममता का यह बंधन न चाहते हुए भी आखिर उसे छोड़ना ही पड़ा। राम आसरी भारी मन से नीचे बैठ गई और बोली:

       ‘बेटा, मैं तो अब आराम करती हूँ। तू अपना स्कूल का काम पूरा कर ले और फिर सो जाना। ठीक हे न?’

       ‘ठीक है बड़ी माँ।’ वह अपनी गर्दन हिलाते हुए बोला।

       राम आसरी उठकर आराम करने के लिए चारपाई पर लेट गई और मुन्ना अपनी किताब से छत्रपति शिवाजी का पाठ याद करने में व्यस्त हो गया।

       दूसरे दिन सोमवार को कक्षा में पढ़ाते हुए मास्टर जी के मन में अचानक ही विचार आया और वह छात्रों की ओर देखते हुए पूछने लगे:

       ‘बच्चों! तुम चण्डीगढ़ के बारे में क्या जानते हो?'

 मास्टर जी  के प्रश्न के उत्तर में केवल एक छात्र ने अपना हाथ ऊपर उठाया। बाकी छात्र मास्टर जी से नज़रें चुराकर नीचे की ओर देखने लगे। आज पहली बार देव कुमार अपने आपको असहाय महसूस करने लगा। क्योंकि उसने अभी तक अपने स्कूल और घर के सिवाय चण्डीगढ़ देखा ही नहीं था। मास्टर जी ने सभी छात्रों की ओर नज़र दौड़ाई और फिर ऊपर हाथ किए हुए छात्र से बोले:

       ‘हाँ बेटा बोल, तुम चण्डीगढ़ के बारे में क्या जानते हो?’

       ‘जी, चण्डीगढ़ बहुत खूबसूरत शहर है।’ वह एक ही साँस में बोल गया।

       ‘और?’ मास्टर जी ने आगे प्रश्न किया।

       ‘जी, चण्डीगढ़ बहुत साफ-सुथरा शहर है।’ वह पहले की तरह बोला।

       ‘और?’ मास्टर जी फिर बोले।

       अब लड़का घबरा गया। वह चुपचाप मास्टर जी की ओर देखने लगा जैसे मेमना बाघ केा देखता है। मास्टर जी समझ गए कि बच्चा घबरा गया है। वह उसकी ओर देखते हुए बोले:

       ‘शाबाश बेटा, बैठ जाओ।’

       यह सुनकर लड़का चुपचाप अपनी जगह पर बैठ गया। मास्टर जी आराम से कुर्सी पर बैठते हुए बोले:

       ‘बच्चों, तुम सब चण्डीगढ़ में रहते हो फिर भी तुम्हें अपने शहर के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। देखो ऐसा नहीं होना चाहिए। ज्यादा नहीं तो कुछ खास बातों के बारें में ज्ञान होना जरूरी है। इस शहर की संरचना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की तो है ही, इसके अलावा भी इस शहर की कुछ विषेषताएं हैं। यहाँ पर रोज गार्डन है, दुनिया भर में अनूठा रॉक गार्डन है, झील है जो इस शहर की खूबसूरती को चार चाँद लगाती हैं। इसके अलावा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय है। और भी दर्शनीय स्थान व इमारतें हैं। तुम्हें इन सब चीज़ों के बारे में पता होना चाहिए। जिन्हें अपनी मातृभूमि व संस्कारों का पता नहीं होता, वे भी भला कोई इंसान होते हैं। वे तो जानवरों से भी बदतर होते हैं। तुम छुट्टी वाले दिन अपने माता-पिता जी से कहना कि वे तुम्हें चण्डीगढ़ घूमाएं। ठीक है? मेरी बात समझ गए न?’

       ‘हाँ जी।’ सभी बच्चे एक स्वर में बोले।

       ‘तो ठीक है, अगली दफ़ा मैं तुमसे फिर पूछूँगा।’ यह कहकर मास्टर जी बच्चों को किताब से पढ़ाने लगे।

       शाम को खाना खाने के पश्चात् जब राम आसरी रसोई का काम निपटाकर मुन्ना के पास बैठी तो वह बोला:

       ‘बड़ी माँ, आप इस इतवार के दिन छुट्टी कर लेना।’

       यह बात सुनकर राम आसरी की हँसी बहुत जोर से निकल गई। उसके बार-बार कोशिश करने पर भी उसकी हँसी थमने का नाम नहीं ले रही थी। मुन्ना को समझ नहीं आ रहा था कि इसमें हँसने की क्या बात है? वह अवाक् सा राम आसरी की ओर एकटक नज़र से देखता रहा। जब राम आसरी हँसते हुए थक चुकी तो वह कहने लगी:

       ‘बेटा........बेटा.......यह क्या बात हुई? अभी एक दिन की ही तो बात है, कल तू मुझे कह रहा था कि बड़ी माँ मैं अब बड़ा हो गया हूँ। घर पर अकेला रह सकता हूँ। फिर यह अचानक क्या हो गया है।  सचमुच मैं तो कुछ समझ नहीं पा रहीं हूँ।’ कहते हुए वह मुन्ना की ओर देखने लगी। परन्तु उसकी ओर से कोई  प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। वह तो एकदम गम्भीर था। एकटक नज़र से अपनी बड़ी माँ की ओर निहारे जा रहा था। उसे इस प्रकार देखकर राम आसरी को कुछ चिंता हुई। बेटे के सिर पर अपना दायाँ हाथ आहिस्ता से रखकर बोली:

       ‘बेटा, क्या बात है? शाबाश, मुझे बता क्या बात है? बड़ी माँ से कैसी शर्म। क्या स्कूल में कोई बात हुई है? मुझे बता बेटा क्या स्कूल में किसी ने कुछ कहा है?’ वह मुन्ना के चेहरे पर आँखें गड़ाए पूछने लगी।

       ‘नहीं बड़ी माँ, मुझे स्कूल में किसी ने कुछ नहीं कहा है।’ वह गर्दन हिलाता हुआ बोला।

       ‘फिर बेटा तू इतना चुपचाप क्यों है? और मुझे घर पर रहने के लिए क्यों बोल रहा है?’ राम आसरी प्रश्नात्मक लहजे में बोली।

       ‘बड़ी माँ, मुझे आज पहली बार स्कूल में शर्मिंदा होना पड़ा है। मैं मास्टर जी के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका।’ वह गम्भीर मुद्रा में बोला।

       ‘वो क्यों बेटा?’ राम आसरी ने कारण जानना चाहा।

       ‘बड़ी माँ, मास्टर जी पूछ रहे थे कि तुम चण्डीगढ़़ के बारे में क्या जानते हो? अब जब मैंने चण्डीगढ़ देखा ही नहीं तो क्या बताता?  मैं चुपचाप बैठा रहा। मास्टर जी ने कहा कि बच्चों तुम अपने माता-पिता जी से कहना कि वे तुम्हें चण्डीगढ़ घूमाएं। बड़ी माँ, मैं चण्डीगढ़ देखना चाहता हूँ। मास्टर जी कह रहे थे कि चण्डीगढ़ में रोज गार्डन है, रॉक गार्डन है और एक बहुत सुंदर झील है। इतवार को बड़ी माँ हम झील देखकर आएंगे। चलोगी न मेरे साथ?’ वह प्रश्नात्मक दृष्टि से राम आसरी के चेहरे की ओर देखता हुआ बोला।

       ‘हाँ बेटा, मैं चलूँगी तेरे साथ। मैं तुझे झील अवश्य दिखाऊँगी।’ राम आसरी मुस्कुराती हुई बोली।

       बड़ी माँ की बात सुनकर मुन्ना भी खुश हो गया। पूरा सप्ताह  इंतजार में बड़ी मुश्किल से गुजरा। उसे एक-एक पल भारी लग रहा था। वह तो हर पल इसी ताक में था कि कब इतवार आए और कब वह बड़ी माँ के साथ झील देखने के लिए जाए। आखिर वह दिन भी आ गया। वह सुबह ही जल्दी से तैयार हो गया। परन्तु बड़ी माँ तो आराम से काम कर रही थी। मुन्ना से उसकी यह बेरुखी सहन नहीं हो पा रही थी। वह कभी अंदर जाता और कभी बाहर आता। आखिर तंग आकर वह बोल ही पड़ा:

       ‘बड़ी माँ, कितनी देर हो गई है? कब चलोगी?’

       ‘चलेंगे बेटा, थोड़ा सब्र करो। पूरा दिन बाकी पड़ा है। ऐसे भूखे पेट थोड़े न निकल जाएंगे। खाना खाकर चलेंगे तभी तो कुछ देर रुकेंगे।’ वह उसे समझाती हुई बोली।

       ‘तो फिर जल्दी बनाओ न खाना। ऐसे तो पूरा दिन घर पर ही निकल जाएगा।’ वह मुँह फूलाता हुआ बोला।

       ‘तू चिंता मत कर बेटा, मैं तुझे आराम से घुमाकर लाऊँगी। पहले तू पेट भरकर खाना खा ले। फिर हम दोनों आराम से घूमेंगे।’ वह खाना बनाती हुई बोली।

       छुट्टी का दिन था। सुबह से ही आकाश में बादल छाए हुए थे। हलकी-हलकी हवा भी चल रही थी। कुल मिलाकर घूमने के लिए बहुत ही सुहावना मौसम हो रहा था। राम आसरी जानती थी कि ऐसे मौसम में तो लोग पूरा दिन बाहर घूमने का आनंद उठाते रहते हैं। यदि वे थोड़ा देर से भी निकले तो भी कुछ न कुछ लोग उन्हें घूमते-फिरते जरूर मिल जाएंगे। इत्मीनान से खा-पीकर वे अपने घर से सैक्टर-26 की ओर चल पड़े। राम आसरी ने सुन रखा था कि मण्डी से लगती सड़क झील की ओर जाती है। अन्य सड़कों के बारे में उसे कोई ज्ञान नहीं था। इसलिए वह इसी सड़क से झील पर पहुँचने के लिए चल पड़ी। सड़क की ओर वह स्वयं चल रही थी और पटरी की ओर मुन्ना चल रहा था। जब भी वह दूसरी ओर चलने की कोशिश करता वह उसे फिर पटरी की ओर चलने के लिए कह देती। वह सड़क पर चलते हुए उसके लिए किसी भी प्रकार का ख़तरा मोल लेना नहीं चाहती थी।

       ज्योंही वे पंजाब लोक प्रशासन संस्थान की इमारत के पीछे से होते हुए गोल्फ कोर्स के मैदान के नज़दीक पहुँचे, वहाँ पर कुछ बिहारी मजदूरों के बच्चे सड़क के किनारे खेल रहे थे। उन्हें खेलता हुआ देखकर मुन्ना का भी मन हुआ कि वह उनके बीच में जाकर खेले। परन्तु उनसे तो कोई जान-पहचान थी नहीं, सो मन मारकर आगे निकल गया। आगे कुछ नेपाली लड़कियाँ गोल्फ कोर्स की  बाहरी सीमा के साथ उगी हुई झाड़ियों में से सूखी लकड़ियाँ निकाल रही थी। उन्हें देखकर उसे अपने पुराने दिनों की याद आ गई जब जंगल में रहते हुए क्वार्टज में रहने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के बच्चे जंगल से इसी प्रकार सूखी लकड़ियाँ बीन कर लाया करते थे। वह वहाँ पर रुक कर उन्हें देखने लगा। उसे यह दृष्य बहुत ही मन भावन लग रहा था। राम आसरी अपनी चाल में चली जा रही थी। लगभग दस कदम आगे जाकर जब उसने अपने बगल में देखा तो मुन्ना को न पाकर उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह बदहवास सी हुई इधर-उधर देखने लगी। मुन्ना को पीछे खड़ा देखकर वह कांपती हुई आवाज में बोली:

       ‘बेटा, तू यहाँ खड़ा होकर क्या कर रहा है? इधर जल्दी आ। मैं पागलों की तरह चली जा रही हूँ और तू चुपचाप पीछे खड़ा है। जल्दी भागकर आ।’

       वह भागकर राम आसरी के पास पहुँचा ही था कि तभी गोल्फ कोर्स में बॉल उनसे थोड़ी दूरी पर आकर गिरी। उसने बॉल की ओर देखा तो उसे कुछ दूरी पर एक उम्र-दराज व्यक्ति हाथ में छड़ी पकड़े नज़र आया। मुन्ना के साथ राम आसरी भी उस ओर देखने लगी। उस आदमी के पीछे-पीछे एक लड़का पीठ पर लटकाए एक लम्बे थैले में काफी छड़ियाँ लेकर चल रहा था। बॉल के पास आकर उस व्यक्ति ने थैले में से एक दूसरी छड़ी निकाली और खड़े होकर छड़ी के मुड़े हुए सिरे से बॉल को उछाल कर दूर फेंक दिया। मुन्ना के लिए यह एक कौतूहल से कम न था। वह राम आसरी की ओर मुँह करके पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, इस आदमी को शर्म नहीं आती?’

       ‘क्यों बेटा?’ वह बोली।

       ‘इतना बड़ा होकर बॉल खेलता है। यह तो बच्चों का खेल है।’ वह बोला।

       राम आसरी को इस प्रश्न का उत्तर नहीं सूझा। उसने स्वीकारोक्ति स्वरूप अपने होंठ और सिर हिला दिए। फिर दोनों धीरे-धीरे वहाँ से आगे की ओर चल पड़े। थोड़ा आगे चलकर मुन्ना, राम- आसरी के आगे खड़ा होकर पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, वह आदमी बॉल को छड़ी से क्यों मार रहा था? वह हाथ से क्यों नहीं खेल रहा था?’

       ‘बेटा, शायद बड़ी उम्र की वजह से उसे झुकने में तकलीफ होती होगी, इसलिए खड़े होकर ही छड़ी से बॉल को उछाल रहा था।’ राम आसरी ने उसकी शंका दूर करने के लिए अपनी समझानुसार तर्क दिया।

       ‘हाँ...........यही बात होगी।’ वह अपनी गर्दन और सिर हिलाते हुए बोला। 

       आगे सड़क दो भागों में बंट गई, इसलिए उन्हें यह मालूम नहीं था कि किस ओर चलना है। राम आसरी ने खड़े होकर सड़क पर आते हुए एक साइकिल वाले से पूछा:

       ‘भैया! झील किस तरफ है? हमने झील पर जाना है।’ उसने साइकिल को बिना रोके ही अपने दाएं हाथ से इशारा किया और बोला:

       ‘ये बगल में झील ही तो है। उस तरफ सीढ़ियों से ऊपर चले जाओ।’

       उसका इशारा समझकर राम आसरी और मुन्ना दाएं तरफ मुड़ गए। थोड़ी आगे सड़क के किनारे गाड़ियाँ खड़ी करने के लिए पक्की जगह बनी हुई थी। जहाँ पर कुछ कारें और चार-पाँच स्कूटर व मोटर-साइकिल खड़े थे। एक कोने में एक रेहड़ी पर गोलगप्पे लिए एक आदमी खड़ा था। उसकी बगल में एक दूसरा आदमी साइकिल के कैरियर पर एक बड़ा सा पीतल का पतीला लगाए हुए खड़ा था, जिसमें उसने उबले हुए चने और बंद रखे थे। उन्हें देखकर राम आसरी मुन्ना से बोली:

       ‘बेटा, कुछ खाएगा?’

       ‘नहीं.......नहीं.......बड़ी माँ।’ कहता हुआ वह छलागें लगाकर सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। पत्थर की सीढ़ियों में कुछ ऊपर जाकर चैड़ाई बनी थी। वह वहीं पर जाकर रुक गया और जोर से बोला:

       ‘बड़ी माँ! आप बाताओ मैं कितनी सीढ़ियाँ चढ़ गया हूँ?’

       ‘अब बेटा मैं क्या बताऊँ? मैं क्या कोई इन्हें गिन रही हूँ?’ वह ऊपर चढ़ते हुए हाँफती हुई बोली। जब वह उसके पास पहुँची तो वह फिर भागकर ऊपर चढ़ने लगा। बिजली की दू्रत गति से वह पलक झपकते ही सिरे पर पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर उसने फिर जोर से आवाज लगाई:

       ‘बड़ी माँ! अब बताओ ऊपर कितनी सीढ़ियाँ हैं?’ चढ़ते हुए राम आसरी का साँस फूल रहा था। उसे सीढ़ियों की सुध कहाँ थी। वह दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ती और फिर साँस बाँधने के लिए रुक जाती। बड़ी मुश्किल से वह ऊपर पहुँची। उसके पहुँचते ही मुन्ना ने फिर प्रश्न कियाः

       ‘बड़ी माँ आपको पता है, हम कितनी सीढ़ियाँ चढ़कर आए हैं?’

       ‘ना बेटा।’ राम आसरी अपने उखड़े हुए साँस को शाँत करते हुए बोली।

       ‘मैं बतलाऊँ।’ वह बोला।

       ‘हाँ बेटा बता दो।’ राम आसरी ऐसे बोली मानो उसका बहुत भारी बोझ हलका हो गया हो।

       ‘बड़ी माँ, नीचे तैतीस और ऊपर चव्वन सीढ़ियाँ थी। बताओ कुल कितनी हुई?’

       ‘बेटा, यह भी तुम ही बतादो।’ राम आसरी लोहे के बैंच पर बैठती हुई बोली। 

       ‘एट्टी सेवन।’ वह गोलाई में चक्कर काटता हुआ बोला।

       ‘मैं क्या जानूँ तुम्हारा सेवन क्या होता है?’ वह उसे झूमते हुए देखकर हँसते हुए बोली।

       ‘अस्सी और सात।’ वह उसी तरह मस्ती करता हुआ बोला।

       आज राम आसरी, मुन्ना को देखकर बहुत खुश हो रही थी। चहल कदमी करने के पश्चात् थोड़ी देर बाद वह थककर राम आसरी के पास आकर बैठ गया। झील के साथ-साथ बनी सड़क पर काफी संख्या में बुजुर्ग, जवान आदमी और महिलाएं तथा छोटे-बड़े बच्चे इधर-उधर चलकर सुहावने मौसम का आनंद ले रहे थें। बाहर से आए हुए सैलानी भी बड़े कौतूहल से देखते हुए चल रहे थें। कहीं पर ग्रुप फोटो हो रही थी तो कहीं पर जवानी की दहलीज पर पाँव रखने वाले युवा जोड़े अपने हमसफर से जुड़ी यादों को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। किसी के लिए अपना महबूब चंदा से कम नहीं था तो उसके लिए अपनी जीवन संगिनी चाँदनी से भी सुंदर थी। झील की बाहरी मुंडेर की ओर दौड़ने के लिए ट्रैक बना हुआ था। कुछ जवान लड़के और लड़कियाँ ट्रैक सूट पहने हुए इधर से उधर भाग रहे थे। सड़क और ट्रैक के बीच में खाली जगह में थोड़ी दूरी पर खूबसूरत और रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। कुल मिलाकर बड़ा मनोरम और मनमोहक वातावरण बना हुआ था। मुन्ना ने आज पहली बार इतनी खूबसूरत जगह देखी थी। उसका मन कर रहा था कि काश उसके पंख होते तो वह उड़कर पूरी झील का नज़ारा ले लेता। सुंदर कपड़े पहने हुए छोटे बच्चे जब अपने माता-पिता के साथ अठखेलियाँ करते हुए निकलते तो उसका भी मन करता कि वह भी अपनी माँ और पिता जी के साथ ऐसे ही उन्मुक्त पक्षी की तरह चहकता हुआ चलता। थोड़़ी देर के लिए उसका मन भर आया। आँखों से आँसू निकलकर उसके गालों पर नीचे की ओर बहने लगे। राम आसरी ने जब उसे इस हालत में देखा तो बोली:

       ‘क्या हुआ बेटा? क्यों रो रहा है? मुझे बता क्या बात हुई है?’

‘कुछ नहीं हुआ बड़ी माँ।’ वह सिसकियाँ भरते हुए बोला।

राम आसरी ने उसे पकड़कर अपनी छाती से चिपका लिया।  वह समझ गई थी कि शायद उसे कोई पुरानी बात याद आ गई होगी। वह बैंच के ऊपर से उठी और उसकी बाजू पकड़कर झील के पश्चिमी छोर की ओर चलने लगी। बीच-बीच में रुककर वह झील में चलती हुई नावों को देखते और फिर आगे की ओर चल पड़़ते। मुन्ना की नज़र अचानक उन तीन पक्षियों पर पड़ी जिनकी शक्ल तो बिल्कुल काँवों से मिलती थी, पर शरीर से उनसे काफी कम वज़न के थे। वे हवा में उड़ते और फिर एकदम पानी में गहरी डूबकी लगाकर दस-पन्द्रह मीटर दूर जाकर पानी से बाहर निकलते। वे वहाँ पर खड़े होकर काफी देर तक उनका करतब देखते रहे। अभी वे चलने वाले ही थे कि बतखों का एक झुंड लाइन बनाकर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर उनके आगे से निकल गया। पक्षियों को देखकर मुन्ना अब पुरानी यादें भूल चुका था। जब बतखें काफी दूर निकल गई तो वे दोनों वहाँ से चल पड़े। तभी एक बुजुर्ग आदमी पतले पाइपों से बने एक चकोर फ्रेम, जिसके नीचे चार छोटे पहिये लगे थे, को आगे की ओर धकेल कर चल रहा था। मुन्ना के लिए वह एक नई पहेली थी।  वह राम आसरी से बोला:

       ‘बड़ी माँ, यह आदमी ऐसे क्यों चल रहा है?’

       ‘बेटा, यह बीमार होंगे, इसलिए।’

       ‘सभी बीमार लोगों को क्या ऐसे ही चलना पड़ता है?’ उसने आगे प्रश्न किया।

       ‘नहीं बेटा, टाँगों में कोई तकलीफ होगी।’ वह बोली।

       ‘अच्छा।’ कहकर वह आगे आने वाले लोगों की ओर देखने लगा। जब वे नावों के घाट के पास पहुँचे तो बतखें एक चक्कर पूरा करके वहाँ पहुँच चुकी थीं। वहाँ पर लोगों की भीड़ भी काफी थी।   राम आसरी, मुन्ना को अपनी बगल में बिठाकर उसे दूर जाती हुई नावों को दिखाने लगी। वह कभी झील में चलती नावों को देखता  और कभी बाहर घूमते हुए तरह-तरह के लोगों की ओर देखता। झील के बारे में वह आज ही सब कुछ जान लेना चाहता था।

       उसी समय झील के दूसरे किनारे की ओर से आचार्य जी और कौशल्या भी घूमकर उसी ओर चले आ रहे थे। कौशल्या बातों में मगन थी और आचार्य जी उसकी बातों पर हुँकारा भरते हुए चल रहे थे। कौशल्या उन्हें अपने रात को देखे हुए सपने के बारे में बता रही थी:

       ‘आप इतने ज्ञानी-ध्यानी आदमी हो, एक बात बताओ?’

       ‘हाँ बोलो।’ आचार्य जी ने पूछा।

       ‘क्या सपने कभी सच भी होते हैं?’

       ‘तुम्हारा कहने का मतलब?’ उन्होंने प्रश्न किया।

       ‘मतलब तो मैं कुछ नहीं जानती, अगर मुझे मतलब आता होता तो आपसे क्यों पूछती। मैं तो सिर्फ यह जानना चाहती हूँ कि क्या रात को देखे गए सपनें कभी सच होते हैं?’

       ‘हाँ, सुना है कि कभी-कभी सपने सच भी हो जाते हैं। पर तुम यह सब क्यों पूछ रही हो?’ वह कौशल्या के चेहरे की ओर देखते हूए बोले।

       ‘तो भगवान करे मेरा सपना भी सच हो जाए।’ वह आकाश की ओर देखती हुई बोली।

       ‘ऐसा क्या सपना देख लिया तुमने? आचार्य जी मुस्कुराते हुए बोले।

       ‘सपने में मुझे हमारा बेटा मिला है। शुबह का पहर होगा। एक बार आँख खुलने के बाद मुझे फिर गहरी नींद आ गई। मुझे ऐसा लगा मानो मैं और तुम एक सुंदर सी सड़क पर चले जा रहे हैं। सड़क के किनारे फूल खिले हुए थे। बिल्कुल ऐसा ही सुहावना मौसम था जैसा आज बना हुआ है। उस सड़क पर बहुत सारे लोग प्रसन्न मुद्रा में विहार कर रहे थे। मंद-मंद हवा में मानो संगीत लहरियाँ बह रही थी। सच पूछो तो मैं बखान नहीं कर सकती कि कितना मनोहारी दृष्य था। हम दोनों भी लोगों के हजूम के साथ चले जा रहे थे। मैं क्या देखती हूँ कि एक महिला, जिसने सफेद कपड़े पहने हुए थे, एक छोटे बालक को लिए हमारे आगे-आगे चल रही थी। उस बालक ने अचानक पीछे मुड़कर देखा तो मैं हैरान रह गई। वह हमारा बेटा था। उसे देखते ही मैं तो अपनी सुध-बुध खो बैठी और इतने लोगों के बीच में ही मैंने उसे बड़ी ऊँची आवाज में पुकारा। परन्तु उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी बेरूखी देखकर मैं उसे पकड़ने के लिए दौड़ी। परन्तु इस से पहले की मैं उसे पकड़ पाती, मेरी आँख खुल गई।’

       कौशल्या की बात सुनकर आचार्य जी हँस पड़े। परन्तु उनकी हँसी में सहजता नहीं थी। उसमें तो वियोग और विरह दोनों साफ झलक रहे थे। कौशल्या ने उनके चेहरे की ओर देखा और बोली: ‘अजीब बात है, आप तो मेरी बात पर हँस रहे हो।’

       ‘तुम्हारी बात पर हँसू ना तो क्या करूँ? कौशल्या तुम्हारी शेख-चिल्ली वाली बातें सुनकर तो किसी को भी हँसी आ सकती है। मैंने लाख कोशिश की है कि तुम अतीत की बातें सदा के लिए भूल जाओ। परन्तु एक तुम हो कि पूरी जिंदगी भर उन्हें संजोकर उनका बोझ ढोए जा रही हो। भला सोचो जो चला गया है, वह कभी लौट कर आया है? तुम्हारा सपना और कुछ नहीं, बल्कि तुम्हारी उस सोच का परिणाम है जिसमें तुम दिन-रात डूबी रहती हो। इसलिए भगवान से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें इस मोह-माया के जाल से दूर ही रखे। शेष बची जिंदगी को जीने का अब यही एक मूल मंत्र है।’

        यह बातें करते और चलते हुए वे राम आसरी और मुन्ना से मुश्किल से बीस-पच्चीस कदम दूर रहे होंगे कि तभी एक अंग्रेज लड़की, उम्र रही होगी कोई बीस या बाइस वर्ष की, वहाँ पर आकर रुकी। उसके साथ एक लगभग पच्चीस वर्ष की आयु का विदेशी सरदार लड़का भी था। वह राम आसरी और मुन्ना की बगल वाली सीढ़ियों से झील के पानी की ओर उतरने लगी। उसे देखकर मुन्ना ने अपना चेहरा सड़क की ओर से हटाकर उसकी ओर कर लिया और उसे देखने लगा। लड़की ने जीन की पैंट और काले रंग का कमीज पहन रखा था तथा पैरों में ऊँचे सैंडिल डाल रखे थे। दाएं हाथ की कलाई पर चाँदी की एक जंजीर लपेटी हुई थी। यह सब कुछ मिलाकर उसके गौर वर्ण व सुडौल शरीर पर खूब जम रहे थे। वह उतरकर सब से नीचे की सीढ़ी पर जाकर बैठ गई और वहाँ पर मौजूद बत्तखों को कुछ खाने की वस्तु डालने लगी। उसके साथ आया लड़का ऊपर ही खड़ा होकर उसका इंतजार करने लगा। तभी बदमाश किस्म के तीन लड़के उस तरफ आए और उनकी नज़र उस अंग्रेज लड़की पर पड़ी। वह कुछ देर के लिए रुके और फिर सीढ़ियाँ उतरकर उस लड़की के पीछे जाकर खड़़े हो गए। उन्हें इस प्रकार हरकत करते देखकर उस लड़की के साथ आया लड़का काफी व्याकुलता और असहायपन सा महसूस करने लगा। उसे पल-पल भारी लग रहा था कि किसी भी क्षण किसी अनहोनी या झगड़ें की नौबत आ सकती है। परन्तु उस लड़की ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने हाथ में पकडे़ छोटे-छोटे दानें बत्तखों को डालने में मगन रही। मुन्ना के लिए वहाँ पर खड़े बदमाश कोई मतलब नहीं रखते थे। क्योंकि वे क्या हैं? कहाँ से आए हैं? और उनका ध्येय क्या है? इन बातों से वह पूर्णतः अनभिज्ञ था। वह तो उस गोरे रंग की लड़की और उसके बत्तखों के प्रति प्रेम में मस्त था। सड़क की ओर पीठ होने की वजह से आचार्य जी तथा कौशल्या उसे देख नहीं पाए और वह बातें करते हुए आगे निकल गए। लड़की के हाथ में जब दानें समाप्त हो गए तो उसने अपने दोनों हाथ मिलाकर ताली मारकर झाड़े और उठकर शेरनी की तरह पीछे खड़े बदमाशों को देखा और फिर उनकी बगल से चुपचाप ऊपर की ओर निकल गई। उसके इस हौसले को देखकर तीनों बदमाश निर्जीव बुतों की तरह खड़े हुए उसे देखते ही रह गए। जैसे ही वह ऊपर पहुँची तो साथ वाले लड़के की जान में जान आई। उसने चैन की साँस ली और फिर वह उस लड़की को साथ लेकर आगे चलने की अपेक्षा पीछे की ओर मुड़कर वापस चल पड़ा। मुन्ना समझे या न समझे, परन्तु राम आसरी तो हर एक बात को समझती थी। उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। वह वहाँ से चले जाना ही बेहतर समझती थी। दूसरे समय भी काफी हो चला था, इसलिए भूख ने भी दस्तक दे दी थी। उसने मुन्ना को बाजू से पकड़कर उठाया और फिर उसे लेकर वापस घर की ओर चल पड़ी।